समाधि प्राप्त करने का रहस्य(3)
किसी विषय को युक्ति तर्क के द्वारा समझ लेने के बाद उसका अनुशीलन करने पर श्रद्धा उत्पन्न होती है। साध्य के प्रति श्रद्धा नहीं होने पर सिद्धि नही मिलती, ‘‘श्रत् सत्यं तस्मिनधीयते इति श्रद्धा’’। चित्त के सम्प्रसाद को भी श्रद्धा कहा जा सकता है, अर्थात् जिस वस्तु के सान्निध्य में आने पर चित्त की व्याप्ति होती है समझ लो तुम्हे उसके प्रति श्रद्धा है। समाधि चित्त की परम व्याप्ति है इसीलिये श्रद्धा समाधि का प्रथम सोपान है। दीर्घकाल तक यथोपयुक्त भाव से श्रद्धा के साथ अभ्यास करते जाना होगा अन्यथा समाधि दार्शनिक पुस्तकों का ही विषय बनी रहेगी जीवन के साथ उसका संपर्क नहीं हो सकेगा।
किसी आचार्य ने कहा है इसलिये साधना करने के भाव से कुछ नहीं मिलता बल्कि जो यह सोचते हैं कि मैं साधना में सिद्धि लाभ करना चाहता हूँ इसीलिये आचार्य मेरी सहायता कर रहे हैं, उन्हीं की साधना लक्ष्य प्राप्त कराती है। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही मन की वृत्तियां हैं, जो जिसका जितना अभ्यास करता है उसके लिये वह उतना ही सहज हो जाता है । समाधि का स्थान प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों से अतीत है। प्रवृत्ति, निवृत्ति की साधना में श्रद्धा अनिवार्य नहीं है। समाधि की साधना में किसी वस्तु की भावना के समय यदि कोई अवांछित चिन्ता या मानसिक तरंग उत्पन्न होती रहे तो उसे दूर करने के लिये जिस मनःशक्ति से वह हटायी जाती है उसे कहते हैं वीर्य(valour)। श्रद्धा के परिणाम से ही वीर्य (valour)उत्पन्न होता है। इस वीर्य(valour) के फलस्वरूप ही अवांछित तरंग के हट जाने से ध्येय विषय की एकतानता या निरविच्छिन्नता प्राप्त होती है।
क्रमशः .. 4
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