Friday 13 December 2019

287 समाधि प्राप्त करने का रहस्य(7)

समाधि प्राप्त करने का रहस्य(7)
पुरुष ख्याति में स्थापित होने का उपाय है कि वे मेरे विषयी तथा मैं उनका विषय हूँ  इस प्रकार का भाव रख कर उनमें आत्मसमर्पण करना, अर्थात् अपने उत्स में लौट जाना। ईश्वरप्रणिधान के द्वारा यह संभव है। प्रणिधान का अर्थ है जप क्रिया के द्वारा प्राप्त भक्ति। इसलिये  ईश्वरप्रणिधान का अर्थ हुआ  ईश्वर सूचक  भाव लेकर ईश्वर  वाचक शब्द का जप करते जाना। यह एक वीर्यदीप्त साहसिक साधना है, दुनियाॅं को धोखा देना या भीरु की तरह दायित्व से छुटकारा पाना नहीं है।  ईश्वरप्रणिधान से चित्त की भावधारा सरलरेखाकार हो जाने से असंप्रज्ञात समाधि पाना संभव हो जाता है परंतु ध्यान क्रिया इससे भी सरल है। ईश्वरप्रणिधान संप्रज्ञात समाधि के लिये अधिकतर उपयोगी है क्योंकि इसमें अल्पकाल में ही मन एकाग्र होजाता है तथा उसके बाद जो सामान्य मैंपन का बोध रह जाता है उसे ध्यान क्रिया से सहज ही त्याग किया जा सकता है और असंप्रज्ञात समाधि में प्रतिष्ठा पाई जा सकती है। विषय विषयी भाव जब तक हैं उपासना का सुयोग तभी तक है क्योंकि उपासना सगुण या तारक ब्रह्म की ही होती है निर्गुण की नहीं । अनादिकाल से ही यदि कोई व्यक्ति क्लेश,  कर्म, विपाक और आशय से मुक्त हुए रहे हों तो उनकी उपासना निरर्थक है। जीव, कर्म के फल से ही क्लेश  भोगता है, क्लेश  से विपाक और विपाक से विपाकानुरूप वासना या आशय का उद्भव होता है; जिन्हें इनका कुछ भी भान नहीं , जिनका मन कहकर कुछ भी नहीं है, उनकी उपासना से और जो कुछ क्यों न पा लिया जाये कृपा तो नहीं पाई जा सकती। मनुष्य पर कृपा करने का अधिकार निर्गुण पुरुष का कैसे हो सकता है, यह तो उस मुक्त पुरुष का अधिकार है जो कभी बद्ध थे अर्थात् सगुण ब्रह्म का।  और है तारक ब्रह्म का, जिनका मन सगुण निर्गुण के स्पर्श  विन्दु में प्रतिष्ठित है। जो कभी बद्ध थे वर्तमान में मुक्त हैं भविष्य में भी बद्ध नहीं होंगे, वे भी सगुण ब्रह्म के ही समान हैं उन्हें कहा जाता है महापुरुष। कृपा करने का अधिकार उनका भी है। ब्रह्म कृपा से  ईश्वरप्रणिधान के पथ पर द्रुत गति से बढ़ते हुए उनके ध्यान में ,उनकी सत्ता में ,अपने मैंपन का उत्सर्ग कर जीव परम शान्ति लाभ कर सकता है। 

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