Monday 23 May 2016

65 बाबा की क्लास (इष्टनिष्ठा)
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रवि- अनेक बार आपने कहा है कि अपने ‘‘इष्ट‘‘ अर्थात् जीवन के लक्ष्य के प्रति, द्रढ़ निष्ठा होना चाहिये, इसका सरल शब्दों में क्या अर्थ है?
बाबा- हम जानते हैं कि सामान्य जीवन में भी हम उस काम को नहीं करते जिसमें हमारा विश्वास नहीं होता, जैसे हम उस हवाई जहाज से यात्रा नहीं करना चाहेंगे जिसकी विश्वसनीयता न हो क्योंकि यह न होने पर लक्ष्य तक पहुंचना संभव न होगा। आध्यात्मिक पथ में भी साधक के सामने यह समस्या होती है  कि वह क्या करे और क्या न करे। इसलिये अपने इष्ट में निष्ठा होना अनिवार्य हो जाता है क्योंकि तभी वह प्रत्येक समय , प्रत्येक असहाय परिस्थिति में, सुख और दुख में सहायक होता है।

नन्दू- परंतु अनेक लोग तो धन तथा पद पाने और बड़े बड़े प्रभावशाली लोगों से संबंध बनाने को ही महत्व देते देखे गये हैं, वह कहते हैं उनका लक्ष्य तो वही है?
बाबा- धन, पद, और शक्तिशाली लोगों से संबंध आदि उस समय  कुछ नहीं कर पाते जब हवायी यात्रा करते हुए प्लेन बिगड़ जाता है, या घर में आधी रात में सोते समय कोई डाकू आकर सिर पर बन्दूक रख दे, बाढ़ में कार अनियंत्रित होकर फंस जाये आदि। इन परिस्थितियों में केवल इष्ट के प्रति आपकी निष्ठा ही काम आती है। जीवन में अनेक इस प्रकार की असहाय स्थितियाॅं आती हैं जब इष्ट के अलावा अन्य विकल्प को ढूड़ते हुए हम अपना जीवन नष्ट कर डालते हैं। भौतिक जगत की उपलब्धियों को लक्ष्य बनाने वाले सभी लोगों का जीवन व्यर्थ जाता है। इसीलिये सच्चे भक्त हर समय अपने इष्ट की उपस्थिति का अनुभव करते हैं घटना के पहले, बीच में, अन्त में और हर समय। यह केवल सैद्धान्तिक ही नहीं व्यावहारिक भी है, इष्ट निष्ठा होने पर हमें लगता रहता है कि कोई अद्रश्य शक्ति हमें सहायता कर रही है।

इंदु- पंरन्तु कुछ भक्त लोग लोभ या भय या स्वार्थवश अनेक इष्ट बना लेते हैं जैसे, अनेक लोग पूजा करते हुए कहते पाये जाते हैं. काली माॅं की जय, वैष्णवदेवी की जय, कलकत्ते वाली काली की जय, दक्षिणेश्वर काली माता की जय, वैद्यनाथ बाबा की जय, बनारस के विश्वनाथ बाबा की जय, उज्जैन के महाकाल की जय, आदि?
बाबा- हाॅं, जितने भी देवी देवताओं के नाम याद होते हैं उनकी एक एक कर जय जरूर बोलते जाते हैं फिर कहते हैं , हे देवि देवताओ! किसी का नाम यदि भूल गया होऊं तो क्षमा करना । मेरा उद्देश्य आपको भूल कर अपमान करना नहीं वरन् आप सबकी संख्या अधिक होने से याद नहीं रख पाता हूँ   इसलिये कृपा कर मान लेना कि आपका नाम मैंने स्मरण कर लिया है। सोचिये इस प्रकार की पूजा में भक्त का मन क्या स्थिर रह पाता है ? कभी बनारस कभी, कलकत्ता, कभी उज्जैन और अन्य स्थानों में ही घूमता रहता है। परंतु मन के एक स्थान पर केन्द्रित न हो पाने के कारण कुछ भी फल मिल पाना संभव नहीं हो पाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि एक ही इष्ट हो और उन पर शतप्रतिशत निष्ठा हो तो वह हर परिस्थिति में सहायक होते हैं परंतु यदि इष्ट ही क्षण क्षण में बदल रहा हो  तो कौन सा इष्ट किस प्रकार से सहायक हो सकेगा ?

राजु- तो नाम पुकारने पर भी इतने सब देवों में से कोई देवता सुनता नहीं है क्या?
बाबा- यदि आप  किसी आपात्काल में फॅस गये हैं और कभी काली जी को, कभी गणेश जी को, कभी भोलेनाथ को , कभी किसी अन्य को पुकारते हैं तो निष्ठा के विभाजित होने के कारण आपके द्वारा पुकारी गयी  कोई भी सत्ता सहायक नहीं होगी क्योंकि वे सभी एक दूसरे की ओर देखते रहेंगे और कहते रहेंगे कि आपको पुकार रहा है आप जाओ, थोड़ी ही देर में दूसरा यही कहेगा , फिर तीसरा कहेगा और अंत में कोई नहीं । इस संबंध में एक बहुत ही प्रेरक, पौराणिक द्रष्टान्त सुनाता हॅूं जो इष्टनिष्ठता का महत्व प्रतिपादित करता है। परंतु तुम लोग कहानी के शब्दों पर न जाकर उसके माध्यम से दी गयी शिक्षा पर ही ध्यान देना-
   सभी जानते हैं कि हनुमान जी श्रीराम के अनन्य भक्त हैं, वे भूल से भी किसी अन्य देवता जैसे शिव, कृष्ण,  विष्णु, नारायण, या अन्य का नाम नहीं लेते । एक बार उनके समकालीन कुछ भक्तों ने उनसे पूछा, ‘‘हनुमानजी! तुम तो राम के अनन्य भक्त हो और उच्च कोटि के विद्वान भी हो तो बताओ, जानकीनाथ माने श्रीराम, और श्रीनाथ माने नारायण अर्थात् विष्णु होता है कि नहीं?‘‘
हनुमानजी बोले हाॅं , ‘‘इसमें कोई त्रुटि नहीं है।‘‘
 फिर भक्त बोले , ‘‘अच्छा बताओ, ‘नार‘ माने प्रकृति और ‘अयन‘ माने आश्रय, अतः ‘‘नारायण‘‘ माने प्रकृति का आश्रय जो हो वह अर्थात् ज्ञानात्मक सत्ता यानी परमपुरुष तथा  ‘‘राम‘‘ माने ( रम + घञ् ) अर्थात् समग्र ब्रह्माॅंड में सर्वाधिक आकर्षक सत्ता यानी परमपुरुष , ठीक है कि नहीं?‘‘
हनुमानजी बोले ‘‘हाॅं यह तो  बिलकुल सही व्याख्या है।‘‘
भक्त फिर बोले, ‘‘तो जो जानकी नाथ हैं, वही श्रीनाथ हैं कि नहीं, क्योंकि दोनों ही परमपुरुष के नाम हैं?‘‘
हनुमानजी ने फिर कहाॅ ‘‘ हाॅं भाई हाॅं, तुम लोग सही कहते हो इसमें कुछ भी गलत नहीं है।‘‘
भक्त बोले, ‘‘परंतु तुम्हारे मुख से कभी भी नारायण का नाम नहीं सुना! श्रीनाथ और जानकी नाथ तो एक ही हुए न? बताओ ऐंसा क्यों करते हो?‘‘
इस पर विनम्रता पूर्वक हनुमानजी बोले,
‘‘ श्रीनाथे जानकी नाथे चाभेदपरमात्मनि, तथापि मम सर्वस्वः रामः कमललोचनः‘‘
(अर्थात् मौलिक रूप से राम और नारायण में कोई अंतर नहीं है, मैं यह जानता हॅूं दोनों ही परमपुरुष के नाम हैं , परंतु मेरे लिये तो ‘राम‘ ही लक्ष्य हैं वह मेरे इष्ट हैं, मेरे विचार, आदर्श और चिंतन के एकमेव बिंदु कमललोचन राम ही हैं, मैं किसी नारायण को नहीं जानता।)

इन्दु- इसका अर्थ यह हुआ कि हमें केवल एक ही लक्ष्य और इष्ट ‘परमपुरुष‘ को बनाना चाहिये और पूरी निष्ठा से उनके प्रति ही समर्पित रहना चाहिये?
बाबा-  हाॅं , इसीलिये मैं एक ही इष्ट के प्रति निष्ठावान होने का परामर्श देता रहता हॅूं । जब  ‘इष्ट‘ परमपुरुष हों और उनके प्रति द्रढ़ निष्ठा हो तब  मन को  अपार साहस और शक्ति प्राप्त होती जाती है। यह कहानी भी यही बतलाती है कि लक्ष्य और इष्ट एक ही होना चाहिये और उसके आदर्श के प्रति समग्र निष्ठा से समर्पित हो जाने पर ही हमें आत्मोपलब्धि हो सकती है और लक्ष्य तक जाने में सफलता मिल सकती है अन्यथा नहीं।  

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