79 बाबा की क्लास ( शिव. 4)
रवि- शिव आज से सात हजार वर्ष पहले धरती पर थे और पौराणिक धर्म जिसने आज के समय में अपनी कहानियों से समाज को जकड़ रखा है तेरह सौ वर्ष पहले आया तो इस बीच के छै हजार वर्षों में क्या किसी ने शिव को याद नहीं किया?
बाबा- शिव तो जन जन के हृदय में महासंभूति के रूप में प्रारंभ से ही स्थापित हो चुके थे परंतु उनके बाद लिपि के अनुसंधान हो जाने से भोजपत्र पर लिखना प्रारंभ हुआ और समय समय पर आये विद्वानों ने अपने अपने दार्शनिक सिद्वान्तों से लोगों का ध्यान बाॅंटना प्रारंभ कर दिया। इन विद्वानों में इतनी लंबी अवधि में क्रमशः महर्षि कपिल ने सांख्य, पतंजली ने योग, कणाद ने वैशेषिक, जैमिनी ने पूर्व मीमांसा, बादरायण व्यास ने उत्तर मीमांसा, इसी के समर्थन में गौड़पाद, गोविन्दपाद, शंकराचार्य आदि ने मायावाद, बृहस्पति अर्थात् चार्वाक ने भोगवादी सिद्धान्त, वर्धमान महावीर ने महानिर्वाणवाद या कर्मनिर्वाण , गौतमबुद्ध ने ज्ञाननिर्वाण, आदि का प्रतिपादन किया जिन से शिव के द्वारा दी गयी मूल शिक्षायें इनके आधार में नीव के पत्थर की तरह दबती चली गयीं और आज का प्रदर्शनवाद और भौतिकवाद लोगों के मन और मस्तिष्क में छा गया।
चंदू- क्या यह सभी सिद्धान्त आज कल प्रभावी हैं?
बाबा- भारत में बौद्ध धर्म का प्रभाव घटने और पौराणिक धर्म के प्रभावी होने के समय विभिन्न सिद्धान्तों और मतवादों को पौराणिक कल्ट में पांच विभागों में बाॅंट दिया गया वे हैं, शिवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, सौराचार, और गणपत्याचार। तत्कालीन बंगाल के राजकुमार मत्स्येन्द्रनाथ, नाथ कल्ट के अनुयायी थे अतः इनके समय बौद्ध और जैन धर्म में उपरोक्त पांच उपविभागों में बहुत परिवर्तन हुये। महाराष्ट्र में गणपत्याचार (गणेश केन्द्रित), लगभग इसी समय बंगाल में शाक्ताचार (जिसमें पशु बलि का विधान किया गया), दक्षिण भारत में शिवाचार और शेष भारत में वैष्णवाचार उदित हुआ। सेक्डोनियन ब्राह्मणों ने सौराचार अपनाया क्योंकि वे सूर्य को ही प्रधानता देते थे और ज्योतिष का कार्य करते थे, ये लोग जहां भी रहे सूर्य मंदिर बनवाये। सूर्य देवता अफगानियों की तरह ढीले पाजामा जैकेट पहने सिर पर टोपी और हाथ में रोजरी लिये दिखाये गये हैं।
राजू- परंतु आज कल तो पौराणिक धर्म के सिद्धान्तों का ही बोलबाला है जिन्हें जगद गुरु शंकराचार्य के द्वारा प्रतिपादित किया गया कहा जाता है और उन्हें भगवान शिव का अवतार माना गया है?
बाबा-हाॅं बौद्ध और जैन धर्म का प्रभाव घटने और पौराणिक धर्म का प्रभाव बढ़ने के बीच के संधिकाल में शंकराचार्य का उद्भव हुआ जिन्होंने इन पांचों विभागों को एकीकरण करने का कार्य किया। इन्हें शिव का अवतार घोषित किया गया क्योंकि शिव के नाम बि ना उन्हें शायद महत्व कम मिलता। शिव का अवतार कहा जाना ही प्रकट करता है कि किसी भी नये सिद्धान्त को जनसामान्य से मान्यता दिलाने के लिये शिव से जोड़े बिना संभव नहीं है। शिव की दिव्यता इसी से सिद्ध हो जाती है।
नन्दू- परंतु ये सभी अपने अपने को श्रेष्ठ कहते हुए जन सामान्य के बीच मतभेद और वैमनस्य तो फैला रहे हैं, वे सभी अपने अपने धर्म प्रवर्तकों को ही देवता और भगवान कहते हैं?
बाबा- जब किसी का व्यक्तित्व और दर्शन पूर्णतः एक समान हो जाते हैं तो वह देवता हो जाता है। ‘‘द्योतते क्रीडते यस्मात् उदयते द्योतते दिवि, तस्मात् देव इति प्रोक्तः स्तूयते सर्व देवतैः।‘‘ अर्थात् ब्रह्मांड के नाभिक से उत्सर्जित होने वाले जीवन के अनंत आकार जो समग्र ब्रह्मांड में गतिशील हैं और प्रत्येक अस्तित्व के भीतर रहकर सबको प्रभावित करते हैं, देवता कहलाते हैं। इन प्रवर्तकों को इस परिभाषा के अनुसार जाॅंच करने पर यदि सही लगता है तो वे देवता कहला सकते हैं अन्यथा नहीं। चूंकि शिव का आदर्श उनके जीवन से विलकुल एकीकृत है अतः इस परिभाषा के अनुसार उन्हें देवता कहा जाना सार्थक है। परंतु शिव के व्यक्तित्व के अनुसार वह तो समग्र देवताओं के समाहार हैं अतः देवता शब्द तो उनके लिये बहुत छोटा लगता हैं, वे तो देवताओं के भी देवता हैं अतः महादेव कहलाते हैं।
इंदु- शाक्ताचार में तो केवल देवीशक्ति को ही प्रधानता दी गयी है?
बाबा- जब ब्रह्मांड के नाभिक से कोई रचनात्मक तरंग उत्सर्जित होती है तो वह अपने संकोच विकासी स्वरूप के साथ विकसित होने के लिये प्रमुख रूप से दो प्रकार के बलों का सहारा लेती है। 1. चितिशक्ति 2. कालिकाशक्ति। वास्तव में पहला बल उसे आधार जिसे हम ‘‘स्पेस‘‘ कहते हैं, देता है और दूसरा बल ‘‘टाइम‘‘ अर्थात् कालचक्र में बांधता है, इसके बाद ही उस तरंग का स्वरूप आकार पाता है। ध्यान रहे इस कालिकाशक्ति का तथाकथित कालीदेवी से कोई संबंध नहीं है, काल ( eternal time factor ) के माध्यम से अपनी क्रियाशीलता बनाये रखने के कारण ही इसे कालिकाशक्ति नाम दिया गया है।
चंदू- तो ये काली देवी क्या हैं?
बाबा- शिव की तीन पत्नियों में से एक का नाम काली अवश्य था जो अस्ट्रिको मंगोलो नीग्रोइड अर्थात अनार्य कन्या थी और उनका वैसा आकार नहीं था जैसा आज कल दिखाया जाता है। शिव के साथ जुड़े तथाकथित देवी देवता पश्चातवर्ती हैं, 7000 वर्ष पहले वे शिव के समय नहीं थे। वैदिक काल में इंद्र, अग्नि, वरुण आदि को देवता कहा गया है परंतु मूर्तियों द्वारा उनकी पूजा नहीं की जाती थी, यज्ञाहुतियों में ही आर्य उन्हें स्मरण करते थे। परमब्रह्म की भी मूर्ति के रूप में पूजा नहीं होती थी। वेद में कहा गया है ईश्वरस्य प्रतिमा नास्ति। प्रतिमा का अर्थ है ‘‘डुपलीकेट‘‘ अर्थात् मूल आकार के समान। चूंकि परमपुरुष के समान अन्य कोई चीज है ही नहीं अतः उसकी मूर्ति हो ही नहीं सकती। शिव के समय अनेक कालशक्तियां स्वीकृत थीं पर मूर्तियां नहीं । शिव के बहुत बाद जैन और बौद्ध धर्म के प्रभाव में विभिन्न देवी देवताओं और उनकी मूर्तियों को बनाया जाने लगा। शिवोत्तर काल में ही बुद्ध और जैन तंत्र के प्रभाव से शिवतंत्र का रूपान्तरण हुआ है।
रवि- परंतु बौद्ध धर्म तो अनेक देशों में आज भी बहुत प्रभावी है?
बाबा- हाॅं बुद्ध के 300 वर्ष बाद बौद्ध धर्म दो भागों में 1. महासंघम 2. स्थाविरवादी या थेरावादी में बंट गया। इसके कुछ समय बाद एक भाग और हुआ जिसे सम्मितीय कहा गया पर वह अधिक नहीं टिक पाया। महासंघिक अपने को महायानी और थेरावादी हीनयानी कहने लगे। महायानी, तिब्बत, चीन, मंगोलिया, अफगानिस्तान, कश्मीर , नेपाल, भूटान, सिक्किम, नेफा, दक्षिणपूर्व रूस, जापान, कोरिया आदि में फैल गये, इनका साहित्य सामान्य संस्कृत में है जबकि बुद्ध ने अपने उपदेश पाली भाषा में दिये हैं। हीनयानी, श्रीलंका, चिटगांव, बंगाल, वर्मा, इंडोनेशिया, थाइलेंड, फिलीपीन आदि में फैल गये इनका साहित्य मगधी प्राकृत अर्थात् पाली में है। इसके कुछ समय बाद महायानी दो भागों में बंट गये 1.मंत्रयान 2.तंत्रयान। इसी समय लोगों की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये अनेक नये बौद्ध देवी देवताओं की रचना की गई। इसके बाद तंत्रयान भी कालचक्रयान और वज्रयान दो भागों में बंट गया।
राजू- बौद्ध धर्म के लगातार विभाजन होते रहने का कारण क्या है?
बाबा- इसके पीछे कारण यह था कि बुद्ध ने अपने दर्शन में दुखवाद को स्थान दिया, जैसे दुख है, दुख का कारण है, दुख दूर होता है, दुख से दूर होने के उपाय हैं, आदि आदि। इस कारण से लोगों में इसमें अरुचि उत्पन्न होने लगी अतः भौतिक जगत के आकर्षण और वस्तुएं प्रदान करने वाले देवी देवताओं की कल्पना की गई और उनके लिये पूजा की विधियां कल्पित की गईं । इस तरह, बुद्ध के शून्यवाद को अतिसुखवाद में परिवर्तित कर दिया गया और कहा गया कि वोधिसत्व अवस्था में बुद्ध आपको संसार के सभी सुखों को देंगे।
नन्दू- लेकिन बौद्ध भी तो शक्तियों को मानते हैं?
बाबा- हाॅं, लोगों को यह बताया गया कि वोधिसत्व अवस्था, आत्मसाक्षात्कार के थोड़े पहले की अवस्था है, इसे पंच बुद्धशक्तियों से जोड़ा गया और अक्षोभ्य, अमोघसिद्धि, अमिताभ, वैरोचन और ध्यानीबुद्ध नाम दिये गये। वोधिसत्व को, बुद्धत्व की ओर बढ़ता हुआ या बुद्धत्व प्राप्त व्यक्ति जिसने स्वेच्छा से वाह्य संसार से अपना संबंध बनाये रखा है, के अर्थ में प्रचारित किया गया। प्रारंभ में बुद्धशक्तियां पांच थीं परंतु समयानुसार इनकी संख्या बढ़ती गई। भारत में उग्रतारा, चीन में भ्रामरीतारा, तिब्बत में वज्रतारा, वज्रयोगनी, वज्रवाराही आदि नामों से इन बुद्धशक्तियों को प्रचारित किया गया। बाद में इनके साथ हारिति, मारिचि, शीतला, मनहार जैसी वैदिक देवियों को भी जोड़ दिया गया। इस तरह परस्पर अनेक देवीदेवताओं का आदान प्रदान शिवोत्तरकाल में होता रहा और लौकिक देवीदेवता जैसे मंगला चंडी, औलाई चंडी, बानबीबी, शंकराचंडी, सुवाचनी, भी जोड़ दी गईं और भय के कारण लोग अंधश्रद्धालु होकर पूजने लगे। पौराणिक काल में भी इन में से अधिकांश को मान्यता दे दी गई। वास्तव में शिव की फिलासफी और पर्सनालिटी एक समान थी, उनके असाधारण व्यक्तित्व, क्रियाशीलता और कार्य करने की जादुई क्षमता ने उन्हें देवों का देव महादेव बना दिया । इसी कारण वे शिवोत्तर तंत्रकाल तक महादेव ही रहे। जैन और बौद्ध तंत्र काल ने इनकी मूर्ति पर अपना अपना प्रभाव डाला और नया आकार दे दिया। पौराणिक काल में इन्हें जनेऊ पहनाया गया जबकि शिव अपने काल में सर्पो की माला ही पहनते थे। स्पष्ट है कि इन कल्पित देवी देेवताओं की मान्यता नहीं हो पाती यदि उन्हें कहानियों के द्वारा शिव से संबंधित न किया जाता ।
रवि- शिव आज से सात हजार वर्ष पहले धरती पर थे और पौराणिक धर्म जिसने आज के समय में अपनी कहानियों से समाज को जकड़ रखा है तेरह सौ वर्ष पहले आया तो इस बीच के छै हजार वर्षों में क्या किसी ने शिव को याद नहीं किया?
बाबा- शिव तो जन जन के हृदय में महासंभूति के रूप में प्रारंभ से ही स्थापित हो चुके थे परंतु उनके बाद लिपि के अनुसंधान हो जाने से भोजपत्र पर लिखना प्रारंभ हुआ और समय समय पर आये विद्वानों ने अपने अपने दार्शनिक सिद्वान्तों से लोगों का ध्यान बाॅंटना प्रारंभ कर दिया। इन विद्वानों में इतनी लंबी अवधि में क्रमशः महर्षि कपिल ने सांख्य, पतंजली ने योग, कणाद ने वैशेषिक, जैमिनी ने पूर्व मीमांसा, बादरायण व्यास ने उत्तर मीमांसा, इसी के समर्थन में गौड़पाद, गोविन्दपाद, शंकराचार्य आदि ने मायावाद, बृहस्पति अर्थात् चार्वाक ने भोगवादी सिद्धान्त, वर्धमान महावीर ने महानिर्वाणवाद या कर्मनिर्वाण , गौतमबुद्ध ने ज्ञाननिर्वाण, आदि का प्रतिपादन किया जिन से शिव के द्वारा दी गयी मूल शिक्षायें इनके आधार में नीव के पत्थर की तरह दबती चली गयीं और आज का प्रदर्शनवाद और भौतिकवाद लोगों के मन और मस्तिष्क में छा गया।
चंदू- क्या यह सभी सिद्धान्त आज कल प्रभावी हैं?
बाबा- भारत में बौद्ध धर्म का प्रभाव घटने और पौराणिक धर्म के प्रभावी होने के समय विभिन्न सिद्धान्तों और मतवादों को पौराणिक कल्ट में पांच विभागों में बाॅंट दिया गया वे हैं, शिवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, सौराचार, और गणपत्याचार। तत्कालीन बंगाल के राजकुमार मत्स्येन्द्रनाथ, नाथ कल्ट के अनुयायी थे अतः इनके समय बौद्ध और जैन धर्म में उपरोक्त पांच उपविभागों में बहुत परिवर्तन हुये। महाराष्ट्र में गणपत्याचार (गणेश केन्द्रित), लगभग इसी समय बंगाल में शाक्ताचार (जिसमें पशु बलि का विधान किया गया), दक्षिण भारत में शिवाचार और शेष भारत में वैष्णवाचार उदित हुआ। सेक्डोनियन ब्राह्मणों ने सौराचार अपनाया क्योंकि वे सूर्य को ही प्रधानता देते थे और ज्योतिष का कार्य करते थे, ये लोग जहां भी रहे सूर्य मंदिर बनवाये। सूर्य देवता अफगानियों की तरह ढीले पाजामा जैकेट पहने सिर पर टोपी और हाथ में रोजरी लिये दिखाये गये हैं।
राजू- परंतु आज कल तो पौराणिक धर्म के सिद्धान्तों का ही बोलबाला है जिन्हें जगद गुरु शंकराचार्य के द्वारा प्रतिपादित किया गया कहा जाता है और उन्हें भगवान शिव का अवतार माना गया है?
बाबा-हाॅं बौद्ध और जैन धर्म का प्रभाव घटने और पौराणिक धर्म का प्रभाव बढ़ने के बीच के संधिकाल में शंकराचार्य का उद्भव हुआ जिन्होंने इन पांचों विभागों को एकीकरण करने का कार्य किया। इन्हें शिव का अवतार घोषित किया गया क्योंकि शिव के नाम बि ना उन्हें शायद महत्व कम मिलता। शिव का अवतार कहा जाना ही प्रकट करता है कि किसी भी नये सिद्धान्त को जनसामान्य से मान्यता दिलाने के लिये शिव से जोड़े बिना संभव नहीं है। शिव की दिव्यता इसी से सिद्ध हो जाती है।
नन्दू- परंतु ये सभी अपने अपने को श्रेष्ठ कहते हुए जन सामान्य के बीच मतभेद और वैमनस्य तो फैला रहे हैं, वे सभी अपने अपने धर्म प्रवर्तकों को ही देवता और भगवान कहते हैं?
बाबा- जब किसी का व्यक्तित्व और दर्शन पूर्णतः एक समान हो जाते हैं तो वह देवता हो जाता है। ‘‘द्योतते क्रीडते यस्मात् उदयते द्योतते दिवि, तस्मात् देव इति प्रोक्तः स्तूयते सर्व देवतैः।‘‘ अर्थात् ब्रह्मांड के नाभिक से उत्सर्जित होने वाले जीवन के अनंत आकार जो समग्र ब्रह्मांड में गतिशील हैं और प्रत्येक अस्तित्व के भीतर रहकर सबको प्रभावित करते हैं, देवता कहलाते हैं। इन प्रवर्तकों को इस परिभाषा के अनुसार जाॅंच करने पर यदि सही लगता है तो वे देवता कहला सकते हैं अन्यथा नहीं। चूंकि शिव का आदर्श उनके जीवन से विलकुल एकीकृत है अतः इस परिभाषा के अनुसार उन्हें देवता कहा जाना सार्थक है। परंतु शिव के व्यक्तित्व के अनुसार वह तो समग्र देवताओं के समाहार हैं अतः देवता शब्द तो उनके लिये बहुत छोटा लगता हैं, वे तो देवताओं के भी देवता हैं अतः महादेव कहलाते हैं।
इंदु- शाक्ताचार में तो केवल देवीशक्ति को ही प्रधानता दी गयी है?
बाबा- जब ब्रह्मांड के नाभिक से कोई रचनात्मक तरंग उत्सर्जित होती है तो वह अपने संकोच विकासी स्वरूप के साथ विकसित होने के लिये प्रमुख रूप से दो प्रकार के बलों का सहारा लेती है। 1. चितिशक्ति 2. कालिकाशक्ति। वास्तव में पहला बल उसे आधार जिसे हम ‘‘स्पेस‘‘ कहते हैं, देता है और दूसरा बल ‘‘टाइम‘‘ अर्थात् कालचक्र में बांधता है, इसके बाद ही उस तरंग का स्वरूप आकार पाता है। ध्यान रहे इस कालिकाशक्ति का तथाकथित कालीदेवी से कोई संबंध नहीं है, काल ( eternal time factor ) के माध्यम से अपनी क्रियाशीलता बनाये रखने के कारण ही इसे कालिकाशक्ति नाम दिया गया है।
चंदू- तो ये काली देवी क्या हैं?
बाबा- शिव की तीन पत्नियों में से एक का नाम काली अवश्य था जो अस्ट्रिको मंगोलो नीग्रोइड अर्थात अनार्य कन्या थी और उनका वैसा आकार नहीं था जैसा आज कल दिखाया जाता है। शिव के साथ जुड़े तथाकथित देवी देवता पश्चातवर्ती हैं, 7000 वर्ष पहले वे शिव के समय नहीं थे। वैदिक काल में इंद्र, अग्नि, वरुण आदि को देवता कहा गया है परंतु मूर्तियों द्वारा उनकी पूजा नहीं की जाती थी, यज्ञाहुतियों में ही आर्य उन्हें स्मरण करते थे। परमब्रह्म की भी मूर्ति के रूप में पूजा नहीं होती थी। वेद में कहा गया है ईश्वरस्य प्रतिमा नास्ति। प्रतिमा का अर्थ है ‘‘डुपलीकेट‘‘ अर्थात् मूल आकार के समान। चूंकि परमपुरुष के समान अन्य कोई चीज है ही नहीं अतः उसकी मूर्ति हो ही नहीं सकती। शिव के समय अनेक कालशक्तियां स्वीकृत थीं पर मूर्तियां नहीं । शिव के बहुत बाद जैन और बौद्ध धर्म के प्रभाव में विभिन्न देवी देवताओं और उनकी मूर्तियों को बनाया जाने लगा। शिवोत्तर काल में ही बुद्ध और जैन तंत्र के प्रभाव से शिवतंत्र का रूपान्तरण हुआ है।
रवि- परंतु बौद्ध धर्म तो अनेक देशों में आज भी बहुत प्रभावी है?
बाबा- हाॅं बुद्ध के 300 वर्ष बाद बौद्ध धर्म दो भागों में 1. महासंघम 2. स्थाविरवादी या थेरावादी में बंट गया। इसके कुछ समय बाद एक भाग और हुआ जिसे सम्मितीय कहा गया पर वह अधिक नहीं टिक पाया। महासंघिक अपने को महायानी और थेरावादी हीनयानी कहने लगे। महायानी, तिब्बत, चीन, मंगोलिया, अफगानिस्तान, कश्मीर , नेपाल, भूटान, सिक्किम, नेफा, दक्षिणपूर्व रूस, जापान, कोरिया आदि में फैल गये, इनका साहित्य सामान्य संस्कृत में है जबकि बुद्ध ने अपने उपदेश पाली भाषा में दिये हैं। हीनयानी, श्रीलंका, चिटगांव, बंगाल, वर्मा, इंडोनेशिया, थाइलेंड, फिलीपीन आदि में फैल गये इनका साहित्य मगधी प्राकृत अर्थात् पाली में है। इसके कुछ समय बाद महायानी दो भागों में बंट गये 1.मंत्रयान 2.तंत्रयान। इसी समय लोगों की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये अनेक नये बौद्ध देवी देवताओं की रचना की गई। इसके बाद तंत्रयान भी कालचक्रयान और वज्रयान दो भागों में बंट गया।
राजू- बौद्ध धर्म के लगातार विभाजन होते रहने का कारण क्या है?
बाबा- इसके पीछे कारण यह था कि बुद्ध ने अपने दर्शन में दुखवाद को स्थान दिया, जैसे दुख है, दुख का कारण है, दुख दूर होता है, दुख से दूर होने के उपाय हैं, आदि आदि। इस कारण से लोगों में इसमें अरुचि उत्पन्न होने लगी अतः भौतिक जगत के आकर्षण और वस्तुएं प्रदान करने वाले देवी देवताओं की कल्पना की गई और उनके लिये पूजा की विधियां कल्पित की गईं । इस तरह, बुद्ध के शून्यवाद को अतिसुखवाद में परिवर्तित कर दिया गया और कहा गया कि वोधिसत्व अवस्था में बुद्ध आपको संसार के सभी सुखों को देंगे।
नन्दू- लेकिन बौद्ध भी तो शक्तियों को मानते हैं?
बाबा- हाॅं, लोगों को यह बताया गया कि वोधिसत्व अवस्था, आत्मसाक्षात्कार के थोड़े पहले की अवस्था है, इसे पंच बुद्धशक्तियों से जोड़ा गया और अक्षोभ्य, अमोघसिद्धि, अमिताभ, वैरोचन और ध्यानीबुद्ध नाम दिये गये। वोधिसत्व को, बुद्धत्व की ओर बढ़ता हुआ या बुद्धत्व प्राप्त व्यक्ति जिसने स्वेच्छा से वाह्य संसार से अपना संबंध बनाये रखा है, के अर्थ में प्रचारित किया गया। प्रारंभ में बुद्धशक्तियां पांच थीं परंतु समयानुसार इनकी संख्या बढ़ती गई। भारत में उग्रतारा, चीन में भ्रामरीतारा, तिब्बत में वज्रतारा, वज्रयोगनी, वज्रवाराही आदि नामों से इन बुद्धशक्तियों को प्रचारित किया गया। बाद में इनके साथ हारिति, मारिचि, शीतला, मनहार जैसी वैदिक देवियों को भी जोड़ दिया गया। इस तरह परस्पर अनेक देवीदेवताओं का आदान प्रदान शिवोत्तरकाल में होता रहा और लौकिक देवीदेवता जैसे मंगला चंडी, औलाई चंडी, बानबीबी, शंकराचंडी, सुवाचनी, भी जोड़ दी गईं और भय के कारण लोग अंधश्रद्धालु होकर पूजने लगे। पौराणिक काल में भी इन में से अधिकांश को मान्यता दे दी गई। वास्तव में शिव की फिलासफी और पर्सनालिटी एक समान थी, उनके असाधारण व्यक्तित्व, क्रियाशीलता और कार्य करने की जादुई क्षमता ने उन्हें देवों का देव महादेव बना दिया । इसी कारण वे शिवोत्तर तंत्रकाल तक महादेव ही रहे। जैन और बौद्ध तंत्र काल ने इनकी मूर्ति पर अपना अपना प्रभाव डाला और नया आकार दे दिया। पौराणिक काल में इन्हें जनेऊ पहनाया गया जबकि शिव अपने काल में सर्पो की माला ही पहनते थे। स्पष्ट है कि इन कल्पित देवी देेवताओं की मान्यता नहीं हो पाती यदि उन्हें कहानियों के द्वारा शिव से संबंधित न किया जाता ।
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