Tuesday 27 December 2016

98 खाद्यान्न

98 खाद्यान्न
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प्रीत्यान्न- जब कोई व्यक्ति विशुद्ध आत्मीयता से भोजन कराता है तो भले ही वे सामान्य अन्न के दाने या सब्जियाॅं हों उन्हें प्रसन्नता से ग्रहण करना चाहिये, यह प्रीत्यान्न कहलाता है।

आपदान्न- जब जीवन पर इतना संकट आ जाये कि भोजन और पानी के बिना वह जीवित नहीं रह पायेगा तो वर्जित भोजन या अयोग्य व्यक्ति के द्वारा दिया गया भोजन भी स्वीकार्य है इसे आपदान्न कहते हैं।

श्राद्धान्न- किसी की याद में भेंट किया गया भोजन न तो प्रीत्यान्न है और न ही आपदान्न, इसलिये वह ग्राह्य नहीं है।

गर्दभान्न- जो लोग केवल अपनी सम्पन्नता को दिखाने के लिये ही भोज का आयोजन करते हैं वह अग्राह्य है। इसे गर्दभान्न कहते हैं।

Monday 26 December 2016

97 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 9)

97 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 9)

रवि- ब्रह्माॅंड में फैले पदार्थ और वनस्पति या जीवजन्तुओं सहित मनुष्यों के बीच कुछ अन्तर है या नहीं ?
बाबा-   पदार्थ और चेतना में थोड़ा सा ही अंतर है, पदार्थों की संरचना के समय पड़ने वाले परस्पर दबाव और संघर्ष के परिणाम स्वरूप अर्थात् परमसत्ता की संचरक्रिया के समय, चित्त अथवा जड़ात्मक मन की उत्पत्ति होती है। यही जड़ात्मक मन, इकाई संरचना को प्रतिसंचर क्रिया के माध्यम से बहुकोशीय संरचनाओं तक ले जाकर ब्रह्मचक्र पूरा करता है। बहुकोशीय संरचना वाले मनुष्य का मन सूक्ष्म चिंतन कर सकने और उस परमसत्ता के आकर्षण से उच्चतर स्थितियों की ओर जाता है। लाखों वर्ष पहले मनुष्य ने धरती पर जन्म लिया और तब से अब तक बहुत परिवर्तन उसकी संरचना में होते गये और आगे भी होते जायेंगे। प्रकृति  का यह अटल नियम है कि जो आया है उसे जाना ही पड़ेगा।

राजू- तो वह परमसत्ता मनुष्यों पर किस प्रकार नियंत्रण कर पाती है?
बाबा- मनुष्य की संरचना में पचास छोटेबड़े ग्लेंड्स या ऊर्जा केन्द्र हैं जो भीतर बाहर और दसों दिशाओं में सक्रिय रहते हैं, इस प्रकार सब मिलाकर एक हजार वृत्तियों  को नियंत्रित करने के लिये पीनियल ग्लेंड या सहस्रार चक्र सक्रिय रहता है। हर ग्लेंड अपने से नीचे के ग्लेंड पर नियंत्रण करता है। मनुष्य की भाभुकता का नियंत्रण इकाई चेतना करती है और इन सभी इकाई चेतनाओं पर, परमचेतना इस सहस्रार चक्र से नियंत्रण रखती है।

इन्दु- और सम्पूर्ण ब्रह्मांड पर नियंत्रण किस प्रकार होता है?
बाबा- परमपुरुष समस्त ब्रह्माॅंड पर नियंत्रण करते हैं। सबके अपने अपने नियंत्रणकर्ता और आश्रय हैं। कोई भी निराश्रय नहीं  है क्योंकि आश्रयहीनता का अर्थ है महामृत्यु। परंतु महामृत्यु नहीं होती रूपान्तरण होता रहता है। सभी जीव परम सत्ता के चारों ओर चक्कर लगाते हैं क्यों कि वे सब उनसे अकर्षित होते है। प्रकृति में भी अन्य पिंड अपने अपने नियंत्रक तारों से आकर्षक होकर  उनके चारों ओर चक्कर लगाते हैं। इस प्रकार सभी कार्बनिक और अकार्बनिक  पदार्थ और जीव, जानते हुए या अनजाने में  परम पुरुष के ही चक्कर लगाते हैं। जो सचेत हैं वे अपने प्रयत्नों  से अपने केन्द्र की ओर जाने की गति बढ़ाने का प्रयास करते हैं और अंत में अपने उद्गम परमपुरुष तक पहुॅंच जाते हैं, जो नहीं करते वे नकारात्मक प्रतिसंचर में जाकर केन्द्र से दूरी बढ़ाते जाते हैं और भटकते रहते हैं।

नन्दू- परन्तु हम तो कृष्ण को दर्शनों के परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास कर रहे थे, वह भी अद्वैतवाद के विशेष प्रकारों के आधार पर?
बाबा- हाॅं, अभी जो चर्चा की गई है उसका सम्बन्ध भी किसी न किसी प्रकार से मूल विषय से आगे जुड़ ही जायेगा फिर भी विशुद्ध  अद्वैतवाद और विशिष्ठाद्वैतवाद में अंतर यह है कि विशिष्ठाद्वैतवाद परिपक्व है इसने संसार को माया कहकर दूर नहीं फेका है। विशिष्ठाद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्माॅंड के नियंत्रक के रूप में परम सत्ता को स्वीकार किया गया है परंतु इसके अंतर्गत महाविष्णुवाद जोड़ा गया है जो कहता है कि ब्रह्माॅंड के केन्द्र में परमपुरुष हैं जो हर प्रकार से पूर्ण, मधुर और साहसी हैं। वे कभी कभी शत्रुओं को मारने के लिये शस्त्र भी उठा लेते हैं, पर वे कोमल हृदय भी है अतः उन्हें नष्ट नहीं करते वरन् उन्हें अपने में सुघार करने का अवसर भी देते हैं। उनसे अग्नि की सैकड़ों चिंगारियां निकलती रहती हैं, सभी जीवधारी यही चिंगारियाॅं ही हैं, उन्हीं की प्रेरणा  से सब जीव कार्य करते हैं। इन चिंगारियों को उन तक वापस लौटना आवश्यक  नहीं है, पर कुछ लौट भी सकते हैं। परंतु बृजकृष्ण तो सभी को अपनी ओर बुलाते हैं वे कहते हैं कि आओ मेरे और निकट आओ मैं तुम्हारा हूँ  और तुम हमारे। तुम्हारा भविष्य उज्जवल है। अतः बृजकृष्ण, महाविष्णुवाद के विपरीत हैं। इसलिए विशिष्ठाद्वैतवाद भी बृज कृष्ण के साथ संबंधित नहीं किया जा सकता क्योंकि जो भी उनके निकट आता है वह उन्हीं में मिल जाता है, उसका व्यक्तिगत अस्तित्व उन्हीं की आभा में मिलकर एक हो जाता है भले वह आज न हो सौ वर्ष बाद हो पर होगा अवश्य । पर विशिष्ठाद्वैतवाद के अनुसार जीवों का वापस आना अनिवार्य नहीं है।

चन्दू- तो पार्थसारथी का विशिष्ठाद्वैतवाद के साथ सम्बन्ध जोड़ा जला सकता है या नहीं?
बाबा- अच्छा, अब पार्थसारथी को इस परिप्रेक्ष्य  में देखें। सामान्यतः लोगों में नया और अद् -भुद  करने का पर्याप्त साहस नहीं होता परंतु यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार के सर्वजनहिताय कार्य को करने का साहस करता है तो अन्य सद्गुणी व्यक्ति भी उसे सहायता करने लगते हैं। पार्थसारथी के पास यह आदर्श  गुण था कि वे समाज के हित में जो भी उत्तम होता उसे अवश्य  ही करते थे। लोगों की भावनाओं और आशाओं , अपेक्षाओं को पूरा करने का सद्गुण उनमें था। सद् गुणी  लोगों की अपेक्षायें भी पवित्र होती हैं, इन्हें पूरा करने का कार्य कौन कर सकता है? परमपुरुष। पार्थसारथी इन पवित्र लोगों के मन ही चुरा लेते थे और वे आज भी यह करते हैं। महाविष्णुवाद के अनुसार उनसे चिनगारियाॅं निकलने के बाद अपने श्रोत में कभी नहीं लौट पाती, पर पार्थसारथी की शिक्षा अच्छे बुरे सभी प्रकार के मनुष्यों को आध्यात्मिक प्रगति को ओर ले जाकर उनके मूल श्रोत तक पहुंचाने के लिये है। वे कहते हैं कि चाहे कोई कितना ही दुराचारी क्यों न हो, यदि वह अनन्य भाव से मेरी ओर आता है तो मैं उसे पाप से मुक्त करता हॅूं, धर्म की संस्थापना और दुष्टों का विनाश  करने और साधुओं की रक्षा करने के लिये बार बार आता हॅूं। अर्थात् वे विनाश  की बात तो करते हैं परंतु प्रणाश  की नहीं जबकि महाविष्णुवाद प्रणाश  का समर्थन करता है। विनाश  का अर्थ है कि संबंधित को उचित परिस्थितियाॅं देकर आगे बढ़ने का अवसर देना जबकि प्रणाश  का अर्थ है सम्पूर्णतः नष्ट करना। जब एक युग समाप्त हो रहा होता है और दूसरे का प्रारंभ होने को होता है तो बीच के समय अर्थात् संधिकाल में लोग अनिर्णय की स्थिति में होते हैं, वे नहीं समझ पाते कि क्या सही है और क्या गलत क्योंकि एक प्रकार के मूल्य समाप्त हो रहे होते हें और दूसरे प्रकार के स्थापित हो रहे होते हैं। इस अवस्था में पार्थसारथी जैसे बहादुर और कुशाग्र बुद्धि के व्यक्तित्व की समाज को आवश्यकता  होती है जो उसे उचित दिशा  दे सके। पार्थसारथी अपने भक्तों को अपनी ओर आकर्षित कर उनकी आशाओं के अनुरुप संरक्षण देते हैं और समाज को दूषित करने वाले दुष्टों को दंड देते हैं ताकि वे सही रास्ते पर आ सके, उनका भी वे प्रणाश  नहीं करते। इस तरह विशिष्ठाद्वैतवाद और पार्थसारथी कृष्ण में कोई संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता।

Monday 19 December 2016

96 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 8)

96 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 8)

नन्दू- परन्तु इसके बाद आए अनेक दर्शनों में कृष्ण का स्थान कहाॅं पर आता है?
बाबा- यद्यपि प्रचलित दार्शनिक सिद्धान्त कृष्ण के बहुत बाद में अस्तित्व में आये परंतु उनकी दोनों भूमिकाओं की परख इन दर्शनों  के आधार पर करने के लिये क्रमानुसार विश्लेषण  करना उचित होगा। जैसे, विशुद्ध अद्वेतवाद या मायावाद को प्रारंभ में उत्तरमीमाॅंसा के नाम से जाना जाता था जो वादरायण व्यास के द्वारा प्रतिपादित हुआ और बाद में शंकराचार्य ने विस्तारित किया। इसके अनुसार ‘‘ब्रह्म सत्य है , जगत मिथ्या और जीव भी ब्रह्म से भिन्न नहीं है।‘‘ इसके विश्लेषण  और व्याख्या करने वाले तार्किक कहते हैं कि यह किसी भी प्रकार अद्वैत नहीं वरन् द्वैत है क्योंकि यदि अद्वैत का कोई प्रमाण है तो वह क्या है? और यदि नहीं है तो फिर अद्वैत क्या है? यदि वह माया है तो भी वह ब्रह्म से भिन्न होकर दूसरा कुछ हुआ अतः फिर भी अद्वैत कहाॅ? फिर कहते हैं कि माया के कारण पदार्थों में भेद होने से अनेकता दिखाई देती है। इस प्रकार अपने आप में उलझा यह दर्शन  साॅंख्य और न्याय दर्शन  के अनुसार जीव और परमपुरुष की पृथकता को स्वीकार करेगा अर्थात् ब्रह्म और जीव में कोई आकर्षण नहीं होगा, जो कि सामान्य वैज्ञानिक सिद्धान्त के विपरीत होगा।

राजू- तो क्या इस सिद्धान्त के आधार पर बृजकृष्ण की भूमिका को नहीं समझाया जा सकता ?
बाबा- ठीक है, बृजकृष्ण की भूमिका को लेते हैं। बृजकृष्ण तो अद्वैत के ब्रह्म और संसार के जीव भी नहीं  हैं, वह तो इन दोनों से ऊपर स्वयं पुरुषोत्तम है, वे जाने अनजाने सबको अपनी ओर आकर्षित करते हैं, लोग उनके बिना रह नहीं सकते। ब्रह्माॅंड में भी सभी एक दूसरे को आकर्षित किये हुए हैं और यदि इस आकर्षण में थोड़ा सा भी परिवर्तन हो जावे तो समग्र ब्रह्माॅंड का संतुलन बिगड़ जावेगा। बृजकृष्ण का यह प्रदर्शन विशुद्ध  अद्वैतवाद के ब्रह्म और जीव की एकता के विपरीत है। परमपुरुष सभी जीवों को आकर्षित करते हैं और जीव उनमें ही आश्रय पाकर उनके चारों ओर चक्कर लगाते हैं, जैसे जैसे केन्द्रभिसारी बल के प्रभाव से जीव ब्रह्म के पास आते जाते हैं उनमें भक्ति जाग्रत हो जाती है और उनके बीच का अन्तर घटता जाता है। निकट आने पर जीव अनुभव करता है कि कृष्ण कोई व्यक्ति नहीं है वह तो भावस्वरूप हैं जो मनोआत्मिक समान्तरता से प्राप्त होते है । भक्ति का आवेग और बढ़ने पर अनुभव होता है कि कृष्ण तो जीवों के जीवन हैं और उनके बिना जीवों का कोई अस्तित्व नहीं ,वे हैं अतः अन्य सब हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि बृज कृष्ण के सामने इस दर्शन  का महत्व नहीं रह जाता है। अतः विशुद्ध  अद्वैतवाद जैसे दोषपूर्ण दर्शन  से उन्हें किस प्रकार समझा जा सकता है?

इन्दु- परन्तु मायावाद तो कुछ प्रकाश डाल सकता है कि नहीं?
बाबा- इसी के साथ मायावाद की भी चर्चा की जाती है। ध्यान देने की बात यह है कि जितने भी उदाहरण मायावदियों ने माया के समर्थन में दिये हैं वह सब इस जगत के ही हैं जबकि वे इस जगत को मिथ्या कहते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि साॅंसारिक वस्तुएॅं सदा एकसी नहीं रहती समय के साथ वे बदलती रहती हैं इसीलिये संसार को जगत कहते हैं अर्थात् जो गतिशील है रुका नहीं है। बृजकृष्ण के लिये सारा संसार मधुर है वे प्रत्येक अणु और परमाणु सहित सब जीवों को अपनी ओर बाॅंसुरी के स्वर से आकर्षित करते हैं । जबकि मायावादी, शब्दों के जादू से जगत को ही झूठा सिद्ध करते हैं। बृज कृष्ण के लिये कोई छोटा या बड़ा नहीं वे जो कृष्ण का मनन करते हैं तत्काल उनकी बाॅंसुरी सुनते है पर जो सांसारिकता में उलझे रहते हैं वे नहीं। यथार्थ यह है कि यह संसार भी सापेक्षिक सत्य है और माया भी परम पुरुष की ही माया है। ब्रह्म  के चारों ओर घूमते हुए सभी पर केन्द्राभिसारी अर्थात् केन्द्र की ओर और केन्द्रापसारी अर्थात् केन्द्र से बाहर की ओर बल लगते हैं। केन्द्र के बाहर की ओर जो बल लगता है उसे अविद्यामाया और भीतर की ओर जो बल लगता है उसे विद्यामाया कहते हैं। अविद्यामाया विक्षेप और आवरणी शक्ति से जीवों को परमपुरुष के केन्द्र से दूर ले जाती है और विद्यामाया सम्वित  और ह्लादनी शक्ति से परमपुरुष की ओर खींचती है। इस तरह वे पृथक नहीं वरन् संतुलन बनाये रखने के लिये आवश्यक  हैं। अतः परमपुरुष और उनकी माया अलग अलग नहीं हैं, जो परमपुरुष को चाहते हैं वे माया के प्रभाव में नहीं पड़ते। इस तरह हम देखते हैं कि विशुद्ध अद्वैतवाद , व्यावहारिक या आध्यात्मिक रूप से महत्वहीन हो जाता है अतः बृजकृष्ण के सामने नगण्य प्रतीत होता है।

चन्दू- तो पार्थसारथी की भमिका क्या मायावाद के अनुकूल हो सकती है?
बाबा- जहाॅंतक पार्थसारथी का प्रश्न  है वह तो अत्यंत सक्रिय और व्यावहारिक हैं जब कि मायावाद या विशुद्ध अद्वैतवाद तो इसके बिलकुल ही विपरीत है।  पार्थसारथी ने अपना अधिकतम समय और ऊर्जा का उपयोग भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र और मानसिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में सभी लोगों की उन्नति के लिये किया। शान्ति  और प्रगति के लिये उन्होंने विवेकी राजाओें और साधारण नागरिकों को एक ही प्लेटफार्म पर लाकर धर्मराज्य की स्थापना की। अतः मायावाद के अनुसार उनके व्यक्तित्व को हम कैसे नाप सकते हैं? वह तो वैसा ही होगा जैसे, इंचीटेप से दूध को नापना। पार्थसारथी कृष्ण सार्वभैमिक सत्ता, परमपुरुष थे। मानसिक संसार में भी हजारों भावनायें और अनुभूतियाॅं होती हैं वे इन्हीं परमपुरुष से ही प्रेरणा पाती हैं। एक अन्य संसार होता है वह है आध्यात्मिक संसार । किसी का आध्यात्मिक स्तर कितना ही क्यों न हो उसके हृदय में हीरे की तरह चमकती एक इकाई चेतना रहती है इसे भी परमपुरुष से ही प्रेरणा प्राप्त होती है। परंतु मायावाद कहता है पिता नहीं, माता नहीं, कैसे भाई, कैसे मित्र? अतः मायावाद के अनुसार पार्थसारथी को परखने का प्रयास करना ही व्यर्थ है क्योंकि जब इन सब का अस्तित्व ही नहीं है तो उनमें पारस्परिक भौतिक, मानसिक या आध्यात्मिक संबंधों  के होने अथवा वे कहाॅं से आये हैं इसका कोई महत्व ही नहीं है।

राजू- अर्थात् पार्थसारथी ने तात्कालिक किसी भी दर्शन को आधार नहीं बनाया?
बाबा-पार्थसारथी का उद्गम वैदिक युग की समाप्ति के बाद हुआ जब अवसरवादियों के द्वारा मानवता का शोषण किया जाना चरम सीमा पर था, उस समय यह मायावाद सिखाना सार्थक होता या कराहती मानवता के आॅंसू पोंछना? पार्थसारथी ने पलायनवाद नहीं सिखाया वरन् वह सब की भलाई के लिये सब को एकत्रित करके शोषण के बिरुद्ध संघर्ष करने के लिये कटिबद्ध रहे हैं। अतः मायावाद की शिक्षायें पार्थसारथी की शिक्षाओं से विपरीत हैं। पार्थसारथी ने सिखाया कि शरीर और ऊर्जा में पारस्परिक संबंध है उसे मजबूत कर मानवता को हानि पहुचाने वाली शक्तियों के विरुद्ध संग्राम करो वे हमेशा  उनके साथ हैं। मायावाद उपाधिवाद को भी स्थापित करता है जो भावजड़ता का ही पोषक है। पार्थसारथी ने धर्मराज्य की स्थापना के साथ मानसिक मुक्ति की भी   शिक्षा दी। उन्होंने बताया कि अवसरवादियों के द्वारा अतार्किक, अमनोवैज्ञानिक और अविवेकपूर्ण विचारों को मन में संक्रमित कर दिया जाता है जिससे वे अनन्त काल तक जनसामान्य का शोषण करते रहें। (जैसे, सब लोग जानते हैं कि महामारी/बीमारी का इलाज दवाईयों से होता है पर इन संक्रमित किये गये डागमेटिक विचारों से लोग देवी देवताओं की पूजा करके इसे दूर करना चाहते हैं और  सबको तथाकथित प्रसाद बाॅंटकर महामारी को उनके घर तक पहुंचा देते हैं।) इसलिये पार्थसारथी ने स्पष्ट कहा कि इस प्रकार की मानसिक बीमारियों को पनपने ही न दो। इस प्रकार पार्थसारथी मायावाद या उपाधिवाद या विशुद्ध अद्वैतवाद के विपरीत थे।

Sunday 11 December 2016

95 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 7)

95 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 7)

राजू- साॅंख्य दर्शन में क्या कहा गयाहै?
बाबा- साॅंख्य दर्शन  के अनुसार इस संसार की संरचना कुल मिलाकर चैबीस तत्वों से हुई है और इन पर नियंत्रण करने के लिये "जन्यईश्वर"  और समग्र कार्यों को सम्पन्न करने के लिये "प्रकृति" को उत्तरदायी माना गया है। जन्यईश्वर  या पुरुष को केवल उत्प्रेरक की तरह निष्क्रिय माना जाता है जैसे मकरध्वज का निर्माण करते समय स्वर्ण।

नन्दू- तो क्या कृष्ण को इस मत  के अनुसार जन्यईश्वर कहा जा सकता है?
बाबा- इस दर्शन  के प्रकाश  में बृज कृष्ण को देखें तो हम पाते हैं कि यहाॅं पुरुष तो केवल एक ही है और प्रकृति अर्थात् जीव अनेक । जब जीव का मन एक केन्द्रित होता है तो वे केवल परमपुरुष की ओर ही दौड़ पड़ते हैं। इकाई मन में केवल परमपुरुष के प्रति आकर्षण होना राधा भाव कहलाता है। बृज कृष्ण की ओर सभी दौड़ पड़ते थे और अनुभव करते थे कि वे उनके बिना एक क्षण भी नहीं रह सकते, यह थी उन की आराधना और उसमें अंतर्निहित भाव था राधा भाव। राधा भाव, बृज कृष्ण के अलावा और कहीं दिखाई नहीं देता।

चन्दू- तो आपके अनुसार बृज कृष्ण साॅख्य दर्शन के अनुकूल हैं?
बाबा- बृजकृष्ण सान्त्वना के साक्षात् स्वरूप थे जो कि तारक ब्रह्म का ही लक्षण है और यह साॅंख्य दर्शन  में कहीं  भी दिखाई नहीं देता। साॅंख्य का पुरुष अक्रिय है  जबकि बृजकृष्ण सदैव सक्रिय, बिना किसी भेदभाव के वे सबको पास बुलाते और उन्हें मधुरता का अनुभव कराते । उनमें जैवधर्म, मानव धर्म और भागवत धर्म का समन्वय कराते। सभी कृष्ण के साथ रहना चाहते, वे अपने आपको भूलकर केवल कृष्ण को पाकर अपने सब दुखदर्द और शंकायें, समस्यायें सब भूल जाते।

रवि- लेकिन बृज कृष्ण की गतिविधियों को तो उनकी बाल लीलाओं में ही गिना जाता है?
बाबा- बृज कृष्ण के समय में ही भक्ति का उद्गम हुआ। भिन्न भिन्न लोगों ने अपने अपने संस्कारों के अनुसार एक ही कृष्ण को अलग अलग मधुरभाव से चाहा जैसे नन्द और यशोदा ने वात्सल्य भाव से जबकि उनके वास्तविक पिता वसुदेव देवकी को यह अवसर प्राप्त नहीं हुआ। गोप गोपियों को मित्र भाव में , राधा ने मधुर भाव में अनुभव किया। बृज कृष्ण के पहले किसी ने भी इस मधुर भाव की अनुभूति नहीं कराई । इस तरह हम देखते हैं कि बृजकृष्ण साॅंख्य दर्शन  से बहुत ऊपर हैं, साॅंख्य दर्शन  में उन्हें नहीं बाॅंधा जा सकता।

इन्दू-  तो क्या पार्थ सारथी की भूमिका साॅंख्य दर्शन के अनुकूल मानी जा सकती है?
बाबा- यह जानने के लिये यह ध्यान में रखना होगा कि सारथी का अर्थ रथ चलाने वाला नहीं वरन् ‘‘बुद्धिंतु सारथिम् विद्धि‘‘  से लिया गया बुद्धि तत्व है।  पार्थसारथी की बुद्धि से ही जगत के सब मनुष्य बुद्धि पाते हैं। मनुष्य का अर्थ केवल मानव शरीर होना नहीं है। वरन् मूलभूत आवश्यकताओं  के लिये संघर्ष करने के साथ मन का होना भी है जो अन्ततः आत्मा से ही प्रेरणा पाता है। जीवन के उतार चढाव़, सुखदुख और संघर्ष में सही दिशा  देना किसका काम है? इस स्तर की बौद्धिक क्षमता किसके पास है? एक ही स्थान पर यह सब जहाॅं पाया जा सकता है ? वह पार्थसारथी  के अलावा कोई नहीं है । साॅंख्य का पुरुष अक्रिय है जबकि पार्थसारथी की सक्रियता ने लोगों की जीवन पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया।  महाभारत का युद्ध, जन सामान्य को अनुशासित रहने की शिक्षा और कर्म की ओर प्रेरित कर लोक शिक्षा देना जैसे सक्रिय कार्य साॅंख्य के जन्यईश्वर  में कहीं दिखाई नहीं देते। अतः इस अद्वितीय व्यक्तित्व को किसी दर्शन  में क्या बाॅंधा जा सकता है? पार्थसारथी यद्यपि राजाओं से ही मेल मिलाप करते थे पर उनके मनमें हमेशा  जनसामान्य के सुख दुख और मौलिक आवश्यकताओं  की पूर्ति करने के विचार रहते थे जिन्हें मूर्तरूप देने में वे हमेशा  सक्रिय रहते थे । मानवता की रक्षा के लिये उन्होंने धर्मराज्य की स्थापना की । इसके लिये उन्होंने नैतिक और अनैतिक राजाओं का ध्रुवीकरण कर धर्मयुद्ध कराया और जन सामान्य की नैतिक मूल्यों में आस्था को स्थापित किया।  वे ओत और प्रोत योग से सामूहिक और व्यक्तिगत रूपसे सब से जुड़े रहे, यह  बच्चों का खेल नहीं है। अतः साॅंख्य के जन्यईश्वर  या पुरुष, पार्थसारथी जो कि पुरुषोत्तम थे, के समक्ष कहीं नहीं टिकते ।

Sunday 4 December 2016

94 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 6)

94 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 6)


रवि- लेकिन आपने तो बताया था कि कृष्ण से पहले सदाशिव ने तन्त्र की व्यवहारिकता का ज्ञान समाज को दिया था, तो क्या वह कपिल के प्रपत्तिवाद से पृथक था?
बाबा- सत्य है, तंत्र के प्रवर्तक हैं भगवान ‘‘सदाशिव‘‘। स्थानीय रूप से इसमें दो भाग हैं एक गौड़ीय और दूसरा कश्मीरी । गौड़ीय में व्यावहारिकता अधिक और कर्मकाॅंड शून्य  है जबकि कश्मीरी में कर्मकाॅंड अधिक और व्यावहारिकता कम। व्यावहारिकता के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण करने पर पता चलता है कि तंत्र के पाॅंच विभाग हैं, शैव, शाक्त, वैष्णव, सौर एवं गाणपत्य। कहा जाता है कि शैवतंत्र में ज्ञान और सामाजिक चेतना पर अधिक जोर दिया जाता है, शाक्त तंत्र में शक्ति को प्राप्त कर उसे न्यायोचित ढंग से प्रयुक्त करने पर जोर रहता है, वैष्णवतंत्र में मधुर दिव्यानन्द को प्राप्त करने की ओर बल दिया जाता है पर सामाजिक चेतना की ओर कम, सौर तंत्र में चिकित्सा और ज्योतिष को ही महत्व दिया जाता है तथा गाणपत्य तंत्र में विभक्त समाज के गुटों को एकीकृत रहकर आगे बढ़ने को प्रोत्साहित किया जाता है। जहाॅं तक प्रपत्ति का प्रश्न है वैष्णव तंत्र में बृज कृष्ण की तरह, दिव्यानन्द की मधुरता का स्वाद लेने को दौड़ना स्पष्टतः दिखाई देता है। इस अवस्था में ज्ञान और कर्म की कठिनाई से लड़ना संभव नहीं है।

राजू- क्या कृष्ण का ज्ञानमार्ग, शैवतंत्र के ज्ञान मार्ग और वैष्णवतंत्र के मधुर दिव्यानन्द से कुछ समानता रखता है या नहीं ?
बाबा- पार्थसारथी कृष्ण ने अर्जुन को अपने प्रकाॅंड ज्ञान का दर्शन कराया पर उसमें नकारात्मकता या पलायनवाद कहीं पर नहीं था। उन्होंने बताया कि जीवधारी विशेषतः मनुष्य दो संसारों में जीते हैं, एक संसार उनके छोटे ‘मैं‘ का और दूसरा परम पुरुष का। वह अपने छोटे संसार का स्वमी होकर अनगिनत आशायें और अपेक्षायें पाले रहता है पर ये सब उसी प्रकार होतीं हैं जैसे एक छोटा सा बुलबुला महाॅंसागर में तैरता है। इस छोटे से बुलबुले की इच्छायें तभी पूरी हो सकती हैं जब वह परमपुरुष के संसार अर्थात् महासागर में अपने को मिलाकर आपना पृथक अस्तित्व समाप्त कर देता है अन्यथा नहीं। स्पष्ट है कि मनुष्य की इच्छाओं की तरंगें जब तक परमपुरुष की इच्छातरंगों से मेल नहीं करती उनका पूरा होना संभव नहीं है। यह पूर्णप्रपत्ति है पर जब प्रारंभ में वे ज्ञान और दर्शन  का विवरण प्रस्तुत करते हैं तो यही बात विप्रपत्ति जैसी अनुभव होती है, पर जब वह समझाते हैं कि सब कुछ तो उन्होंने ही योजित कर रखा है तो यह अप्रपत्ति की तरह लगता है और जब वे कहते हैं कि तुम्हारी इच्छा का कोई मूल्य नहीं मैं ही सब कुछ करता हॅूं तब वह स्पष्टतः प्रपत्ति ही है। मामेकम शरणम् व्रज , यह कहने पर तो सब कुछ प्रपत्ति का ही समर्थन हो जाता है।

इन्दु- तो क्या शैवतंत्र का दार्शनिक ज्ञान और वैष्ण्वों की प्रपत्ति दर्शन क्या भिन्न हैं?
बाबा- शैवों का दर्शन  ज्ञान, लक्ष्य को प्राप्त कराने के लिये विभिन्न सकारात्मक और नकारात्मकताओं में संघर्ष करने और कार्य कारण सिद्धान्त के विश्लेषण के आधार पर आगे बढ़कर लक्ष्य तक ले जाने की बात कहता है अतः प्ररंभ में विप्रपत्ति प्रतीत होती है पर अंत में जब लक्ष्य प्राप्त हो जाता है तब न तो अप्रपत्ति न प्रपत्ति और न ही विप्रपत्ति बचती है।

चन्दु- आपने शिव को तारक ब्रह्म कहा है, इस पद का अर्थ क्या है?
बाबा- अपनी असाधारण बुद्धि, व्यक्तित्व, चतुराई और संगठनात्मक क्षमता के कारण जो समग्र समाज का नेतृत्व  करते हैं वे समाजप्रर्वतक कहलाते हैं। वे, जो कुल अर्थात् तंत्र साधना कर अन्तर्ज्ञान के सहारे सूक्ष्म ऋणात्मकता को विराट धनात्मकता में बदलकर अपने इकाई मन को परमसत्ता के  मन के स्तर तक ऊंचा कर सकते हैं कौल कहलाते हैं। वे, जो अपने अभ्रान्त ज्ञान के मार्गदर्शन से दूसरों को कौल बना देते हैं वे महाकौल कहलाते हैं। परंतु तारक ब्रह्म इन सबसे भिन्न विशेष सत्ता होते हैं जो एकसाथ समाज प्रवर्तक, आध्यात्मिक प्रवर्तक, कौल और महाकौल सबकुछ होते हैं इतना ही नहीं वह इन सब से भी अधिक होते हैं वे समाज के प्रत्येक भाग के लिये दिशानिर्देशक की तरह कार्य करते हैं। भगवान सदाशिव तारक ब्रह्म थे।

Sunday 27 November 2016

93 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 5)

93 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 5)

राजू- क्या कृष्ण के समय तक दर्शन अर्थात् फिलासफी का उद्गम हो चुका था?
बाबा- भारतीय दर्शन  के मान्यता प्राप्त प्रथम दार्शनिक  "कपिल" शिव के बहुत बाद में और कृष्ण के कुछ समय पहले हुए। उन्होंने बताया कि विश्व  की उत्पत्ति और विकास चौबीस तत्वों से हुआ है और उन्हें नियंत्रित करने वाली सत्ता हैं ‘‘जन्यईश्वर ‘‘। संख्या से संबद्ध होने के कारण इसे साॅंख्य दर्शन  कहा गया है।

रवि- तो क्या उस समय के विद्वानों ने उनकी इस बात को स्वीकार कर लिया?
बाबा-  कपिल ने जन्यईश्वर के संबंध में कुछ स्पष्ट नहीं कह पाया इसलिये कुछ लोगों ने इसका विरोध प्रारंभ कर दिया और तर्क दिया कि जिसकी इच्छा से पत्ता भी नहीं हिल सकता कपिल उनके बारे में कैसे बोल सकते हैं । अतः नयी विचारधारा का जन्म हुआ इसे प्रपत्तिवाद के नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ  है परम सत्ता के प्रति सम्पूर्ण समर्पण कर स्वयम् को उनके हाथों का खिलौना समझना। मानव बुद्धि और अन्तर्ज्ञान  के क्षेत्र में एक उत्तम विचार है ‘‘प्रपत्ति‘‘ का। निश्चय  ही इसी के साथ इसका विरोधी पक्ष विप्रपत्ति लेकर आया और जो उदासीन रहे वे अप्रपत्ति की विचारधारा को मानने लगे।

इन्दु- तो क्या कृष्ण के समय तक यह दर्शन स्थापित हो चुका था या समाप्त हो चुका था या कृष्ण ने अलग कोई अपना दर्शन प्रस्तुत किया ?
बाबा- कृष्ण का आगमन इसी प्रकार के दार्शनिक वातावरण में हुआ । यद्यपि वे कोई दार्शनिक  नहीं थे पर बृजकृष्ण और पार्थसारथी दोनों की भूमिकाओं में वे एक सक्रिय और व्यावहारिक व्यक्तित्व थे।  यहाॅं यह याद रखने योग्य है कि भागवतशास्त्र जिसमें प्रपत्तिवाद को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपमें कृष्ण से समर्थित बताया गया है वह कृष्ण के बहुत बाद में अस्तित्व में आया। बृजकृष्ण ने मौखिक रूप से प्रपत्ति, ज्ञान या कर्म के पक्ष या विपक्ष में कुछ नहीं कहा, पर उनकी सब गतिविधियाॅं और कार्यव्यवहार संपूर्ण प्रपत्ति का द्योतक है। वास्तव में विराट के आकर्षण से भक्त का मन अनुनादित हो जाता है और फिर वह उनके बिना नहीं रह सकता। बृज कृष्ण की बाॅंसुरी सुनकर सभी लोग उनकी ओर ही दौड़ पड़ते थे उन्हें लगता था कि वह बाॅसुरी उनका नाम लेकर पुकार रही है, फिर दौड़ते भागते रास्ते में क्या है पत्थर या काॅंटे उन्हें कोई ध्यान नहीं रहता था, यह प्रपत्ति नहीं तो और क्या है। इस प्रकार लोग आगे बढ़ते गये। पर पार्थसारथी ने कहा कि तुम्हें हाथ पैर दिये गये हैं शरीर दिया गया है, यह सबसे अच्छी मशीन है इसका अधिकतम उपयोग करो, कर्म करो परंतु फल की इच्छा मत करो। कर्म करना तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है , यदि फल पाने में असफल होते हो तो भी चिंता की बात नहीं है क्यों कि फल देना तुम्हारे हाथ में नहीं है। फल की चिंता करते हुए किये गये कार्य में सफलता मिलना संदेहपूर्ण होता है। यह क्या है ? कर्मवाद। अतः पार्थसारथी यहाॅं फिर बृजकृष्ण से अलग हैं।

चन्दू- प्रश्न उठता है कि क्या पार्थसारथी का कर्मवाद प्रपत्ति के पक्ष में है या विपक्ष में?
बाबा- यदि हम ध्यान से सोचें तो स्पष्ट होगा कि यह हाड़ मास का तन, मन ,मस्तिष्क और आत्मा सब कुछ परमपुरुष से ही अपना उद्गम पाते हैं। अतः यदि हम शरीर मन और आत्मा जो कि परम पुरुष के द्वारा दिये गये उपहार हैं, को उपयोग में लाते हैं तो हम प्रपत्ति का ही अनुसरण करते हैं। क्योंकि यदि उन्होंने इससे भिन्न सोचा होता तो इनके स्थान पर और कुछ होता क्यों कि सब कुछ तो उन्हीं की इच्छा से होता है। अतः जब उन्होंने कृपा कर यह मन बुद्धि और आत्मा के उपहार हमें दिये हैं तो उनका उचित उपयोग करना प्रपत्ति के अनुकूल ही है। इस प्रकार कर्म प्रारंभ में तो प्रपत्ति के प्रतिकूल जाता प्रतीत होता है पर वह उसका शत्रु नहीं वरन् उसके अनुकूल ही है। यदि बृज कृष्ण की बाॅसुरी के आनन्द उठाते समय कोई अकृपा का स्थान नहीं है तो पार्थसारथी के कर्मयोग की पुकार में भी अक्रियता के लिये कोई स्थान नहीं है।

Monday 21 November 2016

92 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 4)

92 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 4)

रवि - क्या बृजकृष्ण और पार्थसारथी कृष्ण दोनों ने इन छहों स्तरों पर भक्तों को अपनी अनुभति कराई है?
बाबा - बृजकृष्ण और पार्थसारथी कृष्ण दोनों ने सार्ष्ठी  को अनुभव कराया पर बृजकृष्ण ने जहाॅं मधुर भाव से सालोक्य से सार्ष्ठी  तक क्रमशः प्रगति कराई वहीं पार्थसारथी ने सामाजिक चेतना और कर्मयोग के माध्यम से पराक्रम और समर्पण आधारित सालोक्य से सीधे ही सार्ष्ठी  उपलब्ध करा दी। इस मामले में बृज कृष्ण यदि आम के फल हैं तो पार्थसारथी बेल के फल। बेल, आम की तुलना में पेट के लिये अधिक गुणकारी होता है परंतु स्वाद में आम की तुलना में कम मीठा होता है और तोड़कर खाने में आम की तुलना में अधिक पराक्रम करना पड़ता है। दोनो का ही उद्देश्य परम पुरुष की ओर ले जाने का है पर एक की विधि कोमलता और मधुरता  भरी है तो दूसरे की कठिनाई भरी।

नन्दू - यह स्थितियाँ तो दार्शनिक अधिक लगती हैं क्या इसे वैज्ञानिक आधार प्राप्त है?
बाबा - हाॅं।  एक बात ध्यान देने की है वह यह कि विश्व में जो भी व्यक्त रूप में आया है वह अपनी विशेष तरंग दैर्घ्यों  से युक्त होता है।  इन सभी छः स्तरों की अनुभूति तभी होती है जब साधक अभ्यास करते करते  अपनी तरंग दैर्घ्य  को सूक्ष्म बनाकर बिलकुल सरल रेखा में ले आता है इस अवस्था में भक्त, पार्थसारथी को भी अपना निकटतम मित्रवत अनुभव करने लगता है। जब किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच स्नेह का बंधन इतना प्रगाढ़ होता है कि वे एक दूसरे का विछोह क्षण भर भी नहीं सह सकते तो उन्हें बंधु कहते हैं। जब दो व्यक्ति हमेशा एक सी विचारधारा के होते हैं और किसी भी विषय पर मतभिन्नता नहीं होती तो वे सुहृद कहलाते हैं।  जब दो व्यक्ति एक से व्यवसाय या काम से जुड़े होते हैं तो वे मित्र और जब प्रगाढ़ता और निकटता इतनी होती है कि उनके प्राण भी एक जैसे दिखाई देते है तो उन्हें सखा कहते हैं। कृष्ण अर्जुन के सखा थे। अर्जुन ने ही वास्तविक कृष्ण को क्रमागत रूपसे सालोक्य से सार्ष्ठी  तक पाया परंतु उन्हें अपार शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना और अथक पराक्रम करना पड़ा।

चन्दू- कृष्ण की इन दोनों भूमिकाओं में सार्ष्ठी  का अनुभव करने वाला भक्त क्या हर स्तर पर एक समान अनुभव करता है या भिन्न भिन्न?
बाबा- बृज कृष्ण अपनी बाॅंसुरी के मधुर स्वर सुनाते सुनाते सबसे पहले झींगुर जैसी, फिर समुद्र जैसी दहाड़, फिर बादलों की गड़गड़ाहट, फिर ओंकार ध्वनि के साथ सार्ष्ठी  की अनुभूति  क्रमागत रूपसे सभी स्तरों को पार कराते हुए अनुभव कराते हैं। ओंकार ध्वनि बिना किसी ठहराव या रुकावट के लगातार सुनाई देती है।  पर इस अवसर पर भी साधक मधुर बाॅंसुरी ही सुनता रहता है इसे ही सार्ष्ठी कहते हैं। यहाॅं साधक की विचारधारा यह होती है कि हे परम पुरुष तुम हो , मैं हूँ  और इतनी निकटता है कि मैं तुम ही हो गया हॅूं। पार्थसारथी भी सार्ष्ठी  की अनुभूति निःसंदेह कराते हैं पर इस प्रकार की नहीं । यहाॅं साधक अनुभव करता है कि प्रभु तुमने मुझे विशेष रूपसे अपना बना लिया है और अब दूर रह पाना कठिन है।  मैं तो तुम्हारे हाथ का खिलौना हूँ  और जैसा तुम चाहते हो वैसे हर काम के लिये मैं सदा ही प्रस्तुत हॅूं। अर्जुन के साथ सबसे पहले तो सामान्य वार्तालाप हुआ और फिर अचानक जोर की पाॅंचजन्य की ध्वनि कानों में गूँजने लगी और उन्हें आत्मसाक्षात्कार हुआ।

इन्दु- तारक ब्रह्म शिव ने भी तो भक्तों को आत्मसाक्षात्कार कराया, क्या उनकी विधियाॅं कृष्ण से भिन्न थीं?
बाबा- शिव के समय लोगों में बौद्धिक विकास इतना नहीं था कि वे दर्शन अर्थात् फिलासफी को समझ सकें अतः शिव ने विखरे हुए समुदायों को एक साथ रहने तथा  स्वस्थ और प्रसन्न रहने के लिये तन्त्र का प्रवर्तन करते हुए
शिक्षित किया, उन्होंने धन्वन्तरी को वैद्यक शास्त्र और भरत मुनि को संगीत अर्थात् नृत्य वाद्य और गीत की विद्या में पारंगत कर सब को सिखाने के लिये तैयार किया, लेकिन दर्शन की कोई चर्चा नहीं की।

Sunday 13 November 2016

91 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 3)

91 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 3)

इन्दु- बाबा ! सभी प्रकार के विद्वानों को यह कहते सुना जाता है कि कृष्ण परमपुरुष ही हैं, परन्तु इन रूपों में उन्होंने अपने निकट रहने वालों को किस प्रकार अनुभव कराया कि वे परमपुरुष ही हैं?
बाबा- जब परमपुरुष किसी संक्रान्तिकाल में अपने को तारक ब्रह्म के रुप मे पृथ्वी पर अवतरित करते हैं तो समकालीन व्यक्ति कुछ विशेष प्रकार की अनुभूतियाॅं करते हैं जो परमपुरुष के अवतार होने का प्रमाण देती है। इन्हें इन छः प्रकारों से अनुभव किया जाता है। सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य, सार्ष्ठी  और केवल्य।

रवि- बाबा ! ‘सालोक्य‘ क्या है और उसकी अनुभूति किस प्रकार होती है?
बाबा- ‘सालोक्य‘ अवस्था में व्यक्ति अनुभव करते हैं  कि वे उस समय धरती पर आये जब परमपुरुष ने भी अवतार लिया। इस प्रकार के विचार में जो आनन्दानुभूति होती है उसे सालोक्य कहते हैं। जो भी बृज कृष्ण या पार्थ सारथी कृष्ण के संपर्क में आया उन्होंने अनुभव किया कि वह उनके अधिक निकट है । यहाॅं एक उदाहरण से यह समझा जा सकता है। सालोक्य की अनुभूति दुर्योधन की अपेक्षा अर्जुन को अधिक थी, कुरुक्षेत्र के युद्ध में सहायता के लिये दुर्योधन, अर्जुन से पहले कृष्ण के पास पहुंचे पर कृष्ण ने पहले देखा अर्जुन को बाद में दुर्याधन को, इस तरह अर्जुन कृष्ण की सहायता लेने में सफल हुए। यहाॅं पार्थसारथी और बृज कृष्ण में अन्तर  स्पष्ट होता है क्योंकि यदि बृजकृष्ण पार्थसारथी के स्थान पर होते तो वे तो अपनी जादुई वाॅंसुरी बजाकर दुर्याधन और अर्जुन दोनों को ही अपने पास ले आते।

राजू- तो फिर ‘सामीप्य‘ और ‘सालोक्य‘ एक समान हैं या भिन्न?
बाबा- ‘सामीप्य‘ अवस्था में लोग परमपुरुष से इतनी निकटता अनुभव करते हैं कि वे अपनी एकदम व्यक्तिगत बातों को या समस्याओं को उनसे मित्रवत् कह सकते हैं और उनका समाधान पा सकते हैं। यहाॅं ध्यान देने की बात यह है कि बृज कृष्ण के समीप आने वाले अत्यन्त सामान्य स्तर के थे जबकि पार्थ सारथी के पास तो अत्यंत उच्चस्तर के सन्त , विद्वान या राजा लोग ही जा पाते थे। अन्य किसी के पास यह सामर्थ्य नहीं था। यह भी स्पष्ट है कि सालोक्य या सामीप्य की अनुभूति करने के लिये अनेक कठिनाईयों का समना करना पड़ता है। बृज कृष्ण के पास जितनी सहजता है पार्थसारथी के पास उतनी ही अधिक कठिनता। यह भी आवश्यकता नहीं कि यदि किसी ने पार्थसारथी के सालोक्य का अनुभव कर लिया है तो वह सामीप्य पाने में भी सफल हो ही जायेगा ।

नन्दू- बड़ा ही सूक्ष्म अन्तर है, लेकिन ‘सायुज्य‘ तो बिलकुल अलग ही होगा?
बाबा- ‘सायुज्य‘  में उन्हें स्पर्श करना भी संभव होता है, जैसे बृजकृष्ण के साथ गोपगापियाॅं साथ में नाचते, गाते, खेलते, खाते थे जबकि पार्थ सारथी के साथ यह बहुत ही कठिन था पाॅंडवों में से केवल अर्जुन को ही यह कृपा प्राप्त थी अन्य किसी को नहीं।

चन्दू- परमपुरुष को अनुभव करने की अगली स्थिति ,‘सारूप्य‘ क्या है?
बाबा- ‘सारूप्य‘ में भक्त यह सोचता है कि मैं उनके न केवल पास हॅू बल्कि उन्हें अपने आसपास सभी दिशाओं में देखता भी हॅूं। इस प्रकार की स्थिति तब आती है जब भक्त परमपुरुष को अपने निकटतम संबंध से जैसे, पिता, माता, पुत्र, पुत्री, मित्र या पत्नि के रूप में स्थापित करके साधना करते हैं।

रवि- यदि ऐंसा है तो परमपुरुष के साथ जो शत्रु के रूप में सम्बन्ध बनाते हैं, क्या वे सारूप्य के योग्य माने जा सकते हैं?
बाबा- परमपुरुष को शत्रु के रूप में संबंध बना कर भी पाया जा सकता है जैसे, कंस, पर यह बड़ा ही दुखदायी होता है व्यक्ति या तो पागल हो जाता है या मर जाता है, और समाज हमेशा उसे धिक्कारता है। कहा जाता है कि अपनी मृत्यु के एक सप्ताह पहले कंस हर एक वस्तु में कृष्ण को देखता था और पागल हो चुका था। इसलिये सामीप्य अनुभव करने के लिये परमपुरुष के साथ अपना निकटतम संबंध जोड़कर सभी वस्तुओं और स्थानों में उन्हीं को देखना चाहिये। जब किसी के मन में उन्हें पाने के लिये अत्यंत तीब्र इच्छा जागती है तो यह अवस्था बहुत आनन्ददायी होती है उसकी बेचैनी बढ़ती जाती है और अनिरुद्ध चाहत से वह आगे बढता जाता है तो संस्कृत में इसे आराधना कहते हैं और जो आराधना करता है उसे राधा कहते हैं, यहाॅं राधा का तात्पर्य भक्त के मन से है। बृज के निवासियों ने उन्हें अपने हर कार्य और विचारों में पाया और देखा। जबकि, पार्थसारथी को पाॅंडवों ने अपने मित्र के रूप में तथा कौरवों ने अपने शत्रु के रूप में पाया।

इन्दु- अनुभूति का अगला स्तर कौन सा है?
बाबा- अगला स्तर है ‘ सार्ष्ठी  ‘ इसमें भक्त परमपुरुष को सभी संभावित तरीकों और कल्पनाओं से अनुभव करता है। भावना यह रहती है कि प्रभु तुम हो मैं भी हॅूं और हमारे बीच संपर्क भी है। अर्थात् कर्ता है कर्म है और संबंध जोड़ने के लिये क्रिया भी है। ‘ सार्ष्ठी  ‘ का यही सही अर्थ है। यहाॅं ध्यान देने वाली बात यह है कि परमपुरुष और भक्त के बीच यहाॅं बहुत निकटता का संबंध होता है पर द्वैत भाव भी होता है। अनेक वैष्णव ग्रंथों  में इसी द्वैत को महत्व देने में यह तर्क दिया गया है कि ‘‘मैं शक्कर नहीं होना चाहता क्योंकि यदि हो गया तो उसका स्वाद कौन लेगा।‘‘ इस प्रकार वे  ‘ सार्ष्ठी  ‘को ही उच्चतम अवस्था मानते हैं। पर कुछ वैष्णव दर्शन  यह भी मानते हैं कि हे प्रभु केवल तुम ही हो, इस अवस्था को ‘कैवल्य‘ कहते हैं जो अनुभूति की सर्वोत्तम और सर्वोच्च अवस्था स्वीकार की गयी है।

Monday 7 November 2016

90 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 2)

90 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 2)

राजू- तो क्या वह युद्ध करने और कराने के लिये ही पार्थसारथी की भूमिका में आये थे?
बाबा- कंस का अर्थ है दूसरों के अस्तित्व के लिये जो खतरनाक हो, जो दूसरों के सार्वभौमिक भलाई और विकास में बाधा पहुंचाता हो। और कृष्ण का अर्थ है जो दूसरों को पूर्णता की ओर ले जाता हो, जो विध्वंस कारक विचारों को सहन नहीं कर सकता हो, जो पूर्णेापलब्धि की ओर सबको ले जाता हो। अतः सबके भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक दुखों को दूर करने के लिये और धर्म के रास्ते में बाधायें उत्पन्न करने वाले विध्वंसी बलों को समाप्त करने के लिये ही उन्हें पार्थसारथी की भूमिका निभाना पड़ी , क्योंकि बृज कृष्ण की भूमिका में यह संभव नहीं था। उसके लिये बृज भूमि उचित नहीं थी कुरुक्षेत्र ही उचित था।

राजू-  बाबा ! पार्थ का अर्थ क्या है?
बाबा- पार्थ का अर्थ है पृथा का पुत्र, पृथा या पृथि नाम के राज्य की राजकुमारी कुन्ती का पुत्र अर्थात् कौन्तेय। प्राचीन भारत में आर्यों के आगमन से पहले तक कुल माता के नाम से पुत्रों के परिचय देने की परम्परा चलती थी। सारथी का अर्थ है जो रथ की देखभाल अपने पुत्र की भाॅंति करता है। उपनिषदों में शरीर को रथ, मन को लगाम और बुद्धि को सारथी तथा आत्मा को रथ का स्वामी कहा गया है। अतः आगे बढ़ने के लिये इन चारों में से किसी को भी नगण्य नहीं माना जा सकता। किसी एक के भी अप्रसन्न हो जाने पर सब कुछ नष्ट हो जायेगा। इसी के अनुरूप युद्ध भूमि में पार्थ के सारथी कृष्ण हुए और उन्होंने रथ सहित रथ की सवारी करने वाले की देखरेख अपने पुत्र की भाॅंति की। धर्म की रक्षा की।

नन्दू- क्या वे यह कार्य बृजकृष्ण से पार्थसारथी बने बिना नहीं कर सकते थे?
बाबा- कृष्ण के समय में मुट्ठी भर लोगों के द्वारा छोटे छोटे राज्यों जैसे , अंग, बंग, कलिंग, सौराष्ट्र , मगध आदि को बना लिया गया था और आपस में ही लड़ते झगड़ते रहते थे, जब कि सामान्य जन उनकी मौलिक आवश्यकताओं  जैसे, भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा आदि के लिये तरसते थे। अतः एकीकृत  और सामूहिक समाज के महत्व को कृष्ण ने समझा और इस महती जिम्मेवारी को निभाने के लिये उन्होंने पार्थसारथी की भूमिका को चयन किया। जन समान्य की सामाजिक आर्थिक और आध्यात्मिक  उन्नति करने के लिये छोटे छोटे राजाओं को नैतिक रूप से एक समान सहयोग के आधार पर संघीय ढाँचे  में एकीकृत करने का महान लक्ष्य कृष्ण के सामने था जिसके लिये बृजकृष्ण से पार्थसारथी कृष्ण में परिवर्तित होना उनके लिये अनिवार्य हो गया था । अन्य कारण यह भी था कि बृज कृष्ण कोमलता, मधुरता और भक्ति के मिश्रण थे, अतः युद्धों के लिये आवश्यक दृढ़ता  और कठोरता उनमें नहीं आ सकती थी।

चन्दू- बृज कृष्ण और पार्थसारथी कृष्ण में से कौन श्रेष्ठ हैं?
बाबा- जहाॅ बृज कृष्ण मानवता को अपरोक्ष अनुभूति के द्वारा मानवता की उच्चतम अनुभूति कराना चाहते थे वहीं पार्थसारथी कृष्ण परोक्ष अनुभूति से अपरोक्ष अनुभूति कराते हुए मानवता की उच्चतम अवस्था को अनुभव कराना चाहते थे। चूँकि अब तक लोगों के पास उन्नत मस्तिष्क और ज्ञान आधारित समाज था , योग विज्ञान की भी व्यावहारिकता से वे परिचित हो चुके थे अतः उन्हें कर्म योग के माध्यम से परमपुरुष के प्रति शरणागति कैसे पाई जाती है इसकी शिक्षा देने के लिये पार्थसारथी की भूमिका ही उचित थी। यही वह अवस्था है जिसमें प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों अनुभूतियाॅं मिलकर एक हो जाती हैं। स्पष्ट है कि उनहोंने एक भूमिका में संसार को मधुरता और प्रेम से भक्ति की ओर अर्थात् राधा भाव की ओर ले जाने का कार्य किया और दूसरी भूमिका में यह अनुभव कराया कि जीवन का सार संघर्ष में ही है । इस भूमिका से उन्होंने सिखाया कि जीवन की मधुरता को संघर्ष पूर्वक प्राप्त कर  परम मधुरता परमपुरुष को कैसे पाया जाता है। इस प्रकार दोनों भूमिकायें एक दूसरे से बहुत भिन्न हैं एक बिलकुल कोमल और मधुर तथा दूसरी दृढ़  और कठोर। इनमें से कौन सी भूमिका श्रेष्ठ है यह पूछना व्यर्थ है क्योंकि दोनों ही भूमिकायें अपने अपने समय की आवश्यकतायें  थीं।

Thursday 3 November 2016

89 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 1)

89 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 1)

रवि - अनेक ग्रंथों में भगवान श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में भी अनेक तरह से व्याख्यायें पाई जाती हैं, फिर भी उनकी आकर्षक और विलक्षण कार्यशैली के सभी प्रशंसक हैं। क्या ‘ शिव ‘ की तरह आप, नवीन शोधों के अनुसार श्रीकृष्ण से सम्बन्धित अब तक सर्वथा अज्ञात तथ्यों पर प्रकाश डाल सकते हैं?
बाबा- हाॅं , सबसे पहले तो उस काल में जो सामाजिक व्यवस्था थी उसके सम्बन्ध में अच्छी तरह समझ लो। गर्ग, वसुदेव और नन्द का एक ही परिवार था वे चचेरे भाई थे। गर्ग ने ही कृष्ण का नाम कृष्ण रखा था क्योंकि वे बहुत ही अकर्षक थे। कृष्ण का अर्थ है जो आकर्षण करने वाला है या  सबको अपनी ओर खींचता हो। उस समय केवल वर्ण परम्परा ही प्रचलित थी जातियाॅं नहीं थीं। गुणों तथा कर्मों के अनुसार ही लोगों के वर्ण परिवर्तित होते रहते थे। इस प्रकार एक ही माता पिता की अनेक सन्ताने भिन्न भिन्न वर्ण की हो सकती थीं। जैसे गर्ग बौद्धिक स्तर पर अन्य भाइयों से उन्नत और विद्या अध्ययन और अध्यापन के कार्य में संलग्न होने के कारण उन्हें विप्र वर्ण में , वसुदेव शारीरिक बल और शस्त्रों के परिचालन में प्रवीणता रखते थे और अभिरक्षा कार्य में संलग्न थे अतः वे क्षत्रिय, और नन्द व्यावसायिक बौद्धिक स्तर के थे और पशुपालन तथा कृषि कार्य करते थे अतः वैश्य वर्ण में प्रतिष्ठित हुये।

नन्दू- तो हमें कृष्ण के व्यक्तित्व को किस प्रकार समझने का प्रयत्न करना चाहिए?
बाबा- कृष्ण के बहुआयामी व्यक्तित्व को समझने के लिये हमें दो भागों में अध्ययन करना सहायक होगा क्योंकि वे दो भाग अपने आप में पृथक भूमिका वाले और उनके व्यक्तित्व के सम्पूरक हैं। पहला है ‘‘बृज कृष्ण‘‘ अर्थात् उनका बाल्यावस्था का चरित्र और दूसरा है ‘‘पार्थसारथी कृष्ण‘‘ अर्थात् उनका युवा शासक का चरित्र। बृज कृष्ण बहुत मधुर और सबको आकर्षक करने वाली भूमिका है जिसमें वे प्रत्येक को बिना किसी भेद भाव के आत्मिक आकर्षण में बाॅंध कर आत्मीय सुख और संतुष्ठि प्रदान करते थे। पार्थसारथी की भूमिका में उनके पास सब नहीं जा सकते थे केवल राजा और राज्य कार्य से जुड़े लोग ही अनुशासन में सीमित रहते हुए निकटता पा सकते थे। उनकी यह कठोरता आध्यात्मिकता से मिश्रित होती थी। इस तरह उनकी दोनों प्रकार की भूमिकायें अतुलनीय थीं।

राजू- परन्तु कृष्ण को तो महाभारत के कारण ही जाना जाता है?
बाबा-महाभारत में कृष्ण के पूरे जीवन चरित्र को सम्मिलित नहीं किया गया है पर यह सत्य है कि कृष्ण के बिना महाभारत और महाभारत के विना कृष्ण नहीं रह सकते। यदि हम कृष्ण चरित्र से मूर्खतापूर्वक महाभारत को घटा दें तो कृष्ण का व्यक्तित्व थोड़ा कम तो हो जाता है पर फिर भी उनका महत्व बना रहता है।

चन्दू- परन्तु अधिकाॅंश भक्तों ने तो उनकी बाल लीलाओं में ही अपनी साधना को केन्द्रित रखा है, और कहा जाता है कि उन्हें उनका साक्षात्कार हुआ है, तो अन्य भूमिका की आवश्यकता क्यों हुई?
बाबा- बृज कृष्ण में माधुर्य, साहस, बल, तेज और सभी प्रकार के सदगुण थे परंतु, मधुरता से सबको अपनी वाॅंसुरी की तान से आकर्षित कर लेना उनका अधिक प्रभावशाली गुण था। इतना ही नहीं जरूरत के समय अपने मित्रों और अनुयायियों की रक्षार्थ शस्त्र भी उठा लेने में भी वे संकोच नहीं करते थे। गोपियाॅं उन्हें अपने से बहुत ऊॅंचा और श्रेष्ठ समझतीं थीं पर यह भी कहती थीं कि वह तो हमारा ही है, हमारे बीच का ही है। इस प्रकार जो अपने भक्तों के साथ इतना निकट और सुख दुख में साथ रहा हो उसने शीघ्र ही यह अनुभव किया कि इस प्रकार तो मानवता की अधिकतम भलाई नहीं की जा सकती। अतः तत्कालीन समय की असहाय, अभिशप्त और नगण्य समझी जाने वाली मानवता की कराह सुन कर उन्होंने यह भूमिका त्याग कर पार्थसारथी की भूमिका स्वीकार की।
 

Monday 24 October 2016

88 बाबा की क्लास ( शिव-13 प्रणाम मंत्र )

मित्रो ! पिछले कुछ दिनों से हम तारकब्रह्म भगवान सदाशिव के सम्बंध में जानने योग्य उन तथ्यों पर वैज्ञानिक आधार पर विचार कर रहे थे जो सामान्यतः उनके संबंध में पाये जाने वाले साहित्य के पढ़ने से अनेक भ्रान्तियाॅं और विचित्रता पैदा करते रहे हैं । वास्तव में, शिव को तत्वतः तो केवल शिव ही जानते हैं, इसलिये वे जैसे भी हों उन्हें उसी प्रकार से हम बार बार केवल प्रणाम ही कर सकते हैं। अतः अब हम आज की क्लास में उनके प्रणाम मंत्र पर विचार करते हुए इस चर्चा को यहीं समाप्त कर रहे हैं । आशा है इस वैज्ञानिक चर्चा से आपकी भ्रान्तियाॅं दूर हो गयी होंगी। आगे की क्लासों में महासम्भूति कृष्ण पर इसी प्रकार की चर्चा करने का प्रयत्न करूंगा ।  

88 बाबा की क्लास ( शिव-13 प्रणाम मंत्र )

इन्दु- बाबा! जिस प्रकार शिव का ध्यान मंत्र आपने बताया है उसी प्रकार उनका क्या प्रणाम मन्त्र भी है? यदि हो तो उसे भी हमें समझाइये?
बाबा- अवश्य ही शिव का प्रणाम मन्त्र भी है । सुनो,
    ‘‘नमस्तुभ्यं विरुपाक्ष नमस्ते दिव्य चक्षुसे, नमः पिनाक हस्ताय वज्रहस्ताय वै नमः,
     नमः त्रिशूल  हस्ताय दंडपाशासिपानये, नमस्त्रैलोक्यनाथाय भूतानाम पतयेनमः,
     नमः शिवाय शान्ताय कारणत्रयहेतबे, निवेदयामि चात्मानम् त्वमगतिः परमेश्वरा ।‘‘

रवि - इसका शब्दिक अर्थ मुझे मालूम है,
‘‘ दिव्यद्रष्टि वाले विरूपाक्ष तुम्हें प्रणाम, पिनाक और बज्र को हाथ में धारण करने वाले तुम्हें प्रणाम, त्रिशूल रस्सी और दंड को धारण करने वाले तुम्हें प्रणाम, सभी प्राणियों/भूतों के स्वामी और तीनों लोेकों के स्वामी तुम्हें  प्रणाम, तीनों लोकों के आदिकारण शान्त शिव  को प्रणाम, परम प्रभो ! मेरी यात्रा के अंतिम बिंदु और लक्ष्य ! मैं अपने आप को आपके समक्ष समर्पित करता हॅूं।‘‘

बाबा - हाॅं, बिलकुल ठीक है, परन्तु इसका केवल शाब्दिक अर्थ लेने से कभी कभी गलत संदेश जाता है इसलिये उन शब्दों के पीछे निहित यथार्थ को मैं विस्तार से समझाये देता हॅूं।

शब्द " विरूपाक्ष " के दो अर्थ हैं, एक तो वह जिसके नेत्र विरूप अर्थात् अप्रसन्न या क्रोधित हों, दूसरा यह कि जो प्रत्येक को विशेष मधुर और कल्याणकारी द्रष्टि से, दयालुता से देखता हो। पापियों के लिये शिव, विरूपाक्ष पहले रूप में और सद्गुणियों के लिये दूसरे अर्थ में लेते थे।
दिव्यचक्षु का अर्थ है जिसके पास प्रत्येक वस्तु के भीतर छिपे मूल कारण को देख सकने  की दिव्य द्रष्टि है, अर्थात् वर्तमान भूत और भविष्य को देख सकने वाला।
पिनाक अर्थात् जो डमरु को बजा कर सभी प्राणियों के शरीर मन और आत्मा को कंपित कर देता हो वह सदाशिव हैं। दुष्टों को दंडित करने और अच्छे लोगों की रक्षा के लिये हमेशा से हर युग में हथियार बनाये जाते रहे हैं शिव ने भी सब की भलाई के लिये भयंकर वज्र धारण किया। इसलिये वे वज्रधर ही नहीं शुभवज्रधर कहलाते हैं ।
त्रिशूल से शिव शत्रुओं को तीन ओर से छेदित करते थे, शिव इसे हाथ में लिये रहते थे इसलिये वे शूलपाणि कहलाते हैं। पापियों के हृदय में भय पैदा करने और बांधने के लिये, जिससे कि वे पाप से दूर रहें और भले लोगों को शान्ति  से रहने दें, शिव, दंड और रस्सी लिये रहते थे।
शिव, तीनों लोकों के जीवन प्रवाह को नियंत्रित पालित और पोषित करने के कारण त्रैलोक्यनाथ और इस पृथ्वी के सभी जीवधारियों की प्रकृति को भलीभांति जानते हैं अतः वे भूतनाथ कहलाते हैं। संगीत विद्या के विद्यार्थियों के लिये वह प्रमथनाथ हैं। चूॅंकि शिव अपने भीतर और बाहर पूर्ण नियंत्रित रहते थे अतः वे शान्त कहलाते हैं। इस शान्त  पुरुष के पास सब पर नियंत्रित करने की शक्ति है इसलिये कहा गया  है ‘नमः शिवाय शान्ताय‘।
जड़, सूक्ष्म और कारण संसार के मूलकारण घटक को चितिशक्ति कहते हैं। ये शिव और चितिशक्ति एक ही हैं। इसीलिये उन्हें ‘कारणस्त्रयहेतबे‘ कहा गया हैं। उस परम सत्ता को, जिसने अपने मधुर और प्रभावी प्रकाश से सभी निर्मित और अनिर्मित को भीतर बाहर से प्रकाशित कर रखा है, सभी प्रणाम करते हैं और समर्पित रहते हैं। वही सबके अंतिम लक्ष्य होते हैं, अतः कहा गया है ‘निवेदयामि च आत्मानम् त्वम गतिः परमेश्वरा ‘। हे परमेश्वर  मैं अपने आपको आपके समक्ष समर्पित करता हूॅ क्योंकि आप ही मेरे परम आश्रय हैं। हे शिव, हे परम पुरुष, अनाथों के अंतिम आश्रय, थकेमांदों के अंतिम आश्रयस्थल, मैं अपने अस्तित्व की सभी भावनायें आपके चरणों में समर्पित करता हूूॅं। आपके अलावा मेरा कुछ नहीं ,आपके बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं।

Sunday 16 October 2016

87 बाबा की क्लास ( शिव .12 ध्यान मंत्र )

87 बाबा की क्लास ( शिव .12 ध्यान मंत्र  )

राजू- बाबा ! आपने अनेक स्थानों पर तथ्यों के निरूपण में शिव के ध्यानमंत्र का उल्लेख किया है , यह ध्यानमंत्र कैसा है ?
बाबा- शिव का ध्यानमंत्र यह है-
         ध्यायेन्नित्यं महेशं  रजतगिरिनिभं चारुचंद्रावतंसं
        रत्नाकल्पोज्ज्वलांगम् परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्।
        पद्मासीनम्समन्ताम स्तुतम् अग्रगनैव्याघ्रकृत्तिमवसानम
        विश्वाद्यम्  विश्वबीजं  निखिलभयहरम् पंचवक्त्रम् त्रिनेत्रम्।

रवि- इसका अर्थ क्या है?
बाबा- इसका शाब्दिक अर्थ है- ऐंसे भगवान महेश्वर  का ध्यान करना चाहिये जो चांदी के पर्वत के समान चमक वाले हैं, सुन्दर चंद्रमा का मुकुट पहने हुए हैं, जिनके सभी अंग विभिन्न रत्नों की चमक वाले हैं, सदा प्रसन्न रहते हुये जो सबको वर और अभयदान के लिये आश्वस्त  करते हैं, पशुओं की रक्षा के लिये जो हाथ में फरशा  लिये हैं, व्याघ्रचर्म पहने पदमासन में बैठे हुए जिनकी सब देवता पूजा करते हैं, जो विश्व के बीज और इस विराट ब्रह्माॅंड के कारण हैं और अपने पाॅंच मुखों और तीन नेत्रों से जो  पूरे ब्रह्माॅंड के असीमित भय को दूर करने वाले हैं।

चंदू- तो क्या इसका अन्य अर्थ भी है?
बाबा- हाॅं, जैसे, महेशम्: संस्कृत में नियंत्रक को ईश्वर  कहते हैं। संसार के छोटे बड़े सभी मामलों में हर स्तर के नियंत्रक होते हैं जो विभिन्न अधिकारों से सम्पन्न होते हैं। पर, जो अत्यंत तेज मस्तिष्क वाला, दूरद्रष्टा और सबके प्रति हृदय में असीम करुणा और स्नेह से भरा हो वह इन छोटे, मध्यम और बड़े सभी नियंत्रकों का नियंत्रण कर सकता है। शिव सबको नियंत्रित करते थे अतः उन्हें महेश्वर  कहा गया है।

इन्दु- क्या भगवान सदाशिव सचमुच चाॅदी जैसे चमकते थे?
बाबा- हाॅ, रजतगिरिनिभम्: वर्फ की तरह सफेद रैवतक पर्वत पर जब सूर्य का प्रकाश  पड़ता है तो वह जिस प्रकार चमकता है वैसे ही शिव का शरीर चाॅंदी की तरह चमकता था।

राजू- तो क्या उनके सिर पर चंद्रमा भी था?
बाबा- चारुचंद्रावतंसम्: अर्थात् सुंदर चंद्रमा जिनका मुकुट है। क्या सचमुच शिव के सिर पर चंद्रमा का मुकुट था? इस संबंध में सच्चाई को इस प्रकार समझ सकते हैं, मानव शरीर में सूक्ष्म ऊर्जा के अनेक केन्द्र और उपकेन्द्र हैं जिन्हें चक्र या पद्म कहते हैं इन चक्रों से विभिन्न प्रकार के हारमोन्स उत्सर्जित होते रहते हैं जो विभिन्न वृत्तियोंको नियंत्रित करते हैं। इन वृत्तियोंके नियंत्रक विंदु जिनकी संख्या 50 है वे इस प्रकार के  9 चक्रों और उपचक्रों में अपने अपने रंग और ध्वनि के साथ स्थित होते हैं। ये पचास ध्वनियां ही मूल स्वर और व्यंजन के रूप में हम सभी उच्चारित करते हैं। सामान्यतः उच्च स्थित चक्र से निकलने वाला हारमोन निम्न स्थित चक्रों को अपने रंग और ध्वनि से प्रभावित करता है। सर्वोच्च स्थित सहस्रार चक्र निम्न स्थित सभी चक्रों को प्रभावित कर 1000 वृत्तियोंको नियंत्रित करता है। सहस्रार से निकलने वाला यह हारमोन मानव मन और हृदय को अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति कराता है जिससे आत्मिक उन्नति होती है और मनुष्य विचारमुक्त अवस्था में आ जाता है। यह दिव्य अमृत प्रत्येक व्यक्ति के सहस्रार से निकलता रहता है पर मनुष्यों का मन प्रायः भौतकवादी मामलों या वस्तुओं के चिंतन में ही उलझा रहता है इसलिये वह वहीं पर अवशोषित हो जाता है नीचे के चक्रों को प्रभावित नहीं कर पाता है। परंतु यदि इस हारमोन के उत्सर्जन के समय व्यक्ति आध्यात्मिक चिंतन में मन को लगाये रहे तो वह आध्यात्मिक उन्नति कर आनंददायी वेहोशी  का अनुभव करता है और बाहर से लोग उसे देखकर समझने लगते हैं कि यह तो शराबी है। शिव हमेशा  इसी उच्च अवस्था में ही रहते थे अतः अनेक लोग जो भांग, अफीम आदि का नशा  किया करते थे वे प्रचारित करने लगे कि शिव भी इन नशीली चीजों का उपयोग करते हैं। अन्य लोग सोचते थे कि चंद्रमा की 16 कलाओं में से प्रतिपदा से पूर्णिमा तक प्रतिदिन एक एक दिखाई देती है पर सोलहवीं कभी नहीं और इसी से अमृत निकलता है, इसे ‘अमाकला‘ नाम भी दिया गया, इस अमृत के प्रभाव से शिव अपने आप में ही मग्न रहा करते हैं इसलिये अनेक लोगों का मत था कि यह अद्रश्य  सोलहवीं चंद्र कला शिव के ही मस्तक पर होना चाहिये, इसतरह चारुच्रद्रावतंसं कहा गया है। सहस्रार के इस दिव्य अमृत के उत्सर्जन से शिव अपने वाह्य जगत और अन्य आवश्यकताओं से अनजान,  भोलेभाले दिखाई पड़ते थे अतः उन्हें लोग भोलानाथ भी कहने लगे थे।

इन्दु- तो रत्नाकल्पोज्ज्वलाॅग का क्या अर्थ है?
बाबा- रत्नाकल्पोज्ज्वलांगम्: क्या शिव केवल सफेद रंग के ही थे? नहीं , उनका सारा शरीर उस दिव्य अमृत के क्षरण से चमकता था और मध्यान्ह के सूर्य की भांति इस प्रकार प्रभावित करता था कि जैसे उनके शरीर से अनेक हीरे जवाहारात चमक रहे हों। न केवल चमकदार वरन् उनका श
रीर कोमल और सुगंधित भी था।

रवि- परशुमृगवराभीति से क्या आशय  निकलता है?
बाबा- परशुमृगवराभीतिहस्तं: दुष्टों की दुष्टता को दबाने के लिये शिव हाथ में फरसा लिये रहते थे तथा सभी मनुष्यों पौधों और पशुओं की देखभाल अपने बच्चों की तरह करते थे। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि मृग शब्द  को संस्कृत के समानार्थी सामान्य पशु  के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है केवल मृग अर्थात् हिरण के अर्थ में नहीं। मृग का अर्थ है कोई भी पशु , जैसे, शाखमृग का मतलब है बंदर क्योंकि वह शाखाओं पर रहता हैं, मृगचर्म का मतलब है किसी भी जंगली पशु  का चर्म, मृगया का अर्थ है किसी भी जंगली पशु  का शिकार करना आदि आदि। इस प्रकार सभी पशु  और मानव खतरे के समय शिव की शरण में आकर सुरक्षा अनुभव करते थे और शिव भी सबको निर्भय रहने का वरदान देने की मुद्रा में रहते थे। शिव जो कि स्वयं की सुख सुविधाओं के प्रति बिलकुल उदासीन रहते थे वे किसी के आंसू नहीं देख सकते थे उसे सब सुविधायें उपलब्ध करा देते थे। चाहे वह दुष्ट  ही क्यों न हो यदि उसकी आंखों में आंसू दिखते तो शिव उसके शुद्धीकरण का रास्ता बताते और वरदान भी दे देते थे। इसी प्रकार

* प्रसन्नम्: प्रत्येक परिस्थिति में वह अपना मानसिक संतुलन बनाकर रखते थे, कितनी ही विकट स्थिति क्यों न हो उनके चेहरे से प्रसन्नता ही झलकती थी। इतिहास में इस प्रकार का सदा हंसमुख चेहरा दुर्लभ है।

*पद्मासीनम्समन्ताम्: शिव हमेशा  पद्मासन में ही बैठा करते थे। जिस प्रकार खिले हुए कमल सदैव पानी से ऊपर रहते हैं जबकि उनके तने और जड़े कीचड़ में, उसी प्रकार पद्मासन में बैठा व्यक्ति संसार में रहते हुए भी अपने मन को बाहरी वातावरण से पूर्णतः मुक्त रख सकता है। यही कारण है कि साधना करने के लिये उचित आसन पद्मासन ही है। इस प्रकार शिव एक ओर भौतिक जगत में मानसिक संतुलन बनाये रहते थे और दूसरी ओर आत्मिक संसार में।

*स्तुतम् अग्रगनै: यह सत्य है कि इस संसार में जो भी निर्मित हुआ है वह परिवर्तनीय और नष्ट होने के लिये है और यह भी सत्य है कि परम सत्ता के विचार स्पंदन के विस्तार जिंन्हें देवता कहते हैं वे भी ब्रह्माॅंडीय नाभिक से निकलकर दूरस्थ भविष्य के अपरिमित षून्य में भागते जा रहे हैं। इससे हम इन दिव्य किरणों या देवताओं को अमर कह सकते हैं क्योंकि वे पास आते हैं और अगणित दूर लाखों प्रकाश वर्ष दूर चले जाते हैं। यह कहा जाता है कि ये देवता भी देवों के देव महादेव के सामने नतमस्तक रहते हैं क्योंकि यह सामान्य नियम है कि जब कोई, किसी व्यक्ति में अपने से अधिक अच्छे गुण पाता है तो वह उसे पूजने लगता हैं। शिव के सामने इन सबका तेज और दिव्यगुण बहुत निम्न स्तर का है अतः वे सब मिलकर उनकी स्तुति करते हैं। सच तो यह है कि ये सब देवता तो गुणों से बंधे हुए हैं जबकि षिव सभी बंधनों से मुक्त है अतः स्पष्ट है कि बंधन में रहने वाले बंधन मुक्त की शरण में ही जाना चाहेंगे।

*व्याघ्रकृत्तिमवसानम्: जैन दर्शन  के प्रभावी काल में कुछ अज्ञानियों ने शिव को दिगम्बर मान लिया जब कि ध्यान मंत्र में स्पष्ट है कि वे व्याघ्रचर्म पहना करते थे, इसी कारण उनका एक नाम ‘कृत्तिवास‘ भी है।

विश्वाद्यम् विश्वबीजं : शिव को परमपुरुष मानने का कारण यह है कि उनमें परम सत्ता के सभी गुण हैं और वे हमारे विल्कुल निकट हैं अतः उन्हें परम पिता कहना न्याय संगत है। वे पुरुषोत्तम हैं, प्रथम पुरुष है, परम शिव हैं और वे विश्वाद्य अर्थात् बृह्माॅंड के उद्गम है। विश्व  के उद्गम का कारण भी इन्हीं प्रथम पुरुष में है, आदिशिव ही अपने निष्कलत्व को सकलत्व में मात्र इच्छा से ही रूपान्तरित कर देते हैं। आदिशिव की इच्छा के विना प्रकृति कोई भी रचना नहीं कर सकती। इसलिये विश्व  के मूल कारण आदिशि व हैं न कि प्रकृति। ध्यान मंत्र में यह स्पष्ट कहा है कि शिव ही विश्व  के बीज हैं।

*निखिलभयहरम्: असीमित या अबाधित अस्तित्व को निखिल या अखिल कहते हैं। जीवन के अनेक क्षेत्रों में मनुष्य अनेक चीजों से डर पाल लेते हैं। पशु  भी अपने शत्रुओं से डरते हैं। वर्तमान में मनुष्यों के भौतिक स्तर के भय में कमी आई है पर मानसिक स्तर में भय की बृद्धि हुई है। शिव ने मनुष्यों और पशुओं दोनों को निर्भय करने के लिये अनेक कदम उठाये। बीमारियों से निपटने हेतु चिकित्सा विज्ञान को विकसित किया, शत्रुओं से निपटने के लिये अनेक हथियार बनाये, मानसिक भय को दूर करने के लिये ज्ञान की अनेक शाखाओं को विकसित किया और आत्मिक भय को हटाने के लिये तंत्रविज्ञान को स्थापित किया। पशुओं और पौधों  को सुरक्षा देना , पालना और पोषण करना भी उन्होंने सिखाया, इसी लिये उन्हें संसार के दुख/भयहर्ता के नाम से जाना जाता है।

रवि- तो क्या सदाशिव के पाॅंच मुंह और तीन नेत्र भी थे?
बाबा-पंचवक्त्रम्: अर्थात् जिसके पांच मुंह हों वह। क्या शिव के सचमुच पांच मुंह थे? नहीं , एक ही मुख से पांच प्रकार के प्रदर्शन  करते थे। मुख्य मुंह बीच में, कल्याण सुंदरम। सबसे दायीं ओर का मुंह दक्षिणेश्वर । कल्याण सुंदरम और दक्षिणेश्वर  के बीच में ईशान। सबसे वायीं ओर वामदेव और वामदेव तथा कल्यान्सुन्दरम के बीच में कालाग्नि। दक्षिणेश्वर  का स्वभाव मध्यम कठोर, ईशान और भी कम कठोर, कालाग्नि सबसे कठोर, परंतु कल्याणसुदरम में कठोरता बिल्कुल नहीं, वह सदा ही मुस्कुराते हैं। मानलो किसी ने कुछ गलती की, दक्षिणेश्वर  कहेंगे, तुमने ऐंसा क्यों किया? इसके लिये तुम्हें दंडित किया जायेगा। ईशान कहेंगे तुम गलत क्यों कर रहे हो क्या तुम्हें इसके लिये दंडित नहीं किया जाना चाहिये? कालाग्नि कहेंगे, तुम गलत क्यों कर रहे हो ? मैं तुम्हें कठोर दंड दूंगा मैं इन गलतियों को सहन नहीं करूंगा, और क्षमा नहीं करूंगा। वामदेव कहेंगे, बड़े दुष्ट हो, मैं तुम्हें नष्ट करदूंगा, जलाकर राख कर दूंगा। और कल्याणसुदरम हंसते हुए कहेंगे, ऐंसा मत करो तुम्हारा ही नुकसान होगा। इस प्रकार पांच तरह के भाव प्रकट करने के कारण शिव को पंचवक्त्र कहा जाता है। और,

त्रिनेत्रम्: मनुष्यों का अचेतन मन सभी गुणों और ज्ञान का भंडार है। अपनी अपनी क्षमता के अनुसार लोग जाग्रत या स्वप्न की अवस्था में इस अपार ज्ञान का कुछ भाग अचेतन से अवचेतन में और उससे भी कम अवचेतन से चेतन मन तक ला पाते हैं। परंतु व्यक्ति सभी असीमित ज्ञान को अचेतन मन से अवचेतन या चेतन मन में नहीं ला सकते हैं। यदि कोई ऐंसा कर सकता है तो इस क्रिया को ‘‘ज्ञान को ज्ञाननेत्र से देखना‘‘ कहते हैं। यह ज्ञाननेत्र तृतीय नेत्र के नाम से जाना जाता है। शिव अनन्त ज्ञान के भंडार थे अतः कहा जाता है कि उनका ज्ञान नेत्र बहुत ही विकसित था। वे त्रिकालदर्शी  थे अतः ध्यान मंत्र में त्रिनेत्रम् कहा गया है।

Sunday 9 October 2016

86 बाबा की क्लास (शिव. 11)

86 बाबा की क्लास (शिव. 11)


चन्दू- लेकिन दुर्गा देवी को दस महाविद्याओं में माना गया है या चौसठ योगिनियों में?
बाबा- दुर्गादेवी की पूजा भी पौराणिक शाक्ताचार के समय मार्कंडेय पुराण से लिये गये 700 श्लोकों, जिन्हें दुर्गा सप्तशती  (सप्त = सात, शती = सौ) कहा गया, के आधार पर प्रारंभ की गई और दुर्गा को शिव की पत्नी माना गया है जो पहले बताये गये कारणों से काल्पनिक रचना के अलावा कुछ नहीं है। पठानकाल के प्रारंभ में बंगाल के राजशाही जिले के ताहिरपुर के एक बहुत संपन्न मालगुजार कॅंसनारायण राय को अपनी सम्पदा के प्रदर्शन  करने हेतु एक विचार आया कि वे  राजसूय या अश्वमेध यज्ञ कर लोगों को दिखा दें कि वह क्या हैं, इस पर तत्कालीन पंडितों ने कहा कि ये तो कलियुग है इसमें ये राजसूय/अश्वमेध  यज्ञ करना वर्जित है अतः आप तो मार्कंडेय पुराण में वर्णित दुर्गापूजा ही करें और उसी समय जितना अधिक दान करना हो सो करें। इस पूजा में कॅंसनारायण राय ने सात लाख सोने के सिक्कों को खर्च किया, इसे देख सुन कर वर्तमान बॅंगलादेश  के रंगपुर जिले के इकटकिया के जगतवल्लभ/जगतनारायण ने कहा कि क्या हम कॅंसनारायन से कम हैं, हम भी इनसे ज्यादा खर्च कर अपना, दुर्गा पूजा में नाम आगे करेंगें, इन्होंने आठ लाख पचास हजार सोने के सिक्के खर्च किये। इस प्रकार जमीदारों में अपनी सम्पन्नता प्रदर्शित  करने की होड़ लग गई परंतु इसी बीच हुगली जिले के गुप्तीपारा गांव के 12 मित्रों ने मिलकर कहा कि हम अलग अलग भले ही  जमींदारों के बराबर पूजा में खर्च नहीं कर सकते पर सभी मिलकर तो कर सकते हैं इसतरह सबने मिलकर दुर्गापूजा का प्रदर्शन  किया , बारह मित्रों/यारों के सम्मिलित होने के कारण इसे बरयारी पूजा कहा गया। इसके बाद यह सार्वजनिक पूजा बन गई और अब तो हर जगह हर चैराहे पर यह की जाने लगी है जिसमें सबकुछ बदल गया है। वर्तमान में इसे सार्वजनिक स्थानों पर मनाये जाने का स्वरूप कितना व्यावसायिक और विकृत हो गया है यह किसी से छिपा नहीं हैं।

राजू- कभी कभी चंडिका शक्ति का भी उल्लेख यत्र तत्र मिलता है?
बाबा- प्रागैतिहासिक काल में लोग समूहों में रहा करते थे और प्रत्येक समूह की मुखिया महिला ही हुआ करती थी और उसे गोत्रमाता कहा जाता था। माता केे मरने के बाद उसकी प्रापर्टी का अधिकार पुत्री को ही प्राप्त होता था परंतु पुत्रों के नाम माता के नाम से ही रखे जाते जैसे, माता का नाम मोदगल्ली तो पुत्र का नाम मोदगल्यायन, माता का नाम रूपसारी तो पुत्र का नाम सारीपुत्त, माता का नाम महापाटली तो पुत्र का नाम पाटलीपुत्र, माता का नाम पृथा तो पुत्र का नाम पार्थ आदि। इस काल में पुरुषों को कोई संम्पत्ति का अधिकार नहीं था अतः वे प्रत्येक कार्य अथवा सुविधा पाने के लिये गोत्रमाता से ही निवेदन किया करते थे अतः गोत्रमाता की पूजा की जाने लगी जिसे कालान्तर में चंडी या चंडिका पूजा कहा जाने लगा। इसमें यह भाव थे कि जो देवी सभी आकारधारकों में माता और शक्ति के रूप में निवास करती है उसे नमस्कार। यद्यपि यह एक सामाजिक पृथा थी परंतु पौराणिक शाक्ताचार में इसे शिव की पत्नी कहा गया जो निराधार है। कालान्तर में महिला के स्थान पर पुरुष को यह अधिकार दिये गये और गोत्रपिता नाम दिया गया।

रवि- परन्तु शिव को अर्धनारीश्वर शिव के रूप में भी पूजा जाता है, यह कौनसी संकल्पना  है?
बाबा-  शिव  की अतुलनीय प्रतिभा, सरलता , साधुता और तेजस्विता के प्रभाव से प्रबुद्ध वर्ग में यह चर्चा होने लगी कि शिव और कोई नहीं मानव रूप में तारक ब्रह्म ही हैं और धीरे धीरे इस धारणा ने पूर्णता प्राप्त कर ली। आध्यात्म साधकों ने अनुभव करना प्रारंभ किया कि ब्रह्म वास्तव में  सर्वोच्च ज्ञानात्मक सत्ता ‘‘परमपुरुष‘‘ और सर्वोच्च क्रियात्मक सत्ता ‘‘परमाप्रकृति‘‘ का एकीकृत आकार ही हैं और शिव  यही संयुक्त आकार हैं। इसके बाद शिवोत्तर तंत्र, जैन तंत्र, बौद्ध तंत्रकाल में इस अवधारणा को पूर्ण बल मिला। इस समय शिव और शक्ति को मूर्तिकारों ने दायीं  ओर शिव और बायीं  ओर पार्वती का आकार देकर अर्धनारीश्वर  शिव  की रचना कर ली। ‘‘शिवशक्तयात्मकम् ब्रह्म अर्थात् ज्ञान और ऊर्जा साथ साथ कार्य करते हैं,‘‘ का यह विचार पौराणिक काल में भी स्वीकार किया गया। यह माना गया कि शिव ही वह आधार हैं जिस पर शक्ति अपना निर्माण कार्य करती है शिव से अलग होकर वह कार्य नहीं कर सकती। शिव एक साक्षी सत्ता हैं और शक्ति की गतिविधियों के नियंत्रणकर्ता भी हैं। परंतु कितना आश्चर्य है कि शीघ्र ही यह दार्शनिक  विचार लोगों के मन से निकल गया।

Sunday 2 October 2016

85 बाबा की क्लास (शिव.10)

85 बाबा की क्लास (शिव.10)

रवि- अनेक प्रकार के देवी देवताओं की उत्पत्ति का आधार और कारण क्या है?
बाबा-  जैन धर्म की शिक्षाओं ने समाज में अपना प्रभाव इस प्रकार डाला कि लोग समाज के लिये घातक, दुष्ट शत्रुओं से भी लड़ने और संघर्ष करने से दूर रहने लगे क्यों कि उन्हें यह शिक्षा दी गयी थी कि साॅंप और विच्छुओं जैसे जानलेवा शत्रुओं को भी क्षमा कर दो और उन पर दया करो। इसके बाद बौद्ध धर्म में लोगों को सिखाया गया कि यह संसार दुखमय है, इससे दूर रहना चाहिये जिससे लोग उदासीन और नीरस जीवन जीने लगे। यद्यपि महावीर और बुद्ध ने किसी भावजड़ता को रोपने के लिये या समाज में उनकी शिक्षा का इस प्रकार का प्रभाव पड़ेगा इसकी पूर्व धारणा से यह नहीं किया था, परंतु उसका उल्टा प्रभाव समाज पर पड़ना स्वाभाविक था क्योंकि उनकी शिक्षायें पर्याप्त व्यापक और सुसंतुलित नहीं थीं। समाज की इस प्रकार की रूखी और उत्साह रहित जीवन जीने की पद्धति से छुटकारा दिलाने के उद्देश्य से पश्चातवर्ती कुछ बौद्धिक लोगों ने सुख और उत्साह पूर्वक जीवन जीने की कलाओं को स्थापित करने के लिये अनेक प्रकार के देवी देवताओं की काल्पनिक कहानियाॅं बनाईं और उनके अनेक आकार प्रकार देकर पूजा की विधियाॅं भी सिखाईं । ध्यान रहे कि इन सब का आधार शिव को ही बनाया गया क्योंकि बिना शिव से संबंधित किये इन काल्पनिक देवी देवताओं को कोई महत्व न मिल पाता। चूॅंकि भीतर से लोग शैव थे और ऊपर से जैन और बौद्ध धर्म का आवरण , इससे लोगों को लगने लगा कि जीवन में सरसता और सम्पन्नता लाने के लिये इनसे संबंधित देवी देवताओं की उपासना करना ही उचित है इस प्रकार अनेक प्रकार की उपासना पद्धतियाॅं और देवी देवता उत्पन्न हो गये।

नन्दू- इसका अर्थ यह है कि कुछ समय के बाद शैव, जैन और बौद्ध धर्म परस्पर मिल गये और कोई नया धर्म बन गया?
बाबा- इस काल में लिपि का ज्ञान हो जाने के कारण जैन तंत्र, बौद्ध तंत्र और शिवोत्तर तंत्र का पारस्परिक रूपान्तरण होने लगा। जैन साहित्य प्राकृत में और बौद्ध साहित्य मगधी प्राकृत या पाली भाषा में उस समय की थोड़ी रूपान्तरित ब्राह्मी लिपि में लिखे गये, परंतु शिवोत्तर तंत्र संस्कृत भाषा में ब्राह्मी लिपि में लिखा गया। इसके बाद जैन और बौद्ध काल में शिवतंत्र समानान्तर रूप से चलता रहा।

राजू- जिन 64 प्रकार की योगिनियों की चर्चा की जाती है उन्हें तो शिव की पत्नियाॅं कहा जाता है, पर आपने तो शिव के परिवार का परिचय पहले ही बता दिया है, क्या ये योगिनियाँ  इसी समन्वयकाल की हैं?
बाबा- परस्पर समझ बढ़ने पर तीनों तंत्रों में इस बात पर सहमति हुई कि मानव जीवन में 64 प्रकार की अभिव्यक्तियाॅं होतीं हैं अतः तंत्र को 64 शाखाओं में बांटा जाना चाहिये। आन्तरिक रूप से समान परंतु ऊपरी तौर पर कुछ पदों में परिवर्तन कर इसे स्वीकार किया गया। जैसे, जैन तंत्र में मूला प्रज्ञाशक्ति को ‘‘ज्ञाराना‘‘ या ‘ज्ञारत्न‘ कहा गया जबकि शिवोत्तर तंत्र और बौद्ध तंत्र में क्रमशः  इसे शिव और बुद्ध कहा गया। इस प्रकार तीनों तंत्रों में 64-64 प्रकार की शाखाओं को मान्य करते हुए प्रत्येक की नियंत्रक शक्ति को ‘योगिनी‘ कहा गया तथा प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिये सबको शिव की पत्नियाॅं घोषित किया गया जबकि सदाशिव आज से 7000 वर्ष पहले और ये योगिनियाॅं मात्र 2000 वर्ष पहले  हुए। जैैन तंत्र पर आधारित 64 योगिनियों के मंदिर जबलपुर म.प्र. में एक पहाड़ी पर बनाये गये देखे जा सकते हैं।  लिपि के प्रभाव से हुए इस रूपान्तरण से अनेक योगिनियों और देवी देवताओं के नामों में कुछ परिवर्तन कर स्वीकार किया गया, जैसे, जैन देवी अंबिका को शिवोत्तर तंत्र  और पौराणिक शाक्ताचार में अंविका और वाराही को बौद्ध तंत्र में वज्रवाराही के नाम से स्वीकृत किया गया। पौराणिक सत्यनारायण की संकल्पना इस्लाम की पीरभक्ति से मिलकर बंगाल में सत्यपीर के नाम से मान्य हुई। बुद्धतंत्र की तारा और शिवोत्तर तंत्र की काली और पौराणिक शाक्ताचार में सरस्वती के नाम से परस्पर रूपान्तरित किया गया।


इन्दू-  और  दस महाविद्या क्या हैं और ये कैसे आईं?
बाबा- एकीकरण के इस काल में तीनों तंत्रों में से कुछ कुछ महत्वपूर्ण देवियों को लेकर दस महाविद्याओं की कल्पना आई जो पौराणिक काल में थोड़े से परिवर्तन के साथ शाक्ताचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, गणपत्याचार, में भी मान्य की गईं हैं, इनके नाम हैं, काली, तारा, शोडसी, भुवनेश्वरी , भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बंगुलामुखी, मातुंगी और कमला। ये देवियाॅं लगभग सभी तंत्रों में एकसे बीजमंत्र के साथ या थोड़े से परिवर्तन के साथ मान्य की गई हैं और सबको शिव से किसी न किसी प्रकार जोड़ दिया गया ताकि उन्हें लोग पूजते रहें परंतु, उन्हें दिये गये भौतिक आकार से ही प्रमाणित होता है कि कोई भी मानव आकार चार, आठ और दस हाथों वाला नहीं हो सकता।

रवि- जब ये सभी काल्पनिक हैं तो क्या इनकी पूजा करने से वह सब प्राप्त हो जाता है जिसके लिये लोग इन्हें पूजते हैं, जैसे धन पाने के लिये लक्ष्मी, प्रतिष्ठा और प्रभाव के लिये दुर्गादेवी, विद्या बुद्धि के लिये सरस्वती आदि आदि ?
बाबा- पा भी सकते हैं और नहीं भी पा सकते हैं क्यों कि सिद्धान्त है कि ‘‘ यो यथा माम् प्रपद्ययन्ते ताॅंस्तथैव भजाम्यहम्‘‘ अर्थात् जो कोई भी  मुझे जैसे भजते हैं मैं भी उन्हें वैसे ही भजता हॅूं। इसका सीधा सा तात्पर्य यह है कि मानलो कोई भक्त धन को पाने के लिये लक्ष्मी की आराधना करता है तो वह धन को पा सकता है परन्तु परमपुरुष को नहीं, क्योंकि उसने उन्हें चाहा ही नहीं। यही कारण है कि धनलोलुप धन के पीछे इतना पागल होते देखे गये हैं कि अन्त में वे उसका स्वयं कुछ भी उपभोग नहीं कर सके।  श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है कि देवताओं को पूजने वाले देवताओं को, पितरों को पूजने वाले पितरों को ,भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं परंतु मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं। इसीलिये परमपुरुष की निष्काम रूप से की गयी उपासना ही सर्वश्रेष्ठ कही गयी है। जिसे परमपुरुष मिल गये उसे धन, पद, प्रतिष्ठा, और अन्य एश्वर्यों की क्या आवश्यकता?

चंदू- यह सब कुछ विचित्र सा नहीं लगता?
बाबा- विचित्र तो बना दिया गया है प्रलोभ देकर। यदि इन देवी देवताओं को पूजने के पीछे उनसे धन, संतान, ऐश्वर्य, पद, प्रतिष्ठा और शक्ति पाने का लालच न दिया जाता तो शायद उन्हें कोई नहीं पूजता। सभी देवताओं  और देवियों की स्तुतियों में से यदि यह एक लाइन न रहे तो देखना क्या होता है, ‘‘ अमुक अमुक की आरती जो कोई ... .....सुख सम्पत्ति/ वाॅंछित फल पावे‘‘ । इतना ही नहीं सस्कृत में बनाये गये संबंधित के श्लोकों में  भी सभी के साथ कुछ न कुछ पाने का लोभ जुड़ा है इसलिये सभी शिव की उपासना भूल कर उन से जुड़ी कल्पनाओं के पीछे भाग रहे हैं। आधुनिक मनोविज्ञान भी यह प्रमाणित करती है कि जो जैसा सोचता है वैसा ही हो जाता है। इसलिये केवल परमपुरुष ही उपास्य हैं, उन्हें पाने की ही इच्छा करना चाहिये, मनुष्य जीवन पाने का यही सदुपयोग है।

Sunday 25 September 2016

84 बाबा की क्लास (शिव . 9 )

84 बाबा की क्लास (शिव . 9 )
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रवि- ठीक है, जैसा आपने अभी तक बताया है कि शिव की साधुता सरलता और तेजस्विता के कारण उनका अद्वितीय व्यक्तित्व जन सामान्य में इतना रच गया था कि वे उनसे निकटता से जुड़ गये थे, वे ही उनके देवों के देव महादेव थे। परन्तु अनेक देवी देवताओं को भी तो शिव से ही जोड़कर रखा गया है ? इनका उद्गम कहाॅं से हुआ? क्या ये सचमुच शिव से उसी प्रकार संबंधित हैं जैसा अनेक पौराणिक ग्रंथों में बताया गया है?
बाबा- तुम लोग जानते हो कि शिव के बाद लंबे समय तक उनकी शिक्षायें आदर्श स्थापित करती रहीं परन्तु कालान्तर में अनेक महापुरुषों ने अपने अपने ढंग से उनकी शिक्षाओं को समाज में स्थापित करना चाहा । इसलिये शिव को आधार बनाये बिना उनका महत्व कुछ भी न रहता इसलिये सब ने अपने को किसी न किसी प्रकार शिव से जोड़े रखा। सबसे अधिक परिवर्तन पिछले 2500 वर्षाें में ही हुआ है।

नन्दू- लेकिन शिव ने तो समसमाज तत्व की स्थापना की थी , फिर बीच के तथाकथित मनीषियों ने अपना अपना मत क्यों श्रेष्ठ बता कर जनसामान्य को भ्रमित किया या करते जा रहे हैं?
बाबा- आध्यत्मिक साधना की ओर झुकाव की मानसिकता दो प्रकार से पायी जाती है, एक आत्मसुखवाद और दूसरी समसमाज तत्व। जब निरी स्वार्थसिद्धि की भावना लोगों के मन में जागती है तो वे सोचते हैं कि केवल वे ही अच्छा पहने ,खायें, और विलासिता के साधनों का उपभोग करें। इन लोगों की दुहरी मानसिकता होती है और वे समाज में किसी न किसी प्रकार का डोग्मा या भावजड़ता का रोपण कर लोगों को उसका गुलाम बनाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहते हैं। संसार के अधिकाॅंश  धर्म यानी मत इसी मानसिकता पर आधारित पाये जाते हैं। यही कारण है कि सामान्य लोग उन तथकथित महापुरुषों द्वारा कल्पित देवी देवताओं की पूजा में लगे रहते है जिनसे उन्हें भौतिक जगत की उपलब्धियों, धन, नाम, यश , पद  आदि, प्राप्त होने का लोभ दिया जाता है । ये, तथाकथित पंडितों की कल्पनायें होती हैं क्योंकि इनके माध्यम से उनकी दूकानदारी चलती रहती है।

चंदू- पिछले 2500 वर्षों में तो क्रमशः जैन, बौद्ध, क्रिश्चियन, इस्लाम और पौराणिक मतों का ही उद्गम माना जाता है तो शैव दर्शन इनके कारण किस प्रकार प्रभावित हुआ है ?
बाबा- जैन और बौद्ध धर्म के निर्वाणतत्व और अर्हतत्व , सर्वत्याग की बात करते हैं । ये जीवन और भौतिक संसार के प्रति नकारात्मक द्रष्टिकोंण पर आधारित हैं। कर्मसंन्यास और स्थिति संन्यास इसके मार्गदर्शक  सिद्धान्त है जो सिखाते हैं कि संसार में दुख के अलावा कुछ नहीं है। इस प्रकार उन्होंने संसार को ही नहीं अपने आप को भी धोखा दिया है क्योंकि जीवन के लयवद्ध विस्तार को त्याग कर मनुष्य सोचनें लगे कि उनके चारों ओर जड़ता के अंधेरे के अलावा कुछ नहीं है। यह उसी प्रकार है जैसे, एक सुद्रढ़ प्रज्वलित हो रहे दीपक को, जो मानवता के अस्तित्व को प्रकाशित और महिमान्वित करता है, बुझा दिया जावे। जीवन का दीपक, एक बार पूर्ण रूप से बुझ जाने के बाद उसे पुनः प्रज्वलित नहीं किया जा सकता चाहे हजार बार प्रयत्न किये जाएँ। यह प्रबल नकारात्मकता है।

राजू- परन्तु जैन और बौद्ध भी तो शिव की तरह मोक्ष और निर्वाण की ओर जाने की बात कहते हैं?
बाबा- मोक्ष और निर्वाण समानार्थी नहीं हैं, क्योंकि मोक्ष पर आधारित तंत्र तो निर्पेक्ष विस्तार की साधना है जो प्रकाश  की चाल से जड़ता के घने अंधकार से दिव्य प्रकाश  की ओर ले जाता है जबकि निर्वाण का अनुसरण करना अमूल्य जीवन के प्रकाशित दीपक को जानबूझकर बुझाने की साधना है। यह और कुछ नहीं है बल्कि भीतरी और बाहरी संसार के प्रकाश  को धीमा और धीमा करते जाना है। और, अपने आप को रसातल में खो देना ही नहीं गूढ़ अज्ञानता के प्रभाव से अपने अस्तित्व को ही नकार देना है। अपने आप को अंधकार में खो देने की साधना धर्म अथवा मानव की प्रकृति नहीं कहला सकता। जैन और बौद्ध दर्शन  ने पूर्व से स्थापित शैव दर्शन  को अगणित विकृति पहुंचाई है। पूर्णतः विपरीत सिद्धान्तों अर्थात् निर्वाण पर आधारित निर्ग्रन्थ  जैन और विस्तारित शैव, लोगों के हृदय में साथ साथ लंबे समय तक चलते रहे। फिर स्वभावतः परस्पर संयोजन का काल आया जिसमें जैन तंत्र, दिगम्बर अर्थात् निर्ग्रन्थवादी साधना पद्धति ने इन साधकों को आत्म साधना के मार्ग में आन्तरिक रूप से संतुष्ट नहीं कर पाया, क्योंकि वे मूलतः पूर्व से सुस्थापित शैव तंत्र के ही उपासक थे।

इंदु- मैंने कुछ जैन दर्शन के ग्रंथ पढ़े हैं जिनमें भी यम और नियमों का पालन करते हुए इन्द्रियों  पर विजय प्राप्त करने की शिक्षायें दी गयी हैं, तो क्या वे शैव दर्शन से भिन्न हैं?
बाबा- हाॅं, परन्तु पाॅंच यम (अर्थात् अहिंसा ,सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) में से केवल ‘अहिंसा‘ तथा पाॅंच नियम (अर्थात् शौच , संतोष, स्वाध्याय, तप और ईश्वरप्रणिधान ) में से केवल ‘तप‘ का पालन करने पर ही जैन दर्शन जोर देता है अन्य सभी को नगण्य मानकर अपने को विजयी मानता है। शब्द ‘‘जैन‘‘, ‘‘जिन‘‘ क्रियाशब्द से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है ‘ विजयी होना‘ अर्थात् सभी क्षेत्रों में संघर्ष कर विजयी होना । परंतु क्या कछुए की तरह जीवित रहकर विजयी होना संभव है? विजयी होने के लिये द्रढ़ ऊर्ध्वगामी  संवेग चाहिये होता है। इसलिये जैन दर्शन व्यक्ति को अंधेरे में ले जाकर अक्रियता की गुफा में फेकता है और पूर्णतः दोषदर्शी  बनाता है। यही कारण है कि जैन दर्शन  भारत के बाहर कभी नहीं फैल पाया। यह जीवन के प्राकृतिक दर्शन  के विपरीत है। भारत के पश्चिमी  भाग के कुछ व्यापारियों के बीच ही जैन दर्शन  जीवित है।  आज, वह वहाॅं से भी उखाड़ फेका गया है जहाॅं कभी उसका जन्म हुआ था।

राजू- अनेक लोग भी यही कहते हैं कि जैन धर्म को कुछ धनी वैश्यों  को छोड़कर अन्य लोगों ने इसे नहीं अपनाया इसके क्या कारण हो सकते हैं?
बाबा- यह बात सही है, इसके अनेक कारणों में से कुछ इस प्रकार गिनाये जा सकते हैं:-
1. जैनवाद संघर्ष का विरोधी है, महावीर स्वामी के द्वारा अहिंसा  की जो व्याख्या की गई वह अप्राकृतिक और अव्यावहारिक है, जैसे अहिंसा के अनुसार किसी जीव की हत्या नहीं करना है परंतु खेती करने में प्रति दिन करोड़ों अरबों जीवधारियों का मरना निश्चित  होता है अतः जैन धर्म के साधक खेती कैसे करेंगे? नाक से श्वास  के साथ अनेक माइक्रोब  शरीर में पहुंचकर मर जाते हैं अतः वे विना श्वास  के कैसे जीवित रहेंगे और कब कब नाक के ऊपर कपड़ा रखेंगे।
2. निर्ग्रंथवाद  में आध्यात्मिक साधना के अंतिम अभ्यास के समय निर्वस्त्र होकर अर्थात् दिगम्बर होकर रहने के निर्देश  हैं जो समाज में रहने वालों द्वारा अव्यावहारिक होने के कारण नकार दिया गया।
3. समाज में दीर्घ काल से सुस्थापित शैव दर्शन के उपासकों के लिये नास्तिक जैनदर्शन  और आस्तिक शैवदर्शन  के बीच बहुत अधिक अंतर प्रतीत हुआ।
        इस प्रकार मगध में महावीरस्वामी  को जैन धर्म के प्रचार में सफलता न मिलने के कारण वह राढ़ के प्रसिद्ध नगर आस्तिक नगर पहुॅंचे जहाॅं भी उनके इस
        अक्रियवाद को लोगों ने नहीं सुना केवल कुछ धनी व्यापारियों को छोड़कर, वह भी धर्म से प्रभावित होकर नहीं वरन् वैष्य घराने के होने  के कारण।

Sunday 18 September 2016

83 बाबा की क्लास (शिव . 8 )

83 बाबा की क्लास (शिव . 8 )

चंदू- कुछ लोग शिव को स्थान विशेष से जोड़कर उन्हें दूसरों से अलग बतलाते हैं, जैसे बनारस के विश्वनाथ या उज्जैन के महाकाल?
बाबा- हाँ , 7000 वर्ष पुराने सदाशिव की आज तक की यात्रा में लोगों के द्वारा क्या क्या गति कर दी गई है इस  श्लोक  से सरलता से समझा जा सकता है।
सौराष्ट्रे सोमनाथंच श्रीशैल मल्लिकार्जुनम,
उज्जन्याम् महाकालम् ओंकारम् अमलेश्वरम।
वाराणस्याम् विश्वनाथः सेतुबंधे रामेष्वरम्
झारखंडे वैद्यनाथः राढ़े च तारकेश्वरा ।
अर्थात् सौराष्ट्र में सोमनाथ, श्रीशैल के मल्लिकार्जुन, उज्जैन के महाकाल और अमलेश्वर के ओंकार, वाराणसी के विश्वनाथ, सेतु बंध के रामेश्वर तथा झारखंड के वैद्यनाथ और राढ़ के शिव तारकेश्वर कहलाते हैं।

नन्दू- लोगों ने यह क्यों किया?
बाबा- शिव की सरलता, साधुता और दिव्यता के कारण वे जन जन के प्रिय देव ही नहीं महादेव की तरह प्रतिष्ठित हो चुके थे अतः स्थान विशेष के लोगों ने अपनी अपनी आत्मीयता के कारण उन्हें ये नाम दे दिये परंतु बाद में स्वार्थ और लोभवश पुजारियों ने उनमें भिन्नता भर कर जीवन के अलग अलग कार्यो की सफलता पाने का लोभ उनकी पूजा के साथ जोड़ दिया।

राजू- परंतु गाँव गाँव  में यह देखा गया है कि हर जगह छोटे छोटे बच्चे भी मिट्टी के शिव लिंग बना कर आरती करते हैं और अपने ढंग से पूजा करते हैं वे क्या हैं? क्या वे मान्यता प्राप्त हैं?
बाबा- इन्हें लौकिक शिव कहते हैं। इनका उल्लेख किन्हीं ग्रंथों में नहीं है वरन् ये तो लोगों के द्वारा निर्मित उनके अपने भोलेनाथ हैं। शिव की साधुता, सरलता और तेजस्विता के कारण वे समाज के बड़े से बड़े और छोटे से छोटे स्तर के लोगों से सीधे ही जुड़े थे। उन्होंने ही समाज से वर्गभेद और जातिभेद मिटाया, उन्होंने समाज में भ्रामकता और स्वार्थपूर्ण भावजड़ता फैलाने वालों को अपने त्रिशूल से नष्ट कर दिया। स्त्रियों और शूद्रों को वेदमंत्रों का उच्चारण करना तो दूर सुन लेने पर भी वैदिक काल में सजा दी जाती थी, इसे शिव ने समाप्त कराया। समाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में शिव की पहुँच ने उन्हें जनजन का प्रिय देवता बनाया । आज भी भारत में छोटी छोटी बच्चियां  मिट्टी के शिवलिंग बनाकर घी के दीपक से आरती करतीं हैं और अपनी तथा अपने परिवार की समृद्धि के लिये प्रार्थना करतीं हैं। ये शिव न तो वैदिक ,न तांत्रिक ,न जैन, न बौद्ध, न पौराणिक ,न नाथ कल्ट, किसी से भी मान्य नहीं हैं ये तो लौकिक शिव हैं, सरल लोगों के सरल देवता, न इनका कोई बीज मंत्र है न प्रणाम मंत्र और न ही ध्यान मंत्र । इनकी पूजा करने के लिये न किसी पंडित की आवश्यकता होती है और न ही किसी बाहरी कर्मकांडीय प्रदर्शन  की, केवल ‘‘नमः शिवाय‘‘ कह देने से ही उनकी पूजा हो जाती है। ये परमब्रह्म न हों, परमपुरुष भी न हों परंतु सरल लोगों के सरल और आत्मीय देवता अवश्य  हैं। 7000 वर्ष  पुराने
सदाशिव से इनका कोई संबंध नहीं है।

नन्दू- फिर ये शिव आये कहाँ  से?
बाबा- इसका उत्तर है कि शिव की सरलता, साधुता और तेजस्विता ने लोगों के हृदय में इतने गहरे पहुंच बना ली है कि लोग उनके साथ के बिना नहीं रह सकते। उनके सरलतम व्यक्तित्व के संबंध में अनेक किस्से कहे जाते हैं, परंतु वे अनेक दिव्य, अमूल्य खजानों के सागर थे। वे कहते थे बहादुर बनो, धर्म का पालन करो, सरलता को कभी न छोड़ो और सीधे रास्ते पर चलो। यही कारण है कि हर संवर्ग के लोग उनके सामने नतमस्तक हो कहते हैं ‘‘ निवेदयामी च आत्मानम् त्वमगतिः परमेश्वरा ।‘‘ अर्थात् हे मेरे जीवन के अंतिम लक्ष्य, मैं आपके समक्ष पूर्ण समर्पण करता हूँ ।

Monday 12 September 2016

82 बाबा की क्लास (शिव . 7)

82 बाबा की क्लास (शिव . 7)

राजू- बाबा! आपने शिव के परिवार में उनकी तीन पत्नियाॅं और प्रत्येक से एक एक संतान होने के बारे में बताया है परंतु गणेश के संबंध में कुछ कहा ही नहीं है, क्या वह शिव के परिवार के सदस्य नहीं हैं?
बाबा- तुमने सही प्रश्न किया।  पितृ सत्तात्मक पृथा के प्रारंभ होने के बाद समूह के  प्रभावी पुरुष को मुखिया के रूप में स्वीकार किया गया और गोत्रपिता नाम दिया गया। पिता की सम्पत्ति का अधिकार पुत्र को प्राप्त होने लगा। संस्कृत में समूह को गण कहते हैं अतः समूह के नायक को गणेश , गणनायक या गणपति कहा जाने लगा। इसलिये गणेश  का अस्तित्व इतिहासपूर्व माना जाता है और लोग हँसी  में कह भी देते हैं कि जब गणेश  की पूजा सभी देवताओं के पहले की जाती है तो शिव के विवाह के समय भी गणेश  की पूजा हुई होगी तो फिर गणेश , शिव के पुत्र कैसे हुए ? स्पष्ट है कि गणेश , शिव, पार्वती, दुर्गा आदि के पुत्र नहीं हो सकते वे सामाजिक पृथाओं के अंतर्गत हैं , धर्म से उनका कोई संबंध नहीं है। चूंकि समूह के नेता को मोटा तगड़ा होना चाहिये अतः हाथी जैसा शरीर, समूह में संख्या की खूब बृद्धि होना चाहिये अतः वाहन  के लिये चूहा  (क्योंकि चूहों की संख्या अन्य प्राणियों की तुलना में तेजी से बढ़ती है) प्रतीकात्मक रूप में स्वीकार किया गया। पौराणिक काल में इसे गणपति कल्ट के रूप में स्वीकार कर धार्मिक आधार बना दिया गया। पुराणों में आपस में ही समानता नहीं है, एक ही तथ्य को अलग अलग स्थानों पर अलग अलग वर्णित किया गया है। पुराणों की कहानियां शिक्षाप्रद हैं परंतु हैं सब काल्पनिक। उनके भीतर छिपी हुई शिक्षा को ही समझने का प्रयास करना चाहिए न कि कहानी के शब्दों का।

नन्दू- लेकिन पुराणों में तो शिव का आकार और प्रकार ही बदल गया, उन का मूल स्वरूप जो आपने हमें समझाया है वह तो कहीं भी नहीं दिखता?
बाबा- पौराणिक काल में भी शिव की पूजा जारी रही इतना ही नहीं तत्कालीन सभी 22 प्रकार के शिवलिंगों, ज्योतिर्लिंगों , आदिलिंगों, अनादिलिंगों आदि को एकीकृत कर दिया गया। ये शिव,  जैनशिव, बौद्धशिव और शिवोत्तरतंत्र कालीन शिव से बिलकुल भिन्न थे क्योंकि अब इनका पुराना बीजमंत्र ‘ऐम‘ से ‘होम‘ कर दिया गया। चूंकि बीज मंत्र के बदलने से देवता की संकल्पना ही बदल जाती है अतः 7000 वर्ष से लोगों में बसे अपने शिव, बौद्ध शिव, जैनशिव या शिवोत्तरतंत्र के शिव एक नहीं रहे, अनेक होगये।

रवि- इस काल में क्या शिव के संबंध में कोई नयी अवधारणा भी शुरु की गयी ?
बाबा- पौराणिक हिन्दु युग में जब बौद्ध धर्म  और शैव धर्म आपस में मिश्रित होने लगे , तब इस मिश्रित धर्म को नाथ धर्म कहा गया। अधिकाॅंशतः पूर्वी भारत में इस धर्म के अनुयायी अधिक पाये जाते हैं। उन्होंने इसे नाथ धर्म इस लिये कहा क्योंकि उनके गुरुगण अपने नाम के अंत में नाथ (अर्थात् स्वामी) शीर्षक का उपयोग करते थे, जैसे आदिनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ, रोहिणीनाथ, चैरंगीनाथ आदि आदि। अर्थात् इनका उद्गम मूलतः बौद्ध धर्म से हुआ पर भारत से बौद्ध धर्म के नष्ट हो जाने पर उन्होंने शैव धर्म को अपना लिया फिर भी वे बौद्ध धर्म की कुछ कर्मकाॅंडीय विधियों का पालन करते रहे। यह रहस्य इनमें से कोई नहीं जानता सभी अपने को शैव ही कहते हैं।

नन्दू- क्या नाथ कल्ट  और शैव सचमुच एक हो गये?
बाबा- नहीं,  बौद्धतंत्र  जब पौराणिक तंत्र से प्रभावित हो रहा था तो उस संक्रमण काल में नाथ कल्ट का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। नाथ कल्ट में नाथ शव्द को उनके प्रवर्तकों के नाम के बाद जोड़ने की प्रथा अपनाई गई जैसे आदिनाथ, मीनानाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ आदि। इसके सभी प्रवर्तकों को शिव के अवतार के रूप में प्रस्तुत किया गया और उनकी मृत्यु के बाद उनकी मूर्ति को शिव के अवतार के रूप में पूजा जाने लगा। अतः शिव को भी विश्वनाथ, वैद्यनाथ, तारकनाथ आदि नाम दे दिये गये। पौराणिक युग के शिव और शाक्त कल्ट के अनुयायी शिवलिंग की पूजा करते रहे पर नाथ कल्ट से अपने को भिन्न प्रदर्शित  करने के लिये वे उन्हें तारकेश्वर , विश्वेश्वर  या कभी कभी दोनों का उच्चारण करते रहे। इस तरह चाहे कोई भी समय रहा हो और कितना ही प्रभावी व्यक्तित्व अपनी किसी भी प्रकार की संकल्पना को स्थापित करना चाहता रहा हो शिव के विना उसे कोई मान्यता प्राप्त नहीं हुई।

Sunday 4 September 2016

81 बाबा की क्लास (शिव. 6 )

81  बाबा की क्लास (शिव. 6 )

इंदु- पौराणिक काल में तात्कालिक प्रचलित मतों ने एक दूसरे को प्रभावित किया है, क्या शैव सिद्धान्तों को जैन मत में स्वीकार किया गया?
बाबा- सब जानते हैं कि जैन धर्म लगभग 2500 वर्ष से कुछ अधिक पहले प्रचलित हुआ, कुछ लोग मानते हैं कि भगवान महावीर से भी पहले तीर्थंकर हुए हैं फिर भी वे सब शिव के बहुत समय बाद हुये। जब जैन धर्म का प्रचार हो रहा था तब शिव जन सामान्य के देवता बन चुके थे क्योंकि उनका व्यक्तित्व असाधारण ही नहीं था, वे मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपना गहरा प्रभाव जमा चुके थे। जैन धर्म ने अपना प्रचार और प्रभाव जारी रखा परंतु तत्कालीन लोगों ने उसे ऊपरी तौर पर ही स्वीकार किया और शैव धर्म भी साथ साथ चलता रहा।

चन्दू- तो बाद में एकीकरण हुआ या नहीं?
बाबा- जैन धर्म की अनेक शाखाओं में से मुख्यतः दो ही एतिहासिक रिसर्च में मान्य हैं, दिगम्बर और श्वेताम्बर। जैन मुख्यतः दिगम्बर ही हैं परंतु बाद में निर्ग्रंथिवाद  अर्थात् पहने जाने वाले कपड़ों में गांठ न बांधना, प्रचारित किया गया जो गृही लोगों ने स्वीकार नहीं किया। बाद में यह निर्ग्रंथिवादी  जैन धर्म, शैव धर्म से जोड़ दिया गया। लोग ऊपर से जैन धर्मानुयायी थे पर भीतर ही भीतर वे शैव थे।

राजू- शिवपूजन के साथ एक बड़ा ही विचित्र और भ्रामक विधान ‘लिंगपूजा‘ का बनाया गया है यह बात समझ के बाहर है?
बाबा- प्रागैतिहासिक काल में ही नहीं वैदिक युग से पहले से ही लोग लिंग पूजा करते आये हैं। कारण यह था कि उस समय लोग दिन में या रात में कभी भी सुरक्षित नहीं थे। एक समूह दूसरे पर आक्रमण कर अपने समूह और प्रभाव को संरक्षित करना चाहता था अतः स्वाभाविक था कि उनकी संख्या अधिक हो, इसलिये लिंग  पूजा को जनसंख्या बढ़ाने के उद्देश्य  से मान्यता दी गई। इसीलिये यह भी कहा जाने लगा कि जिसके अधिक संतान होगी वे भगवान को अधिक प्रिय होंगे और समाज में आदरणीय। तत्कालीन विश्व  के लगभग सभी देशों  में लिंगपूजा किये जाने के प्रमाण मिले हैं। अतः सत्य यही है कि लिंगपूजा को प्रागैतिहासिक काल से ही सामाजिक रिवाज के रूप में ही माना जाता था न कि आध्यात्मिक या दार्शनिक  आधार पर।

रवि- तो ‘लिंगपूजा‘ को शिव से कब और कैसे जोड़ा गया?
बाबा- जैन मत के प्रचार के समय तीर्थंकरों की नग्नमूर्तियों ने लोगों के मन में नया विचार जगाया और लिंगपूजा को आध्यात्म से जोड़ दिया गया। इस तरह महावीर और बुद्ध के विचार आगे आगे और आजू बाजू में शिव तंत्र का रूपान्तरण भी चलता रहा ।  जैन धर्म के प्रभाव से आज से लगभग 2500 वर्ष पहले शिवतंत्र में शिवलिंग पूजा का समावेश  हुआ। तीर्थंकरों को नया महत्व मिलने के कारण लिंगपूजा का, जनसंख्या बढ़ाने का पुराना अर्थ बदलकर नया दार्शनिक और आध्यात्मिक अर्थ यह किया गया, ‘‘ लिंगायते गमयते यस्मिन तल्लिंगम‘‘ अर्थात् वह परम सत्ता जिस ओर सभी जा रहे हैं वही लिंग है। यह माना जाने लगा कि सभी मानसिक और भौतिक जगत के कंपन परम रूपान्तरकारी शिवलिंग की ओर ही जा रहे हैं अतः यह शिवलिंग ही अंतिम स्थान है जहां सबको पहुंचना है। इस तरह प्रागैतिहासिक काल की लिंग पूजा का रूपान्तरण हो गया और पूरे भारत में फैल गया इतना ही नहीं शिव  का वीज मंत्र भी बदल गया।

राजू- वेदों के अनुसार  शिव का बीज मंत्र तो ‘म‘ है, उसे जैन और बौद्ध मत में किस प्रकार बदला गया??
बाबा- तुम लोग जानते हो कि आधुनिक वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि  ब्रह्म्माॅंड के प्रत्येक अस्तित्व से तरंगें निकलती हैं । यही तरंगें किसी वस्तु विशेष की मूल आवृत्ति कहलाती है जिसे दर्शिनिक भाषा में बीज मंत्र कहते हैं। दार्शनिक आधार पर किसी भी अस्तित्व के निर्माण करने का बीज मंत्र ‘अ‘ पालन करने का ‘उ‘ तथा नष्ट करने का ‘म‘ है। वेदों में शिव का बीज मंत्र ‘म‘ कहा गया है जो जैन तंत्र, बौद्ध तंत्र और पश्चातवर्ती शिव  तंत्र में ‘ऐम‘ कर दिया गया। चूंकि ‘ऐ‘ बारह स्वरों में से एक है और वाच्य या ज्ञान का बीज मंत्र है । ज्ञान गुरु की वाणी से प्राप्त होता है और शिव को गुरु माना गया है अतः जैनतंत्र, बौद्धतंत्र और उत्तरशिवतंत्र में शिव का बीज मंत्र ‘‘ऐम‘ कर दिया गया जो  पौराणिक काल में जब सरस्वती देवी को ज्ञान की देवी के रूप में लाया गया तो ‘ऐम‘ बीज मंत्र उन्हें दे दिया गया।

रवि- कितना आश्चर्य है! जब बीज मंत्र ही बदल गया तो उसका दार्शनिक महत्व क्या रहेगा? क्या उन लोगों ने इस पर नहीं सोचा?
बाबा-सही है, जब बीज मंत्र ही बदल गया तो उससे जुड़ा प्रत्येक कार्य ही अप्रभावी हो जायेगा। ये जैन शिव, जैन समाज में ही स्वीकृत हैं, क्योंकि शिव से जोडे़ बिना उनका महत्व नहीं होता। शिवतंत्र में इन्हें मान्यता नहीं दी गई है । परंतु अपने अपने मत को श्रेष्ठ कहने के प्रयास में समाज में अनेक विभाजन और उपविभाजन हुए जिससे शिवलिंग और उसके पूजन में अलग अलग मतों के अनुसार नाम भी दिये जाते रहे। किसी समूह में आदिलिंग, किसी में ज्योतिर्लिंग , किसी में अनादि लिंग।

राजू- इस प्रकार के परिवर्तन से किस मत को सबसे अधिक महत्व मिला?
बाबा- इस परिवर्तन के प्रवाह में बहुत समयबाद उत्तर बंगाल (तत्कालीन वारेंन्द्र भूमि) के राजकुमार ‘बाण‘ ने वाणशिवलिंग की पूजा प्रारंभ कर दी। इस तरह जैन काल में शिवलिंग की पूजा मेें अनेक परिवर्तन हुए। यद्यपि जैन और शैव दोनों ही शाकाहरी थे परंतु जैनधर्म के पालन में अनेक व्यावहारिक कठिनाइयाॅं आने के कारण शैव धर्म के प्रति लोगों का स्वाभाविक रुझान बना रहा।

इंदु- क्या बुद्ध मत पर शिव का कोई प्रभाव नहीं पड़ा?
बाबा- जिस प्रकार जैन और शैव परस्पर एक दूसरे से प्रभावित हुए उसी प्रकार बौद्ध और शैव भी। भगवान महावीर और भगवान बुद्ध की आयु में लगभग 50 वर्ष का अंतर था अतः दोनों समकालीन ही कहे जावेंगे। महायान बौद्ध भारत ,चीन, जापान में प्रभावी हो चुका था इसकी दो शाखाओं  ने तान्त्रिक पद्धति को अपना लिया था अतः शिवोत्तरतंत्र काल के शिव को बौद्धतंत्र में स्वीकार कर लिया गया और शिव की मूर्ति के स्थान पर शिवलिंग  की पूजा की जाने लगी।

रवि - शिवलिंग का शिव से कोई संबंध नहीं है, इसका सबसे बड़ा आधार क्या है?
बाबा-  सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि शिव के ध्यान मंत्र में शिवलिंग  का कहीं भी उल्लेख नहीं है जिससे प्रकट होता है कि यह बहुत बाद में ही जोड़ा गया है। शिव के व्यापक प्रभाव के कारण बौद्ध युग में भी उन्हें नहीं भुलाया जा सका और शिवलिंग  अथवा शिव मूर्ति की पूजा की जाती रही परंतु थोड़े संशोधन के साथ। शिव को पूर्ण देवता न मानकर उन्हें बोधिसत्व माना गया, अतः शिव की मूर्ति अथवा शिवलिंग पर बुद्ध की छोटी मूर्ति को बनाया जाने लगा जिसका अर्थ यह लगाया जाने लगा था कि शिव के लक्ष्य बुद्ध थे। इस प्रकार के बोधिसत्व शिव बाद में बटुकभैरव के नाम से प्रसिद्ध हुए।

Sunday 28 August 2016

80 बाबा की क्लास (शिव . 5)

80  बाबा की क्लास (शिव . 5)
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रवि- काली के संबंध में आपने बताया परंतु वर्तमान में पार्वती और दुर्गा को एक समान मानने वालों की कमी नहीं है, इस पर आपका क्या मत है?
बाबा- शिव के परिवार से संबंधित अनेक अतार्किक कहानियाॅं जोड़ी जाती रहीं हैं जबकि वास्तविकता कुछ और ही है। पार्वती को ही लें, इसके शाब्दिक अर्थ को पर्वतराज हिमालय की पुत्री के रूप में समझा जाता है जबकि क्या एक पहाड़ मानव कन्या को जन्म दे सकता है? नहीं। वास्तव में हिमालयन क्षेत्र में राज्य करने वाले आर्यन राजा दक्ष की पुत्री जिनका नाम गौरी था वही पार्वती अर्थात् ‘‘पर्वत देशीया कन्या‘‘ कहलाती थीं। आर्यों और भारत के मूल निवासियों जिन्हें आर्य लोग प्रायः अनार्य, दानव, असुर, दास, शूद्र आदि कहते थे, के बीच हमेशा  झगड़े हुआ करते थे। इसके पहले  मैंने तुम लोगों को स्पष्ट किया है कि तत्कालीन भारत के मूल निवासी आस्ट्रिको.मंगोलो.नीग्रोइड नस्ल के थे जिनकी अपनी संस्कृति थी और तंत्र विज्ञान तथा चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में ये बहुत उन्नत थे। शिव, भारत के मूल निवासी थे। शिव की प्रतिभा से प्रभावित होकर पार्वती ने उन्हें अपने पति के रूप में पाने की इच्छा की पर पिता को अनार्य से संबंध बनाना मान्य नहीं था। पार्वती ने शिव को पाने के लिये राजमहल त्यागकर जंगल में वनवासी कन्याओं की तरह पत्तों के वस्त्र पहिन कर तपस्या प्रारंभ कर दी। पत्तों को संस्कृत में पर्ण कहते हैं और वनवासिनी कन्यायें शिवरी कहलाती हैं। अतः उनका नाम पर्णशिवरी हो गया। पार्वती की तपस्या सफल होने पर शिव ने उनसे विवाह किया परन्तु पार्वती वही पत्तों के वस्त्र पहना करतीं थीं, बाद में राज्य के सम्मानितों के अनुरोध पर उन्होंने राजसी वस्त्र स्वीकार कर लिये, इसके बाद उनका नाम अपर्णा हो गया।

इंदु- तो क्या शिव और पार्वती के विवाह के बाद आर्यों  और अनार्यों की लड़ाइयाॅं बंद हो गई थीं?
बाबा- शिव से पार्वती का विवाह हो जाने के बाद लोगों ने सोचा था कि आर्यों और अनार्यों के संबंध सुधर जावेंगे पर यह संभव नहीं हुआ वरन् राजा दक्ष हमेशा  शिव का विरोध करते और अपमान करने का अवसर ढूंडते रहते थे। किसी अवसर पर उन्होंने यज्ञ किया जिसमें उन्होंने शिव को आमंत्रित ही नहीं किया। पार्वती यज्ञ में शिव के बिना अकेले ही जा पहुॅंचीं जहाॅं उन्होंने शिव का अपमान देखकर अपने आपको यज्ञ की अग्नि में जला डाला। इसके बाद से आर्यों और अनार्यों के परस्पर संबंध कुछ सुधर गये। इन गौरी या पार्वती का पौराणिक देवी दुर्गा से कोई संबंध नहीं है। दुर्गा मार्कंडेय पुराण की आठ और दस हाथों वाली काल्पनिक देवी हैं, मात्र 1300 या 1400 वर्ष पुरानी । जबकि पार्वती मानव कन्या हैं दो हाथ वाली और 7000 वर्ष पुरानी। पौराणिक काल में दुर्गा को शिव से जोड़ दिया गया अन्यथा उन्हें मान्यता कैसे मिल पाती।

राजू- परंतु कुछ विद्वान तो दुर्गा को वेदों के द्वारा मान्यता प्राप्त मानते हैं?
बाबा- वेदों में भी दुर्गा के पूजन की कोई विधि वर्णित नहीं है । दुर्गा को वेदों की मान्यता देने के लिये देवीसूक्त की हेमवती उमा का उल्लेख किया जाता है परंतु इनका गौरी , पार्वती या  दुर्गा से कोई संबंध नहीं है। इसका कारण है  समय का अंतर। लोग गलती से उस संबंध को माने हुये हैं।

नन्दू- एक बार आपने बताया था कि शिव ने ही सबसे पहले विवाह नामक संस्था की संकल्पना दी और उन्होंने तत्कालीन लड़ते रहने वाली समाजों को एकीकरण करने के लिये तीन विवाह किये?
बाबा- हाॅं।  शिव की दूसरी  अनार्य पत्नी जिनका नाम था कालिका या काली  और तीसरी  मंगोलियन पत्नी जिनका नाम गंगा था, अवश्य  थी। आर्यों के भारत में आने के बाद आर्य, अनार्य या द्रविड़ और मंगोलियन सभ्यता के लोगों में परस्पर होने वाली लड़ाइयों को समाप्त करने के लिये शिव ने तीन विवाह किये। सच्चाई यही है कि विवाह और परिवार नाम की संकल्पना को शिव ने ही मूर्तरूप दिया और पुरुषों को परिवार के पालन पोषण की जिम्मेवारी दी तथा समाज में प्रथम विवाहित पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हुए। शिव के पहले यह सामाजिक नियम नहीं था।

इंदु- परंतु काली और गंगा के संबंध में भी लोग अनेक विचित्र कहानियाॅं सुनाते हैं जैसे गंगा को सिर पर रखना? काली को शिव की छाती पर पैर रखे खड्ग और मुंड लिये दर्शाना?
बाबा- काली और गंगा के संबंध में भी अनेक कथायें प्रचलित हैं पर सत्य की पहचान करना चाहिये अतार्किक कल्पनाओं को छोड़ देना चाहिये। शिव की आर्य  पत्नी गौरी या पार्वती से एक पुत्र ‘भैरव‘, दूसरी द्रविड़  पत्नी काली से एक पुत्री ‘भैरवी‘ और तीसरी मंगोल  पत्नी गंगा से एक पुत्र ‘कार्तिकेय या षडानन‘, हुए। भैरव और भैरवी दोनों ही तंत्र विज्ञान में प्रवीण होकर प्रगति कर रहे थे जबकि कार्तिकेय भौतिक जगत में ही रुचि लेने लगे थे। शिव के द्वारा सिखाई गयी तंत्र साधना की विधि को श्मशान में प्रारंभिक अभ्यास करने हेतु जाने के समय एक बार काली को अपनी पुत्री भैरवी के संबंध में बहुत चिंता होने लगी और वह उसे देखने श्मशान  में पहुंची। वहां पर शिव बहुत गंभीर ध्यान में मग्न थे। काली, श्मशान  में अंधेरे में चलते हुए रास्ते में शिव से टकरा गयीं। शिव ने पूछा, कस्त्वम्? अर्थात् तुम कौन हो? काली घबराईं, पहले अपना नाम काली का ‘का‘ ही उच्चारित कर पायीं फिर भैरवी उच्चारित करने के प्रयास में बोल गयीं ‘‘का...वै...री‘‘ असम्यहम्।‘‘ अर्थात् मैं कावेरी हूॅं, तब से उनका एक नाम कावेरी हो गया। गंगा को अपने पुत्र की प्रगति की बड़ी चिन्ता थी क्योंकि वह भौतिकवादी होते जा रहे थे। शिव उनकी चिन्ता दूर करने के लिये उन्हें समझाते और इसी कारण उनकी प्रत्येक बात को काली अथवा गौरी की तुलना में अधिक महत्व देते थे, इस पर लोग विनोदवश  कहा करते कि शिव ने तो गंगा को अपने सिर पर बैठा रखा है। इन घटनाओं को पुराणकार ने क्रमशः  काली को नग्नावस्था में शिव के ऊपर पैर रखे जीभ वाहर निकाले हुये वर्णित किया, और गंगा को नदी के रूप में शिव के जटाओं में से बहते दर्शाया  है कितना आश्चर्य  है। स्पष्ट है कि पौराणिककाल की काल्पनिक चार हाथों वाली देवी दुर्गा अथवा आठ हाथों वाली कालिका से शिव का कोई संबंध नहीं है।

नन्दू- शिव अपने कार्यकाल में आर्यों, मंगोलियनों और द्रविड़ों में पारस्परिक सामंजस्य स्थापित करने में कितने सफल हुए, क्या आर्यों ने उन्हें मान्यता दी ?
बाबा- जब किसी के व्यक्तित्व से उसका आदर्श  झलकने लगता है तो वह देवता के समान पूजनीय हो जाता है। अन्य सभी उसके आचरण के अनुयायी हो जाते हैं। शिव अपने समय के अंतिम कालखंड में देवों के देव महादेव के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। आर्य, अनार्य सभी उनकी भव्यता, सरलता और देवत्व के गुणों से भरपूर व्यक्तित्व के कारण अपने भेदभाव भूल गये और परस्पर सौहार्द से रहने लगे थे। वैदिक देवताओं के साथ आर्य भी शिव को एक देवता की तरह पूज्य मानने लगे और उन्हें वेदों में मान्यता दी गई। शिव अपने कार्यकाल में जनसामान्य के इतने निकट थे कि कोई भी छोटी बड़ी समस्या को हल करने के लिये वे हर समय उनके पास होते थे। यही कारण है कि उस समय उनका कोई बीजमंत्र नहीं था, परंतु वेद में और तंत्र में, प्रत्येक विशेष देवता को उसके वीजमंत्र से ही पूजा जाता है। अतः शिव को वेद में ‘म‘ बीज मंत्र दिया गया और स्पष्ट किया गया कि शिव रूपान्तरण के देवता हैं, ‘म‘ ट्रांस्म्युटेशन अर्थात् रूपान्तरण का बीज मंत्र है। शिव को वेदों में मान्य भले ही किया गया हो पर शिव ने वैदिक कल्ट का पालन कभी नहीं किया, वे हमेशा  तांत्रिक कल्ट का ही  पालन करते थे और अन्य लोगों को भी उसी अनुसार चलने के निर्देश  देते थे।

रवि- वैदिक कल्ट और तान्त्रिक कल्ट में क्या अन्तर है?
बाबा- वैदिक नब्बे प्रतिशत सैद्धान्तिक और दस प्रतिशत व्यावहारिक है जबकि तन्त्र नब्बे प्रतिशत व्यावहारिक और दस प्रतिशत सैद्धान्तिक है।

Sunday 21 August 2016

79 बाबा की क्लास ( शिव. 4)

79  बाबा की क्लास ( शिव. 4)

रवि-  शिव आज से सात हजार वर्ष पहले धरती पर थे और पौराणिक धर्म जिसने आज के समय में अपनी कहानियों से समाज को जकड़ रखा है तेरह सौ वर्ष पहले आया तो इस बीच के छै हजार वर्षों में क्या किसी ने शिव को याद नहीं किया?
बाबा- शिव तो जन जन के हृदय में महासंभूति के रूप में प्रारंभ से ही स्थापित हो चुके थे परंतु उनके बाद  लिपि के अनुसंधान हो जाने से भोजपत्र पर लिखना प्रारंभ हुआ और समय समय पर आये विद्वानों ने अपने अपने दार्शनिक सिद्वान्तों से लोगों का ध्यान बाॅंटना प्रारंभ कर दिया। इन विद्वानों में इतनी लंबी अवधि में क्रमशः महर्षि कपिल ने सांख्य, पतंजली ने योग, कणाद ने वैशेषिक, जैमिनी ने पूर्व मीमांसा, बादरायण व्यास ने उत्तर मीमांसा, इसी के समर्थन में गौड़पाद, गोविन्दपाद, शंकराचार्य आदि ने मायावाद, बृहस्पति अर्थात् चार्वाक ने भोगवादी सिद्धान्त, वर्धमान महावीर ने महानिर्वाणवाद या कर्मनिर्वाण , गौतमबुद्ध ने ज्ञाननिर्वाण, आदि का प्रतिपादन किया जिन से शिव के द्वारा दी गयी मूल शिक्षायें इनके आधार में नीव के पत्थर की तरह दबती चली गयीं और आज का प्रदर्शनवाद और भौतिकवाद लोगों के मन और मस्तिष्क में छा गया।

चंदू- क्या यह सभी सिद्धान्त आज कल प्रभावी हैं?
बाबा- भारत में बौद्ध धर्म का प्रभाव घटने और पौराणिक धर्म के प्रभावी होने के समय विभिन्न सिद्धान्तों और मतवादों को पौराणिक कल्ट में पांच विभागों में बाॅंट दिया गया वे हैं, शिवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, सौराचार, और गणपत्याचार। तत्कालीन बंगाल के राजकुमार मत्स्येन्द्रनाथ, नाथ कल्ट के अनुयायी थे अतः इनके समय बौद्ध और जैन धर्म में उपरोक्त पांच  उपविभागों में बहुत परिवर्तन हुये। महाराष्ट्र में गणपत्याचार (गणेश  केन्द्रित), लगभग इसी समय बंगाल में शाक्ताचार (जिसमें पशु  बलि का विधान किया गया), दक्षिण भारत में शिवाचार और शेष भारत में वैष्णवाचार उदित हुआ। सेक्डोनियन ब्राह्मणों ने सौराचार अपनाया क्योंकि वे सूर्य को ही प्रधानता देते थे और ज्योतिष का कार्य करते थे, ये लोग जहां भी रहे सूर्य मंदिर बनवाये। सूर्य देवता अफगानियों की तरह ढीले पाजामा जैकेट पहने सिर पर टोपी और हाथ में रोजरी लिये दिखाये गये हैं।

राजू- परंतु आज कल तो पौराणिक धर्म के सिद्धान्तों का ही बोलबाला है जिन्हें जगद गुरु  शंकराचार्य के द्वारा प्रतिपादित किया गया कहा जाता है और उन्हें भगवान शिव का अवतार माना गया है?
बाबा-हाॅं बौद्ध और जैन धर्म का प्रभाव घटने और पौराणिक धर्म का प्रभाव बढ़ने के बीच के संधिकाल में शंकराचार्य का उद्भव हुआ जिन्होंने इन पांचों विभागों को एकीकरण करने का कार्य किया। इन्हें शिव का अवतार घोषित किया गया क्योंकि शिव के नाम बि ना उन्हें शायद महत्व कम मिलता। शिव का अवतार कहा जाना ही प्रकट करता है कि किसी भी नये सिद्धान्त को जनसामान्य से मान्यता दिलाने के लिये शिव से जोड़े बिना संभव नहीं है। शिव की दिव्यता इसी से सिद्ध हो जाती है।

नन्दू- परंतु ये सभी अपने अपने को श्रेष्ठ कहते हुए जन सामान्य के बीच मतभेद और वैमनस्य तो फैला रहे हैं, वे सभी अपने अपने धर्म प्रवर्तकों को ही देवता और भगवान कहते हैं?
बाबा- जब किसी का व्यक्तित्व और दर्शन  पूर्णतः एक समान हो जाते हैं तो वह देवता हो जाता है। ‘‘द्योतते क्रीडते यस्मात् उदयते द्योतते दिवि, तस्मात् देव इति प्रोक्तः स्तूयते सर्व देवतैः।‘‘ अर्थात् ब्रह्मांड के नाभिक से उत्सर्जित होने वाले जीवन के अनंत आकार जो समग्र ब्रह्मांड में गतिशील हैं और प्रत्येक अस्तित्व के भीतर रहकर सबको प्रभावित करते हैं, देवता कहलाते हैं। इन प्रवर्तकों को इस परिभाषा के अनुसार जाॅंच करने पर यदि सही लगता है तो वे देवता कहला सकते हैं अन्यथा नहीं।  चूंकि शिव का आदर्श  उनके जीवन से विलकुल एकीकृत है अतः इस परिभाषा के अनुसार उन्हें देवता कहा जाना सार्थक है। परंतु शिव के व्यक्तित्व के अनुसार वह तो समग्र देवताओं के समाहार हैं अतः देवता शब्द तो उनके लिये बहुत छोटा लगता हैं, वे तो देवताओं के भी देवता हैं अतः  महादेव कहलाते  हैं।

इंदु- शाक्ताचार में तो केवल देवीशक्ति को ही प्रधानता दी गयी है?
बाबा- जब ब्रह्मांड के नाभिक से कोई रचनात्मक तरंग उत्सर्जित  होती है तो वह अपने संकोच विकासी स्वरूप के साथ विकसित होने के लिये प्रमुख रूप से दो प्रकार के बलों का सहारा लेती है। 1. चितिशक्ति 2. कालिकाशक्ति। वास्तव में पहला बल उसे आधार जिसे हम ‘‘स्पेस‘‘ कहते हैं, देता है और दूसरा बल ‘‘टाइम‘‘ अर्थात् कालचक्र में बांधता है, इसके बाद ही उस तरंग का स्वरूप आकार पाता है। ध्यान रहे इस कालिकाशक्ति का तथाकथित कालीदेवी से कोई संबंध नहीं है, काल ( eternal time factor ) के माध्यम से अपनी क्रियाशीलता बनाये रखने के कारण ही इसे कालिकाशक्ति नाम दिया गया है।

चंदू- तो ये काली देवी क्या हैं?
बाबा- शिव की तीन पत्नियों में से एक का नाम काली अवश्य था जो अस्ट्रिको मंगोलो नीग्रोइड अर्थात अनार्य  कन्या थी और उनका वैसा आकार नहीं था जैसा आज कल दिखाया जाता है। शिव के साथ जुड़े तथाकथित देवी देवता पश्चातवर्ती  हैं, 7000 वर्ष पहले वे शिव के समय नहीं थे। वैदिक काल में इंद्र, अग्नि, वरुण आदि को देवता कहा गया है परंतु मूर्तियों द्वारा उनकी पूजा नहीं की जाती थी, यज्ञाहुतियों में ही आर्य उन्हें स्मरण करते थे। परमब्रह्म की भी मूर्ति के रूप में पूजा नहीं होती थी। वेद में कहा गया है ईश्वरस्य  प्रतिमा नास्ति। प्रतिमा का अर्थ है ‘‘डुपलीकेट‘‘ अर्थात् मूल आकार के समान। चूंकि परमपुरुष के समान अन्य कोई चीज है ही नहीं अतः उसकी मूर्ति हो ही नहीं सकती। शिव के समय अनेक कालशक्तियां स्वीकृत थीं पर मूर्तियां नहीं । शिव के बहुत बाद जैन और बौद्ध धर्म के प्रभाव में विभिन्न देवी देवताओं और उनकी मूर्तियों को बनाया जाने लगा। शिवोत्तर काल में ही  बुद्ध और जैन तंत्र के प्रभाव से शिवतंत्र का रूपान्तरण हुआ है।

रवि- परंतु बौद्ध धर्म तो अनेक देशों में आज भी बहुत प्रभावी है?
बाबा- हाॅं बुद्ध के 300 वर्ष बाद बौद्ध धर्म दो भागों में 1. महासंघम 2. स्थाविरवादी या थेरावादी में बंट गया। इसके कुछ समय बाद एक भाग और हुआ जिसे सम्मितीय कहा गया पर वह अधिक नहीं टिक पाया। महासंघिक  अपने को महायानी और थेरावादी हीनयानी कहने लगे। महायानी, तिब्बत, चीन, मंगोलिया, अफगानिस्तान, कश्मीर , नेपाल, भूटान, सिक्किम, नेफा, दक्षिणपूर्व रूस, जापान, कोरिया आदि में फैल गये, इनका साहित्य सामान्य संस्कृत में है जबकि बुद्ध ने अपने उपदेश  पाली भाषा में दिये हैं। हीनयानी, श्रीलंका, चिटगांव, बंगाल, वर्मा, इंडोनेशिया, थाइलेंड, फिलीपीन आदि में फैल गये इनका साहित्य मगधी प्राकृत अर्थात् पाली में है। इसके कुछ समय बाद महायानी दो भागों में बंट गये 1.मंत्रयान 2.तंत्रयान। इसी समय लोगों की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये अनेक नये बौद्ध देवी देवताओं की रचना की गई। इसके बाद तंत्रयान भी कालचक्रयान और वज्रयान दो भागों में बंट गया।

राजू- बौद्ध धर्म के लगातार विभाजन होते रहने का कारण क्या है?
बाबा- इसके पीछे कारण यह था कि बुद्ध ने अपने दर्शन  में दुखवाद को स्थान दिया, जैसे दुख है, दुख का कारण है, दुख दूर होता है, दुख से दूर होने के उपाय हैं, आदि आदि। इस कारण से लोगों में इसमें अरुचि उत्पन्न होने लगी अतः भौतिक जगत के आकर्षण और वस्तुएं प्रदान करने वाले देवी देवताओं की कल्पना की गई और उनके लिये पूजा की विधियां कल्पित की गईं । इस तरह, बुद्ध के शून्यवाद को अतिसुखवाद में परिवर्तित कर दिया गया और कहा गया कि वोधिसत्व अवस्था में बुद्ध आपको संसार के सभी सुखों को देंगे।

नन्दू- लेकिन बौद्ध भी तो शक्तियों को मानते हैं?
बाबा- हाॅं, लोगों को यह बताया गया कि वोधिसत्व अवस्था, आत्मसाक्षात्कार के थोड़े पहले की अवस्था है, इसे पंच बुद्धशक्तियों से जोड़ा गया और अक्षोभ्य, अमोघसिद्धि, अमिताभ, वैरोचन और ध्यानीबुद्ध नाम दिये गये। वोधिसत्व को, बुद्धत्व की ओर बढ़ता हुआ या बुद्धत्व प्राप्त व्यक्ति जिसने स्वेच्छा से वाह्य संसार से अपना संबंध बनाये रखा है, के अर्थ में प्रचारित किया गया। प्रारंभ में बुद्धशक्तियां  पांच थीं परंतु समयानुसार इनकी संख्या बढ़ती गई। भारत में उग्रतारा, चीन में भ्रामरीतारा, तिब्बत में वज्रतारा, वज्रयोगनी, वज्रवाराही आदि नामों से इन बुद्धशक्तियों को प्रचारित किया गया। बाद में इनके साथ हारिति, मारिचि, शीतला, मनहार जैसी वैदिक देवियों को भी जोड़ दिया गया। इस तरह परस्पर अनेक देवीदेवताओं का आदान प्रदान शिवोत्तरकाल में होता रहा और लौकिक देवीदेवता जैसे मंगला चंडी, औलाई चंडी, बानबीबी, शंकराचंडी, सुवाचनी, भी जोड़ दी गईं और भय के कारण लोग अंधश्रद्धालु होकर पूजने लगे। पौराणिक काल में भी इन में से अधिकांश  को मान्यता दे दी गई। वास्तव में शिव की फिलासफी और पर्सनालिटी एक समान थी, उनके असाधारण व्यक्तित्व, क्रियाशीलता और कार्य करने की जादुई क्षमता ने उन्हें देवों का देव महादेव बना दिया । इसी कारण वे शिवोत्तर तंत्रकाल तक महादेव ही रहे। जैन और बौद्ध तंत्र काल ने इनकी मूर्ति पर अपना अपना प्रभाव डाला और नया आकार दे दिया। पौराणिक काल में इन्हें जनेऊ पहनाया गया जबकि शिव अपने काल में सर्पो की माला ही पहनते थे। स्पष्ट है कि इन कल्पित देवी देेवताओं की मान्यता नहीं हो पाती यदि उन्हें कहानियों के द्वारा शिव से संबंधित न किया जाता ।