Monday, 6 June 2016

68 बाबा की क्लास (ज्ञान, कर्म और भक्ति)

68 बाबा की क्लास (ज्ञान, कर्म और भक्ति)
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राजू- बाबा! अनेक लोग प्रायः ज्ञान को और अन्य लोग कर्म को तथा बहुत से भक्ति को श्रेष्ठ कहते हुए विवाद करते पाये जाते हैं, आपका क्या मत है?
बाबा-  लोग विवाद इसलिये करते हैं क्योंकि वे इनका सही सही अर्थ नहीं जानते। सच्चाई यह है कि यह तीनों शब्द आध्यात्मिक प्रगति में क्रमागत अवस्थाओं को प्रकट करते  हैं। क्या करना चाहिये क्या नहीं इसकी जानकारी जुटाना ज्ञान, इस ज्ञान के अनुसार जीवन यापन करना कर्म और ज्ञान पूर्वक कर्म करने का परिणाम होता है भक्ति। परंतु यह बात भी सत्य है कि मोक्ष प्राप्त करने के जितने भी साधन हैं उन सब में भक्ति सर्वश्रेष्ठ है।

रवि- परंतु ऋषिगण तो कहते हैं कि अपने स्वरूप का अर्थात् आत्मतत्व का अनुसंधान करना ही भक्ति है?
बाबा- हाॅं, आत्मानुसंधान करके जिस सत्ता को तुम पाने का प्रयत्न करते  हो वह परमपुरुष तुम्हारा अंतरंग स्वयं है, उनसे तुम्हारा संबंध कानूनों या न्यायालयों या समाज के द्वारा पारिभाषित नहीं किया जाना है , उनसे तो तुम्हारा आत्मिक और पारिवारिक संबंध है। तुम्हारे मन में उनसे मिलने की इच्छा तभी जागती है जब वह स्वयं तुम्हारी ओर अपना लगाव बना लेते हैं, यह सब उनकी इच्छा से ही होता है। इसलिये यह एकपक्षीय नहीं द्विपक्षीय व्यवहार है। तुम एक कदम उनकी ओर बढ़ते हो तो वह बीस कदम तुम्हारी ओर आ जाते हैं जैसे छोटा सा बालक जब अपने आप चलने का प्रयास करते हुए एक दो कदम ही आगे बढ़ने पर गिर पड़ता है तो माता पिता कितनी ही दूर हों झट से दौड़ कर उसे गोद में उठा लेते हैं। इसलिये ईश्वर से तुम्हारा संबंध व्यक्तिगत है, यह संबंध कोई दूसरा अस्तित्व नहीं बना सकता, यह तुम्हारे अस्तित्व का भाग है, तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है।

नन्दू- तो ज्ञान अथवा ज्ञानी लोगों का महत्व ही क्या है?
बाबा- केवल ज्ञानी होने से कुछ प्राप्त नहीं हो जाता, उसका तभी तक उपयोग है जब तक भक्ति उत्पन्न नहीं हुई है। जब हम किसी कागज की प्लेट में लेकर, स्वादिष्ट भोजन का स्वाद लेते हैं तो स्वाद लेने के बाद उस गंदी प्लेट को डस्ट बिन में ही फेक देते हैं, सम्हालकर तो नहीं रखते ? यहाॅं, वह कागज की प्लेट ज्ञान, भोजन कर्म अैर स्वाद भक्ति को प्रदर्शित करता है। ज्ञान बड़ा भाई है, वह अपनी छोटी बहिन भक्ति का हाथ पकड़कर चलता जाता है, रास्ते में लोग पूछते हैं, अरे! यह  तुम्हारी बहिन है?  कितनी प्यारी बच्ची है! क्या नाम है तुम्हारा? कहाॅं जा रही हो? कौन सी कक्षा में पढ़ती हो? आदि आदि । तो ज्ञान का इतना ही रोल है, सभी आकर्षण भक्ति में ही है, प्रभावी भक्ति ही है इसीलिये ज्ञान से यह जानकर कि यह उसकी बहिन ही है अन्य लोग सभी बातें ‘भक्ति‘ से ही करते हैं ‘ज्ञान‘ से नहीं।

इंदु- तो ज्ञानी और कर्मी , कभी भक्त कहला  भी सकेंगे या नहीं?
बाबा- जिस प्रकार ज्ञानी का ज्ञान यदि भक्ति मिश्रित नहीं है तो वह उसके बंधन का कारण होता है उसी प्रकार भक्ति के स्पर्श बिना कर्मी का कर्म भी मुक्ति के मार्ग में सहायक नहीं होता। भक्ति में यह चिंतन होता है कि जो भी मैं करता हॅूं वह परमपुरुष को प्रसन्न करनें  के लिये करता हॅूं। ‘भक्तिः भगवतो सेवा‘ । समाज सेवा करते समय भक्त यह सोचता है कि वह समाज को नारायण के प्रत्यक्षीकरण के रूप में उन्हें प्रसन्न करनें के लिये ही सेवा कर रहा है। इसलिये ज्ञानी और कर्मी दोनों  से भक्त के अनुभव बिलकुल स्वतंत्र होते हैं, भक्त अपने मन में यही धारणा रखता है कि नारायण के अलावा किसी की सेवा नहीं कर रहा हूँ । ज्ञानी और कर्मी दोनों  यह भूल जाते हैं कि उनके ज्ञान पाने और कर्म करने की ऊर्जा का श्रोत परमपुरुष ही हैं और उन्हें अहंकार घेर लेता है जो उनकी मुक्ति के मार्ग में बाधायें  उत्पन्न करता है। वे लोग जो अपनी छोटी आयु से ही गलत कार्यों में लग जाते हैं बृद्धावस्था में वे कुछ नहीं कर पाते क्यों कि उनकी क्षमता नष्ट हो जाती है। इस प्रकार के शिक्षित लोग बुढापे में अशिक्षितों की तरह व्यवहार करने लगते हैं, क्या उनका मस्तिष्क अपनी चमक खो देता है? बुढापे में ज्ञानी और कर्मी अपनी प्रतिष्ठा खो बैठते हैं जबकि भक्त को यह देखना ही नहीं पड़ता। इसलिये वे जो अपनी प्रतिष्ठा को बचाना चाहते हैं उन्हें भक्त होना ही पड़ेगा। भक्त यह सोचता है कि परमात्मा की दी हुई बुद्धि और क्षमता से , उसके पास जो कुछ भी है वह केवल परमात्मा को प्रसन्न करने के लिये ही उपयोग में ला रहा है। यह सब समाप्त हो जाने के बाद भी वह अपने पास जो भी होगा उसी से उनकी सेवा करता रहेगा, जब कुछ न बचेगा तो प्रभु के पास जाकर कहेगा कि मुझे आगे का सेवा कार्य बताइये। इसे भक्ति कहते हैं।

चंदु- आपने समझाया तो है परंतु मुझे तो अभी भी थोड़ा थोड़ा कन्फ्यूजन है, वह यह कि कुछ भी हो कर्म तो करना ही होगा, बिना कर्म के ज्ञान नहीं आयेगा और जब ज्ञान ही न होगा तो ज्ञानपूर्वक कर्म ही कैसे हो पायेगा और फिर भक्ति तो ... ..?
बाबा- औसतन हर व्यक्ति 12 से 14 धंटे, केवल अपने बारे में सोचकर व्यतीत करता है। परंतु जिस क्षण से वह समग्र ब्रह्माॅंड के बारे मे सोचने लगता है तो वह कर्मसाधक हो जाता है। अपने आप को कर्म सागर एक छोटा सा बुलबुला समझ कर जब पूरा समय संपूर्ण ब्रह्माॅंड को समर्पित कर देता है तब कर्मसिद्धि होती है। चूॅंकि प्रत्येक व्यक्ति ब्रह्माॅंड का हिस्सा है अतः पूरे ब्रह्माॅंड की सेवा करने से वह भी अपने आप सेवित हो जाता है। जब यह भावना जाग्रत हो जाती है कि जो भी वह कर रहा है वह परमपुरुष को प्रसन्न करने के लिये ही है तो इसे भक्ति कहते हैं। मुक्ति मोक्ष पाना तो भक्त के वाॅंये हाथ का काम है, परंतु भक्ति बहुत कीमती ही नहीं,  अमूल्य  होती है । भक्ति तो पारसमणी है, जिसके पास होती है वह किसी भी क्षण मुक्ति मोक्ष नामक सोना बना सकती है। इस संबंध में एक कहानी बतायी जाती है, ‘‘ राम और लक्ष्मण नाव से गंगा पार कर रहे थे , राम के पैरों के स्पर्श होते ही नाविक की लकड़ी की नाव सोने की हो गयी । नाविक ने यह अपनी पत्नी को बताया तो वह घर का सभी लकड़ी से बना सामान लाने लगी ताकि राम के जादुई स्पर्श से उन्हें सोने में बदल सके। नाविक बोला कैसी मूर्खता करती है, एक एक वस्तु कहाॅं तक लायेगी, उन पैरों को ही अपने घर में आमंत्रित क्यों नहीं कर लेती जिनमें यह जादू है, इससे पूरा घर ही सोने का हो जायेगा? इस बात पर राम ने प्रसन्न हो उन्हें ‘‘काम, अर्थ, धर्म और मोक्ष‘‘ इन चार फलों का वरदान दे दिया। इसके बाद लक्ष्मण आये, और बोले, नाविक! तुम्हें ये चार फल मिल तो गये हैं परंतु वे फलित तब तक नहीं होंगे जब तक मैं तुम्हें केवल एक फल, जो मेरे पास है, नहीं दे देता! और वह फल हैै ‘भक्ति‘.. .. । इसीलिये, भक्ति इन चारों फलों से भी अधिक मूल्यवान है और वह इन चारों फलों को पाने के लिये पारसमणि की तरह है।

रवि- बाबा! कुछ लोग जो भक्ति के ऊपर लच्छे पुच्छेदार भाषा में  घंटों प्रवचन देते हैं उनका स्तर क्या ज्ञानी का ही होता है या भक्त का?
बाबा- वे लोग, जो भाषायी जादू का प्रदर्शन करते हैं वह ज्ञान स्पर्धा और शास्त्रार्थ के लिये तो ठीक है परंतु वे रहते बंधनकारी ही हैं । केवल व्याख्यान कौशल से मुक्ति नहीं पाई जा सकती जब तक कि उस ज्ञान को व्यवहार में नहीं उतार लिया जाता। शास्त्र कहते हैं कि
‘‘ वाक्वैखरी शब्दझरी, शास्त्रव्याख्यान कौशलम।
वैदुष्यम विदुषाम् तदवत् , भुक्यते न तु मुक्तये।‘‘
इसलिये जैसा समझाया गया है उस प्रकार व्यावहारिक ज्ञान की सहायता से आगे बढ़ते जाने का अभ्यास करना चाहिये।

नन्दू- कुछ विद्वान कहते हैं कि भक्त और भगवान में हमेशा झगड़ा होता रहता है, वह क्या है?
बाबा- हाॅं सही सुना।
‘‘भक्तिर्भगवतो सेवा भक्तिः प्रेमस्वरूपिनी, भक्तिरानन्दरूपा च भक्तिः भक्तस्य जीवनम्।‘‘
अर्थात् भक्ति परमपुरुष की सेवा है, प्रेमानन्द स्वरूपी वह, भक्त की प्रत्येक श्वास  और प्रश्वास  है। भक्ति =   भज् + क्तिन, अर्थात् प्रेम पूर्वक पुकारना, किसी को पूजना। इसमें  दो अस्तित्वों या सत्ताओं की आवश्यकता होती है,  एक वह जिसकी प्रशंसा की जाती है और दूसरा वह  जो प्रशंसा करता है। यहां ये दो अस्तित्व हैं भगवान, और भक्त। भक्त और भगवान में प्रेम का झगड़ा प्रारंभ से ही चला आ रहा है। भक्त कहते हैं भगवान बड़े हैं और भगवान कहते हैं कि भक्त बड़े हैं। दोनों के अपने अपने तर्क भी हैं, भक्त कहते हैं कि यदि भगवान उनके लक्ष्य न होते तो उन्हें आश्रय कहीं न मिलता और भगवान कहते हैं कि वह तो अनाम थे भक्त नहीं होते तो उन्हें नाम से पुकारने वाला कौन था, भक्तों ने उन्हें नाम दिया इसलिये वे ही बड़े हैं। इसलिये यह पारस्परिक अगाध प्रेम का झगड़ा है जिसमें आनन्द के अलावा कुछ नहीं है। दोनों एक दूसरे को आनन्दित करते हैं, इसे ‘मुक्ति‘ कहते हैं परंतु इसके आगे के स्तर पर जब भक्त और भगवान संबंधी द्वैतभाव समाप्त हो जाता है तब एकमात्र सच्चिदानन्दघन सत्ता ही बचती है और इसी में भक्त का पूरा अस्तित्व एकीकृत हो जाने की अवस्था को मोक्ष कहते हैं। इसी अवस्था को पाने के लिये सच्चे लोग आडम्बर को त्याग कर स्वस्वरूप के अनुसंधान में प्रारंभ से ही जुट जाते हैं।

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