Sunday 30 June 2019

253 साधना

253 साधना
संस्कृत शब्द ‘साधना’, एक उदासीन पद है। इसका अर्थ है अभ्यास। जैसे, कला साधना, साहित्य साधना, संगीत साधना, धर्म साधना, योग साधना आदि।
मानव सभ्यता के उद्गम के प्रारंभिक काल में लोगों को प्रकृति की सभी घटनाएं जैसे, उषाकाल, संध्याकाल, दिवस, रात्रि, बादल, वर्षा, विद्युतीय चमक आदि ने बहुत प्रभावित और रोमांचित किया। पर्वत नदियाॅं, वन, समुद्र और सरोवरों ने उन्हें अकर्षित किया और वे इन सबको आदर देते हुए प्रकृति को ही सब कुछ मानने लगे। प्रकृति पर अपनी निर्भरता जानकर इन सभी घटनाओं या स्थानों को अपना पोषक मानकर उन्हें देवताओं का नाम दे उनके प्रति समर्पित होते गए।

पन्द्रह हजार वर्ष पहले ऋग्वैदिक काल के प्रारंभिक काल के लोगों की परिस्थितियों की आज कल्पना कीजिए, बिजली नहीं थी, सुरक्षा के साधन नहीं थे, रोज रोज नयी विपत्तियाॅं आती, समूहों में बंटा समाज था। खाद्यान्न के लिए हो या आपात्काल में सुरक्षा के लिए वे वज्र, वरुण, इन्द्र आदि को देवता मानकर अपनी समस्याओं के समाधान और सुरक्षा के लिए उनसे प्रार्थनाएं किया करते थे। सूखा, बाढ़ या भूकम्प आने पर वे कहा करते, प्रकृति हमसे कुपित है इसके क्रोध को प्रार्थनाओं से कम किया जा सकता है आदि। समय के साथ क्रमागत रूप से  प्रार्थनाओं को अनेक छन्दों में प्रकट किया जाने लगा जिनमें ‘गायत्री मंत्र’ को सबसे श्रेष्ठ प्रार्थना का स्तर प्राप्त है। इस छंद में प्रकृति से परे, परमसत्ता से अपनी ‘‘बुद्धि को शुद्ध’’ करने का निवेदन किया गया है। इस समय तक आध्यात्म साधना की कोई पद्धति लोगों को ज्ञात नहीं थी। तत्कालीन मान्यता प्राप्त देवताओं को प्रसन्न करने के लिए वे अपने पास उपलब्ध उत्तम खाद्य जैसे, चावल, घी, फल आदि भेंट करते थे। चॅूंकि उनका न तो स्वरूप था और न दिखाई देते थे अतः वे इस सामग्री को अग्नि में उनके नाम से प्रार्थना पूर्वक भेंट किया करते थे।

ऋग्वैदिक काल की समाप्ति और यजुर्वैदिक काल के प्रारम्भ होने तक ‘वेद’ का ज्ञान तो बहुत अधिक हो चला था परन्तु उसे व्यावहारिक रूप कैसे दिया जाय यह संभव नहीं था। अतः इस संधिकाल में एक महान व्यक्तित्व ‘सदाशिव’ का आविर्भाव हुआ जिन्होंने सभी को ‘आध्यात्म साधना’ की व्यावाहारिक पद्धति सिखाई। शास्त्रों ने स्वीकार किया है कि जिस किसी व्यक्ति का जीवनदर्शन और व्यक्तित्व एकीकृत हो जाता है वह देवता बन जाता है। सदाशिव का व्यक्तित्व और दर्शन एकीकृत थे इतना ही नहीं उनकी साधुता, सरलता और तेजस्विता से वे मनुष्यों ही नहीं, जीव जंतुओं, पशु पक्षियों और वनस्पति को भी प्रभावित करने लगे। यह सभी उनके संरक्षण में निष्कंटक रहकर आनन्दित होते थे ।  उनके इस प्रभाव से उनके पूर्व श्रेष्ठ माने जाने वाले देवता अग्नि , इन्द्र, वरुण, आदि तेजहीन हो गए और सभी लोग सदाशिव को देवता ही नहीं देवताओं के देव ‘महादेव’ कहने लगे।

मानव समाज के निर्माण में सदाशिव का योगदान अमूल्य है, उन्होंने समाज को एकीकृत बनाए रखने के लिए सबसे पहले ‘विवाह’ नामक संकल्पना को साकार कर स्थापित किया, ऋषि ‘नन्दी’ को कृषि और पशुपालन, ‘विश्वकर्मा’ को भवन निर्माणकला, ‘धनवन्तरी’ को चिकित्सा और वैद्यकशास्त्र, ‘भरत’ को संगीत अर्थात् नृत्य, गीत और वाद्य, पुत्र ‘भैरव’ और पुत्री ‘भैरवी’ को योग और विद्यातन्त्र तथा पुत्र ‘कार्तिकेय’ को सैन्य प्रबंधन सिखा कर सारे विश्व में इन विद्याओं के प्रचार प्रसार का उत्तरदायित्व दिया। परन्तु दुख है कि आज ‘‘भगवान सदाशिव’’ के इस अद्वितीय और अतुलनीय योगदान को भुलाकर, साधना करने के स्थान पर उन्हें, मूर्तियों में बाॅंधकर, जलधार से प्रसन्न हो जाने के उपक्रम तक ही सीमित कर दिया गया है !!!

Wednesday 19 June 2019

252 व्यावहारिकता


व्यावहारिकता
जिन लोगों को साधना करने का ज्ञान नहीं हो पाता है वे वास्तविकता से दूर, तत्व के जगत में ही घूमते हैं । लोगों को परामर्श देना सरल है परन्तु व्यक्तिगत जीवन में आचरण करना किस प्रकार संभव होगा यह बताना सहज नहीं है।
जैसे, भगवान बुद्ध कहते हैं, ‘‘अपनी आँखों, कानों, जीभ, नाक, काया, वाणी और मन पर संयम करो ।’’ पर प्रश्न उठता है कि कैसे? आँखें  तो देखेंगी ही। बाहर की आँखें  नहीं देखेंगी तो भीतर की आँखें  देखेंगी। जैसे, तीर्थयात्री तीर्थ स्थानों में जाकर भी अपने गाय बछड़े और घर गृहस्थी की चीजों को भीतर की आँखों  से देखते हैं, भगवान की ओर ध्यान नहीं दे पाते। इसी प्रकार कान अच्छा बुरा सब सुनेंगे ही, नाक सुगंध और दुर्गंध दोनों के संपर्क में आएगी ही, जीभ स्वाद की ओर दौड़ेगी ही, वाणी भी मधुर और कटु दोनों तरंगें उत्सर्जित करेगी और सब जानते हैं कि मन तो स्थिर रहता ही नहीं है।

जगद्गुरु बाबा, श्रीश्री आनन्दमूर्ति द्वारा प्रदत्त ‘योगसाधना’ में इन स्थितियों से बचने के लिए व्यावहारिक पद्धतियों का अनुसरण करना सिखाया जाता है। आँखों  पर नियंत्रण करने के लिए जागतिक वस्तु समूह पर परमपुरुष के भाव का अध्यारोपण कैसे करते हैं, ‘प्रत्याहार’ के द्वारा प्रशंसा और निन्दा दोनों से मन को हटाने का अभ्यास किस प्रकार किया जाता है आदि। इस अभ्यास से साधक आध्यात्मिक चर्चा को सुनने के लिए तो व्याकुल रहते हैं परन्तु अपनी प्रशंसा सुनने के लिए उनके कान उदग्र नहीं होेते। साधना पथ पर ठीक ढंग से चलने पर साधक को बाहरी गंध आकर्षित नहीं करती वरन अन्दर से ही वह विशेष गंध का अनुभव करता रहता है। जीभ से भक्ष्य और अभक्ष्य दोनों प्रकार का स्वाद लिया जाता है परन्तु केवल मानवोचित भक्ष्य पदार्थों का ही सेवन भगवान का प्रसाद मानकर किस प्रकार किया जाता है यह इस योगसाधना में ही सिखाया जाता है। हम अपने शरीर को अपनी इच्छाओं के अनुकूल संचालित करते हैं पर साधना में हमें यह सिखाया जाता है कि यह शरीर परमपुरुष का यंत्र है और वे हैं यंत्री; और हमें उन्हीं की इच्छानुकूल उनके कार्य हेतु प्रस्तुत कैसे रहना चाहिए। वाणी भी परमपुरुष का यंत्र है उससे कुवाक्य नहीं बोलना है, सत्य और मधुर बोलने का अभ्यास करना योगसाधना के द्वारा ही संभव होता है। मन किसी न किसी चीज में सदा ही लिप्त रहता है जिसे प्रत्याहार साधना के द्वारा परमपुरुष की ओर ले जाने का व्यावहारिक अभ्यास करना सिखाया जाता है।

अपने सभी कर्म और भावनाएं परमपुरुष को ही अर्पित करने के लिए, अष्टाॅंगयोग का पालन करते हुए सांसारिक सभी कार्य करने की सलाह भगवान श्रीकृष्ण भी देते है,
‘‘तस्मात् सर्वेषुकालेषु मामनुस्मर युध्य च, मय्यर्पित मनोबुद्धिः मामेवैष्यस्यसंशयम्।’’8/7
इस तरह अष्टांगयोग की साधना, व्यावहारिक और वैज्ञानिक आधार पर जांच.परख किए जाने के बाद  पूर्णतः प्रभावी पाई गयी है, इसे सीखकर नियमित अभ्यास करने से मन के सभी संशय और भ्रम दूर होकर अपने लक्ष्य ‘परमपुरुष’ से संपर्क कर पाना सहज हो जाता है।

Saturday 15 June 2019

251 ऋग्वेद का संदेश

251 ऋग्वेद का संदेश
तत्कालीन मनीषियों के हजारों वर्षों के अनुभवों को संस्कृत की सबसे प्राचीन कृति ‘ऋग्वेद’ में संकलित किया गया है। आने वाले समय में मनुष्य मात्र के कल्याण और सम-समाज तत्व की स्थापना के लिए अन्त में ऋषियों का स्पष्ट सुझाव यह है कि,
‘‘ संगच्छद्धवं संवद्धवं सं वो मनासि जानताम्, देवाभागं यथापूर्वे संजानाना उपासते।
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः, समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।’’
अर्थात्,
संगच्छद्धवं - तुम लोग सभी मिल.जुलकर चलो। ऐसा न हो कि कोई आगे निकल जाए और कोई पीछे रह जाए। सभी को साथ लेकर आगे बढ़ो, अन्न,वस्त्र,शिक्षा,चिकित्सा और आवास का सामूहिक दायित्व लेकर एक साथ आगे बढ़ते रहो।
संवद्धवं- तुम सभी लोग एक ही आदर्श, एक ही भावना और एक ही परम लक्ष्य की बात एक साथ कहते चलो। जहाॅं एक ही लक्ष्य होगा वहाॅं मतभेद नहीं होगा, जहाॅं चलने के लिए एक ही पथ होगा वहाॅ दो तरह की बातें नहीं हो सकती, दो तरह के मत नहीं हो सकते।
सं वो मनांसि जानताम्- इसलिए तुम लोग अपने मन को अन्य अनेक लोगों के मन के साथ एक मन बनाकर, एक जानकर चलो।
देवाभागं यथापूर्वे संजानाना उपासते- जिन मनुष्यों ने परमपुरुष की ओर बढ़ते हुए अपने मन की भावना को, निम्नतर चक्र से एक एक सीढ़ी चढ़कर उच्चतर चक्रों की ओर उठाया था और मानव तेज तथा मनीषा को ऊर्ध्व  लोक में उन्मुक्त कर परमश्रेय की ओर आगे बढ़ाया था, वे कहलाए ‘‘देव’’ । अतः प्राचीनकाल के ‘देव’ कहलाने वाले उन्नत मनुष्य जिस प्रकार सबकुछ अपने बीच मिलजुलकर, बांटकर व्यवहार करते रहे हैं और महत् दृष्टान्त स्थापित कर गए हैं उनके उत्तराधिकारी तुम लोग भी उन्हीं की तरह सभी को अपने परिवार का अंग मानकर आगे बढ़ो।
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः- तुम सभी का लक्ष्य एक ही है, एक ही परमपुरुष तुम्हारे उपास्य हैं। तुम्हारी इच्छाएं और आशाएं एक ही हैं और सभी एक ही ध्येय की ओर बढ़ रहे हो । इसे भूल न जाना कि तुम सभी का हृदय (अर्थात् सेंटीमेंट) भी एक है और लक्ष्य भी एक ही है। ( यहाॅं ध्यान देने की बात यह है कि वेद के समय व्याकरण नहीं था उस समय ऋषिगण छंद को ही प्रधानता देते थे यही कारण है कि व्याकरण के अनुसार यहाॅं होना चाहिए था ‘‘समानानि हृदयानि वः’’  परन्तु छंद के लिए कहा गया है ‘समाना हृदयानि वः’ ।)
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति- इस प्रकार तुम लोग साधना के द्वारा अनेक मनों को एक मन में रूपान्तरित कर एक सुसज्जित, सुन्दर और हास्यमुखर जनगोष्ठी में परिणत हो सकोगे।

अनेक विद्वान वेदों का भाष्य और व्याख्या करते देखे जाते हैं। उनकी शिक्षाओं और समझाई जाने वाली अनेक प्रकार की पूजा पद्धतियों में प्रधानता इस बात की ही देखी जाती है कि हे प्रभो हमें धन, बल, पद, मान दे दो, हमें शत्रुओं और कष्टों से मुक्ति दे दो आदि आदि (अर्थात् हम बली, धन सम्पन्न और प्रभावी किस प्रकार बन सकते हैं) पर, इसकी चर्चा गौण होती है कि हमारे मनुष्य जीवन पाने का लक्ष्य और उद्देश्य क्या है। ऋग्वेद का यह अंतिम मंत्र, हम सबको उन्नत समाज की स्थापना करने के लिए एक साथ अपने लक्ष्य ‘परमपुरुष’ की ओर बढ़ते रहने हेतु प्रोत्साहन प्रदान करता है।

Monday 3 June 2019

250 सफलता का रहस्य

250 सफलता का रहस्य

प्रायः लोग कहते पाए जाते हैं कि मैं तो बहुत परिश्रम करता हॅूं, कोई कसर नहीं छोड़ता पर पता नहीं क्यों सफलता नहीं मिलती। अथवा, मैं जो भी काम करता हॅूं हमेशा निष्फल ही रहता हॅूं, पता नहीं किन नक्षत्रों का प्रभाव है, आदि आदि। इस प्रकार के लोग घबराकर ज्योतिषियों और टोने टोटके करने वालों के चंगुल में फंसकर अपना परिश्रम, समय और धन व्यर्थ ही व्यय करते देखे जाते हैं। ‘‘निगमागम’’ में शिव पार्वती के संवाद के रूपक से इस समस्या को इस प्रकार समझाया गया है...

पार्वती ने शिव से पूछा, ‘‘ जीवन में हर प्रकार की सफलता (भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक) पाने के लिए कौन कौन से घटक सहयोग करते हैं?’’
शिव ने कहा, पहला घटक है, 'यह दृढ़ निश्चय होना कि अपने उद्देश्य में अवश्य ही सफल होऊंगा'। (जब कोई प्रतिज्ञा करता है तो जोर से निःश्वास खींचकर कहता है। इस जोर लगाकर विशेष प्रकार की श्वास लेने को ‘विश्वास’ कहा जाता है, वि - श्वस् + घ¥  = विश्वास, अर्थात् मूल क्रिया ‘श्वस्’ में उपसर्ग ‘वि’ लगाकर  ‘घ¥ प्रत्यय को जोड़ने से ‘विश्वास’ बनता है) . 
दूसरा घटक है, ‘श्रद्धा’, जिसकी ओर जाना चाहते हैं उसके प्रति श्रद्धा नहीं होगी तो कार्य सिद्ध नहीं होगा। ( श्रत्+ धा = श्रद्धा अर्थात् सत्य का अनुसरण करने वाले जिसे सत्य के रूप में मानते हैं वह)।
तीसरा है, ‘गुरुपूजन’ अर्थात् जिससे सीखते हैं, निर्देशन प्राप्त करते हैं उसके आदेशों का पालन करना और उसके प्रति श्रद्धा रखना।
चौथा  है, ‘समताभाव’ अर्थात् बेलेंस्ड माइंड। (अर्थात् प्रत्येक समय बिना मनमुटाव के, विद्वेष रहित होकर ही व्यवहार करना होगा, क्रोधित होकर बात करने से मन का संतुलन बिगड़ जाता है अतः इससे सदा ही दूर रहना चाहिए।)
पाॅंचवां है, ‘इंद्रियनिग्रह’ अर्थात् अपने आप पर नियंत्रण रखना। (अपने आप पर नियंत्रण रखने से यह बोध जागता रहता है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं, शुद्ध तथा अशुद्ध और नित्य तथा अनित्य का ज्ञान इसी नियंत्रण से पाया जा सकता है।)
छठवां है, ‘प्रमित आहार’ अर्थात् सीमित परन्तु पुष्टिकारक भोजन करना।

यह कहकर शिव चुप हो गए तब पार्वती ने पूछा, ‘‘सातवां घटक क्या है?’’ वे बोले , ‘सातवां है ही नहीं।’ संस्कृत में इसे निम्नाॅंकित श्लोक से समझाया गया है।
‘‘फलिष्यतीति विश्वासः सिद्धेर्प्रथमलक्षणम्, द्वितीयं श्रद्धायुक्तं तृतीयं गुरुपूजनम् ।
चतुर्थो समता भावो पंचमेन्द्रियनिग्रहः, षष्ठंच प्रमिताहारः सप्तमं नैव विद्यते।’’