Wednesday 30 August 2017

147 "अधिक आयु के बुजुर्ग चिड़चिड़े और विवेकहीन क्यों हो जाते हैं।"

147
"अधिक आयु के बुजुर्ग चिड़चिड़े और विवेकहीन क्यों हो जाते हैं।"

सामान्यतः जब लोग स्वस्थ  और सक्षम होते हैं तब वे अपनी निम्न वृत्तियों पर अपने मानसिक बल से नियंत्रण रखे रहते हैं। जैसे, यदि कोई लोभी है तो वह इसे सभी के सामने प्रदर्शित नहीं करेगा। यदि किसी का मन गंदे विचारों से ही भरा रहता है तब भी वह सबके सामने गंदे वचनों को कहने से परहेज रखेगा। स्वस्थ अवस्था में लोग अपने मन और नाड़ी तन्तुओं के बल से उन विचारों  पर नियंत्रण रखने में समर्थ होते हैं। परन्तु अधिक उम्र के होते होते उनकी यह नियंत्रण करने की क्षमता भी क्षीण होती जाती है। यही कारण है कि बहुत आयु हो जाने पर लोग विवेकहीन हो जाते हैं, वे वह कहने और करने लगते हैं जो उन्होंने भूतकाल में कभी नहीं किया या कहा। दुर्भाग्यपूर्ण  तो यह होता है कि वे सब उसके परिणाम के बारे में अनभिज्ञ रहते हैं जो वे कह या कर रहे होते हैं। इस जहरीले व्यवहार से वे अपने ही परिवार में बोझ समझे जाने लगते हैं। वे अनजाने में अनावश्यक रूप से सब को मार्गदर्शन या नियंत्रण करते रहते हैं या फिर अविवेकी और क्रोधी हो जाते हैं इससे परिस्थितियाॅं और भी दूषित हो जाती हैं। इसका समाधान यह है कि यदि प्रारम्भ से ही ईमानदारी से नियमित साधना की जाती रहे तो आयु के बढ़ने पर भी मन आध्यात्मिक विचारों में लगा रहेगा और भौतिक रूपसे शरीर के कमजोर होने पर भी वे अपनी साधना करना जारी रख सकेंगे और शांत रहेंगे। इसके विपरीत वे जो आडम्बर करते हैं, उन इच्छाओं को युवावस्था में तो दबाए रहते हैं परन्तु बृद्धावस्था में मन की दुर्बलता उन नकारात्मक गुणों को सतह पर ला देती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उम्र के बढ़ने से इस प्रकार की वृत्तियाॅं जन्म लेती हैं वरन् यह कि अपनी युवावस्था में इन नकारात्मक वृत्तियों को वे अपने मन में पोसते रहे हैं जो सामाजिक दबाव वश वे उस समय प्रदर्शित नही कर सके और बृद्धावस्था आने पर उनके नाड़ी तन्तु और मन कमजोर पड़ जाने से इन पर से नियंत्रण हट जाने के कारण अब वे बाहर आने लगे हैं।

Sunday 27 August 2017

146 बाबा की क्लास ( साधना की सफलता हेतु क्रमागत पद )

146 बाबा की क्लास ( साधना की सफलता हेतु क्रमागत पद )

रवि- साधना की पूर्ण सफलता के लिए सही सही पहला स्टेप कौन सा है?
बाबा- अपने इष्ट मंत्र के जाप करने से पहले ‘दीपनी‘ और ‘मंत्रचैतन्य‘ का ज्ञान होना आवश्यक है अन्यथा मंत्र जाप निष्फल हो जाता है।

राजू- दीपनी का अर्थ तो प्रकाश से संबंधित है?
बाबा- हाॅं, गहरे अंधेरे में लम्बी दूरी की यात्रा करने के लिए हमें टार्च लाइट की आवश्यकता होती है दीपनी वही टार्च लाइट है।

रवि- पर दीपनी है क्या?
बाबा- मन को सही रास्ता दिखाने वाली टार्च लाइट वास्तव में तंत्र की भाषा में ‘शुद्धियाॅं‘ कहलाती हैं जिनके नाम हैं भूत शुद्धि, चित्तशुद्धि और आसन शुद्धि। इन्हीं के सहारे मन को बाहरी संसार से खींच कर उचित स्थान पर आसन देने का कार्य किया जाता है।

नन्दू- जब दीपनी ही आवश्यक है तो मंत्र का महत्व क्या है?
बाबा- अंधेरे कमरे में रखी कोई वस्तु कितनी ही बहुमूल्य क्यों न हो, अपने आप दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार बहुमूल्य सिद्ध मंत्र भी दीपनी के बिना उचित रूप से प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। व्यक्ति का इष्ट मंत्र ही उसे दीपनी अर्थात् शुद्धियों के सहारे आध्यात्मिक पथ पर प्रगति कराता है।

रवि- ‘ मंत्र ‘ और ‘ मंत्र चैतन्य ‘ एक ही होते हैं या अलग अलग?
बाबा- मननात् तारयेत्यस्तु सः मंत्रः प्रकीर्तितः। अर्थात् जिसके मनन करने से मुक्ति का मार्ग मिल जाता है वह मंत्र कहलाता है। बार बार मंत्र के दुहराये जाने से जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त हो जाता है, परन्तु तोते की तरह दुहराना किसी काम का नहीं रहता। इसलिए मंत्रचैतन्य का महत्व बढ़ जाता है। मंत्र को उसके उचित अर्थ के साथ समझते हुए चिन्तन करना, मंत्रचैतन्य कहलाता है। यह चिन्तन ही आध्यात्मिक रास्ते पर प्रगतिदायक सिद्ध होता है।

इन्दु- मंत्र के अर्थ का चिन्तन करने का आशय क्या है?
बाबा- मंत्र का व्याकरणीय या सामान्य अर्थ समझने से काम नहीं चलता उसके भीतरी भाव पर विचार करते रहना होता है इसी को चिन्तन करना कहते हैं। जैसे , अंग्रेजी में ‘ लेमन‘ कहने पर अंग्रेजी जानने वाला समझ जाएगा और उसके खट्टेपन और अन्य प्रभावों पर विचार करते ही उसे लगने लगेगा कि जैसे उसे ‘लेमन‘ का स्वाद मिलने लगा हो। पर जो अंग्रेजी नहीं जानता वह उसके अर्थ और गुण समझे बिना लेमन लेमन कहेगा तो उसके मन में कोई अनुभूति नहीं होगी। मंत्र की सहायता से आध्यात्मिक पथ पर तीब्र प्रगति पाने के लिये हृदय से परमपुरुष के साथ गहरा और निकटता का संबंध जोड़ना पड़ता है जो मंत्रचैतन्य से सहज हो जाता है। जब परमपुरुष के साथ मंत्रचैतन्य प्राप्त कम्पन, चिंतन करने वाले व्यक्ति के हृदय से टकराता है तब वह परमपुरुष से दूर नहीं रहना चाहता और उनकी कृपा से आनन्दित ही बना रहना चाहता है।

चन्दू- मंत्र को जागृत करना क्या है?
बाबा- हाॅं, सामान्य व्यवहार में जिसे मंत्र को जागृत करना कहते हैं वही तन्त्रविज्ञान की भाषा में मंत्रचैतन्य कहलाता  है। मंत्रचैतन्य के बिना साधना करना केवल समय को नष्ट करना ही है।

राजू- ‘मंत्राघात‘ और ‘मंत्रचैतन्य‘ किस प्रकार भिन्न हैं?
बाबा- वास्तव में जप क्रिया में मंत्र को चिन्तन की जिन अवस्थाओं में से ले जाना होता है उनमें पहले मंत्रचैतन्य फिर मंत्राघात की स्टेज आती है।  चैतन्य मंत्र को श्वास के सहारे शरीर में स्थित ‘‘फंडामेंटल नेगेटिविटी‘‘ अर्थात् ‘‘प्रसुप्त देवत्व‘‘, जिसे तंत्रविज्ञान में ‘कुंडिलनी‘ कहा जाता है, पर आघात कराया जाता है इस क्रिया को ही मंत्राघात कहते हैं। याद रखें यह कोई पृथक से किये जाने वाली क्रिया नहीं है वरन् मंत्र जाप के साथ मनन के द्वारा स्वाभाविक रूप से होती जाती है ।

इन्दु- इसके बाद क्या होता है?
बाबा- मंत्राघात से उत्पन्न कम्पन मूलाधार में स्थित फंडामेंटल नेगेटिविटी अर्थात् प्रसुप्त देवत्व को जागृत कर देते हैं और परिणामी कम्पनों सहित वह सुषुम्ना नाड़ी से होते हुए ‘फंडामेंटल पाजीटिविटी‘ अर्थात् ‘शिव तत्व‘ जो सहस्त्रार में स्थित होता है से मिल जाते है और साधक अपार आध्यात्मिक आनन्द का अनुभव करता है। यह अवस्था देर तक बनी रहती है तो इसे ही समाधि की अवस्था कहते हैं। इस के पीछे यही विज्ञान है।

रवि- आपके द्वारा बतायी गई यह विधि तो मानसिक ही होती है, कोई व्यक्ति या साधक स्वयं यह कैसे जान सकता है कि उसकी आध्यात्मिक प्रगति हो भी रही है या नही?
बाबा- जब मंत्रचैतन्य के साथ जाप किया जाता है तो व्यक्ति के पूरे अस्तित्व से सात्विक अभिव्यक्तियां होने लगती हैं। मन में सात्विक भाव के उदय होने से दिव्यत्व का प्रवाह सभी संस्कारोें और प्रवृत्तियों को पार कर आनन्द उत्पन्न करता है और परमपुरुष की भावना जागृत हो जाती है। वे दिव्य गुण जो अभी तक अव्यक्त थे व्यक्त होने का अवसर पा जाते हैं और मन का अनुनाद नर्वस सिस्टम के साथ स्पंदित होने लगता है। यदि किसी की नाड़ियों के किसी प्रभाव के कारण यह अनुभतियां नहीं हो पाती हैं तो मानसिक कंपन शरीर की विभिन्न ग्रंथियों में मौलिक परिवर्तन कर देते हैं। यह अनुभूतियाॅं मौलिक रूप से आठ प्रकार की होती हैं जैसे, स्तंभ, कम्प, स्वेद, स्वरभेद, अश्रु, रोमांच, वैवर्ण, और चक्कर आना। इन मूल अभिव्यक्तियों से कुछ अन्य अनुभूतियां भी जुड़ी होती हैं जैसे, नृत्य, गीत, विलुंठन, रुदन, हुंकार, लारस्रवण, जिम्भन, लोकापेक्षा त्याग, अट्टहास, घूर्णन, हिक्का या हिचकी, शरीर को आराम मिलना, और गहरी श्वास लेना।

चन्दू- ये अनुभतियाॅं सभी आध्यात्मिक साधकों को होती हैं या किसी  विशेष को ?
बाबा- इस प्रकार की अनुभतियाॅं, (इनमें से सभी नहीं परन्तु एक दो) संस्कारों के अनुसार सभी लोग अनुभव करते हैं। जो कोई भी दीपनी, मंत्रचैतन्य और मंत्राघात के सहारे आगे बढ़ता है ब्रह्म कृपा धीरे धीरे बढ़ती जाती है, साधक का मन प्रेम तरंगों से भर जाता है जो उसके मन को विडोलित करने लगती हैं। उसका गला भावनाओं के समूह से रुंध जाता है और ओंठ मनोभावों से उत्साहित होते हैं । झुके हुए से शरीर और अश्रुओं से भरे नेत्रों में गले से केवल एक और केवल एक ही ( इष्टमंत्र का)  ध्वनिरहित स्वर निकल रहा होता है। इस स्वर में ब्रह्म के प्रति उसका आत्म समर्पण झलकता है, ब्रह्मकृपा हि केवलम्।

Sunday 20 August 2017

145 बाबा की क्लास ( उच्चतर साधना )

145 बाबा की क्लास  ( उच्चतर साधना ) 

रवि- आपके अनुसार हमें दिव्य जीवन जीने के लिए परमपुरुष के साथ कैसा सम्बंध बनाना चाहिए?
बाबा- दिव्य जीवन के रास्ते में जैसे जैसे परमपुरुष से प्रेम अर्थात् भक्ति में वृद्धि होती जाती है यह संबंध भी बदलते जाते हैं परन्तु अन्त में दास्य या मधुर भाव ही उत्तम लगने लगता है।

राजू- इस प्रकार के संबंध या भाव के क्रमागत स्तर कौन कौन हैं?
बाबा-  भक्ति के पहले स्तर पर साधक परमपुरुष को इस ब्रह्माॅंड में कहीं अन्य जगह पर रहने वाला मानता है और वह उनके साथ अपना व्यक्तिगत संबंध होने का अनुभव नहीं कर पाता, वह उन्हें किसी न्यायालय का न्यायाधीश जैसा मानता है। जब भक्ति का स्तर कुछ बढ़ जाता है तो वह परमपुरुष के साथ अपना संबंध पिता की तरह मानते हुए अनुभव करता है कि मैं और परमपुरुष की ये सृष्टि एक ही परिवार के सदस्य हैं, वह मेरे पिता हैं और मैं पुत्र। इस स्तर पर प्रेम, आदर और व्यक्तिगत संबंध तो अनुभव होता है परन्तु भक्त इतना अधिक निकट नहीं हो पाता कि वह उनसे वह सब कुछ कह सके जो वह कहना चाहता है।

इन्दु- तो क्या इसके अलावा कोई दूसरा संबंध हो सकता है?
बाबा- कुछ भक्त वात्सल्य भाव को मानते हुए देखे जाते हैं जिसमें वे परमपुरुष को अपने पुत्र की तरह पारिवारिक संबंध बनाते हैं, पर यह भी बहुत निकटता का संबंध नहीं माना जाता। सूरदास जैसे अनेक भक्त इसी भाव में संबंध बनाकर भक्ति करते रहे हैं।

चन्दू- जब उनसे  अपना बहुत निकटता का ही संबंध बनाना है तो क्या उन्हें अपना मित्र नहीं बनाया जा सकता?
बाबा- क्यों नहीं, यह साख्य भाव कहलाता है, इस संबंध में भक्त अपने मन की बातें और भावनाएं उनके साथ अधिक निकटता से कह पाता है। अनेक भक्त जैसे अर्जुन इसी प्रकार का संबंध बनाए रहे हैं।

नन्दू- तो क्या साख्य भाव ही सबसे उत्तम है?
बाबा- भक्ति के उच्चतम स्तर पर ये सभी भाव दास्य भाव या मधुर भाव में बदल जाते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसके आन्तरिक संस्कार कैसे रहे हैं और वह उनका ध्यान कैसे करता है।

रवि- ये दास्य और मधुर भाव क्या हैं?
बाबा- दास्य भाव में भक्त परमपुरुष को अपना स्वामी और स्वयं को उनका सेवक मानता है, इस अवस्था में वह अपना छोटा बड़ा हर कार्य अपने स्वामी की प्रसन्नता के लिए ही करता है। इस प्रकार का संबंध परमपुरुष राम और भक्त हनुमान के बीच था। जबकि मधुर भाव परमपुरुष के साथ सबसे अधिक प्रेम भरा संबंध है, इसमें भक्त परमपुरुष को अपने सबसे अधिक प्रिय के रूप में स्वीकार करता है। मीराबाई जैसे अनेक भक्त इसी श्रेणी में आते हैं। इस प्रकार अपनी शुद्ध आन्तरिक भावनाओं के अनुसार ही यह संबंध होते हैं न कि बाहरी प्रदर्शन के लिए।

राजू- भक्ति का जो भी भाव किसी को अच्छा लगता हो उसे स्थापित करने के लिए क्या किसी की मध्यस्थता आवश्यक होती है?
बाबा- अंधानुकरण करने वाले लोग इस प्रकार के संबंधों को पचा नहीं सकते कि परमपुरुष के साथ इतने निकटता का संबंध भी हो सकता है। वे परमपुरुष को किसी सातवें आसमान में बने स्वर्ग का निवासी मानते हैं अतः उनके अनुसार इतनी अधिक दूरी के कारण उनसे व्यक्तिगत संबंध बना पाने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता । चूंकि उनके अनुसार परमपुरुष से हमारा सीधा संबंध नहीं हो सकता इसलिए वे किसी की मध्यस्थता की आवश्यकता बताते हैं। और, यह मध्यस्थता पुजारी या पुरोहित ही कर सकते हैं उनके बिना पूजा निरर्थक और फलहीन मानी जाती है। इस प्रकार की शिक्षा और संबंध केवल मूर्ख बनाकर भोले भाले लोगों को ढगने के लिए ही होते हैं , भक्ति मार्ग में इनका कोई स्थान नहीं है। इसलिए याद रखो कि युगों से अनेक भक्तों ने परमपुरुष के साथ अपना प्रेमभरा निकटता का सबंध बनाकर उन्हें अनुभव किया है जिनके कुछ उदाहरण अभी बताए जा चुके हैं।

नन्दू- आपने एक बार राधा भाव की चर्चा की थी, क्या वह भाव इन सब से भिन्न है ?
बाबा- जैसे जैसे भक्त परमपुरुष की ओर बढ़ता है उसका मन अधिक उन्नत होता जाता है । इस प्रकार उन्नति के सूक्ष्म स्तर पर यह अत्यधिक एकाग्र मन तेजी से उनकी ओर चलने लगता है, मन की इस अवस्था को ही  राधा भाव कहते हैं । यह भाव क्या है? जब साधक अपने हृदय की गहराई में यह समझने लगता है कि अपने प्रभु को पाए बिना उसका जीवन व्यर्थ है अर्थात् वे एक क्षण भी उनकी निकट उपस्थिति के बिना नहीं रह सकते तब कहा जाता है कि उस भक्त ने ‘‘राधा‘‘ भाव को पा लिया। इस प्रकार के भक्त अपना पूरा मन परमपुरुष में ही गहराई से मिला लेते हैं,  उनके इस कार्य को ही ‘‘आराधना‘‘ कहते हैं।

इन्दु- तो बृन्दावन की राधा कोई अन्य थीं?
बाबा- राधा, बृन्दावन की कोई महिला नहीं थी, अभी बताए गए अनुसार बहुत ही उच्च स्तर पर पहुंचे भक्त ही राधा कहलाते हैं चाहे वे पुरुष हों या महिला। इसी प्रकार कृष्ण भी बृन्दावनवासी कोई पुरुष नहीं थे इसे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए।

चन्दू- तो गोपियाॅं क्या थीं? क्या गोपी भाव भी पृथक भाव है?
बाबा- हाॅं, गोपी भाव भी दो स्तर का होता है , जब भक्त अभी भी प्रयासरत होता है कि वह गोपी भाव में स्थापित हो जाए तो वह निचला स्तर और जब भक्त बिना किसी प्रयास के अर्थात् स्वाभाविक ही, सदा ही गोपी भाव में स्थापित रहता है उसे उच्च गोपी भाव कहते हैं। इस उच्च स्तर के गोपी भाव को ही राधा भाव कहते हैं। इस प्रकार का भाव प्राप्त भक्त परमपुरुष को बिना शर्त प्रेम करता है, वह सोचता है कि परमपुरुष उसे प्रेम करें या नहीं वह तो उनसे ही प्रेम करता रहेगा, यह भक्ति की पराकाष्ठा कहलाती है। बृज की गोपियाॅं इसी भाव में रहती थीं इसीलिए इसे गोपी भाव कहा जाता है। 

Tuesday 15 August 2017

144 गूंगे का गुड़

144 गूंगे का  गुड़

‘‘ सर ! इस पाठ में लिखा है कि सिद्धार्थ , दुखों का समाधान खोजने के लिए अपना सब कुछ छोड़कर वन को चले गए ?‘‘
‘‘ हाॅं , सही लिखा है ।‘‘
‘‘ लेकिन सर ! राजकुमार सिद्धार्थ ने राजसी शान शौकत, पत्नी, बच्चे  और परिवार को छोड़ कर उचित नहीं किया।‘‘
‘‘क्यों ?‘‘
‘‘ इसलिए कि उनके पिता राजा थे वे अनेक स्थानों के प्रसिद्ध विद्वानों को बुलाकर अपने पुत्र को वाॅंछित ज्ञान उपलब्ध करा सकते थे।‘‘
‘‘ यह सब किया ही गया था, पर वे संतुष्ठ नहीं हुए। राजसी सुख सुविधाओं में रहकर जन सामान्य के शारीरिक और मानसिक कष्टों को वह कैसे समझ पाते ?‘‘
‘‘ परन्तु परिवार छोड़ कर चले जाने में कौन सी बहादुरी थी ? पर्यटन करके भी तो वह इसका अनुभव कर ज्ञान पा सकते थे ?‘‘
‘‘ राजसी सुख सुविधाएं छोड़, हाथ में भिक्षा पात्र लेकर घूमना क्या इतना सरल है ? कभी यह प्रयोग अपने ऊपर करके देखना, कैसा लगता है।‘‘
‘‘ परन्तु जिसे ढूढ़ने के लिए उन्होंने सब कुछ छोड़ा उसके सम्बन्ध में तो उनहोंने  कुछ कहा ही नहीं कि वह है या नहीं या कैसा है ?‘‘
‘‘ सही है। उस परमसत्ता को अपने हृदय के भीतर अनुभव कर लेने के बाद शब्दों में कह पाना बुद्ध तो क्या ! किसी के भी वश में नहीं है, समझे ?‘‘

Sunday 13 August 2017

143 बाबा की क्लास (प्रत्याहार और समर्पण )

143 बाबा की क्लास   (प्रत्याहार और समर्पण )

रवि- मन में आने वाले विचार कभी रुकते नहीं हैं, ये परमपुरुष के चिन्तन के समय भी दूर नहीं हटते, इससे क्या ध्यानक्रिया खंडित नहीं होती?
बाबा- मन में आने वाले विचारों और उन पर लिए गए निर्णयों के प्रवाह में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने की आवश्यकता होती है। लगातार अभ्यास के द्वारा निम्न वृत्तियों से मन को हटाकर अपने को उस परमसत्ता में जोड़ने का कार्य ‘‘प्रत्याहार‘‘ कहलाता है। इसे ही वर्णार्घ्य दान  , गुरुपूजा या रंगों का अर्घ्य  देना कहते हैं। इस प्रकार बाहरी रंगों के आकर्षण से मुक्त हुआ मन परमपुरुष के भव्य रंग से रंगकर उनसे ही जुड़ जाता है।

इन्दु- विचारों और रंगों का क्या साम्य है?
बाबा- विचार अर्थात् मानसिक तरंग, और रंग अर्थात् तरंग लम्बाई  । इसलिए ये परस्पर संबंधित हैं। सभी मनुष्यों का स्वभाव है कि वे किसी न किसी रंग, या गतिविधियों की ओर आकर्षित रहते हैं अतः ज्योंही वे उस रंग या गतिविधि का चिन्तन करते हैं उनका मन उन्हीं के रंग से रंग जाता है । इसलिए योग में अपने मन को परमपुरुष के रंग में रंगकर अर्थात् गहन चिन्तन करते हुए उसमें पहले के आकर्षणों से भरा रंग परमपुरुष को भेंट करना होता हैं यही सच्चा प्रत्याहार योग कहलाता है।

राजू- क्या मन में भरे विचारों अर्थात् रंगों को होली के रंगों के समान कहा जा सकता है?
बाबा- रंगों के त्यौहार अर्थात् बसन्तोत्सव का मूल उद्देश्य बाहरी रंगों से एक दूसरे को रंगना नहीं है वरन् उसका अर्थ है विभिन्न वस्तुओं और गतिविधियों के आकर्षण से रंगे हुए मन के सभी रंगों को परमपुरुष को भेंट कर देना। इस प्रकार प्रतिदिन यह करते हुए मन स्वच्छ और प्राकृतिक होकर उन परमपुरुष में ही मिल जाता है अर्थात् उनकी तरंग लम्बाई  के समानान्तर हो जाता है। इस अवस्था में मन को किसी रंग की आवश्यकता नहीं रह जाती वह अवर्ण अर्थात  रंगहीन हो जाता है और भौतिक जगत के  किसी भी रंग की पहुंच से परे हो जाता है।

चन्दु- तो क्या व्यक्तिगत मन का अस्तित्व नहीं रहता, वह समाप्त हो जाता है?
बाबा- व्यक्ति के मन का इकाई अहंकार परमसत्ता के अहंकार में बदल जाता है। इकाई मन हरओर उन्हीं की सत्ता और भव्यता का अनुभव करने लगता है और ‘‘ मैं ‘‘ के स्थान पर ‘‘तू‘‘ ही हो जाता है । मैं और तुम के बीच स्थायी संधी हो जाने से बीच में पड़ा दीर्घकालीन पर्दा भी हट जाता है। इस अवस्था में उस परमसत्ता को ‘‘मैं‘‘, ‘‘तू‘‘ या ‘‘वह‘‘  कुछ भी कहा जा सकता है यह मन के समर्पण के स्तर और अनुपात पर निर्भर करता है।

नन्दू- लेकिन अन्य विद्वान तो फलफूल, मिष्ठान्न या धन आदि को भेंट करने को ही समर्पण कहते हैं?
बाबा- यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि परमपुरुष को अपनी एकात्मता (अर्थात् तादात्म्य) को समर्पित करना होता है न कि धन, चावल, केले, या अन्य भौतिक पदार्थ। भौतिक वस्तुओं का देना और लेना तो धंधा कहलाता है। यदि ब्रह्म का रसास्वादन करना चाहते हो तो बिना शर्त अपने आप को उन्हें भेंट करना होगा। अर्थात् उस ब्रहद् ‘‘मैं‘‘ को पाने के लिए अपना छोटा ‘मैं‘‘ उन्हें भेट करना होगा। मन को शतप्रतिशत समर्पण करना होगा उसमें से एक भी प्रतिशत बचाकर अपने पास रखने से काम नहीं नहीं चलेगा।

रवि- क्या यह डाकुओं या चोरों द्वारा पुलिस के समक्ष किए जाने वाले आत्म समर्पण जैसा ही है?
बाबा- नहीं। अपने मन की एकाग्रता और सामर्थ्य  से उस अनन्त सत्ता को पाने के लिए आत्मसमर्पण करने का अर्थ यह नहीं है और न ही यह आत्महत्या है वरन् अपनी आत्मा को पूर्णरूपेण अभिव्यक्त करना है। महाभारत में जब दुर्योधन, द्रौपदी की साड़ी को खींच रहा था तब द्रौपदी अपने एक हाथ से उसे जोर से पकड़े हुए थीं और दूसरे हाथ से कृष्ण को बचाने के लिए पुकार रही थीं। परन्तु कृष्ण उनकी लाज बचाने नहीं आए । जब द्रौपदी को लगा कि अब अपने को बचाने का कोई उपाय बचा ही नहीं है तब उन्होंने दूसरा हाथ जिससे साड़ी को जोर से पकड़ रखा था वह भी छोड़ दिया और दोनों  हाथ ऊपर उठाकर जोर से चिल्लायी ‘‘ हे कृष्ण ! मैं अपना सर्वस्व तुम्हें सौंपती हूँ , जो तुम्हारी इच्छा हो वही करो‘‘ और,  कृष्ण ने फिर देर नहीं की, तत्काल पहुंचकर बचा लिया। इसलिए बिना शर्त उनके पैरों में अपना सम्पूर्ण समर्पण करने से ही परमसुख मिलता है। इसलिए रंगों का उत्सव, रंगों के चूर्ण को एक दूसरे पर उछालना नहीं है वरन् अपने मन के आकर्षण और बाधक तत्वों को मनोआत्मिक पद्धति से परमपुरुष को समर्पित करना है।

Sunday 6 August 2017

142 बाबा की क्लास ( माइक्रोवाइटम या अणुजीवत् -5, माइक्रोवाइटा और अदेह आत्माएं )

142 बाबा की क्लास ( माइक्रोवाइटम या अणुजीवत् -5, माइक्रोवाइटा और अदेह आत्माएं )

नन्दू- क्या माइक्रोाइटा किसी व्यक्ति के मरने के बाद अदेह आत्मा के संस्कारों को भी प्रभावित करते हैं?
बाबा- उन्नत बौद्धिक स्तर प्राप्त व्यक्ति मरने के बाद देवयोनि में  और अन्य दुर्गुणी लोग प्रेतयोनि में अदेह भटकते हैं जब तक कि उन्हें अन्य शरीर नहीं मिल जाता ।

नन्दू- पर,  माइक्रोवाइटा उन्हें किस प्रकार प्रभावित कर सकते हैं?
बाबा- प्रेतयोनि में भटकने वालों को ऋणात्मक माइक्रोवाइटा इस प्रकार प्रभावित करते हैंः-
(1) वे लोग, जो दूसरों को विभिन्न कारणों से मानसिक क्लेश  देते हुए मरते हैं वे दुर्मुख प्रेतयोनि में अशरीर रहते हैं और लंबे समय तक परिणाम भोगने के बाद पुनः मानव शरीर में जन्म लेते हैं।
(2) वे जो अपमान के कारण, मानसिक विकृति से या कुंठा से, या अत्यधिक लगाववश  ,क्रोध , लोभ , अहंकार , जलन आदि के कारण आत्महत्या कर लेते हैं वे कबंध प्रेतयोनि में रहते हैं और मानसिक रूप से असंतुलित लोगों को आत्महत्या के लिये प्रेरित  करते रहते है।
(3) मानसिक रूपसे बेचैन रहनेवाले वह व्यक्ति जो अस्थिर प्रकृति के होते हैं हर समय अपने विचार बदलते रहते हैं। वे स्वयं परेशान रहते हैं और दूसरों को भी परेशान करते हैं। मरने के बाद वे अदेह मध्यकपाल प्रेतयोनि में भटकते हैं।
(4) जो अपने स्वार्थ के लिये दूसरों को नुकसान पहुंचाते हैं और अविद्या का सहारा लेकर पाप कर्म करते हैं और मारक हथियारों को बहुतायत से निर्माण करने का कार्य करते हैं और निर्दयता से लाखों लोगों की हत्या करते हैं वे महाकपाल प्रेतयोनि में भटकते हैं।
(5) वे बुद्धिवादी जो दूसरों में हीनता का भाव जगाते हैं और अपनी बौद्धिक क्षमता का उपयोग रचनात्मक काम में नहीं करते बल्कि दूसरों का दमन करने में लगाते हैं ब्रह्मदैत्य या ब्रह्मपिशाच  प्रेतयोनि में भटकते हैं।
(6) योग्यता के न होने पर भी अपनी महत्वाकाॅंक्षा की पूर्ति करने के लिये जो हमेशा  विध्वंसक काम में संलग्न रहते हैं और जघन्य अपराध करने से भी नहीं हिचकते वे आकाशी प्रेत बनकर भटकते हैं और लंबे समय तक फल भोगने के बाद फिर जन्म ले पाते हैं।
(7) जो सब चीजों को अपने खाने और अपने सुख पाने की इच्छा से उपभोग करते हैं चाहे वह इस योग्य हो या नहीं, ये लोग मरने के बाद पिशाच प्रेतयोनि में रहते हैं।

रवि- आपने बताया था कि  ऋणात्मक माइक्रोवाइटा बीमारियाॅं फैलाते हैं?
बाबा- गन्ध  के द्वारा अनेक बीमारियाॅं फैलती हैं, जैसे त्वचारोग और फोड़े फुन्सियाॅं ,गले में लेरिंगाइटिस की बीमारी आदि,  (लेरिंगाइटिस में गले में अल्सर हो जाता है और आवाज कर्कश  हो जाती है। वे जो लगातार लंबे समय तक गाते हैं या व्याख्यान देते हैं उनके गले में यह बीमारी हो जाती है जो ऋणात्मक माइक्रोवाइटा से होती है। इस बीमारी से बचने या दूर करने के उपाय हैं, सर्वांगासन और मत्स्यमुद्रा नियमित रूपसे करना तथा लोंग और पान के पत्ते को एकसाथ उबाल कर उसका गर्म पानी नाक से पीते हुए गले के कौआ के पास हाथ की मध्यमा अंगुली से सफाई करना चाहिये और फिर गले में भरे पानी को मुंह से बाहर कर देना चाहिये।) मनुष्य का मन गंध और रूप तन्मात्राओं से अधिक प्रभावित होता है और ऋणात्मक माइक्रोवाइटा इन तन्मात्राओं से फैलते हैं पर यह उन लोगों को प्रभावित नहीं कर पाते जो साधना में रहते हुए अपने मन को उच्च स्तर पर बनाये रखते हैं। यदि कोई लंबे समय तक साधना में अपने मन को उच्च चक्र पर केन्द्रित रखे रहा हो और यदि तत्काल गंध तन्मात्रा द्वारा ऋणात्मक माइक्रोवाइटा आक्रमण करे तो वह कुछ नहीं बिगाड़ सकता पर यदि व्यक्ति का मन क्रूड विचारों में चला जाये तो फिर वह इसके आक्रमण से नहीं बच सकता। यह कार्य गंधपिशाच नामक ऋणात्मक माइक्रोवाइटा का है।

राजू- क्या प्रेतयोनियाॅं और भूतों में कोई समानता है?
बाबा- तथाकथित भूत और कुछ नहीं वे गंधपिशाच माइक्रोवाइटा ही हैं जो डोगमा से पोषित बुद्धि को प्रभावित कर सोचने वाले के विचारों के अनुसार दिखाई देने लगते हैं। सभी प्रकार के ऋणात्मक माइक्रोवाइटा में से जो इन्द्रियों के द्वारा फैलते हैं सबसे खतरनाक होते हैं।

इन्दु- और, देव योनि में भटकने वालों का क्या होता है?
बाबा- इस योनि में भटकने वाले धनात्मक माइक्रोवाइटा के प्रभाव में रहते हैं । महापुरु्रषों के पवित्र और उन्नत विचार आकाशीय तरंगों में मिलकर धनात्मक माइक्रोवाइटा के सहयोग से पूरे विश्व  में फैल जाते हैं। धनात्मक माइक्रोवाइटा दूध को दही में बदलते हैं और मानवता की सेवा करते हैं। मानव विचारों और भावनाओं को ये माइक्रोवाइटा संश्लेषण  कर अंतिम रूप से उत्तम बुद्धि में परिवर्तित कर देते हैं। देवयोनियाॅं धनात्मक माइक्रोवाइटा के द्वारा नियंत्रित होती हैं। जैसे,
(1) वे जो कभी अच्छे साधक रहे और अच्छे काम के लिये धन एकत्रित करते हुए परमपुरुष को पाने का अपना लक्ष्य भूलकर धन एकत्रित करने में ही लगे रहे , ऐसे लोग मरने के बाद यक्ष देवयोनी में  रहते हैं और  स्त्रीलिंग में यक्षिणी कहलाते हैं। अदेह अवस्था में इन्हें गंधयक्षिणी कहते हैं। इनसे अनेक प्रकार की विशेष  सुगंध निकलती है। ये न तो धनात्मक माइक्रोवाइटा और न ही ऋणात्मक माइक्रोवाइटा होते हैं वरन् दोनों के बीच होते हैं इन्हें माध्यमिक माइक्रोवाइटा कह सकते हैं। ये शरीर की अपेक्षा मन पर अधिक प्रभाव डालते हैं और जब तक धार्मिक स्तर पर मन रहता है ये प्रभावित नहीं करते पर ज्योंही निम्न विचारों में मन जाने लगता है ये सक्रिय हो जाते हैं, ये मन को हटाते नहीं हैं पर धर्म को प्रभावी कार्य के रूप में स्वीकार नहीं करने देते। ये मन में विचार पैदा करते हैं कि अरे! जहाॅं हो वैसे ही साधना करो और अन्य कामों से भी संतुलन बनाये रखो जो कि एक प्रकार का स्वार्थी संतुलन है। ये शरीर  पर धनात्मक और ऋणात्मक दोनों प्रकार का प्रभाव डालते हैं पर विनाशकारी नहीं। गंधयक्षिणी माइक्रोवाइटा का कार्य इस प्रकार समझा जा सकता है, मानलो आपको कहीं जाने के लिये ट्रेन पकड़ना है और आप समय पर तैयार भी हो गये पर अचानक पेट में दर्द हुआ और आराम करने लगे इतने में ट्रेन छूट गयी । बाद में आप को पता चला कि एक घंटे बाद ही उसी ट्रेन का भयंकर एक्सीडेंट हो गया। भले ही आप को दर्द हुआ और समय पर अपने गन्तव्य तक नहीं पहुंचने से भी नुकसान हुआ पर जान तो बच गई। या अन्य इस प्रकार भी घटित हो सकता है कि आप कहीं  काम से ट्रेन से जा रहे हैं और सोच रहे हैं कि ट्रेन समय पर न पहुचने से सब काम बिगड़ जायेगा क्यों कि अगले स्टेशन  पर जो ट्रेन पकड़ना है निकल जायेगी नहीं मिल पायेगी , पर ज्योंही वहाॅं पहुंचते हैं तो पता चलता है कि जिस ट्रेन को पकडना था वह अभी आधा घंटा लेट है अतः मिल जायेगी। यह सब गंधयक्षिणी का काम है। यह कोई देवी नहीं वरन् माध्यमिक माइक्रोवाइटा हैं।

(2) गंध रुक्मिणी वह धनात्मक माइक्रोवाइटा हैं जो गंध तन्मात्रा के द्वारा चलते हैं और आध्यात्म की ओर तेजी से बढ़ने के इच्छुक लोगों को बल पूर्वक आध्यात्मिक साधना की ओर आकर्षित कर लेते हैं। ऐंसा व्यक्ति अपने दैनिक कार्य करते करते अचानक ही सब कुछ छोड़ कर सत्य की खोज में निकल पड़ता है। रुक्मिणी, कृष्ण की पत्नी सभी को आध्यात्म मार्ग की ओर ले जाने के लिये सक्रिय रहतीं थी और जो भी उनके संपर्क में आता था उसमें पूर्णतः रूपान्तरण हो जाता था और पहले से अधिक आध्यात्मिक हो जाता था। इसीलिये इस माइक्रोवाइटा का नाम गंधरुक्मिणी है। निमाईं पंडित को अपने ज्ञान और शास्त्रार्थ की शक्ति का अहंकार था अचानक अज्ञात शक्ति ने उन पर प्रभाव डाला और वे पूर्णतः बदल गये , सब कुछ त्याग कर सत्य की खोज में निकल पड़े। यह काम गंधरुक्मिणी का था।
(3) देवयोनि का अर्थ है वह सत्ता जिसमें अनेक दिव्य गुण हों। अनेक प्रकार की देवयानियों में से सात प्रकार प्रमुख हैं। किन्नर, विद्याधर, यक्ष, प्रकृतिलीन, विदेहलीन सिद्ध और गंधर्व। वे जिनका लगाव सुंदरता और आभूषण, धन आदि के प्रति होता है वे मृत्यु के बाद किन्नर होते हैं । ये भगवान के भक्त होते हैं पर भगवान के बदले उन्होंने सुन्दरता और आभूषणों की चाह की होती है और सोचते हैं कि सब उनकी सुंदरता की तारीफ करें। अतः वे मरने के बाद किन्नर माइक्रोवाइटा हो जाते हैं वे लोगों को सुन्दर  होने का मनोविज्ञान सिखाकर सौंदर्यपरक बनाने में सहायक होते हैं।
(4) आध्यात्मिक रूपसे वे उन्नत व्यक्ति जो परमपुरुष को अनुभव करने की अपेक्षा ज्ञान को अधिक महत्व देते हैं मरने के बाद विद्याधर माइक्रोवाइटा होते हैं । किन्नर से वे कुछ उन्नत होते हैं और संस्कार क्षय होते ही फिर से जन्म लेते हैं। ये किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते और उन्हें मदद करते हैं जो बौद्धिक स्तर पर अपने को आगे लेजाना चाहते हैं। ये शरीर से सुन्दर  भले न हों पर मानसिक रूप से सुंदर प्रकृति के होने से सबको आकर्षित करते हैं। पर वे परमपुरुष को नहीं पाते।
(5) वे जो आध्यात्म साधना करते करते अच्छे कार्यों के लिये धन संग्रह करने लगते हैं और फिर आध्यात्मिक उन्नति और परमपुरुष को भूल कर उसी में रम जाते हैं उनका आराध्य धन संपदा ही हो जाता है ऐंसे लोग मरने के बाद यक्ष माइक्रोवाइटा होते हैं, ये किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते पर वे परमपुरुष को नहीं पाते और संस्कारों के क्षय होते ही फिर से जन्म पा जाते हैं।
(6) वे जो भ्रमित होकर परमपुरुष को भूल जाते हैं और जड़ पदार्थों की पूजा में लगे रहते हैं मरने के बाद प्रकृतिलीन होकर उनके मन पत्थर लकड़ी आदि हो जाते हैं। यह दशा  बहुत ही दयनीय होती है पर संचित संस्कारों के क्षय हो जाने पर फिर से मानव देह पाते हैं पर चूंकि वे परमपुरुष को पाने की चाह रखते हैं वे देवयोनि में माने गये हैं। जहाॅं देवयोनि प्राप्त लोग पत्थरों या लकड़ी के रूपमें होते हैं वे लगातार अपने मुक्त होने के लिये चिंतित रहते हैं अतः जब कोई आध्यात्मिक साधक ऐंसे स्थानों पर साधना करता है तो जल्दी ही उनका ध्यान केन्द्रित हो जाता है क्योंकि धनात्मक माइक्रोवाइटा सहायता करने लगते हैं। यदि देवयोनी की मदद से ध्यान केन्द्रित हुआ है तो वे नाक से हल्की मीठी सुगंध का अनुभव करते हैं और यदि वे गुरु की कृपा से ध्यान केन्द्रित कर लेते हैं तो मधुर हल्की सुगंध के साथ वे चमकीले प्रकाश  की तरंगों के खंड भी देख पाते हैं। चाहे आखें खुली हों या बंद, दोनों  ही स्थितियों में गुरु की कृपा का ही महत्व है। आध्यात्मिक साधक पर जब गुरु की सीधी कृपा होती है तो वह हल्की सुगंध सूंघकर और चमकीली तरंगों के खंड देखकर मादक उल्लास से सब भिन्नताओं को भूलकर परम चेतना के सागर में आनन्दित होनें लगता है। तब वह अनुभव करता है कि गुरु कृपा के अलावा कुछ नहीं है।
(7) वे जो आध्यात्मिक साधक तो होते हें और साधना जारी रखते हैं पर घरेलु परेशानियों और अन्य घटनाओं , जैसे बच्चे अच्छे न निकलना , फेल होना , धन समाप्त होना, बार बार धोखा होना आदि से दुखी होकर मानते हैं कि उनकी तरह दुर्भाग्य किसी का नहीं है और मर जाना चाहते हैं और इसी सोच में मर जाते हैं वे विदेहलीन होकर भटकते हैं जो बड़ी ही कष्टदायी अवस्था है। ये धनात्मक माइक्रोवाइटा होते हैं और लोगों की मदद करते हैं संस्कारों  के क्षय हो जाने पर फिर मानव तन पाते हैं।
(8) वे जो तल्लीनता से साधना करते हैं और कुछ दिव्य शक्तियाॅं पा जाते हैं तो वे और अधिक शक्तियों के पाने के चक्कर में परमपुरुष को पाने से ध्यान हटा कर सिद्धियों पर ही ध्यान लगाये रहते हैं ये मरने के बाद सिद्ध माइक्रोवाइटा हो जाते हैं। देवयोनियों में इनका सबसे ऊंचा स्थान है। आध्यात्मिक साधकों को यह अनेक प्रकार से मदद करते हैं। उनकी मुख्य भूमिका अभिभावक की तरह होती है। अनेक महापुरुषों के बारे में सुना जाता है कि उनके कोई गुरु नहीं थे यर्थाथतः, वे सिद्धों के द्वारा दीक्षित थे। साधकों को आवश्यकता  होने पर सिद्ध उचित मार्गदर्शन  देते हैं।
(9) वे साधक जो संगीत के क्षेत्र में अद्वितीय होने की कामना करते हुए शरीर त्याग करते हैं वे गंधर्व देवयोनी में जाते हैं जो कि विशेष  प्रकार के धनात्मक माइक्रोवाइटा हैं।