Monday 30 December 2019

289 पाखंड

पाखंड
‘पाखंड’ हमारे सामने अनेक प्रकार से आता रहता है परन्तु इन तीन प्रकारों से बहुधा अपना इन्द्रजाल फैलाता है,
1. दूसरों को धोखा देकर या उनका शोषण कर अपना कार्य सिद्ध करना।
2. अपनी अज्ञानता छिपाने के लिए किसी पर अनावश्यक रूप से हावी होना।
3. दूसरों के पापकर्मों की आलोचना कर स्वयं नैतिक होने का ढोंग करना और स्वयं उन्हीं कार्यों को चोरीछिपे करना।

Sunday 22 December 2019

288 शूरवीर, पंडित, वक्ता और दाता

शूरवीर, पंडित, वक्ता और दाता
किसी समय, विद्वान ऋषियों की एक गोष्ठी में विचारार्थ ये प्रश्न रखे गए- 
1. क्या अनेक युद्ध जीतने वाले को सच्चा शूरवीर कहा जा सकता है?
2. क्या जिसने बहुत अध्ययन कर अनेक उपाधियाॅं प्राप्त की हों उसे सच्चा विद्वान(पंडित) कहा जा सकता है? 
3. क्या लच्छेपुच्छेदार भाषा से लोगों को प्रभावित करने वाले को सच्चा वक्ता माना जा सकता है? 
4. क्या बहुत धन दान करने वाले को सच्चा दानी कहा जा सकता है?
बहुत गंभीर मंथन और विचारोपरान्त इन प्रश्नों के सर्वमान्य उत्तर इस प्रकार निर्धारित किए गए-
1. सच्चा शूरवीर वह है जिसने अपनी इंद्रियों को जीत लिया है।
2. सच्चा पंडित वह है जो धर्माचरण करता है।
3. सच्चा वक्ता वह है जो दूसरों के हित की बात कहता है।
4. सच्चा दानी वह है जो सभी को आदर देता है अर्थात् उनको भी समान आदर देता है जो समाज के द्वारा हेय और उपेक्षित समझे जाते हैं। 

Friday 13 December 2019

287 समाधि प्राप्त करने का रहस्य(7)

समाधि प्राप्त करने का रहस्य(7)
पुरुष ख्याति में स्थापित होने का उपाय है कि वे मेरे विषयी तथा मैं उनका विषय हूँ  इस प्रकार का भाव रख कर उनमें आत्मसमर्पण करना, अर्थात् अपने उत्स में लौट जाना। ईश्वरप्रणिधान के द्वारा यह संभव है। प्रणिधान का अर्थ है जप क्रिया के द्वारा प्राप्त भक्ति। इसलिये  ईश्वरप्रणिधान का अर्थ हुआ  ईश्वर सूचक  भाव लेकर ईश्वर  वाचक शब्द का जप करते जाना। यह एक वीर्यदीप्त साहसिक साधना है, दुनियाॅं को धोखा देना या भीरु की तरह दायित्व से छुटकारा पाना नहीं है।  ईश्वरप्रणिधान से चित्त की भावधारा सरलरेखाकार हो जाने से असंप्रज्ञात समाधि पाना संभव हो जाता है परंतु ध्यान क्रिया इससे भी सरल है। ईश्वरप्रणिधान संप्रज्ञात समाधि के लिये अधिकतर उपयोगी है क्योंकि इसमें अल्पकाल में ही मन एकाग्र होजाता है तथा उसके बाद जो सामान्य मैंपन का बोध रह जाता है उसे ध्यान क्रिया से सहज ही त्याग किया जा सकता है और असंप्रज्ञात समाधि में प्रतिष्ठा पाई जा सकती है। विषय विषयी भाव जब तक हैं उपासना का सुयोग तभी तक है क्योंकि उपासना सगुण या तारक ब्रह्म की ही होती है निर्गुण की नहीं । अनादिकाल से ही यदि कोई व्यक्ति क्लेश,  कर्म, विपाक और आशय से मुक्त हुए रहे हों तो उनकी उपासना निरर्थक है। जीव, कर्म के फल से ही क्लेश  भोगता है, क्लेश  से विपाक और विपाक से विपाकानुरूप वासना या आशय का उद्भव होता है; जिन्हें इनका कुछ भी भान नहीं , जिनका मन कहकर कुछ भी नहीं है, उनकी उपासना से और जो कुछ क्यों न पा लिया जाये कृपा तो नहीं पाई जा सकती। मनुष्य पर कृपा करने का अधिकार निर्गुण पुरुष का कैसे हो सकता है, यह तो उस मुक्त पुरुष का अधिकार है जो कभी बद्ध थे अर्थात् सगुण ब्रह्म का।  और है तारक ब्रह्म का, जिनका मन सगुण निर्गुण के स्पर्श  विन्दु में प्रतिष्ठित है। जो कभी बद्ध थे वर्तमान में मुक्त हैं भविष्य में भी बद्ध नहीं होंगे, वे भी सगुण ब्रह्म के ही समान हैं उन्हें कहा जाता है महापुरुष। कृपा करने का अधिकार उनका भी है। ब्रह्म कृपा से  ईश्वरप्रणिधान के पथ पर द्रुत गति से बढ़ते हुए उनके ध्यान में ,उनकी सत्ता में ,अपने मैंपन का उत्सर्ग कर जीव परम शान्ति लाभ कर सकता है। 

Thursday 12 December 2019

286 समाधि प्राप्त करने का रहस्य(6)

समाधि प्राप्त करने का रहस्य(6)
संप्रज्ञात समाधि में सर्वज्ञता का बीज सातिशय होता है और स्थायी सविकल्प में निरतिशय हो जाता है क्योंकि तब उसका विषय अनुमानस (unit mind) में सीमित न होकर भूमा (cosmic mind) में परिवर्तित हो जाता है और उसकी संभावना अपरिमाप्य हो जाती है। साधना के द्वारा अपरिपुष्ट बीज क्रमशः  परिपुष्टता प्रहण कर 
निरतिशयित्व की ओर बढ़ता जाता है अतः उच्च श्रेणीके साधकों को वाह्य वस्तु के ज्ञान आहरण का कोई प्रयोजन नहीं होता, भूमा के प्रसाद से ज्ञान प्रसाद स्फूर्त हो उठता है। ‘‘तत्र निरतिशयं सर्वज्ञत्व बीजम्’’।
संप्रज्ञात समाधि चंचल चित्त से उपलभ्य नहीं है।  जिस तरंग में मैंपन का बोध हुआ है वही संप्रज्ञात है, लेकिन जड़ समाधि को संप्रज्ञात नहीं कहेंगे। जब धन दौलत घर द्वार आदि जड़ पदार्थों में एकाग्रता प्राप्त चित्त केवल उन्हीं का रूप धारण करता है अतः  जगत का और कुछ दिखाई नहीं देता, इसे ही संप्रज्ञात जड़ समाधि कहते हैं। इसका ध्येय स्थूल या सूक्ष्म मानस आभोग  होता है। 
असंप्रज्ञात समाधि का ध्येय पुरुष होता है, अतः प्रकृतिलीन और विदेहलीन अवस्था संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात के बीच की अवस्था कही जा सकती हैं। संप्रज्ञात समाधि  के चार स्तर हो सकते हैं, 
1. सवितर्क स्तर पर पुत्र धन घर आदि में एकाग्रता होने पर, 
2. ऋणात्मक सवितर्क स्तर पर उपरोक्त विषयों से मन को हटाने की एकाग्रता होने, 
3. सविचार समाधि में चित्त स्थूल आभोगों में रत नहीं होता पर नाम यश आदि सूक्ष्म आभोगों के पीछे दौड़ता है,और 
4. जब इन सबसे दूर रहने के प्रयासों में एकाग्रता प्राप्त हो तो वह ऋणात्मक सविचार के अंतर्गत आती हैं। 
इसके बाद के स्तर को आनन्द समाधि कहते हैं, इसमें चित्त का कोई सूक्ष्म आभोग नहीं होता पर एक सूक्ष्म दैहिक और मानसिक बोध होता है कि मैं आनन्द का उपभोग कर रहा हूॅं पर  इसका भी ऋणात्मक पहलु है। इसके बाद के  स्तर पर आती है सास्मित समाधि, इसमें केवल पुरुषसत्ता का  बोध रहता है इस स्तर पर इस मैंपन का बोध समाप्त हो जाने से  एक सूक्ष्मस्तरीय एकात्मिका का ज्ञान आता है जिसे असंप्रज्ञात समाधि कहते हैं; इसमें रह जाती है केवल एक पुरुष सत्ता।  सबको छोड़ केवल पुरुष भाव में रहने को कहते हैं पुरुष ख्याति। 
क्रमशः ..7

Wednesday 11 December 2019

285 समाधि प्राप्त करने का रहस्य (5)

समाधि प्राप्त करने का रहस्य(5)
निवृत्ति का पथ पकड़ कर सभी विषयों को हरा देने से साधक प्रकृति लीन हो जाता है, यहां पुनः जन्म की संभावना बनी रहती है भले ही वह लाखों वर्ष में हो । इसी प्रकार विदेहलीन अवस्था भी भव प्रत्यय के द्वारा होती है इसमें भी पुनः जन्म हेतु अविद्याश्रयी संस्कार रह जाते है, इसलिये निर्बीज होने पर भी ये असंप्रज्ञात नहीं। विदेहलीन अवस्था शून्य  के  ध्यान के फलस्वरूप प्राप्त होती है। इससे शून्य  का आभोग रह जाने से अर्थात् चित्त में एक तत्व का अभाव (पुरुषतत्व का) रहने से पुरुष में प्रतिष्ठा या मोक्ष लाभ नहीं होता है। इस प्रकार प्रकृतिलीन और विदेहलीन दोनों ही अवस्थायें ऋणात्मकता में प्रतिष्ठित हैं। इनके फलस्वरूप पुनः जन्म की संभावना अवश्य ही  रहती है। 
इसलिये साधकों का पथ, भव प्रत्यय नहीं वरन् उपाय प्रत्यय है। अर्थात् इसे उपाय के द्वारा, चेष्टा के द्वारा कालातीत भाव से समाधि में स्थापित करना होगा। प्राकृत वस्तु के भोग अथवा त्याग करने के उपाय में लगे रहना उचित नहीं।  उनका पथ त्याग का नहीं मनः साम्य का हैं, प्रकृति उनका ध्येय नहीं तो वर्जनीय भी नहीं। पुरुष उनका ध्येय हैं, अतः धीरे धीरे उनकी संपूर्ण सत्ता पुरुष में ही लीन होगी। इसीलिये उपासना प्रकृति की नहीं पुरुष की करनी होगी, पुरुष की इस साधना से प्राप्त निर्बीज समाधि की निरंतरता को ही मोक्ष कहते हैं। 
संप्रज्ञात समाधि मन की एकाग्र भूमि में ही होती है। चित्त में एक विषय के आभोग के कारण समाधि पाने के बाद सुविधानुसार जिस किसी विषय में समाधि लाई जा सकती है क्योंकि  एक विषय की तरंग पर जिसका नियंत्रण हुआ है, अन्य विषय में भी सहज रूप में उसका नियंत्रण आ सकता है। त्रिकाल के संबंध में जो ज्ञान है वह सर्वज्ञता कहलाता है। सर्वज्ञता का बीज प्रत्येक व्यक्ति में ही है केवल उसकी विकास मात्रा में भेद होता है। क्रमशः 6 .. ..

Tuesday 10 December 2019

284 समाधि प्राप्त करने का रहस्य(4)

समाधि प्राप्त करने का रहस्य(4)
‘‘अनुभूतविषया सम्प्रमोषः स्मृतिः’’ अर्थात अनुभूत विषय की तरंग को पुनः उत्पादित करने का नाम है स्मृति। वीर्य(valour) के द्वारा यह स्मृति उत्पन्न होती है। श्रद्धा के फलस्वरूप उत्पन्न वीर्य के द्वारा साधना के बाधा समूह को हटाकर जब ध्येय विषय के साथ एकतानता प्राप्त हो जाती है और यह किसी समय टूटती नहीं है तो उसे 
ध्रुवास्मृति कहते है। प्रवृत्ति की तरंग तो सबकुछ को ही भुलाकर रखना चाहती है। ध्रुवास्मृति के फलस्वरूप जब ध्येय के अलावा और कोई विषय साधक के सामने नहीं होता है तो उसी अवस्था का नाम समाधि है। इस अवस्था में मन और उसका ध्येय एक हो जाते हैं। यदि सूक्ष्म विचार किया जाये तो यह भी मन की एक निश्चयात्मक  अवस्था है, जो आभोग की सीमा में होने के कारण  इससे शाश्वती  शान्ति  प्राप्त होना संभव नहीं है। किन्तु आभोग से मुक्त होने का क्या है उपाय? विषय वितृष्णा एक प्रकार का ऋणात्मक भाव है, अतः इसका परिणाम भी एक प्रकार कर आभोग ही है क्योंकि यदि इससे स्थूल विषय से हट भी जाय तो भी व्यक्ता प्रकृति के अभाव होने से अवयक्ता प्रकृति या अविषयाभूत प्रकृति में आसक्ति उन्पन्न होती है। चित्त, जड़, या मानस, प्रत्याहार के फलस्वरूप अव्यक्त प्रकृति में वशीकार सिद्धि की अवस्था में  लीन हो जाता है, यह सिद्धि भी चरम सिद्धि नहीं है। भले यह जड़ात्मक नहीं पर निर्बीज  भी नहीं क्योंकि इसमें व्यक्तिकरण की संभावना रहती है, इसे प्रकृतिलीन समाधि कह सकते हैं कैवल्य जैसी नहीं । निर्बीज  समाधि की निरंतरता प्राप्त नहीं होने तक उसे असंप्रज्ञात कह सकते हैं पर मोक्ष नहीं। 
क्रमशः 5..

Monday 9 December 2019

283 समाधि प्राप्त करने का रहस्य(3)

समाधि प्राप्त करने का रहस्य(3)
किसी विषय को युक्ति तर्क के द्वारा समझ लेने के बाद उसका अनुशीलन करने पर श्रद्धा उत्पन्न होती है। साध्य के प्रति श्रद्धा नहीं होने पर सिद्धि नही मिलती, ‘‘श्रत् सत्यं तस्मिनधीयते  इति श्रद्धा’’। चित्त के सम्प्रसाद को भी श्रद्धा कहा जा सकता है, अर्थात् जिस वस्तु के सान्निध्य में आने पर चित्त की व्याप्ति होती है समझ लो तुम्हे उसके प्रति श्रद्धा है। समाधि चित्त की परम व्याप्ति है इसीलिये श्रद्धा समाधि का प्रथम सोपान है। दीर्घकाल तक यथोपयुक्त भाव से श्रद्धा के साथ अभ्यास करते जाना होगा अन्यथा समाधि दार्शनिक  पुस्तकों का ही विषय बनी रहेगी जीवन के साथ उसका संपर्क नहीं हो सकेगा।
किसी आचार्य ने कहा है इसलिये साधना करने के भाव से  कुछ नहीं मिलता बल्कि जो यह सोचते हैं कि मैं साधना में सिद्धि लाभ करना चाहता हूँ  इसीलिये आचार्य मेरी सहायता कर रहे हैं, उन्हीं  की साधना लक्ष्य प्राप्त कराती है। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही मन की वृत्तियां हैं, जो जिसका जितना अभ्यास करता है उसके लिये वह उतना ही सहज हो जाता है । समाधि का स्थान प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों से अतीत है। प्रवृत्ति, निवृत्ति की साधना में श्रद्धा अनिवार्य नहीं है। समाधि की साधना में किसी वस्तु की भावना के समय यदि कोई अवांछित चिन्ता या मानसिक तरंग उत्पन्न होती रहे तो उसे दूर करने के लिये जिस मनःशक्ति से वह हटायी जाती है उसे कहते हैं वीर्य(valour)। श्रद्धा के परिणाम से ही वीर्य (valour)उत्पन्न होता है।  इस वीर्य(valour) के फलस्वरूप ही अवांछित तरंग के हट जाने से ध्येय विषय की एकतानता या निरविच्छिन्नता प्राप्त होती है।
क्रमशः .. 4

Sunday 8 December 2019

282 समाधि प्राप्त करने का रहस्य(2)

समाधि प्राप्त करने का रहस्य
प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही जागतिक वृत्ति के द्वारा जुड़े होते हैं, क्योंकि कोई भी मनःसाम्य की साधना नहीं है इसलिये इनमें से किसी के द्वारा परम शान्ति (absolute bliss) करना संभव नहीं है। प्रवृत्ति की साधना के लिये वस्तु या भाव विशेष के प्रति राग और उसे प्राप्त करने का अभ्यास तथा निवृत्ति के लिये इनके प्रति द्वेष तथा उससे मुुक्त होने का अभ्यास किया जाता है। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के लिये क्रमशः  राग और द्वेष तथा तत्संबंधी प्रयास दोनों की अनिवार्यता है, किसी एक की कमी होने पर सिद्धि प्राप्त करना असंभव है। इसलिये जो निवृत्ति मार्ग के अनुयायी हैं वे घर, माता पिता स्त्री पुत्र सब को माया जाल कहकर संन्नयास लेने को उत्प्रेरित  करते हैं अर्थात् द्वेष त्याग का अभ्यास करने को कहते हैं जबकि समाधि न तो प्रवृत्ति मूलक है और न ही निवृत्ति। वास्तव में वैराग का अर्थ है राग का अभाव, अर्थात् विषयों का दास न होकर उनका समुचित व्यवहार करते हुए ब्रह्म भावना का अभ्यास करते जाना । 
अभ्यास कहते हैं ‘‘तत्रस्थितौ यत्नोअभ्यासः’’ अर्थात् एक विशेष प्रकार की मानस तरंग का क्रमागत अनुवर्तन करते जाने का नाम अभ्यास है। चित्त की साम्यावस्था को स्थायी बनाने का जो  अभ्यास है उसे कहेंगे समाधि का अभ्यास। किसी वस्तु के प्रति राग का अर्थ है उसकी ओर दौड़ना और द्वेष का अर्थ है उस वस्तु के विरुद्ध दौड़ना। साम्यावस्था पाने के लिये दोनों राग तथा द्वेष का वर्जन करना होगा अन्यथा समाधि का अनुभव करना संभव नहीं । 
मन की साम्यावस्था का अभ्यास करते करते साम्यावस्था ही स्वाभाविक हो जायेगी जैसे राग का अभ्यास करने से राग और द्वेष का अभ्यास करने से द्वेष स्वाभाविक होता है। दीर्घकाल के साधना के अभ्यास से ही समाधि में प्रतिष्ठित हुआ जाता है। इसमें किसी प्रकार की दीर्घसूत्रता मान्य नहीं क्योंकि एक बार अभ्यास छूटने पर हजार प्रकार की काम्य धारायें उस स्थान को लेने के लिये आ दौड़तीं हैं। क्रमशः ---3 

Saturday 7 December 2019

281 समाधि प्राप्त करने का रहस्य (1)

समाधि प्राप्त करने का रहस्य (1)
मन में हमेशा संकल्प और विकल्प आते रहते हैं। संकल्प से इंद्रियों की सहायता लेकर मन जगत में कर्म करता है और विकल्प से विपरीत विचार लाकर कर्म से विपरीत जाने लगता है। मन की इस धनात्मक और ऋणात्मक विचारधारा का साधक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है? समाधि के साथ उसका क्या संबंध है? साधक यदि कर्म में लगे रहकर समाजसेवा को लक्ष्य मान ले तो इस दशा में क्या उसे समाधि प्राप्त हो सकती है?

समाधि, वास्तव में मन की न तो धनात्मक और न ही ऋणात्मक अवस्था है, यह तो साम्यावस्था है। जैसे जल की शांत निर्वात अवस्था में जब वह सरलरेखाकार होता है तब उसे साम्यावस्था कहा जाता है। चंचल जलराशि की ऊर्ध्व  तरंगें यदि संकल्प और अधोतरंगें विकल्प कहलायें तो, जब ये आपस में घुलमिलकर सरलरेखा में समाहित हो जाती हैं  तब  वह स्थिति  साम्यावस्था कहलायेगी। समाधि में मन की भी यही अवस्था होती है।

संकल्पविकल्पात्मक मन चंचल जलराशि  के समान हमेशा  आन्दोलित होता रहता है और इस आन्दोलन के समय संकल्प और विकल्प दोनों को ही एक बार मन की प्रशान्तवाहिता सरल रेखा को स्पर्श  करते हुए  जाना पड़ता है, इसीलिये प्रत्येक भावना में सभी स्थानों, समयों और पात्रों में एक प्रकार की अस्थायी साम्यावस्था का अनुभव होता है, यद्यपि प्रवृत्ति मूलक कर्म में व्यस्त रहने पर निवृत्ति  और साम्यावस्था दोनों ही असंभव लगती हैं। ठीक इसी प्रकार निवृत्ति मूलक कर्म जिनका स्वभाव हो गया है उन्हें प्रवृत्ति और साम्यावस्था असंभव लगतीं हैं। जल में रहने वाले प्राणी स्थल में और स्थल पर रहने वालों को  जल में रह पाना असंभव लगता है। वस्तुतः इस संदर्भ में व्यक्तिगत प्रयत्न और अभ्यास तथा  प्राकृतिक व्यवस्था ही सबसे बड़ी बात है, संभव या असंभव का प्रश्न  ही नहीं है। जो मनः साम्य की साधना करते हैं उनके लिये मन की प्रशान्त  वाहिता ही स्वाभाविक हो जाती है प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों असंभव हो जाते हैं। क्रमशः  .. (2)

Tuesday 26 November 2019

280 भावजड़ता

भावजड़ता
= = =
अहंमन्यता की तलैया में
मूर्खता की कीचड़ से जन्म ले
ए भावजड़ता !
तू कमल की तरह खिलती है।

अपने आकर्षण के भ्रमजाल में उलझाती है ऐसे,
कि सारी जनता
लहरों पर सवार हो बस तेरे गले मिलती है।

झूठ सच के विश्लेषण की क्षमता हरण कर
आडम्बर ओढ़े,
गढ़ती है नए रूप।

धनी हों या मानी, गुणी हों या ज्ञानी
तेरे कटाक्ष से सब होते हैं घायल
क्या साधू क्या फक्कड़ , बड़े बड़े भूप।

भू , समाज और भूसमाज भावना
के अस्त्र चलाकर हर दिशा में ,
बड़े चाव से देखती है अपना प्रसार,
सँकुचित मानसिकता में उलझाकर सबको।

धूल में मिलते खानदानों की आहें
सुनती है तू, कान खोलकर
भैरवी की तरह।

फिर भी तेरी ‘प्रज्ञा‘ प्रस्फुटित नहीं होती ,
और न होती है भंग तेरी तन्द्रा
उषाकाल की नीरवता में
‘प्रभाती‘ की गुनगुनाहट से।
-
डा टी आर शुक्ल, सागर।
18 जून 2008

Monday 18 November 2019

279 विरोधी बल और प्रगति

  विरोधी बल और प्रगति
सामान्यतः यह माना जाता है कि विपरीत लगने वाला बल गति में बाधक होता है परन्तु यह पूर्णतः सही नहीं है। पृथ्वी पर हम आगे तभी चल पाते हैं जब घर्षण बल हमारी अग्रगति का विरोध करता है। इस घर्षणबल का महत्व हमें तभी समझ में आता है जब हम किसी घर्षणरहित तल पर चलने का प्रयास करते हैं या तेज गति से चलते हुए रुकना चाहते हैं। अन्तरिक्ष में  गति करने पर गुरुत्वाकर्षण हमारा विरोध करता है और अंतरिक्ष से जब किसी पिंड पर उतरते हैं तो गति को धीमा करने के लिए उसके विरुद्ध बल (brake) लगाने के लिए छोटे छोटे राकेट अपनी गति की दिशा में ही चलाना पड़ते है। स्पष्ट है कि विरोधी बल हमारे लिए लाभदायक भी होते हैं इसलिए हमें अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनों से प्रेम होना चाहिए न कि केवल अनुकूल या केवल प्रतिकूल से। आध्यात्मिक जगत में भी हमें इन दोनों प्रकार के बलों का सामना करना पड़ता है जिन्हें दर्शनशास्त्र में विद्या और अविद्या कहा गया है।
किसी भी प्रभावी क्षेत्र (गुरुत्वीय, विद्युतीय, चुंबकीय या नाभिकीय) में गति करने वाला कण अन्ततः उस क्षेत्र के गुरुत्वकेन्द्र के चारों ओर चक्कर लगाने लगता है और उस पर दो प्रकार के बल एकसाथ कार्य करने लगते हैं, एक उसे केन्द्र की ओर खींचने का प्रयास करता है इसे वैज्ञानिक ‘‘सेन्ट्रीपीटल फोर्स’’ कहते हैं और  दूसरा उस कण को बाहर की ओर ले जाने को तत्पर रहता है इसे वैज्ञानिक ‘‘सेन्ट्रीफ्यूगल फोर्स’’ कहते हैं। 
आध्यात्मिक क्षेत्र में गति करने पर हमारा मन भी कण की तरह उसके गुरुत्वकेन्द्र (अर्थात् परमसत्ता) के चारों ओर चक्कर लगाता है और उस पर भी  सेंट्रीपीटल फोर्स ‘‘विद्या’’ और सेन्ट्रीफ्यूगल फोर्स ‘‘अविद्या’’ एकसाथ ही कार्य करते हैं। इनमें सेंट्रीपीटल फोर्स परमसत्ता की ओर और सेन्ट्रीफ्यूगल फोर्स परमसत्ता से दूर ले जाने के लिए सक्रिय रहता है। यहाॅं सेन्ट्रीफ्यूगल फोर्स की पहचान उसकी दो प्रकार की गतिविधियों से की जा सकती है एक है ‘आवरण या पर्दा डालना’ और दूसरी है ‘विच्छेपित करना’; अर्थात् यह हमें अपने गन्तव्य लक्ष्य पर या तो पर्दा डालने का काम करता है या उससे भटका देता है। इसी प्रकार सेंट्रपीटल फोर्स की पहिचान भी उसकी दो प्रकार की गतिविधियों से की जा सकती है एक को कहा जाता है ‘संवित’ और दूसरी को ‘ह्लादिनी’; अर्थात् संवित हमें समय समय पर आघात देकर होश में ले आती है और याद दिलाती है कि लक्ष्य से क्यों भटक रहे हो और ह्लादिनी, लक्ष्य की ओर तेज गति से बढ़ने की प्रेरणा देते हुए आनन्द की अनुभूति कराने लगती है। 

इस तरह निष्कर्ष निकलता है कि हमें विद्या और अविद्या को अपनी आध्यात्मिक प्रगति में परस्पर सम्पूरक मानते हुए समन्वय स्थापित कर आगे बढ़ना चाहिए न कि किसी एक को पकड़कर उसी पर आश्रित रहना चाहिए। उपनिषदों का भी कथन है,
‘‘अन्धं तमः प्रविशन्ति ये अविद्यां उपासते, ततोभूय एव ते तमो य उ विद्यायां रतः।’’
अर्थात् केवल ‘अविद्या’ की उपासना करने वाले गहरे अंधे कुए में गिरते हैं और उससे भी गहरे अंधे कुए में वे गिरते हैं जो केवल विद्या की उपासना में लगे रहते हेैं।

Thursday 14 November 2019

278 बोझ, मोह का !

बोझ, मोह का !
बाल्यावस्था से ही,  जंगल से सूखी लकड़ियों का गट्ठा सिर पर लाद कर लाना और शहर में बेचना यही दिनचर्या थी बेनीबाई की । इस प्रकार जीविका चलाते चलाते बृद्धावस्था भी आ पहॅुंची। एक दिन अनेक प्रयास करने पर भी जब गट्ठा सिर पर रखते न बना तो हताश बेनी बाई बोली, 
‘‘ हे भगवान ! अब तो भेज दो मौत को ? बहुत हो चुका। अरे! बहरे हो गए हो क्या ? कब सुनोगे ?‘‘
कहने की देर ही हुई थी कि यमराज सामने आकर बोले,
‘‘ चलो, बेनीबाई ! मैं आ गया ‘‘
‘‘ लेकिन कहाॅं?‘‘
‘‘ अरे ! तुम्हीं ने तो भगवान से कहा कि मौत को भेज दो, मैं हूॅं यमराज, उनकी आज्ञा से मैं  तुम्हें ले जाने के लिए आया हॅूं, चलो.. ‘‘
‘‘ ये तो बहुत अच्छा किया भैया, चलो, जरा अपना एक हाथ इस गट्ठे पर लगा कर मेरे सिर पर रखवा देा । ‘‘ 

Wednesday 13 November 2019

277 गहराई जड़ों की !

गहराई जड़ों की !
तीर्थयात्रा पर जा रहे कुछ आध्यात्मिक लोगों की चर्चा से प्रभावित होकर दो शराबियों ने भी उनके साथ तीर्थयात्रा करने का मन बनाया। रास्ते में विश्राम करने के लिए रुकते समय आध्यात्मिक लोग उन स्थानों का चयन करते जहाॅं सत्संग होता हो या अन्य धर्मस्थल हो या प्रवचन होते हों । शराबी लोग उनकी नजर बचाकर उसी स्थान पर शराब की दूकानों का पता और उनकी दूरी के बारे में पूछा करते!

Sunday 10 November 2019

276 स्वस्थ और अस्वस्थ नींद

स्वस्थ और अस्वस्थ नींद

अनेक लोगों को सही नींद के बारे में उचित ज्ञान नहीं होता, वे देर तक जागकर गप्पें करते फिल्में देखते, वीडिओ गेम्स खेलते और देर से सोकर देर से ही जागते है। वास्तव में नींद हमारे शरीर और मन पर बहुत ही सकारात्मक प्रभाव डालते हुए ताजा बनाये रखने में उपयोगी है इसलिये कब सोना है कब जागना है इसका उचित ध्यान रखना चाहिये। नींद लेना समय की बरबादी नहीं है वरन शरीर को पुनः मौलिक  रूप में लाने का साधन है। इसलिये स्वस्थ रहने के लिये देरतक जागना और दिन में सोने की आदत त्यागना चाहिये। सूर्य का प्रकाश मानव शरीर को निर्माणात्मक और चंद्रमा का प्रकाश थकान का अनुभव कराता है, अतः रात में सोने पर ही शरीर के कोशों, नाड़ियों और ग्रंथियों को यथास्थिति पाने और पुनः ऊर्जावान हो पाने के लिये अनुकूलता मिलती है। इस प्रकार के निद्रा चक्र को बनाये रखने पर प्राकृतिक और जीववैज्ञानिक प्रभाव भी अनुकूल  रहते हैं। यही कारण है कि प्रातः काल सोकर उठने पर ताजगी का अनुभव होता है। दिन का प्रकाश मानव शरीर पर क्रियात्मक और रातें जड़ात्मक प्रभाव डालती हैं, अतः रातें मन और शरीर को अक्रियता और नींद की ओर ले जाती हैं। संध्या काल अर्थात, सूर्योदय, सूर्यास्त , दोपहर और अर्धरात्रि में चित्त पर सात्विक पारदर्शी प्रभाव पड़ता है इसलिये इन समयों में ईश्वर चिंतन करने से लाभ मिलता है। रात में सोने और दिन में काम करने का चक्र नियमित रहने पर शरीर स्वस्थ रहता है और कोई बीमारी होती भी है तो उसे दूर करने में सहायता मिलती है जैसे, एसीडिटी, इनडाइजेशन, हृदय रोग, सफेद कोढ़ और केंसर आदि। इसलिये दिन में सोने और देर तक रात में जागने से बचना चाहिये। लंबे जीवन  के लिये उचित निद्राचक्र का पालन करना अत्यावश्यक है इस संबंध में कुछ उपाय इस प्रकार हैंः-
1/ ज्यों ही नींद का आभास होने लगे तत्काल सो जाना चाहिये, परंतु यह नहीं कि नींद न आ रही हो तब भी सोने का प्रयास करना । 2/ वास्तव में सोने और जागने का निर्धारित समय बना लेना चाहिये । 3/ विस्तर से ब्रह्म मुहूर्त में ही जाग जाना चाहिये।
नींद और स्मृति में परस्पर गहरा संबंध है। कहा गया है ‘अभावप्रत्ययालम्बनी वृत्तिः निद्रा’ अर्थात् नींद वह वृत्ति है जो रिक्तता पर आश्रित होती है, या रिक्तता लाती है। जब कोई गहराई से सोता है तो उसे कुछ भी याद नहीं रहता, यह भी नहीं कि किस क्षण उसे नींद आ गयी। अतः सोने और जागने के समय के बीच स्मृति भंग थी । दिन में सोने से स्मृति की रिक्तता और बढ़ जायेगी और बौद्धिक तीक्ष्णता घटती जायेगी, अतः दिन में सोना त्यागना चाहिये। यह देखा गया है कि यदि सबेरे से 11 बजे तक किसी पाठ को याद किया जाय और थोड़ी देर तक अन्य काम में लग जायें तो याद किया गया पाठ याद बना रहता है परंतु यदि काम में न लग कर सो जायें तो जागने पर बहुत कुछ भूल जाते हैं। स्पष्ट है कि सोने से पहले जो घटनायें सीधे मन पर प्रभाव डाल चुकी हैं वे सोने के बाद जागने पर स्मृति से दूर चली जाती हैं, परंतु यदि जागते रहते हैं तो वे स्मृति में बनी रहती हैं। 24 घंटे में एक बार सोना उचित है परंतु अधिक बार सोना स्मृति को कम कर देता है, जो अधिक सोते हैं वे मूक हो जाते हैं उनकी स्मरण शक्ति कम हो जाती है। 
काम करने के बाद शरीर को आराम देने के लिये समय पर सोना और जागना चाहिये जिससे पुनः स्फूर्ति और ऊर्जा पाकर काम में जुटा जा सके। कुछ लोग कहते हैं कि अधिक सोने से स्वास्थ्य ठीक रहता है, यह गलत है, अधिक सोने वाले कभी जीवन में उत्कृष्ट कार्य नहीं कर पाते क्योंकि उनका अधिकाॅंश जीवन सोने में ही निकल जाता है और उनकी प्रगति अवरुद्ध हो जाती है। कुछ छात्र दिन में सोते और रात में जाग कर पढ़ते हैं यह स्वास्थ्य के लिये उचित नहीं है, उन्हें अपने सोने और जागने का समय निर्धारित कर लेना चाहिये।
अधिक निद्रा बहुत बड़ा दुर्गुण है। निद्रा वह अवस्था है जिसके समाप्त होने पर शून्यता का अनुभव होता है। अर्थात् जागने के तुरन्त बाद लोग नहीं जान पाते कि वे कहाॅं थे, सोने के पहले वे क्या कर रहे थे, समय का आभास नहीं रहता, दिन और रात का भी भान नहीं रहता। यदि कोई बहुत दिनों तक सोता ही रहे तो अन्त में उसका मानसिक विकास लम्बे समय तक अवरुद्ध हो सकता है। इस स्थिति के अधिक बने रहने पर उनकी ग्राह्य और बोध क्षमता घटती जाती है और अन्त में मानसिक शक्ति कमजोर पड़ जाती है, वे डरपोंक हो जाते हैं और अनेक समस्याओं से घिर जाते हैं। उनमें शारीरिक शक्ति भले हो पर साहस घट जाता है। आधुनिक भौतिकता से भरे युग में कहा जाता है कि कम से कम आठ घंटे नींद आवश्यक है पर यह ठीक नहीं है, गहरी नींद के चार घंटे भी पर्याप्त होते हैं । यदि गहरी नींद नहीं आती है तो शरीर अपने आपको ठीक ढंग से पुनः व्यवस्थापित नहीं कर पाता। इसलिए सही नींद के लिये समय का नहीं नींद की गहराई का अधिक महत्व होता है। सही नींद का अर्थ है स्वप्नहीन गहरी निद्रा। गहरी निद्रा में मन पूर्णतः विचारहीन होता है और उसे समय की गतिशीलता का बोध नहीं होता अतः इस अवस्था में कुछ घंटे की नींद ही शरीर और मन को आराम देने के लिए पर्याप्त होती है। 

Tuesday 5 November 2019

275 हमारी अज्ञात शक्ति

हमारी अज्ञात शक्ति
पशुओं और मनुष्यों के बीच में विभेदन का सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु है स्वतंत्र इच्छा का होना। परमपुरुष ने मनुष्यों को सोचने विचारने और निर्णय करने की स्वतंत्रता दी है जो पशुओं में नहीं है। मनुष्य के रूप में वही एक परमसत्ता पूर्ण रूप में परावर्तित होती है अतः वह स्वतंत्र कार्य कर अच्छे और बुरे में विभेदन कर सकता है। यह विशेष गुण अधिकांश  लोगों को ज्ञात ही नहीं होता जिससे  कि वह अपने जीवन को नियंत्रित कर संभावित प्राकृतिक प्रकोपों और  समस्याओं से जूझ सकता है। परंतु देखा यह गया है कि लगभग 99 प्रतिशत लोग अपनी स्वतंत्र इच्छा का दुरुपयोग करते हैं और नकारात्मक संस्कारों को आमंत्रित करते हैं। इस तरह स्वतंत्र इच्छा दुधारू तलवार की भाॅंति होती है जिसे आनन्द की उचाईयों और नर्क की गहराईयों दोनों  की ओर जाने में प्रयुक्त किया जा सकता है।
यदि कोई दूसरों को सताने के लिये ही यह या वह करने की सोचता है तो उसे सुअर या कुत्ते का शरीर मिल जाता है, इसलिये जो अच्छा सोचता है उसे अच्छा शरीर  अगले जन्म में मिलता है। यदि कोई हमेशा  स्वादिष्ट भोजन खाने के बारे में सोचता है तो परमपुरुष उसे भेड़िया का शरीर  दे देंगे, कोई महिला यदि आभूषणों के श्रंगार से अपने को सुन्दर दिखाने की सोच में ही डूबी रहती है तो परमपुरुष उसे मोर का शरीर दे देंगे और बहेलिया का तीर उसे मार डालेगा। यदि कोई राजा बनना चाहता है तो अगले जन्म में वह किसी गरीब के घर पैदा होगा और उसका नाम राजा रख दिया जायेगा। इसलिये  स्वतंत्र इच्छा से, सोचते समय बड़े सावधान रहने की आवश्यकता  होती है। मनुष्य अपनी इच्छा की शक्ति  को पहचानते नहीं हैं इसलिये वे नाम यश  और भौतिक संम्पत्ति के पाने के लिए  जी तोड़ पराक्रम में लगे रहते हैं और अंत में और अधिक बंधन में पड़ जाते हैं। वे पत्थर पेड़ या अन्य प्राणियों के शरीर भी अपने चिंतन के अनुसार पा जाते हैं। लोभी व्यक्ति बिल्ली का शरीर पा जाते हैं , वह उसकी मनोवृत्ति के अनुकूल होता है क्योंकि बिल्ली डंडे की मार खाकर थोड़ी देर में ही भूल कर वापस वहीं आकर दूध पीने की कोशिष में जुट जाती है। इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि हमें अपनी स्वतंत्र इच्छा का उपयोग परमपुरुष की चाह में ही करना चाहिये जो त्रिविध तापों को दूर करने का सामर्थ्य  रखते हैं। अर्थ केवल अस्थायी सुख देता है परंतु परमार्थ स्थायी इसलिये हमें परमात्मा कर ही चिंतन करना चाहिये क्योंकि परमार्थ के दाता वही हैं।। मानलो किसी को परमार्थ के विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं है और वह अपनी स्वतंत्र इच्छा के बारे में भी कुछ नहीं जानता तब वह केवल परमपुरुष की इच्छा से ही आगे बढ़कर उच्च स्थिति को पा सकता है इसलिये बुद्धिमान को चाहिये कि सबकुछ भूलकर परमपुरुष को ही अपना लक्ष्य मानकर चिंतन करे कि उनकी जो इच्छा हो उसके इसी जीवन में पूरी हो जाये।

Thursday 31 October 2019

274 चेतना

चेतना
मैट्रिक पास प्रायमरी के शिक्षक मेहताजी को, सच्चे दार्शनिक ज्ञान की पिपासा ने प्राइवेट बीए और एमए करने के बाद पीएचडी करने का मनोबल दिया और वे विश्वविद्यालय के एक धुरंधर प्रोफेसर के मार्गदर्शन में शोधकार्य करने की इच्छा से उनसे मिलने पहुॅंचे। उनका निवेदन सुनकर प्रोफेसर बोले,

‘‘ आप मेरे साथ ही शोधकार्य करने के लिए पंजीकरण क्यों कराना चाहते हैं?’’
‘‘ सर! आपका नाम उच्च स्तर के दार्शनिकों में माना जाता है, आपके लिखे अनेक ग्रंथ प्रकाश में हैं और आपके अनेक शिष्य पीएचडी प्राप्त कर आपका ही कीर्तिगान करते हैं।’’
‘‘ अच्छा! तो किस विषयवस्तु पर शोध करने की इच्छा है आपकी?’’
‘‘सर! अनेक ग्रंथों से सन्तों और मंदिरों से तीर्थों तक की दौड़ ने मुझे पराज्ञान अर्थात् आत्मा और परमात्मा के संबंध में केवल सैद्धान्तिक ज्ञान दिया है। मेरा विश्वास है कि आपने अपनी लम्बी साधना के बल पर इस संबंध में व्यावहारिक ज्ञान पाकर अवश्य ही इनकी अनुभूति कर ली होगी, इसलिए मैं आपका शिष्यत्व ग्रहण करने का इच्छुक हॅूं।’’
‘‘ देखिए मेहताजी ! आत्मा और परमात्मा से संबंधित ज्ञान की सैद्धान्तिक व्याख्या करने पर ही विश्वविद्यालय मुझे अच्छा वेतन देता है इसलिए मैंने भी अपने को यहीं तक सीमित कर रखा है।’’
‘‘ सर! मैं आपकी स्पष्टवादिता को प्रणाम करता हॅूं, परन्तु अन्य अनुभवों की तरह आपसे मिलकर भी मैं निराश ही हुआ हॅूं’’ मेहताजी ने गहरी सांस लेते हुए कहा और नमस्कार कर वापस आ गए।
धाराप्रवाह व्याख्यानों के लिए विख्यात प्रोफेसर उस दिन एमए की कक्षा में अपना व्याख्यान बार बार भूले।
डा टी आर शुक्ल , सागर।

Monday 28 October 2019

273 स्वामिनी

273
स्वामिनी

तुझे पुकारते हैं बार बार,
चाहते हैं इतना, कि
तेरे पीछे पीछे भागते हैं।

अपने अपने ढंग से पूजते,
आरती उतारते,
ये नर,
तुझे अपना बनाने की चाह में क्या क्या नहीं करते।

जबकि तू !
नारायण के सिवा किसी की नहीं।

चंचला तेरा नाम ललचाना तेरा काम,
तेरे कटाक्ष से घायल हुए,
ये,
हर क्षण रटते हैं तेरा ही नाम।

अपने अपने घरों में तुझे बंद करने के इच्छुक,
अगरबत्ती की सुगंध स्वयं ही सूंघते हैं!
और,
तुझको रिझाने की करते हैं कामना?

मेवे मिठाइयों का स्वाद लेते हैं खुद ही!
और,
कहते हैं ये है प्रसाद की अर्पणा?

रत्नाकर तेरा घर,
गृहपति परमेश्वर!
फिर भी ये सब अपहृत कर तुझको,
रेत के घरों को बता अपना...
तुझे स्वामिनी बनाने का संकल्प ठाने,
ध्वनि और धुएं का प्रदूषण फैलाकर
लगे हैं प्रकृति की धरोहर मिटाने!!

इन कृत्यों से कुंठित हो,
नारायण ने ली राह आज ही वैकुंठ की,
अब श्रीहीन धरती पर,
लक्ष्य रहित मानव,
किस कारण से खुश हो दीवाली मनाते हैं?

डा टी आर शुक्ल, सागर।
25 अक्टूबर 2003

Monday 21 October 2019

272अमृतत्व

अमृतत्व
याज्ञवल्क्य जी को ‘‘ब्रह्म विद्या’’ के विषयों पर शास्त्रार्थ में कोई पराजित नहीं कर पाया, सभी समकालीन विद्वान ऋषियों मुनियों ने अपनी अपनी पराजय उनके समक्ष स्वीकार कर ली थी। अपनी आयु के अन्तिम भाग में संन्नयास लेने की इच्छा से उन्होंने अपने अर्जित धन को दोनों पत्नियों ‘कात्यायनी’ और ‘मैत्रेयी’ में बाॅंट देने हेतु उन दोनों की इच्छाएं/ आवश्यकताएं जानना चाही। कात्यायनी ने अपनी आवश्यकताओं की लम्बी सूची उन्हें दे दी, पर मैत्रेयी ने पूछा,
‘‘यदि पृथ्वी का सभी सोना और कीमती वस्तुएं मुझे मिल जाएं तो क्या मैं अमर हो सकती हॅूं?’’
याज्ञवल्क्य बोले, ‘‘नहीं, जैसा भोग सामग्री से सम्पन्न लोगों का जीवन होता है वैसा ही तुम्हारा हो जाएगा, धन से अमृतत्व की आशा की जाना निरर्थक है।’’
‘‘ येनाहम नामृतत्स्याम् तेनाहम किम कुर्याम्?’’अर्थात्, जिसे लेकर मैं अमर नहीं हो सकती उसका मैं क्या करूंगी? इस धन के स्थान पर आप जो भी अमृतत्व का साधन जानते हैं वही मुझे दे दीजिए’’ मैत्रेयी बोली।
‘‘ बहुत अच्छा, मैत्रेयी! तुम मेरी इस व्याख्या पर चिन्तन करना’’ याज्ञवल्क्य ने प्रसन्न होकर कहा।
‘‘ मैत्रेयी! पति के प्रयोजन के लिए पति प्रिय नहीं होता, अपने ही प्रयोजन के लिए पति प्रिय होता है; स्त्री के प्रयोजन के लिए स्त्री प्रिया नहीं होती अपने ही प्रयोजन के लिए स्त्री प्रिया होती है; पुत्रों के प्रयोजन के लिए पुत्र प्रिय नहीं होते अपने ही प्रयोजन के लिए पुत्र प्रिय होते हैं; धन के प्रयोजन के लिए धन प्रिय नहीं होता अपने ही प्रयोजन के लिए धन प्रिय होता है; सबके प्रयोजन के लिए सब प्रिय नहीं होते अपने प्रयोजन के लिए ही सब प्रिय होते हैं। अतः मैत्रेयी! आत्मा (अर्थात् अपना आप) ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय और निदिध्यासन (ध्यान) करने योग्य है, इससे भिन्न कुछ नहीं है, यह दृश्य और अदृश्य सभी कुछ आत्मा ही है, इसका ज्ञान हो जाने पर सब कुछ ज्ञात हो जाता है, अप्राप्त भी प्राप्त हो जाता है।’’
‘‘ भगवन्! मुझे कुछ समझ में नहीं आया’’ मैत्रेयी बोली।
इस पर याज्ञवल्क्य ने अनेक उदाहरण देकर यह समझाया कि किसी भी घटना या तथ्य को अधबीच में पकड़ने का प्रयास विफल होता है परन्तु उसके श्रोत को पकड़ लेने पर सभी कुछ पकड़ में आ जाता है। परन्तु मैत्रेयी बार बार यही कहती रही कि उसे विशेषतः कुछ समझ में नहीं आया। 
इस पर याज्ञयवल्क्य बोले, ‘‘ जिस प्रकार नमक का टुकड़ा भीतर बाहर सब ओर से केवल नमकीन रस का ही घनीभूत रूप है उसी प्रकार आत्मा भी भीतर बाहर के भेद से रहित सम्पूर्ण प्रज्ञानघन ही है। यह अपने ही गुणरूपों अर्थात् अन्य भौतिक पदार्थों के साथ मिलकर विशेष प्रकार से अनेक आकारों प्रकारों में रूपान्तरित होता रहता है।’’
 ‘‘ भगवन्! मुझे फिर भी कुछ समझ में नहीं आया’’ मैत्रेयी बोली।
याज्ञयवल्क्य बोले, ‘‘अविद्या के प्रभाव से उसमें द्वैत और आकार प्रकार आभासित होते हैं इसी कारण अन्य अन्य को देखता है, सूंघता है, रसास्वादन करता है, अभिवादन करता है, सुनता है, मनन करता है, स्पर्श करता है। परन्तु जब सब कुछ में आत्मा की ही अनुभूति होने लगती है तब कौन किसको किसके द्वारा देखे, सुने, मनन करे, स्पर्श करे या जाने ? जिसके द्वारा यह सब कुछ जाना जाता है उसे किस साधन के द्वारा जाना जाय? उसे ‘नेति नेति’ कहा गया है उसे ग्रहण नहीं किया जा सकता , उसे नष्ट नहीं किया जा सकता, वह व्यथित और क्षीण भी नहीं होता। मैत्रेयी! विज्ञाति के विज्ञाता को किसके द्वारा जाना जाय? मति के मन्ता का  मनन कैसे किया जाय? दृष्टि के दृष्टा को कैसे देखा जाय? श्रुति के श्रोता का श्रवण कैसे किया जाय? इन तथ्यों पर चिन्तन करना यही अमृतत्व है।’’
ऋषि याज्ञवल्क्य के द्वारा इस संबंध में इसी प्रकार के दिए गए अनेक उद्धरण और तत्सम्बंधी व्याख्याओं के आधार पर ही ‘‘राजयोग’’ का नया मार्ग बना। ऋषि अष्टावक्र ने मानव शरीर के भीतर स्थित ऊर्जा केन्द्रों को आधार बनाकर इन्हीं उद्धरणों को व्यावहारिक रूप देने की पद्धतियों का विवरण ‘अष्टावक्र संहिता’ में दिया है जो कालान्तर में ‘‘राजाधिराज योग’’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है।

Saturday 12 October 2019

271 ओत योग और प्रोत योग

271 ओत योग और प्रोत योग
निर्पेक्ष परमसत्ता एक ही है दूसरी नहीं हो सकती। उसकी इस अद्वितीयता के कारण ही उसे बहुत बड़ा या ब्रह्म कहते हैं। कहा जाता है कि सभी कुछ उन्हीं एक से उत्पन्न हुआ है, उन्हीं में स्थित है और अंत में उन्हीं में लय हो जाता है। अपनी वैचारिक तरंगों को मूर्त रूप देने के समय उन्हें ‘ब्रह्मा’, पालन करते समय ‘विष्णु’ और अपने में लय करते समय ‘महेश’ के नाम से विद्वानों के द्वारा वर्णित किया जाता है। पुराणकार ने उन्हें अपनी कल्पना के अनुसार आकार भी दे डाले हैं परन्तु अपनी क्रियात्मक शक्ति से निर्माण, पालन और अन्त करने के समय उसकी ‘सगुणता या सापेक्षिकता’ इस ब्रह्माण्ड के रूप में ही देखी जाती है। उनकी इन समस्त गतिविधियों को दार्शनिक गण ‘‘ब्रह्मचक्र’’ कहते हैं। यथार्थतः यह किसी भी प्रकार से उस परमसत्ता से भिन्न नहीं है वरन् उन्हीं के विराट मन के भीतर ही स्थित है। वह निर्पेक्ष सत्य है तो उनकी यह सृष्टि सापेक्षिक सत्य है न कि मिथ्या, जैसा कि कुछ विद्वान कहते रहे हैं। यही कारण है कि वह अपनी प्रत्येक छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी रचना का व्यक्तिशः और सामूहिक रूप से ज्ञान रखते हैं उन्हें कहीं से कहीं जाना नहीं पड़ता, उनका बहिःकरण नहीं है सभी कुछ उनका अन्तःकरण ही है। किसी भी चिन्तनशील व्यक्ति के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि वह परमसत्ता इस विराट विश्व या जगत या ब्रह्माण्ड के प्रत्येक अस्तित्व को किस प्रकार अपने संपर्क में रखते हैं और किस प्रकार उनका ज्ञान रख पाते हैं? वेदों में इसे ‘ओतयोग’ और ‘प्रोतयोग’ के नाम से समझाया गया है।
ओतयोग को दार्शनिक नाम ‘व्यष्टिभाव’(individual association) और प्रोतयोग को दार्शनिक नाम ‘समष्टिभाव’(collective association) दिया गया है। व्यष्टिभाव की तीन अवस्थाएं क्रमशः जाग्रत (या स्थूल) स्वप्न (या सूक्ष्म) और सुषुप्ति (या कारण) बताई गईं है जिनके बीज क्रमशः विश्व, तैजस् और प्राज्ञ कहलाते हैं। समष्टिभाव को चार अवस्थाओं क्रमशः क्षीरसागर (या क्षीरोब्धि) गर्भोदक, कारणार्णव और तुरीय कहा गया है तथा इनके बीज क्रमशः विराट, हिरण्यगर्भ, ईश्वर (या सूत्रेश्वर) और ईश्वरग्रास कहलाते हैं।
इस प्रकार वह परमसत्ता अपने ओतयोग और प्रोतयोग से व्यक्तिशः और सामूहिक रूप से सदा ही जुड़े रहते हैं जबकि अन्य सभी दर्शनों में उन्हें पृथक कहीं अन्यत्र सातवें आकाश का निवासी और हम सबका दंडाधिकारी बताकर डराया गया है। स्पष्ट है कि जब हमसब उन्हीं के विराट मन की तरंगों के छोटे छोटे भाग हैं तो उनसे डरकर पृथक रहकर उन्हें जानने समझने का प्रयास कैसे कर सकते हैं। उन्हें जानने के लिए तो हमें उनसे पृथकता की भावना को त्यागना ही होगा और परमपिता होने के कारण उनसे निर्पेक्ष प्रेम करना होगा अन्यथा हम उनसे दूर दूर ही बने रहेंगे और यह दूरी बढ़ती ही जाएगी। उन्हें जानने और अनुभव करने के लिए हमें उस केन्द्र की ओर जाना होगा जहाॅं से हमारी तरंग का उद्गम हुआ है, न कि परिधि की ओर। उपनिषदें भी कहती हैं कि ब्रह्माण्ड के सभी अस्तित्व अपने अपने स्वनिर्मित लक्ष्य और आजीविका  को पाने के लिए इस ब्रह्मचक्र में भटक रहे हैं परन्तु उन्हें अपने मूल लक्ष्य अर्थात् परमत्ता (या अमरत्व) की प्राप्ति तबतक नहीं हो सकती जबतक वे अपने को उस उत्पन्नकर्ता से पृथक मानते रहेंगे।
सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते, अस्मिन हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे।
पृथगात्मानं प्रेरितारं  चा मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति।(श्वेताश्वर 1/6)
कुछ विद्वानों का मत है कि उन्हें पाना उनकी कृपा के बिना सम्भव ही नहीं है। इस पर कुछ लोग तर्क देते हैं कि जब उनकी कृपा से ही उन्हें पाया जा सकता है तो हमारे किसी भी उपाय (साधना, भजन, ध्यान, चिन्तन आदि) करने का महत्व ही क्या है? इसका उत्तर यह है कि हम उनकी कृपा पाने के लिए हाथ पर हाथ धरे अकर्मण्य तो नहीं हो सकते, हमें कुछ न कुछ तो करना ही होगा क्योंकि इस संसार में कोई भी बिना कार्य किए रह नहीं सकता। इसलिए अच्छा तो यही है कि हम उनकी कृपा पाने के लिये उचित योग्यता प्राप्त करने का उपाय अवश्य करें जिनके अनेक प्रकार मनीषियों ने समझाए हैं।

Thursday 10 October 2019

270 प्रशंसा की चाह: मानसिक बीमारी


 प्रशंसा की चाह: मानसिक बीमारी

अपनी प्रशंसा और उसके प्रसार में क्यों लगे रहना चाहिये, किसके लिये अपनी प्रशंसा? ये हरकतें तो धनलोलुप मसखरे भिखारियों की प्रवृत्ति है। वास्तव में जो मन का विज्ञान नहीं समझते हैं वे ही आत्मप्रशंसी होते हैं।
जब कोई व्यक्ति अपने अहं की तुष्टि के लिये अपने मन को केन्द्रित करने लगता है तो आशायें भंग होते ही कुंठायें अगल बगल में घिर जाती हैं जो घोर मानसिक कष्टों की जन्मदाता होती हैं। यही कारण है कि दूसरों के द्वारा प्रशंसा किये जाने पर घमंड तो आने ही लगता है, प्रशंसा करने वाले पर हम आश्रित हो जाते हैं  और जब प्रशंसा नहीं मिलती है तो मन पर आघात लगता है और असमानता की ओर प्रवृत्ति बढ़ जाती है। सबसे घातक परिणाम तो यह होता है कि इस प्रकार के लोग यह भूल जाते हैं कि ईश्वर ने बहुत ही सीमित शक्ति उन्हें दी है जिसे उनका उपहार न समझ घमंड से हम अपना मान लेते हैं और अपना ही विनाश आमंत्रित करते हैं। इसीलिये कहा गया है कि ‘‘अहंकारः पतनस्य मूलम्’’। वास्तव में यह भौतिकवाद की प्रशाखा ही है। वे जो भौतिकता को पाना ही जीवन का उद्देश्य बना बैठे हैं, वे ही इस प्रकार की मानसिक बीमारी से घिरे रहते हैं जो उन के मन में दिन रात प्रशंसा की चाह बनाये रखती है।
 इसलिये यदि किसी की प्रशंसा करना ही है तो ‘हरि’ की ही प्रशंसा करना चाहिये। परंतु यहाॅं  समाज की इस व्यंगात्मकता को ध्यान में रखना चाहिये कि महान कर्म करने वालों को उनके जीवन में समाज से कभी मान्यता नहीं मिलती उल्टा अपमान ही मिलता है। इसलिये समाज के हित में नया काम करने वाले ध्वज वाहकों को कभी इसकी चिंता नहीं करना चाहिये कि लोग उनकी निंदा करते हैं या स्तुति वरन् अपने काम में बिना किसी हिचक के आगे बढ़ते जाना चाहिये। वे जो आज निंदा करते हैं कल यही कहेंगे कि पूर्वजों ने कितना अच्छा रास्ता बनाया कि आज हम उस पर सरलता से चल पा रहे हैं।

Monday 7 October 2019

269 वेद वाक्य

 वेद वाक्य
नवीनतम शोध कहते हैं कि वैदिककाल में सेंट्रलएशिया और पूर्वीयूरोप से दक्षिणपूर्वएशिया में एकसमान भाषा बोली जाती थी। इस भाषा की एक शाखा जो दक्षिणपूर्व एशिया में बोली जाती थी वह ‘‘संस्कृत’’ और दूसरी शाखा जो उत्तरपूर्वीय भागों में बोली जाती थी वह ‘‘वैदिक’’ कहलाती थी। लोग वैदिक और संस्कृत को समानार्थी मानकर वेदों में कही गई बातों को अलग अलग अर्थ में समझने की भूल करते रहे हैं। वैदिक साहित्य में एक ही शब्द को अनेक अर्थों में प्रयुक्त किया गया है तथा उपमा और रूपक अलंकारों में छंदबद्धता बनाए रखने के लिए उनमें देश, काल और पात्र (स्पेस, टाइम और पर्सन) के अनुसार समय समय पर विकृतियाॅं किए जाने से भी उनके अर्थ बदलते रहे हैं (क्योंकि प्रारंभिक काल में  वैदिक में व्याकरण का विशेषतः उपयोग नहीं होता था)। संस्कृत में व्याकरण के साथ सुसंगति होने के कारण यह दोष नहीं पाया जाता है इसलिए वैदिक साहित्य को समझने में यद्यपि संस्कृत सहायक है परन्तु शुद्ध वैदिक को तो उसी भाषा के नियमों से ही सही सही समझा जा सकता है।
ऋक् + क्विप =ऋक। वैदिक क्रिया ‘ऋक’ का अर्थ है, गीत से या सामान्य बातचीत से ‘ महिमामंडन करना ’ जबकि ‘‘ऋक’’ का संस्कृत में अर्थ है ‘स्तवन’ करना। प्राचीन समय में  लोग प्रकृति के विभिन्न रूपों को किसी न किसी देवता का खेल मानते थे अतः उन्होंने उनके लिए स्तवन या भजन करना प्रारंभ किया। जब उन्होंने उषा, इन्द्र, पर्जन्य, मातरिष्वा, वरुण आदि के भजन गाए तब उन्हें ‘साम’ कहा गया। उस समय तक लिपि का अनुसंधान नहीं हुआ था इसलिए शिष्य अपने गुरु से मौखिक शिक्षा को सुनकर ग्रहण किया करते थे इसलिए वेदों को श्रुति भी कहा जाता है ( श्रु+ क्तिन= श्रुति। क्रिया ‘श्रु’ का अर्थ है, सुनना।) सांसारिक जानकारी के लिए क्रिया ‘ज्ञा’ के स्थान पर ‘विद्’ का उपयोग किया जाता है। इसी क्रिया से ‘‘वेद, विद्या और विद्वान’’ शब्द बने हैं। इन विद्वानों के द्वारा कहे गए वाक्य ज्ञान के वचन थे अतः उन्हें जानकर तत्कालीन असंस्कृत लोग भी संस्कृति के प्रकाश की ओर बढ़ने लगे इसलिए उन्हें ‘वेद’ या ‘ज्ञान’ कहा गया। वेदों के सबसे पुराने भाग के प्रत्येक श्लोक को ‘ऋक’ कहा गया है, जब अनेक श्लोकों को एक साथ रखकर किसी विचार को प्रदर्शित किया जाता है तो उसे कहा गया है ‘सूक्त’  और अनेक सूक्तों को संग्रहित कर बनाया गया है ‘मंडल’ ।
ऋग्वेद को प्राचीनकाल में प्रमुख वेद माना जाता था केवल इसलिए नहीं कि वह सबसे पुराना था वरन् इसलिए कि वैदिकदीक्षा ऋग्वेद के सावित्र ऋक पर न्यूनाधिक रूप से आधारित थी यद्यपि आध्यात्मिक साधक के लिए भौतिक संसार और आध्यात्मिक संसार में संतुलन बनाए रखकर आगे बढ़ने के क्षेत्र में सहायक होने के दृष्टिकोण से यजुर्वेद, ऋग्वेद का अतिक्रमण कर जाता है। यजुर्वेद में शब्दों का उच्चारण और ध्वनि विज्ञान, ऋग्वेद से बिलकुल भिन्न है। यजुर्वेद, विद्यातन्त्र के अधिक निकट है और अथर्व भी लगभग हर पद पर विद्यातन्त्र से मिश्रित पाया जाता है। हजारों वर्षों के यात्राकाल में वेदों के मंत्र किस प्रकार विकृत हुए हैं उन्हें निम्नांकित उदाहरण से समझाया जा सकता है-
एक वेद कहता है,
‘‘सहस्त्र शीर्षा पुरुषाः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात, 
सा भूमिर्विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलम्।’’
दूसरे वेद में मंत्र की पहली लाइन वही है दूसरी इस प्रकार कही गई है 
‘‘ सा भूमिम् सर्वतो स्पृत्वा अत्यतिष्ठद्दशागुलम्।’’
तीसरे वेद में भी पहली लाइन वही है दूसरी इस प्रकार पायी जाती है, ‘‘सर्वतोवृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलम्।’’
इस प्रकार यदि इस मंत्र के शाब्दिक अर्थ ही लिए जाएं, जैसा कि प्रायः व्याख्याकार करते हैं, तो अर्थ का अनर्थ होना स्वाभाविक है। उपमा और रूपक अलंकारों के आधार पर भी उनके अर्थ को न समझा जाए तो सब कुछ गड़बड़ हो जाता है। समय के अनुसार ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के उच्चारण भी बदलते गए हैं। शब्दों के बदल जाने से उनके अर्थ, उच्चारण और प्रभाव भी बदल जाते हैं। वर्तमान में अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग उच्चारण की पृथा प्रचलित है जैसे, बंगाल में यजुर्वेदीय और गुजरात में ऋग्वेदिक। पूर्वोक्त श्लोक का शाब्दिक अर्थ प्रायः यह किया जाता है, 
‘वह परमपुरुष जिसके हजारों सिर, आँख  और पैर हैं इस धरती सहित पूरे विश्व को अपनी दसों अंगुलियों में समेटे हुए है।’ 
दूसरे श्लोक में यही अर्थ ‘वह परमपुरुष जिसके हजारों सिर, आँख और पैर हैं इस धरती  को अपनी दसों अंगुलियों से स्पर्श किए हुए है’ हो जाता है।
और तीसरे श्लोक में ‘वह परमपुरुष जिसके हजारों सिर, आँख  और पैर हैं सबको अपनी दसों अंगुलियों में समेटे हुए है’ हो जाता है।
विद्यातंत्र विज्ञान में यही बात रूपक में कहे गए व्यापक भाव को व्यावहारिक आधार पर इस प्रकार समझाई गई है ‘‘वह सर्वव्याप्त, सर्वज्ञाता और सर्वशक्तिमान परमसत्ता जो अपने भीतर समस्त ब्रह्माण्डों  को समेटे हुए है वह हमारी त्रिकुटी ( अर्थात् आज्ञा चक्र) से दस अंगुल दूर (अर्थात् सहस्त्रार चक्र पर) पाया जाता है।’’ 
विद्यातंत्र विज्ञान में हमारे शरीर में ही त्रिकुटी से नीचे के भाग को ‘अपरा’ और उससे ऊपर के भाग को पराविद्या का क्षेत्र माना गया है। अतः परमसत्ता को साक्षीसत्ता के रूप में सहस्त्रार चक्र में ध्यान करने की यौगिक विधियों से साक्षात्कार करने का सुझाव दिया जाता है। 
यथार्थतः विद् को मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया गया है, एक ‘पराविद्या’ और दूसरा ‘अपराविद्या’। पराविद्या ज्ञान की वह शाखा है जिसमें विश्लेषण द्वारा अनन्त से सीमित या सान्त तक और संश्लेषण द्वारा सान्त से अनन्त तक का ज्ञान कराया जाता है। यह शाखा व्यक्ति को ‘आत्मज्ञान’ की स्वर्णिम रेखा तक ले जाती है जो सांसारिक ज्ञान और आत्मज्ञान के बीच विभाजक रेखा होती है। इस रेखा के उस पार ही सर्व ज्ञानात्मक सत्ता का चिन्तन हो पाता है। 
पराविद्या में चार चरण होते हैं, पहले चरण में व्यापक अध्ययन के द्वारा संबंधित सभी शंकाओं को दूर करती है दूसरे चरण में आन्तरिक और वाह्य विचारों पर ज्ञान का सदुपयोग करने के लिए विवेकपूर्ण विश्लेषण करने की पद्धति सिखाती है। तीसरे स्तर पर परिप्रश्न द्वारा आध्यात्मिक आदर्श को दृढ़ करती है और चौथे  स्तर पर परमसत्ता के प्रति आत्मसमर्पण करना सिखाती है। 
अपराविद्या में केवल तीन चरण होेते हैं, पहले चरण में व्यापक अध्ययन के द्वारा संबंधित सभी शंकाओं को दूर करती है जिससे संसार का कल्याण कर सकें, दूसरे स्तर पर प्राप्त किए गए ज्ञान का विवेकपूर्ण विश्लेषण करना, तीसरे स्तर पर प्राप्त ज्ञान के सारतत्व को संसार के कल्याण के लिए प्रयुक्त करने हेतु आवश्यक विधियों की खोज करने को प्रेरित करती है। स्पष्ट है कि पराविद्या एक कदम आगे जाकर मोक्ष का रास्ता खोलती है जिसमें आत्मज्ञान की आवश्यकता होती है।
निष्कर्ष यह है कि संस्कृत में कही गई सभी बातें वेद वाक्य नहीं हैं और न ही वेद की सभी ऋचाएं निर्दोष। हमें वेदों में वर्णित ब्रह्मविज्ञान को समझने के लिए वैदिक और संस्कृत का प्रारंभिक ज्ञान तो होना ही चाहिए तथा वेदों के उपसंहारक भाग ‘उपनिषदों’ के भीतर उसे खोजकर विद्यातंत्रविज्ञान के माध्यम से व्यावहारिक विधियों को समझकर तर्क और विज्ञान के सहारे स्वविवेक से निर्णय लेना चाहिए।

Monday 30 September 2019

268 मानव जीवन का प्रधान पथ ‘‘ईश्वर’’

मानव जीवन का प्रधान पथ ‘‘ईश्वर’’
विश्व के सभी दर्शनों, सभी सिद्धान्तों और व्यावहारिक पद्धतियों में ‘‘ईश्वर’’ का पथ ही मान्यता प्राप्त है। इस पर चलने के लिए मनुष्य की चार प्रकार की आन्तरिक इच्छाएं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष होती हैं। इसलिए आध्यात्मिक चाहत, मानव मन की मौलिक उत्चेतना है।
मानव का मन, उत्चेतना(urge) उत्वृत्ति(passion) वृत्ति(propensity) और भावप्रवणता(sentiment) इन चार प्रकार के तथ्यों/भावनाओं से मार्गदर्शित होता है। मानलो किसी व्यक्ति ने अपने मित्र से कहा कि वह कलकत्ता जाना चाहता है और उसका मित्र उसे अनेक आपत्तियाॅं बता कर रोकता है फिर भी वह उसकी बात न मानकर कलकत्ता चला जाता है तो इसे उस व्यक्ति की उत्चेतना(urge) कहते हैं। अब, यदि वह व्यक्ति अपने मित्र के रोके जाने पर उसे धमकी देता है तो इसे उसकी उत्वृत्ति(passion) कहेंगे। यदि वह व्यक्ति अपने मित्र से कलकत्ता उसके साथ चलने के लिए आग्रह करता है और कहता है कि वहाॅं जाकर ही उसकी अनेक आशाओं और इच्छाओं की पूर्ति सम्भव है तो यह उसकी वृत्ति(propensity)  कहलाएगी; परन्तु यदि मित्र उस व्यक्ति को समझाता है कि उस महानगर में बड़ी मंहगाई है, रहने के लिए स्थान मिलना कठिन है, आर्द्रता रहने से तुम्हारा स्वास्थ्य खराब हो सकता है आदि आदि तर्क सुनने के बाद भी वह कलकत्ता चला जाता है तो यह कहलाएगी उस व्यक्ति की भावप्रवणता(sentiment)।
मानव समाज के विभिन्न समूहों का अपना अपना मनोविज्ञान होता है परन्तु किसी प्रकार के सामाजिक आर्थिक सिद्धान्त को मानव मनोविज्ञान के मूल तत्वों के विरुद्ध नहीं होना चाहिए। अभी तक विश्व में जितने भी सामाजिक आर्थिक सिद्धान्त प्रचलित हैं वे मानव मनोविज्ञान के इन मौलिक तत्वों को ध्यान में रखकर नहीं बनाए गए हैं अतः वे असफल हो रहे हैं और समाज कष्ट भोग रहा है।

Sunday 22 September 2019

267 पराभक्ति

 पराभक्ति
सभी लोग अपनी अपनी मान्यताओं के अनुसार जिसमें आस्था रखते है उसके प्रति पूज्य भाव उत्पन्न कर लेते हैं । इसी आधार पर वे अनेक अपेक्षाएं भी पाल लेते हैं और चाहते हैं कि उनके द्वारा की जा रही पूजा से उन्हें  वाॅंछित फल मिल जाएगा। अर्थात् यदि वाॅंछित फल के पाने की संभावना न हो तब वे पूजा करना नहीं चाहेंगे। कुछ लोग इसी आशा में अनेक प्रकार के देवी देवताओं को पूजते देखे जा सकते हैं। पूजा करने के समय उनके निवेदन लगभग इस प्रकार के होते हैं।  
‘‘हे प्रभु! मुझे अपार दौलत और सुखोपभोग की वस्तुऐं प्राप्त हो जाएं, 
मैं उच्च पद को प्राप्त कर लॅूं, 
मैं परीक्षा में पास हो जाऊं, 
मेरी अच्छी नौकरी लग जाए, 
मेरा स्वास्थ्य ठीक हो जाए, 
मैं कोर्टकेस जीत जाऊं, 
मेरी बेटी की शादी अच्छे घर में हो जाए, 
मेरे सभी शत्रुओं का अन्त हो जाए.... आदि ।’’ 
इस प्रकार की अनेक इच्छाओं की पूर्ति वे अपने चंदन, फूल, माला, नारियल, अगरबत्ती और मिष्ठान्न आदि की भेंट के बदले में कराना चाहते हैं। अब यदि उनकी मान्यताओं के अनुसार देवता या भगवान उनकी प्रत्येक इच्छा की पूर्ति करने बैठ जाएं तो क्या होगा?
भगवान इस प्रकार की याचना की पूर्ति कर भी सकते हैं और नहीं भी, परन्तु मेरे विचार से अधिकतर मामलों में वे उदासीन ही रहते हैं। सोचने की बात है कि उन्होंने आपको शरीर, मन, बुद्धि, विवेक सब कुछ देकर उनका अधिकतम उपयोग करने के लिए धरती पर भेजा है; पराक्रम कर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए अपने लक्ष्य को पाने के लिए। यदि लक्ष्य भूलकर हम अन्य किसी की याचना करते हैं तब उसका पूरा हो पाने की संभावना न्यून ही हो जाती है।
ईश्वर ने यह सृष्टिचक्र बहुत ही व्यवस्थित बनाया है जिसमें अधिकांशतः प्रकृति अपने गुण और स्वभाव से लगातार रूपान्तरण करते हुए इसे पूरा करती है। वनस्पति और मनुष्येतर प्राणी पूर्णतः प्रकृति पर आश्रित होकर आगे बढ़ते हैं जबकि मनुष्य अपने विवेक का उपयोग कर प्रकृति की सहायता ले, उस पर नियंत्रण पाकर अपने लक्ष्य को पा सकता है। पर प्रश्न यह है कि मनुष्य अपनी अग्रगति के लिए ईश्वर से कुछ मांगे या नहीं? इसका उत्तर है भौतिक जगत की किसी भी वस्तु को तो नहीं ही मांगना चाहिए। हाॅ, उनसे केवल ‘‘पराभक्ति’’ ही मांगना चाहिए जिसमें स्वयं को उनके प्रेम में आत्मसमर्पित किया जाता है। आत्मसमर्पित किए हुए भक्त के समक्ष, उसके भगवान सदा ही उपलब्ध रहते हैं और जिसके साथ भगवान स्वयं हों उसे अन्य किसी की आवश्यकता ही कैसे हो सकती है। हम सबका लक्ष्य ईशोपलब्धि करने का ही होना चाहिए।  

Friday 13 September 2019

266 मदन मर्दन

(हिन्दी दिवस पर)
मित्रो! इस घटना के सत्य होने का दावा मैं नहीं करता परन्तु इसे मेरे नानाजी ने मुझे पचास वर्ष पहले (जब मैं विश्वविद्यालय की प्रारंभिक कक्षाओं का छात्र था)  इस प्रकार सुनाई थी कि उसके सत्य होने में मुझे कोई शंका नहीं हुई। इसके साथ जुड़े अन्य उपाख्यानों और उनकी शब्दावली को मैं ने संपादित कर बुंदेली की एक अलंकारिक रचना से जोड़ दिया है जिसके रचियता का नाम ज्ञात नहीं है; इसे कक्षा नौ में पढ़ते समय मेरे हिंदी विषय के शिक्षक ने सवैया छंद की मात्राओं की गणना करने का अभ्यास करने के लिए दी थी। कहानी के साथ इसका रसास्वादन कीजिए और अपना मत व्यक्त कीजिए।
मदन मर्दन
एक संस्कार सम्पन्न सेठ की अचानक मृत्यु हो जाने पर ब्यापार का पूरा काम उसके इकलौते लड़के के ऊपर आ गया।  वह भी अपने पिता के अनुसार बनाई गई ब्यवस्था का पालन करते हुए सफलता पाने लगा। उसकी योग्यता के कारण एक अत्यन्त सम्पन्न घराने की सुन्दर कन्या से उसका विवाह हो गया। एक बार लड़के को ब्यापार के सिलसिले में 10-15 दिन के लिए दूरस्थ शहर जाना पड़ा। दोनों यौवनावस्था के उस दौर में थे कि एक दूसरे से एक दिन भी दूर नहीं रह सकते थे फिर इतने दिन की दूरी तो साक्षात् मौत ही थी। लड़के की पत्नी बोली ‘‘आप इतने दिन के लिये हमसे दूर जा रहे हो, मैं अकेली कैसे रह पाऊंगी?’’ वह बोला ‘‘घर में सबकुछ है, नौकर चाकर हैं, कोई कठिनाई नहीं आयेगी, काम पूरा होते ही आ जाऊँगा।’’ उसकी पत्नी  कामुक प्रकृति की थी और उस पर नई नई शादी, फिर इतना लम्बा बिछोह कैसे सहेगी, उसकी यही समस्या थी। 
वह बोली, ‘‘ जिस आवश्यकता की पूर्ति केवल आप ही कर सकते हों वह इन नौकरों और सब साधनों से क्या सम्भव हो सकेगी? यदि किसी दिन कामुकता ने प्राणघातक हमला कर दिया तो मैं क्या करूंगी?’’ लड़का बोला ‘‘चिन्ता की बात नहीं, उस दिन तुम छत पर जाकर सूर्योदय से पहले दक्षिण दिशा में देखना जो व्यक्ति सबसे पहले उस इमली के पेड़ के पास दिखे उसे बुलाकर अपनी इच्छा की पूर्ति कर लेना, यह मेरी सहमति है।’’ यह कहकर वह  यात्रा पर चला गया। इधर तीन चार दिन ही मुश्किल से बीते होंगे कि उसकी पत्नी  कामाग्नि से पीड़ित हुई। बार बार सबसे ऊपर की छत पर जाती, नीचे आती और सोचती, 
‘‘ परसों कहि कन्त विदेश गए, अजहॅूं न भई परसों नरसों,
इत निष्ठुर यौवन बैरि परो, उत मेघ कहें बरसों बरसों’’
हौं बारहिं बार अटारि चढ़ों, और ठाड़ि रहों तरसों तरसों,
जिय होत उड़ाय के जाय मिलों, पै उड़ो नहिं जात बिना परसों।’’
बहुत प्रयत्न करने पर भी जब रहा न गया तो अगले दिन उसने सूर्योदय से पहले ही छत पर पहुँचकर दक्षिण दिशा  में दृष्टि दौड़ाई; उसे एक आदमी केबल अन्तः वस्त्र पहिने, हाथ में  एक मिट्टी का करवा (लोटा) लिए जाता दिखाई दिया। उसने फौरन नौकर को उस ओर दौड़ाया और कहा ‘‘ उन सज्जन को आदरपूर्वक, यहाँ आने के लिये मेरा निवेदन पहुँचा दो।’’  नौकर उस आदमी के पास पहुँचा और सेठ जी की बहु  का सन्देश  पहुँचाया, वह भी तत्काल साथ आ गये। बहु  ने उन्हें नमस्कार करते हुए ऊपर चलने के लिये सीढ़ियों की ओर इशारा किया। वह बिना झिझक ऊपर चढ़ने लगे, चार पाँच सीढ़ियाँ चढ़ ही पाये थे कि उनके हाथ का करवा (मिट्टी का लोटा) जमीन  पर गिर कर चूर चूर हो गया। 
वे तत्काल मुड़े और वापस लौटने लगे, बहु  बोली, ‘‘महोदय! क्या हुआ, वह तो मिट्टी का था इसलिए टूट गया; मैं आपको सोने, चाँदी, जैसा कहें बढ़िया लोटा दे दूँगी पर बापस न लौटिए, मेरे साथ चलिये।’’ सज्जन बोले, ‘‘उस मिट्टी के करवे ने ही मुझे साँगोपाँग देखा था, अब दूसरा कोई देखे इससे पहले मैं अपना अस्तित्व करवे की भाँति छिन्न भिन्न कर देने में ही भलाई समझता हूँ।’’ 
इतना कहकर वह चले गए पर सेठ की बहु का मस्तिष्क सक्रिय कर गये। वह सोचने लगी कि ‘‘जब यह आदमी एक निर्जीव वस्तु के साथ अपनी एकनिष्ठता नहीं तोड़ सकता तो मैं अपने प्राणप्रिय के साथ यह क्या करने जा रही थी?’’
उसने अपने को धिक्कारा और ईश्वर को धन्यवाद दिया कि उसने इस आदमी के माध्यम से सद्ज्ञान देकर पतन होने से बचा लिया।   

Sunday 8 September 2019

265 चिकित्सा पद्धतियाॅं

चिकित्सा पद्धतियाॅं

चिकित्सा के क्षेत्र में आजकल एलोपैथी, आयुर्वेद, नेचुरोपैथी और होमियोपैथी में इलाज करने की पद्धतियाॅं/विधियाॅं प्रयुक्त की जाती हैं। समस्या यह है, कि हमें किस पद्धति को विश्वास पूर्वक अपनाना चाहिए ? एलोपैथी में व्यापक नैदानिक परीक्षण से शल्यक्रिया करने या उपचार की व्यवस्था है परन्तु देखा गया है कि इन दवाओं के साइड इफेक्ट होते हैं और क्रोनिक बीमारियों में तो आजीवन दवा लेना पड़ती है। आयुर्वैदिक दवाएं सचमुच गंभीर बीमारियों को ठीक करते देखी जाती हैं। नेचुरोपैथी में प्राकृतिक रूप से वायु , जल, प्रकाश और भूमि का प्रयोग किया जाता है पर वे कोई दवा का प्रयोग नहीं करते इसलिए यह सीमित हो जाता है क्योंकि मरीजों को इससे अपेक्षित चिकित्सा और सेवा हमेशा प्राप्त नहीं होती। होमियोपैथिक दवाओं की विशेषता यह है कि वे बहुत सूक्ष्म होती हैं और गहराई से कार्यशील होती हैं क्योंकि वे रोगी के लक्षणों के आधार पर निर्धारित की जाती हैं। इसकेे विपरीत एलोपैथिक और आयुर्वेदिक दवाएं रोगी के लक्षणों पर आधारित न होकर बीमारी पर आधारित होती हैं। होमियोपैथिक दवा सूक्ष्म होने के कारण यदि गलत भी दे दी जाए तब भी वह भले लाभ न पहॅुंचाए पर हानि नहीं पहुॅंचाती जबकि एलोपैथी और आयुर्वेदिक दवा गलत दे दी जाय तो घातक ही होती है। होमियोपैथिक दवाओं की एक विशेषता यह भी है कि ये अपेक्षतया सस्ती होती हैं और आधुनिक कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग हो जाने के कारण कोई भी व्यक्ति अपने रोग के लक्षणों आधार पर बिना डाक्टर के पास जाए स्वयं ही इन्हें ले सकता है, परन्तु गंभीर मामलों में डाक्टर से ही परामर्श लेना चाहिए।  होमियोपैथी का सिद्धान्त है ‘‘समः समम शाम्यति’’। इसलिए जितनी क्रूड बीमारी होती है उतनी ही सूक्ष्म दवा चयनित की जाती है और वह तेजी से रोग पर प्रभावी होती है। महाभारत काल में भीम को दुर्योधन के द्वारा दिए गये विष की चिकित्सा कृष्ण के सुझाव पर  विष के द्वारा किए जाने के प्रमाण पाए जाते हैं जो ‘‘समः समम शाम्यति’’ के सद्धान्त के अनुसार ही है। उस समय आयुर्वेद में विष चिकित्सा पर शोध के अलावा ‘‘सूचिकाभरण’’ (जिसे आजकल इंजेक्शन कहा जाता है) पर भी प्रचुर जानकारी उपलब्ध थी परन्तु उस समय लोगों में यह अंधविश्वास फैला था कि शरीर में बाहरी द्रव्य सीधे ही नहीं भेजा जाना चाहिए, अतः इस कार्य के विकास में अवरोध आ गया । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इंजेक्शन से दवा देना सहज माना जाता है। चाहते हुए या न चाहकर भी होमियोपैथी और आयुर्वेद दोनों ही पद्धतियों में विशेषज्ञों द्वारा इंजेक्शन लगाना स्वीकार किया जा चुका है। 
वास्तव में भारत का वैद्यक शास्त्र और आर्यों का आयुर्वेद कृष्ण के काल तक परस्पर मिल कर एक हो गए थे परन्तु आर्यों द्वारा भारत के मूल निवासियों अर्थात् अनार्यों को हेय  दृष्टि  से देखा जाना जारी  था और उन्हें प्रायः राक्षस या म्लेच्छ कहा जाता था। महाभारत काल में कृष्ण के फुफेरे बड़े भाई जरासंध का जन्म सिजेरियन अर्थात शल्यक्रिया के उपरांत ही हुआ था जिसे ‘जरा‘ नाम की महिला डाक्टर ने की थी। इसीलिए वह जरासंध ( अर्थात जिसे  ‘जरा‘ राक्षसी के द्वारा शल्य क्रिया से सिल कर जन्म दिया गया) कहलाये।  ‘जरा’ को राक्षस  कुल की होने के कारण जरा राक्षसी कहा गया है परन्तु जरासंध इस कुल को आदर देते थे और राक्षसी विद्या में पारंगत  हुए। राक्षसी विद्या का अर्थ है सम्मोहन या  हिप्नोटिज्म, इस विद्या में पारंगत  अन्य महिला थीं हिडिम्बा (भीम की पत्नी)। इस विद्या का जानकार  उन्नत मन, अनुन्नत मन पर अपना प्रभाव डालकर अपने आधीन कर सकता है।  विशूचिका (हैजा) रोग के उपचार के लिए सुई लगाने की विधि ‘सूचिकाभरण’ का ज्ञान इसी कुल की अन्य महिला चिकित्सक ‘कर्करि‘ को था। आर्य इन लोगों को हेय मानकर तिरस्कार करते थे। इस प्रकार की अनेक विद्याएँ भारत में बहुत पहले विकसित हो चुकीं थीं परन्तु प्रोत्साहन के आभाव में वे जानकार के साथ ही विलुप्त होती गईं। बौद्धकाल में तो शवच्छेद ( डिसेक्शन) को बहुत ही हीन कार्य और अस्पृश्य माना जाने लगा था अतः उन्नत शल्य चिकित्सा विलुप्त हो गई। आज हम पाश्चात्य देशों से उन्हें जान पाते हैं और उन्हें ही इनकी खोज का श्रेय देते हैं। 
आजकल कोई भी डाक्टर केवल अनुमान ही लगा सकते हैं कि कौनसी दवा बिलकुल उपयुक्त है या कौनसी गलत। इसलिए कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि उसे दी गई दवा सबसे उचित है क्योंकि वह डाक्टर के सर्वश्रेष्ठ अनुमान पर ही आधारित होती है। साथ ही यह भी कि यदि दवा अपरिष्कृत है तो वह हानिकारक हो सकती है इतना तक कि उससे मृत्यु भी हो सकती है। इस दृष्टिकोण से होमियोपैथिक दवाएं अन्य पैथी की दवाओं की तुलना में अधिक सुरक्षित मानी जा सकती हैं। होमियोपैथी में यदि शल्यक्रिया को जोड़ा जा सके तो यह पैथी अधिक सफल और प्रभावी हो सकेगी और सभी प्रकार से मानवों का भला होगा। सभी प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों में कोई न कोई विशेषता पाई जाती है अतः सभी को एक ही छत के नीचे लाकर रोग और रोगी के अनुसार परीक्षण कर चिकित्सा की जाना चाहिए जिसमें सभी का लक्ष्य रोगी को स्वस्थ करना ही होना चाहिए।

Sunday 1 September 2019

264 डाॅ अंबेडकर ने अन्तिम समय में बौद्ध धर्म अपनाकर क्यों बनाया अपना ‘‘नवयान’’

डाॅ अंबेडकर ने अन्तिम समय में बौद्ध धर्म अपनाकर क्यों बनाया अपना ‘‘नवयान’’
1891 में दलित महार जाति में जन्में भीमराव अंबेडकर के पूर्वज ईस्ट इंडिया कंपनी में सम्मानित पद पर कार्यरत रहे थे अतः अपनी जाति के अन्य परिवारों की तुलना में भीमराव का परिवार समाज में उच्च स्तर पर था। वह पढ़ाई में अपने अन्य भाई बहिनों की तुलना में तेज होने के कारण राज्याश्रय पाकर विदेशों में उच्च अध्ययन कर कानून, अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान की दक्षता प्राप्त कर सके। बाल्यकाल से ही वे अपनी जाति के लोगों के साथ अन्य उच्च जाति के लोगों का व्यवहार देख जातिवाद के प्रति घृणा करने लगे थे। जाति प्रथा और ऊंच नीच की अवधारणा के पीछे धार्मिक आधार जानने के लिए उन्होंने 25 वर्ष तक सभी धर्मों का अध्ययन किया। आगे जब इस संबंध में उन्होंने खोज की तब अपने तथाकथित हिन्दु धर्म में अनेक अतार्किक, अवैज्ञानिक और अविवेकपूर्ण तथ्यों के आधार पर सत्य को, कर्मकाण्डीय आडम्बर, रूढ़िवाद और डोगमा में छिपाया गया पाया। इतना ही नहीं जातिवाद के माध्यम से उच्च जातियों द्वारा शूद्रों /दलितों को सदा के लिए हीनभावना का शिकार बनाकर गुलामी में जकड़ा गया पाया। उनके इस निष्कर्ष के लिए उपनिषदों के ये दो बिन्दु आधारभूत मार्गदर्शक बने जिन पर हिन्दु धर्म में सार्वजनिक रूप से कभी कोई चर्चा नहीं करता-
(1) ‘‘जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्चयते।’’ अर्थात् जन्म से तो सभी शूद्र होते हैं संस्कार मिलने पर ही द्विज अर्थात् ब्राह्मण कहलाते हैं। अंबेडकर का तर्क था कि जब संस्कार हीन ब्राह्मण भी शूद्र के समान ही है तो हम तथाकथित शूद्रगण संस्कार पाकर ब्राह्मण क्यों नहीं बन सकते।
(2) ‘‘चातुर्वर्णं मया सृष्टा गुणकर्म विभागशः।’’ अर्थात् मनुष्य समाज में चार वर्णों का विभाजन उनके गुण और कर्मों के अनुसार किया गया है। अंबेडकर का तर्क था कि जब गुणों और कर्मों के अनुसार समाज के चार भाग किए गए हैं तो उनमें अनगिनत जातियों का निर्माण करना स्वार्थ सिद्धि के लिए ही हो सकता है क्यों कि इस सूत्र के अनुसार अपने कर्मों को उन्नत बनाकर एक वर्ण, दूसरे वर्ण का स्थान/स्तर पा सकता है। प्राचीन साहित्य में इस परिवर्तन के अनेक उदाहरण मिलते हैं।
( यहाॅं आपको बताना चाहता हॅूं कि अंबेडकर के ये तर्क गलत नहीं थे, प्रत्येक व्यक्ति के साथ इन चारों वर्णों के कार्य जुड़े रहते हैं, जैसे शरीर की सफाई करते समय शूद्र, आजीविका के साधन हेतु आर्थिक आदान प्रदान वैश्य, अपनी और परिवार की विपत्तियों से रक्षा करते समय क्षत्रिय और दूसरों को सद्मार्ग का प्रेरण करते समय विप्र। कृष्ण के समय तक समाज में कोई जातिप्रथा नहीं थी वरन् व्यक्ति को उसके गुणों और कर्मों के अनुसार ही मान्यता दी जाती थी परन्तु वे घृणास्पद कभी नहीं रहे। एक ही परिवार में चार भाई अलग अलग वर्ण के हो सकते थे। जैसे कृष्ण के पिता वसुदेव, ताउ गर्ग और चाचा नन्द परस्पर चचेरे भाई थे परन्तु विप्रोचित कर्म की प्रधानता होने से गर्ग विप्र, क्षत्रियोचित कर्म से जुड़े होने से वसुदेव क्षत्रिय और पशुपालन और कृषि कार्य से जुड़े होने के कारण नन्द वैश्य के स्तर पर सामाजिक मान्यता प्राप्त थे।)
हिन्दु धर्म से इसी कारण उन्हें वितृष्णा हुई और वे खोजने लगे धर्म की वह व्यवस्था जिसमें जाति और ऊंच नीच की भावना न हो और उनके दलित समाज को भी अन्य वर्गो की तरह समाज में सम्मान प्राप्त हो। इस प्रयास में उन्होंने, इस्लाम और ईसाई धर्म में वर्णित ‘क़यामत’ और ‘रेप्चर’ तथा स्वर्ग नर्क की अवधारणा पाई जिससे वे सहमत नहीं थे तथा उनमें परस्पर सामाजिक  भेद और असमानता के गंभीर लक्षण भी पाए। अतः इन धर्मो की ओर से भी मन हट गया। सिख धर्म में यद्यपि जातिभेद नहीं है परन्तु उनके आर्थिक स्तर पर पहुॅंच पाने के लिए दलित समाज के सभी लोगों के पास न तो व्यवसाय के लिए पूंजी थी और न ही कृषि के लिए जमीन इसलिए वे उससे दूर ही रहे। जैन धर्म का निर्ग्रन्थवाद  उन्हें नहीं भाया, अतः एकमात्र बचे बौद्ध धर्म पर उनकी दृष्टि टिक गई। उसकी सरलता और भेदभाव रहित जातिहीन व्यवस्था उन्हें पसन्द आई पर संशोधन के साथ। बुद्ध की मूल शिक्षाओं को उन्होंने माना परन्तु पश्चात्वर्ती विभाजनों में प्रवर्तकों के स्वार्थ और अपने अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ में जुटे महायान, हीनयान, तंत्रयान या मंत्रयान से दूर रहकर उन्होंने अपना अलग ‘नवयान’ बनाया । वे ‘‘बुद्धं शरणं गच्छामी’’ तो कहते थे पर कभी भी ‘‘संघं शरणं गच्छामी’’ नहीं कहा। 13 अक्तूबर 1956 को आम्बेडकर ने एक पत्रकार वार्ता में कहा था, मैं भगवान बुद्ध और उनके मूल धर्म की शरण में जा रहा हूँ। मैं प्रचलित बौद्ध पन्थों से तटस्थ हूँ। मैं जिस बौद्ध धर्म को स्वीकार कर रहा हूँ, वह ‘‘नव बौद्ध धर्म या नवयान ’’ है।,
दलित समाज के स्तर को ऊंचा उठाने के लिए वे आजीवन प्रयास करते रहे इसलिए स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले से ही उनका अखिल भारतीय दलित संगठन बन चुका था। जहाॅं कहीं भी अवसर मिलता वे अपने इस उद्देश्य को पाने का प्रयास करना कभी नहीं भूलते थे। जैसे, देश को स्वतंत्रता पाने के बाद प्रथम चुनाव के लिए दलितों में से ही दलितों के द्वारा वोट देने का अधिकार देने वाला बिल लाना। परंतु जब यह बिल संसद में पास न करा सके  तो अंग्रजों द्वारा बनाया गया ‘‘मिन्टो मारले सुधार कानून 1919‘‘ जिसमें हिन्दु और मुसलमानों को पृथक पृथक मतदाताओं की तरह व्यवस्था बनाई गई थी उसी में इसी वर्ष लाये गये ‘‘मान्टेज. केमस्फोर्ड‘‘ सुधार कानून को संशोधत कर इसमें अन्य अल्पसंख्यकों जैसे क्रिश्चियन, सिख और एंग्लो इंडियन्स के लिये भी जोड़ दिया गया था; उसी में दलितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर अंबडकर ने अपने समाज के उत्थान के लिए पहला बड़ा लक्ष्य पा लिया।
अपनी मृत्यु से लगभग दो माह पहले, 6 अक्टूबर 1956 को, नागपुर के एक होटल में डॉ. भीमराव आंबेडकर की यह घोषणा, कि “मैं बौद्ध के सिद्धांतों को मानता हूॅं और उसका पालन करूंगा। पर मैं अपने लोगों (महार) को दोनों उसके धार्मिक पंथों जैसे  हीनयान और महायान आदि के विचारों से दूर रखूँगा। हमारा बौद्धधर्म एक नया बौद्ध धम्म है- नवयान,’’ यह  प्रकट करता है कि ‘नवयान’ या ‘नया तरीका’  भारतीय बौद्ध धर्म का एक आधुनिक संप्रदाय है जिसने भारत में मृतप्राय बौद्ध धर्म को नया जन्म दिया। नवयान में जातिप्रथा, वर्णभेद, लिंगभेद, अंधविश्वास तथा कुरितीयों को कोई स्थान नहीं हैं। बौद्ध धर्म में दीक्षा का कोई प्रावधान नहीं है परन्तु अंबेडकर जानते थे कि अनेक जन्मों के हिन्दुवादी लौकिक देवी देवताओं की मान्यताएं और संस्कार उन्हें तब तक संतोष नहीं देंगे जब तक उनकी मान्यताओं के अनुसार व्यवस्था न बनाई जाय। अतः उन्होंने दलित समाज के लाखों लोगों को बाइस प्रतिज्ञाओं के बंधन में बाॅंधते हुए दीक्षा दिलाई। यह प्रतिज्ञाएं हिंदू धर्म की त्रिमूर्ति में अविश्वास, अवतारवाद के खंडन, श्राद्ध-तर्पण, पिंडदान के परित्याग, बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों में विश्वास, ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित होने वाले किसी भी समारोह न भाग लेने, मनुष्य की समानता में विश्वास, बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग के अनुसरण, प्राणियों के प्रति दयालुता, चोरी न करने, झूठ न बोलने, शराब के सेवन न करने, असमानता पर आधारित हिंदू धर्म का त्याग करने और बौद्ध धर्म को अपनाने से संबंधित थीं।
महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि उन्होंने जब विश्व के सभी धर्मों का अध्ययन कर बहुत पहले यह भली भाॅंति समझ लिया था कि उन्हें बौद्ध धर्म ही श्रेष्ठ लगता है तब अपने जीवन के अन्तिम समय में ही क्यों उसे अपनाया और सार्वजनिक घोषणा की?
जैसा पहले ही कहा जा चुका है कि वे दलित समाज को उन्नत करने के लिए बाल्यकाल से ही प्रयत्नशील थे अतः उन्होंने सरकारी नौकरियों में आरक्षण तथा अन्य सुविधाएं दिलाने के लिए अपने राजनैतिक प्रभाव और अधिकारों का सफल प्रयास किया। अपने जीवन के अन्तिम आठ वर्षों में उन्हें ‘डायबिटीज’ ने प्रताड़ित करना प्रारंभ कर दिया अतः वे दलितों के हित में अन्य जो कुछ करना चाहते थे स्वास्थ्य कारणों से उनमें बाधाएं अनुभव करने लगे। भारतीय दर्शन का एक सिद्धान्त है कि जो व्यक्ति सदा से जैसा सोचता रहता है अन्त समय में भी वैसे ही विचार मन में आते हैं। अतः बार बार मन में यह विचार आने से कि वे अपने समाज को सामाजिक स्तर पर अन्यों के समकक्ष लाने के लिए कुछ नहीं कर पाए; अतः उन्होंने  बुद्ध धर्म के मूल सिद्धान्तों को आधार बनाकर ‘नवयान’ नामक नया पंथ बनाकर स्वयं को बौद्ध धर्म का अनुयायी घोषित कर दिया।  इससे उनकी भावना के अनुसार समाज के अन्य लोग भी वैसा ही करने के लिए सहर्ष तैयार हो गए क्योंकि किसी समूह या समाज का नेता या वरिष्ठ व्यक्ति, जैसा कार्य करता है वैसा ही अनुकरण उसके अनुयायी करते हैं। इस तरह अपने मूल उद्देश्य को पाने के प्रयासों में , महाप्रयाण के कुछ समय पहले ही लाखों लोगों को अपने नवयान में दीक्षित कर गए जिससे उनका समाज दूसरे समाजों की तरह अपना अलग और सम्मानित स्तर बनाए रख सके। अपने समाज के उत्थान के लिए उनका यह कार्य निस्वार्थ सेवा का श्रेष्ठ उदाहरण माना जा सकता है। संसार के बौद्ध अपनी संख्या की गणना में इन नव बौद्धों को भले सम्मिलित करने में उत्सुकता दिखाएं परन्तु उसकी अनेक शाखाओं के अनुयायी अपनी अपनी प्रतिष्ठा और वर्चस्व को बनाए रखने के लिए वे अपने को इनसे अलग ही मानते हैं , यही कारण है कि  यह नवयान केवल दलितों के बीच ही सीमित रह गया। हिन्दु धर्म से घृणा की नीव पर स्थापित इस संप्रदाय के प्रवर्तक भीमराव अंबेडकर, नवयानी बौद्धों के लिए किसी अवतार से कम नहीं। यद्यपि उन्होंने अवतारवाद को कभी मान्य नहीं किया लेकिन हिन्दुओं ने बुद्ध को अवतार मान लिया है।

Friday 23 August 2019

263
‘गंगा’, ‘यमुना’ के तीर पर बैठे,
टूटती जुड़ती लहरों के व्यतिकरण में,
तुझे देखा है कई लोगों ने।

और मैं ने, ‘बेबस’ और ‘धसान’ में गोता लगाते
बार बार इस पार से उस पार जाते, आते, हृदयंगम किया है।

जबकि अन्यों को तू गिरिराज की
तमपूर्ण खोहों में छिपा मिला।

मेरे नितान्त एकान्तिक क्षणों में क्या
तू मेरे चारों ओर प्रभामंडल की तरह नहीं छाया रहा?

आज तुझे उनमें भी लयबद्ध पाया
जिन्हें लोग कहते हैं कुत्सित, घृणित और अस्पृश्य।
तेरी विराटता और सूक्ष्मता का
ऐसा आश्चर्यजनक मिश्रण
कर रहा है बार बार भ्रमित,
तथाकथित विद्वज्जनों को।

फिर भी वे, शान से....
बिना चकित हुए, तेरी माया पर
दिये जा रहे हैं लगातार..... व्याख्यान.....
ढकेल रहे हैं इस जगत को,
सत्य से पृथक,
मिथ्यात्व में।

Monday 19 August 2019

262 ‘चिकित्सा’ सेवा या व्यवसाय?

 ‘चिकित्सा’ सेवा या व्यवसाय ?

धरती पर चिकित्सकों को, भगवान के बाद का स्तर प्राप्त है परन्तु आज हम इनमें सेवाभाव की कमी और व्यवसाय की अधिकता ही देखते हैं। यद्यपि कुछ चिकित्सकों में मानवीयता के लक्षण देखे जाते हैं परन्तु उनकी संख्या अत्यल्प ही है। यह प्रवृत्ति उन देशों में सबसे अधिक पायी जाती है जहाॅं पूॅंजीवादी व्यवस्था ने समाज पर नियंत्रण बना रखा है। सभी चिकित्सकों को अपने ‘बही खाते और शुभलाभ’ की तख्ती को निहारते देखा जा सकता है। औषधि निर्माण करने वाली कंपनियों  के मालिक भी पॅूंजीपति होते हैं और  केवल आर्थिक लाभ देने वाले शोधकार्य को प्राथमिकता देते हैं और चिकित्सा पर होने वाला खर्च अनेक गुना कर देते हैं । उनकी दृष्टि में रोगी उनके जैसे मानव नहीं हैं जिन्हें उनकी देखभाल कर आवश्यकता है वरन् वे उनकी दवाओं के खरीददार ग्राहक के अलावा कुछ नहीं होते हैं।
विश्वसनीय डाक्टर भी जिनसे हमें आशा हो कि इनकी चिकित्सा से लाभ होगा उनकी फीस इतनी अधिक होती है कि जनसामान्य उन तक पहॅुंच ही नहीं पाता। चिकित्सक का मन सेवाभाव से पूर्ण होना चाहिए न कि धनार्जन प्रेरित। परन्तु यदि वे धन न लें तो क्या हवा पर जीवित रहेंगे, यह पूछा जा सकता है। लेकिन सोचने की बात यह भी है कि वे कितना धन लें? न्याय संगत धन उन्हें शासकीय /अर्धशासकीय सेवा संस्थाओं से दिया ही जाता है परन्तु उनका लालची मन अतिरिक्त धनार्जन करने से अपने को बचा नहीं पाता जिसका मूल कारण है पॅूंजीवादी व्यवस्था। एक बेरोजगार व्यक्ति के लिए चिकित्सा कार्य जीवन यापन का साधन हो सकता है परन्तु किसी भी परिस्थिति में व्यावसायिक धंधा तो कभी भी स्वीकार्य नहीं हो सकता।
उन डाक्टरों का तो कहना ही क्या है जिनके स्वयं के क्लीनिक हैं। ये छोटी छोटी सी बीमारियों के लिए अनेक दवाओं की लिस्ट देंगे, दवाएं भी मंहगी होंगी। मेडीकल स्टोर्स के मालिकों से उनकी सांठगाॅंठ रहेगी और उनसे अच्छा कमीशन मिलेगा, इतना ही नहीं रोग से संबंधित न होने पर भी अनेक जाॅंचें करने हेतु मरीज को कहा जाता है और जाॅंच करने वाली प्रयोगशाला के मालिकों से उनका लाभाॅंश नियत रहता है। इसे धनलोलुपता नहीं तो और क्या कहा जा सकता है। इस मानसिकता के पीछे क्या है? पॅूंजीवाद ने ही सब के मन में बेईमानी के बीज बोए हैं और अब वे बड़ा वृक्ष बन चुके हैं। अस्पतालों में भी रोगियों के साथ अच्छा वर्ताव नहीं किया जाता, नर्सें, नौकर और स्वीपर तक, तब तक रोगी की देखरेख नहीं करते जब तक उन्हें टिप नहीं मिल जाती। मरीजों को दिया जाने वाला भोजन भी पौष्टिक नहीं होता और उसके साथ मिलने  वाले फल और दूध को  अस्पताल का स्टाफ खा जाता है। इस प्रकार की शिकायतों की लम्बी लिस्ट है जो अविश्वासनीय सी लगती है पर भुक्तभोगी ही  जानते हैं कि यह सभी सच है। 
सभी लोग चाहेंगे कि यह स्थिति दूर हो जाए परन्तु यह तब तक संभव नहीं है जब तक चिकित्सा उद्योग में सेवोन्मुख भावना को नहीं जगाया जाता। एक दृश्य यह भी है कि बड़ी बड़ी कम्पनियाॅं दुर्लभ बीमारियों (जैसे, विटिलिगो, टेस्टीकुलर केंसर, गेस्ट्रिक लिम्फोमा और अनेक) पर अनुसंधान करने में व्यय न कर हाईब्लडप्रेशर जैसी बीमारियों पर नई नई दवाएं खोजने में पूँजी  लगाती हैं क्योंकि इनसे उन्हें अधिक लाभ मिलता है; जबकि इसे दूर करने के लिए सबसे अच्छा मार्गदर्शन यह है कि रोगी को अपनी जीवन पद्धति (भोजन, व्यायाम और मेडीटेशन आदि) में सुधार करने को कहा जाए। पर वे यह नहीं करेंगे क्योंकि ब्लड प्रेशर  की दवा तो सोने की खदान है, रोगी को इसे आजीवन लेते रहने सलाह दी जाती है और करोड़ों लोगों के द्वारा रोज ही इसका उपयोग किया जाता है। डक्टरों की भावना यह हो गई है कि अधिक से अधिक लोग बीमार होते रहें और उनकी दूकानदारी दौड़ती रहे। इस प्रकार की स्वार्थमय भावना जहाॅं घर कर गई हो, जहाॅं मानवता से कोई प्रेम न हो, वहाॅं चिकित्सा व्यवसाय करने वालों से समाज सेवा की आशा कैसे की जा सकती है। इस मानसिकता के लोग यह सिद्धान्त भूल जाते हैं कि एक स्तर के बाद धन महत्वहीन हो जाता है और जब तक, यह समझ में  आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा ये मानव मात्र की मूलभूत आवश्यकताएं हैं इनसे किसी को भी खिलवाड़ करने का अधिकार नहीं होना चाहिए।

Saturday 10 August 2019

261 बौद्ध और जैन दर्शन का समाज पर प्रभाव

 बौद्ध और जैन दर्शन का समाज पर प्रभाव

यदि सावधानी पूर्वक परीक्षण किया जाय तो हम पाते हैं कि लगभग 2500  वर्ष पूर्व  वेदों के ‘‘ज्ञानकाण्ड’’ जिसमें ‘आरण्यक और उपनिषद’ आते हैं अपनी कठिनता के कारण धीरे धीरे जनसामान्य की रुचि से हट रहे थे और ‘‘कर्मकाण्ड’’ जिसमें ‘ब्राह्मण और मंत्र’ का समावेश किया गया है, अपनी ओर अकर्षित कर रहे थे।  इनके प्रभाव के विरोध में लगभग उसी समय  हुए ‘ऋषि चार्वाक’ ने आवाज उठाई। महावीर और बुद्ध की आयु में लगभग 50 वर्ष का अन्तर था और ‘चार्वाक’ के शिष्य ‘अजितकुसुम’ जो  बुद्ध के समकालीन थे उनका तर्क था कि ‘‘जब थोड़ी दूर खड़े व्यक्ति को कोई वस्तु देने पर वह उसके पास नहीं पहुँचती  तो जो मर चुके हैं उन्हें  घी, चावल और शहद देने पर कैसे पहुॅंचेगी?’’ समाज का एक बड़ा भाग कर्मकाण्ड के प्रभाव में आज भी देखा जा सकता है। इस तरह तात्कालिक चार्वाक के सिद्धान्तों से प्रभावित समाज में महावीर और बुद्ध ने अपनी अपनी शिक्षाओं को प्रचारित करने का कष्टसाध्य कार्य किया। स्वभावतः दोनों को समाज के पूर्ववर्ती अनुकरणकर्ताओं का विरोध झेलना पड़ा।
पर, भगवान बुद्ध ने पूरे संसार में बड़ी ही समस्या उत्पन्न कर दी, विशेषतः  दुखवाद का सिद्धान्त और अहिंसा की गलत परिभाषा देकर। यही कारण है कि मेडीकल साईंस की प्रगति अर्थात सर्जरी और अन्य औषधीय अनुसंधान  सैकड़ों वर्ष पिछड़ गये । इसका कारण यह था कि बौद्ध  शिक्षाओं में शव को अपवित्र बताया गया है इसलिए उसे छू कर डिसेक्शन  करना और आंतरिक  ज्ञान प्राप्त करना निषिद्ध कर दिया गया था। यही नहीं बौद्ध धर्म के द्वारा लोग भीरु हो गये। यही बात भगवान महावीर के जैन धर्म की भी है। ये दोनों ही धर्म समय की कसौटी पर खरे नहीं उतर सके। गौतम बुद्ध ईश्वर  के बारे में स्पष्ट मत नहीं दे सके और न ही यह बता सके कि जीवन का अंतिम उद्देश्य  क्या है, इतना ही नहीं वे अपने सिद्धान्तों पर आधारित मानव समाज का भी निर्माण नहीं कर सके।

आदिकाल के लोग अपने शरीर को नहीं ढंकते थे परंतु मौसम के अनुसार वे अपने शरीर को ढंकने लगे। महावीर जैन ने भी सबसे पहले तो निर्ग्रन्थवाद  अर्थात् नग्न रहने पर बहुत जोर दिया पर अब, जब कि वे अपने शरीर को ढंकने के अभ्यस्थ हो गये तो उन्हें नग्न रहने में शर्म आने लगी। इसलिये महावीर का दर्शन  जनसमान्य  का समर्थन नहीं पा सका। इसके अलावा उन्होंने दया और क्षमा करने पर बहुत अधिक बल दिया, उन्होंने यह सिखाया कि अपने जानलेवा शत्रु साॅंप और विच्छू को भी क्षमा करना चाहिये । इस शिक्षा के कारण लोगों ने समाज के शत्रुओं से लड़ना छोड़ दिया।
इस प्रकार महावीर और बुद्ध की शिक्षायें यद्यपि भावजड़ता पर आधारित नहीं थीं और न ही उन्होंने लोगों को जानबूझकर गलत दिशा  दी परंतु कुछ समय के बाद वे असफल हो गये क्योंकि उनकी शिक्षायें पर्याप्त व्यापक और संतुलित नहीं थीं।  इसके वावजूद सत्य के अनुसन्धानकर्ताओं ने बुद्ध की ‘अष्टाॅंग योग‘ और ‘चक्षुना संवरो साधो‘ तथा अन्य विवेकपूर्ण शिक्षाओं को मान्यता दी है। महावीर की शिक्षा ‘‘ जिओ और जीने दो‘‘ को भी मान्यता दी गई है परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि इन दोनों चिंतकों की समग्र विचारधाराओं को मान्यता दी गई है।

गौतम बुद्ध ने ईश्वर  के बारे में स्पष्ट मत नहीं दिया जबकि वे स्वयं परमसत्ता अर्थात् ईश्वर का ध्यान करते थे और उन्हें अनुभूत किया; इसका क्या कारण यह हो सकता है? वास्तव में उन दिनों चार्वाक के अनुयायियों को पराजित करने के प्रयासों में ईश्वर के नाम पर बहुत शोषण हो रहा था, लोभी पंडों और पुजारियों द्वारा जनसामान्य को मूर्ख बनाया जा रहा था, अतः ईश्वर या भगवान का नाम सुनते ही लोग विपरीत प्रतिक्रिया करने लगे थे। इन झंझटों से बचने के लिए बुद्ध ने खुले रूप में ईश्वर के बारे में कुछ नहीं कहा परन्तु इससे उनकी शिक्षाओं में गहरे मतभेद आ गए और परिणामतः बुद्ध का दर्शन या धर्म अनीश्वरवादी घोषित हो गया। भौतिकवादियों के लिए वह अनीश्वर धर्म बन गया अतः वर्तमान में कुछ लोग इसी कारण बौद्ध धर्म का पालन करने लगे हैं क्योंकि उनके अनुसार वहाॅं ईश्वर का कोई भय नहीं है। इसी से मिलता जुलता दृश्य चर्चों में भी देखा जा सकता है जहाॅं अनुचित व्यवहार, ‘डोगमा’ और संकीर्ण मानसिकता से ऊबकर क्रिश्चियन अनुयायी ‘‘ गाड ‘‘ अर्थात् भगवान नाम से ही चिड़ने लगे हैं । वे पूर्णतः भौतिकवादी और स्वयंकेन्द्रित दृष्टिकोण अपनाने लगे हैं।

Friday 2 August 2019

260 ईश्वरप्रणिधान

ईश्वरप्रणिधान
जप क्रिया में केवल ध्वन्यात्मक लय होता है जैसे, राम राम, राम राम.... परन्तु ईश्वरप्रणिधान में इष्ट मंत्र का ध्वन्यात्मक लय मानसिक लय के साथ समानान्तरता बनाए रखता है। इसका अर्थ है कि मानसिक रूप से राम, राम राम तो कहते ही हैं परन्तु साथ ही साथ राम के बारे में सोचते भी हैं अन्यथा जप क्रिया में समानान्तरता नहीं रह पाएगी। समानान्तरता न रहने से शब्द राम अर्थात् परमपुरुष का उच्चारण करने पर ज्योंही ‘रा’ का उच्चारण किया जाता है तत्काल ‘म’ और इसके तत्काल बाद फिर से ‘रा’ उच्चारण करते समय द्वितीय स्तर पर वह ‘मरा ’ हो जाता है अतः इष्ट मंत्र परमपुरुष के स्थान पर ‘मरा अर्थात् मृत्यु’ का जाप बन जाता है। इसलिए इस प्रकार की जप क्रिया व्यर्थ हो जाती है। अतः जब तक मानसिक लय और ध्वन्यात्मक लय के बीच साम्य या समानान्तरता नहीं होगी वह ईश्वरप्रणिधान नहीं कहला सकता। इसलिये ‘ईश्वर प्रणिधान’ और ‘नाम जाप’ में जमीन आसमान का अन्तर है। ईश्वरप्रणिधान से चैतन्य हुए बीजमंत्र से उत्पन्न मानसिक तरंगें, ओंकार ध्वनि के साथ सरलता से अनुनादित हो जाती हैं और इसी अनुनाद की अवस्था में आत्मानुभूति होती है अन्यथा नहीं ।

259 उम्र और साधना


उम्र और साधना 
जब कोई भी साधना करता है और षोडश विधि  का अनुसरण करता है तो उसके गुण लगातार  बढ़ते जाते हैं। वे अधिक से अधिक मानवीय गुणों से पूर्ण  हो जाते हैं। यह अद्वितीय समीकरण है, क्योंकि ब्रह्मांडीय विचारधारा की मदद से, मन की परिधि बढ़ती है- उन्हें अधिक समझदार और गतिशील बनाती  है। इस तरह से, वरिष्ठ नागरिक स्वार्थ से  अपनी इकाई "मैं " में  ही सीमित नहीं रहते यही कारण है कि अधिकांश मामलों में, अपने बुढ़ापे में अच्छे साधक समाज की सेवा के लिए अधिक से अधिक समय समर्पित करते हैं।
लेकिन जब लोग  भौतिकवाद  की मानसिकता  से भर जाते हैं , तो बुढ़ापे का मतलब है दूसरों के लिए 'सिरदर्द' होना। यही कारण है कि यूरोपीय और कई पश्चिमी देशों में, बड़े होकर बच्चे अक्सर अपने बुजुर्ग माता-पिता के साथ रहना पसंद नहीं करते क्योंकि, जब प्रारम्भ से ही वे  वरिष्ठ नागरिकों को  सिर्फ अपनी ही स्वार्थी गतिविधियों में शामिल होते देखते रहे होते हैं तब निश्चित रूप से वे उनके बुढ़ापे में  उनके  कल्याण के बारे में सोचना नहीं चाहते। उनके मन और मस्तिष्क  भौतिकवाद के आत्म-केंद्रित दर्शन में  डूब चुके होते हैं। हालांकि, ऐसे कई अन्य देशों में जो इतने भौतिकवादी नहीं हैं, यह स्थिति नहीं है। उन समुदाय उन्मुख समाजों में वृद्ध लोग अन्य  सभी के  विकास का ध्यान  रखते हैं अतः  उस समाज में हर कोई वृद्ध सदस्यों का सम्मान करता है।
और, एक साधक का जीवन तो और भी अधिक उन्नत होता  है क्योंकि कई  वर्षों से मन को आध्यात्मिक तरीके से प्रशिक्षण देने के बाद, उनके उन्नत वर्षों में वह  पूरी तरह से परमपुरुष  के विचारों और अपने बच्चों के  कल्याण करने में लीन हो जाता है।  इस वातावरण में रहने वाले  पुराने साधक निस्स्वार्थ  होते हैं  सभी के प्रति उदार होते हैं। स्वाभाविक रूप से  हर कोई  उनकी  कंपनी में रहना पसंद करता है।
उम्र बढ़ने की प्रक्रिया पर  रोक : आसन, ताण्डव और कौशिकी  
मानव अस्तित्व के तीन पहलू हैं: शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक। 39 सालों के बाद, भौतिक शरीर धीरे धीरे बुढ़ापे  की ओर बढ़ने लगता  है। लेकिन आसन, कौशिकी , और तांडव  करके यह अधिकांश डिग्री तक  नियंत्रित या कम किया जा  सकता है।जो लोग अपने आसन, कौशिकी और तांडव  का अभ्यास अनेक वर्षों से करते  रहे हैं, वे उसे  अपने आगे के वर्षों में भी जारी रख सकते हैं। यह उनके शरीर को सुचारू, लचीला और ऊर्जावान रखता है।  साधक  अपनी  वास्तविक उम्र से अपने को ज्यादा युवा अनुभव करते  हैं।
यह  उन लोगों के लिए ऐसा नहीं है, जिन्होंने इस तरह के योग अभ्यास कभी नहीं किए। उनके शरीर अधिक  कठोर हो जाते हैं और यहां तक कि अगर उनकी  ऐसा करने  की इच्छा भी होती है तो वे 65 या 75 वर्ष की उम्र में तांडव शुरू नहीं कर सकते हैं - निश्चित रूप से 95 साल में तो और भी नहीं, क्योंकि उनके शरीर इस क्षेत्र में  अभ्यस्त नहीं होते हैं जबकि साधक तो 100  की उम्र में भी कौशिकी और  तांडव कर सकते हैं और अपने जीवन को बनाए रख सकते हैं।

ताॅंडव और कौशिकी भौतिक शरीर के लिए उत्तम भूमिका निभाते हैं। वे बुढ़ापे को रोकते हैं अतः उचित तरीके से सीखे गए तांडव को नियमित रूप से करने का प्रयास करते रहना चाहिए। तीन प्रकारों के ताण्डव में से, जो युवा हैं उन्हें रुद्र, और जो प्रौढ़ हो चुके हैं उन्हें विष्णु और ब्रह्मा ताण्डव ही करना चाहिए। मूलतः प्रारंभिक स्तर पर पूर्वात्य नृत्य ताण्डव ही है जो इतना सरल नहीं है। उछलते हुए जब पैरों के घुटने नाभि से ऊपर तक ही जाते हैं तब यह ब्रह्मा ताण्डव, जब छाती से ऊपर जाते हैं तब विष्णु, और जब गले से ऊपर जाने लगते हैं तब इसे रुद्र ताण्डव कहते हैं। रुद्र ताण्डव करना सरल नहीं इसके लिए लगातार लम्बा अभ्यास करने की आवश्यकता होती है। सद्गुरु बाबा आनन्दमूर्ति का कहना है कि ताण्डव नर्तक का शरीर यदि कुछ सेकेंड के लिए भी हवा में रहता है तब भी उससे बहुत लाभ मिलता है। इसका अर्थ यह है कि जब अच्छा ताण्डव किया जाता है तब शरीर बार बार हवा में उछाला जाता है और शरीर जितने अधिक समय तक हवा में रहता है उतना ही अधिक लाभ शरीर, मस्तिष्क और सूक्ष्म तन्तुओं को मिलता है। इसी प्रकार कौशिकी में भी शरीर को दाॅंयें और बाॅंये 45 डिग्री पर मोड़ा जाता है तभी अधिकतम लाभ मिलता है। ये दोनांे नृत्य और नियमित साधना से जीवन का लक्ष्य पाने में सफलता मिलती है अतः इस कार्य को युवा अवस्था से ही प्रारंभ कर देना चाहिए बुढ़ापे के लिए नहीं छोड़ देना चाहिए क्योंकि उम्र के अधिक हो जाने से शरीर के अवयव कठोर होते जाते हैं जिससे उस अवस्था में ताण्डव और कौशिकी करना संभव नहीं हो पाता ।


मस्तिष्क पुराना हो जाता है - अंतर्ज्ञान कालातीत होता है
 बुढ़ापे की प्रक्रिया न केवल हाथों  और पैरों को प्रभावित करती है, बल्कि मस्तिष्क सहित पूरे शरीर को भी जो  हमारा  मानसिक केंद्र है । यही कारण है कि 50 या 60 साल की आयु पार करने के बाद, आम लोगों की बुद्धि कमजोर पड़ती है। उनकी तंत्रिका कोशिकायें अधिक से अधिक  कमजोर हो जाती हैं। लोग अपनी स्मृति और मनोवैज्ञानिक संकाय धीरे धीरे  एक दिन खो देते हैं और एक दिन  उनके दिमाग भी काम करना बंद कर देते हैं।  यह कई गैर साधक के साथ होता है जब वे बहुत बूढ़े हो जाते हैं। हालांकि, भक्तों के मामले में, यह नहीं है। बाबा कहते हैं,  "आपको केवल बुद्धि पर ही निर्भर नहीं होना चाहिए क्योंकि बुद्धि में इतनी  दृढ़ता नहीं होती है। अगर आपके पास भक्ति है, तो अंतर्ज्ञान विकसित होगा और इसके साथ, आप समाज को बेहतर और बेहतर सेवा करने में सक्षम होंगे। "
इसलिए मानसिक क्षेत्र में, भक्त अंतर्ज्ञान पर अधिक निर्भर करते हैं - और यह कभी भी क्षय नहीं होता। क्योंकि अंतर्ज्ञान ब्रह्मांडीय विचार है और जब मन को सुदृढ़ किया जाता है , उस सूक्ष्म दृष्टिकोण की ओर निर्देशित किया जाता  है, तो वह  "पुराना हो रहा है" इसका प्रश्न ही नहीं उठता मन अपना विस्तार करना  जारी रखता है जिससे वह  अधिक तेज और अधिक एकाग्र  हो जाता है परन्तु जो लोग केवल बुद्धि पर निर्भर होते हैं वे बहुत कष्ट पाते हैं।  क्योंकि बुढ़ापे की शुरुआत से ही  उनका  मानसिक संकाय अधिक से अधिक कमजोर  होता  जायेगा, जब तक कि आखिरकार उनकी बुद्धि पूरी तरह से नष्ट होने  की संभावना हो जाय जबकि जो लोग अपने दिल में भक्ति कर रहे हैं वे आसानी से परमपुरुष  द्वारा अंतर्ज्ञान पाने का  आशीर्वाद प्राप्त कर लेते  हैं।
अगर किसी ने अपनी युवा अवस्था  से ही उचित साधना की है  और मन को आध्यात्मिक  अभ्यास  में प्रशिक्षण दिया  है तो उसकी  प्राकृतिक प्रवृत्ति परमार्थ  की ओर बढ़ने की हो जाती है।  इस प्रकार  साधना करते हुए  उसे अंतिम सांस तक कोई समस्या आने का कोई प्रश्न नहीं उठता उनका मन  आसानी से ब्रह्मांडीय लय और  ताल में बह जाएगा और साधना क्रिया स्वाभाविक  सरल होगी इसके विपरीत यदि कोई कहे कि साधना करना तो बुढ़ापे का कार्य है तो उसे बहुत कठिनाई होगी।