Wednesday 11 May 2022

378 अपूर्णीय क्षति

  

आजकल प्रायः अनेक विद्वान चर्चा करते हैं कि हमारे पूर्वज ऋषियों के पास बहुत पहले से चिकित्सा, इंजीनियरिंग, एअरोनाटिक्स आदि का ज्ञान था। यह सत्य भी है परन्तु प्रश्न यह है कि वह ज्ञान कहॉं चला गया, हम उसे संरक्षित क्यों नहीं रख पाए? आइए इसका कारण खोजें।

जब मूल सिद्धान्तों को भूलकर अपने वर्चस्व के लिए मनमाने सिद्धान्तों को प्रधानता दी जाने लगती है तो स्वाभाविक रूप से आडम्बर जन्म लेता है और मूल सिद्धान्तों के पालनकर्ताओं को हेय समझा जाने लगता है। भारतीय दर्शन के अनुसार प्रकृति अपने तीन गुणों सत्व, रज और तम में पारस्परिक संतुलन के आधार पर अपनी गतिविधियां जारी रखती है जिससे कहीं पर सत्व की अधिकता हो तो अन्य दोनों रज और तम की आनुपातिक रूप से कमी होती है और इस प्रकार के जीव सात्विक कहलाते हैं जबकि अन्य गुणों की प्रधानता जिनमें होती है वे क्रमशः राजसिक और तामसिक कहलाते हैं। सपष्ट है कि एक ही परिवार में कोई राजसिक कोई तामसिक और कोई सात्विक हो सकता है परन्तु उनमें आपस में घृणा नहीं होती। पूर्वकाल में कुछ अहंकार ग्रस्त लोगों ने तामसिक गुणों के लोगों को घृणित मानकर उन्हें सामाजिक महत्व से वंचित कर दिया और ‘राक्षस’ कहकर पुकारने लगे। अब यदि राक्षस कुल के किसी व्यक्ति ने कोई अच्छा कार्य किया तब भी वह समाज के तथाकथित सात्विकों द्वारा ग्राह्य नहीं माना जाता था अतः हमारे देश में इन तथाकथित राक्षस प्रवृत्ति के लोगों के द्वारा प्राप्त विद्याओं और किये गए अनुसंधानों को भुलाया जाता रहा है।

हमारा पुराना साहित्य इस प्रकार के दृष्टान्तों से भरा पड़ा है। यह उदाहरण देखिए, पूर्वकाल में बंगाल और झारखंड के एक भूभाग के राजा अनुभवसेन की पत्नी कर्कटी तमोगुणी अर्थात् तथाकथित राक्षसी थी परन्तु वह चिकित्सा के क्षेत्र में लगातार अनुसंधान करती रहती थी। उनका पुत्र सुतनुक आदर्श चरित्र का जनहितकारी वैद्य था। इस प्रकार राजा और उनका पुत्र सात्विक परन्तु पत्नी राक्षसी प्रवृत्तियों की मानी गई। कर्कटी ने अपनी प्रयोगशाला में कर्कट रोग जिसे आज केंसर कहा जाता है की खोज कर ली थी परन्तु तत्कालीन संकीर्ण सोच के सात्विकों ने उसे मान्यता नहीं दी इतना ही नहीं जब वह अपनी प्रयोगशाला में शवों का परीक्षण कर रही थी तो इस समूह के लोगों ने उसे यह कहकर वहीं जला दिया कि वह नरमांस भक्षण के लिये शवों को एकत्रित करती रहती है। अर्थात् उसे राक्षसी कहकर मार डाला गया। कहा जाता है कि कर्कटी की प्रयोगशाला में रखे शवों और अन्य रसायनों के साथ उसके जलने से जो भी गैसें उत्पन्न हुई उनसे ‘कॉलेरा’ अर्थात् हैजा (संस्कृत में विसूचिका) और ‘डायबिटीज’ अर्थात् मधुमेह रोग फैला। इसके साथ ही कॉलेरा और केंसर की औषधि भी विलुप्त हो गई। आयुर्वेद, चिकित्सा और सर्जरी के क्षेत्र में पुराने भारत का ज्ञान इसी निरर्थक सोच के कारण नष्ट होता गया ।

यह सर्वविदित है कि लिपि का ज्ञान न होने के कारण उस समय वेदों के ज्ञान को सुन सुन कर एक दूसरे को दिया जाता था इसीलिये उन्हें श्रुति भी कहा जाता है। परन्तु जब लिपि का ज्ञान हो चुका तब भी परम्परावादी तत्कालीन विद्वानों ने लिखने नहीं दिया क्योंकि वेदों को सुनकर ही एक दूसरे को सिखाने की परम्परा को वे बदलना नहीं चाहते थे। परिणाम यह हुआ कि बहुत सा ज्ञान याद ही नहीं रखा जा सका और जानकार पृथ्वी छोड़कर चले गए। ऋषि अथर्वा ने बड़ी कठिनाई से  इन लोगों से छिप छिप कर अपने साथियों और शिष्यों अंगिरा, अंगिरस, वैदर्भि आदि के साथ वेदों को लिखा जिसे बाद में वेदव्यास ने कालक्रम के अनुसार चार भागों में विभाजित किया।

इसी प्रकार की दकियानूसी विचारधारा का वर्तमान समय का ही उदाहरण है, वह घटना जब अंग्रेजों के शासन में अंग्रेजी भाषा का प्रभाव बढ़ा तब उसी अवधि में अड़ियल मुल्लाओं के एक समूह ने अंग्रेजी भाषा के खिलाफ एक फतवा जारी किया कि ‘‘यह एक अपवित्र भाषा है क्योंकि यह बाएं से दाएं लिखी जाती है। अगर मुसलमानों ने इसे सीख लिया तो वे अपनी धार्मिक पहचान खो देंगे और ईसाई बन जाएंगे।’’ मुस्लिम विद्वानों के इस रवैये का भारतीय मुसलमानों पर बहुत हानिकारक प्रभाव पड़ा। बाद में उन्हें क्षति पूर्ति करने के लिए ही अलीगढ़ में मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना करनी पड़ी।

स्पष्ट है कि जब तक हम तर्क और विज्ञान पर आधारित विवेकपूर्ण निर्णय लेने की क्षमता का समुचित उपयोग कर ऊंचनीच की भावना को दूर करना नहीं सीख लेते हमारे इस प्रकार के दम्भ का कोई मूल्य नहीं कि हम पूर्वकाल में कितने ज्ञान सम्पन्न थे।


Friday 6 May 2022

377 धर्म


आजकल कुछ विद्वानों को इस बात पर बहस करते देखा जाता है कि कृष्ण के समय अर्थात् पांच हजार साल पहले जब अनेक धर्म थे ही नहीं तो उनका अर्जुन से यह कहना निरर्थक है कि ‘‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम् शरणम् ब्रज’’ अर्थात् सभी धर्मो को छोड़कर केवल मेरी शरण में आ जाओ। कुछ विद्वानों तर्क है कि उनका यह कथन उस बनिये की तरह है जो कहता है कि मेरी दूकान में ही सबसे अच्छा माल मिलता है इसलिए अन्य दूकानों पर न जाकर केवल मेरे पास ही आओ।
वास्तव में यह बहस तब उत्पन्न होती है जब हम ‘‘धर्म’’ का अर्थ अंग्रेजी के ‘रिलीजन’ शब्द के समानार्थी की तरह स्वीकार करते हैं जबकि रिलीजन का अर्थ है ‘मतवाद’ से न कि धर्म से। अंग्रेजी में धर्म के समतुल्य यदि कोई शब्द है तो वह है ड्युटी अर्थात् कर्तव्य। सोचने वाली बात यह है कि कृष्ण और अर्जुन का संवाद हो रहा है युद्ध स्थल पर। युद्ध भी तत्काल के निर्णय पर नहीं वरन् अनेक प्रकार से शान्ति के प्रयास असफल हो जाने के बाद हुआ। अब यदि कोई योद्धा कहे कि मैं इन्हें क्यों मारूं ये तो मेरे सगे संबंधी हैं, यदि ये मर गए तो इनके आश्रित संबंधियों का क्या होगा, यह पाप क्यों करना आदि, तो क्या उचित होगा? नहीं।
इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं कि ‘‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम् शरणम् ब्रज’’ अर्थात्, पृथकता, चिन्ता, भय और रोना (द्वितीयक धर्म यानी सभी उपधर्म) छोड़कर, केवल मेरी ओर अर्थात् परमसत्ता की ओर (प्राथमिक धर्म यानी प्रधान धर्म की ओर ) आनन्दपूर्वक चले आओ । यदि चलते हुए गिरने से चोट लग जाए तो तुम्हारा पिता गुणकारी मरहम लगा कर ठीक कर देगा, धूल को पोंछ कर स्वच्छ कर देगा, चिन्ता की कोई बात नहीं । यही समझाने के लिए उन्होंने अनेक शब्दों में से ‘‘ब्रज’’, ब्रजति अर्थात् ‘‘आनन्द पूर्वक चलना’’ को ही अपने कथन में प्रयुक्त किया है। इतना ही नहीं उन्होंने यह भी कहा है कि ‘ चिंता न करो, मैं तुम्हें तुम्हारे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा’ जो इससे पहले न किसी ने कहा है और न भविष्य में कहेगा। यह केवल कृष्ण का ही सामर्थ्य है किसी बनिये का नहीं। संस्कृत से हिन्दी में अनुवाद की गई पुस्तकों में प्रायः इस प्रकार के निराधार अर्थ किये गए हैं और अर्थ का अनर्थ किया गया है। पाठकों को मूल संस्कृत का निरुक्त के आधार पर स्वविवेक से अर्थ ग्राह्य करना चाहिए। कृष्ण लगातार बुला रहे हैं और हम डरकर उनसे दूर भागते जा रहे हैं प्रकृति के हर क्षण बदलते मायावी स्वरूपों से आकर्षित होकर । इस विचित्र दुनिया के सतत रूपान्तरित होते वर्णक्रम को हमने सबकुछ मान लिया है!