Thursday 27 November 2014

4.18 
ध्यान मंत्र में शिव
         ध्यायेन्नित्यं महेशं  रजतगिरिनिभं चारुचंद्रावतंसं
        रत्नाकल्पोज्ज्वलांगम् परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्।
        पद्मासीनम्समन्ताम स्तुतम् अग्रगनै: व्याघ्रकृत्तिं वसानम्
        विश्वाद्यं विश्ववीजम  निखिलभयहरम् पंचवक्त्रम् त्रिनेत्रम्।

 शब्दार्थ -  ऐसे भगवान महेश्वर  का ध्यान करना चाहिये जो चांदी के पर्वत के समान चमक वाले हैं, सुन्दर चंद्रमा का मुकुट पहने हुए हैं, जिनके सभी अंग विभिन्न रत्नों की चमक वाले हैं, सदा प्रसन्न रहते हुये जो सबको वर और अभयदान के लिये आश्वस्त  करते हैं, पशुओं की रक्षा के लिये जो हाथ में फरशा  लिये हैं, व्याघ्रचर्म पहने, पद्मासन  में बैठे हुए जिनकी सब देवता पूजा करते हैं, जो बीज और इस विराट ब्रह्माॅंड के कारण हैं और अपने पाॅंच मुखों और तीन नेत्रों से जो  पूरे ब्रह्माॅड  के असीमित भय को दूर करने वाले हैं।

पद वार  व्याख्या 
+ महेशम्-  संस्कृत में नियंत्रक को ईश्वर  कहते हैं। संसार के छोटे बड़े सभी मामलों में हर स्तर के नियंत्रक होते हैं जो विभिन्न अधिकारों से सम्पन्न होते हैं। पर, जो अत्यंत तेज मस्तिष्क वाला, दूरदृष्टा  और सबके प्रति हृदय में असीम करुणा और स्नेह से भरा हो वह इन छोटे, मध्यम और बड़े सभी नियंत्रकों का नियंत्रण कर सकता है। शिव सबको नियंत्रित करते थे अतः उन्हें महेश्वर  कहा गया है।
+ रजतगिरिनिभम्-  वर्फ की तरह सफेद। रैवतक पर्वत पर जब सूर्य का प्रकाश  पड़ता है तो वह जिस प्रकार चमकता है वैसे ही शिव का शरीर चाॅंदी की तरह चमकता था।
+ चारुचंद्रावतंसम्- अर्थात् सुंदर चंद्रमा जिनका मुकुट है। क्या सचमुच शिव के सिर पर चंद्रमा का मुकुट था? इस संबंध में सच्चाई को इस प्रकार समझ सकते हैं, मानव शरीर में सूक्ष्म ऊर्जा के अनेक केन्द्र और उपकेन्द्र हैं जिन्हें चक्र या पद्म कहते हैं इन चक्रों से विभिन्न प्रकार के हारमोन्स उत्सर्जित होते रहते हैं जो विभिन्न वृत्तियों  को नियंत्रित करते हैं। इन वृत्तियों  के नियंत्रक विंदु जिनकी संख्या 50 है वे इन 9 चक्रों में अपने अपने रंग और ध्वनि के साथ स्थित होते हैं। ये पचास ध्वनियां ही मूल स्वर और व्यंजन के रूप में हम सभी उच्चारित करते हैं। सामान्यतः उच्च स्थित चक्र से निकलने वाला हारमोन निम्न स्थित चक्रों को अपने रंग और ध्वनि से प्रभावित करता है। सर्वोच्च स्थित सहस्रार चक्र निम्न स्थित सभी चक्रों को प्रभावित कर 1000 वृत्तियों को  नियंत्रित करता है। सहस्रार से निकलने वाला यह हारमोन मानव मन और हृदय को अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति कराता है जिससे आत्मिक उन्नति होती है और मनुष्य विचारमुक्त अवस्था में आ जाता है। यह दिव्य अमृत प्रत्येक व्यक्ति के सहस्रार से निकलता रहता है पर मनुष्यों का मन प्रायः भौतकवादी मामलों या वस्तुओं के चिंतन में ही उलझा रहता है इसलिये वह वहीं पर अवशोषित हो जाता है नीचे के चक्रों को प्रभावित नहीं कर पाता है। परंतु यदि इस हारमोन के उत्सर्जन के समय व्यक्ति आध्यात्मिक चिंतन में मन को लगाये रहे तो वह आध्यात्मिक उन्नति कर आनंददायी बेहोशी  का अनुभव करता है और बाहर से लोग उसे देखकर समझने लगते हैं कि यह तो शराबी है। शिव हमेशा  इसी उच्च अवस्था में ही रहते थे अतः अनेक लोग जो भांग, अफीम आदि का नशा  किया करते थे वे प्रचारित करने लगे कि शिव भी इन नशीली चीजों का उपयोग करते हैं। अन्य लोग सोचते थे कि चंद्रमा की 16 कलाओं में से प्रतिपदा से पूर्णिमा तक प्रतिदिन एक एक दिखाई देती है पर सोलहवीं कभी नहीं और इसी से अमृत निकलता है, इसे ‘अमाकला‘ नाम भी दिया गया, इस अमृत के प्रभाव से शिव अपने आप में ही मग्न रहा करते हैं इसलिये अनेक लोगों का मत था कि यह अदृश्य   सोलहवीं चंद्र कला शिव के ही मस्तक पर होना चाहिये, इसतरह चारुच्रद्रावतंसं कहा गया है। सहस्रार के इस दिव्य अमृत के उत्सर्जन से शिव अपने वाह्य जगत और अन्य आवश्यकताओं से अनजान,  भोलेभाले दिखाई पड़ते थे अतः उन्हें लोग भोलानाथ भी कहने लगे थे।
+ रत्नाकल्पोज्ज्वलांगम्-   क्या शिव केवल सफेद रंग के ही थे? नहीं , उनका सारा शरीर उस दिव्य अमृत के क्षरण से चमकता था और मध्यान्ह के सूर्य की भांति इस प्रकार प्रभावित करता था कि जैसे उनके शरीर से अनेक हीरे जवाहारात चमक रहे हों। न केवल चमकदार वरन् उनका शरीर कोमल और सुगंधित भी था।
+   परशु मृगवराभीतिहस्तं-  दुष्टों की दुष्टता को दबाने के लिये शिव हाथ में फरसा लिये रहते थे तथा सभी मनुष्यों पौधों और पशुओं की देखभाल अपने बच्चों की तरह करते थे। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि मृग शब्द को संस्कृत के समानार्थी सामान्य पशु  के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है केवल मृग अर्थात् हिरण के अर्थ में नहीं। मृग का अर्थ है कोई भी पशु , जैसे, शाखमृग  का मतलब है बंदर क्योंकि वह शाखाओं पर रहता हैं, मृगचर्म का मतलब है किसी भी जंगली पशु  का चर्म, मृगया का अर्थ है किसी भी जंगली पशु  का शिकार करना आदि आदि। इस प्रकार सभी पशु  और मानव खतरे के समय शिव की शरण में आकर सुरक्षा अनुभव करते थे और शिव भी सबको निर्भय रहने का वरदान देने की मुद्रा में रहते थे। शिव जो कि स्वयं की सुख सुविधाओं के प्रति बिलकुल उदासीन रहते थे वे किसी के आंसू नहीं देख सकते थे उसे सब सुविधायें उपलब्ध करा देते थे। चाहे वह दुष्ट  ही क्यों न हो यदि उसकी आंखों में आंसू दिखते तो शिव उसके शुद्धीकरण का रास्ता बताते और वरदान भी दे देते थे।
+ प्रसन्नम्- प्रत्येक परिस्थिति में वह अपना मानसिक संतुलन बनाकर रखते थे, कितनी ही बिकट स्थिति क्यों न हो उनके चेहरे से प्रसन्नता ही झलकती थी। इतिहास में इस प्रकार का सदा हंसमुख चेहरा दुर्लभ है।
+ पद्मासीनम्समन्ताम्-  शिव हमेशा  पद्मासन में ही बैठा करते थे। जिस प्रकार खिले हुए कमल सदैव पानी से ऊपर रहते हैं जबकि उनके तने और जड़े कीचड़ में, उसी प्रकार पद्मासन में बैठा व्यक्ति संसार में रहते हुए भी अपने मन को बाहरी वातावरण से पूर्णतः मुक्त रख सकता है। यही कारण है कि साधना करने के लिये उचित आसन पद्मासन ही है। इस प्रकार शिव एक ओर भौतिक जगत में मानसिक संतुलन बनाये रहते थे और दूसरी ओर आत्मिक संसार में।
+ स्तुतम् अग्रगनै-  यह सत्य है कि इस संसार में जो भी निर्मित हुआ है वह परिवर्तनीय और नष्ट होने के लिये है और यह भी सत्य है कि परमसत्ता के विचार स्पंदन के विस्तार, जिन्हें देवता कहते हैं वे भी ब्रह्माॅंडीय नाभिक से निकलकर दूरस्थ भविष्य के अपरिमित शून्य  में भागते जा रहे हैं। इससे हम इन दिव्य किरणों या देवताओं को अमर कह सकते हैं क्योंकि वे पास आते हैं और अगणित दूर, लाखों प्रकाश वर्ष दूर चले जाते हैं। यह कहा जाता है कि ये देवता भी देवों के देव महादेव के सामने नतमस्तक रहते हैं क्योंकि यह सामान्य नियम है कि जब कोई, किसी व्यक्ति में अपने से अधिक अच्छे गुण पाता है तो वह उसे पूजने लगता हैं। शिव के सामने इन सबका तेज और दिव्यगुण बहुत निम्न स्तर का है अतः वे सब मिलकर उनकी स्तुति करते हैं। सच तो यह है कि ये सब देवता तो गुणों से बंधे हुए हैं जबकि शिव सभी बंधनों से मुक्त है अतः स्पष्ट है कि बंधन में रहने वाले बंधन मुक्त की शरण में ही जाना चाहेंगे।
+ व्याघ्रकृत्तिं  वसानम्-  जैन दर्शन   के प्रभावी काल में कुछ अज्ञानियों ने शिव को दिगम्बर मान लिया जब कि ध्यान मंत्र में स्पष्ट है कि वे व्याघ्रचर्म पहना करते थे, इसी कारण उनका एक नाम ‘कृत्तिवास‘ भी है।
+ विश्वाद्यं  विश्वबीजम - शिव को परम पुरुष मानने का कारण यह है कि उनमें परमसत्ता के सभी गुण हैं और वे हमारे विल्कुल निकट हैं अतः उन्हें परमपिता कहना न्याय संगत है। वे पुरुषोत्तम हैं, प्रथम पुरुष है, परम शिव हैं और वे विश्वाद्य  अर्थात् बृह्माॅंड के उद्गम है। विश्व  के उद्गम का कारण भी इन्हीं प्रथम पुरुष में है, आदिशिव ही अपने निष्कलत्व को सकलत्व में मात्र इच्छा से ही रूपान्तरित कर देते हैं। आदिशिव की इच्छा के बिना प्रकृति कोई भी रचना नहीं कर सकती। इसलिये विश्व  के मूल कारण आदिशिव हैं न कि प्रकृति। ध्यान मंत्र में यह स्पष्ट कहा है कि शिव ही विश्व  के बीज हैं।
+ निखिलभयहरम्- असीमित या अबाधित अस्तित्व को निखिल या अखिल कहते हैं। जीवन के अनेक क्षेत्रों में मनुष्य अनेक चीजों से डर पाल लेते हैं। पशु  भी अपने शत्रुओं से डरते हैं। वर्तमान में मनुष्यों के भौतिक स्तर के भय में कमी आई है पर मानसिक स्तर में भय की बृद्धि हुई है। शिव ने मनुष्यों और पशुओं दोनों को निर्भय करने के लिये अनेक कदम उठाये। बीमारियों से निपटने हेतु चिकित्सा विज्ञान को विकसित किया, शत्रुओं से निपटने के लिये अनेक हथियार बनाये, मानसिक भय को दूर करने के लिये ज्ञान की अनेक शाखाओं को विकसित किया और आत्मिक भय को हटाने के लिये तंत्रविज्ञान को स्थापित किया। पशुओं और पौधों  को सुरक्षा देना , पालना और पोषण करना भी उन्होंने सिखाया, इसी लिये उन्हें संसार के दुख/भयहर्ता के नाम सेजाना जाता है।
+ पंचवक्त्रम्-  अर्थात जिसके पांच मुंह हों वह। क्या शिव के सचमुच पांच मुंह थे? नहीं , एक ही मुख से पांच प्रकार के प्रदर्शन  करते थे। मुख्य मुंह बीच में , कल्याण सुंदरम। सबसे दायीं ओर का मुंह दक्षिणेश्वर । कल्याण सुंदरम और दक्षिणेश्वर  के बीच में ईशान। सबसे बायीं ओर वामदेव और वामदेव तथा कल्यान्सुन्दरम के बीच
में कालाग्नि। दक्षिणेश्वर  का स्वभाव मध्यम कठोर, ईशान और भी कम कठोर, कालाग्नि सबसे कठोर, परंतु कल्याणसुदरम में कठोरता बिल्कुल नहीं, वह सदा ही मुस्कुराते हैं। मानलो किसी ने कुछ गलती की, दक्षिणेश्वर  कहेंगे, तुमने ऐंसा क्यों किया? इसके लिये तुम्हें दंडित किया जायेगा। ईशान कहेंगे तुम गलत क्यों कर रहे हो क्या तुम्हें इसके लिये दंडित नहीं किया जाना चाहिये? कालाग्नि कहेंगे, तुम गलत क्यों कर रहे हो ? मैं तुम्हें कठोर दंड दूंगा मैं इन गलतियों को सहन नहीं करूंगा, और क्षमा नहीं करूंगा। वामदेव कहेंगे, बड़े दुष्ट हो, मैं तुम्हें नष्ट कर दूंगा, जलाकर राख कर दूंगा। और कल्याणसुदरम हंसते हुए कहेंगे, ऐंसा मत करो तुम्हारा ही नुकसान होगा। इस प्रकार पांच तरह के भाव प्रकट करने के कारण शिव को पंचवक्त्र कहा जाता है।
+ त्रिनेत्रम्-  मनुष्यों का अचेतन मन सभी गुणों और ज्ञान का भंडार है। अपनी अपनी क्षमता के अनुसार लोग जागृत  या स्वप्न की अवस्था में इस अपार ज्ञान का कुछ भाग अचेतन से अवचेतन में और उससे भी कम अवचेतन से चेतन मन तक ला पाते हैं। परंतु व्यक्ति सभी असीमित ज्ञान को अचेतन मन से अवचेतन या चेतन मन में नहीं ला सकते हैं। यदि कोई ऐंसा कर सकता है तो इस क्रिया को ‘‘ज्ञान को ज्ञाननेत्र से देखना‘‘ कहते हैं। यह ज्ञाननेत्र तृतीय नेत्र के नाम से जाना जाता है। शिव अनन्त ज्ञान के भंडार थे अतः कहा जाता है कि उनका ज्ञान नेत्र बहुत ही विकसित था। वे त्रिकालदर्शी थे  अतः ध्यान मंत्र में त्रिनेत्रम् कहा गया है।

4.19
       प्रणाम मंत्र में शिव 
        नमस्तुभ्यं विरुपाक्ष नमस्ते दिव्य चक्षुसे, नमः पिनाक हस्ताय वज्रहस्ताय वै नमः,
        नमः त्रिशूल हस्ताय दंडपाशासिपानये, नमस्त्रैलोक्यनाथाय भूतानाम पतयेनमः,
        नमः शिवाय शांताय कारणत्रयहेतबे, निवेदयामि चात्मानम् त्वमगतिः परमेश्वरा ।

शब्दार्थ - दिव्यदृष्टि  वाले विरूपाक्ष तुम्हें प्रणाम, पिनाक और बज्र को हाथ में धारण करने वाले तुम्हें प्रणाम, त्रिशूल रस्सी और दंड को धारण करने वाले तुम्हें प्रणाम, सभी प्राणियों/भूतों के स्वामी और तीनों लोेकों के स्वामी तुम्हें  प्रणाम, तीनों लोकों के आदिकारण शांत शिव को प्रणाम, परम प्रभो! मेरी यात्रा के अंतिम बिंदु और लक्ष्य मैं अपने आप को आपके समक्ष समर्पित करता हॅूं।
+ शब्द ' विरूपाक्ष' के दो अर्थ हैं, एक तो वह जिसके नेत्र विरूप अर्थात् अप्रसन्न या क्रोधित हों, दूसरा यह कि जो प्रत्येक को विशेष मधुर और कल्याणकारी द्रष्टि से, दयालुता से देखता हो। पापियों के लिये शिव, विरूपाक्ष  पहले रूप में और सद्गुणियों के लिये दूसरे अर्थ में लेते थे।
+' दिव्यचक्षु ' का अर्थ है जिसके पास प्रत्येक वस्तु के भीतर छिपे मूल कारण को देख सकने  की दिव्य दृष्टि  है, अर्थात् वर्तमान भूत और भविष्य को देख सकने वाला।
+' पिनाक' अर्थात् जो डमरु को बजा कर सभी प्राणियों के शरीर मन और आत्मा को कंपित कर देता हो वह सदाशिव हैं। दुष्टों को दंडित करने और अच्छे लोगों की रक्षा के लिये हमेशा , हर युग में हथियार बनाये जाते रहे हैं शिव ने भी सब की भलाई के लिये भयंकर वज्र धारण किया। इसलिये वे वज्रधर ही नहीं शुभवज्रधर कहलाते हैं + 'त्रिशूल' से शिव शत्रुओं को तीन ओर से छेदित करते थे, शिव इसे हाथमें लिये रहते थे इसलिये वे शूलपाणि कहलाते हैं। पापियों के हृदय में भय पैदा करने और बांधने के लिये, जिससे कि वे पाप से दूर रहें और भले लोगों को शांति से रहने दें, शिव, दंड और रस्सी लिये रहते थे।
+ 'त्रैलोक्यनाथ', शिव तीनों लोकों के जीवन प्रवाह को नियंत्रित, पालित, पोषित करने के कारण त्रैलोक्यनाथ और इस पृथ्वी के सभी जीवधारियों की प्रकृति को भलीभांति जानते हैं अतः वे भूतनाथ कहलाते हैं। संगीत विद्या के विद्यार्थियों के लिये वह प्रमथनाथ हैं। चूॅंकि शिव अपने भीतर और बाहर पूर्ण नियंत्रित रहते थे अतः वे शान्त कहलाते हैं। इस शांत पुरुष के पास सब पर नियंत्रित करने की शक्ति है इसलिये कहा गया  है ‘नमः शिवाय शान्ताय‘।
+ जड़, सूक्ष्म और कारण संसार के मूलकारण घटक को चितिशक्ति कहते हैं। ये शिव और चितिशक्ति एक ही हैं। इसीलिये उन्हें ‘कारणस्त्रयहेतबे‘ कहा गया है। उस परम सत्ता को, जिसने अपने मधुर और प्रभावी प्रकाश  से सभी निर्मित और अनिर्मित को भीतर बाहर से प्रकाशित कर रखा है, सभी प्रणाम करते हैं और समर्पित रहते हैं। वही सबके अंतिम लक्ष्य होते हैं, अतः कहा गया है ‘निवेदयामि च आत्मानम् त्वम गतिः परमेश्वरा ‘। हे परमेश्वर ! मैं अपने आपको आपके समक्ष समर्पित करता हूॅ क्योंकि आप ही मेरे परम आश्रय हैं। हे शिव, हे परम पुरुष, अनाथों के अंतिम आश्रय, थकेमांदों के अंतिम आश्रयस्थल, मैं अपने अस्तित्व की सभी भावनायें आपके चरणों में समर्पित करता हूूॅं। आपके अलावा मेरा कुछ नहीं ,आपके बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं।


4.17
शिवोत्तर तंत्र
+  ब्रह्माॅंड के निर्माण होने के समय जो ध्वनि उत्पन्न हुई उसे वेदों में ओंकार ध्वनि के नाम से जाना जाता है जिसमें उत्पत्ति, पालन और संहार तीनों सम्मिलित हैं। मानव कानों की श्रव्यसीमा में आने वाली ये ध्वनि की तरंगें विश्लेषित  करने पर पचास प्रकार की पाई जाती हैं जिन्हें "काल" अर्थात् समय का वर्णक्रम कहा जाता है इन्हें स्वर ‘अ‘ से प्रारंभ (निर्माण का बीज मंत्र) और व्यंजन ‘म‘ (समाप्ति का बीज मंत्र) में अंत मानकर काल को अखंड रूप में प्रकट करने के लिये अथर्ववेदकाल में भद्रकाली की कल्पना कर उसके हाथ में ‘अ‘ उच्चारित करता मानव मुंह बनाया गया, अन्य स्वरों और व्यंजनों के प्रत्येक के एक एक मुंह बनाकर शेष 49 अक्षरों के मुंहों की माला भद्र काली को पहनाई गई और कालचक्र पूरा किया गया। यद्यपि अथर्ववेदकाल में लिखना पढ़ना लोगों ने सीख लिया था परंतु वेदों के लिखने पर प्रतिबंध था अतः पूर्वोक्त मानव मुंहों को ही वर्णमाला/अक्षमाला का प्रतिनिधि उदाहरण माना गया क्योंकि उच्चरण मुंह से ही किया जाता है। वास्तव में काल या समय, क्रिया
की गतिशीलता का मानसिक परिमाप है और यह अनन्त ध्वनियों/तरंगों का सम्मिलित रूप होने से अखंड नहीं है, यह अलग बात है कि हम अपने कानों से उन सभी को नहीं सुन पाते।

+ सदाशिव का आविर्भाव ऋग्वेदकाल की समाप्ति और यजुर्वेदकाल के प्रारंभ होने  के समय माना जाता है। उस समय अक्षरों के उच्चारण का ज्ञान होने के बाद भी लिपि का ज्ञान न होने के कारण उन्हें लिखना संभव नहीं था। ब्राह्मी और खरोष्टि लिपियों का अनुसंधान शिव के कुछ समय बाद अथर्ववेद के काल में हुआ। लिपियों के अनुसंधान के बाद ही वेद और तंत्र में पारस्परिक प्रभाव बढ़ पाया। सबसे बड़ी बाधा तो यह रूढि़वादिता, कि वेद
को लिखा जाना वर्जित है, अधिक समय तक बनी रही। शिव के जाने के 3500 वर्ष बाद कृष्णद्वैपायन व्यास ने वेदों को उनकी प्राचीनता के आधार पर क्रमशः  ऋग्वेद, यजुर्वेद अथर्ववेद में विभाजित किया और तीनों के काव्यरूपक भाग को एकत्रित कर अलग किया और उसे सामवेद का नाम दिया, सामवेद कोई वेद नहीं है। अथर्ववेद के प्रथम लेखक महर्षि अथर्वा और उनके अनुयायियों, अंगिरा, अंगिरस, सत्यवाह, वैदर्भि आदि ने पहली बार डरते डरते वेदों को अक्षरबद्ध करने का प्रयास किया। शिव ने अपने काल में तंत्र का जो स्वरूप दिया था वह कालान्तर में बदलता गया क्योंकि लिपि न होने के कारण एक मुनि से दूसरा सुनकर ही याद रख पाता था और जब तीसरे को बतलाता था तो व्याख्या करते समय उसके अपने विचार भी जुड़ जाते थे, इस कारण बहुत से महत्वपूर्ण अंश  लुप्त हो गये या बदल गये। इस प्रकार शिवोत्तरतंत्र के दो भाग ‘कश्मीरी ‘ और ‘गौड़ीय‘ अस्तित्व में आये। कश्मीरी  तंत्र पर वेदों का, गौड़ीय तंत्र की अपेक्षा अधिक प्रभाव पड़ा, इसी समय कश्मीरी विद्वानों  ने तत्कालीन सारदा लिपि में वेदों को लिखा। इसके बाद जैन और बौद्ध काल में शिवतंत्र समानान्तर रूप से चलता रहा। जैन साहित्य प्राकृत में और बौद्ध साहित्य मगधी प्राकृत या पाली भाषा में उस समय की थोड़ी रूपान्तरित ब्राह्मी लिपि में लिखे गये, परंतु शिवोत्तर तंत्र संस्कृत भाषा में ब्राह्मी लिपि में लिखा गया। अतः इस काल में लिपि का ज्ञान हो जाने के कारण जैन तंत्र, बौद्ध तंत्र और शिवोत्तर तंत्र का पारस्परिक रूपान्तरण होने लगा।

+ चौंसठ योगिनियाॅं-  इस प्रकार परस्पर समझ बढ़ने पर तीनों तंत्रों में इस बात पर सहमति हुई कि मानव जीवन में 64 प्रकार की अभिव्यक्तियाॅं होतीं हैं अतः तंत्र को 64 शाखाओं में बांटा जाना चाहिये। आन्तरिक रूप से समान परंतु ऊपरी तौर पर कुछ पदों में परिवर्तन कर इसे स्वीकार किया गया। जैसे, जैन तंत्र में मूला प्रज्ञाशक्ति को ‘‘ज्ञाराना‘‘ या ‘ज्ञारत्न‘ कहा गया जबकि शिवोत्तर तंत्र और बौद्ध तंत्र में क्रमशः  इसे शिव और बुद्ध कहा गया। इस प्रकार तीनों तंत्रों में 64-64 प्रकार की शाखाओं को मान्य करते हुए प्रत्येक की नियंत्रक शक्ति को ‘योगिनी‘ कहा गया तथा प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिये सबको शिव की पत्नियाॅं घोषित किया गया जबकि सदाशिव आज से 7000 वर्ष पहले और ये योगिनियाॅं मात्र 2000 वर्ष पहले  हुए। जैैन तंत्र पर आधारित 64 योगिनियों के मंदिर
जबलपुर म.प्र. में एक पहाड़ी पर बनाये गये देखे जा सकते हैं। अतः लिपि के प्रभाव से हुए इस रूपान्तरण से अनेक योगिनियों और देवी देवताओं के नामों में कुछ परिवर्तन कर स्वीकार किया गया, जैसे, जैन देवी अंबिका को शिवोत्तर तंत्र  और पौराणिक शाक्ताचार में अंविका और वाराही को बौद्ध तंत्र में वज्रवाराही के नाम से स्वीकृत किया गया। पौराणिक सत्यनारायण की संकल्पना इस्लाम की पीरभक्ति से मिलकर बंगाल में सत्यपीर के नाम से मान्य हुई। बुद्धतंत्र की तारा और शिवोत्तर तंत्र की काली और पौराणिक शाक्ताचार में सरस्वती के नाम से परस्पर रूपान्तरित किया गया।

+ दस महाविद्या-  एकीकरण के इस काल में तीनों तंत्रों में से कुछ कुछ महत्वपूर्ण देवियों को लेकर दस महाविद्याओं की कल्पना आई जो बाद में पौराणिक काल में थोड़े से परिवर्तन के साथ शाक्ताचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, गणपत्याचार, में भी मान्य की गईं हैं, इनके नाम हैं, काली, तारा, शोडसी, भुवनेश्वरी , भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बंगुलामुखी, मातुंगी और कमला। ये देवियां लगभग सभी तंत्रों में एकसे बीजमंत्र के साथ या थोड़े से परिवर्तन के साथ मान्य की गई हैं और सबको शिव से किसी न किसी प्रकार जोड़ दिया गया ताकि उन्हें लोग पूजते रहें परंतु, उन्हें दिये गये भौतिक आकार से ही प्रमाणित होता है कि कोई भी मानव आकार चार, आठ और दस हाथों वाला नहीं हो सकता।

+ दुर्गापूजा-  इसी प्रकार दुर्गादेवी की पूजा भी पौराणिक शाक्ताचार के समय मार्कंडेय पुराण से लिये गये 700 श्लोकों, जिन्हें  दुर्गासप्तशती कहा गया, के आधार पर प्रारंभ की गई और शिव की पत्नी माना गया है जो पूर्व वर्णित कारणों से काल्पनिक रचना के अलावा कुछ नहीं है। पठानकाल के प्रारंभ में बंगाल के राजशाही जिले के ताहिरपुर के एक बहुत संपन्न मालगुजार कॅंसनारायण राय को अपनी सम्पदा के प्रदर्शन  करने हेतु एक विचार आया कि वे  राजसूय या अश्वमेध  यज्ञ कर लोगों को दिखा दें कि वह क्या हैं, इस पर तत्कालीन पंडितों ने कहा
कि ये तो कलियुग है इसमें ये राजसूय/अश्वमेध  यज्ञ करना वर्जित है अतः आप तो मार्कंडेय पुराण में वर्णित दुर्गापूजा ही करें और उसी समय जितना अधिक दान करना हो सो करें। इस पूजा में कॅंसनारायण राय ने सात लाख सोने के सिक्कों को खर्च किया, इसे देखसुन कर वर्तमान बॅंगलादेश  के रंगपुर जिले के इकटकिया के जगतवल्लभ/जगतनारायण ने कहा कि क्या हम कॅंसनारायन से कम हैं, हम भी इनसे ज्यादा खर्च कर अपना, दुर्गा पूजा में नाम आगे करेंगें, इन्होंने आठ लाख पचास हजार सोने के सिक्के खर्च किये। इस प्रकार जमीदारों में अपनी सम्पन्नता प्रदर्शित  करने की होड़ लग गई परंतु इसी बीच हुगली जिले के गुप्तीपारा गांव के 12 मित्रों ने मिलकर कहा कि हम अलग अलग भले ही  जमींदारों के बराबर पूजा में खर्च नहीं कर सकते पर सभी मिलकर तो कर सकते हैं इसतरह सबने मिलकर दुर्गापूजा का प्रदर्शन  किया , बारह मित्रों/यारों के सम्मिलित होने के कारण इसे बरयारी पूजा कहा गया। इसके बाद यह सार्वजनिक पूजा बन गई और अब तो हर जगह हर
चैराहे पर यह की जाने लगी है जिसमें सबकुछ बदल गया है। वर्तमान में इसे सार्वजनिक स्थानों पर मनाये जाने का स्वरूप कितना व्यावसायिक और विकृत हो गया है यह किसी से छिपा नहीं हैं।

+ अर्धनारीश्वर  शिव-  शिव  की अतुलनीय प्रतिभा, सरलता , साधुता और तेजस्विता के प्रभाव से प्रबुद्ध वर्ग में यह चर्चा होने लगी कि शिव  और कोई नहीं मानव रूप में तारक ब्रह्म ही हैं और धीरे धीरे इस धारणा ने पूर्णता प्राप्त कर ली। आध्यात्म साधकों ने अनुभव करना प्रारंभ किया कि ब्रह्म, सर्वोच्च ज्ञानात्मक सत्ता ‘‘परमपुरुष‘‘ और सर्वोच्च क्रियात्मक सत्ता ‘‘परमाप्रकृति‘‘ का एकीकृत आकार ही हैं  और शिव यही संयुक्त आकार हैं। इसके बाद शिवोत्तर तंत्र, जैन तंत्र, बौद्ध तंत्रकाल में इस अवधारणा को पूर्ण बल मिला। इस समय शिव और शक्ति को मूर्तिकारों ने दायी ओर शिव और बायीं   ओर पार्वती का आकार देकर अर्धनारीश्वर  शिव की रचना कर ली। ‘‘शिवशक्तयात्मकम् ब्रह्म, अर्थात् ज्ञान और ऊर्जा साथ साथ कार्य करते हैं,‘‘ का यह विचार पौराणिक काल में भी स्वीकार किया गया। यह माना गया कि शिव ही वह आधार हैं जिस पर शक्ति अपना निर्माण कार्य करती है, शिव से अलग होकर वह कार्य नहीं कर सकती। शिव एक साक्षी सत्ता हैं और शक्ति की गतिविधियों के नियंत्रणकर्ता भी हैं। परंतु शीघ्र ही यह दार्शनिक  विचार लोगों के मन से निकल गया।

+ चंडिकाशक्ति-  प्रागैतिहासिक काल में लोग समूहों में रहा करते थे और प्रत्येक समूह की मुखिया महिला ही हुआ करती थी और उसे गोत्रमाता कहा जाता था। माताकेे मरने के बाद उसकी प्रापर्टी का अधिकार पुत्री को ही प्राप्त होता था परंतु पुत्रों के नाम माता के नाम से ही रखे जाते जैसे, माता का नाम मोदगल्ली तो पुत्र का नाम मोदगल्यायन, माता का नाम रूपसारी तो पुत्र का नाम सारीपुत्त, माता का नाम महापाटली तो पुत्र का नाम पाटलीपुत्र, माता का नाम पृथा तो पुत्र का नाम पार्थ आदि। इस काल में पुरुषों को कोई संम्पत्ति का अधिकार नहीं था अतः वे प्रत्येक कार्य अथवा सुविधा पाने के लिये गोत्रमाता से ही निवेदन किया करते थे अतः गोत्रमाता की पूजा की जाने लगी जिसे  कालान्तर में चंडी या चंडिका पूजा कहा जाने लगा। इसमें यह भाव थे कि जो देवी सभी आकारधारकों में माता और शक्ति के रूप में निवास करती है उसे नमस्कार। यद्यपि यह एक सामाजिक पृथा थी परंतु पौराणिक शाक्ताचार में इसे शिव की पत्नी कहा गया जो निराधार है। कालान्तर में महिला के स्थान पर पुरुष को यह अधिकार दिये गये और गोत्रपिता नाम दिया गया।

+ गणेश -  पितृ सत्तात्मक पृथा के प्रारंभ होने के बाद समूह के  प्रभावी पुरुष को मुखिया के रूप में स्वीकार किया गया और गोत्रपिता नाम दिया गया। पिता की सम्पत्ति का अधिकार पुत्र को प्राप्त होने लगा। संस्कृत में समूह को गण कहते हैं अतः समूह के नायक को गणेश , गणनायक या गणपति कहा जाने लगा। इसलिये गणेश  का अस्तित्व इतिहासपूर्व माना जाता है और लोग हँसी  में कह भी देते हैं कि जब गणेश  की पूजा सभी देवताओं के पहले की जाती है तो शिव के विवाह के समय भी गणेश  की पूजा हुई होगी फिर गणेश, शिव के पुत्र कैसे हुए? स्पष्ट है कि गणेश , शिव, पार्वती, दुर्गा आदि के पुत्र नहीं हो सकते वे सामाजिक पृथाओं के अंतर्गत हैं , धर्म से उनका कोई संबंध नहीं है। चूंकि समूह के नेता को मोटा तगड़ा होना चाहिये अतः हाथी जैसा शरीर, समूह में संख्या की खूब बृद्धि होना चाहिये अतः सवारी के लिये चूहा  (क्योंकि चूहों की संख्या अन्य प्राणियों की तुलना में तेजी से बढ़ती है) प्रतीकात्मक रूप में स्वीकार किया गया। पौराणिक काल में इसे गणपति कल्ट के रूप में स्वीकार कर धार्मिक आधार बना दिया गया। पुराणों में आपस में ही समानता नहीं है, एक ही तथ्य को अलग अलग स्थानों पर अलग अलग वर्णित किया गया है। पुराणों की कहानियां शिक्षाप्रद हैं परंतु हैं सब काल्पनिक।

+ नवदुर्गा-  प्रागैतिहासिक युग के लोग फार्मेकोलाजी से अपरिचित थे अतः वे पेड़ पौधों को सीधे ही रोगों को दूर करने में प्रयुक्त करते थे। उन दिनों विशेषतः भारत में लोग नौ प्रकार के पैड़ पौधों के संपर्क में आये जो दवाओं या भोजन के रूप में अत्यंन्त लाभदायी थे। वे उन्हें जीवनदायी मानकर उन्हें अत्यधिक आदर के साथ पालते और रक्षा करते। उन्हें नष्ट होने से बचाने के उद्देश्य  से उनमें देवी देवताओं का स्वरूप दे दिया गया जिसका परिणाम अन्धानुकरण और आडम्बर के रूप में आज तक दिखाई दे रहा है। ये नौ पौधे जिनमें भारत के लोगों ने विशेष औषधीय गुण पाये, वे हैं, कदली अर्थात् प्लानटेन, कचु अर्थात् अरबी अरुम, हरिद्रा अर्थात् टरमेरिक, जयंती, अशोक, विल्व, दाडि़म्ब अर्थात् अनार पोमेग्रेनेट, मान अर्थात् कंद और धान्य अर्थात् पैडी, अनहस्क्ड राइस।
          अब देखिये, कदली एक अच्छा न्युट्रिशियस भोजन है और एक दिन के अंतर से आने वाले ज्वर के लिये बढि़या औषधि है, इसके अलावा वह पेंक्रियाज और किडनी के लिये अच्छी तरह क्रियाशील बनाये रखने में भी सहायक है। वह डिसेंट्री के लिये औषधि है ही। उन माताओं के लिये यह अच्छा भोजन है जिनके बच्चे छोटी अवस्था में मर जाते हैं। उन बच्चों के लिये जिनकी माॅं की मृत्यु हो जाने के कारण दूध के न मिल पाने से रिकेट्स की बीमारी हो जाती है, यह काले चिट्टे वाले अधिक पके केले के रूप में खिलाये जाने पर रामवाण औषधि है। इतना ही नहीं यह, वे बछड़े जिनकी माॅं मर गयी हो, उनको अधिक पके  केले और सत्तू के एक अनुपात दो के अनुपात में पेस्ट के रूप में खिलाने पर स्वस्थ हो जाते हैं। स्पष्ट है कि कदली में अनेक जीवनदायी गुणों के कारण लोगों ने उसे देवता की तरह आदर देना प्रारंभ किया।
           दूसरा है कचु या अरबी अर्थात् अरुम, इसकी भोजन के रूप में कम उपयोगिता है परंतु किडनी के लिये यह बहुत ही उपयोगी है।
          तीसरा है हरिद्रा अर्थात् टर्मेरिक, यह एन्टीसेप्टिक होती है और अच्छा मसाला भी है। भोजन में प्रयुक्त होने वाली हल्दी धूप में सुखाई गई होती है, सीधे खेत से लाई गई हरी हल्दी विषैली होती है अधिक उपयोग करने पर मृत्यु भी हो सकती है परंतु ऐंटीसेप्टिक है वह खून को साफ करती तथा त्वचा के रोगों को दूर करती है। जब किसी के घर कोई्र बड़ा फंक्शन   होता है तो आज भी एकत्रित होने वाली महिलाओं में हल्दी का उबटन लगाने की पृथा  है खास तौर पर विवाह के अवसरों पर, क्योंकि  अनेक स्थानों के व्यक्ति एकत्रित होने से इन्फेक्शस डिजीज होने की संभावना रहती है।
       अगला है जयन्ती, इसकी जड़ों में औषधीय गुण अधिक होते हैं, यह श्वेत कुष्ठ के लिये सही दवा है। यथार्थतः यह सात प्रकार के त्वचीय रोगों में से चार प्रकार के लिये अधिक उपयोगी है। इसके बाद है अशोक, अर्थात् सीता अशोक, केवल अशोक का अर्थ है देवदारु। सीता अशोक में ही औषधीय गुण पाये जाते हैं। यह सभी प्रकार के स्त्री रोगों की आदर्श  औषधि है।
       अगला है विल्व, अर्थात् बेल का फल। बिना पका बेल हर प्रकार के पेट रोग की दवा है। कच्चे बेल फल को भूंन कर खाना चाहिये। बिल का अर्थ है सूक्ष्म छिद्र अतः विल्व का अर्थ है वह जो छोटे से छोटे छिद्र में प्रवेश  कर पेट को अीधकतम लाभ पहुंचाता है। इसकी असाधारण क्वालिटीज के कारण इसे  श्रीफल भी कहते है जिसका मतलब है उत्तम गुणों वाला फल।
       दाडि़म्ब की छाल, जड़ें और फल सभी कुछ, महिलाओं की सभी प्रकार की बीमारियों की अच्छी दवा है। चीन और भारत की आयुर्वेदिक पद्धतियों में दाडि़म्ब के ये गुण मान्यता प्राप्त हैं।
       अगला है मान अर्थात् कंन्द, जो मनुष्य के शरीर में मास बढ़ाने बाले सभी प्रकार के स्टार्ची खाद्य पदार्थों में अतुलनीय है। यह आलु अथवा कटहल के बीजों की तुलना में अधिक अच्छा है। कटहल के बीज आलु से ढाई गुने अच्छे हैं। भारत में आलु के आने के पहले यहाॅं इन्हीं बीजों का उपयोग करते थे, मान इन बीजों से भी अधिक मूल्य रखता है। इसके अलावा मान के द्वारा मानव शरीर पर ठंडा प्रभाव डाला जाता है। गर्मी के समय यह अच्छी दवा है, जब शरीर गर्मी से प्रभावित होकर नाक से खून बहाने लगता है तो यह औषधि और भोजन दोनों की तरह काम में लाया जाता है।
       अगला है धान्य अर्थात् पैडी जिसके अनेक उपयोग हैं, सबसे सरल तो यह है कि इससे अल्कोहल बनाया जाता है जो अनेक प्रकार की दवाएं  बनाने के काम आता है।
        इन नौ प्रकार के पौधों के विशेष गुणों के कारण ही उनमें लोगों ने अपना पूज्य भाव स्थापित किया और पौराणिक शाक्ताचार काल में उनमें नौ प्रकार की चंडिका शक्ति के वास स्थान होने की कल्पना की गई, जैसे,  कदली में ब्राह्मणी, अरुम में कालिका, हरिद्रा में दुर्गा, जयंति में कार्तिकी, अशोक में शोकरहिता, विल्व में शिव, दाडिंब में रक्तदंतिका, मान में चामुंडा, और धान्य में लक्ष्मी। आज भी यदि किसी के पैर भूल से चावल के दानों से छू जावें तो वह फौरन ‘‘ओ माता लक्ष्मी‘‘ कह कर क्षमा मागते हुए प्रणाम करने लगता है। इस प्रकार का सोच उस समय लोगों का था। अभी भी देवी शक्तियों को लोग संयुक्त रूप से उसी प्रकार इन पौधों में होने की मान्यता देते हैं और नवदुर्गा का नाम देकर पूजते हैं अर्थात् अगरबत्ती लगाकर घी के दीपक जलाकर आरती उतारते हैं और चंदन का तिलक लगाते हैं और उन पौधों को संयुक्त रूप में नव पत्रिका का नाम देते हैं। सोचिये, पौधों की पूजा उन्हें पालने, पानी, खाद और अन्य पोषक तत्वों से उनका संवर्धन करने में होता है या केवल आरती और चंदन या अगरबत्ती से। बस, यहीं से अन्धानुकरण और आडंबर ने जन्म लिया और बढ़ता ही जा रहा है।

+ आज से 1300-1400 वर्ष पूर्व पौराणिक सिद्धान्तों के अनुसार तत्कालीन प्रचलित अनेक मान्यताओं को शैवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, गणपत्याचार, और सौराचार भागों में विभाजित किया गया और लोगों ने अपनी रुचि के अनुसार उनका पालन करना प्रारंभ किया। शैवाचार का लक्ष्य शिवसमाधि अर्थात् आत्मसाक्षात्कार है, इसमें बाहरी वृत्तियों को आन्तरिक करते हुए अंत में परमात्मा में मिलाने का अभ्यास किया जाता है। ‘‘यच्छेद्वांग्मनसो प्रज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महती नियच्छेद् तद्यच्छेद्छान्तात्मनि‘‘। शाक्ताचार के अनुसार तामसिक शक्ति को भवानी या कालिका शक्ति में मिलाना चाहिए जिसका बीजमंत्र ‘‘सम्‘‘ है, इसमें से राजसिक शक्ति को निकालकर भैरवीशक्ति में मिलाना चाहिये जिसका बीज मंत्र है ‘‘शम्‘‘। [ भैरवी शक्ति का अर्थ है ऊर्जा की क्रियाशील अवस्था। ऊर्जा का बीजमंत्र है ‘‘रम्‘‘। सभी लोग भौतिक जगत की उपलब्धियों के साथ ऊर्जा को भी सक्रिय रखना चाहते हैं अतः नाम और यश  के प्रेरक  (श़ + र= श्र ) और स्त्रीलिंग में यह हुआ श्री, इसे आधार मानकर ही भारत में नाम के आगे श्री लगाने का प्रचलन हुआ। आजकल इस अर्थ में श्री किसी के पास नहीं है फिर भी सभी के नाम में श्री लगाते हैं।] इससे सात्विक शक्ति को खींचकर कौषिकीशक्ति में मिला देना चाहिये। पौराणिक शाक्ताचार के ये क्रमागत पद हैं जिन पर चलकर साधक लाभ पाता है। यहां कालिकाशक्ति का आशय दार्शनिक  है, शिव की पत्नी काली अथवा बौद्ध और शिवोत्तर तंत्र की कालिकाशक्ति  से इसका कोई संबंध नहीं। वैष्णवाचार में विश्व  की सभी वस्तुओं में विष्णु को व्याप्त मानकर उपासना की जाती है, ‘विस्तारः सर्वभूतस्यविष्नोरविश्वमिदम जगत्, द्रष्टव्यमआत्मवत् तस्माद्भेदेन विचक्षनैः। गणपत्याचार में प्राचीनकाल के समूह नेतृत्व वाले गणपति को चुनकर समूह के स्थान पर विश्व  के नेता का भाव दिया गया और इन्हें ही परमपुरुष के रूपमें उपासना हेतु कहा गया है। सौराचार मूलतः सूर्य की उपासना से संबंधित है जो दक्षिण रूस के सेक्डोनिया से आये ब्राह्मणों की उपासना पद्धति है। सेक्डोनियन ब्राह्मण वेद या अन्य कोई पद्धति नहीं मानते थे वे केवल ज्योतिष और आयुर्वेद को ही मान्यता देते थे अतः उनके सूर्य ही उपास्य देवता थे क्योंकि वे मानते थे कि सूर्य से ही पृथ्वी चंद्र और अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई है अतः विश्व  के नियन्ता सूर्य ही हैं। यह मत सीमित क्षेत्रों में ही माना गया। इस प्रकार पौराणिक मान्यताओं को व्यापक प्रसार नहीं मिल पाया क्योंकि इसके कुछ भागों को दार्शनिक  मान्यता थी और कुछ को नहीं।

+ सदाशिव ने हमेशा  सबको आत्मोत्थान की ओर प्रेरित किया, उन्होंने बताया कि हम सभी टाइम अर्थात् काल, स्पेस अर्थात् आकाश  से बंधे हुए हैं और समय लगातार गतिशील है अतः भूतकाल का उपयोग कर वर्तमान का निर्माण करो और भविष्य की इसतरह योजना बनाओ कि मानव संपदा एकत्रीकृत हो प्रचंड ऊर्जा से चमक उठे। अर्थात् वर्तमान में जियो। कर्मबंधनों को विद्या की उपासना से नष्ट कर दो। जो लोग भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक शोषण करते हैं उन्हें अपनी विवेकपूर्ण, तार्किक और वैज्ञानिक बुद्धि से पहचानकर उनसे दूर रहो क्योंकि ये लोग ही समाज में भावजड़ता, रूढि़वादिता और अंधविश्वासों  की नई नई बीमारियां फैलाते हैं। क्रोध, लोभ, अहंकार और मोह मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु हैं।

+ शिव ने समाज को विवाह नामक जिम्मेदारी से जीवन जीने की अवधारणा दी और पति तथा पत्नी को क्रमशः  भर्ता और कलत्र नाम दिये। भर्ता का अर्थ है परिवार का जिम्मेदारी से भरणपोषण करने वाला और कल़त्र का अर्थ है जिम्मेदारी से अपने भर्ता और संतान को परिवार के पालनपोषण में सहायक रहने वाली। संस्कृत में महिला को नारी कहा जाता है अर्थात् स्त्रीलिंग , परंतु शिव ने कलत्र कहा जो नारी को पुरुष के समान स्तर पर लाकर परिवार के संचालन में महत्व देता है क्योंकि यह शब्द स्त्रीलिंग  नहीं है पुल्लिंग है । उन्होंने समाज के प्रथम विवाहित पुरुष के रूप में आदर्श  भर्ता और कलत्र का प्रथम उदाहरण देकर मानव समाज को नई दिशा  दी।

+ आध्यात्मिक क्षेत्र में किया गया परिश्रम अभिध्यान, बौद्धिक क्षेत्र में किया गया परिश्रम धारणा, भौतिक क्षेत्र में किया गया परिश्रम श्रम कहलाता है अतः कोई भी क्षेत्र क्यों न हो परिश्रम के बिना जीवन सफल नहीं हो सकता। यह विश्व  सत्य में बंधा हुआ है, पौधे, प्राणी, मनुष्य के छोटे बच्चे और सरल तथा अविकसित व्यक्ति असत्य का सहारा कभी नहीं लेते जब तक कि उन्हें अन्यथा सिखाया न जावे। तथाकथित विकसित  और पढ़े लिखे लोग ही असत्य बोलते हैं। इसके दो ही कारण होते हैं, पहला स्वार्थ और दूसरा कृत्रिम आदत। अतः कोई कितना ही धार्मिक होने का प्रदर्शन  करे, कर्मकांड में लगा रहे, कितना ही धर्म स्थलों की यात्रायें करता रहे यदि सत्य में प्रतिष्ठित नहीं है तो धर्म उसका साथ नहीं देगा। इसीलिये कहा गया है कि मिथ्यावादी सदा दुखी। स्वभावतः सभी की सीधे और सरल रास्ते पर चलने की प्रवृत्ति होती है परंतु भीरुता, स्वार्थ और कपटवृत्ति के कारण लोग टेड़े रास्ते पर चलने लगते हैं। इस प्रकार के लोग दूसरों को हमेशा  संदेह से देखते हैं जो कि पाप करने वालों की मनोवृत्ति का द्योतक माना जाता है। यह संदेह ही अमानवीय कृत्य करने का कारण बनता है। इसीलिये कहा जाता है कि पापस्य कुटिला गतिः, अर्थात् पाप हमेशा  टेड़े रास्ते से चलता है।




Tuesday 25 November 2014

4.11 
जैन शिव
 सब जानते हैं कि जैन धर्म लगभग 2000 वर्ष से कुछ अधिक पहले प्रचलित हुआ, कुछ लोग मानते हैं कि भगवान महावीर से भी पहले तीर्थंकर हुए हैं फिर भी वे सब शिव के बहुत समय बाद हुये। जब जैन धर्म का प्रचार हो रहा था तब शिव जन सामान्य के देवता बन चुके थे क्योंकि उनका असाधारण व्यक्तित्व ही नहीं था वे मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपना गहरा प्रभाव जमा चुके थे। जैन धर्म ने अपना प्रचार और प्रभाव जारी रखा परंतु तत्कालीन लोगों ने उसे ऊपरी तौर पर ही स्वीकार किया और शैव धर्म भी साथ साथ चलता रहा। जैन धर्म की अनेक शाखाओं में से मुख्यतः दो ही एतिहासिक रिसर्च में मान्य हैं, दिगम्बर और श्वेताम्बर । जैन मुख्यतः दिगम्बर ही हैं परंतु बाद में निर्ग्रन्थिवाद  अर्थात् पहने जाने वाले कपड़ों में गांठ न बांधना, प्रचारित किया गया जो गृही लोगों ने स्वीकार नहीं किया। बाद में यह निर्ग्रन्थिवादी  जैन धर्म, शैव धर्म से जोड़ दिया गया। लोग ऊपर से जैन धर्मानुयायी थे पर भीतर ही भीतर वे शैव थे। प्रागैतिहासिक काल में ही नहीं वैदिक युग से पहले से ही लोग लिंग पूजा करते आये हैं, कारण यह था कि उस समय लोग दिन में या रात में कभी भी सुरक्षित नहीं थे। एक समूह दूसरे पर आक्रमण कर अपने समूह और प्रभाव को संरक्षित करना चाहता था अतः स्वाभाविक था कि उनकी संख्या अधिक हो, इसलिये लिंगपूजा को जनसंख्या बढ़ाने के उद्देश्य  से मान्यता दी गई। तत्कालीन विश्व  के लगभग सभी देशों  में लिंगपूजा किये जाने के प्रमाण मिले हैं। अतः सत्य यही है कि लिंगपूजा को प्रागैतिहासिक काल से ही सामाजिक रिवाज के रूप में ही माना जाता था न कि आध्यात्मिक या आधार पर। जैन युग में तीर्थंकरों की नग्नमूर्तियों ने लोगों के मन में नया विचार जगाया और लिंगपूजा को आध्यात्म से जोड़ा गया । इस तरह जैन और बुद्ध के विचार आगे आगे और आजूबाजू में शिव तंत्र  का रूपान्तरण भी चलता रहा जिससे जैन धर्म के प्रभाव से आज से लगभग 2500 वर्ष पहले शिवतंत्र में शिवलिंगपूजा का समावेश  हुआ। तीर्थंकरों को नया महत्व मिलने के कारण लिंगपूजा का, जनसंख्या बढ़ाने का पुराना अर्थ बदलकर नया दार्शनिक और आध्यात्मिक अर्थ यह किया गया, ‘‘ लिंगायते गमयते यस्मिन तल्लिंगम‘‘ अर्थात् वह परमसत्ता जिस ओर सभी जा रहे हैं वही लिंग है। यह माना जाने लगा कि सभी मानसिक और भौतिक जगत के कंपन परम रूपान्तरकारी शिवलिंग की ओर ही जा रहे हैं अतः यह शिवलिंग ही अंतिम स्थान है जहां सबको पहुंचना है। इस तरह प्रागैतिहासिक काल की लिंग पूजा का रूपान्तरण हो गया और पूरे भारत में फैल गया इतना ही नहीं शिव का बीज मंत्र भी बदल गया। ब्रह्म्माॅंड के प्रत्येक अस्तित्व से तरंगें निकलती हैं यह आधुनिक वैज्ञानिक भी मानते हैं, यही तरंगें किसी वस्तु विशेष की मूल आवृत्ति  कहलाती है जिसे दार्शनिक  भाषा में बीज मंत्र कहते हैं।  दार्शनिक आधार पर किसी भी अस्तित्व के निर्माण करने का बीज मंत्र ‘अ‘ पालन करने का ‘उ‘ तथा नष्ट करने का ‘म‘ है। वेदों में शिव का बीज मंत्र ‘म‘ कहा गया है जो जैन तंत्र, बौद्ध तंत्र और पश्चात्वर्ती  शिवतंत्र में ‘ऐ‘ कर दिया गया। चूंकि ‘ऐ‘ बारह स्वरों में से एक है और वाच्य या ज्ञान का बीज मंत्र है  और ज्ञान गुरु की वाणी से प्राप्त होता है और शिव को गुरु माना गया है अतः जैनतंत्र, बौद्धतंत्र और उत्तरशिवतंत्र में शिव का बीज मंत्र ‘‘ऐम‘ कर दिया गया जो  पौराणिक काल में जब सरस्वतीदेवी को ज्ञान की देवी के रूप में लाया गया तो ‘ऐम‘ बीज मंत्र उन्हें दे दिया गया। स्पष्ट है कि जब बीज मंत्र ही बदल गया तो उससे जुड़ा प्रत्येक कार्य ही अप्रभावी हो जायेगा। ये जैन शिव, जैनसमाज में ही स्वीकृत हैं, क्योंकि शिव से जोडे़ बिना उनका महत्व नहीं होता। शिवतंत्र में इन्हें मान्यता नहीं दी गई परंतु बहुत समय बाद समाज में अनेक विभाजन और उपविभाजन हुए जिससे शिवलिंग और उसके पूजन में अलग अलग मतों के अनुसार नाम भी दिये जाते रहे। किसी समूह में आदिलिंग, किसी में ज्योतिंर्लिंग , किसी में अनादि लिंग। इसी व्यवस्था में बहुत समयबाद उत्तर बंगाल अर्थात  तत्कालीन वारेंन्द्र भूमि, के राजकुमार ‘बाण‘ ने वाणशिवलिंग की पूजा प्रारंभ कर दी। इस तरह जैन काल में शिवलिंग की पूजा मेें अनेक परिवर्तन हुए। यद्यपि जैन और शैव दोनों ही शाकाहरी थे परंतु जैनधर्म के पालन में अनेक व्यावहारिक कठिनाइयाॅं आने के कारण शैव धर्म के प्रति लोगों का स्वाभाविक रुझान बना रहा।

4.12 
बौद्धशिव
 जिस प्रकार जैन और शैव परस्पर एक दूसरे से प्रभावित हुए उसी प्रकार बौद्ध और शैव भी। भगवान महावीर और भगवान बुद्ध की आयु में लगभग 50 वर्ष का अंतर था अतः दोनों समकालीन ही कहे जावेंगे। महायान बौद्ध भारत ,चीन, जापान में प्रभावी हो चुका था इसकी दो शाखाओं  ने तान्त्रिक पद्धति को अपना लिया था अतः शिवोत्तरतंत्र काल के शिव को बौद्धतंत्र में स्वीकार कर लिया गया और शिव की मूर्ति के स्थान पर शिवलिंग  की पूजा की जाने लगी। यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि शिव के ध्यान मंत्र में शिवलिंग का कहीं भी उल्लेख नहीं है जिससे प्रकट होता है कि यह बहुत बाद में ही जोड़ा गया है। शिव के व्यापक प्रभाव के कारण बौद्ध युग में भी उन्हें नहीं भुलाया जा सका और   शिवलिंग   अथवा शिव मूर्ति की पूजा की जाती रही परंतु थोड़े संशोधन के साथ। शिव को पूर्ण देवता न मानकर उन्हें बोधिसत्व माना गया, अतः शिव की मूर्ति अथवा शिवलिंग पर बुद्ध की छोटी मूर्ति को बनाया जाने लगा जो प्रकट करता था कि शिव के लक्ष्य बुद्ध थे। इस प्रकार के बोधिसत्व शिव बाद में बटुकभैरव के नाम से प्रसिद्ध हुए।

4.13  
पौराणिक शिव
 इस काल में भी शिव की पूजा जारी रही इतना ही नहीं तत्कालीन सभी 22 प्रकार के शिवलिंगों, ज्योतिर्लिंगों ,  आदिलिंगों, अनादिलिंगों आदि  सभी को एकीकृत कर दिया गया। ये शिव जैनशिव, बौद्धशिव और
 शिवोत्तरतंत्र कालीन शिव से बिलकुल भिन्न थे क्योंकि अब इनका पुराना बीजमंत्र ‘ऐम‘ से ‘होम‘ कर दिया गया। चूंकि बीज मंत्र के बदलने से देवता की संकल्पना ही बदल जाती है अतः 7000 वर्ष से लोगों में बसे अपने शिव, बौद्ध शिव, जैनशिव या शिवोत्तरतंत्र के शिव एक नहीं रहे, अनेक होगये। बौद्धतंत्र  जब पौराणिक तंत्र से प्रभावित हो रहा था तो उस संक्रमण काल में नाथ कल्ट का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था, नाथ कल्ट में नाथ शब्द  को उनके प्रवर्तकों के नाम के बाद जोड़ने की पृथा  अपनाई गई जैसे आदिनाथ, मीनानाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ आदि। इसके सभी प्रवर्तकों को शिव के अवतार के रूप में प्रस्तुत किया गया और उनकी मृत्यु के बाद उनकी मूर्ति को शिव के अवतार के रूप में पूजा जाने लगा। अतः शिव को भी विश्वनाथ, वैद्यनाथ तारकनाथ आदि नाम दे दिये गये। पौराणिक युग के शिव और शाक्त कल्ट के अनुयायी शिवलिंग की पूजा करते रहे पर नाथ कल्ट से अपने को भिन्न प्रदर्शित  करने के लिये वे उन्हें तारकेश्वर  ,विश्वेश्वर , या कभी कभी दोनों का उच्चारण करते रहे। इस तरह चाहे कोई भी समय रहा हो और कितना ही प्रभावी व्यक्तित्व अपनी किसी भी प्रकार की संकल्पना को स्थापित करना चाहता रहा हो शिव के विना उसे कोई मान्यता प्राप्त नहीं हुई। 7000 वर्ष पुराने भोले भाले सदाशिव की आजतक की यात्रा में क्या क्या गति कर दी गई है नीचे दिये गयेे श्लोकों  से सरलता से समझा जा सकता है।
 सौराष्ट्रे सोमनाथंच श्रीशेल मल्लिकार्जुनम,
 उज्जन्याम् महाकालम् ओंकारम् अमलेश्वरम् ।
 वनारस्याम् विश्वनाथः सेतुबंधे रामेश्वरम्।
 झारखंडे वैद्यनाथः राढ़े च तारकेश्वरा ।

4.14
अज्ञात इतिहास
  पौराणिक हिन्दु युग में जब बौद्ध धर्म  और शैव धर्म आपस में मिश्रित होने लगे तो , तब इस मिश्रित धर्म को नाथ धर्म कहा गया। अधिकाॅंशतः पूर्वी भारत में इस धर्म के अनुयायी अधिक पाये जाते हैं। उन्होंने इसे नाथ धर्म इस लिये कहा क्योंकि उनके गुरुगण अपने नाम के अंत में नाथ (अर्थात् स्वामी) शीर्षक का उपयोग करते थे, जैसे आदिनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ, रोहिणीनाथ, चैरंगीनाथ आदि आदि। अर्थात् इनका उद्गम मूलतः बौद्ध धर्म से हुआ पर भारत से बौद्ध धर्म के नष्ट हो जाने पर उन्होंने शैव धर्म को अपना लिया फिर भी वे बौद्ध धर्म की कुछ कर्मकाॅंडीय विधियों का पालन करते रहे। यह रहस्य इनमें से कोई नहीं जानता सभी अपने को शैव ही कहते हैं।

4.15
लौकिक शिव
 इनका उल्लेख किन्हीं ग्रंथों में नहीं है वरन् ये तो लोगों के द्वारा निर्मित उनके अपने भोलेनाथ हैं। शिव की साधुता सरलता और तेजस्विता के कारण वे समाज के बड़े से बड़े और छोटे से छोटे स्तर के लोगों से सीधे ही जुड़े थे। उन्होंने ही समाज से वर्गभेद और जातिभेद मिटाया, उन्होंने समाज में भ्रामकता और स्वार्थतापूर्ण भावजड़ता फैलाने वालों को अपने त्रिशूल  से नष्ट कर दिया। स्त्रियों और शूद्रों को वेदमंत्रों का उच्चारण करना तो दूर सुन लेने पर भी वैदिक काल में सजा दी जाती थी, इसे शिव ने समाप्त कराया। समाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में शिव की पहुंच ने उन्हें जनजन का प्रिय देवता बनाया, आज भी भारत में छोटी छोटी बच्चियाॅं मिट्टी के शिवलिंग बनाकर घी के दीपक से आरती करतीं हैं और अपनी तथा अपने परिवार की समृद्धि के लिये प्रार्थना करतीं हैं। ये शिव न तो वैदिक ,न तांत्रिक ,न जैन, न बौद्ध, न पौराणिक ,न नाथ कल्ट, किसी से भी मान्य नहीं हैं ये तो लौकिक शिव हैं, सरल लोगों के सरल देवता, न इनका कोई बीज मंत्र है न प्रणाम मंत्र और न ही ध्यान मंत्र । इनकी पूजा करने के लिये न किसी पंडित की आवश्यकता  होती है और न ही किसी बाहरी कर्मकांडीय प्रदर्शन की, केवल नमः शिवाय कह देने से ही उनकी पूजा हो जाती है। ये परमब्रह्म न हों, परमपुरुष भी न हों परंतु सरल लोगों के सरल और आत्मीय देवता अवश्य  हैं। 7000 वर्ष  पुराने सदाशिव से इनका कोई संबंध नहीं है। प्रश्न  उठता है कि फिर ये शिव आये कहां से? उत्तर है, शिव की सरलता, साधुता और तेजस्विता ने लोगों के हृदय में इतने गहरे पहुंच बना ली है कि लोग उनके साथ के बिना नहीं रह सकते। उनके सरलतम व्यक्तित्व  के संबंध में अनेक किस्से कहे जाते हैं, परंतु वे अनेक दिव्य, अमूल्य खजानों के सागर थे। वे कहते थे बहादुर बनो, धर्म का पालन करो, सरलता को कभी न छोड़ो और सीधे रास्ते पर चलो। यही कारण है कि हर संवर्ग के लोग उनके सामने नतमस्तक हो कहते हैं ‘‘ निवेदयामी च आत्मानम् त्वमगतिः परमेश्वरा ।‘‘ अर्थात् हे मेरे जीवन के अंतिम लक्ष्य, मैं आपके समक्ष पूर्ण समर्पण करता हूँ ।

4.16 

जैन और बौद्ध धर्म

आध्यत्मिक साधना की ओर झुकाव की मानसिकता दो प्रकार से पायी जाती है, एक आत्मसुखवाद और दूसरी समसमाज तत्व। जब निरी स्वार्थसिद्धि की भावना लोगों के मन में जागती है तो वे सोचते हें कि केवल वे ही अच्छा पहने ,खायें, और विलासिता के साधनों का उपभोग करें। इन लोगों की दुहरी मानसिकता होती है और वे समाज में किसी न किसी प्रकार का डोग्मा या भावजड़ता का रोपण कर लोगों को उसका गुलाम बनाकर अपना  स्वार्थ सिद्ध करते रहते हैं। संसार के अधिकाॅंश  धर्म इसी मानसिकता पर आधारित पाये जाते हैं। यही कारण है कि लोग उन देवी देवताओं की पूजा में लगे रहते है जिनसे उन्हें भौतिक जगत की उपलब्धियों, धन,नाम, यश  आदि प्राप्त होने का लोभ दिया जाता है, ये तथाकथित पंडितों की कल्पनायें होती हैं क्योंकि इनके माध्यम से उनकी दूकानदारी चलती रहती है।

* जैन और बौद्ध धर्म के निर्वाणतत्व और अर्हतत्व तो सर्वत्याग की बात करते हैं । ये जीवन और भौतिक संसार के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोंण पर आधारित हैं। कर्मसंन्यास और स्थिति संन्यास इसके मार्गदर्शक  सिद्धान्त है जो सिखाते हैं कि संसार में दुख के अलावा कुछ नहीं है। इस प्रकार उन्होंने संसार को ही नहीं अपने आप को भी धोखा दिया है क्योंकि जीवन के लयबद्ध विस्तार को त्याग कर मनुष्य सोचने लगे कि उनके चारों ओर जड़ता के अंधेरे के अलावा कुछ नहीं है। यह उसी प्रकार है जैसे, एक सुदृढ़  प्रज्वलित हो रहे दीपक को, जो मानवता के अस्तित्व को प्रकाशित और महिमान्वित करता है, बुझा दिया जावे। जीवन का दीपक , एक बार पूर्ण रूप से बुझ जाने के बाद उसे पुनः प्रज्वलित नहीं किया जा सकता चाहे हजार बार जलती तीली उसके पास लायी जावे। यह प्रबल नकारात्मकता है।

मोक्ष और निर्वाण समानार्थी नहीं हैं, क्योंकि मोक्ष पर आधारित तंत्र तो निर्पेक्ष विस्तार की साधना है जो प्रकाश  की चाल से जड़ता के घने अंधकार से दिव्य प्रकाश  की ओर ले जाता है जबकि निर्वाण का अनुसरण करना अमूल्य जीवन के प्रकाशित दीपक को जानबूझकर बुझाने की साधना है। यह और कुछ नहीं है बल्कि भीतरी और बाहरी संसार के प्रकाश  को धीमा और धीमा करते जाना है। और, अपने आपको रसातल में खो देना ही नहीं गूढ़ अज्ञानता के प्रभाव से अपने अस्तित्व को ही नकार देना है। अपने आप को अंधकार में खो देने की साधना धर्म अथवा मानव की प्रकृति नहीं कहला सकता। जैन और बौद्ध दर्शन  ने पूर्व से स्थापित शैव दर्शन  को अगणित क्षति पहुंचाई है। पूर्णतः विपरीत सिद्धान्तों अर्थात् निर्वाण पर आधारित निर्ग्रन्थ  जैन और विस्तारित शैव, लोगों के हृदय में साथ साथ लंबे समय तक चलते रहे। फिर स्वभावतः परस्पर संयोजन का काल आया जिसमें जैन तंत्र, दिगम्बर अर्थात् निर्ग्रन्थवादी साधना पद्धति ने इन साधकों को आत्म साधना के मार्ग में आन्तरिक रूप से संतुष्ट नहीं कर पाया, क्योंकि वे मूलतः पूर्व से सुस्थापित शैव तंत्र के ही उपासक थे।

यद्यपि ‘‘जैन‘‘, ‘‘जिन‘‘ शब्द  से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है ‘ विजयी होना‘, सभी क्षेत्रों में संघर्ष कर विजयी होना परंतु क्या कछुए की तरह जीवित रहकर विजयी होना संभव है? विजयी होने के लिये दृढ ऊर्ध्वगामी  संवेग चाहिये होता है। इसलिये जैन दर्शन  व्यक्ति को अंधेरे में ले जाकर अक्रियता की गुफा में फेकता है और पूर्णतः दोषदर्शी  बनाता है। यही कारण है कि जैन दर्शन  भारत के बाहर कभी नहीं फैल पाया। यह जीवन के प्राकृतिक दर्शन  के विपरीत है। भारत के पश्चिमी  भाग के कुछ व्यापारियों के बीच ही जैन दर्शन जीवित  है, आज वह वहां से भी उखाड़ फेका गया है जहाॅं कभी उसका जन्म हुआ था। जैन धर्म को कुछ धनी वैश्यों  को छोड़कर अन्य लोगों ने नहीं अपनाया क्योंकि :-
1. जैनवाद संघर्ष का विरोधी है, महावीर के द्वारा अहिंसा  की जो व्याख्या की गई वह अप्राकृतिक और अव्यावहारिक है, जैसे , अहिंसा के अनुसार किसी जीव की हत्या नहीं करना है परंतु खेती करने में प्रति दिन करोड़ों अरबों जीवधारियों का मरना निश्चय  होता है अतः जैन धर्म के साधक खेती कैसे करेंगे? नाक से श्वास  के साथ अनेक माइक्रोब  शरीर  में पहुंचकर मर जाते हैं अतः वे बिना श्वास  के कैसे जीवित रहेंगे और कब कब नाक के ऊपर कपड़ा रखेंगे।
2. निर्ग्रन्थवाद में आध्यात्मिक साधना के अंतिम अभ्यास के समय निर्वस्त्र होकर अर्थात् दिगम्बर होकर रहने के निर्देश  हैं जो समाज में रहने वालों द्वारा अव्यावहारिक होने के कारण नकार दिया गया।
3. समाज में दीर्घकाल से सुस्थापित शैव धर्म के उपासकों के लिये नास्तिक जैनदर्शन  और आस्तिक शैवदर्शन  के बीच बहुत अधिक अंतर प्रतीत हुआ।
           इस प्रकार मगध में महावीर को जैन धर्म के प्रचार में सफलता न मिलने के कारण वह राढ़ के
           प्रसिद्ध नगर आस्तिक नगर पहुॅंचे जहाॅं भी उनके इस अक्रियवाद को लोगों ने नहीं सुना
           (केवल कुछ धनी व्यापारियों को छोड़कर, वह भी धर्म से प्रभावित होकर नहीं वरन् वैश्य  घराने
           के होने के कारण)।

Sunday 23 November 2014

मध्य (भाग तीन) ब्रह्म की सगुणता

                                              मध्य (भाग तीन)  ब्रह्म की सगुणता
    4: महासम्भूति और तारक ब्रह्म
    तन्त्र विज्ञान के अनुसार ब्रह्मचक्र में संचर और प्रतिसंचर घाराओं में प्रवाहित होकर जीव अपने मूलतत्व परमपुरुष में मिलकर अपना चक्र पूरा करता है जो कि सभी का लक्ष्य है परंतु प्रकृति के आकर्षण प्रभाव से अधिकांश  यहीं भटकते रहते हैं और यह चक्र लगातार चलता रहता है। जो महापुरुष अपनी साधना के बल से प्रकृति के बंधनों को काटकर स्वसामर्थ्य  से परम पुरुष को साक्षात् कर चुकते हैं और मनुष्यों सहित सभी जीवों
के कल्याण करने और उचित दिशा  में लाने के उद्देश्य  से स्वेच्छा से अपना पूर्व शरीर धारण किये रहते है और साधकों को उचित मार्गदर्शन  देने का संकल्प पूरा कर स्वेच्छा से ही वापस अपने मूल में पहुंच जाते हैं उन्हें महासम्भूति कहते हैं। इनका दार्शनिक  नाम तारक ब्रह्म है। इनका कार्य सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म के बीच पुल की भाॅंति होता है। मानव सभ्यता के विकास क्रम में अभी तक दो महासम्भूतियाॅं हुई हैं एक लगभग सात हजार वर्ष पूर्व भगवान सदाशिव के नाम से  और दूसरी लगभग साढ़ेतीन हजार वर्ष पूर्व भगवान कृष्ण के नाम से। काल क्रम के प्रवाह में इनके संबंध में लोगों को समय समय पर अनेक विद्वानों के द्वारा अनेक प्रकार से कथाओं के माध्यम से समझाया जाता रहा है पर आज की स्थिति में वह सब इतना विकृत हो गया है कि उनके संबंध में यथार्थता को भूल कर केवल किस्से कहानियाॅं ही सुनी और सुनाई जाती हैं। इन्हीं के साथ विद्वानों ने समय समय पर अपनी ओर से भी अनेक मनगढ़ंत अवैज्ञानिक और जड़ता भाव भरी परम्परायें जोड़कर आडम्बर को प्रेरित किया है और सबको पथ भ्रमित किया है। नीचे दिये गये वैज्ञानिक और तार्किक विवरण से आप समझ जायेंगे कि ये वास्तव में क्या हैं और कथाकारों द्वारा इन्हें क्या से क्या बना दिया गया है।

4.1: भगवान सदाशिव
भगवान सदाशिव के संबंध में लोगों ने अनेक भ्रांतियां फैला रखीं हैं और समाज को किये गये उनके योगदान को बिलकुल भुला रखा है। इन्हें भोला भाला भांग धतूरा खाने वाला हमेशा  नशे  में रहने वाला और न जाने क्या क्या उपमाओं से आवेष्ठित कर प्रस्तुत किया गया है। आश्चर्य  यह है कि इसके बाद भी उन्हें अवढरदानी और आशुतोष कहा गया है। यर्थातः आध्यात्म विज्ञान में शिव को महायोगी, महासम्भूति, तारकब्रह्म आदि उपाधियों से सम्मानित किया गया है और तन्त्रविज्ञान का जनक कहा गया है।

* भगवान शिव ने सबसे पहले यह बताया कि परमब्रह्म (cosmic entity) अपने क्रियात्मक पक्ष जिसे हम प्रकृति (nature) के नाम से जानते हैं, की सहायता से आकार देकर ब्रह्माॅंड का संपूर्ण स्रजन करता है। प्रकृति सात्विक बल(sentient force) को आधार बनाकर राजसिक(mutative force) और तामसिक (static force) बलों की मदद से दृश्य   प्रपंच रचती है। यथार्थतः आधार अदृश्य  सा ही रहता है केवल म्युटेटिव और स्टेटिक बलों की ही जड़ानुभूति सबको होती रहती है और द्वन्द्वों का आभास होता रहता है। जबकि इन द्वन्द्वों का अस्तित्व उस सेन्टिऐंट बल पर ही टिका रहता है। यदि इनमें असंतुलन हो जाये तो वे सब अस्तित्वहीन हो जावेंगे। प्रत्येक जड़ वस्तु चाहे वह सूर्य, और आकाशगंगायें हों या छुद्र इलेक्ट्रान सबका अस्तित्व है परंतु ये यह नहीं जानते। जबकि मनुष्य, चीटी, केंचुआ ये सब जानते हैं कि उनका अस्तित्व है। यह एग्जिस्टेंशियल फीलिंग ही वह आधार है जिस पर जीव व जगत टिका हुआ है। इसलिये ‘‘मैं हूं‘‘ इसी बोध में उस परमपुरुष की सत्ता अदृश्य रूप में रहती है। इसे समझने के लिये हम भौतिकी के बलों के त्रिभुज नियम को ले सकते हैं जो संतुलन में टंगी तस्वीर के दो छोरों पर लगी रस्सी से दो बलों को तो प्रदर्शित  करता है पर तीसरा बल जो तस्वीर में से लगता हुआ संतुलन बनाये रखता है दिखाई नहीं देता जबकि तस्वीर दिखती है। यही अदृश्य  सेंटिऐंट बल आधार है जो तस्वीर को टांगे रहता है।

* वे प्रारंभ से ही सार्वभैमिक सत्ता के रूप में समाज की हर समस्या का हल करने के लिये उपलब्ध रहे हैं अतः मानव सभ्यता और संस्कृति के निर्माण में उनका अतुलनीय योगदान है। वे आदिपिता हैं  पर उनका कोई मातापिता नहीं है, वे स्वयंभू हैं।

* प्रारंभ में सभी जगह, चाहे वह सेंट्रल एशिया हो यूरोप या दक्षिण पूर्व एशिया, एक सी भाषा थी। इसकी जो शाखा दक्षिण पूर्व एशिया में प्रसिद्ध थी वह 'संस्कृत' कहलाती थी और उत्तरपूर्व में बोली जाने वाली 'वैदिक' कहलाती थी। वैदिक संस्कृत आर्यों के साथ आयी जबकि संस्कृत भारत के मूल निवासियों की भाषा थी। वैदिक भाषा की प्राचीनता की सही सही जानकारी किसी को नहीं है, इस भाषा का सबसे प्रचीन ग्रंथ ऋग्वेद है जो लिखित रूप में बहुत बाद में आया क्योंकि उस समय लिपि का ज्ञान नहीं था। ब्राह्मी, खरोष्टी और अन्य लिपियां 5000 से 7000 वर्ष पूर्व अस्तित्व में आईं। सारदा , नारदा , कुटिला आदि लिपियां ब्राह्मी से तथा श्रीहर्ष  लिपि कुटिला से उद्भूत हुई है। यद्यपि मानव का उद्भव लाखों वर्ष पहले हो गया था पर मानव सभ्यता का प्रारंभ 15000 वर्ष  पहले ही माना जाता है। ऋग्वेद 15000 वर्ष पहले से 7500 वर्ष पहले के बीच रचा गया माना जाता है। ऋग्वेद काल की समाप्ति और यजुर्वेद काल के प्रारंभ में भगवान सदाशिव का भौतिक आविर्भाव माना जाता है। इन्हीं के समय आर्य लोग उत्तर पश्चिम  से भारत में आये। इस प्रकार संस्कृत और वैदिक का एक दूसरे पर प्रभाव पड़ा।

* शिव ने तंत्र को सुव्यवस्थित किया, यद्यपि गौड़ीय और कश्मीरी  तन्त्र के रूप में वह पहले से अव्यवस्थित और बिखरा हुआ था। शिव का अर्थ है कल्याण, अस्तित्व का चरम बिंदु तथा 7000 वर्ष  पहले धरती पर आये महासंभूति सदाशिव।

*सदाशिव ने समाज के उत्थान के लिये कार्य करते समय 5 प्रकार के भाव अपने चेहरे से प्रदर्शित  किये अतः उन्हें पंचवक्त्र अर्थात् पांच मुंह वाला कहा जाता है। ये पांच भाव हैं, बीच में 'कल्याणसुन्दरम', बिल्कुल बायें 'कालाग्नि' और फिर 'वामदेव' तथा बिल्कुल दायें 'ईशान' और फिर 'दक्षिणेश्वर' । कल्याणसुंदरम अन्य सभी भावों को नियंत्रित करते हैं।

*शिव के काल में मातृसत्तात्मक सामाजिक प्रणाली समाप्ति की ओर थी और पितृसत्तात्मक प्रणाली उत्थान की ओर थी। फिर भी मातृ सम्पत्ति अधिकार की पद्धति  शिव के काल से बुद्ध और महावीर जैन के काल अर्थात् 2500 वर्ष पहले तक प्रचलित रही।

* जन सामान्य पहाड़ों पर रहा करते थे और प्रत्येक पहाड़ का एक मुखिया होता था जो ऋषि कहलाता था। संस्कृत में पहाड़ को गोत्र कहते हैं अतः मुखिया गोत्र पिता के नाम से जाना जाता था इसी कारण गोत्र बताने की पृथा चली जो किसी समूह विशेष की पहचान हेतु अभी भी प्रचलन में है। शिव के काल में विभिन्न गोत्रों में अपने आप को एक दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ में लड़ाइयां होती रहती थी। जब एक समूह अर्थात् गोत्र दूसरे
को लड़ाई में जीत लेता था तो हारने वाले को वह गोत्र मानना पड़ता था। जीतने वाला गोत्र समूह हारने वाले समूह की सम्पत्ति और स्त्रियों को बल पूर्वक ले जाते थे और पुरुषों को दास बनाकर उनके गोत्र बदल दिये जाते थे जिन्हें उपगोत्र अर्थात् प्रवर कहा जाता था। विवाह के समय वर वधू को कपड़े से बांधना और महिलाओं की मांग लाल रंग से भरना वास्तव में उस काल में लड़कर जीतने और बंधक बनाने की पृथा  का ही बदला रूप है। शिव ने विवाह व्यवस्था का नया रूप देकर इस प्रकार के लड़ाई झगड़े बंद कराये । वास्तव में विवाह नाम की संकल्पना शिव ही की देन है। उनके पूर्व यह पृथा  नहीं थी, अतः माता को तो पहचाना जा सकता था पर पिता को नहीं । शिव ने विवाह नाम की संकल्पना को स्थापित कर समाज में इस ''विशेष व्यवस्था के अंतर्गत जीवन निर्वाह करना'' सिखाया। इसलिये वह सर्व प्रथम विवाहित पुरुष के नाम से भी जाने जाते हैं। उन्होंने परस्पर झगड़ने वाले आर्य, मंगोल और द्रविड़ों को एकीकृत करने की दृष्टि  से तीनों सभ्यताओं की क्रमशः  'पार्वती', 'गंगा' और
'काली' नाम की कन्याओं से  विवाह किया।

*वैदिक युग में सात प्रकार के छंदों में वार्ता और आराधना करने की पृथा  थी वे गायत्री, उष्निक, त्रिष्टुप, अनुष्टुप, जगति, ब्रहति और पंक्ति के नाम से जाने जाते हैं। ऋग्वेद के तीसरे मंडल के दसवें सूक्त में परम पुरुष के लिये लिखित सावित्र ऋक गायत्रीछंद में लिखा गया है। लोग गलती से उसे गायत्री मंत्र कहते हैं।

*शिव ने निरीक्षण कर 7 प्रकार के प्राणियों में संगीत के स्वरों को जोड़ा जैसे, मोर षड़ज, बैल ऋषभ, बकरा गंधार, घोड़ा मध्यम, कोयल पंचम, गधा धैवत्य, और हाथी निषाद। इनके प्रथम अक्षर लेकर स्वर सप्तक बनाया, सा रे ग म प ध नि आदि। इस प्रकार शिव ने समाज को संगीत  अर्थात् नृत्य, गीत और वाद्य दिया। उन्होंने श्वाश , प्रश्वाश पर  आधारित लय के साथ मुद्रा को जोड़ा। वैदिक काल में छंद था पर मुद्रा नहीं, वैदिक ज्ञान के 6 भाग थे, छंद, कल्प, निरुक्त, ज्योतिष, व्याकरण आयुर्वेद या धनुर्वेद। उन्होंने 'महर्षि भरत' को संगीत विद्या में प्रवीण कर इच्छुक व्यक्तियों को संगीत की शिक्षा का कार्य सौंपा।

* शिव ने धर्म की अवधारणा को स्थापित किया जिसके अनुसार, नैतिकता और आध्यात्मिक अभ्यास के द्वारा परमसत्ता को पाने की ललक ही वास्तविक धर्म है।

*वेदों में किसी धर्म विशेष  का उल्लेख नहीं है, उनमें विभिन्न ऋषियों की शिक्षाओं  का संग्रह है अतः समय के अनुसार उनकी शिक्षाएं  बदलती रही हैं। ऋग्वेद का आर्ष धर्म अर्थात् ऋषियों का कथन यजुर्वेद से भिन्न है। मंत्रों का उच्चारण और जप क्रिया भी भिन्न भिन्न है। बंगाली यजुर्वेदी तथा गुजराती ऋग्वेदीय विधियों का पालन करते हैं।

*आर्यों और अनार्यों की लड़ाई में अनार्यों को दास बनाकर उन्हें ‘ओम‘ शब्द के उच्चारण करने पर प्रतिबंध लगाया गया था। महिलायें भी ओम के स्थान पर केवल नमः कह सकतीं थीं।

* शिव ने यज्ञों में पशुओं की आहुति देने का विरोध किया और अहिंसा तथा शांति का मार्ग बतलाया जो कि ज्यो और सोसियो सेंटीमेंट (Geo and Socio- sentiment) से ऊपर था। इसे ही शैव धर्म कहा गया है। बिखरे हुये तंत्रयोग को उन्होंने एकीकृत किया और उसके व्यावहारिक पक्ष का महत्व समझाते हुये आव्जेक्टिव और सव्जेक्टिव संसार के वीच आदर्श  संतुलन बनाने की व्यवस्था की। इसमें किसी भी वर्णजाति की अवहेलना नहीं की गई, शैव धर्म परमपुरुष के साथ प्रीति करने का धर्म है। इसमें कर्मकांडीय विधियों अथवा घी या प्राणियों की आहुतियों का कोई विधान नहीं है।

* असुर कोई डरावनी सूरत के 50 फीट लंबे या ‘एबनार्मल‘ नहीं थे, ये सेंट्रल एशिया के असीरिया देश  के निवासी थे। ये अनार्य थे अतः आर्य इनसे घृणा करते थे। अभी भी पलामू जिले में इनकी समाज पाई जाती है। शिव ने इन्हें आरक्षण दिया और बताया कि सभी परमपुरुष की संताने हैं और सबको जीने का अधिकार है । वे सबको आदर्श  जीवन जीने में सहायता करने के लिये सदा तत्पर रहते थे।

* शिव ने जीवन का कोई भी क्षेत्र अनछुआ नहीं छोड़ा, उन्होंने देखा कि जीवन श्वास की आवृत्तियों से बंधा हुआ है। ये प्रतिदिन 21000 से 25000 तक होती हैं जो व्यक्ति व्यक्ति में बदलती रहती हैं। मनुष्य की श्वास लेने की पद्धति, मन, बुद्धि और आत्मा पर प्रभाव डालती है। इडा, पिंगला, और सुषुम्ना स्वरों की पहचान और किस स्वर में किस कार्य को करना चाहिये  और आसन, प्राणायाम, धारणा ,ध्यान आदि कब करना चाहिये यह सब स्वरविज्ञान या स्वरोदय कहलाता है। षिव से पहले यह किसी को ज्ञात नहीं था, बद्ध कुंभक, शून्य कुंभक आदि इसी के प्रकार हैं। उन्होंने बताया कि जब इडा सक्रिय होती है तो बायां स्वर, जब पिंगला  सक्रिय होती है तो दांया स्वर और सुषुम्ना के सक्रिय होने पर दोनों नासिकाओं से स्वर चलते हैं।

* शिव ने देखा कि मनुष्य शरीर में अनेक ग्रंथियों को उचित अभ्यास कराया जावे तो उनसे निकलने वाला हारमोन न केवल शरीर को वरन् आत्मा को भी लाभ देता है। उन्होंने स्वर विज्ञान के नियमानुसार छंद और मुद्रा के साथ नृत्य करना सिखाया अतः इससे न केवल स्वयं को वरन् दर्शकों  को भी लाभ पहुंचा। परंतु कुछ ऐंसे ग्लेंड होते हैं जिन्हें नृत्य मुद्रा और छंद से लाभ नहीं होता जैसे सोचना, याद करना आदि, अतः शिव ने तांडव नृत्य बनाया और पार्वती के सहयोग से महिलाओं के लिये कौषिकी नृत्य बनाया। तांडव में बहुत उछलना होता है, जब तक नर्तक जमीन से ऊपर होता है उसे अधिक लाभ मिलता है जमीन के संपर्क में आते ही यह लाभ शरीर में समा जाता है। अतः अधिक लाभ लेने के लिये अधिक देर तक जमीन से ऊपर रहना चाहिये। तांडव शब्द तंदुल अर्थात् धान से चावल निकालना, से बना है। बिना पकाया गया चावल 'तंदुल' तथा पकाया गया चावल संस्कृत में 'ओदन' कहलाता है। [शुद्धोदन का अर्थ है जिसका पकाया गया चावल शुद्ध हो अर्थात् जो ईमानदारी से अपना भोजन कमाता हो। बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन था।] इस तरह छंद मुद्रा और ग्रंथियों के उचित तालमेल से तांडव नृत्य दिया गया है जो ब्रेन के लिये एकमात्र एक्सरसाईज है जिसका न तो भूतकाल में कोई विकल्प था और न ही भविष्य में कोई विकल्प है।

* शिव से पूर्व वैदिक काल में आयुर्वेद अर्थात् मुष्टियोग प्रचलित था, पर व्यवस्थित नहीं था। शिव ने तंत्र आधारित वैद्यकशास्त्र की रचना की और धन्वन्तरी को इसमें प्रशिक्षित कर इसके प्रचार प्रसार का कार्य सौंपा। वैदिक आयुर्वेद में सर्जीकल कार्य की कहीं भी उल्लेखनीय प्रगति नहीं है। सेंट्रल एशिया के सेक्डोनिया से ब्राह्मणों का एक दल आया जिसने इस क्षेत्र में सर्जरी का प्रचार किया। सेक्डोनिया को संस्कृत में शाकद्वीप या शाकलद्वीप कहते हैं, वर्तमान में इसका नाम ताशकंद है। चूंकि सेक्डोनियन ब्राह्मणों ने इस्लाम को अस्वीकार कर दिया था अतः उन्हें अपना घर छोड़कर समुद्री मार्ग से पश्चिम  भारत आना पड़ा। वे अपने साथ लोंग और हस्तरेखा ज्ञान लाये। संस्कृत में लोंग का समानार्थी लवंग, देवकुसुम या वारिसंभव है। वारिसंभव का अर्थ है जो समुद्र के उस पार से लाया गया है। इसी प्रकार हस्तरेखा ज्ञान को सामुद्रिक शास्त्र कहा जाता है क्योंकि वह भी इन ब्राह्मणों के साथ समुद्र के उस पार से आया है।

* यहां ध्यान रखने की बात यह है कि सेक्डोनियन ब्राह्मण शिव के 6000 वर्ष  बाद भारत आये जिन्होंने आयुर्वेद में सर्जरी को जोड़कर उसे उन्नत किया पर शिव ने अपने वैद्यकशास्त्र में सर्जीकल आपरेशन्स का वर्णन पहले ही दे दिया था क्योंकि वैद्यकशास्त्र और चिकित्सा विज्ञान को उन्होंने अपने कार्यकाल में ही व्यवस्थित किया था। इसी कारण भारत के मूल निवासी शवपरीक्षण और सर्जरी से पूर्व से ही परिचित थे परंतु आर्यों के भारत आगमन के बाद इन मूल निवासियों को उन्होंने अस्पृश्य  माना क्योंकि वेदों में मृत देह का स्पर्श  करना अस्पृश्य  माना गया है।

* पौराणिक धर्म आज से 1300 वर्ष पहले प्रारंभ हुआ। जिन लोगों ने इसे स्वीकार किया उन्होंने प्रयाग में एक सम्मेलन किया जिसमें ब्राह्मणों की मान्यता संबंधी मानदंड निर्धारित किये गये। पौराणिक धर्म अपनाने वाले जिन्होंने वेदों की सर्वोत्तमता स्वीकार की, भले ही वे उनके निर्देशानुसार न चलते हों, उन्हें ब्राह्मण कहा गया। भारत के मूल निवासी जो शवपरीक्षण करते थे उन्हें ब्राह्मण नहीं माना गया भले ही वे कितने ही सदाचारी रहते हों। प्रयाग सम्मेलन में उत्तर भारत के 5 वर्गों अर्थात् पंचगौड़ी (पंजाब के सारस्वत, कश्मीर , दक्षिण रूस,
अफगानिस्तान और राजस्थान के गौड़, पश्चिम  उत्तरप्रदेश  और मिथिला के मैथिल और गुजरात के नागर)
और 5 वर्ग दक्षिण भारत के पंचद्रविड (उत्कल, तैलंग, द्रविड, कर्नाट और चित्पावन ब्राह्मण) को ब्राह्मण के रूप में मान्य किया गया। बंगाल के राढ़ी, वारेंद्र, केरल के नंबूदरी, कौकण के गौड़सारस्वत, मगध के क्रोंचद्वीपी, पश्चिम  बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश  के सरयूपारी ब्राह्मणों को इस सम्मेलन में मान्यता नहीं दी गयी। सेक्डोनियन ब्राह्मण इस सम्मेलन के बहुत बाद भारत आये, इनमें से जो ज्योतिष और आयुर्वेद जानते थे उन्हें ब्राह्मण माना गया, पर बंगाल के वैद्यकशास्त्र के जानकार यद्यपि चिकित्सा के क्षेत्र में आगे थे पर उन्हें ब्राह्मण के रूप में मान्य नहीं किया गया।

*  शिव के जाने के बहुत बाद, बौद्ध और जैन दर्शन  ने भारत को समेट लिया पर फिर भी शैव धर्म, भारतीय समाज में धरती के भीतर बहने वाले पानी की तरह अपना प्रभाव भीतर ही भीतर बनाये रखा। यही कारण है कि बौद्ध और जैन धर्म का वाह्य रूप लिये अभी भी बंगाल में शिव को केन्द्रित किये अनेक उत्सव मनाये जाते हैं जो भले ही शिव ने नहीं सिखाये जैसे, चरक अर्थात् चक्र- धर्मचक्र, गाजन अर्थात् गर्जन, झानयन आदि। ये सभी शिव के 5500 वर्ष बाद बुद्धोत्तर और जैनोत्तर काल में, जनसाधारण द्वारा शिव से जुड़े होने के कारण चलन में बने रहे। शैव धर्म के बाद बुद्ध और जैन धर्म का प्रभाव बढ़ा परंतु इनका दर्शनाधार  घटने के कारण इसी बीच नया धर्म पौराणिक धर्म आया । अतः इस संक्रमणकाल में नयी संकल्पना लिये नये कल्ट ने बौद्ध योगाचार अर्थात् वज्रयान और पौराणिक धर्म जो शिवाचार कहलाया (भले ही वह शैव धर्म से संबंधित नहीं था) को संयुक्त करके इसे नाथ धर्म का नाम दिया जिसमें इसके प्रवक्ताओं के नाम के बाद नाथ लिखने की परंपरा बन गयी। इसका प्रभाव उत्तरप्रदेश , बिहार, बंगाल आदि में हुआ। इससे न केवल शैव, वरन् बौद्ध और जैन धर्म भी प्रभावित हुये।

 *पौराणिक कल्ट में पांच उपविभाग किये गये शिवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, सौराचार, और गणपत्याचार। बौद्ध धर्म के घटने और पौराणिक धर्म के प्रभावी होने के समय महाराष्ट्र में गणपत्याचार (गणेश  केन्द्रित), लगभग इसी समय बंगाल में शाक्ताचार (जिसमें पशु  बलि का विधान किया गया), दक्षिण भारत में शिवाचार और वैष्णवाचार उदित हुआ। सेक्डोनियल ब्राह्मणों ने सौराचार अपनाया क्योंकि वे सूर्य को ही प्रधानता देते थे और ज्योतिष का कार्य करते थे, ये लोग जहां भी रहे सूर्य मंदिर बनवाये। सूर्य देवता अफगानियों की तरह ढीले पाजामा जैकेट पहने सिर पर टोपी और हाथ में रोजरी लिये दिखाये गये हैं।

*तत्कालीन बंगाल के राजकुमार मत्स्येन्द्रनाथ नाथ कल्ट के अनुयायी थे अतः इनके समय बौद्ध और जैन धर्म में उपरोक्त पांच  उपविभागों में बहुत परिवर्तन हुये। बौद्ध और जैन धर्म के घटने और पौराणिक धर्म के बढ़ने के बीच के संधिकाल में शंकराचार्य का उद्भव हुआ जिन्होंने इन पांचों को एकीकरण करने का कार्य किया। इन्हें शिव का अवतार घोषित किया गया क्योंकि शिव के बिना उन्हें शायद महत्व कम मिलता।

* देवता: जब किसी का व्यक्तित्व और दर्शन  पूर्णतः एक समान हो जाते हैं तो वह देवता हो जाता है। ‘‘द्योतते क्रीडते यस्मात् उदयते द्योतते दिवि, तस्मात् देव इति प्रोक्तः स्तूयते सर्व देवतैः।‘‘ अर्थात् ब्रह्मांड के नाभिक से उत्सर्जित होने वाले जीवन के अनंत आकार जो समग्र ब्रह्मांड में गतिशील हैं और प्रत्येक अस्तित्व के भीतर रहकर सबको प्रभावित करते हैं देवता कहलाते हैं। चूंकि शिव का आदर्श  उनके जीवन से पूर्णतः  एकीकृत है अतः इस परिभाषाके अनुसार उन्हें देवता कहा जाता है। परंतु शिव के व्यक्तित्व के अनुसार वह तो समग्र देवताओं के समाहार हैं अतः देवता शब्द तो उनके लिये बहुत छोटा लगता हैं, वे तो देवताओं के भी देवता हैं अर्थात् महादेव हैं।

* देवीशक्ति: जब ब्रह्मांड के नाभिक से कोई रचनात्मक तरंग उत्सर्जित  होती है तो वह अपने संकोच विकासी स्वरूप के साथ विकसित होने के लिये प्रमुख रूप से दो प्रकार के बलों का सहारा लेती है।
1. चितिशक्ति 2. कालिकाशक्ति। वास्तव में पहला बल उसे आधार जिसे हम ‘‘स्पेस‘‘ कहते हैं, देता है और
दूसरा बल ‘‘टाइम‘‘ अर्थात् कालचक्र में बांधता है, इसके बाद ही उस तरंग का स्वरूप आकार पाता है। ध्यान रहे इस कालिकाशक्ति का तथाकथित कालीदेवी से कोई संबंध नहीं है, काल अर्थात् (eternal time factor)
 के माध्यम से अपनी क्रियाशीलता बनाये रखने के कारण ही इसे कालिकाशक्ति नाम दिया गया है।

शिव के साथ जुड़े तथाकथित देवी देवता पश्चात्वर्ती  हैं, 7000 वर्ष पहले वे शिव के समय नहीं थे। वैदिक काल में इंद्र, अग्नि, वरुण आदि को देवता कहा गया है परंतु मूर्तियों द्वारा उनकी पूजा नहीं की जाती थी, यज्ञाहुतियों में ही आर्य उन्हें स्मरण करते थे। परमब्रह्म की भी मूर्ति के रूप में पूजा नहीं होती थी। वेद में कहा गया है ईश्वरस्य  प्रतिमा नास्ति। प्रतिमा का अर्थ है ‘‘डुपलीकेट‘‘ अर्थात् मूल आकार के समान, चूंकि परमपुरुष के समान अन्य कोई है नहीं अतः उसकी मूर्ति हो ही नहीं सकती। शिव के समय अनेक कालशक्तियां स्वीकृत थीं पर मूर्तियां नहीं । शिव के बहुत बाद जैन और बौद्ध के प्रभाव में विभिन्न देवी देवताओं और उनकी मूर्तियों को बनाया जाने लगा। शिवोत्तर तंत्र में ही, मूलतः शिवतंत्र का ही रूपान्तरण बुद्ध और जैन तंत्र के प्रभाव में हुआ है।

* बुद्ध के 300 वर्ष बाद बौद्ध धर्म दो भागों में 1. महासंघम 2. स्थाविरवादी या थेरावादी में बंट गया। इसके कुछ समय बाद एक भाग और हुआ जिसे सम्मितीय कहा गया पर वह अधिक नहीं टिक पाया। महासंघिक अपने को महायानी और थेरावादी हीनयानी कहने लगे। महायानी, तिब्बत, चीन, मंगोलिया, अफगानिस्तान,
 कश्मीर , नेपाल, भूटान, सिक्किम, नेफा, दक्षिणपूर्व रूस, जापान, कोरिया आदि में फैल गये, इनका साहित्य सामान्य संस्कृत में है जबकि बुद्ध ने अपने उपदेश  पाली भाषा में दिये हैं। हीनयानी, श्रीलंका, चिटगांव, बंगाल, वर्मा, इंडोनेशिया, थाइलेंड, फिलीपीन आदि में फैल गये इनका साहित्य मगधी प्राकृत अर्थात् पाली में है। इसके कुछ समय बाद महायानी दो भागों में बंट गये 1.मंत्रयान 2.तंत्रयान। इसी समय लोगों की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये अनेक नये बौद्ध देवी देवताओं की रचना की गई। इसके बाद तंत्रयान भी
कालचक्रयान और वज्रयान दो भागों में बंट गया। इसके पीछे कारण यह था कि बुद्ध ने अपने दर्शन  में दुखवाद को स्थान दिया, जैसे दुख है, दुख का कारण है, दुख दूर होता है, दुख से दूर होने के उपाय हैं, आदि आदि। इस
 कारण से लोगों में इसमें अरुचि उत्पन्न होने लगी अतः भौतिक जगत के आकर्षण और वस्तुएं प्रदान करने वाले देवी देवताओं की कल्पना की गई और उनके पूजा की विधियां कल्पित की गईं और इस तरह, बुद्ध के शून्यवाद को अतिसुखवाद में परिवर्तित कर दिया गया और कहा गया कि वोधिसत्व अवस्था में बुद्ध आपको संसार के सभी सुखों को देंगे। बताया गया कि वोधिसत्व अवस्था आत्मसाक्षात्कार के थोड़े पहले की अवस्था है, इसे पंचबुद्धशक्तियों से जोड़ा गया और अक्षोभ्य, अमोघसिद्धि, अमिताभ, वैरोचन और ध्यानीबुद्ध नाम दिये गये। वोधिसत्व को, बुद्धत्व की ओर बढ़ता हुआ या बुद्धत्व प्राप्त व्यक्ति जिसने स्वेच्छा से वाह्य संसार से अपना संबंध बनाये रखा है, के अर्थ में प्रचारित किया गया। प्रारंभ में बुद्धशक्तियां  पांच थीं परंतु समयानुसार इनकी संख्या
बढ़ती गई। भारत में उग्रतारा, चीन में भ्रामरीतारा, तिब्बत में वज्रतारा, वज्रयोगनी, वज्रवाराही आदि नामों से इन बुद्धशक्तियों  को प्रचारित किया गया। बाद में इनके साथ हारिति, मारिचि, शीतला, मनहार जैसी वैदिक
देवियों को भी जोड़ दिया गया। इस तरह परस्पर अनेक देवीदेवताओं का आदान प्रदान शिवोत्तरकाल में होता रहा और लौकिक देवीदेवता जैसे मंगला चंडी, औलाइ चंडी, बानबीबी, शंकराचंडी, सुवाचनी, भी जोड़ दीगईं और भय के कारण लोग अंधश्रद्धालु होकर पूजने लगे। पौराणिक काल में भी इनमें से अधिकांश  को मान्यता दे दी गई। वास्तव में शिव की फिलासफी और पर्सनालिटी एक समान थी, उनके असाधारण व्यक्तित्व, क्रियाशीलता और कार्य करने की जादुई क्षमता ने उन्हें देवों का देव महादेव बना दिया इसी कारण वे शिवोत्तर तंत्रकाल तक महादेव ही रहे, जैन और बौद्ध तंत्र काल ने इनकी मूर्ति पर अपना अपना प्रभाव डाला और नया आकार दे दिया। पौराणिक काल में इन्हें जनेऊ पहनाया गया जबकि शिव अपने काल में सर्पो की माला ही पहनते थे। स्पष्ट है कि इन कल्पित देवी देेवताओं की मान्यता नहीं हो पाती यदि उन्हें कहानियों के द्वारा शिव से संबंधित न किया जाता ।

*शिव के परिवार से संबंधित अनेक अतार्किक कहानियाॅं जोड़ी जाती रहीं हैं जबकि वास्तविकता कुछ और ही है। पार्वती को ही लें, इसके शाब्दिक अर्थ को पर्वतराज हिमालय की पुत्री के रूप में समझा जाता है जबकि क्या एक पहाड़ मानव कन्या को जन्म दे सकता है? नहीं। वास्तव में हिमालयन क्षेत्र में राज्य करने वाले आर्यन राजा दक्ष की पुत्री पार्वती थीं। आर्यों और भारत के मूल निवासियों जिन्हें आर्य लोग प्रायः अनार्य, दानव, असुर, दास,शू द्र आदि कहते थे, के बीच हमेशा  झगड़े हुआ करते थे। तत्कालीन भारत के मूल निवासी आस्ट्रिको.मंगोलो.नीग्रोइड नस्ल के थे जिनकी अपनी संस्कृति थी और तंत्र विज्ञान तथा चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में ये बहुत उन्नत थे। शिव, भारत के मूल निवासी थे। शिव की प्रतिभा से प्रभावित होकर पार्वती ने उन्हें अपने पति के रूप में पाने की इच्छा की पर पिता को अनार्य से संबंध बनाना मान्य नहीं था। पार्वती ने शिव को पाने के लिये राजमहल त्यागकर जंगल में वनवासी कन्याओं की तरह पत्तों के वस्त्र पहिन कर तपस्या प्रारंभ कर दी। पत्तों को संस्कृत में पर्ण कहते हैं और वनवासिनी कन्यायें शिवरी कहलाती हैं। अतः उनका नाम पर्णशिवरी हो गया। पार्वती की तपस्या सफल होने पर शिव ने उनसे विवाह किया पर पार्वती वही पत्तों के वस्त्र पहना करतीं थीं, परंतु बाद में राज्य के सम्मानितों के अनुरोध पर उन्होंने राजसी वस्त्र स्वीकार कर लिये, इसके बाद उनका नाम अपर्णा हो गया। शिव से पार्वती का विवाह हो जाने के बाद लोगों ने सोचा था कि आर्यों और अनार्यों के संबंध सुधर जावेंगे पर यह संभव नहीं हुआ वरन् राजा दक्ष हमेशा  शिव का विरोध करते और अपमान करने का अवसर ढूंडते रहते। एकबार उन्होंने यज्ञ किया जिसमें उन्होंने शिव को आमंत्रित ही नहीं किया। पार्वती यज्ञ में शिव के बिना अकेले ही  पहुॅंचीं जहाॅं उन्होंने शिव का अपमान देखकर अपने आपको यज्ञ की अग्नि में जला डाला। इसके बाद से आर्यों और अनार्यों के परस्पर संबंध कुछ सुधर गये। गौरी या पार्वती का पौराणिक देवी दुर्गा से कोई संबंध नहीं है। दुर्गा मार्कंडेय पुराण की आठ और दस हाथों वाली काल्पनिक देवी हैं 1300 या 1400 वर्ष पुरानी, जबकि पार्वती मानव कन्या हैं दो हाथ वाली 7000 वर्ष पुरानी। पौराणिक काल में दुर्गा को शिव से जोड़ दिया गया अन्यथा उन्हें मान्यता कैसे मिल पाती।

वेदों में भी दुर्गा के पूजन की कोई विधि वर्णित नहीं है । दुर्गा को वेदों की मान्यता देने के लिये देवीसूक्त की हेमवती उमा का उल्लेख किया जाता है परंतु इनका गौरी , पार्वती, दुर्गा से कोई संबंध नहीं है। कारण, समय का अंतर। लोग गलती से उस संबंध को माने हुये हैं। हाॅं शिव की एक अनार्य पत्नी जिनका नाम था कालिका या काली  और अन्य मंगोलियन पत्नी जिनका नाम गंगा था, अवश्य  थी। आर्यों के भारत में आने के बाद आर्यों, अनार्यों या द्रविड़ों और मंगोलियन सभ्यता के लोगों में परस्पर होने वाली लड़ाइयों को समाप्त करने के लिये शिव ने तीन विवाह किये। सच्चाई तो यह है कि विवाह और परिवार नाम की संकल्पना को शिव ने ही मूर्तरूप दिया और पुरुषों को परिवार के पालन पोषण की जिम्मेवारी दी तथा समाज में प्रथम विवाहित पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हुए, शिव के पहले यह सामाजिक नियम नहीं था। काली और गंगा के संबंध में भी अनेक कथायें प्रचलित हैं पर सत्य की पहचान करना चाहिये अतार्किक कल्पनाओं को छोड़ देना चाहिये। शिव की एक पत्नी गौरी या पार्वती से एक पुत्र भैरव, दूसरी पत्नी काली से एक पुत्री भैरवी और तीसरी पत्नी गंगा से एक पुत्र कार्तिकेय या षडानन, हुए। भैरव और भैरवी दोनों ही तंत्र विज्ञान में प्रवीण होकर प्रगति कर रहे थे जबकि कार्तिकेय भौतिक जगत में ही रुचि लेने लगे थे। शिव के द्वारा सिखाई गयी तंत्र साधना की विधि को श्मशान में प्रारंभिक अभ्यास करने हेतु जाने के समय एक बार काली को अपनी पुत्री भैरवी के संबंध में बहुत चिंता होने लगी और वह उसे देखने श्मशान  में पहुंची। वहां पर शिव बहुत गंभीर ध्यान में मग्न थे। काली, श्मशान  में अंधेरे में चलते हुए रास्ते में शिव से टकरा गयीं। शिव ने पूछा, कस्त्वम्? अर्थात् तुम कौन हो? काली घबराईं, पहले अपना नाम काली का ‘का‘ ही उच्चारित कर पायीं फिर भैरवी उच्चारित करने के प्रयास में बोल गयीं ‘‘का...वै...री‘‘ असम्यहम्। अर्थात् मैं कावेरी हूॅं, तब से उनका एक नाम कावेरी हो गया। गंगा को अपने पुत्र की प्रगति की बड़ी चिन्ता थी क्योंकि वह भौतिकवादी होते जा रहे थे। शिव उनकी चिन्ता दूर करने के लिये उन्हें समझाते और इसी कारण उनकी प्रत्येक बात को काली अथवा गौरी की तुलना में अधिक महत्व देते थे, इस पर लोग विनोदवश  कहा करते कि शिव ने तो गंगा को अपने सिर पर बैठा रखा है। इन घटनाओं को पुराणकार ने क्रमशः  काली को नग्नावस्था में शिव के ऊपर पैर रखे जीभ बाहर निकाले हुये वर्णित किया, और गंगा को नदी के रूप में शिव के जटाओं में से बहते दर्शाया  है कितना आश्चर्य  है। स्पष्ट है कि पौराणिककाल की काल्पनिक चार हाथों वाली देवी दुर्गा अथवा आठ हाथों वाली कालिका से शिव का कोई संबंध नहीं है।

* जब किसी के व्यक्तित्व से उसका आदर्श  झलकने लगता है तो वह देवता के समान पूजनीय हो जाता है। अन्य सभी उसके आचरण के अनुयायी हो जाते हैं। शिव अपने समय के अंतिम कालखंड में देवों के देव महादेव के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। आर्य, अनार्य सभी उनकी भव्यता, सरलता और देवत्व के गुणों से भरपूर व्यक्तित्व के कारण अपने भेदभाव भूल गये और परस्पर सौहार्द से रहने लगे थे। वैदिक देवताओं के साथ आर्य भी शिव को एक देवता की तरह पूज्य मानने लगे और उन्हें वेदों में मान्यता दी गई। शिव अपने कार्यकाल में जनसामान्य के इतने निकट थे कि कोई भी छोटी बड़ी समस्या को हल करने के लिये वे हर समय उनके पास होते थे। यही कारण है कि उस समय उनका कोई बीजमंत्र नहीं था, परंतु वेद में, तंत्र में, प्रत्येक विशेष देवता को उसके बीजमंत्र से ही पूजा जाता है। अतः शिव को वेद में ‘म‘ बीज मंत्र दिया गया और स्पष्ट किया गया कि शिव रूपान्तरण के देवता हैं, ‘म‘ ट्रांस्म्युटेशन अर्थात् रूपान्तरण का बीज मंत्र है। शिव को वेदों में मान्य भले ही किया गया हो पर शिव ने वैदिक कल्ट का पालन कभी नहीं किया, वे हमेशा  तांत्रिक कल्ट का ही  पालन करते थे और अन्य लोगों को भी उसी अनुसार चलने के निर्देश  देते थे।

Thursday 13 November 2014

3.4 ध्वनि, अक्षर, बीज मंत्र और विचार


3.4 ध्वनि, अक्षर, बीज मंत्र और विचार (संशोधित )
इस ब्रह्माॅंड का प्रत्येक कंपन, रंग और ध्वनि का मिलित रूप होता है। प्रत्येक विचार भी मानसिक कंपन को उत्पन्न करता है अतः उसमें भी कंपन के रंग और ध्वनि होती है भले हम उसे न सुन पायें या न ही अनुभव कर पायें। इन्हें हम स्पंदनिक रंगों के यथार्थ क्षेत्र में मातिृकावर्ण कह सकते हैं और जिन विचारों से वे संबद्ध होते हैं उनके बीज मंत्र मान सकते हैं।

 'अ' ध्वनि सृजन का ध्वन्यात्मक मूल है। यही कारण है कि वह " भारतीय स्वर सप्तक" ( स, रे, ग, म, प, ध, नि ) का नियंत्रक है। भगवान सदाशिव ने इस ध्वनि विज्ञान को आकार दिया और संगीत के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान दिया। रंग, वर्ण या अक्षर और राग एक ही मूलक्रिया "रंज" में  'घइ ´ प्रत्यय लगाकर बनाये गये हैं जिसका अर्थ है किसी चीज को रंगना। क्रमचय और संचय विधियों से सदाशिव ने इन ध्वनियों को अनेक रूपों में रंग दिया जिन्हें छः राग और छत्तीस रागिनियाॅं कहते हैं। इस प्रकार संगीत के संसार को विस्त्रित करने के लिये उन्होंने महर्षि भरत को प्रशिक्षित किया जिन्होंने इसे बौद्धिक स्तर पर उन्नत लोगों में प्रचारित  किया। अब तक नये अनुसंधान से अनेक राग और रागिनियाॅं भारतीय संगीत में जुड़ चुके हैं।

‘‘आ‘‘ ध्वनि संगीत के ऋषभ अर्थात् दूसरे स्वर को प्रकट करता है जो ऋषभ को प्रत्यक्ष और गाॅंधार, मध्यम, पंचम, धैवत्य, और निषाद को अप्रयक्ष रूप से नियंत्रित करता है।

इन्डो आर्यन वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर ‘अ‘ से ‘क्ष‘ तक अपनी अपनी ध्वन्यात्मक मूल को निर्मित करता है। अतः सभी पचास वर्ण मनुष्य की पचास वृत्तियों को प्रकट करते हैं। तीसरा अक्षर ‘‘इ‘‘ गाॅंधार का ध्वन्यात्मक मूल है और इसे प्रत्यक्षतः और अगले मध्यम, पंचम, धैवत्य, और निषाद को अप्रयक्ष रूप से नियंत्रित करता है।

सुर सप्तक के चौथे  स्वर मध्यम ‘‘म‘‘ का ध्वन्यात्मक मूल ‘‘ई‘‘ है जो इसे प्रत्यक्षतः और पंचम, धैवत्य, और निषाद को अप्रयक्ष रूप से नियंत्रित करता है।

पंचम अर्थात् ‘प‘ का ध्वन्यात्मक मूल छोटा ‘‘उ‘‘ है जो पंचम को प्रत्यक्ष और  धैवत्य, और निषाद को अप्रयक्ष रूप से नियंत्रित करता है।

धैवत्य अर्थात् ‘‘ध‘‘ का ध्वन्यात्मक मूल बड़ा ‘‘ऊ‘‘ है जो धैवत्य को प्रत्यक्ष और निषाद को अप्रयक्ष रूप से नियंत्रित करता है।

यह निषाद ‘‘नि‘‘ का ध्वन्यात्मक मूल है। यह सीधे ही सातवें स्वर को नियंत्रित करता है । चूंकि यह अर्धाक्षर है इसकी कोई स्वरात्मक ध्वनि नहीं है। यह किसी अन्य ध्वनि को नियंत्रित नहीं करता।
ऋृ
‘ऋृ‘ ध्वनि, ओम का ध्वन्यात्मक मूल है। अब चूँकि  ओम तो स्वयं स्रष्टि के सृजन  पालन और ध्वंस का अर्थात् सगुण और निर्गुण  का ध्वन्यात्मक मूल है फिर ऋृ , औंकार कर मूल कैसे हो सकता है यह प्रश्न  उठता है। ऊॅं में पाॅंच संकेत मिले हुए हैं, सृजन  का बीज(अ), संरक्षण का बीज(उ), संहार का बीज ,(म), निर्गुण का बीज (विंदु) और निर्गुण से सगुण में रूपान्तर का बीज(चंद्राकार) । अधिकाॅंश  ध्वन्यात्मक मूलों का श्रोत तंत्रविज्ञान है, यद्यपि वेदों में भी कुछ मूल  पहले से ही मौजूद थे जो तंत्र में बाद में स्वीकार किये गये। ओम अन्य अक्षरों की तरह एक अक्षर है जो दक्षिणाचार तंत्र में ध्वंस को न स्वीकारे जाने के कारण ‘उमा‘ उच्चारित किया जाता है जो परमा प्रकृति का ही नाम है। ओंकार को प्रणव भी कहा जाता है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘जो परम स्तर को प्राप्त कराने में अत्यधिक सहायता करता हो।‘ इसलिये ओंकार जो कि व्यक्त संसार के दस ध्वन्यात्मक मूलों को प्रकट करता है और पाॅंच ध्वनियों को अपने में समाहित किये है, वह अपने आपका भी ध्वन्यात्मक मूल चाहता है। किसी अन्य मूल का ध्वन्यात्मक मूल ‘अतिबीज‘ या ‘महाबीज‘ कहलाता है। इसलिये ‘ऋृ‘ ओंकार का महाबीज हुआ। इसलिये ध्वनिविज्ञान और संधि विज्ञान के दृष्टिकोण  से ऋृ आवश्यक  घ्वनि है।
लृ
लृ ध्वनि, हुंम ध्वनि का ध्वन्यात्मक मूल और उसका आन्तरिक प्रवाह है। हुंम ध्वनि स्वयं साधना के संघर्ष का ध्वन्यात्मक मूल है और तंत्र के अनुसार कुंडलनी का। जब साधना में आध्यात्मिक प्रगति होती है तब कभी कभी साधकों के गले से हुंम की ध्वनि निकलती है। तंत्र के अनुसार कुंडलनी प्रसुप्त देवत्व है अतः साधना के अभ्यास के समय मंत्राघात और मंत्रचैतन्य के प्रभाव से सभी बाधाओं को पार करते हुए कुंडलनी सहस्त्रार तक पहुंच जाती है। कुंडलनी को इस प्रकार जागृत  करने का अभ्यास पुरश्चरण  कहलाता है। चूंकि यह मूलाधार में सोती रहती है अतः इसे जगाना बड़े ही संधर्ष से संभव हो पाता है अतः इसका बीज मंत्र हुंम कहलाता है। बुद्धतंत्र में मूलाधार को मणिपद्म या महामणिपद्म भी कहा गया है। वे धर्मचक्र को चलाते हुए ओम मणिपद्मे हुंम्म यह कहते हैं।
लृर्
यह ‘फट्‘ ध्वनि का ध्वन्यात्मक मूल है जो स्वयं ‘‘सिद्धान्त को व्यवहार में लाने‘‘ का ध्वन्यात्मक मूल है अतः लृर्, ‘फट्‘ का अतिबीज या महाबीज हुआ। वैसे ही जैसे बीज का अचानक प्रस्फुटित होना। जैसे सोते से अचानक वास्तविक जगत में आने पर किसी के द्वारा जो ध्वनि की जाती है उसे बोलचाल की भाषा में ‘फट्‘ इस प्रकार कहते है। प्रत्येक अक्षर मातृकावर्ण (causal matrix)कहलाता है क्योंकि प्रत्येक अक्षर किसी न किसी महत्वपूर्ण घटक जैसे ध्वनि, स्पंदन, दिव्य या राक्षसी प्रवृत्ति, मानव गुण या सूक्ष्म अभिव्यक्तिकरण हो सकता है। इसलिये किसी भी अक्षर को वर्णमाला से नहीं हटाना चाहिये भले उसका कम उपयोग होता हो।

साॅंसारिक ज्ञान का लयबद्ध अभिव्यक्तिकरण या उद्गम, साॅंसारिक भलाई, या इसके संबंध में सोचना आदि को ‘‘वोषट‘‘ से संबोधित किया जाता है। ध्वनि ‘इ‘ महाबीज या अतिबीज है ‘वोषट‘ के स्पंदनों का। पुराने जमाने में राजा लोग जो भूमि और अधिक क्षेत्र में राज्य फैलाने के भूखे होते थे वे राजसूय या अश्वमेघ  यज्ञ करके ‘‘इम इन्द्राय वोषट‘‘ कहा करते थे ताकि उनका राज्य फैलता रहे।

सूक्ष्म क्षेत्र में भलाई करने का विचार और उसका क्रियान्वयन ‘‘वषट‘‘ से प्रकट किया जाता है। वे जो शिव  से सार्वभौमिक भलाई के लिये प्रार्थना करते हैं वे कहते हैं  ‘एैम शिवाय वषट‘ , वे जो सूक्ष्म ज्ञान को प्राप्त करना चाहते हैं  अपने गुरु से निवेदन करते हैं ‘‘ एैम गुरवे वषट‘‘ वे जो बाढ़ आदि से बचने के लिये प्रार्थना करते हैं वे कहते हैं‘‘ वरुणाय वोषट‘‘ ( यहाॅं भले की भावना केवल भौतिक क्षेत्र के लिये ही की गई है) परंतु वे जो दुष्टों से किये जा रहे युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिये प्रार्थना करते हैं वे कहते हैं ‘‘वरुणाय वषट‘‘। अतः वषट के ध्वन्यात्मक मूल में सूक्ष्म क्षेत्र में भलाई की भावना होती है, इसलिये वह सूक्ष्म क्षेत्र में आशीष देने के विचार से उस भावना का अति बीज या महाबीज है।
       किसी जाप के उच्चारण करने में यह सामान्य प्रचलन है कि ध्वन्यात्मक मूल के अंत में ‘म‘ जोड़ दिया जावे। इसीलिये ई को एैम लिखा गया है। एैम , उच्चारण का ध्वन्यात्मक मूल है। वाचिक अभिव्यक्तिकरण छः प्रकार का होता है, परा, पश्यन्ति , मध्यमा, द्योतमाना, वैखरी और श्रुतिगोचरा। व्यक्ति जो कुछ कहता है या भविष्य में कहेेगा, यह भीतर ही सुप्तावस्था में रहता है जैसे छोटे से बीज के भीतर बृहदाकार वटबृक्ष छिपा रहता है। इसी प्रकार मनुष्य की कुंडलनी के भीतर अपार शक्तियाॅं पोटेशियल फार्म में होती हैं। पानी और अनुकूल वातावरण पाकर जैसे बीज से बृक्ष हो जाता है वैसे ही साधना के द्वारा मंत्राघात और मंत्रचैतन्य करने पर कुंडलनी से ये
शक्तियाॅं जागृत  हो जाती हैं और एक के बाद एक क्षमताओं के द्वार खुलते  जाते हैं। तंत्र में इसे पुरश्चरण  और योग में अमृतमुद्रा या आनन्दमुद्रा कहते हैं। ऐसे व्यक्ति की जीवन्तता और सुंदरता बढ़ने लगती है और अन्य लोग उसे महापुरुष कहते हैं और वह अंत में परमपुरुष के साथ एक हो जाता है। शास्त्रों में इस पद्धति को पराभ्युदय कहा गया है।
    भाषाओं के अभिव्यक्तिकरण का पहला स्तर मूलाधार में बीज के रूप में रहता है जो क्रमशः  अगले स्पष्ट स्तरों से होता हुआ पूर्ण भाषा में आ जाता हैं। भाषा के अभिव्यक्तिकरण की यह प्रारंभिक अवस्था पराशक्ति कहलाती है, यह परम क्रियात्मक सत्ता(supreme operative principle) से भिन्न होती है। यहाॅं ध्यान रखने की बात यह है कि इकाई सत्ता जिस शक्ति से अपने भौतिक- मनो- आत्मिक कार्य करता है उसे अपराशक्ति कहते हैं जो उसे उच्चतर स्तर तक ले जाने और अस्तित्व बनाये रखने के लिये कार्य करती है पर जिस शक्ति से वह अपने भौतिक मनोआत्मिक ऊर्जा को  सूक्ष्म उन्नति के स्तर ,दिव्य सत्ता की ओर ले जा पाता है वह पराशक्ति कहलाती है। यहाॅं भाषा के अभिव्यक्तिकरण से संबंधित बात हो रही है अतः मूलाधार में सोती हुई इस शक्ति को धीरे धीरे ऊपर उठाते हुए भाषात्मक अभिव्यक्तिकरण की ओर लाया जाता है। दूसरे स्तर पर यह स्वाधिष्ठान चक्र पर पहुंचती है जहाॅं इसे ‘पश्यन्ति ‘ कहा जाता है। यह मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार की दृश्यता  की क्षमता रखती है पर इसकी मात्रा अधिक न होने से वह मानसिक आकार को देख नहीं पाती। विचारों को भाषा में बोलने के लिये उचित ऊर्जा को देने के लिये मणीपुर चक्र सहायता करता है जहाॅं आकर पश्यन्ति  का नाम मध्यमा हो जाता है, मणिपुर चक्र, शरीर को संतुलन में रखता है और ऊर्जा का केन्द्र होता है। मध्यमाशक्ति का वाच्य रूपान्तरण मनीपुर और विशुद्ध  चक्र के बीच के बिंदु पर होता है यहाॅं आकर उसका नाम द्योतमाना हो जाता है। द्योतमाना ग्रहीत विचार को भाषा में प्रकट करने के लिये बेचैन रहती है पर यदि इस प्रक्रिया के बीच मन को कोई डर लगे या कोई वृत्ति बाधक बने, या मनीपुर और विशुद्ध  चक्र के बीच में कोई दोष हो तो व्यक्त की जाने वाली भाषा
शुद्ध नहीं होगी, ऐसा  व्यक्ति कहेगा कि बात मन में है पर बोल नहीं पा रहा। वाच्य नाड़ी , विशुद्ध  चक्र के क्षेत्र में होती है इसमें अमूर्त विचार को मूर्त विचार में बदलने की शक्ति होती है इस शक्ति को वैखरी कहते हैं। यह बोलने की प्रक्रिया का पाॅंचवाॅं स्तर होता है। जो लोग अधिक बातूनी होते हैं उनकी वैखरी शक्ति अनियंत्रित होती है। मानव कानों से बिलकुल स्वच्छ भाषा का जब अनुभव होने लगता है तो इसे श्रुतिगोचरा कहते हैं यह भाषा के अभिव्यक्तिकरण की छठवीं और अंतिम अवस्था कहा जाता है। इस प्रकार ‘एैम‘ ध्वनि उच्चारण के सभी छः स्तरों की ध्वन्यात्मक मूल है। एैम को वाग्भव बीज भी कहते हैं और इसे गुरु का बीज भी कहते हैं, गुरु से ज्ञान मिलता है अतः ‘‘ एैम गुरवे नमः‘‘ से गुरु को जगाया जाता है। जो मूर्तिपूजा में विश्वास  करते हैं वे भी इस बीज को ज्ञान की देवी को जगाने में करते हैं ‘‘एैम सरस्वत्यै नमः‘‘ और इसे तंत्र के प्रवर्तक शिव को जगाने के लिये भी प्रयुक्त किया जाता है ‘‘ एैम शिवाय नमः‘‘ ।

क्रिया के पूर्ण होने का ध्वन्यामिक मूल है ‘स्वाहा‘ अर्थात् घी को आग में डालने पर स्वाहा नहीं कहा जा सकता जब तक कि वह पूरा जल नहीं जाता। जब कोई दिव्य कार्य करना होता है तभी स्वाहा बोला जाता है। पवित्र काम के लिये चाहे वह भौतिक मानसिक या आध्यात्मिक  कोई भी हो उसका नियंत्रक ध्वन्यात्मिक मूल है स्वाहा।
 विशेषतः स्वाहा को आहुति देते समय कहा जाता है अतः इस अर्थ में वह ध्वन्यात्मक  मूल स्वधा से संबंधित है। स्वधा का सामान्य अर्थ है ‘जो आत्म विश्वासी  हो‘ इसलिये स्वधा का उपयोग पूर्वजों को आहुति देने में किया जाता है। प्राचीन काल में स्वाहा और स्वधा समानार्थी थे पर बाद में स्वाहा ‘‘ कल्याण हो‘‘ के अर्थ में और स्वधा ‘‘ भगवान आपको शान्ति दे‘‘ के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। इसीलिये स्वाहा का उपयोग देवी देवताओं के लिये और स्वधा का उपयोग पूर्वजों की स्मृति के लिये किया जाने लगा।
प्राचीन काल में देवताओं और पूर्वजों को आहुति देने के पहले लोगों को बड़े संयम के काल से गुजरना पड़ता था अतः इस प्रारंभिक तैयारी के समय को अधिवास कहते थे।  जहाॅ तक ज्ञात है वैदिक युग में लोगों की सबसे कमजोरी थी सुरा या सोमरस या मद्य, को पीने की। अतः अधिवास के समय पुजारी लोग अपने कंधे पर मृगचर्म डाले रहते थे ताकि अधिवास के समयान्तर में कोई उन्हें सुरापान के लिये निमंत्रित न करे। जब धार्मिक कार्य किया करते थे और स्वाहा उच्चारित करते थे तब वे मृगचर्म को बाएं  कंधे पर ले लेते थे और मृगचर्म को यज्ञोपवीत कहा जाता था, पर यदि वे पूर्वजों के लिये धार्मिक कार्य करते थे तो स्वधा मंत्र का उच्चारण करते और मृगचर्म को दायें कंधे पर डाल लेते थे इसे प्राचीणवीत कहा जाता था। जब वे इन में से कोई कर्म नहीं कर रहे होते तो वे मृगचर्म को गले में चारों ओर लपेट लेते थे जिसे निवीत कहा जाता था। देवताओं के कार्य के लिये स्वाहा मंत्र के साथ सम्प्रदान मुद्रा का, त्योहारों पर वोषट और वषट मंत्रों के साथ वरद मुद्रा का और स्वधा मंत्रों का उपयोग करते समय अंकुश  मुद्रा का उपयोग किया करते थे।

किसी की महानता को आदर देने के लिये जिस मुद्रा का उपयोग किया जाता है उसे नमः मुद्रा या नमोमुद्रा कहते हैं। वास्तव में किसी की महानता के कारण व्यक्ति का इस प्रकार का समर्पण करना उसके  मानसिक शरीर का परमसत्ता की महानता से स्पंदित होने के कारण होता है अतः नमोमुद्रा को करने वाला लाभान्वित होता है न कि जिसको नमोमुद्रा की जाती है। गुरु को नमो मुद्रा साष्टाॅंग प्रणाम कहलाती है जिसमें हाथों की हथेलियां परस्पर समानान्तर जोड़कर उन के सामने सीधी लाठी की तरह लेट जाना होता है जिसका अर्थ है कि पूर्ण रूपसे केन्द्रित मन को परम लक्ष्य की ओर प्रेषित  करना। इसमें शरीर के आठ अंग प्रयुक्त होते हैं अतः इसे साष्टाॅंग प्रणाम कहते हैं। नृत्य विज्ञान में इस प्रकार की 850 मुद्राओं को मान्यता दी गई है।
ध्वनि ‘ह‘ सूर्य और आकाश  तत्व की ध्वन्यात्मक मूल है, ‘ठ‘ चंद्रमा और अन्य उपग्रहों का ध्वन्यात्मक मूल है। जब मन का प्रतिनिधि चंद्रमा और भौतिक ऊर्जा का प्रतिनिधि सूर्य मिलाकर एक किये जाते हैं तो इसे "हठ योग" कहते हैं। अर्थात् जब कोई क्रिया अचानक की जाती है तो उससे जो ऊर्जा निकलती है उसे हठात् कहते हैं। शिव की महानता आकाश  की तरह विराट थी अतः लोग उन्हें नमः मुद्रा में आदर देते थे या फिर ‘औ‘ ध्वनि से। इसलिये शिवतत्व की ध्वन्यात्मक मूल ‘‘हौम‘‘ है, (हौम शिवाय नमः)। शिव के लिये अपनी साधुता, सरलता और निस्वार्थ सेवा भाव के कारण जो बहुत निकट और प्रिय थे वे भी उनकी पूजा ‘‘ह‘‘ ध्वनि से करते थे। इसलिये यह समझने में कोई कठिनाई नहीं है कि शिव का ध्वन्यात्मक मूल ‘होम‘ क्यों है।
अं
‘‘अम् ‘‘ विचार का ध्वन्यात्मक मूल है। एक ही ध्वनि भिन्न भिन्न विचारों से उच्चारित करने पर भिन्न भिन्न अर्थ देती है और व्यक्ति व्यक्ति पर उसका अलग अलग प्रभाव भी पड़ता है। जैसे ‘ आओ बेटा! भोजन कर लो‘ यहा ‘बेटा’ शब्द में प्रेम है जबकि ‘‘ ठहरो बेटा! हम तुम्हारे बाप को भी नहीं छोड़ेगे‘‘ में ‘बेटा’ शब्द में सुनने वाले के मन में जहर भर जाता है। अतः इस प्रकार के जहरीली मानसिकता के शब्दों का ध्वन्यात्मक मूल है ‘अम्‘ और मधुरता भरने वाले शब्दों का ध्वन्यात्मक मूल है ‘‘अह‘‘। अतः जब कभी किसी से कुछ बोलना हो या कविता पढ़ना हो या ड्रामा में भाग लेना हो तो यह ज्ञान होना चहिये कि क्या उच्चारित करना है और कैसे।
अः
ऐसे अनेक शब्द हैं जो न तो अच्छे हैं और न ही बुरे पर वे बोलने वाले की मानसिकता पर निर्भर करते हैं।  जब किसी शब्द को मधुरता से बोला जाता है जो सबके कानों को अच्छा लगे तो इस भाव का ध्वन्यात्मक मूल है ‘अहः‘। इसलिये गायन में कवता पाठ में या नाटक में कार्य करते समय ध्यान रखना चाहिये ।अमृत और विष दोनों का नियंत्रक विशुद्ध चक्र है अतः वक्ता को इसके क्षेत्र में स्थित कूर्म नाड़ी पर नियंत्रण करना आना चाहिये।

सभी मनुष्यों के सोचने का तरीका अलग अलग होता है। संसार के अधिकांश   लोग दो प्रकारों,  अभीप्सात्मक आशा  वृत्ति  और विशुद्ध संवेदनात्मक चिंता वृत्ति, इनमें सोचते हैं। अभीप्सात्मक आशा  वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल ‘क‘ है और वह क्रिया ब्रह्म अर्थात् इस दृश्य  जगत का भी बीज है। अतः ‘ क‘ सगुण ब्रह्म का नियंत्रक है (क + ईश  = केश  और नारायण दोनों होंगे) क अर्थात् सगुण ब्रह्म का ईश  जो है वह केश  अर्थात् नारायण और केश  अर्थात् बाल भी होगा। ‘‘कै‘‘ क्रियामूल से ड प्रत्यय जोड़कर निष्पन्न ‘क‘ का शाब्दिक अर्थ है जो ध्वनि उत्पन्न करता है परंतु प्राचीन काल में लोग झरनों और नदियों से पानी एकत्रित करते थे जिनसे पानी के बहने की आवाज आती थी अतः बहते जल का ध्वन्यात्मक मूल ‘क‘ हो गया। वास्तव में पानी का ध्वन्यात्मक मूल ‘व‘ है।

यह चिंता वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। ख का अर्थ आकाश  भी है पर यह आकाश  का ध्वन्यात्मक मूल नहीं है आकाश  का ध्वन्यात्मक मूल है ‘ह‘। ख का अर्थ स्वर्ग भी है पर यह उसका ध्वन्यात्मक मूल नहीं है। स्वर्ग का स्थूल पक्ष ख से और सूक्ष्म पक्ष ‘क्ष‘ से प्रदर्शित  होता है।

यह चेष्टा वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है जिसकी मानव जीवन के भौतिक मानसिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका है। आन्तरिक विशेषताओं को बाहर प्रकट करने का अभ्यास करना चेष्टा कहलाता है।

आसक्ति और ममता की वृत्ति मनुष्यों और अन्य प्राणियों में होती है जो समय, स्थान और व्यक्तिगत प्रभावों से संबंधित होती है। जैसे लोग अपने देश  की घटिया वस्तुओं की तारीफ करेगा जबकि दूसरे देश  के अच्छे उत्पाद की नहीं क्योंकि यह किसी स्थान विशेष से मोह को प्रदर्शित  करता है। एक गाय नवजात बछड़े से जितना दुलार करती है कुछ बड़ा होने पर नहीं यह समय विशेष का प्रभाव प्रदर्शित  करता है। अतः ममता वृत्ति सापेक्षिक घटकों से सीमित रहती है पर मनुष्य अपने सतत और एकाग्र प्रयत्नों से उसकी सीमायें बढ़ा सकता है जो अन्य जीवों के लिये असंभव है। ‘घ‘ ममता का ध्वन्यात्मक मूल है।

यह दम्भ वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। विद्वान लोग यह मानते हैं कि महान संत वशिष्ठ,  तंत्र सीखने चीन गये थे वहाॅं से इस ध्वनि का उपयोग उन्होने सीखा और लौटकर भारत में प्रारंभ किया। इन संत ने ही सबसे पहले चीन से बुद्धिष्ठ वामाचार तंत्र सीखा और तब से बौद्धिक तारा कल्ट तीन भागों में बट गया उग्रतारा या वज्र तारा भारत में ,नीलतारा या नीलतारा सरस्वती तिब्बत में और भ्रामरीतारा चीन में पूजा जाता हैं। इन्हें ही बाद में वर्णाश्रम धर्म में वज्र तारा या उग्रतारा के नाम से स्वीकार किया गया। भारत में वज्र तारा और तिब्बत में नील तारा का ध्वन्यात्मक मूल एैम है। चीन का भ्रामरी तारा भारत में काली देवी के नाम से स्वीकार किया गया। इन दोनों का ध्वन्यात्मक मूल एक ही ‘‘क्रीम्‘‘ है। ‘क‘ सगुण ब्रहम और ‘र‘ ऊर्जा को प्रदर्शित  करते हैं। यह ध्यान रखने योग्य है कि ये वशिष्ठ बुद्ध के बहुत बाद में हुए हैं।

विवेक का ध्वन्यात्मक मूल ‘च‘ है।

विकलता वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल ‘छ‘ है। इस वृत्ति में किसी का मन अच्छी तरह कार्य करते करते अचानक या तो कार्य करना बंद कर देता है या उल्टा पुल्टा कार्य करने लगता है। इसे ही nervous breakdown कहते हैं।

यह अहंकार वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। इस वृत्ति के लोग प्रायः यह कहते हैं कि मैं ने यह कार्य न किया होता तो होता ही नहीं आदि आदि...।

यह लोलुपता और लोभ वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है।

कपटता या पाखंड वृत्ति का यह ध्वन्यात्मक मूल है। इस वृत्ति के लोग दूसरों को ठग कर अपना काम निकालते हैं, या अपने को नैतिक बता कर दूसरों के पापों की आलोचना करते हैं और छिपकर वे पाप स्वयं करते हैं या दूसरे के अज्ञान या कमजोरी का फायदा उठा कर अपने आपको प्रभावी बनाते हैं।

यह वितर्क वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। यह वृत्ति बातूनीपन और बुरे स्वभाव का मिश्रण है। इस प्रकार के लोग अपने को वादविवाद के स्पर्धी मानते हैं पर यह अर्धसत्य है। पर यह कषाय वृत्ति का समानार्थी नहीं हैे। जैसे, आप रेलवे स्टेशन पर किसी सज्जन से विनम्रता पूर्वक पूछें कि अमुक ट्रेन क्या निकल चुकी है और वे सज्जन कहें कि कैसे मूर्ख हो ? क्या मैं रेलवे का आफिस हूॅं? या मैं कोई रेलवे का टाइम देबिल हूँ , तुम्हारे जैसों के कारण ही देश  नर्क की ओर जा रहा हैं? बगल में खड़े किसी अन्य ने तुम से कहा अभी इस ट्रेन में पाॅंच मिनट हैं, अमुक प्लेटफार्म  पर जल्दी पहुॅंचो तो पकड़ लोगे। पहले व्यक्ति की अनियंत्रित कुतर्क वृत्ति और दूसरे व्यक्ति का कथन प्रमित वाक् कहलायेगा।

यह अनुताप या पछतावे /पश्चाताप  की वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है।

यह लज्जा वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है।

यह पिशूनता  वृत्ति का  ध्वन्यात्मक मूल है। व्यर्थ ही किसी को दुखद मृत्यु देना पिशूनता है पर जिस प्रकार मास खाने वाले लोग जीवों को थोड़ा काट काट कर मारते हैं यह पिशूनता नहीं हैं। यह वृत्ति नव्यमानवतावाद के विरुद्ध है।

यह ईर्ष्या  वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है।

यह जड़ता वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। गहरी नींद और बौद्धिक तथा आध्यात्मिक अक्रियता का भी यही बीज है।

यह विषाद वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है।

यह चिड़चिडेपऩ वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। जैसे कोई नम्रता पूर्वक किसी चिड़चिड़े से बोल रहा है पर वह उल्टा ही बोलेगा और यदि कोई उससे कर्कश  बोलता है तो वह धीमे से बोलेगा।

यह तृष्णा वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। धन, मान और शक्ति की असीमित चाह रखना तृष्णा कहलाता है।

यह मोह वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। यह समय, स्थान ,विचार और व्यक्ति के अनुसार चार प्रकार की होती है।

यह घृणा वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। यह मनुष्य के आठ पाशों  में से एक है और छः शत्रुओं में से मोह के अधिक निकट है।

यह भय वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। यद्यपि भय एक से अधिक कारणों से होता हेै पर यह मोह शत्रु से उत्पन्न होता है।

यह अवज्ञा वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। जब कोई अस्वीकार्य बात या वस्तु पर ध्यान नहीं देता उसे उपेक्षा कहते हैं पर जब कोई मूल्यवान बात को नकारता है तो उसे अवज्ञा कहते हैं।

यह मूर्छा वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। इसका मतलब संवेदनहीनता नहीं है वल्कि षडरिपुओं में से किसी एक के द्वारा सम्मोहित कर सामान्य ज्ञान का लोप कर देना है।

यह प्रणाश  और प्रश्रय वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है।

यह अविश्वास  और वायु की भाॅंति गतिशीलता वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है।

यह  अग्नितत्व या प्राणशक्ति वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। यह सर्वनाश  के विचार का भी बीज है।

यह  क्रूरता वृत्ति  और क्षिति तत्व अर्थात् ठोस घटक का ध्वन्यात्मक मूल है।

यह  धर्म  तथा जलतत्व का ध्वन्यात्मक मूल है। धर्म का अर्थ है किसी को अपने स्वरूप में छिपाना या आश्रय दिलाना तथा जल तत्व का अर्थ केवल पानी नहीं कोई भी द्रव पदार्थ। यह पौराणिक देवता वरुण का भी बीज है।

यह  रजोगुण तथा  अर्थ का ध्वन्यात्मक मूल है।

यह  तमोगुण तथा  साॅंसारिक इच्छाओं जिसे संस्कृत में काम कहते हैं, का ध्वन्यात्मक मूल है।

यह  सतोगुण तथा  मोक्ष का ध्वन्यात्मक मूल है।

यह  आकाश  तत्व, दिन के समय, सूर्य, स्वर्लोक, पराविद्या, का ध्वन्यात्मक मूल है। इसके विपरीत ‘ठ‘ है जो रात , चंद्रमा, भुवर्लोक और काममय कोष का ध्वन्यात्मक मूल है। ‘हो‘ शिव का ध्वन्यात्मक मूल है जबकि वे तॅांडव नृत्य कर रहे हों पर शिव का गुरु के रूप में ध्वन्यात्मक मूल है ‘‘ऐं‘‘।
क्ष

यह  साॅंसारिक ज्ञान एवं पदार्थ विज्ञान का ध्वन्यात्मक मूल है।