77 बाबा की क्लास ( शिव. 2 )
रवि- वे ऋषि गण कौन थे जो शिव से सबसे पहले प्रभावित हुए? क्या शिव ने उन्हें अपने सामाजिक उत्थान के कार्य में लगाया?
बाबा- वे ऋषि थे भरत, धनवन्तरि, विश्वकर्मा, नन्दी आदि। शिव ने इन्हें उनकी रुचि के अनुसार क्रमशः संगीत, वैद्यकशास्त्र, भवन निर्माण शिल्प अर्थात् स्थपत्य कला और कृषि तथा पशुपालन करने की विद्या में पारंगत किया और फिर जनसाधारण को सिखाने के कार्य में उन्हें लगा दिया।
इंदु- तो क्या संगीत अर्थात् नृत्य, गीत और वाद्य यह सब शिव की देन है?
बाबा- हाॅं, शिव ने निरीक्षण कर सात प्रकार के प्राणियों से संगीत के स्वरों को जोड़ा जैसे, मोर षड़ज, बैल ऋषभ, बकरा गंधार, घोड़ा मध्यम, कोयल पंचम, गधा धैवत्य, और हाथी निषाद। इनके प्रथम अक्षर लेकर स्वर सप्तक बनाया, सा रे ग म प ध नि आदि। इस प्रकार शिव ने समाज को संगीत अर्थात् नृत्य, गीत और वाद्य दिया। उन्होंने श्वाश , प्रश्वाश आधारित लय के साथ मुद्रा को जोड़ा और अनेक प्रकार की नृत्य मुद्राओं का अनुसंधान किया। वैदिक काल में छंद था पर मुद्रा नहीं, वैदिक ज्ञान के 6 भाग थे, छंद, कल्प, निरुक्त, ज्योतिष, व्याकरण, आयुर्वेद या धनुर्वेद। उन्होंने महर्षि भरत को संगीत विद्या में प्रवीण कर इच्छुक व्यक्तियों को संगीत की शिक्षा का कार्य सौंपा।
नन्दू- वैदिक युग में तो बोलचाल में भी गेयता रहती थी, क्या उसमें भी छन्दों का उपयोग होता था?
बाबा- वैदिक युग में सात प्रकार के छंदों में वार्ता और आराधना करने की पृथा थी वे गायत्री, उष्निक, त्रिष्टुप, अनुष्टुप, जगति, ब्रहति और पंक्ति के नाम से जाने जाते हैं। ऋग्वेद के तीसरे मंडल के दसवें सूक्त में परम पुरुष के लिये लिखित सावित्र ऋक गायत्रीछंद में लिखा गया है। लोग गलती से उसे गायत्री मंत्र कहते हैं, यद्यपि प्रार्थना के रूप में वह सर्वोत्तम है।
राजू- शिव ने किस धर्म की स्थापना की?
बाबा- शिव ने ही सर्वप्रथम धर्म की अवधारणा को स्थापित किया जिसके अनुसार नैतिकता और आध्यात्मिक अभ्यास के द्वारा परम सत्ता को पाने की ललक ही वास्तविक धर्म है। तुम लोगों को शायद मालूम हो कि वेदों में किसी धर्म विशेष का उल्लेख नहीं है, उनमें विभिन्न ऋषियों की शिक्षाओं का संग्रह है अतः समय के अनुसार उनकी शिक्षायें बदलती रही हैं। ऋग्वेद का आर्ष धर्म अर्थात् ऋषियों का कथन यजुर्वेद से भिन्न है। मंत्रों का उच्चारण और जप क्रिया भी भिन्न भिन्न है। बंगाली यजुर्वेदी तथा गुजराती ऋग्वेदीय विधियों का पालन करते हैं।
चंदू- तो फिर शैव धर्म क्या है?
बाबा- आर्यों और अनार्यों की लड़ाई में अनार्यों को दास बनाकर उन्हें ‘ओम‘ शब्द के उच्चारण करने पर प्रतिबंध लगाया गया था। महिलायें भी ओम के स्थान पर केवल नमः कह सकतीं थीं। शिव ने इस प्रतिबंध को हटाया और यज्ञों में पशुओं की आहुति देने का विरोध किया। उन्होंने अहिंसा तथा शांति का मार्ग बतलाया जो कि आर्यों के ‘ज्यो और सोसियो सेंटीमेंट‘ (geo and socio sentiments) से ऊपर था। इसे ही शैव धर्म कहा गया है। विखरे हुये तंत्रयोग को उन्होंने एकीकृत किया और उसके व्यावहारिक पक्ष का महत्व समझाते हुये आव्जेक्टिव और सव्जेक्टिव संसार के वीच आदरर्श संतुलन बनाने की व्यवस्था की। इसमें किसी भी वर्णजाति की अवहेलना नहीं की गई, शैव धर्म परमपुरुष के साथ प्रीति करने का धर्म है। इसमें कर्मकांडीय विधियों अथवा घी या प्राणियों की आहुतियों का कोई विधान नहीं है।
इंदु- लेकिन शिव के साथ असुरों अर्थात् राक्षसों और भूतों के समूह को दर्शाया जाता है, यह क्या है? शिव को भूतनाथ भी कहा जाता है?
बाबा- असुर कोई डरावनी सूरत के 50 फीट लंबे या बड़े बड़े नाखूनों और दाॅंतों वाले अर्थात् ‘एबनार्मल‘ नहीं थे, ये सेंट्रल एशिया के असीरिया देश के निवासी थे। ये अनार्य थे अतः आर्य इनसे घृणा करते थे और असीरिया के होने के कारण उन्हें असुर कहते थे। अभी भी पलामू जिले में इनकी समाज पाई जाती है। शिव ने इनकी रक्षा करने की जिम्मेवारी ली और अपने पास ही रखा और बताया कि सभी परमपुरुष की संताने हैं और सब को जीने का अधिकार है । वे लोग शारीरिक रूप से कमजोर और दुबले पतले होते थे इसलिये कहा जाने लगा कि शिव के आस पास तो भूत प्रेत रहते हैं। तुम लोग जानते हो कि भूतों का कोई अस्तित्व नहीं है। भूत का अर्थ है जो कुछ भी जड़ या चेतन भौतिक अस्तित्व में आया है वह भूत है, चूंकि शिव ने न केवल मनुष्यों वरन् पेड़ पौधों और पशुओं को भी संरक्षण दिया था अतः उन्हें आदर से लोग पशुपतिनाथ या भूतनाथ कहने लगे । शिव सबको आदर्श जीवन जीने में सहायता करने के लिये सदा तत्पर रहते थे।
रवि- शिव का अन्य महत्वपूर्ण अनुसंधान क्या है?
बाबा- शि व ने जीवन का कोई भी क्षेत्र अनछुआ नहीं छोड़ा, उन्होंने देखा कि जीवन श्वास की आवृत्तियों से बंधा हुआ है। ये प्रतिदिन 21000 से 25000 तक होती हैं जो हर व्यक्ति में बदलती रहती हैं। मनुष्य की श्वास लेने की पद्धति, मन, बुद्धि और आत्मा पर प्रभाव डालती है। इडा, पिंगला, और सुषुम्ना स्वरों की पहचान और किस स्वर में जगत के किस कार्य को करना चाहिये और आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान आदि कब करना चाहिये यह सब स्वरविज्ञान या स्वरोदय कहलाता है। शिव से पहले यह किसी को ज्ञात नहीं था, बद्ध कुंभक, शून्य कुंभक आदि इसी के अन्तर्गत हैं। उन्होंने बताया कि जब इडा सक्रिय होती है तो वायां स्वर, जब पिंगला सक्रिय होती है तो दांया स्वर और सुषुम्ना के सक्रिय होने पर दोनों नासिकाओं से स्वर चलते हैं। उन्होंने स्वर विज्ञान के नियमानुसार छंद और मुद्रा के साथ नृत्य करना सिखाया अतः इससे न केवल स्वयं करने वालों को वरन् दर्शकों को भी लाभ पहुंचा।
राजू- क्या उन्होंने कोई ऐसी विधियों का भी अनुसंधान किया जिनसे प्राप्त होने वाला लाभ नृत्य, मुद्रा अथवा छंद से प्राप्त नहीं किया जा सकता?
बाबा- शिव ने अवलोकन किया कि मनुष्य शरीर में पायी जाने वाली अनेक ग्रंथियों को यदि उचित अभ्यास कराया जावे तो उनसे निकलने वाला हारमोन न केवल शरीर को वरन् आत्मा को भी लाभ देता है। परंतु कुछ ऐंसे ग्लेंड होते हैं जिन्हें नृत्य, मुद्रा और छंद से लाभ नहीं होता जैसे सोचना, याद करना आदि । अतः शिव ने तांडव नृत्य बनाया और पार्वती के सहयोग से महिलाओं के लिये कौषिकी नृत्य बनाया। तांडव में बहुत उछलना होता है, जब तक नर्तक जमीन से ऊपर होता है उसे अधिक लाभ मिलता है जमीन के संपर्क में आते ही यह लाभ शरीर में समा जाता है। अतः अधिक लाभ लेने के लिये अधिक देर तक जमीन से ऊपर रहना चाहिये। इस तरह छंद, मुद्रा और ग्रंथियों के उचित तालमेल से तांडव नृत्य दिया गया है जो ब्रेन के लिये एकमात्र एक्सरसाईज है जिसका न तो भूतकाल में कोई विकल्प था और न ही भविष्य में कोई विकल्प है।
इंदु- लेकिन ‘तांडव‘ को तो भयानक विनाश का समानार्थी बताया गया है?
बाबा- जिन्हें यथार्थता का ज्ञान नहीं है, वे इस प्रकार का प्रचार करते देखे गये हैं। ओखली और मूसल से जब धान से चावल निकाला जाता है तो वह बहुत उछलता है उसे ‘तंदुल‘ कहते हैं । तांडव नृत्य में भी बहुत उछल कूद करना पड़ती है। तांडव शब्द ‘तंदुल‘ से ही बना है। तुम लोगों को शायद ज्ञात हो कि संस्कृत में बिना पकाया गया चावल ‘तंदुल‘ तथा पकाया गया चावल ‘ओदन‘ कहलाता है। शुद्धोदन का अर्थ है जिसका पकाया गया चावल शुद्ध हो अर्थात् जो ईमानदारी से अपना भोजन कमाता हो। बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन था।
नन्दू- तांडव और कौशिकी नृत्यों से क्या लाभ हैं ? क्या सभी को इन्हें करना चाहिये?
बाबा- छंद, मुद्रा और ग्रंथियों के उचित तालमेल से तांडव नृत्य बनाया गया है जो ब्रेन के लिये एकमात्र भौतिक एक्सरसाईज है जिसका न तो भूतकाल में कोई विकल्प था और न ही भविष्य में कोई विकल्प है। सभी पुरुषों को इसे सीखकर अभ्यास करते रहना चाहिये इससे मन, शरीर और बुद्धि पर नियंत्रण करना सरल हो जाता है। कौशिकी में शरीर और मन के सूक्ष्म स्तरों को उचित पोषण मिलता है और उनकी क्रियाशीलता से मन बुद्धि और आत्मा के बीच सामंजस्य बनाये रखने में सरलता होती है। यह महिलाओं के लिये विशेष रूप से लाभदायी है।
इंदु- तो क्या तांडव पुरुषों और कौशिकी स्त्रियों के लिये निर्धारित है?
बाबा- पुरुष, तांडव और कौशिकी दोनो का अभ्यास नियमित रूप से कर सकते हैं परंतु कौशिकी केवल महिलाओं के लिये ही है। शिव ने इसे पार्वती के सहयोग से महिलाओं के हारमोनिक असंतुलन से होने वाले रोगों को दूर करने के लिये बनाया था। महिलायें यदि कौशिकी का नियमित अभ्यास करती हैं तो वे सदा निरोग रहेंगी।
रवि- वे ऋषि गण कौन थे जो शिव से सबसे पहले प्रभावित हुए? क्या शिव ने उन्हें अपने सामाजिक उत्थान के कार्य में लगाया?
बाबा- वे ऋषि थे भरत, धनवन्तरि, विश्वकर्मा, नन्दी आदि। शिव ने इन्हें उनकी रुचि के अनुसार क्रमशः संगीत, वैद्यकशास्त्र, भवन निर्माण शिल्प अर्थात् स्थपत्य कला और कृषि तथा पशुपालन करने की विद्या में पारंगत किया और फिर जनसाधारण को सिखाने के कार्य में उन्हें लगा दिया।
इंदु- तो क्या संगीत अर्थात् नृत्य, गीत और वाद्य यह सब शिव की देन है?
बाबा- हाॅं, शिव ने निरीक्षण कर सात प्रकार के प्राणियों से संगीत के स्वरों को जोड़ा जैसे, मोर षड़ज, बैल ऋषभ, बकरा गंधार, घोड़ा मध्यम, कोयल पंचम, गधा धैवत्य, और हाथी निषाद। इनके प्रथम अक्षर लेकर स्वर सप्तक बनाया, सा रे ग म प ध नि आदि। इस प्रकार शिव ने समाज को संगीत अर्थात् नृत्य, गीत और वाद्य दिया। उन्होंने श्वाश , प्रश्वाश आधारित लय के साथ मुद्रा को जोड़ा और अनेक प्रकार की नृत्य मुद्राओं का अनुसंधान किया। वैदिक काल में छंद था पर मुद्रा नहीं, वैदिक ज्ञान के 6 भाग थे, छंद, कल्प, निरुक्त, ज्योतिष, व्याकरण, आयुर्वेद या धनुर्वेद। उन्होंने महर्षि भरत को संगीत विद्या में प्रवीण कर इच्छुक व्यक्तियों को संगीत की शिक्षा का कार्य सौंपा।
नन्दू- वैदिक युग में तो बोलचाल में भी गेयता रहती थी, क्या उसमें भी छन्दों का उपयोग होता था?
बाबा- वैदिक युग में सात प्रकार के छंदों में वार्ता और आराधना करने की पृथा थी वे गायत्री, उष्निक, त्रिष्टुप, अनुष्टुप, जगति, ब्रहति और पंक्ति के नाम से जाने जाते हैं। ऋग्वेद के तीसरे मंडल के दसवें सूक्त में परम पुरुष के लिये लिखित सावित्र ऋक गायत्रीछंद में लिखा गया है। लोग गलती से उसे गायत्री मंत्र कहते हैं, यद्यपि प्रार्थना के रूप में वह सर्वोत्तम है।
राजू- शिव ने किस धर्म की स्थापना की?
बाबा- शिव ने ही सर्वप्रथम धर्म की अवधारणा को स्थापित किया जिसके अनुसार नैतिकता और आध्यात्मिक अभ्यास के द्वारा परम सत्ता को पाने की ललक ही वास्तविक धर्म है। तुम लोगों को शायद मालूम हो कि वेदों में किसी धर्म विशेष का उल्लेख नहीं है, उनमें विभिन्न ऋषियों की शिक्षाओं का संग्रह है अतः समय के अनुसार उनकी शिक्षायें बदलती रही हैं। ऋग्वेद का आर्ष धर्म अर्थात् ऋषियों का कथन यजुर्वेद से भिन्न है। मंत्रों का उच्चारण और जप क्रिया भी भिन्न भिन्न है। बंगाली यजुर्वेदी तथा गुजराती ऋग्वेदीय विधियों का पालन करते हैं।
चंदू- तो फिर शैव धर्म क्या है?
बाबा- आर्यों और अनार्यों की लड़ाई में अनार्यों को दास बनाकर उन्हें ‘ओम‘ शब्द के उच्चारण करने पर प्रतिबंध लगाया गया था। महिलायें भी ओम के स्थान पर केवल नमः कह सकतीं थीं। शिव ने इस प्रतिबंध को हटाया और यज्ञों में पशुओं की आहुति देने का विरोध किया। उन्होंने अहिंसा तथा शांति का मार्ग बतलाया जो कि आर्यों के ‘ज्यो और सोसियो सेंटीमेंट‘ (geo and socio sentiments) से ऊपर था। इसे ही शैव धर्म कहा गया है। विखरे हुये तंत्रयोग को उन्होंने एकीकृत किया और उसके व्यावहारिक पक्ष का महत्व समझाते हुये आव्जेक्टिव और सव्जेक्टिव संसार के वीच आदरर्श संतुलन बनाने की व्यवस्था की। इसमें किसी भी वर्णजाति की अवहेलना नहीं की गई, शैव धर्म परमपुरुष के साथ प्रीति करने का धर्म है। इसमें कर्मकांडीय विधियों अथवा घी या प्राणियों की आहुतियों का कोई विधान नहीं है।
इंदु- लेकिन शिव के साथ असुरों अर्थात् राक्षसों और भूतों के समूह को दर्शाया जाता है, यह क्या है? शिव को भूतनाथ भी कहा जाता है?
बाबा- असुर कोई डरावनी सूरत के 50 फीट लंबे या बड़े बड़े नाखूनों और दाॅंतों वाले अर्थात् ‘एबनार्मल‘ नहीं थे, ये सेंट्रल एशिया के असीरिया देश के निवासी थे। ये अनार्य थे अतः आर्य इनसे घृणा करते थे और असीरिया के होने के कारण उन्हें असुर कहते थे। अभी भी पलामू जिले में इनकी समाज पाई जाती है। शिव ने इनकी रक्षा करने की जिम्मेवारी ली और अपने पास ही रखा और बताया कि सभी परमपुरुष की संताने हैं और सब को जीने का अधिकार है । वे लोग शारीरिक रूप से कमजोर और दुबले पतले होते थे इसलिये कहा जाने लगा कि शिव के आस पास तो भूत प्रेत रहते हैं। तुम लोग जानते हो कि भूतों का कोई अस्तित्व नहीं है। भूत का अर्थ है जो कुछ भी जड़ या चेतन भौतिक अस्तित्व में आया है वह भूत है, चूंकि शिव ने न केवल मनुष्यों वरन् पेड़ पौधों और पशुओं को भी संरक्षण दिया था अतः उन्हें आदर से लोग पशुपतिनाथ या भूतनाथ कहने लगे । शिव सबको आदर्श जीवन जीने में सहायता करने के लिये सदा तत्पर रहते थे।
रवि- शिव का अन्य महत्वपूर्ण अनुसंधान क्या है?
बाबा- शि व ने जीवन का कोई भी क्षेत्र अनछुआ नहीं छोड़ा, उन्होंने देखा कि जीवन श्वास की आवृत्तियों से बंधा हुआ है। ये प्रतिदिन 21000 से 25000 तक होती हैं जो हर व्यक्ति में बदलती रहती हैं। मनुष्य की श्वास लेने की पद्धति, मन, बुद्धि और आत्मा पर प्रभाव डालती है। इडा, पिंगला, और सुषुम्ना स्वरों की पहचान और किस स्वर में जगत के किस कार्य को करना चाहिये और आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान आदि कब करना चाहिये यह सब स्वरविज्ञान या स्वरोदय कहलाता है। शिव से पहले यह किसी को ज्ञात नहीं था, बद्ध कुंभक, शून्य कुंभक आदि इसी के अन्तर्गत हैं। उन्होंने बताया कि जब इडा सक्रिय होती है तो वायां स्वर, जब पिंगला सक्रिय होती है तो दांया स्वर और सुषुम्ना के सक्रिय होने पर दोनों नासिकाओं से स्वर चलते हैं। उन्होंने स्वर विज्ञान के नियमानुसार छंद और मुद्रा के साथ नृत्य करना सिखाया अतः इससे न केवल स्वयं करने वालों को वरन् दर्शकों को भी लाभ पहुंचा।
राजू- क्या उन्होंने कोई ऐसी विधियों का भी अनुसंधान किया जिनसे प्राप्त होने वाला लाभ नृत्य, मुद्रा अथवा छंद से प्राप्त नहीं किया जा सकता?
बाबा- शिव ने अवलोकन किया कि मनुष्य शरीर में पायी जाने वाली अनेक ग्रंथियों को यदि उचित अभ्यास कराया जावे तो उनसे निकलने वाला हारमोन न केवल शरीर को वरन् आत्मा को भी लाभ देता है। परंतु कुछ ऐंसे ग्लेंड होते हैं जिन्हें नृत्य, मुद्रा और छंद से लाभ नहीं होता जैसे सोचना, याद करना आदि । अतः शिव ने तांडव नृत्य बनाया और पार्वती के सहयोग से महिलाओं के लिये कौषिकी नृत्य बनाया। तांडव में बहुत उछलना होता है, जब तक नर्तक जमीन से ऊपर होता है उसे अधिक लाभ मिलता है जमीन के संपर्क में आते ही यह लाभ शरीर में समा जाता है। अतः अधिक लाभ लेने के लिये अधिक देर तक जमीन से ऊपर रहना चाहिये। इस तरह छंद, मुद्रा और ग्रंथियों के उचित तालमेल से तांडव नृत्य दिया गया है जो ब्रेन के लिये एकमात्र एक्सरसाईज है जिसका न तो भूतकाल में कोई विकल्प था और न ही भविष्य में कोई विकल्प है।
इंदु- लेकिन ‘तांडव‘ को तो भयानक विनाश का समानार्थी बताया गया है?
बाबा- जिन्हें यथार्थता का ज्ञान नहीं है, वे इस प्रकार का प्रचार करते देखे गये हैं। ओखली और मूसल से जब धान से चावल निकाला जाता है तो वह बहुत उछलता है उसे ‘तंदुल‘ कहते हैं । तांडव नृत्य में भी बहुत उछल कूद करना पड़ती है। तांडव शब्द ‘तंदुल‘ से ही बना है। तुम लोगों को शायद ज्ञात हो कि संस्कृत में बिना पकाया गया चावल ‘तंदुल‘ तथा पकाया गया चावल ‘ओदन‘ कहलाता है। शुद्धोदन का अर्थ है जिसका पकाया गया चावल शुद्ध हो अर्थात् जो ईमानदारी से अपना भोजन कमाता हो। बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन था।
नन्दू- तांडव और कौशिकी नृत्यों से क्या लाभ हैं ? क्या सभी को इन्हें करना चाहिये?
बाबा- छंद, मुद्रा और ग्रंथियों के उचित तालमेल से तांडव नृत्य बनाया गया है जो ब्रेन के लिये एकमात्र भौतिक एक्सरसाईज है जिसका न तो भूतकाल में कोई विकल्प था और न ही भविष्य में कोई विकल्प है। सभी पुरुषों को इसे सीखकर अभ्यास करते रहना चाहिये इससे मन, शरीर और बुद्धि पर नियंत्रण करना सरल हो जाता है। कौशिकी में शरीर और मन के सूक्ष्म स्तरों को उचित पोषण मिलता है और उनकी क्रियाशीलता से मन बुद्धि और आत्मा के बीच सामंजस्य बनाये रखने में सरलता होती है। यह महिलाओं के लिये विशेष रूप से लाभदायी है।
इंदु- तो क्या तांडव पुरुषों और कौशिकी स्त्रियों के लिये निर्धारित है?
बाबा- पुरुष, तांडव और कौशिकी दोनो का अभ्यास नियमित रूप से कर सकते हैं परंतु कौशिकी केवल महिलाओं के लिये ही है। शिव ने इसे पार्वती के सहयोग से महिलाओं के हारमोनिक असंतुलन से होने वाले रोगों को दूर करने के लिये बनाया था। महिलायें यदि कौशिकी का नियमित अभ्यास करती हैं तो वे सदा निरोग रहेंगी।
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