3.3 अवधारणायें
1. जब किसी अपूर्ण या छुद्र वस्तु के लिये आकर्षण होता है तो उसे "काम'' कहते हैं। और जब यही आकर्षण केवल पूर्ण अस्तित्व के लिये अर्थात् परमपुरुष के लिये हो तो उसे "प्रेम" कहते हैं। जैसे धन, परिवार, भूमि आदि का आकर्षण "काम" कहलायेगा। "काम" के समय मानसिक प्रवृत्ति अर्थात् आकर्षण के समय मानसिक प्रवृत्ति को संस्कृत में 'आसक्ति' और परमपुरुष के प्रति आकर्षण को संस्कृत में 'भक्ति' कहते हैं। " काम " के बीच पारस्परिक संबंध (अर्थात् अपूर्ण वस्तुओं के बीच आकर्षण के समय) 'व्यवसाय' कहलाता है। जैसे पाॅंच रुपया दो और नमक ले लो। और, प्रेम अर्थात् ईश्वरीय आकर्षण में इस भाव को ‘सेवा' कहते हैं। सेवा में भावना यह होती है कि सब कुछ ले लो पर बदले में कुछ नहीं चाहिये। यह भय युक्त प्रेम से प्रारंभ होती है और भय रहित प्रेम में समाप्त होती है और भययुक्त प्रेम को भयरहित प्रेम में रूपान्तरण करने की प्रक्रिया 'साधना' कहलाती है।
2. आनन्द मार्ग (path of bliss) में ईश्वर प्रणिधान को जप क्रिया नहीं माना गया है। इसे प्रणिधान कहते हैं जो कि ध्यान की परिधि में आता है न कि जप। पहला है प्रणिधान और दूसरा है अनुध्यान। ध्यान के वृहद चक्र में दो क्रियाएं होती हैं, धारणा और ध्यान। जब आप किसी वाह्य वस्तु को मानसिक संसार में पकड़ कर रखना चाहते हैं तो उसे धारणा कहते हैं। इसलिये धारणा में स्थिर बल होता है, उसका उद्गम स्थाई होता है। और जब कोई वस्तु चल रही हो और उसकी गति में आपने उसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया है तो उसे ध्यान कहेंगे। इसलिये ध्यान में गतिशील बल होता है। ध्यान क्रिया शीरे के धागे के समान होती है। जब शीरा को उड़ेला जाता है तो धागा निर्मित होता है, वहां बल है, गति है, परंतु धागा कुछ स्थिर सा दिखाई देता है। तो यही है ध्यान क्रिया ।
अनुध्यान और प्रणिधान दोनों ध्यान की परिधि में आते हैं। अभिध्यान का अर्थ है कि आपने उस "परम मैं " अर्थात् ¼supreme self½ को अपना ध्येय मान लिया है; परंतु मानलो प्रभु तुम्हें नहीं चाहते कि उन्हें पाओ तो वह तुम से दूर जाना चाहेंगे, परंतु तुम्हें मानसिक रूप से उनके पीछे पीछे दौड़ना होगा। यह पीछे पीछे दौड़ना ही अनुध्यान कहलाता है। तुम्हें कहना चाहिये , प्रभो! मैं पापी हो सकता हूँ पर मैं आपका पीछा नहीं छोड़ूॅंगा। मैं तुम्हें पकड़कर ही चैन लूॅंगा। जब यह मानसिकता कार्य करती है तब अनुध्यान होता है और बिना अनुध्यान के कोई भी उन्हे नहीं पा सकता।
3. योजनात् तत्वभावात्। तत् माने "वह" और त्व प्रत्यय जोड़ने पर वह भाववाचक होकर अर्थ देता है "वहपन" ¼ thatness ½। अर्थात् कुछ उसके संबंध में। यहाॅं वह का अर्थ है ब्रह्म। परमपुरुष अर्थात् संज्ञानात्मक सत्ता पुल्लिंग और परमाप्रकृति अर्थात् क्रियात्मक सत्ता स्त्रीलिंग तथा ब्रह्म उभयलिंग हैं। "वहपन" का अर्थ हुआ ब्रह्मतत्वभावात् से संबंधित। अर्थात् किसी भौतिक कार्य को करते समय तुम्हें उसमें ब्रह्मपन करने का भाव अपने मन में लाना होगा। या कुछ भी सोचने के समय अपने मानसिक विषय में ब्रह्मपन आरोपित करना होगा। इसी को तत्वभावात् कहते हैं। योजनात् तत्वभावात् का अर्थ हुआ अनुध्यान। योजनात् का फल क्या होगा आप उनसे जुड़ जावेंगे। उनके साथ एक हो जावेंगे। तस्यभिध्यानात् योजनात् तत्वभावात्, भूयास्चान्ते विष्णुमाया निवृत्तिः। अर्थात् आप विष्णुमाया से मुक्त हो जावेंगे।
आप देखते हैं कि इस प्रकार माया किसी एक प्रकार की कला में विष्णुमाया, अन्य किसी में योगमाया, महामाया और अनुमाया कहलाती है। इन सभी का संयुक्त नाम विष्णुमाया है। यही कारण है कि प्रत्येक कार्य और विचार में ध्यान, अनुध्यान और प्रणिधान के द्वारा ब्रह्मपन जोड़ने से आप माया से मुक्त हो जावेंगे। इसलिये साधक की साधना करने का अर्थ है तत्वभाव, प्रणिधान, अनुध्यान और अंत में योजनात् करना। इस प्रकार से मुक्ति पायी जा सकती है और वह आत्मिक स्तर पर ही संभव है भौतिक और ज्ञान के स्तर पर नहीं।
4. मानव मन की अनेक प्रवृत्तियाॅं होती हैं उनमें मुख्य पचास हैं। उनके बीच बहुतायत उपप्रवृत्तियाॅं हैं। भौतिक जगत की ओर ले जाने वाली उपप्रवृत्तियाॅं और परमात्मा की ओर ले जाने वाली मुख्य प्रवृत्तियाॅं कहलाती है। परमात्मा की ओर ले जाने वाली प्रवृत्तियाॅं संवित शक्ति के द्वारा जाग्रत होती हैं। जैसे कोई नाम पद प्रतिष्ठा के पीछे भाग रहा है, अचानक उसकी चेतना में विचार आता है कि मैं क्या कर रहा हूँ , कहाॅं भाग रहा हूॅं , और अपनी दयनीय दशा पर सोचने लगता है। इसे संवित शक्ति कहते हैं। मुख्य प्रवृत्तियों को संवित शक्ति जाग्रत करती है, और व्यक्ति आध्यात्म के मार्ग पर चल पड़ता है।
प्रवृत्तियों का चार भागों में विभाजन किया गया है, क्लिष्ट, अक्लिष्ट, क्लिष्टाक्लिष्ट, और अक्लिष्टाक्लिष्ट। जिन प्रवृत्तियों से प्रारंभ और अंत दोनों में कष्ट हो वे क्लिष्ट। जैसे कोई ट्रेन में बिना टिकिट यात्रा करे ट्रेन में खूब भीड़ हो और बाद में टीटीई की चेकिंग में पकड़ा जावे तो प्रारंभ में और अंत दोनों में कष्ट हुआ। जिस प्रवृत्ति में पहले तो सुख हो पर बाद में कष्ट हो उसे अक्ल्ष्टिाक्लिष्ट कहते हैं। मानलो कोई सेकेंड क्लास का टिकिट लेकर स्लीपर में यात्रा करे तो यात्रा सुखदायक हो रही है पर चेकिंग स्टाफ के आ जाने पर कष्टदायी स्थिति आ गई इसे कहेंगे अक्लिष्टाक्लिष्ट। जब पहले कष्ट हो और बाद में सुख हो तो इसे कहते हैं क्लिष्टाक्लिष्ट जैसे, पढ़ने वाला विद्यार्थी सुखों और खेलकूद को त्यागकर अपना अध्ययन करके कष्ट पाता है परंतु रिजल्ट आने पर जब वह मेरिट में आता है तो आनन्दित होता है, इसे कहेंगे क्लिष्टाक्लिष्ट। जब न तो प्रारंभ में कष्ट हो और न अंत में तब उसे अक्लिष्ट प्रवृत्ति कहते हैं यह भक्ति की ओर ले जाती है। अक्लिष्टा ही मुख्यप्रवृत्ति कहलाती है अन्य सभी सहायक प्रवृत्तियाॅ। भक्ति, साधना नहीं है वरन् साधना की उपलब्धि है।
5. मन की पचास वृत्तियाॅ (fifty Occupations Of The Mind)
धर्म dharma (psycho-spiritual longing) अर्थ artha (psychic longing )काम kam (physical longing), मोक्ष mokśa (spiritual longing),अवज्ञा avajiṋá (belittlement of others),मूर्छा múrcchá (psychic stupor, lack of common sense), प्रश्रय prashraya (indulgence),अविश्वाश avishvása (lack of confidence), सर्वनाश sarvanásha (thought of sure annihilation), क्रूरता kruratá (cruelty),पिशूनता lajjá (shyness, shame), ईर्ष्या pishunatá (sadistic tendency),सुसुप्तिsuśupti (staticity, sleepiness), विषाद viśáda (melancholia) कषाय kaśáya(peevishness), तृष्णा trśńá (yearning for acquisition), मोह moha (infatuation), घृणा ghrna (hatred,revulsion), भय bhaya (fear), आशा asha (hope), चिन्ता cinta (worry), चेष्टा cesta (effort), ममता mamata (mineness)दम्भ dambha (vanity),विवेक viveka (conscience), विकलता vikalata (mental numbness due to fear),अहंकार ahamkara (ego),लोलुपता lolupta (avarice),कपटता kapatata (hypocrisy),
1. जब किसी अपूर्ण या छुद्र वस्तु के लिये आकर्षण होता है तो उसे "काम'' कहते हैं। और जब यही आकर्षण केवल पूर्ण अस्तित्व के लिये अर्थात् परमपुरुष के लिये हो तो उसे "प्रेम" कहते हैं। जैसे धन, परिवार, भूमि आदि का आकर्षण "काम" कहलायेगा। "काम" के समय मानसिक प्रवृत्ति अर्थात् आकर्षण के समय मानसिक प्रवृत्ति को संस्कृत में 'आसक्ति' और परमपुरुष के प्रति आकर्षण को संस्कृत में 'भक्ति' कहते हैं। " काम " के बीच पारस्परिक संबंध (अर्थात् अपूर्ण वस्तुओं के बीच आकर्षण के समय) 'व्यवसाय' कहलाता है। जैसे पाॅंच रुपया दो और नमक ले लो। और, प्रेम अर्थात् ईश्वरीय आकर्षण में इस भाव को ‘सेवा' कहते हैं। सेवा में भावना यह होती है कि सब कुछ ले लो पर बदले में कुछ नहीं चाहिये। यह भय युक्त प्रेम से प्रारंभ होती है और भय रहित प्रेम में समाप्त होती है और भययुक्त प्रेम को भयरहित प्रेम में रूपान्तरण करने की प्रक्रिया 'साधना' कहलाती है।
2. आनन्द मार्ग (path of bliss) में ईश्वर प्रणिधान को जप क्रिया नहीं माना गया है। इसे प्रणिधान कहते हैं जो कि ध्यान की परिधि में आता है न कि जप। पहला है प्रणिधान और दूसरा है अनुध्यान। ध्यान के वृहद चक्र में दो क्रियाएं होती हैं, धारणा और ध्यान। जब आप किसी वाह्य वस्तु को मानसिक संसार में पकड़ कर रखना चाहते हैं तो उसे धारणा कहते हैं। इसलिये धारणा में स्थिर बल होता है, उसका उद्गम स्थाई होता है। और जब कोई वस्तु चल रही हो और उसकी गति में आपने उसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया है तो उसे ध्यान कहेंगे। इसलिये ध्यान में गतिशील बल होता है। ध्यान क्रिया शीरे के धागे के समान होती है। जब शीरा को उड़ेला जाता है तो धागा निर्मित होता है, वहां बल है, गति है, परंतु धागा कुछ स्थिर सा दिखाई देता है। तो यही है ध्यान क्रिया ।
अनुध्यान और प्रणिधान दोनों ध्यान की परिधि में आते हैं। अभिध्यान का अर्थ है कि आपने उस "परम मैं " अर्थात् ¼supreme self½ को अपना ध्येय मान लिया है; परंतु मानलो प्रभु तुम्हें नहीं चाहते कि उन्हें पाओ तो वह तुम से दूर जाना चाहेंगे, परंतु तुम्हें मानसिक रूप से उनके पीछे पीछे दौड़ना होगा। यह पीछे पीछे दौड़ना ही अनुध्यान कहलाता है। तुम्हें कहना चाहिये , प्रभो! मैं पापी हो सकता हूँ पर मैं आपका पीछा नहीं छोड़ूॅंगा। मैं तुम्हें पकड़कर ही चैन लूॅंगा। जब यह मानसिकता कार्य करती है तब अनुध्यान होता है और बिना अनुध्यान के कोई भी उन्हे नहीं पा सकता।
3. योजनात् तत्वभावात्। तत् माने "वह" और त्व प्रत्यय जोड़ने पर वह भाववाचक होकर अर्थ देता है "वहपन" ¼ thatness ½। अर्थात् कुछ उसके संबंध में। यहाॅं वह का अर्थ है ब्रह्म। परमपुरुष अर्थात् संज्ञानात्मक सत्ता पुल्लिंग और परमाप्रकृति अर्थात् क्रियात्मक सत्ता स्त्रीलिंग तथा ब्रह्म उभयलिंग हैं। "वहपन" का अर्थ हुआ ब्रह्मतत्वभावात् से संबंधित। अर्थात् किसी भौतिक कार्य को करते समय तुम्हें उसमें ब्रह्मपन करने का भाव अपने मन में लाना होगा। या कुछ भी सोचने के समय अपने मानसिक विषय में ब्रह्मपन आरोपित करना होगा। इसी को तत्वभावात् कहते हैं। योजनात् तत्वभावात् का अर्थ हुआ अनुध्यान। योजनात् का फल क्या होगा आप उनसे जुड़ जावेंगे। उनके साथ एक हो जावेंगे। तस्यभिध्यानात् योजनात् तत्वभावात्, भूयास्चान्ते विष्णुमाया निवृत्तिः। अर्थात् आप विष्णुमाया से मुक्त हो जावेंगे।
आप देखते हैं कि इस प्रकार माया किसी एक प्रकार की कला में विष्णुमाया, अन्य किसी में योगमाया, महामाया और अनुमाया कहलाती है। इन सभी का संयुक्त नाम विष्णुमाया है। यही कारण है कि प्रत्येक कार्य और विचार में ध्यान, अनुध्यान और प्रणिधान के द्वारा ब्रह्मपन जोड़ने से आप माया से मुक्त हो जावेंगे। इसलिये साधक की साधना करने का अर्थ है तत्वभाव, प्रणिधान, अनुध्यान और अंत में योजनात् करना। इस प्रकार से मुक्ति पायी जा सकती है और वह आत्मिक स्तर पर ही संभव है भौतिक और ज्ञान के स्तर पर नहीं।
4. मानव मन की अनेक प्रवृत्तियाॅं होती हैं उनमें मुख्य पचास हैं। उनके बीच बहुतायत उपप्रवृत्तियाॅं हैं। भौतिक जगत की ओर ले जाने वाली उपप्रवृत्तियाॅं और परमात्मा की ओर ले जाने वाली मुख्य प्रवृत्तियाॅं कहलाती है। परमात्मा की ओर ले जाने वाली प्रवृत्तियाॅं संवित शक्ति के द्वारा जाग्रत होती हैं। जैसे कोई नाम पद प्रतिष्ठा के पीछे भाग रहा है, अचानक उसकी चेतना में विचार आता है कि मैं क्या कर रहा हूँ , कहाॅं भाग रहा हूॅं , और अपनी दयनीय दशा पर सोचने लगता है। इसे संवित शक्ति कहते हैं। मुख्य प्रवृत्तियों को संवित शक्ति जाग्रत करती है, और व्यक्ति आध्यात्म के मार्ग पर चल पड़ता है।
प्रवृत्तियों का चार भागों में विभाजन किया गया है, क्लिष्ट, अक्लिष्ट, क्लिष्टाक्लिष्ट, और अक्लिष्टाक्लिष्ट। जिन प्रवृत्तियों से प्रारंभ और अंत दोनों में कष्ट हो वे क्लिष्ट। जैसे कोई ट्रेन में बिना टिकिट यात्रा करे ट्रेन में खूब भीड़ हो और बाद में टीटीई की चेकिंग में पकड़ा जावे तो प्रारंभ में और अंत दोनों में कष्ट हुआ। जिस प्रवृत्ति में पहले तो सुख हो पर बाद में कष्ट हो उसे अक्ल्ष्टिाक्लिष्ट कहते हैं। मानलो कोई सेकेंड क्लास का टिकिट लेकर स्लीपर में यात्रा करे तो यात्रा सुखदायक हो रही है पर चेकिंग स्टाफ के आ जाने पर कष्टदायी स्थिति आ गई इसे कहेंगे अक्लिष्टाक्लिष्ट। जब पहले कष्ट हो और बाद में सुख हो तो इसे कहते हैं क्लिष्टाक्लिष्ट जैसे, पढ़ने वाला विद्यार्थी सुखों और खेलकूद को त्यागकर अपना अध्ययन करके कष्ट पाता है परंतु रिजल्ट आने पर जब वह मेरिट में आता है तो आनन्दित होता है, इसे कहेंगे क्लिष्टाक्लिष्ट। जब न तो प्रारंभ में कष्ट हो और न अंत में तब उसे अक्लिष्ट प्रवृत्ति कहते हैं यह भक्ति की ओर ले जाती है। अक्लिष्टा ही मुख्यप्रवृत्ति कहलाती है अन्य सभी सहायक प्रवृत्तियाॅ। भक्ति, साधना नहीं है वरन् साधना की उपलब्धि है।
5. मन की पचास वृत्तियाॅ (fifty Occupations Of The Mind)
धर्म dharma (psycho-spiritual longing) अर्थ artha (psychic longing )काम kam (physical longing), मोक्ष mokśa (spiritual longing),अवज्ञा avajiṋá (belittlement of others),मूर्छा múrcchá (psychic stupor, lack of common sense), प्रश्रय prashraya (indulgence),अविश्वाश avishvása (lack of confidence), सर्वनाश sarvanásha (thought of sure annihilation), क्रूरता kruratá (cruelty),पिशूनता lajjá (shyness, shame), ईर्ष्या pishunatá (sadistic tendency),सुसुप्तिsuśupti (staticity, sleepiness), विषाद viśáda (melancholia) कषाय kaśáya(peevishness), तृष्णा trśńá (yearning for acquisition), मोह moha (infatuation), घृणा ghrna (hatred,revulsion), भय bhaya (fear), आशा asha (hope), चिन्ता cinta (worry), चेष्टा cesta (effort), ममता mamata (mineness)दम्भ dambha (vanity),विवेक viveka (conscience), विकलता vikalata (mental numbness due to fear),अहंकार ahamkara (ego),लोलुपता lolupta (avarice),कपटता kapatata (hypocrisy),
वितर्क vitarka (argumentativeness to the point of wild exaggeration) अनुताप anutapa (repentance),
षड़ज śad́aja (sound of peacock), ऋषभ rśabha (sound of bull), गाॅंधार gándhára (sound of goat), मध्यमा madhyama (sound of deer),पॅंचम paiṋcama (sound of cuckoo), धैवत्य dhaevata (sound of donkey), निषाद niśáda (sound of elephant),ओंम oṋm (acoustic root of creation), हुम् hum (sound of arousing kulakuńd́alinii), फट् phat́ (putting theory into practice), वोषट् vaośat́ (expression of mundane knowledge)
वषट् vaśat́ (welfare in subtler sphere),स्वाहा svaha (performing noble actions), विष vis'a (repulsive expression),
अमृत amrta (sweetness in expression), अपरा apara (mundane knowledge)...और पचासवीं वृत्ति जो कि एक आध्यात्मिक साधक को हमेशा जानना चाहिये वह है परा para (spiritual knowledge)
6. प्रेम क्या है। वह, जो मन को कोमल, द्रढ़ और सहलशील बनाता है, कितनी ही कष्टदायी स्थिति हो मन संतुलित रहकर भीतर ही भीतर स्थिर आनन्द का अनुभव कराता रहे प्रेम कहलाता है। भक्ति और प्रेम बिलकुल एक समान हैं, वे अपरिवर्तनीय रूप से जुड़े हुये है। जिस क्षण भक्ति उदित होती है ईश्वर से प्रेम हो जाता है।
7. भक्ति आनन्द का अवतार है, और आनन्द क्या है? जहाॅं दुख और सुख एकसमान प्रभाव डालते हैं वह अवस्था आनन्द की अवस्था कहलाती है। चाहे मूल प्रवृत्तियाॅं हों या सहायक वे संबंधित व्यक्ति के जीवन का अंग होती हैं। जो धन के पुजारी हैं यदि अचानक पूरा धन समाप्त हो जावे तो क्या वे जीवित रह पायेंगे? वे धन का नुकसान होने से मर जावेंगे। इसी प्रकार नाम यश और प्रतिष्ठा के पुजारी इन पर आघात पहुंचते ही आत्महत्या करने को
तैयार हो जावेंगे। इसी प्रकार भक्त का जीवन भक्ति है। भक्ति की समाप्ति उसके जीवन की समाप्ति है। इसलिये भक्त हमेशा परमपुरुष से और कुछ नहीं परमाभक्ति माॅंगता है। वे साधक जो आनन्द प्राप्ति के लिये ईश्वर को
चाहते हैं बलवान हो सकते हैं पर महान नहीं। वही भक्त महान कोटि में रखे जाते हैं तो स्वयं भी आनन्दित हों और परमात्मा को भी अपनी सेवा से आनन्द पहुॅंचायें। भक्त समाज सेवा करते हैं क्योंकि वे अपने आंतरिक हृदय में जानते हैं कि यह संसार परमात्मा का ही विस्तार है और प्रत्येक सृष्ट प्राणी उसका वंशज है। यदि कोई मानव सेवा करता है तो वह परमात्मा को प्रसन्न करने के वराबर है। साधक साधना इसलिये करता है क्योंकि परमात्मा ऐसा चाहते हैं। परमात्मा को प्रसन्न करने के लिये जिनका प्रत्येक कार्य होता है वे गोप कहलाते हैं। गोपायते यः सः गोपाः। परमात्मा को प्रसन्न करने के लिये किया गया कार्य भक्ति कहलाता है। जो संसार की सेवा इस धारणा से करता है कि वह यह सब अपने सामथ्र्य से कर रहा है तो संस्कारों के कारण पहले उसे अहंकार हो जाता है पर ज्योंही संस्कार क्षय हो जाते हैं वह पूछता है कि इस कार्य के लिये उसे किसने शक्ति दी? क्या ये उसकी अपनी ताकत है? अच्छे से अच्छा पहलवान भी कुछ दिन भूखा रहने से कमजोर पड़ जाता है , बोल भी नहीं पाता। एक सप्ताह तक भूखा रखने पर ज्ञानी का ज्ञान धरा रह जाता है। निष्कर्ष यह कि ज्ञान, बल, बुद्धि, क्षमता सबकुछ उसी पर निर्भर होते हैं मनुष्य के पास इन पर घमंड करने के लिये कुछ नहीं है। जिस क्षण उसे यह आभास हो जाता है वह भक्ति मार्ग पर चलकर अनुभव करता है कि सबकुछ परमात्मा की इच्छा से उसके माध्यम से हो रहा है, सच्चे भक्त की यही पहचान है।
8. क्रीडा और लीला में सूक्ष्म अंतर है। जब किसी घटना के कारण की पहचान सरलता से हो जावे तो वह क्रीडा कहलाती है और जब किसी घटना का होना तो दिखाई दे पर कारण समझ के बाहर हो तो उसे लीला कहते हैं। यह सृष्टि परमपुरुष की लीला है क्योंकि मनुष्य नहीं जान पाता कि इसको क्यों बनाया गया है। अपनी बुद्धि से वे इसके कारण को जानने का प्रयास करते हें पर क्या वे जान पाते हैं? इसलिये इसे परम पुरुष की क्रीडा नहीं लीला कहा जाता है। मनुष्य के पास थोड़ी सी बुद्धि है अतः वह इस सृष्टि का कारण नहीं जान पाता इसलिये उसे यह लीला कहना होगा पर परमपुरुष इसके कारण को जानते हैं अतः उनके लिये यह क्रीडा ही है।
9. दीक्षा क्या है? दीपज्ञानम यतो दद्यात् कुर्यात् पापक्षयम, तस्मात्दीक्षेति सा प्रोक्ता सर्वतंत्रस्य सम्मता। अर्थात् अनेक जन्मों के संस्कारों को क्षय कर जो विधि ईश्वरत्व की ओर बढ़ने की व्यावहारिक क्रिया सिखाती है उसे दीक्षा कहते हैं। सामान्यतः दो प्रकार की दीक्षायें प्रचलित हैं वैदिक और तान्त्रिक। वैदिक विधि की दीक्षा साधक को सही धर्म को चुनने और परमब्रह्म की ओर जाने का रास्ता बताती है, इसमें अनेक वैदिक श्लोक प्रयुक्त होते हैं। तान्त्रिकी विधि में सही रास्ते पर चलने की व्यावहारिक विधि योग्यताधारक गुरु सिखाता है जो जड़ता से मुक्त कर इष्ट से मिलने का रास्ता स्वयं समझाता है। वैदिक दीक्षा को शुद्धीकरण की विधि कह सकते हैं दीक्षा नहीं, सही अर्थों में तांत्रिक दीक्षा ही सही होती है क्योंकि उसमें आवश्यक दीक्षा के घटकों जैसे दीपनी, मंत्र,
मंत्रचैतन्य और अभिषेक आदि का समावेश होता है। इस प्रकार यदि सही गुरु से दीक्षा लेकर साधक ईमानदारी, नियमितता और समर्पण से साधना करता है तो वह माया के विरुद्ध अपने संग्राम में सफल हो जाता है और आत्मसाक्षात्कार करता है।
10. यज्ञ क्या है? इसका अर्थ है कृतज्ञता पूर्वक किया गया कर्म। यह चार प्रकार से किया जाता है, भूतयज्ञ, नृ यज्ञ, पितृयज्ञ और आध्यात्म यज्ञ। भूत का अर्थ है इस संसार में जो भी जिस भी रूप में आया है वह अर्थात्( all created beings) अतः उन सबके लिये निर्पेक्ष भाव से की गयी सेवायें भूतयज्ञ के अंतर्गत आती हैं, जैसे पौधों को पानी देना, पशुओं का पालन करना, वैज्ञानिक शोध कार्य करना और समाज कल्याण के लिये, सबकी भलाई के लिये उनका उपयोग करना। नृयज्ञ वह कार्य है जो मनुष्यों की भलाई के लिये किया जाता हैं यर्थातः यह भूतयज्ञ का ही भाग है क्योंकि मनुष्य भी created being ही हैं। पितृयज्ञ का अर्थ है अपने पूर्वजों और ऋषियों को याद करना और कृतज्ञता ज्ञापित करना। जब तक कोई व्यक्ति भौतिक शरीर में रहता है वह अपने पूर्वजों का ऋणी रहता है। ऋषि वे हैं जो समाज की भलाई के लिये नये अनुसंधान कर अनेेक प्रकार से मदद कर रहे हैं या की है तथा वे जो संयमपूर्वक प्राप्त ज्ञान से अपनी मुक्ति स्वयं करने का कार्य कर रहे हैं और समाज को भी लाभान्वित कर रहे हैं ऐंसे ऋषियों का ऋण भी समाज के ऊपर रहता है। परंतु जिन्होंने विध्वंसात्मक शस्त्रों का अनुसंधान किया है उससे समाज को किसी प्रकार का कल्याण नहीं होता अतः वे ऋषि नहीं कहला सकते। इसीलिये पितृयज्ञ करते समय श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित यह भावना रखना चाहिये कि
" पितृ पुरुषेभ्योनमः , ऋषिदेवेभ्योनमः,
ब्रह्मार्पणमं ब्रह्म हर्विब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ,
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं , ब्रह्मकर्मसमाधिना"।
अर्थात् जिन्होंने अपना प्रत्येक कार्य ब्राह्मिक भाव से करते हुए अपने को ब्रह्म स्वरूप ही बना लिया और अंततः ब्रह्म में ही समाधिस्थ हो गये उन पितृपुरुष ऋषिगणों को प्रणाम।
आध्यात्म यज्ञ का सूत्रपात आत्मा से होता है और कर्म होता है मन के द्वारा। मन साधना करता है और कर्म भी, जो कि आत्मा के क्षेत्र में समाप्त हो जाते हैं। आध्यात्म यज्ञ निवृत्ति दिलाता है जबकि भूत ,नृ और पितृ यज्ञ निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों में उलझाते हैं। नृ यज्ञ चार प्रकार का होता है, शूद्रोचित, वैश्योचित , क्षत्रियोचित और
विप्रोचित। शूद्रोचित सेवा में अपने सुखों का त्याग कर दूसरों को प्रसन्न करना या उनके कष्टों को दूर कर देना
जैसे मरीजों की सेवा आदि, आते हैं। वैश्योचित सेवा में किसी को रुपया पैसा देकर सेवा करना, और अपने
जीवन को खतरे में डालकर दूसरों का रक्षण करना क्षत्रियोचित सेवा कहलाता है। विप्रोचित सेवा में अपने द्वारा प्राप्त किये गये आध्यात्म के ज्ञान को दूसरों को सिखाना और सद्गुणों को सिखा कर सच्चाई के मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करना आदि आते हैं। शूद्रोचित सेवा समाज की रीढ़ की हड्डी है इसे किसी प्रकार हेय नहीं
समझना चाहिये। जो शूद्रोचित सेवा नहीं कर सकता वह वैश्योचित , क्षत्रियोेचित और विप्रोचित सेवा भी नहीं
कर सकता। इसलिये जिनमें यह चारों प्रकार के गुण हैं वही विप्र कहला सकते हैं। हमें अहंकार रहित सेवा करना चाहिये यह मान कर कि हम नारायण की सेवा कर रहे हैं। भूत, नृ और पितृ यज्ञ करते समय नारायण की सेवा करने का भाव रखने पर मैंपन की भावना को जागने का अवसर नहीं मिल पायेगा और कर्मबंधन से भी दूरी बनी रहेगी। कर्मबंधन से मुक्त होने और अहंकार को नष्ट करने के लिये ही यज्ञ किया जाता है , इसलिये उपरोक्त चारों यज्ञ कोई भी सम्पन्न कर सकता है। इससे यह स्पष्ट है कि अग्नि में घी, यव, तिल या अन्य वस्तुओं को जलाना यज्ञ नहीं है और न ही इस प्रकार खाद्यान्न को जलाने से समाज का कोई लाभ होता है। जो , यह कहते हैं कि इससे वातावरण शुद्ध होता है और वर्षा होती है वह किसी भी प्रकार वैज्ञानिक सत्य नहीं है। पृथ्वी पर जो भी जीव जगत है वह कर्बन का ही बहुरूप है इनमें से किसी के भी जलाने पर कार्बनडाई आक्साइड उत्पन्न होती है और कार्बन ही बचता है। स्वस्थ जीवन के लिये हमे आक्सीजन की आवश्यकता होती है और पौधों को कार्बनडाई आक्साइड, जो हम स्वाभाविक रूप से एक दूसरे को आदान प्रदान करते रहते हैं अतः पृथक से कार्बनडाई आक्साइड उत्पन्न करने का कोई औचित्य नहीं वह भी धार्मिक भावनाओं की कीमत पर। श्रीमद्भगवद्गीता के जिस श्लोक का उदाहरण देकर यह यज्ञकार्य किया जाता है वह भी उसका मनमाना अर्थ किये जाने के कारण है।
वह श्लोक कहता है कि
अन्नाद भवति भूतानि, पर्जन्यादन्न संभवः। यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञःकर्मसमुद्भवः।
जिसका सीधा अर्थ यह है कि अन्न से सभी जीवधारी उत्पन्न होते और जीवित रहते हैं, वर्षा से अन्न होता है, यज्ञ करने से वर्षा होती है और यज्ञ, कर्म करने से संभव होता है। अतः ऊपर वर्णित चारों प्रकार के यज्ञकर्म सबको नारायण समझकर करने पर ही प्रकृति संतुलन में रहेगी अर्थात् वर्षा होगी, अन्न उत्पन्न होगा और जीवन बना रहेगा तभी सब लोग अपने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे।
षड़ज śad́aja (sound of peacock), ऋषभ rśabha (sound of bull), गाॅंधार gándhára (sound of goat), मध्यमा madhyama (sound of deer),पॅंचम paiṋcama (sound of cuckoo), धैवत्य dhaevata (sound of donkey), निषाद niśáda (sound of elephant),ओंम oṋm (acoustic root of creation), हुम् hum (sound of arousing kulakuńd́alinii), फट् phat́ (putting theory into practice), वोषट् vaośat́ (expression of mundane knowledge)
वषट् vaśat́ (welfare in subtler sphere),स्वाहा svaha (performing noble actions), विष vis'a (repulsive expression),
अमृत amrta (sweetness in expression), अपरा apara (mundane knowledge)...और पचासवीं वृत्ति जो कि एक आध्यात्मिक साधक को हमेशा जानना चाहिये वह है परा para (spiritual knowledge)
6. प्रेम क्या है। वह, जो मन को कोमल, द्रढ़ और सहलशील बनाता है, कितनी ही कष्टदायी स्थिति हो मन संतुलित रहकर भीतर ही भीतर स्थिर आनन्द का अनुभव कराता रहे प्रेम कहलाता है। भक्ति और प्रेम बिलकुल एक समान हैं, वे अपरिवर्तनीय रूप से जुड़े हुये है। जिस क्षण भक्ति उदित होती है ईश्वर से प्रेम हो जाता है।
7. भक्ति आनन्द का अवतार है, और आनन्द क्या है? जहाॅं दुख और सुख एकसमान प्रभाव डालते हैं वह अवस्था आनन्द की अवस्था कहलाती है। चाहे मूल प्रवृत्तियाॅं हों या सहायक वे संबंधित व्यक्ति के जीवन का अंग होती हैं। जो धन के पुजारी हैं यदि अचानक पूरा धन समाप्त हो जावे तो क्या वे जीवित रह पायेंगे? वे धन का नुकसान होने से मर जावेंगे। इसी प्रकार नाम यश और प्रतिष्ठा के पुजारी इन पर आघात पहुंचते ही आत्महत्या करने को
तैयार हो जावेंगे। इसी प्रकार भक्त का जीवन भक्ति है। भक्ति की समाप्ति उसके जीवन की समाप्ति है। इसलिये भक्त हमेशा परमपुरुष से और कुछ नहीं परमाभक्ति माॅंगता है। वे साधक जो आनन्द प्राप्ति के लिये ईश्वर को
चाहते हैं बलवान हो सकते हैं पर महान नहीं। वही भक्त महान कोटि में रखे जाते हैं तो स्वयं भी आनन्दित हों और परमात्मा को भी अपनी सेवा से आनन्द पहुॅंचायें। भक्त समाज सेवा करते हैं क्योंकि वे अपने आंतरिक हृदय में जानते हैं कि यह संसार परमात्मा का ही विस्तार है और प्रत्येक सृष्ट प्राणी उसका वंशज है। यदि कोई मानव सेवा करता है तो वह परमात्मा को प्रसन्न करने के वराबर है। साधक साधना इसलिये करता है क्योंकि परमात्मा ऐसा चाहते हैं। परमात्मा को प्रसन्न करने के लिये जिनका प्रत्येक कार्य होता है वे गोप कहलाते हैं। गोपायते यः सः गोपाः। परमात्मा को प्रसन्न करने के लिये किया गया कार्य भक्ति कहलाता है। जो संसार की सेवा इस धारणा से करता है कि वह यह सब अपने सामथ्र्य से कर रहा है तो संस्कारों के कारण पहले उसे अहंकार हो जाता है पर ज्योंही संस्कार क्षय हो जाते हैं वह पूछता है कि इस कार्य के लिये उसे किसने शक्ति दी? क्या ये उसकी अपनी ताकत है? अच्छे से अच्छा पहलवान भी कुछ दिन भूखा रहने से कमजोर पड़ जाता है , बोल भी नहीं पाता। एक सप्ताह तक भूखा रखने पर ज्ञानी का ज्ञान धरा रह जाता है। निष्कर्ष यह कि ज्ञान, बल, बुद्धि, क्षमता सबकुछ उसी पर निर्भर होते हैं मनुष्य के पास इन पर घमंड करने के लिये कुछ नहीं है। जिस क्षण उसे यह आभास हो जाता है वह भक्ति मार्ग पर चलकर अनुभव करता है कि सबकुछ परमात्मा की इच्छा से उसके माध्यम से हो रहा है, सच्चे भक्त की यही पहचान है।
8. क्रीडा और लीला में सूक्ष्म अंतर है। जब किसी घटना के कारण की पहचान सरलता से हो जावे तो वह क्रीडा कहलाती है और जब किसी घटना का होना तो दिखाई दे पर कारण समझ के बाहर हो तो उसे लीला कहते हैं। यह सृष्टि परमपुरुष की लीला है क्योंकि मनुष्य नहीं जान पाता कि इसको क्यों बनाया गया है। अपनी बुद्धि से वे इसके कारण को जानने का प्रयास करते हें पर क्या वे जान पाते हैं? इसलिये इसे परम पुरुष की क्रीडा नहीं लीला कहा जाता है। मनुष्य के पास थोड़ी सी बुद्धि है अतः वह इस सृष्टि का कारण नहीं जान पाता इसलिये उसे यह लीला कहना होगा पर परमपुरुष इसके कारण को जानते हैं अतः उनके लिये यह क्रीडा ही है।
9. दीक्षा क्या है? दीपज्ञानम यतो दद्यात् कुर्यात् पापक्षयम, तस्मात्दीक्षेति सा प्रोक्ता सर्वतंत्रस्य सम्मता। अर्थात् अनेक जन्मों के संस्कारों को क्षय कर जो विधि ईश्वरत्व की ओर बढ़ने की व्यावहारिक क्रिया सिखाती है उसे दीक्षा कहते हैं। सामान्यतः दो प्रकार की दीक्षायें प्रचलित हैं वैदिक और तान्त्रिक। वैदिक विधि की दीक्षा साधक को सही धर्म को चुनने और परमब्रह्म की ओर जाने का रास्ता बताती है, इसमें अनेक वैदिक श्लोक प्रयुक्त होते हैं। तान्त्रिकी विधि में सही रास्ते पर चलने की व्यावहारिक विधि योग्यताधारक गुरु सिखाता है जो जड़ता से मुक्त कर इष्ट से मिलने का रास्ता स्वयं समझाता है। वैदिक दीक्षा को शुद्धीकरण की विधि कह सकते हैं दीक्षा नहीं, सही अर्थों में तांत्रिक दीक्षा ही सही होती है क्योंकि उसमें आवश्यक दीक्षा के घटकों जैसे दीपनी, मंत्र,
मंत्रचैतन्य और अभिषेक आदि का समावेश होता है। इस प्रकार यदि सही गुरु से दीक्षा लेकर साधक ईमानदारी, नियमितता और समर्पण से साधना करता है तो वह माया के विरुद्ध अपने संग्राम में सफल हो जाता है और आत्मसाक्षात्कार करता है।
10. यज्ञ क्या है? इसका अर्थ है कृतज्ञता पूर्वक किया गया कर्म। यह चार प्रकार से किया जाता है, भूतयज्ञ, नृ यज्ञ, पितृयज्ञ और आध्यात्म यज्ञ। भूत का अर्थ है इस संसार में जो भी जिस भी रूप में आया है वह अर्थात्( all created beings) अतः उन सबके लिये निर्पेक्ष भाव से की गयी सेवायें भूतयज्ञ के अंतर्गत आती हैं, जैसे पौधों को पानी देना, पशुओं का पालन करना, वैज्ञानिक शोध कार्य करना और समाज कल्याण के लिये, सबकी भलाई के लिये उनका उपयोग करना। नृयज्ञ वह कार्य है जो मनुष्यों की भलाई के लिये किया जाता हैं यर्थातः यह भूतयज्ञ का ही भाग है क्योंकि मनुष्य भी created being ही हैं। पितृयज्ञ का अर्थ है अपने पूर्वजों और ऋषियों को याद करना और कृतज्ञता ज्ञापित करना। जब तक कोई व्यक्ति भौतिक शरीर में रहता है वह अपने पूर्वजों का ऋणी रहता है। ऋषि वे हैं जो समाज की भलाई के लिये नये अनुसंधान कर अनेेक प्रकार से मदद कर रहे हैं या की है तथा वे जो संयमपूर्वक प्राप्त ज्ञान से अपनी मुक्ति स्वयं करने का कार्य कर रहे हैं और समाज को भी लाभान्वित कर रहे हैं ऐंसे ऋषियों का ऋण भी समाज के ऊपर रहता है। परंतु जिन्होंने विध्वंसात्मक शस्त्रों का अनुसंधान किया है उससे समाज को किसी प्रकार का कल्याण नहीं होता अतः वे ऋषि नहीं कहला सकते। इसीलिये पितृयज्ञ करते समय श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित यह भावना रखना चाहिये कि
" पितृ पुरुषेभ्योनमः , ऋषिदेवेभ्योनमः,
ब्रह्मार्पणमं ब्रह्म हर्विब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ,
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं , ब्रह्मकर्मसमाधिना"।
अर्थात् जिन्होंने अपना प्रत्येक कार्य ब्राह्मिक भाव से करते हुए अपने को ब्रह्म स्वरूप ही बना लिया और अंततः ब्रह्म में ही समाधिस्थ हो गये उन पितृपुरुष ऋषिगणों को प्रणाम।
आध्यात्म यज्ञ का सूत्रपात आत्मा से होता है और कर्म होता है मन के द्वारा। मन साधना करता है और कर्म भी, जो कि आत्मा के क्षेत्र में समाप्त हो जाते हैं। आध्यात्म यज्ञ निवृत्ति दिलाता है जबकि भूत ,नृ और पितृ यज्ञ निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों में उलझाते हैं। नृ यज्ञ चार प्रकार का होता है, शूद्रोचित, वैश्योचित , क्षत्रियोचित और
विप्रोचित। शूद्रोचित सेवा में अपने सुखों का त्याग कर दूसरों को प्रसन्न करना या उनके कष्टों को दूर कर देना
जैसे मरीजों की सेवा आदि, आते हैं। वैश्योचित सेवा में किसी को रुपया पैसा देकर सेवा करना, और अपने
जीवन को खतरे में डालकर दूसरों का रक्षण करना क्षत्रियोचित सेवा कहलाता है। विप्रोचित सेवा में अपने द्वारा प्राप्त किये गये आध्यात्म के ज्ञान को दूसरों को सिखाना और सद्गुणों को सिखा कर सच्चाई के मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करना आदि आते हैं। शूद्रोचित सेवा समाज की रीढ़ की हड्डी है इसे किसी प्रकार हेय नहीं
समझना चाहिये। जो शूद्रोचित सेवा नहीं कर सकता वह वैश्योचित , क्षत्रियोेचित और विप्रोचित सेवा भी नहीं
कर सकता। इसलिये जिनमें यह चारों प्रकार के गुण हैं वही विप्र कहला सकते हैं। हमें अहंकार रहित सेवा करना चाहिये यह मान कर कि हम नारायण की सेवा कर रहे हैं। भूत, नृ और पितृ यज्ञ करते समय नारायण की सेवा करने का भाव रखने पर मैंपन की भावना को जागने का अवसर नहीं मिल पायेगा और कर्मबंधन से भी दूरी बनी रहेगी। कर्मबंधन से मुक्त होने और अहंकार को नष्ट करने के लिये ही यज्ञ किया जाता है , इसलिये उपरोक्त चारों यज्ञ कोई भी सम्पन्न कर सकता है। इससे यह स्पष्ट है कि अग्नि में घी, यव, तिल या अन्य वस्तुओं को जलाना यज्ञ नहीं है और न ही इस प्रकार खाद्यान्न को जलाने से समाज का कोई लाभ होता है। जो , यह कहते हैं कि इससे वातावरण शुद्ध होता है और वर्षा होती है वह किसी भी प्रकार वैज्ञानिक सत्य नहीं है। पृथ्वी पर जो भी जीव जगत है वह कर्बन का ही बहुरूप है इनमें से किसी के भी जलाने पर कार्बनडाई आक्साइड उत्पन्न होती है और कार्बन ही बचता है। स्वस्थ जीवन के लिये हमे आक्सीजन की आवश्यकता होती है और पौधों को कार्बनडाई आक्साइड, जो हम स्वाभाविक रूप से एक दूसरे को आदान प्रदान करते रहते हैं अतः पृथक से कार्बनडाई आक्साइड उत्पन्न करने का कोई औचित्य नहीं वह भी धार्मिक भावनाओं की कीमत पर। श्रीमद्भगवद्गीता के जिस श्लोक का उदाहरण देकर यह यज्ञकार्य किया जाता है वह भी उसका मनमाना अर्थ किये जाने के कारण है।
वह श्लोक कहता है कि
अन्नाद भवति भूतानि, पर्जन्यादन्न संभवः। यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञःकर्मसमुद्भवः।
जिसका सीधा अर्थ यह है कि अन्न से सभी जीवधारी उत्पन्न होते और जीवित रहते हैं, वर्षा से अन्न होता है, यज्ञ करने से वर्षा होती है और यज्ञ, कर्म करने से संभव होता है। अतः ऊपर वर्णित चारों प्रकार के यज्ञकर्म सबको नारायण समझकर करने पर ही प्रकृति संतुलन में रहेगी अर्थात् वर्षा होगी, अन्न उत्पन्न होगा और जीवन बना रहेगा तभी सब लोग अपने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे।
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