भावजड़ता
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अहंमन्यता की तलैया में
मूर्खता की कीचड़ से जन्म ले
ए भावजड़ता !
तू कमल की तरह खिलती है।
अपने आकर्षण के भ्रमजाल में उलझाती है ऐसे,
कि सारी जनता
लहरों पर सवार हो बस तेरे गले मिलती है।
झूठ सच के विश्लेषण की क्षमता हरण कर
आडम्बर ओढ़े,
गढ़ती है नए रूप।
धनी हों या मानी, गुणी हों या ज्ञानी
तेरे कटाक्ष से सब होते हैं घायल
क्या साधू क्या फक्कड़ , बड़े बड़े भूप।
भू , समाज और भूसमाज भावना
के अस्त्र चलाकर हर दिशा में ,
बड़े चाव से देखती है अपना प्रसार,
सँकुचित मानसिकता में उलझाकर सबको।
धूल में मिलते खानदानों की आहें
सुनती है तू, कान खोलकर
भैरवी की तरह।
फिर भी तेरी ‘प्रज्ञा‘ प्रस्फुटित नहीं होती ,
और न होती है भंग तेरी तन्द्रा
उषाकाल की नीरवता में
‘प्रभाती‘ की गुनगुनाहट से।
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डा टी आर शुक्ल, सागर।
18 जून 2008
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