Tuesday 10 December 2019

284 समाधि प्राप्त करने का रहस्य(4)

समाधि प्राप्त करने का रहस्य(4)
‘‘अनुभूतविषया सम्प्रमोषः स्मृतिः’’ अर्थात अनुभूत विषय की तरंग को पुनः उत्पादित करने का नाम है स्मृति। वीर्य(valour) के द्वारा यह स्मृति उत्पन्न होती है। श्रद्धा के फलस्वरूप उत्पन्न वीर्य के द्वारा साधना के बाधा समूह को हटाकर जब ध्येय विषय के साथ एकतानता प्राप्त हो जाती है और यह किसी समय टूटती नहीं है तो उसे 
ध्रुवास्मृति कहते है। प्रवृत्ति की तरंग तो सबकुछ को ही भुलाकर रखना चाहती है। ध्रुवास्मृति के फलस्वरूप जब ध्येय के अलावा और कोई विषय साधक के सामने नहीं होता है तो उसी अवस्था का नाम समाधि है। इस अवस्था में मन और उसका ध्येय एक हो जाते हैं। यदि सूक्ष्म विचार किया जाये तो यह भी मन की एक निश्चयात्मक  अवस्था है, जो आभोग की सीमा में होने के कारण  इससे शाश्वती  शान्ति  प्राप्त होना संभव नहीं है। किन्तु आभोग से मुक्त होने का क्या है उपाय? विषय वितृष्णा एक प्रकार का ऋणात्मक भाव है, अतः इसका परिणाम भी एक प्रकार कर आभोग ही है क्योंकि यदि इससे स्थूल विषय से हट भी जाय तो भी व्यक्ता प्रकृति के अभाव होने से अवयक्ता प्रकृति या अविषयाभूत प्रकृति में आसक्ति उन्पन्न होती है। चित्त, जड़, या मानस, प्रत्याहार के फलस्वरूप अव्यक्त प्रकृति में वशीकार सिद्धि की अवस्था में  लीन हो जाता है, यह सिद्धि भी चरम सिद्धि नहीं है। भले यह जड़ात्मक नहीं पर निर्बीज  भी नहीं क्योंकि इसमें व्यक्तिकरण की संभावना रहती है, इसे प्रकृतिलीन समाधि कह सकते हैं कैवल्य जैसी नहीं । निर्बीज  समाधि की निरंतरता प्राप्त नहीं होने तक उसे असंप्रज्ञात कह सकते हैं पर मोक्ष नहीं। 
क्रमशः 5..

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