67 बाबा की क्लास ( ओंकार )
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इंदु- बाबा! वैज्ञानिक कहते हैं कि इस ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति बिगबेंग के साथ अचानक ही हुई, परंतु विस्फोट जैसा कुछ नहीं हुआ ?
बाबा- वैज्ञानिकों के इस कथन पर चिंतन करो, ‘‘बिगबेंग, दस घात माइनस सेंतीस सेकेंड में, दस घात पन्द्रह केल्विन ताप के विकिरण के साथ, स्पेस टाइम में फैलता हुआ अचानक ही अस्तित्व में आया।‘‘ समय की सूक्ष्मता और ताप की अधिकता पर चिंतन करो? क्या वे यह भी बता सकते हैं कि यह बिगबेंग किस के द्वारा किया गया अथवा 3 से 100 गुणित दस घात बाईस सूर्य जैसे तारों की संख्या बराबर और 80 बिलियन गेलेक्सियों में वितरित यह पदार्थ कहाॅं से आया? ‘‘कुछ नहीं ‘‘ से ‘कुछ‘ कैसे उत्पन्न हो सकता है? निष्कर्ष यही है कि कोई ऐंसी सत्ता अवश्य है जिसकी इच्छा से यह सब हुआ और उनकी कल्पना से इस काॅसमस के उत्पन्न होने का प्रमाण है समय की अकल्पनीय अत्यंत कम अवधि होना । इसलिये वैज्ञानिक माने या नहीं परमसत्ता के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता इस काॅसमस के द्रश्य और अद्रश्य सभी पदार्थ उस ‘‘काॅस्मिक माइंड‘‘ की ही विचार तरंगें हैं।
रवि- इसका अर्थ, क्या यह नहीं है कि काॅस्मिक ऐन्टिटी, जिसे आप परमसत्ता कहते हैं, के काॅस्मिक माइंड की मूल आवृत्ति के भीतर ही यह सब कुछ हुआ?
बाबा- हाॅं , परंतु यह ध्यान रखो कि निर्गुण परमसत्ता यानि ‘‘कास्मिक ऐंटिटी,‘‘ की मूल आवृत्ति तो शून्य है परंतु जब वह अपने को व्यक्त करने के लिये ‘‘सगुणसत्ता‘‘ के अनेक रूपों का निर्माण करते हैं तो अनन्त प्रकार की आवृत्तियों को ‘काॅस्मिक र्माइंड‘ में ही उत्पन्न करते हैं और यह द्रष्ट प्रपंच आकार पाता है। इसीलिये कहा जाता है कि यह जो कुछ भी है वह ब्रह्म का ही सगुण रूप है और उनके मन में ही है, इसके बाहर कुछ नहीं है।
नन्दु- तो सगुण ब्रह्म की मूल आवृत्ति क्या है?
बाबा- सगुण ब्रह्म की मूल आवृत्ति में अनन्त प्रकार ( द्रश्य और अद्रश्य अस्तित्वों ) की आवृत्तियाॅं सम्मिलित होतीं हैं। इनमें सबकी उत्पत्ति अर्थात् निर्माण (ब्रह्मा), पालनपोषण अर्थात् (विष्णु) और आयु का समय अर्थात् लय (महेश) आदि, सभी कुछ सम्मिलित होते हैं, क्योंकि सगुण ब्रह्म सहित ये सब ‘टाइम और स्पेस ‘ में बंधे होते हैं। उपनिषद दर्शन में इसे ‘‘ ओंकार ‘‘ अथवा ‘प्रणव‘ कहा गया है। जिसने ओंकार ध्वनि का श्रवण कर लिया, फिर वह सब कुछ भूलकर उसके उद्गम की ओर बिना किसी की चिंता किये दौड़ पड़ता है। ध्यान रहे ब्रह्मा, विष्णु और महेश केवल दार्शनिक नाम हैं जो स्रष्टिचक्र में परमपुरुष की क्रियात्मक ऊर्जा की विभिन्न दशाओं को ही प्रकट करते हैं उनका कोई भौतिक स्वरूप नहीं है परंतु ये सभी स्रष्टि की संचर और प्रतिसंचर गतिविधियों के संचालन में सहायक होते हैं। पाश्चात्य दार्शनिकों ने इन्हें ही क्रमशः जनरेटर, आपरेटर और डिस्ट्रक्टर कहते हुए इन तीनों शब्दों के पहले अक्षर को लेकर जीओडी अर्थात् ‘गाड‘ कहा है और पुराणों में इन्हीं को विभिन्न कल्पनिक आकार प्रकार देकर समझाया गया है ।
चंदु- तो अनेक भक्तगण जो ओम ओम कहते हैं क्या वह यही है?
बाबा- हाॅं, कहते अवश्य हैं परंतु चूंकि ओंकार ध्वनि पचास प्रकार के अक्षरों अर्थात् स्वर और व्यंजनों की सम्मिलत ध्वनि होती है इसलिये कोई भी व्यक्ति एक साथ उसे अपने गले से उच्चारित ही नहीं कर सकता। उसे तो केवल अनुभव करने का अभ्यास करना होता है। यही अभ्यास करने के लिये प्रत्येक साधक या भक्त को अपनी मूल आवृत्ति अर्थात् ‘इष्ट मंत्र‘ की सहायता से इस काॅस्मिक आवृत्ति ‘ओंकार‘ के साथ अनुनाद करने की सलाह उनके गुरुगण देते हैं। यह अभ्यास करना ही असली पूजा या साधना करना कहलाता है अन्य सब आडम्बर है।
नन्दु- लेकिन बाबा! सभी स्वरों और व्यंजनों से बनी वर्णमाला तो आधुनिक है और स्रष्टि का प्रारंभ तो मनुष्यों की उत्पत्ति होने से भी पहले का है?
बाबा- हाॅं सही है, परंतु जब से स्रष्टि की प्रतिसंचर धारा मनुष्य अवस्था तक आई मनुष्य ने धीरे धीरे अपने और स्रष्टि के उद्गम को समझने का प्रयत्न प्रारंभ किया तथा अपने सभी प्रकार के ज्ञानानुभवों को ‘वेद‘ के नाम से अपने पश्चातवर्ती आगन्तुकों को मौखिक रूप से ही हस्तान्तरित करते गये। सुन सुन कर याद रखने के कारण वेद, श्रुति भी कहलाते हैं। चूूंकि सभी ध्वनियाॅं मुंह से ही उच्चारित की जाती थीं, उस समय तक लिपि का अनुसंधान नहीं हुआ था, अतः समय के वर्णक्रम को समझाने के लिये प्रत्येक स्वर और व्यंजन की ध्वनि उच्चारित करते हुए एक एक मुंह का आकार बनाते हुए ‘काल‘ अर्थात् ‘‘एटरनल टाइम फैक्टर‘‘ को प्रकट करने के लिये ‘कालिका‘ नामक मानवीय आकार को सभी पचास अक्षरों में से एक ‘अ‘ (अर्थात निर्माण) उच्चारित करते हुए हाथ में और शेष उनन्चास को अन्य अक्षर उच्चारित करते हुए उनकी माला बनाकर गले में पहने हुए दर्शाया जाता रहा, ताकि उसे देखकर लोग उनका सही उच्चारण करना सीखें। परंतु जैसा कि तुम लोग जानते हो कि बहुत बाद में पौराणिक काल में मार्कंडेय पुराण में वर्णित काली या दुर्गा को इन मुंडमालाओं से विभूषित कर दिया गया है जिसका पूर्व में कहे गये ‘एटरनल टाइम फैक्टर‘ या कालिका से कोई संबंध नहीं है। पुराणों की यथार्थता के बारे में तो तुम लोग पहले ही जान चुके हो।
राजू- परंतु बाबा! अनेक स्थानों और मंदिरों में भी बड़ा ‘ऊ‘ बनाकर चंद्र विन्दु लगाते हुए लिखा पाया जाता है और कहा जाता है कि इसका उच्चारण ‘ओम‘ है, भगवान का यही नाम है। इसलिये ‘‘ओम ओम‘‘ इस प्रकार का सभी भक्त लोग जाप भी करते देखे गये हैं?
बाबा- हाॅं। अभी अभी मैंने बताया है कि ओंकार ध्वनि का शुद्ध उच्चारण हो ही नहीं सकता क्योंकि वह पचास अक्षरों की आवृत्तियों का एकीकरण है। हिंदी वर्णमाला के इन सभी पचास अक्षरों को एक साथ प्रदर्शित करने के लिये इस प्रकार का संकेताक्षर बड़े ही सोच बिचार कर बनाया गया है। इसमें बड़ा ‘ऊ‘ ब्रह्म की सगुणता को अर्थात् ऊर्जा के ‘कायनेटिक‘ रूप को प्रकट करता है जिसमें ‘ अ‘, ‘उ‘ और ‘म‘ सम्मिलित होते हैं और क्रमशः उत्पत्ति, पालन और संहार का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनसे जुड़ी क्रियात्मक सत्ता को क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहा गया है। ( ‘अ‘ वर्णमाला का प्रथम अक्षर है अतः इससे उत्पत्ति का, ‘ऊ‘ स्वरों का मध्य अक्षर है इससे पालन का और ‘म‘ सभी व्यंजनों का अंतिम है इसलिये इसे मृत्यु का द्योतक माना गया है।) चंद्र बिन्दु के नीचे की ‘वक्राकार रेखा‘ निर्गुण से सगुण के बीच की क्रियात्मकता को और ‘बिंदु‘ निर्गुण ब्रह्म को अर्थात् ऊर्जा के ‘पोटेशियल‘ रूप को प्रदर्शित करते हैं। रेखागणित में, तुम लोग यह तो जानते ही हो कि बिंदु की स्थिति अर्थात् पोजीशन तो होती है परंतु विमायें अर्थात् डायमेन्शन्स नहीं, इसीलिये निर्गुण ब्रह्म को बिंदु से प्रदर्शित किया जाता है। इस प्रकार इस ‘‘ऊॅं‘‘ संकेताक्षर में सगुण और निर्गुण को एक साथ प्रदर्शित करने का प्रयास किया गया है और अपेक्षा की गयी है कि परम सत्ता के निर्गुण से सगुण होने की अवस्था में उत्पन्न ओंकार ध्वनि को इसी के माध्यम से अनुभव किया जाये।
रवि- तो जो लोग ओम ओम जोर जोर से चिल्लाते हैं उसका कोई महत्व है या नहीं?
बाबा- नहीं, चिल्लाने का कोई महत्व नहीं है, यह अच्छी तरह से मन में बिठा लो कि ओंकार ध्वनि तो ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के क्षण से ही समग्र स्रष्टि में व्याप्त है इसे ‘‘काॅसमिक साउंड आफ क्रियेशन‘‘ ही कहते हैं और लगातार अभ्यास करने पर मन से मन में ही अनुभव की जा सकती है। इसलिये यदि कोई ओम ओम चिल्लाता है तो व्यर्थ है क्योंकि जब तक उसके पीछे क्या रहस्य छिपा है यह ज्ञात न हो तो चिल्लाने से भी क्या होगा? और जब रहस्य पता चल जायेगा तो वह कुछ भी उच्चारित नहीं कर पायेगा और उसे अनुभव करने के अभ्यास में जुटना ही पड़ेगा। इसलिये तुम सब अपने अपने इष्ट मंत्र के सहारे बार बार ओंकार के साथ अनुनादित होने का अभ्यास किया करो, यही सब कुछ है, जिसने इसे अनुभव कर लिया उसने सब कुछ पा लिया। इसके पीछे विज्ञान यह है कि हम अपने ‘‘ऐंन्टिटेटिव रिद्म‘‘ और ‘‘इनकान्टिटेटिव रिद्म‘‘ में संतुलन बिठाते हुए ‘‘काॅस्मिक रिद्म‘‘ के साथ अनुनाद अर्थात् ‘‘रेजोनेन्स‘‘ स्थापित करें। इसी के सहारे हम स्रष्टि के उद्गम और उसके निर्माणकर्ता तक पहुंच पाते हैं।
इंदु- पर अधिकांश लोगों को तो यही उच्चारित करते और हर शुभ कार्य में प्रयुक्त करते देखा गया है तो क्या उनका यह करना बेकार है?
बाबा- यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि उन्होंने इस के गूढ़ार्थ को किस स्तर तक समझा और अनुभव किया है। तुम लोगों ने देखा होगा कि प्रशिक्षित हो जाने पर तोता कहता है राम राम , राम राम । सभी लोग सुनकर प्रसन्न होते हैं और तोते की तारीफ करते हैं। परंतु जब कुत्ता उसके पिंजरे पर झपटता है तो वह फड़फड़ाते हुए कहता है ट्विं ट्विं, ट्विं ट्विं , ट्विं .... । वह राम राम कहना भूल जाता है और अपने बचाव के लिये अपनी मूल भाषा में चिल्लाने लगता है, देखा न हो तो यह प्रयोग करके देख लेना। भावार्थ यही है कि बिना सोचे समझे , केवल दूसरे करते हैं या कहते हैं, इसलिये उनकी नकल कर कोई कार्य करने से कभी भी लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती । प्रत्येक संरचना अद्वितीय है, प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है, सबकी अपनी अपनी मूल आवृत्ति अर्थात् ‘‘ऐंन्टिटेटिव रिद्म‘‘ है, इसीलिये कोई भी दो व्यक्ति एक से नहीं होते। हमेशा से जैसा अभ्यास किया जाता है वही अंत में भी बना रहता है और अंत में जिस प्रकार की भावना होती है वैसी ही आगामी संरचना प्राप्त होती है। इसलिये आडम्बर और प्रदर्शन को छोड़कर बिना देर किये अपने अपने इष्ट मंत्र अर्थात् मूल आवृत्ति को पहचान कर काॅस्मिक आवृत्ति अर्थात् ओंकार के साथ अनुनादित करने के अभ्यास में जुट जाओ, तभी अपने मनुष्य होने का लाभ ले पाओगे।
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इंदु- बाबा! वैज्ञानिक कहते हैं कि इस ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति बिगबेंग के साथ अचानक ही हुई, परंतु विस्फोट जैसा कुछ नहीं हुआ ?
बाबा- वैज्ञानिकों के इस कथन पर चिंतन करो, ‘‘बिगबेंग, दस घात माइनस सेंतीस सेकेंड में, दस घात पन्द्रह केल्विन ताप के विकिरण के साथ, स्पेस टाइम में फैलता हुआ अचानक ही अस्तित्व में आया।‘‘ समय की सूक्ष्मता और ताप की अधिकता पर चिंतन करो? क्या वे यह भी बता सकते हैं कि यह बिगबेंग किस के द्वारा किया गया अथवा 3 से 100 गुणित दस घात बाईस सूर्य जैसे तारों की संख्या बराबर और 80 बिलियन गेलेक्सियों में वितरित यह पदार्थ कहाॅं से आया? ‘‘कुछ नहीं ‘‘ से ‘कुछ‘ कैसे उत्पन्न हो सकता है? निष्कर्ष यही है कि कोई ऐंसी सत्ता अवश्य है जिसकी इच्छा से यह सब हुआ और उनकी कल्पना से इस काॅसमस के उत्पन्न होने का प्रमाण है समय की अकल्पनीय अत्यंत कम अवधि होना । इसलिये वैज्ञानिक माने या नहीं परमसत्ता के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता इस काॅसमस के द्रश्य और अद्रश्य सभी पदार्थ उस ‘‘काॅस्मिक माइंड‘‘ की ही विचार तरंगें हैं।
रवि- इसका अर्थ, क्या यह नहीं है कि काॅस्मिक ऐन्टिटी, जिसे आप परमसत्ता कहते हैं, के काॅस्मिक माइंड की मूल आवृत्ति के भीतर ही यह सब कुछ हुआ?
बाबा- हाॅं , परंतु यह ध्यान रखो कि निर्गुण परमसत्ता यानि ‘‘कास्मिक ऐंटिटी,‘‘ की मूल आवृत्ति तो शून्य है परंतु जब वह अपने को व्यक्त करने के लिये ‘‘सगुणसत्ता‘‘ के अनेक रूपों का निर्माण करते हैं तो अनन्त प्रकार की आवृत्तियों को ‘काॅस्मिक र्माइंड‘ में ही उत्पन्न करते हैं और यह द्रष्ट प्रपंच आकार पाता है। इसीलिये कहा जाता है कि यह जो कुछ भी है वह ब्रह्म का ही सगुण रूप है और उनके मन में ही है, इसके बाहर कुछ नहीं है।
नन्दु- तो सगुण ब्रह्म की मूल आवृत्ति क्या है?
बाबा- सगुण ब्रह्म की मूल आवृत्ति में अनन्त प्रकार ( द्रश्य और अद्रश्य अस्तित्वों ) की आवृत्तियाॅं सम्मिलित होतीं हैं। इनमें सबकी उत्पत्ति अर्थात् निर्माण (ब्रह्मा), पालनपोषण अर्थात् (विष्णु) और आयु का समय अर्थात् लय (महेश) आदि, सभी कुछ सम्मिलित होते हैं, क्योंकि सगुण ब्रह्म सहित ये सब ‘टाइम और स्पेस ‘ में बंधे होते हैं। उपनिषद दर्शन में इसे ‘‘ ओंकार ‘‘ अथवा ‘प्रणव‘ कहा गया है। जिसने ओंकार ध्वनि का श्रवण कर लिया, फिर वह सब कुछ भूलकर उसके उद्गम की ओर बिना किसी की चिंता किये दौड़ पड़ता है। ध्यान रहे ब्रह्मा, विष्णु और महेश केवल दार्शनिक नाम हैं जो स्रष्टिचक्र में परमपुरुष की क्रियात्मक ऊर्जा की विभिन्न दशाओं को ही प्रकट करते हैं उनका कोई भौतिक स्वरूप नहीं है परंतु ये सभी स्रष्टि की संचर और प्रतिसंचर गतिविधियों के संचालन में सहायक होते हैं। पाश्चात्य दार्शनिकों ने इन्हें ही क्रमशः जनरेटर, आपरेटर और डिस्ट्रक्टर कहते हुए इन तीनों शब्दों के पहले अक्षर को लेकर जीओडी अर्थात् ‘गाड‘ कहा है और पुराणों में इन्हीं को विभिन्न कल्पनिक आकार प्रकार देकर समझाया गया है ।
चंदु- तो अनेक भक्तगण जो ओम ओम कहते हैं क्या वह यही है?
बाबा- हाॅं, कहते अवश्य हैं परंतु चूंकि ओंकार ध्वनि पचास प्रकार के अक्षरों अर्थात् स्वर और व्यंजनों की सम्मिलत ध्वनि होती है इसलिये कोई भी व्यक्ति एक साथ उसे अपने गले से उच्चारित ही नहीं कर सकता। उसे तो केवल अनुभव करने का अभ्यास करना होता है। यही अभ्यास करने के लिये प्रत्येक साधक या भक्त को अपनी मूल आवृत्ति अर्थात् ‘इष्ट मंत्र‘ की सहायता से इस काॅस्मिक आवृत्ति ‘ओंकार‘ के साथ अनुनाद करने की सलाह उनके गुरुगण देते हैं। यह अभ्यास करना ही असली पूजा या साधना करना कहलाता है अन्य सब आडम्बर है।
नन्दु- लेकिन बाबा! सभी स्वरों और व्यंजनों से बनी वर्णमाला तो आधुनिक है और स्रष्टि का प्रारंभ तो मनुष्यों की उत्पत्ति होने से भी पहले का है?
बाबा- हाॅं सही है, परंतु जब से स्रष्टि की प्रतिसंचर धारा मनुष्य अवस्था तक आई मनुष्य ने धीरे धीरे अपने और स्रष्टि के उद्गम को समझने का प्रयत्न प्रारंभ किया तथा अपने सभी प्रकार के ज्ञानानुभवों को ‘वेद‘ के नाम से अपने पश्चातवर्ती आगन्तुकों को मौखिक रूप से ही हस्तान्तरित करते गये। सुन सुन कर याद रखने के कारण वेद, श्रुति भी कहलाते हैं। चूूंकि सभी ध्वनियाॅं मुंह से ही उच्चारित की जाती थीं, उस समय तक लिपि का अनुसंधान नहीं हुआ था, अतः समय के वर्णक्रम को समझाने के लिये प्रत्येक स्वर और व्यंजन की ध्वनि उच्चारित करते हुए एक एक मुंह का आकार बनाते हुए ‘काल‘ अर्थात् ‘‘एटरनल टाइम फैक्टर‘‘ को प्रकट करने के लिये ‘कालिका‘ नामक मानवीय आकार को सभी पचास अक्षरों में से एक ‘अ‘ (अर्थात निर्माण) उच्चारित करते हुए हाथ में और शेष उनन्चास को अन्य अक्षर उच्चारित करते हुए उनकी माला बनाकर गले में पहने हुए दर्शाया जाता रहा, ताकि उसे देखकर लोग उनका सही उच्चारण करना सीखें। परंतु जैसा कि तुम लोग जानते हो कि बहुत बाद में पौराणिक काल में मार्कंडेय पुराण में वर्णित काली या दुर्गा को इन मुंडमालाओं से विभूषित कर दिया गया है जिसका पूर्व में कहे गये ‘एटरनल टाइम फैक्टर‘ या कालिका से कोई संबंध नहीं है। पुराणों की यथार्थता के बारे में तो तुम लोग पहले ही जान चुके हो।
राजू- परंतु बाबा! अनेक स्थानों और मंदिरों में भी बड़ा ‘ऊ‘ बनाकर चंद्र विन्दु लगाते हुए लिखा पाया जाता है और कहा जाता है कि इसका उच्चारण ‘ओम‘ है, भगवान का यही नाम है। इसलिये ‘‘ओम ओम‘‘ इस प्रकार का सभी भक्त लोग जाप भी करते देखे गये हैं?
बाबा- हाॅं। अभी अभी मैंने बताया है कि ओंकार ध्वनि का शुद्ध उच्चारण हो ही नहीं सकता क्योंकि वह पचास अक्षरों की आवृत्तियों का एकीकरण है। हिंदी वर्णमाला के इन सभी पचास अक्षरों को एक साथ प्रदर्शित करने के लिये इस प्रकार का संकेताक्षर बड़े ही सोच बिचार कर बनाया गया है। इसमें बड़ा ‘ऊ‘ ब्रह्म की सगुणता को अर्थात् ऊर्जा के ‘कायनेटिक‘ रूप को प्रकट करता है जिसमें ‘ अ‘, ‘उ‘ और ‘म‘ सम्मिलित होते हैं और क्रमशः उत्पत्ति, पालन और संहार का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनसे जुड़ी क्रियात्मक सत्ता को क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहा गया है। ( ‘अ‘ वर्णमाला का प्रथम अक्षर है अतः इससे उत्पत्ति का, ‘ऊ‘ स्वरों का मध्य अक्षर है इससे पालन का और ‘म‘ सभी व्यंजनों का अंतिम है इसलिये इसे मृत्यु का द्योतक माना गया है।) चंद्र बिन्दु के नीचे की ‘वक्राकार रेखा‘ निर्गुण से सगुण के बीच की क्रियात्मकता को और ‘बिंदु‘ निर्गुण ब्रह्म को अर्थात् ऊर्जा के ‘पोटेशियल‘ रूप को प्रदर्शित करते हैं। रेखागणित में, तुम लोग यह तो जानते ही हो कि बिंदु की स्थिति अर्थात् पोजीशन तो होती है परंतु विमायें अर्थात् डायमेन्शन्स नहीं, इसीलिये निर्गुण ब्रह्म को बिंदु से प्रदर्शित किया जाता है। इस प्रकार इस ‘‘ऊॅं‘‘ संकेताक्षर में सगुण और निर्गुण को एक साथ प्रदर्शित करने का प्रयास किया गया है और अपेक्षा की गयी है कि परम सत्ता के निर्गुण से सगुण होने की अवस्था में उत्पन्न ओंकार ध्वनि को इसी के माध्यम से अनुभव किया जाये।
रवि- तो जो लोग ओम ओम जोर जोर से चिल्लाते हैं उसका कोई महत्व है या नहीं?
बाबा- नहीं, चिल्लाने का कोई महत्व नहीं है, यह अच्छी तरह से मन में बिठा लो कि ओंकार ध्वनि तो ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के क्षण से ही समग्र स्रष्टि में व्याप्त है इसे ‘‘काॅसमिक साउंड आफ क्रियेशन‘‘ ही कहते हैं और लगातार अभ्यास करने पर मन से मन में ही अनुभव की जा सकती है। इसलिये यदि कोई ओम ओम चिल्लाता है तो व्यर्थ है क्योंकि जब तक उसके पीछे क्या रहस्य छिपा है यह ज्ञात न हो तो चिल्लाने से भी क्या होगा? और जब रहस्य पता चल जायेगा तो वह कुछ भी उच्चारित नहीं कर पायेगा और उसे अनुभव करने के अभ्यास में जुटना ही पड़ेगा। इसलिये तुम सब अपने अपने इष्ट मंत्र के सहारे बार बार ओंकार के साथ अनुनादित होने का अभ्यास किया करो, यही सब कुछ है, जिसने इसे अनुभव कर लिया उसने सब कुछ पा लिया। इसके पीछे विज्ञान यह है कि हम अपने ‘‘ऐंन्टिटेटिव रिद्म‘‘ और ‘‘इनकान्टिटेटिव रिद्म‘‘ में संतुलन बिठाते हुए ‘‘काॅस्मिक रिद्म‘‘ के साथ अनुनाद अर्थात् ‘‘रेजोनेन्स‘‘ स्थापित करें। इसी के सहारे हम स्रष्टि के उद्गम और उसके निर्माणकर्ता तक पहुंच पाते हैं।
इंदु- पर अधिकांश लोगों को तो यही उच्चारित करते और हर शुभ कार्य में प्रयुक्त करते देखा गया है तो क्या उनका यह करना बेकार है?
बाबा- यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि उन्होंने इस के गूढ़ार्थ को किस स्तर तक समझा और अनुभव किया है। तुम लोगों ने देखा होगा कि प्रशिक्षित हो जाने पर तोता कहता है राम राम , राम राम । सभी लोग सुनकर प्रसन्न होते हैं और तोते की तारीफ करते हैं। परंतु जब कुत्ता उसके पिंजरे पर झपटता है तो वह फड़फड़ाते हुए कहता है ट्विं ट्विं, ट्विं ट्विं , ट्विं .... । वह राम राम कहना भूल जाता है और अपने बचाव के लिये अपनी मूल भाषा में चिल्लाने लगता है, देखा न हो तो यह प्रयोग करके देख लेना। भावार्थ यही है कि बिना सोचे समझे , केवल दूसरे करते हैं या कहते हैं, इसलिये उनकी नकल कर कोई कार्य करने से कभी भी लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती । प्रत्येक संरचना अद्वितीय है, प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है, सबकी अपनी अपनी मूल आवृत्ति अर्थात् ‘‘ऐंन्टिटेटिव रिद्म‘‘ है, इसीलिये कोई भी दो व्यक्ति एक से नहीं होते। हमेशा से जैसा अभ्यास किया जाता है वही अंत में भी बना रहता है और अंत में जिस प्रकार की भावना होती है वैसी ही आगामी संरचना प्राप्त होती है। इसलिये आडम्बर और प्रदर्शन को छोड़कर बिना देर किये अपने अपने इष्ट मंत्र अर्थात् मूल आवृत्ति को पहचान कर काॅस्मिक आवृत्ति अर्थात् ओंकार के साथ अनुनादित करने के अभ्यास में जुट जाओ, तभी अपने मनुष्य होने का लाभ ले पाओगे।
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