Sunday, 8 December 2019

282 समाधि प्राप्त करने का रहस्य(2)

समाधि प्राप्त करने का रहस्य
प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही जागतिक वृत्ति के द्वारा जुड़े होते हैं, क्योंकि कोई भी मनःसाम्य की साधना नहीं है इसलिये इनमें से किसी के द्वारा परम शान्ति (absolute bliss) करना संभव नहीं है। प्रवृत्ति की साधना के लिये वस्तु या भाव विशेष के प्रति राग और उसे प्राप्त करने का अभ्यास तथा निवृत्ति के लिये इनके प्रति द्वेष तथा उससे मुुक्त होने का अभ्यास किया जाता है। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के लिये क्रमशः  राग और द्वेष तथा तत्संबंधी प्रयास दोनों की अनिवार्यता है, किसी एक की कमी होने पर सिद्धि प्राप्त करना असंभव है। इसलिये जो निवृत्ति मार्ग के अनुयायी हैं वे घर, माता पिता स्त्री पुत्र सब को माया जाल कहकर संन्नयास लेने को उत्प्रेरित  करते हैं अर्थात् द्वेष त्याग का अभ्यास करने को कहते हैं जबकि समाधि न तो प्रवृत्ति मूलक है और न ही निवृत्ति। वास्तव में वैराग का अर्थ है राग का अभाव, अर्थात् विषयों का दास न होकर उनका समुचित व्यवहार करते हुए ब्रह्म भावना का अभ्यास करते जाना । 
अभ्यास कहते हैं ‘‘तत्रस्थितौ यत्नोअभ्यासः’’ अर्थात् एक विशेष प्रकार की मानस तरंग का क्रमागत अनुवर्तन करते जाने का नाम अभ्यास है। चित्त की साम्यावस्था को स्थायी बनाने का जो  अभ्यास है उसे कहेंगे समाधि का अभ्यास। किसी वस्तु के प्रति राग का अर्थ है उसकी ओर दौड़ना और द्वेष का अर्थ है उस वस्तु के विरुद्ध दौड़ना। साम्यावस्था पाने के लिये दोनों राग तथा द्वेष का वर्जन करना होगा अन्यथा समाधि का अनुभव करना संभव नहीं । 
मन की साम्यावस्था का अभ्यास करते करते साम्यावस्था ही स्वाभाविक हो जायेगी जैसे राग का अभ्यास करने से राग और द्वेष का अभ्यास करने से द्वेष स्वाभाविक होता है। दीर्घकाल के साधना के अभ्यास से ही समाधि में प्रतिष्ठित हुआ जाता है। इसमें किसी प्रकार की दीर्घसूत्रता मान्य नहीं क्योंकि एक बार अभ्यास छूटने पर हजार प्रकार की काम्य धारायें उस स्थान को लेने के लिये आ दौड़तीं हैं। क्रमशः ---3 

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