समाधि प्राप्त करने का रहस्य (1)
मन में हमेशा संकल्प और विकल्प आते रहते हैं। संकल्प से इंद्रियों की सहायता लेकर मन जगत में कर्म करता है और विकल्प से विपरीत विचार लाकर कर्म से विपरीत जाने लगता है। मन की इस धनात्मक और ऋणात्मक विचारधारा का साधक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है? समाधि के साथ उसका क्या संबंध है? साधक यदि कर्म में लगे रहकर समाजसेवा को लक्ष्य मान ले तो इस दशा में क्या उसे समाधि प्राप्त हो सकती है?
समाधि, वास्तव में मन की न तो धनात्मक और न ही ऋणात्मक अवस्था है, यह तो साम्यावस्था है। जैसे जल की शांत निर्वात अवस्था में जब वह सरलरेखाकार होता है तब उसे साम्यावस्था कहा जाता है। चंचल जलराशि की ऊर्ध्व तरंगें यदि संकल्प और अधोतरंगें विकल्प कहलायें तो, जब ये आपस में घुलमिलकर सरलरेखा में समाहित हो जाती हैं तब वह स्थिति साम्यावस्था कहलायेगी। समाधि में मन की भी यही अवस्था होती है।
संकल्पविकल्पात्मक मन चंचल जलराशि के समान हमेशा आन्दोलित होता रहता है और इस आन्दोलन के समय संकल्प और विकल्प दोनों को ही एक बार मन की प्रशान्तवाहिता सरल रेखा को स्पर्श करते हुए जाना पड़ता है, इसीलिये प्रत्येक भावना में सभी स्थानों, समयों और पात्रों में एक प्रकार की अस्थायी साम्यावस्था का अनुभव होता है, यद्यपि प्रवृत्ति मूलक कर्म में व्यस्त रहने पर निवृत्ति और साम्यावस्था दोनों ही असंभव लगती हैं। ठीक इसी प्रकार निवृत्ति मूलक कर्म जिनका स्वभाव हो गया है उन्हें प्रवृत्ति और साम्यावस्था असंभव लगतीं हैं। जल में रहने वाले प्राणी स्थल में और स्थल पर रहने वालों को जल में रह पाना असंभव लगता है। वस्तुतः इस संदर्भ में व्यक्तिगत प्रयत्न और अभ्यास तथा प्राकृतिक व्यवस्था ही सबसे बड़ी बात है, संभव या असंभव का प्रश्न ही नहीं है। जो मनः साम्य की साधना करते हैं उनके लिये मन की प्रशान्त वाहिता ही स्वाभाविक हो जाती है प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों असंभव हो जाते हैं। क्रमशः .. (2)
मन में हमेशा संकल्प और विकल्प आते रहते हैं। संकल्प से इंद्रियों की सहायता लेकर मन जगत में कर्म करता है और विकल्प से विपरीत विचार लाकर कर्म से विपरीत जाने लगता है। मन की इस धनात्मक और ऋणात्मक विचारधारा का साधक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है? समाधि के साथ उसका क्या संबंध है? साधक यदि कर्म में लगे रहकर समाजसेवा को लक्ष्य मान ले तो इस दशा में क्या उसे समाधि प्राप्त हो सकती है?
समाधि, वास्तव में मन की न तो धनात्मक और न ही ऋणात्मक अवस्था है, यह तो साम्यावस्था है। जैसे जल की शांत निर्वात अवस्था में जब वह सरलरेखाकार होता है तब उसे साम्यावस्था कहा जाता है। चंचल जलराशि की ऊर्ध्व तरंगें यदि संकल्प और अधोतरंगें विकल्प कहलायें तो, जब ये आपस में घुलमिलकर सरलरेखा में समाहित हो जाती हैं तब वह स्थिति साम्यावस्था कहलायेगी। समाधि में मन की भी यही अवस्था होती है।
संकल्पविकल्पात्मक मन चंचल जलराशि के समान हमेशा आन्दोलित होता रहता है और इस आन्दोलन के समय संकल्प और विकल्प दोनों को ही एक बार मन की प्रशान्तवाहिता सरल रेखा को स्पर्श करते हुए जाना पड़ता है, इसीलिये प्रत्येक भावना में सभी स्थानों, समयों और पात्रों में एक प्रकार की अस्थायी साम्यावस्था का अनुभव होता है, यद्यपि प्रवृत्ति मूलक कर्म में व्यस्त रहने पर निवृत्ति और साम्यावस्था दोनों ही असंभव लगती हैं। ठीक इसी प्रकार निवृत्ति मूलक कर्म जिनका स्वभाव हो गया है उन्हें प्रवृत्ति और साम्यावस्था असंभव लगतीं हैं। जल में रहने वाले प्राणी स्थल में और स्थल पर रहने वालों को जल में रह पाना असंभव लगता है। वस्तुतः इस संदर्भ में व्यक्तिगत प्रयत्न और अभ्यास तथा प्राकृतिक व्यवस्था ही सबसे बड़ी बात है, संभव या असंभव का प्रश्न ही नहीं है। जो मनः साम्य की साधना करते हैं उनके लिये मन की प्रशान्त वाहिता ही स्वाभाविक हो जाती है प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों असंभव हो जाते हैं। क्रमशः .. (2)
आपके अनुभव(ध्यान आदि)व अध्ययन, स्वाध्याय आदि पर आधारित अनुपम कृति /लेखन ,अत्यधिक अच्छा लगा
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय। इस लेख के कुछ आगामी खंड क्रमानुसार पोस्ट किए जाएंगे, कृपया ब्लाग पर देखते रहें और अपने मूल्यवान विचार/सुझाव देकर उन्हें अधिक जनोपयोगी बनाने की दिशा में सहयोग करें।
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