Wednesday, 11 December 2019

285 समाधि प्राप्त करने का रहस्य (5)

समाधि प्राप्त करने का रहस्य(5)
निवृत्ति का पथ पकड़ कर सभी विषयों को हरा देने से साधक प्रकृति लीन हो जाता है, यहां पुनः जन्म की संभावना बनी रहती है भले ही वह लाखों वर्ष में हो । इसी प्रकार विदेहलीन अवस्था भी भव प्रत्यय के द्वारा होती है इसमें भी पुनः जन्म हेतु अविद्याश्रयी संस्कार रह जाते है, इसलिये निर्बीज होने पर भी ये असंप्रज्ञात नहीं। विदेहलीन अवस्था शून्य  के  ध्यान के फलस्वरूप प्राप्त होती है। इससे शून्य  का आभोग रह जाने से अर्थात् चित्त में एक तत्व का अभाव (पुरुषतत्व का) रहने से पुरुष में प्रतिष्ठा या मोक्ष लाभ नहीं होता है। इस प्रकार प्रकृतिलीन और विदेहलीन दोनों ही अवस्थायें ऋणात्मकता में प्रतिष्ठित हैं। इनके फलस्वरूप पुनः जन्म की संभावना अवश्य ही  रहती है। 
इसलिये साधकों का पथ, भव प्रत्यय नहीं वरन् उपाय प्रत्यय है। अर्थात् इसे उपाय के द्वारा, चेष्टा के द्वारा कालातीत भाव से समाधि में स्थापित करना होगा। प्राकृत वस्तु के भोग अथवा त्याग करने के उपाय में लगे रहना उचित नहीं।  उनका पथ त्याग का नहीं मनः साम्य का हैं, प्रकृति उनका ध्येय नहीं तो वर्जनीय भी नहीं। पुरुष उनका ध्येय हैं, अतः धीरे धीरे उनकी संपूर्ण सत्ता पुरुष में ही लीन होगी। इसीलिये उपासना प्रकृति की नहीं पुरुष की करनी होगी, पुरुष की इस साधना से प्राप्त निर्बीज समाधि की निरंतरता को ही मोक्ष कहते हैं। 
संप्रज्ञात समाधि मन की एकाग्र भूमि में ही होती है। चित्त में एक विषय के आभोग के कारण समाधि पाने के बाद सुविधानुसार जिस किसी विषय में समाधि लाई जा सकती है क्योंकि  एक विषय की तरंग पर जिसका नियंत्रण हुआ है, अन्य विषय में भी सहज रूप में उसका नियंत्रण आ सकता है। त्रिकाल के संबंध में जो ज्ञान है वह सर्वज्ञता कहलाता है। सर्वज्ञता का बीज प्रत्येक व्यक्ति में ही है केवल उसकी विकास मात्रा में भेद होता है। क्रमशः 6 .. ..

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