78 बाबा की क्लास ( शिव -3 )
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राजू- बाबा ! आपने बताया है कि शिव ने वैद्यकशास्त्र में धनवन्तरि को प्रशिक्षित कर जनसामान्य को स्वस्थ रखने के लिये उन्हें इसका प्रचार प्रसार करने का कार्य सौंपा परंतु, शिव से पहले वेदों में भी तो आयुर्वेद का उल्लेख पाया जाता है? तो वैद्यक शास्त्र और आयुर्वेद में क्या भिन्नता है?
बाबा- हाॅं, शिव से पूर्व वैदिक काल में आर्युवेद अर्थात् मुष्टियोग प्रचलित था, पर व्यवस्थित नहीं था। शिव ने तंत्र आधारित वैद्यकशास्त्र की रचना की और धन्वन्तरी को इसमें प्रशिक्षित कर इसके प्रचार प्रसार का कार्य सौंपा। वैदिक आयुर्वेद में सर्जीकल कार्य की, कहीं भी उल्लेखनीय प्रगति नहीं पाई जाती है।
रवि- तो क्या शिव के वैद्यकशास्त्र में सर्जरी का उल्लेख पाया जाता है?
बाबा- हाॅं, शिव ने अपने वैद्यकशास्त्र में सर्जीकल आपरेशन्स की विधियाॅं पहले ही समझा दी थीं, क्योंकि वैद्यकशास्त्र और चिकित्सा विज्ञान को उन्होंने अपने कार्यकाल में ही व्यवस्थित किया था। इसी कारण भारत के मूल निवासी शवपरीक्षण और सर्जरी से पूर्व से ही परिचित थे परंतु आर्यों के भारत आगमन के बाद इन मूल निवासियों को उन्होंने अस्पृश्य माना क्योंकि वेदों में मृत देह का स्पर्श करना अछूत माना गया है।
इंदु- परंतु आधुनिक आयुर्वेद में तो शल्यक्रिया विज्ञान पढ़ायी जाती है, वह कहाॅं से आयी?
बाबा- सेक्डोनियन ब्राह्मण शिव के 6000 वर्ष बाद भारत आये जिन्होंने आयुर्वेद में सर्जरी को जोड़कर उसे उन्नत किया ।
चंदू- लेकिन सेकडोनियन ब्राह्मण कहाॅं से आये और भारत में क्यों आये?
बाबा- सेंट्रल एशिया के सेक्डोनिया से ब्राह्मणों का एक दल आया जिसने इस क्षेत्र में सर्जरी का प्रचार किया। सेक्डोनिया को संस्कृत में शाकद्वीप या शाकलद्वीप कहते हैं, वर्तमान में इसका नाम ताशकंद है। चूंकि सेक्डोनियन ब्राह्मणों ने इस्लाम को अस्वीकार कर दिया था अतः उन्हें अपना घर छोड़कर समुद्री मार्ग से पश्चिम भारत आना पड़ा।
रवि- सेक्डोनियन ब्राह्मणों के पास और कौन सा ज्ञान था जिससे उन्हें भारत में मान्यता मिली?
बाबा- वे, अपने साथ लोंग और हस्तरेखा ज्ञान लाये। संस्कृत में लोंग का समानार्थी लवंग, देवकुसुम या वारिसंभव है। वारिसंभव का अर्थ है जो समुद्र के उस पार से लाया गया है। इसी प्रकार हस्तरेखा ज्ञान को सामुद्रिक शास्त्र कहा जाता है क्योंकि वह भी समुद्र के उस पार से आया है।
इंदु- लेकिन बाबा! आपने एक बार समझाया था कि कृष्ण के कार्यकाल में जरासंध नाम के राजा का जन्म सर्जीकल आपरेशन से ही हो पाया था, वह तो सेक्डोनियन्स के आने के पहले की घटना है?
बाबा- हाॅं यह सत्य है कि कृष्ण के काल में ‘जरा‘ नाम की महिला शल्य चिकित्सक ने जरासंध का जन्म कराया था इसीलिये उनका नाम ‘जरासंध‘ अर्थात् " जिसे जरा के द्वारा सिल गया है", रखा गया। वास्तव में शिव के कार्यकाल से ही भारत के मूल निवासी शल्य क्रिया में प्रवीण हो गये थे परंतु जैसा अभी मैं ने कहा कि वे लोग शव परीक्षण किया करते थे और आर्य उन्हें अस्प्रश्य मानते थे तथा इसे राक्षसी विद्या कहा करते थे। इसीलिये वे सदैव घृणा से देखे जाते रहे और राक्षस कहलाते हुए अपने सीमित क्षेत्र में इस विद्या को उन्नत करते रहे। तुम लोग शायद जानते हो कि इस विद्या में पारंगत अन्य महिला थीं हिडिम्बा (भीम की पत्नी)। इस विद्या, जिसे आजकल हिप्नोटिज्म कहते हैं, का जानकार उन्नत मन, अनुन्नत मन पर अपना प्रभाव डालकर अपने आधीन कर सकता है। विशूचिका (हैजा) रोग के उपचार के लिए सुई लगाने की विधि का ज्ञान इसी कुल की अन्य महिला चिकित्सक ‘कर्करि‘ को था।
चंदू- लेकिन पौराणिक ग्रंथों में तो राक्षसों और ब्राह्मणों का विवरण दूसरे प्रकार से मिलता है?
बाबा- पौराणिक धर्म तो आज से 1300 वर्ष पहले प्रारंभ हुआ। जिन लोगों ने इसे स्वीकार किया उन्होंने प्रयाग में एक सम्मेलन किया जिसमें ब्राह्मणों की मान्यता संबंधी मानदंड निर्धारित किये गये। पौराणिक धर्म अपनाने वाले जिन्होंने वेदों की सर्वोत्तमता स्वीकार की, भले ही वे उनके निर्देशानुसार चलते हों या न चलते हों, उन्हें ब्राह्मण कहा गया। भारत के मूल निवासी जो शवपरीक्षण करते थे उन्हें ब्राह्मण नहीं माना गया भले ही वे कितने ही सदाचार से रहते हों।
रवि- प्रयाग सम्मेलन में तत्कालीन भारत के किन किन क्षेत्रों के ब्राह्मणों को ब्राह्मण के नाम से मान्यता दी गयी?
बाबा- प्रयाग सम्मेलन में उत्तर भारत के 5 वर्ग अर्थात् पंचगौड़ी ;पंजाब के सारस्वत, कश्मीर , दक्षिण रूस, अफगानिस्तान और राजस्थान के गौड़, पश्चिम उत्तरप्रदेश और मिथिला के मैथिल और गुजरात के नागर , और 5 वर्ग दक्षिण भारत के अर्थात् पंचद्रविड ;उत्कल, तैलंग, द्रविड, कर्नाट और चित्पावन ब्राह्मण, को ब्राह्मण के रूप में मान्य किया गया। बंगाल के राढ़ी, वारेंद्र, केरल के नंबूदरी, कौकण के गौड़सारस्वत, मगध के क्रोंचद्वीपी, पश्चिम विहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के सरयूपारी ब्राह्मणों को इस सम्मेलन में मान्यता नहीं दी गयी। सेक्डोनियन ब्राह्मण इस सम्मेलन के बहुत बाद भारत आये, इनमें से जो ज्योतिष और आयुर्वेद जानते थे उन्हें ब्राह्मण माना गया, पर बंगाल के वैद्यकशास्त्र के जानकार यद्यपि चिकित्सा के क्षेत्र में भले ही आगे थे पर उन्हें ब्राह्मण के रूप में मान्य नहीं किया गया।
राजू- जब पौराणिक काल आज से 1300 वर्ष पहले ही आया तो शिव तो इसके भी 6000 वर्ष पहले आये थे तो इसके बीच के कार्यकाल की इतनी लंबी अवधि में क्या क्या परिवर्तन हुये हैं उसे बता सकते हैं?
बाबा- शिव के बाद कृष्ण का कार्यकाल रहा परंतु इस पर विस्तार से अलग से चर्चा करेंगे। अभी शिव के बारे में चर्चा चल रही है तो उससे संबंधित जानकारी ही दिया जाना उचित होगा क्योंकि इतनी लंबी अवधि में भले ही अनेक महापुरुषों जैसे कृष्ण, महावीर और बुद्ध के कार्यकाल आये परंतु शिव की शिक्षाओं को कोई भी अपने जीवन से पृथक नहीं कर सका और शैव धर्म ने भारतीय समाज में धरती के भीतर ही भीतर बहने वाले पानी की तरह अपना प्रभाव आन्तरिक रूप से बनाये रखा।
रवि- महावीर जैन और गौतम बुद्ध के कार्यकाल में शैव धर्म किस प्रकार प्रभावित हुआ?
बाबा- बौद्ध और जैन धर्म का वाह्य रूप लिये अभी भी बंगाल में शिव को केन्द्रित किये अनेक उत्सव मनाये जाते हैं जो भले ही शिव ने नहीं सिखाये जैसे, चरक अर्थात् चक्र- धर्मचक्र, गाजन अर्थात् गर्जन, झानयन आदि, परंतु ये सभी शिव के 5500 वर्ष बाद बुद्धोत्तर और जैनोत्तर काल में जनसाधारण के, शिव से जुड़े होने के कारण चलन में बने रहे। शैव धर्म के बाद बुद्ध और जैन धर्म का प्रभाव बढ़ा परंतु इनका दर्शनाधार घटते जाने के कारण इसी बीच नया धर्म पौराणिक धर्म आया। अतः इस संक्रमणकाल में नयी संकल्पना लिये नये ‘‘कल्ट‘‘ ने बौद्ध योगाचार अर्थात् वज्रयान और पौराणिक धर्म जो शिवाचार कहलाया (भले ही वह शैव धर्म से संबंधित नहीं था) को संयुक्त करके इसे "नाथ धर्म" का नाम दिया । इसमें इसके प्रवक्ताओं के नाम के बाद नाथ लिखने की परंपरा बन गयी। इसका प्रभाव उत्तरप्रदेश , विहार, बंगाल आदि में हुआ। इससे न केवल शैव, वरन् बौद्ध और जैन धर्म भी प्रभावित हुये।
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राजू- बाबा ! आपने बताया है कि शिव ने वैद्यकशास्त्र में धनवन्तरि को प्रशिक्षित कर जनसामान्य को स्वस्थ रखने के लिये उन्हें इसका प्रचार प्रसार करने का कार्य सौंपा परंतु, शिव से पहले वेदों में भी तो आयुर्वेद का उल्लेख पाया जाता है? तो वैद्यक शास्त्र और आयुर्वेद में क्या भिन्नता है?
बाबा- हाॅं, शिव से पूर्व वैदिक काल में आर्युवेद अर्थात् मुष्टियोग प्रचलित था, पर व्यवस्थित नहीं था। शिव ने तंत्र आधारित वैद्यकशास्त्र की रचना की और धन्वन्तरी को इसमें प्रशिक्षित कर इसके प्रचार प्रसार का कार्य सौंपा। वैदिक आयुर्वेद में सर्जीकल कार्य की, कहीं भी उल्लेखनीय प्रगति नहीं पाई जाती है।
रवि- तो क्या शिव के वैद्यकशास्त्र में सर्जरी का उल्लेख पाया जाता है?
बाबा- हाॅं, शिव ने अपने वैद्यकशास्त्र में सर्जीकल आपरेशन्स की विधियाॅं पहले ही समझा दी थीं, क्योंकि वैद्यकशास्त्र और चिकित्सा विज्ञान को उन्होंने अपने कार्यकाल में ही व्यवस्थित किया था। इसी कारण भारत के मूल निवासी शवपरीक्षण और सर्जरी से पूर्व से ही परिचित थे परंतु आर्यों के भारत आगमन के बाद इन मूल निवासियों को उन्होंने अस्पृश्य माना क्योंकि वेदों में मृत देह का स्पर्श करना अछूत माना गया है।
इंदु- परंतु आधुनिक आयुर्वेद में तो शल्यक्रिया विज्ञान पढ़ायी जाती है, वह कहाॅं से आयी?
बाबा- सेक्डोनियन ब्राह्मण शिव के 6000 वर्ष बाद भारत आये जिन्होंने आयुर्वेद में सर्जरी को जोड़कर उसे उन्नत किया ।
चंदू- लेकिन सेकडोनियन ब्राह्मण कहाॅं से आये और भारत में क्यों आये?
बाबा- सेंट्रल एशिया के सेक्डोनिया से ब्राह्मणों का एक दल आया जिसने इस क्षेत्र में सर्जरी का प्रचार किया। सेक्डोनिया को संस्कृत में शाकद्वीप या शाकलद्वीप कहते हैं, वर्तमान में इसका नाम ताशकंद है। चूंकि सेक्डोनियन ब्राह्मणों ने इस्लाम को अस्वीकार कर दिया था अतः उन्हें अपना घर छोड़कर समुद्री मार्ग से पश्चिम भारत आना पड़ा।
रवि- सेक्डोनियन ब्राह्मणों के पास और कौन सा ज्ञान था जिससे उन्हें भारत में मान्यता मिली?
बाबा- वे, अपने साथ लोंग और हस्तरेखा ज्ञान लाये। संस्कृत में लोंग का समानार्थी लवंग, देवकुसुम या वारिसंभव है। वारिसंभव का अर्थ है जो समुद्र के उस पार से लाया गया है। इसी प्रकार हस्तरेखा ज्ञान को सामुद्रिक शास्त्र कहा जाता है क्योंकि वह भी समुद्र के उस पार से आया है।
इंदु- लेकिन बाबा! आपने एक बार समझाया था कि कृष्ण के कार्यकाल में जरासंध नाम के राजा का जन्म सर्जीकल आपरेशन से ही हो पाया था, वह तो सेक्डोनियन्स के आने के पहले की घटना है?
बाबा- हाॅं यह सत्य है कि कृष्ण के काल में ‘जरा‘ नाम की महिला शल्य चिकित्सक ने जरासंध का जन्म कराया था इसीलिये उनका नाम ‘जरासंध‘ अर्थात् " जिसे जरा के द्वारा सिल गया है", रखा गया। वास्तव में शिव के कार्यकाल से ही भारत के मूल निवासी शल्य क्रिया में प्रवीण हो गये थे परंतु जैसा अभी मैं ने कहा कि वे लोग शव परीक्षण किया करते थे और आर्य उन्हें अस्प्रश्य मानते थे तथा इसे राक्षसी विद्या कहा करते थे। इसीलिये वे सदैव घृणा से देखे जाते रहे और राक्षस कहलाते हुए अपने सीमित क्षेत्र में इस विद्या को उन्नत करते रहे। तुम लोग शायद जानते हो कि इस विद्या में पारंगत अन्य महिला थीं हिडिम्बा (भीम की पत्नी)। इस विद्या, जिसे आजकल हिप्नोटिज्म कहते हैं, का जानकार उन्नत मन, अनुन्नत मन पर अपना प्रभाव डालकर अपने आधीन कर सकता है। विशूचिका (हैजा) रोग के उपचार के लिए सुई लगाने की विधि का ज्ञान इसी कुल की अन्य महिला चिकित्सक ‘कर्करि‘ को था।
चंदू- लेकिन पौराणिक ग्रंथों में तो राक्षसों और ब्राह्मणों का विवरण दूसरे प्रकार से मिलता है?
बाबा- पौराणिक धर्म तो आज से 1300 वर्ष पहले प्रारंभ हुआ। जिन लोगों ने इसे स्वीकार किया उन्होंने प्रयाग में एक सम्मेलन किया जिसमें ब्राह्मणों की मान्यता संबंधी मानदंड निर्धारित किये गये। पौराणिक धर्म अपनाने वाले जिन्होंने वेदों की सर्वोत्तमता स्वीकार की, भले ही वे उनके निर्देशानुसार चलते हों या न चलते हों, उन्हें ब्राह्मण कहा गया। भारत के मूल निवासी जो शवपरीक्षण करते थे उन्हें ब्राह्मण नहीं माना गया भले ही वे कितने ही सदाचार से रहते हों।
रवि- प्रयाग सम्मेलन में तत्कालीन भारत के किन किन क्षेत्रों के ब्राह्मणों को ब्राह्मण के नाम से मान्यता दी गयी?
बाबा- प्रयाग सम्मेलन में उत्तर भारत के 5 वर्ग अर्थात् पंचगौड़ी ;पंजाब के सारस्वत, कश्मीर , दक्षिण रूस, अफगानिस्तान और राजस्थान के गौड़, पश्चिम उत्तरप्रदेश और मिथिला के मैथिल और गुजरात के नागर , और 5 वर्ग दक्षिण भारत के अर्थात् पंचद्रविड ;उत्कल, तैलंग, द्रविड, कर्नाट और चित्पावन ब्राह्मण, को ब्राह्मण के रूप में मान्य किया गया। बंगाल के राढ़ी, वारेंद्र, केरल के नंबूदरी, कौकण के गौड़सारस्वत, मगध के क्रोंचद्वीपी, पश्चिम विहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के सरयूपारी ब्राह्मणों को इस सम्मेलन में मान्यता नहीं दी गयी। सेक्डोनियन ब्राह्मण इस सम्मेलन के बहुत बाद भारत आये, इनमें से जो ज्योतिष और आयुर्वेद जानते थे उन्हें ब्राह्मण माना गया, पर बंगाल के वैद्यकशास्त्र के जानकार यद्यपि चिकित्सा के क्षेत्र में भले ही आगे थे पर उन्हें ब्राह्मण के रूप में मान्य नहीं किया गया।
राजू- जब पौराणिक काल आज से 1300 वर्ष पहले ही आया तो शिव तो इसके भी 6000 वर्ष पहले आये थे तो इसके बीच के कार्यकाल की इतनी लंबी अवधि में क्या क्या परिवर्तन हुये हैं उसे बता सकते हैं?
बाबा- शिव के बाद कृष्ण का कार्यकाल रहा परंतु इस पर विस्तार से अलग से चर्चा करेंगे। अभी शिव के बारे में चर्चा चल रही है तो उससे संबंधित जानकारी ही दिया जाना उचित होगा क्योंकि इतनी लंबी अवधि में भले ही अनेक महापुरुषों जैसे कृष्ण, महावीर और बुद्ध के कार्यकाल आये परंतु शिव की शिक्षाओं को कोई भी अपने जीवन से पृथक नहीं कर सका और शैव धर्म ने भारतीय समाज में धरती के भीतर ही भीतर बहने वाले पानी की तरह अपना प्रभाव आन्तरिक रूप से बनाये रखा।
रवि- महावीर जैन और गौतम बुद्ध के कार्यकाल में शैव धर्म किस प्रकार प्रभावित हुआ?
बाबा- बौद्ध और जैन धर्म का वाह्य रूप लिये अभी भी बंगाल में शिव को केन्द्रित किये अनेक उत्सव मनाये जाते हैं जो भले ही शिव ने नहीं सिखाये जैसे, चरक अर्थात् चक्र- धर्मचक्र, गाजन अर्थात् गर्जन, झानयन आदि, परंतु ये सभी शिव के 5500 वर्ष बाद बुद्धोत्तर और जैनोत्तर काल में जनसाधारण के, शिव से जुड़े होने के कारण चलन में बने रहे। शैव धर्म के बाद बुद्ध और जैन धर्म का प्रभाव बढ़ा परंतु इनका दर्शनाधार घटते जाने के कारण इसी बीच नया धर्म पौराणिक धर्म आया। अतः इस संक्रमणकाल में नयी संकल्पना लिये नये ‘‘कल्ट‘‘ ने बौद्ध योगाचार अर्थात् वज्रयान और पौराणिक धर्म जो शिवाचार कहलाया (भले ही वह शैव धर्म से संबंधित नहीं था) को संयुक्त करके इसे "नाथ धर्म" का नाम दिया । इसमें इसके प्रवक्ताओं के नाम के बाद नाथ लिखने की परंपरा बन गयी। इसका प्रभाव उत्तरप्रदेश , विहार, बंगाल आदि में हुआ। इससे न केवल शैव, वरन् बौद्ध और जैन धर्म भी प्रभावित हुये।
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