Saturday 8 November 2014

3.0: तथ्य और अवधारणायें

 मध्य (भाग दो)  विशुद्ध  ज्ञान

3.0: तथ्य और अवधारणायें

पिछले खंड में आपने देखा कि ब्रह्माण्ड के बारे में वैज्ञानिक शोधकार्य से प्राप्त आँकडे़ और तथ्य अपने आप में कितने जटिल और
आश्चर्यजनक हैं और इनका मेल आध्यात्मिक क्षेत्र से कितना और किस प्रकार हो सकता है यह भारतीय दर्शन  के साथ अन्य
दार्शनिकों की विचारधाराओं को एकत्रित करने के उपरान्त ही पता लगाया जा सकेगा।  इसके लिये दार्शनिक शब्दावली की परिभाषायें समझना होंगी अन्यथा कुछ भी नहीं समझा जा सकेगा। अब आइये दार्शनिकों के मत में कुछ महत्वपूर्ण शब्दों की परिभाषाओं को जान कर उन पर विचार करें,  इन तथ्यों/शब्दों को दार्शनिकों ने अपनी अपनी व्याख्याओं में किसी न किसी प्रकार प्रयुक्त किया है।
3.1: परिभाषायें
प्रकृति- उस एकमात्र परम सत्ता का क्रियात्मक पक्ष (operative principle) जो अपने तीन प्रकार के गुणों सत, रज और तम की सहायता से समग्र ब्रह्माण्ड  में संतुलन बनाये रखती है। इसे  वह्वंकुरा   या नित्यनिवृत्ता भी कहते हैं जिसका अर्थ है अनेक रूपों में परिवर्तित होने की क्षमता होना और लगातार परिवर्तित होते जाना। 
पुरुष- उस एकमात्र परमसत्ता का संज्ञानात्मक पक्ष (cognitive principle) है  जो प्रकृति के प्रत्येक कार्य पर अपना साक्ष्य देता है।

विद्यामाया- प्रकृति का वह रूप जिसमें वह जीव को भौतिक और मानसिक जगत के संघर्ष से आत्मिक जगत में ले जाने की ओर प्रेरित करती है।

 सम्वितशक्ति  -  विद्यामाया, इसकी सहायता से अज्ञान में फंसे जीव को अचानक वैचारिक आघात देकर अनुभव कराती है कि अब तक गलत दिशा  में जा रहा था अब इसी क्षण से सही रास्ते पर चलूँगा , अर्थात् होश  में ले आती है। 
ह्लादिनीशक्ति-  विद्यामाया, इसकी सहायता से सच्चाई के मार्ग पर चलने वाले मनुष्य को आत्मिक क्षेत्र में और आगे जाने का मार्गदर्शन करती है और रागानुगा तथा रागात्मिका भक्ति प्रदान करतीहै।

अविद्यामाया-  प्रकृति का वह रूप जिसमें वह जीव को भौतिक और मानसिक जगत के संघर्ष में ही उलझाये रखती है और उसे ही सब कुछ मानने के विचार देती है।

विक्षेपशक्ति-  अविद्यामाया का वह रूप जो मनुष्य के मन को प्रकृति के विविध रूपों की ओर विक्षेपित करता रहता है और इस प्रकार के विचार देता है कि यही सब कुछ है यह सब कुछ उसके लिये ही है आदि।

आवरणीशक्ति-  अविद्यामाया का वह रूप जो मनुष्य के मन को आत्मिक क्षेत्र में जाने पर सामने से अपारदर्शी  आवरण डाल कर अवरोध पैदा करता है। ( इसे  विद्या के विवेकपूर्ण तरीके से दूर कर आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रगति की जा सकती है।)

रागानुगाभक्ति-  विद्यामाया की ह्लादिनी शक्ति के प्रभाव से जब मनुष्य का मन परमपुरुष के चिंतन में  लीन होता है तो वह अनुभव करता है कि उसके इस कार्य से उसके आराध्य प्रसन्न हो रहे  हैं जिससे उसे भी आनन्द की अनुभूति हो रही है।
रागात्मिकाभक्ति-  विद्यामाया की ह्लादिनी शक्ति के प्रभाव से जब मनुष्य का मन परम पुरुष के चिंतन में इतना लीन हो जाता है कि वह अनुभव करता है कि उसके इस कार्य से उसके आराध्य हमेशा  ही प्रसन्न होते रहें भले ही उसे कष्ट मिले या सुख । इसे ही भक्ति की पराकाष्ठा  कहा गया है।

काल अर्थात् टाइम- क्रिया की गतिशीलता का मानसिक माप है। 
पात्र अर्थात् पर्सन, मन की सहायता से इस गतिशीलता को ग्रहण करने वाला है।
देश  अर्थात् स्पेस, पात्र तथा काल में संबंध स्थापित करने वाली सत्ता है।

मन- प्रकृति के तीनों आभ्यांतरिक गुणों में (अर्थात सात्विक, राजसिक और तामसिक) लगातार होने वाले संघर्ष के परिणाम स्वरूप होने वाले रूपान्तरण से बनता है और महत्तत्व , अहंतत्व और चित्ततत्व इन तीन प्रकारों में क्रियारत रहता है जो क्रमशः  साक्षी, कर्ता और कृता कहलाते हैं।
Mind:   Never ending clash in the three principles i.e. sentient, mutative  &  static.This  means  Mind originates as a result of ever changing functional  metamorphosis in  three  principles. 

आत्मा- मन को, काल अर्थात् टाइम के सभी पक्षों में,  देश  अर्थात् स्पेस की सभी विमाओं में, और पात्र अर्थात् पर्सन के भौतिक तथा मानसिक सभी रूपों में साक्ष्यीभूत करने वाली निर्पेक्ष सत्ता है। इसे इकाई संरचना में नाभिकीय चेतना या कूटस्थ चैतन्य कहते हैं और इसका  नियंत्रण बिन्दु दोनों भोंहों के बीच का स्थान है जहां पर पिट्यूटरी ग्लेंड क्रियाशील रहती है।
Atma   Absolute entity to witness the mind in all the aspects of Time, all the dimensions of  Space and Person in all forms (physical and psychic). The nucleus consciousness or the  Atma in the unit structure is called “Kutasth Chaitanya” and its controlling state is  middle point between the eye –brows, the place  where the functioning point of the  pituitary gland is located.

विचार- मनोआत्मिक समानान्तरता की अवस्था है ।
(Idea: is a state of  psycho-spiritual  parallelism)
आदर्श-  मानसिक स्तर पर विचार की संकल्पना है ।
(Ideology:  is a conception of idea on the psychic level)

अर्थ- मनोभौतिक समानान्तरता की अवस्था है। 
 (Meaning:  is a state of  psycho-physical parallelism) 

साधना- यह प्रतिसंचर की गति को त्वरित करने का प्रयास है जिससे उस ‘दिव्य‘ से पृथकत्व के कष्टदायी घंटों को जल्दी ही समाप्त किया जा सके। आध्यात्मिक साधना की परख तभी होती है जब लगता है कि मैं उस ‘दिव्य‘ की ओर बढ़ रहा हूँ । देर करने का प्रत्येक क्षण कष्टों का क्षण है। जो उस दिव्य से साक्षात्कार कराये केवल वही आध्यात्मिक साधना है अन्य सब कर्मकांडीय प्रदर्शन मात्र है।        (Spiritual Sadhana: It is the attempt to accelerate the motion of Pratisanchar and thereby covers up painful hours of divine separation as early as possible.The touch stone of spiritual Sadhana is therefore, the feeling that I am tending  towards Him. Every delayed moment of life is only a moment of pain. That alone which brings His realization is His spiritual practice, all other actions being ritualistic ostentation.)

दशा-  जब साधना के समय साधक आनन्द से गिर पड़ता है।
भाव- जब साधना के समय साधक ईश्वर  की निकटता का अनुभव करने से गिर पड़ता है।
महाभाव-  साधना के समय साधक परमपुरुष का स्पर्शजन्य आनन्द पाकर गिर पड़ता है और उसका रोम रोम ईश्वरीय आनंद से भर जाता है।

दीपनी-  प्रकाश अर्थात  टार्च।
मंत्रदीपनी- भौतिक वस्तुओं से मन को खींचना।
मंत्राघात- मंत्र को बार बार दुहराना।
मंत्रचैतन्य- मंत्र के अर्थ पर चिंतन करना।

भूतशुद्धि- भौतिक पदार्थों से मन को खींच लेना।
आसनशुद्धि-  खींचे गये मन को उचित शुद्ध आसन पर बैठाना।

महत्तत्व- शुद्ध मैं आर्थात् [Pure I, Knower I] 
अहमतत्व- कर्ता मैं अर्थात्   [Doer I]
चित्तत्व- कृता मैं अर्थात् [Done I]

प्रमा- भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक तीनों क्षेत्रों में सुसंतुलन होने की स्थिति "प्रमा" कहलाती है। भौतिक क्षेत्र में की गई प्रगति प्रमा-संवृद्धि, मानसिक क्षेत्र में  प्रगति प्रमा-रिद्धि और आध्यात्मिक क्षेत्र में हुई प्रगति को प्रमा-सिद्धि कहलाती है।

पूजा अथवा पूजन- जब कोई व्यक्ति स्वार्थवश  या बिना स्वार्थ के अविभक्त मन से अपने आराध्य के प्रति अपना अत्यंन्त आदर प्रकट करता है जिसमें बाहरी तौर पर फूल, बेलपत्र, चंदन, गंगाजल तुलसी, केला, चावल आदि अर्पण करता है या इन वस्तुओं का नहीं भी अर्पण करता है तो उसे पूजा या पूजन कहते हैं।
अर्चा या अर्चना- जब कोई व्यक्ति स्वार्थवश  अपने आराध्य के प्रति अपना अत्यंन्त आदर प्रकट कर बाहरी तौर पर फूल, बेलपत्र, चंदन, गंगाजल, तुलसी, केला, चावल आदि अर्पण करता है तो इसे अर्चा या अर्चना कहते हैं।
प्रार्थना- जब कोई व्यक्ति स्वार्थवश  या बिना स्वार्थ के अविभक्त मन से अपने आराध्य के प्रति गहरे मन से बिना किसी बाहरी सामग्री के साथ अत्यंन्त आदर प्रकट करता है तो उसे प्रार्थना कहते हैं।
ब्रह्मसद्भाव- वह विशेष प्रकार की पूजा जो निस्वार्थ भाव से बिना किसी वाह्य सामग्री के साथ अपने आराध्य के ध्यान में की जाती है उसे ब्रह्म चिंतन या ब्रह्मसद्भाव कहते हैं। (इसे ही सर्वोत्तम कहा गया है।)
विधिपूजन- ऊपर वर्णित पूजा की विधियाँ , धार्मिक कर्मकांडियों द्वारा अनेक भागों में कराई जाती हैं जैसे, अंगन्यास, करन्यास, आचमन, शिखाबंधन, आवाहन, माल्यदान, तिलकधारण, और विसर्जन। इस प्रक्रिया सहित पूजन करने को विधिपूजन कहते हैं।

धुवास्मृति - परमात्मा समग्र ब्रह्माण्ड  का कर्ता और समग्र ब्रह्माण्ड  उसका कर्म है। इसलिये उन्हें अपना कर्म नहीं बनाया जा सकता। तब क्या किया जाय? इसके लिये यह विचार सदा करना होगा कि वह हमें लगातार देख रहे हैं। बुद्धिमान लोग परमात्मा को अपना विषय नहीं बनाते बल्कि अपने को उनका विषय मानते हैं और उन्हें हमेशा  साक्ष्य देने वाला मानकर सोचते हैं कि ‘‘परमात्मा मेरे विषय नहीं हैं मैं उनका विषय हूँ ।‘‘ जब यह भावना किसी के मन में हमेशा  के लिये दृढ़  स्थान ले लेती है कि वे हमेशा  उन्हें देख रहे हैं तो इसे धुवास्मृति कहते हैं। इसी का नाम आध्यात्मिक ज्ञान है इस अवस्था में ही कोई व्यक्ति सच्चा ज्ञान पा सकता है। आध्यात्मिक ज्ञान को मानसिक और भौतिक क्षेत्र में बदला जा सकता है। यदि कोई इस प्रकार करना चाहता है तो वह संसार का बहुत भला करेगा। इसी से प्रगति होती है। सबसे विद्वान व्यक्ति वह है जो समझता है कि वह कुछ नहीं जानता।
पराभक्ति- आध्यात्मिक ज्ञान के अभिलाषी को यह याद रखना चाहिये कि मनोभौतिक ज्ञान की आवश्यकता केवल भौतिक जगत में ही होती है, पर जब व्यक्तिगत जीवन में आध्यात्मिक ज्ञान आ जाता है तो मनोभौतिक ज्ञान की जरूरत नहीं रह जाती । लगातार प्रयत्न करने पर आध्यात्मिक ज्ञान भक्ति में बदल जाता है क्योंकि जब ज्ञान से यह पता लग जाता है कि यह किसी काम का नहीं है तो परमपुरुष के समक्ष समर्पण करने के अलावा कुछ भी नहीं रह जाता और यही असली ज्ञान है। इसलिये याद रखना है कि एक बार भक्ति का उद्गम हो गया समझ लो सबकुछ मिल गया, परमात्मा ने यदि कभी कुछ माँगने का अवसर दिया तो उनसे पराभक्ति ही माँगना चाहिए।

जीवन की गति-  मानसिक सामग्री को ज्ञान में परिवर्तित करना चाहिये इसे धर्म कहते हैं। यह धर्म प्राथमिक और द्वितीयक इन दो भागों में बाँटा  गया है। प्राथमिक धर्म के प्रकाशित होने का अवसर मनुष्यों में ही पाया जाता है इसलिये शुद्ध ज्ञान अथवा भागवत धर्म का स्थायीकरण मनुष्य के लिये ही संभव है। द्वितीयक धर्म अन्य प्राणियों के लिये है। जीवन की गति जब मूल अवस्था में अर्थात् चेतना की ओर हो जाती है तो वहाँ  गति तो बनी रहती है पर प्रसार नहीं होता। यर्थाथतः इस अवस्था में व्यक्ति का स्वभाव उसके स्वरूप में बदल जाता है, इस अवस्था की यह विशेषता है। यह दिव्य और निर्पेक्ष अवस्था है इसे किसी प्रकार का प्रतीक नहीं दिया जा सकता। इसलिये जीवन की गति भौतिक से मानसिक, मानसिक से मनोआत्मिक ओर मनोआत्मिक से आध्यात्मिक दिशा  में होना चाहिये। जो इस प्रकार गति नहीं कर रहे हैं वे बड़े ही संकट में जा रहे हैं अपने को लोहा और लकड़ी में रूपान्तरित करने जा रहे हैं।

परा वृत्ति -    भ्रष्ट करने वाली प्रवृत्तियों को दबाने से वे समाप्त नहीं होती ,वे अवसर पाकर फिर दबोच लेती हैं अतः उनसे बचने का एक ही उपाय है कि उन्हें मन की सहायता से आध्यात्मिक तरंगों में बदल कर परमात्मा की ओर प्रेषित करते जाना चाहिए। कुल मिला कर 49 वृत्तियाँ  होती हैं इसलिये इन्हें एक़ित्रत कर  50 वीं वृत्ति को जाग्रत करो जिसे ‘परा‘ वृत्ति कहते हैं। ज्योंही यह जाग गई आप विशुद्ध ज्ञान के क्षेत्र, जिसे ब्रह्मधाम कहते हैं, में प्रवेश  कर जावेंगे।

ईश्वर- मन को धर्म साधना में लगाये रहो, धर्म की आत्मा तुम्हारे ही "मैंपन" के पीछे छिपी है कहीं अन्य़त्र ढूडने  नहीं जाना है, इसे कैसे प्राप्त करना है इसकी विधि उन व्यावहारिक महापुरुषों से सीख लो जिन्होंने साधना कर अपने आपको देख लिया है अनुभव कर लिया है। तुम्हारा भूखा भगवान भीतर वैठा है और तुम उसे खोजने के लिये बाहरी संसार को भोज दे रहे हो। वह तुम्हारे भीतर कैसे छिपा है? जैसे तिल के भीतर तेल और दधि के भीतर मख्खन। अतः जैसे तिल को पीसकर तेल पाया जाता है, साधना करके मन को चेतना से पृथक कर लेने पर देखोगे कि तुम्हारा पूरा अस्तित्व चेतना से जगमग हो रहा है। ईश्वर तुम्हारे भीतर ही भीतर प्रवाहित हो रहा है मन की रेत को हटाओ स्वच्छ ठंडा जल पाओगे।

भगवान- भगवान का क्या अर्थ है? आध्यात्मिक रूप से इसके दो अर्थ है, पहला है आध्यत्मिक प्रकाश  और दूसरा है छह गुणों का समाहार। भग के पहले अक्षर ‘भ‘ का अर्थ है, 'भेति भास्यते लोकान', अर्थात् जिसके ज्ञान, जीवन्तता और महानता के प्रकाश  से सभी लोक प्रकाशित होते हैं। अत्यधिक उच्च स्तरीय मानवीय सद्गुणों का ध्वन्यात्मिक उद्गम है ‘भ‘। और ‘ग‘ का अर्थ है , 'इत्यागच्छत्यजस्रम् गच्छति यस्मिन आगच्छति यस्मात्'। अर्थात् वह सत्ता जहाँ  सभी जीव  वापस लौट जाते हैं, जिससे सभी का उद्गम भी होता है। दूसरे प्रकार से भग का अर्थ है छः गुणों का समाहार, ‘‘एश्वर्यम् च समग्रं च वीर्यं च यशासः  श्रियः, ज्ञानवैराग्ययोश्च  च षन्नाम भग इति उक्तम्।‘‘ एश्वर्य का अर्थ है अणिमा, गरिमा, महिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व ,वशित्व और अंतर्यामित्व ये आठों सिद्धियाँ , वीर्य का अर्थ है जिसकी उपस्थिति से शत्रु कांपने लगें, जो सब पर प्रशासन कर सके। यशासः  काअर्थ है यश  और अपयश   दोनों। श्री का अर्थ है सभी भौतिक उपलब्धियों के साथ शक्ति का प्रचुर सामंजस्य। ज्ञान का अर्थ है आघ्यात्मिक ज्ञान, परा और अपरा ज्ञान। वैराग्य का अर्थ है राग रहित होना, किसी भी भौतिक आकर्षण में लिप्त न होना। इस प्रकार जिस किसी में भी यह छः गुण हैं वह भगवान कहला सकता है।

एकाग्रता- एकाग्र हुए बिना परमचेतना से नहीं मिल सकते हो, मनोआध्यात्मिक प्रगति के लिये एककेन्द्रित मन आवश्यक है। ‘परा‘ केवल एक विचार पसंद करती है किसी प्रकार का संदेह नहीं। एक लक्ष्य, एक रास्ता, एक मार्गदर्शक होने से संदेह रहित होकर आगे बढ़ते जाओगे इन में से कोई भी दो हुए तो भटक जाओगे।

शैव, शाक्त और वैष्णव-  शिवत्व  की साधना में प्रकृति को नहीं भूल सकते क्योंकि जो शैव  है वे शाक्त  भी हैं। साधना के पथ में शक्ति की आवश्यकता होती है। चूकि विष्णु भौतिक जगत की सभी वस्तुओं में हैं अतः भक्त को वैष्णव भी होना होगा, इसलिये शैव व, शाक्त  और वैष्णवों को आपस में झगड़ने से कुछ नहीं मिलेगा। ध्येय शक्ति नहीं है, वह तो शिव का विचार मन में लाने से ही आ जाती है, परंतु शक्ति का विचार करने पर शिव नहीं आते। शक्ति सा शिवस्य शक्ति। वेदों के अनुसार शक्ति नित्यनिवृत्ता है और वह लगातार शिव में रूपान्तरित होती जा रही है जब पूरी शक्ति शिव में रूपान्तरित हो चुकेगी ब्रह्माण्ड  का अन्त हो जावेगा। शिव  और शक्ति  में केवल दार्शनिक भिन्नता ही है इसलिए  किसी को यह नहीं कहना चाहिये कि वह शक्ति प्राप्त करने के लिये शिव  की उपासना कर रहा है।

चार धाम- धाम का अर्थ है घर। चार घाम यह हैं, 1. चेतन मन 2. अवचेतन मन 3. अचेतन मन 4. धामहीन अवस्था, निरालंब अवस्था या तुरीयावस्था। प्रारंभिक तीनों अवस्थाओं में सोचने का विषय मौलिक नहीं होता न ही यह होना संभव है। नींद में या स्वप्न देखने में भी चेतन मन के द्वारा देखी गई विषयवस्तु ही पुनः निर्मित हो जाती है मौलिक नहीं। चेतन मन द्वारा अनुभव की गई विषयवस्तुओं को अचेतनमन पूर्णतः आभाषित कर लेता है और स्वभावतः कल्पित भूत प्रेतों के आकार वहां वास्तविक लगने लगते हैं, परंतु तुरीयावस्था में मौलिक चिंतन/रचना संभव है। मनुष्य मन से ही विषयों का भोग करता है। प्रारंभिक तीनों अवस्थाओं में तुम्हारी जीवात्मा का एक भाग भोक्ता और दूसरा भोग्य बन जाता है। भोक्ता को 'सगुण परा' और भोग्य को 'सगुण अपरा' कहते हैं। निर्पेक्ष भाग निर्गुण कहलाता है। तुम्हारी इकाई चेतना, महत् , अहं भोक्ता , और चित्त भोग्य।

चार युग-  कलिः शयानो भवति सञ्जिहानोस्तु द्वापरः ।
              उत्तिष्ठंत्रेता भवति कृतं सम्पद्यते चरण ।
जबतक सो रहे हो कलयुग में हो, जाग गये हो तो द्वापर में हो, उठ कर वैठ गये हो तो त्रेता में हो और चलने के लिये कदम बढ़ा दिया है तो सतयुग में हो।

मन की संकीर्णता- परमसत्ता की ओर बढ़ने के लिये सबसे पहले मन की तुच्छता और बंधनकारी घटकों को काटना होगा इसलिये इनके विरुद्ध संघर्ष करना अनिवार्य है। मन, जब संकीर्णता से ग्रस्त रहता है तो पाप और प्रदूषण फैलाता है, परंतु जब वह विस्तारित कर दिया जाता है तो सद्गुणों की चमक से वह मानवता को देवत्व की ऊंचाई तक ले जाता है।

रासलीला- रस साधना की मूल भावना यह है कि व्यक्तिगत इच्छायें और वांछायें सभीकुछ परमपुरुष की ओर संप्रेषित करना। इस प्रकार साधना में पूर्णता अर्थात् रिद्धि और सफलता अर्थात् सिद्धि प्राप्त होती है। शास्त्रों में इसे रासलीला कहा गया है। जिस किसी की रचना हुई है वह सब परम पुरुष की इच्छा से ही चक्कर लगा रहा है, किसी का अध्ययन, बुद्धि और व्यक्तिगत स्तर, सब कुछ व्यर्थ हो जाते हैं जब तक उन्हें परमपुरुष की ओर संप्रेषित नहीं किया जाता । इस परमसत्य को जानने के बाद चतुर व्यक्ति यह कहते हुए आगे बढ़ता जाता है कि है, ‘‘परमपुरुष मुझे कुछ नहीं चाहिए आपकी इच्छा पूरी हो।‘‘

आन्तरिक और वाह्य सेवा- जपक्रिया और ध्यान, परमपुरुष की निर्पेक्ष सेवा कर रहा हूँ  इस भावना से करना चाहिए, इसे आन्तरिक सेवा कहते हैं। इसप्रकार से कोई भी अपने मन को तीव्र गति से केद्रित कर सकता है। जप क्रिया के बीच यदि यह भावना पूर्णरूप से जाग्रत रहे तो साधक सबकुछ प्राप्त कर सकता है। आन्तरिक और वाह्य दोनो प्रकार की सेवाओं का बराबर महत्व है। वाह्य सेवा से मन शुद्ध होता है जिससे वह अपने इष्ट की और अच्छी तरह सेवा कर सकता है। सभी साधकों को दोनों प्रकार की सेवायें करना चाहिए। साधना, और कुछ नहीं अपने और परम पुरुष के बीच की दूरी कम करना है।

स्वरस- पूर्व काल में ब्रह्म का स्वरस अर्थात् दिव्य प्रवाह चैतन्य महाप्रभु के द्वारा प्रदर्शित किया गया, इससे लोग उनके पीछे पागलों की तरह भागते, रोते, नाचते, गाते और दिव्यानन्द में हॅंसते थे। ब्रह्म का स्वरस कृष्ण ने अपनी बाँसुरी  के द्वारा प्रदर्शित किया था जिसे सुनकर लोग पागलों की तरह अपने परिवार, संस्कृति, प्रतिष्ठा, सामाजिक स्तर आदि छोड़कर उनकी ओर भागते थे। इतना ही नहीं बृंदावन की गोपियां अपने घर की गोपनीयता छोड़कर बाँसुरी  के स्वर में नाचतीं गाती  और अट्टहास करतीं थी। आनन्दमार्ग (path of bliss) में ब्रह्म का स्वरस, साधना के विभिन्न पाठों में भर दिया गया है अतः जो इसे करते हैं या भविष्य में करेंगे अवश्य  ही ब्रह्मानन्द में डूब कर नाचेंगे, गायेंगे , रोयेंगे और स्थायी रूप से परम पुरुष को पाने की दिशा  में बढ़ेंगे।

अग्रयाबुद्धि-  आत्मा को न तो मन और न ही इंद्रियां समझ सकती हैं क्योंकि आत्मा इन सबसे सूक्ष्म है। आत्मा को समझने के लिये अग्रयाबुद्धि ही उपयोगी है जिसका अर्थ है एकाग्र बुद्धि। इसके सहारे ही मन आत्मा में मिल सकता है। मन अपना प्रसार इंद्रियों की सहायता से विभिन्न दिशाओं में बनाये रखता है यदि इस प्रसार को केवल एक बिन्दु  की ओर केन्द्रित कर दिया जावे तो इसे अग्रयाबुद्धि कहते हैं।

धीरपुरुष- जो अपनी वाह्य गतियों को आन्तरिक गतियों में बदल लेते हैं 'धीर' कहलाते हैं। धीर 'प्रत्यगात्मा' को जानने का प्रयास करते हैं। प्रत्यगात्मा का अर्थ है सबकुछ जानने की क्षमता जिसमें है वह अर्थात, आत्मा। ‘‘प्रतीपम विपरीतमॅंचति विज्ञानाति इति प्रत्यक‘‘ अर्थात् वह जो जीवात्मा के विपरीत मुद्रा लेकर जीवात्मा का साक्ष्य देती है वह 'प्रत्यक' है और प्रत्यक +  आत्मा =  प्रत्यगात्मा।  सबकुछ अदृश्य   वास्तविकता से आता है और अदृश्य  में ही विलीन हो जाता है। इन दो अदृश्य  स्थितियों के बीच दृश्य  स्थिति होती है।
इस क्षणिक दृश्यता  में जिसके पास जो होता है उसे हम अपना और पराया ये नाम देते हैं। यह उसी प्रकार का है जैसे कोई दो आमने सामने चल रही ट्रेनें थोड़ी देर के लिये समानान्तर हो जावें। भौतिक जगत की सभी विषय वस्तुऐं अपनी अपनी चाल से घूम रहीं हैं इसलिये तुम्हारी अपनी चाल है और अन्यों की दूसरी, अतः स्वभावतः सबका संपर्क क्षणिक है। इसीलिये 'धीर' इसकी चिंता नहीं करते कि कौन उनके संपर्क में आ रहा है और कौन छूट रहा है।

जीवान्तिका-  इसमें 'मन' परावर्तित होकर दृश्य  क्षेत्र में आकर अपना आकार लेता है। 'जीव' का अर्थ है कोई व्यक्ति या जीवधारी, और अन्तिका का अर्थ है निकटतम बिन्दु । संस्कृत में निकट और अन्तिका में कोई अंतर नहीं है, निकट माने पास और अन्तिका माने सबसे अधिक पास। तुम्हारा निकटतम बिन्दु  क्या है यह कहना संभव नहीं है, तुम्हें अपना बिन्दु  स्वयं ही जानना होगा। 'जीवान्तिका' तुम्हारा निकटतम बिन्दु  है।

भक्ति-  भक्ति का मतलब है मनोभावों के सभी झरनों को एकीकृत कर देना, साधना का अर्थ है भक्ति को जाग्रत करना। हमेशा  ध्यान रखना है कि हमारा हर प्रयास भक्ति को जाग्रत करने में ही हो, एक बार भक्ति जाग्रत हो गई फिर कुछ नहीं करना पड़ेगा।

क्रिया-  प्राकृतशक्ति, कुछ करने की प्रेरणा 'सात्विक घटक' से, कार्य करना 'राजसिक घटक' से और कार्य को अस्तित्व देना 'स्थैतिक घटक' से करती है, अर्थात् किसी भी कार्य का होना इन तीनों घटकों का संयुक्त परिणाम होता है। प्राकृतशक्ति जब परिणामविहीन कार्य करती है तो वह अव्यक्त और जब कार्य का परिणाम प्राप्त होता है तो वह व्यक्त कहलाती है। व्यक्त अवस्था में वह 'पुरुष भाव 'अर्थात् 'चेतना' को कर्मान्वित करती है। जब प्राकृतशक्ति   कार्य करती है पर परिणाम नहीं मिलता अर्थात् चेतना कर्मान्वित नहीं होती तो इस अवस्था में पुरुषभाव, ' चितिशक्ति ' कहलाता है। 'शम्भू' से यह जगत 'भैरव ' और फिर 'भव' अवस्था में आता है। ये सभी कम्पन उत्पन्न करते हैं और प्रकृति कम्पित होती है।
जो अनेक प्रकार के 'लक्ष्य ' रखते हैं वे उन सबके पीछे पीछे दौड़ते रहते हैं और अंत में कुछ भी नहीं पाते और जिन्होंने अपना एक ही लक्ष्य रखा है वे उसे सरलता से पा जाते हैं। इसीलिये कहा गया है कि ‘‘अनन्यममता विष्णोर्ममता ब्रह्मसंगता‘‘ अर्थात् अनेक विषयों की ओर न दौड़ कर केवल विष्णु की ओर दौड़ने से वे सरलता से प्राप्त हो जाते हैं क्योंकि अनेक ओर दौड़ने से मन की शक्ति विभिन्न भागों में बॅट जाती है अतः कुछ भी नहीं मिल पाता।

श्री-   ऊर्जा का बीजमंत्र है ‘‘रम्‘‘। सभी लोग भौतिक जगत की उपलब्धियों के साथ ऊर्जा को भी सक्रिय रखना चाहते हैं अतः नाम और यश  के प्रेरक ‘‘श‘‘के साथ ऊर्जा की क्रियाशीलता के प्रेरक ‘‘र‘‘ को जोड़ने पर श + र = श्र, और स्त्रीलिग में यह हुआ श्री, इसे आधार मानकर ही भारत में नाम के आगे "श्री" लगाने का प्रचलन हुआ। आजकल इस अर्थ में 'श्री' किसी के पास नहीं है फिर भी सभी के नाम में श्री लगाते हैं।
श्रद्धा- विश्वाश  और समर्पण के संयुक्त भाव को 'श्रद्धा' कहते हैं, अंग्रेजी में इसका कोई शब्द  नहीं है। जीवन का जो कुछ भी मूलाधार है वह 'सत' कहलाता है और जब सभी ज्ञान और भावनायें इसी को प्राप्त करने के लिये चेष्टा करने लगती हैं तो यह ‘श्रत‘ कहलाता है, और इससे जुड़ी भावना को 'श्रद्धा' कहते हैं।

ज्ञानी- ज्ञानी होने से कुछ नहीं मिलता, ज्ञान का उपयोग तभी तक है जब तक 'भक्ति' उत्पन्न नहीं हो जाती। जब  किसी स्वादिष्ट भोजन को खाते हैं तो कागज की प्लेट जिसमें खाद्य पदार्थ रखा होता है वह ज्ञान है, भोजन करना कर्म है, और भोजन से मिलने वाला स्वाद भक्ति है। भोजन को स्वाद लेकर समाप्त कर देने के बाद कागज की प्लेट (अर्थात् ज्ञान), डस्टबिन में फेकने के अलावा और किस काम की  बचती  है। स्पष्ट है कि ज्ञान पूर्वक कर्म करने से ही भक्ति उत्पन्न होती है।

पंडित-      संस्कृत में एक क्रिया है ‘‘पंडा‘‘ जिसका अर्थ है ‘ जिसने यह समझ लिया है कि मैं ब्रह्म हूँ  और वैसा ही वह अनुभव करने लगा है‘ तो वह भावना ‘पंडा‘ कहलाती है ‘‘ अहं ब्रह्मास्मीति तामितः प्राप्तः बुद्धिः स पंडा‘‘। और इस प्रकार जिसकी यह पंडा नामक भावना दृढ  हो चुकी है वह कहलायेगा पंडित।

पंचभूत, देश(space) , काल(time), पात्र(person) और ध्यान

परमसत्ता, प्रकृति के सत, रज और तमो गुण के प्रभाव में आकर जब पंचभूतों का निर्माण करती है तभी स्पेस अर्थात् आकाश  का उद्गम होता है। वह अवस्था, जिसमें परमपुरुष पंचभूतों में रूपान्तरित नहीं होते हैं, स्पेस की सीमा से बाहर होती है।
समय अर्थात् टाइम, क्रिया की गतिशीलता का मानसिक मापन है। सामान्यतः सूर्य के उदय, मध्यान्ह और अस्त होने की क्रियाओं को मन के द्वारा मापन किया जाकर समय नामक तथ्य का अनुभव कराया जाता है परंतु यदि पृथ्वी का घूर्णन अथवा मन इन दो में से किसी एक को समाप्त कर दिया जावे तो समय भी समाप्त हो जाता है। इसलिये समय तभी समाप्त होगा जब परमपुरुष अपने ब्रह्मचक्र के प्रवाह में अपना रूपान्तरण पंचभूतों में करना बंद कर देंगे।
तीसरा सापेक्षिक घटक है पात्र अर्थात व्यक्ति। वास्तव में तो केवल परमपुरुष का ही अस्तित्व है पर जब वे खेल खेल में अपने को एक से अनेक में रूपान्तरित करते हैं तो व्यक्ति नामक घटक उत्पन्न होता है। इस संरचना के पूर्व कोई व्यक्तिगत घटक नहीं था और इसके समाप्त हो जाने पर भी नहीं रहेगा। परम पुरुष जब अपनी मूल अवस्था में होते हैं तो वह अवस्था मानव मन की परम मनोआत्मिक चिंतन की अवस्था होती है। परंतु समस्या यह है कि इस भाववाचक अस्तित्व का  ध्यान किया ही नहीं जा सकता है। केवल उस स्थिति में मनुष्य उन्हें ध्यान में ला सकता है और अपने जीवन का परम लक्ष्य मान सकता है जब वे अपनी मूलअवस्था अर्थात् नित्यानन्द अवस्था से लीलानन्द अवस्था में अपना रूपान्तरण करते हैं। जब वह परम अस्तित्व अपने को लीलानन्द मुद्रा में रूपान्तरित करता है तभी पंचभूत बनते हैं अन्यथा वह किसके साथ लीला करेंगे। जिस प्रकार किसी ने भी विद्युत को नहीं देखा पर उसके प्रभावों को सभी ने अनुभव किया है उसी प्रकार जब परमपुरुष अपने व्यक्त और अव्यक्त रूपों के साथ लीलानन्द अवस्था में होते हैं तभी उनका सरलता से ध्यान किया जा सकता है। इसलिये ध्यान का बिंदु इस संरचना का मूल कारक बिंदु होना चाहिये न कि विभिन्न वस्तुएं। इसलिये परमपुरुष ही ध्यान करने योग्य हैं अन्य कुछ नहीं।
  
क्रमिक अभ्यास-  आनन्दस्वरूप ब्रह्म को ही जानने का अभ्यास करना चाहिये क्योंकि सभी की संरचना आनन्द से ही हुई है  आनन्द में ही प्रतिष्ठित है और अंत में आनन्द में ही मिल जाती है। प्रारंभिक अवस्था में व्यक्ति एक समय में किसी एक इंद्रिय से परम सत्ता को प्राप्त करने का प्रयास करता है, पर अंत में अपने पूरे अस्तित्व अर्थात् विचारों, प्रवृत्तियों, अनुरोधों के द्वारा। जैसे पहली अवस्था में वह आंखों को बंद कर कहता है, .हे परमपुरुष अपना व्यक्तिकरण मुझ में करो, हे परमात्मा मुझे अंधकार से प्रकाश  की ओर ले चलो, मेरे मन के अंधेरे कक्ष में अचानक प्रकट होकर मुझे मेरे मानसिक नेत्रों से आपके दर्शन करने दो। इस प्रकार मानसिक आंख से देखना एकेन्द्रिय कहलाता है। धीरे धीरे अभ्यास हो जाने पर वह कहता है, प्रभो और निकट आओ में आपकी सेवा करना चाहता हूँ , अर्थात् स्पर्श  करना चाहता है, फिर मधुर बाँसुरी  को सुनकर आनन्द में डूबना  चाहता है अर्थात् श्रवणेद्रिय सक्रिय करता है। इसी क्रम से वह साधना करते आगे बढ़ता जाता है।

ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा- जैसे हर जीवित प्राणी का विषय उसका गर्वीला मन होता है उसी प्रकार मन का विषय पुरुष होता है। विशेष परिस्थितियों में इस पुरुष को जीवात्मा कहते हैं। केवल ब्रह्म की ओर बढ़ने और उनके मूल स्वरूप को पाने पर ही मनुष्य इस संसार के मोहभ्रम से छूट सकता है। अपने मूल स्वरूप को पाने का अर्थ है सार्वभौमिक पुरुष को प्राप्त करना। विषय रहित जीवात्मा और विषयमुक्त सार्वभौमिक आत्मा एक ही हैं। यह ज्ञान परम ज्ञान है जो अनेक जन्मों के पुण्यों के प्रभाव से प्राप्त मानव देहधारी को ही प्राप्त करना संभव होता है। यह ज्ञान पुस्तकें पढ़ने से प्राप्त नहीं होता इसे प्राप्त करने के लिये तीव्र लगन से आध्यात्मिक साधना करना होती है। ब्रह्म को लक्ष्य बनाकर आगे बढ़ना होता है, जब सभी वृत्तियों को परम ब्रह्म की ओर प्रेषित करना प्रारंभ हो जाता है तो वे सूक्ष्म से सूक्ष्म होते हुए ब्रह्म में मिल जाती हैं। ज्योंही वृत्तियां समाप्त हो जावेंगी मन भी समाप्त हो जावेगा और आप मन की सीमा से बाहर जा पहुंचेंगे। सुख दुख की अनुभूति से ऊपर अपने आप में। इसलिये मन को अति सतर्कता से अधिकतम प्रयास कर पापों से दूर रखो और मन की शुद्धता को किसी भी प्रकार से खंडित नहीं होने दो। कुछ समय तक अभ्यास करते रहने पर पाओगे कि जो मन इन दुष्ट प्रवृत्तियों को पाले हुए था अब आपका सबसे अच्छा मित्र बन गया है और आपको सच्चे मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित कर रहा है। इस प्रकार मन आत्मप्रकाश  से आभावान होकर अपने आप उस निर्पेक्ष सत्य का साक्षात्कार करावेगा।

मधुविद्या- यदि आप मधुविद्या का उचित प्रकार से पालन करते हैं तो कर्म करते हुए भी आप कर्म बंधन में नहीं फॅंसेंगे और कर्मबंधन  से मुक्त हो जावेंगे। मधुविद्या आपके भीतर और बाहर, ब्रह्मानन्द के उल्लास से भर देगी और कष्टों से सदा के लिये मुक्त कर देगी। अविद्यामाया के जबड़े फिर आपके पास आकर निगल नहीं सकेंगे। आपके चारों और केवल एकमात्र भद्र सत्ता की कीर्ति चमकने लगेगी।

शम्भूलिंग- ब्रह्मांड के निर्माण के पीछे अलौकिक रूप से परमसत्ता की इच्छा ही कार्य कर रही है, दर्शन शास्त्र  में इस इच्छा को ही शम्भूलिंग कहा जाता है।

कौषिकी या शिवानी , भैरवी और भवानी- परम सत्ता की ब्रह्मांड के निर्माण करने की इच्छा उत्पन्न होने के साथ ही उन्हें अस्तित्व वोध कराने की शक्ति को 'शिवानी' और उसके आधार को 'शिव' कहते हैं। ब्रह्मांड के निर्माण के समय जब शिवानी शिव लिंग से निकलकर सरलरेखिक गति में होती है तो आकाश  का निर्माण होने लगता है और इसमें तेज गति होने पर सरल रेखा में वकृता आने लगती है जिससे समय का निर्माण होता है समय के निर्माण का कार्य करने वाली शक्ति 'भैरवी' कहलाती है और इसका आधार 'भैरव'।   समय का निर्माण होने के साथ ही रजोगुण और तमोगुण अधिक सक्रिय हो जाते हैं जिससे सूक्ष्म सत्ता को विविध ठोस रूप और दृश्य  आकार देने के लिये क्रियाशील शक्ति को 'भवानी' कहते हें और इस का आधार 'भव' कहलाता है। इसीलिये यह संसार भवसागर भी कहलाता है।

सीखने का उचित तरीका
ज्ञान पिपासुओं को सीखने का उचित तरीका यह है कि वे हमेशा  यह मानते रहें कि वे कुछ नहीं जानते।

कर्मसंन्नयास- साधारण प्रकार के कार्यों को कोई भी अपने छोटे से मस्तिष्क से कर सकता है परंतु बडे़ और पवित्र कार्य करने के लिये उसे परमपुरुष के मस्तिष्क से अपने मन को जोड़ना पड़ेगा और उसके परम ज्ञान के द्वारा काम करना होगा। इसे ही कर्मसंन्नयास की भावना कहते हैं। इकाई मन को भूमा मन के साथ जोड़ने की विधि क्या है? चूंकि विकास की प्रक्रिया का आधार स्थूल से सूक्ष्म की ओर है इसलिये बुद्धि को सूक्ष्म बनाने के लिये सूक्ष्म सत्ता का ही विचार मन में लाना होगा। उस परम सूक्ष्म सत्ता का लगातार चिंतन करते रहने से धीरे धीरे मन सूक्ष्म होते हुए उसी में परिवर्तित हो जावेगा। इस प्रकार इकाई मन में परमसत्ता से पृथक होने  का भाव समाप्त हो जाता है और वह स्वयं भूमा मन बन जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। बुद्धि की इस परमोत्कृष्ट अवस्था को कर्म संन्नयास कहा गया है इसलिये बुद्धिमान  लोग कर्म संन्नयास के प्रति सचेत रहें।
कर्मसंन्नयास और परा भक्ति में क्या संबंध है? जब परमचेतना अपनी मूल अवस्था में रहती है तो वह परब्रह्म कहलाती है, परंतु जब वह भिन्न भिन्न विचारों या वस्तुओं में रूपान्तरित हो जाती है तब उसे अपरब्रह्म कहते हैं। अतः अपरब्रह्म से लगाव या आसक्ति रहना अपराभक्ति और परमपुरुष से अत्यधिक प्रेम करना पराभक्ति कहलाता है। देश , काल और पात्र की सीमाओं से बाहर निकलने का नाम कर्म संन्नयास है।

वैराग्य- 'ज्ञानस्यैव पराकाष्ठा वैराज्ञम्'। वैराग्य अर्थात् राग रहित होना ज्ञान की ही पराकाष्ठा है। ज्ञान प्राप्ति की भिन्न भिन्न स्थितियों में मन की तरंग लंबाइयां अर्थात् वकृता भिन्न भिन्न होती है और अपेक्षतया छोटी होती हैं परंतु, परमज्ञान या ज्ञान की पराकाष्ठा पर पहुंचने पर मन की तरंग लंबाई सरलरेखा जैसी हो जाती है और वह परमब्रह्म की तरंग लंबाई के साथ अनुनाद स्थापित करने में समर्थ हो जाता है।
आत्मसाक्षात्कार ही असली ज्ञान है, इसमें किसी भी प्रकार का व्यक्तिकरण करना संभव नहीं होता क्योंकि इस अवस्था में वाह्य वस्तु,, मन, और आत्मा सब कुछ एक ही हो जाते हैं। ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय परम एकीकरण में मिल जाते हैं। आत्मसाक्षात्कारी को बिना  पढ़े ही आत्मा में परावर्तित होने वाली विषयवस्तु का पूरा पूरा सही ज्ञान हो जाता है। इसी तरह वह क्या, क्यों, कब और कैसे अदि प्रश्नो  के उत्तर भी पा जाता है। सच्चा ज्ञान यही है बाकी तो ज्ञान की प्रच्छाया ही है।
संसार के सभी विषयों को छोड़कर जब मन केवल परम सत्ता की ओर दौड़ने लगता है तो इसे भक्ति कहते हैं। भक्त यह नहीं जान पाता कि उसका मन कब और कैसे परिवर्तित हो गया और वह अनुभव करने लगता है कि अब वह इकाई मन नहीं है। जब किसी के मन से व्यक्तिगत  भावनाएं पूरी तरह हट जाती हैं तो जिस क्षण वह आगे बढ़ता है वह परम लक्ष्य को पा जाता है। परमपुरुष जिस प्रकार अपनी सृष्टि को प्यार करते हैं उसी प्रकार भक्त को परम पुरुष से प्यार करना चाहिए इस प्रकार उनकी इच्छा से कार्य करते करते मन उन्हीं में मिल जावेगा।
कुछलोग कहते हैं कि परमात्मा से एकाकार होना उचित नहीं है वरन् उनके साथ रहकर उनकी सेवा करना उचित है। अन्य कहते है, परमात्मा के साथ एक हो जाने वालों की इच्छायें परमात्मा की इच्छायें हो जाती हैं और वे सब कार्य आत्मा द्वारा करते है। कुछ और भी कहते हैं कि, जो परमात्मा को प्यार करते हैं वे उनकी सन्तान को भी प्यार करेंगे और उनकी सेवा करेंगे तो किसी को यह क्यों सोचना चाहिए कि उसे परमात्मा में मिलकर एक हो जाना चाहिए?
इसका उत्तर यह है कि यह विषय परमात्मा पर ही छोड़ देना चाहिए क्योंकि, वे, जो सही भक्त हैं, जानते हैं कि परमात्मा उनकी तुलना में अधिक बुद्धिमान हैं। इसे प्रणिपात कहते हैं और यह पराभक्ति से प्राप्त होता है। हमेशा  याद रखना है कि यहां हम धर्म का पालन करने और मानवता के साथ मित्रता, प्यार और भाईचारा निर्मित करने के लिये आये हैं। जो  धर्म से जुड़े रहेंगे वे अलौकिक सफलता अंकित करेंगे।

गुरु की कसौटी:- आध्यात्मिक क्षेत्र में आदर्श  गुरु वह है जो साधना के सभी आवश्यक और अनावश्यक सूक्ष्मतम तथ्यों से परिचित हो। गुरु को केवल इन तथ्यों की जानकारी ही नहीं दूसरों को इनके सिखाने की भी योग्यता होना चाहिए, अन्यथा उसे गुरु नहीं माना जा सकता। यह योग्यता केवल महाकौल के पास ही होती है अन्य किसी के पास नहीं। कौल वह हैं जिन्होंने अपनी साधना के बल पर अपनी छुद्र अवस्थिति को सफलतापूर्वक परम अवस्थिति में स्थापित कर उन्नयन कर लिया है। परंतु महाकौल  वह है जो कौल तो है ही परंतु अन्यों को भी इस परम उन्नत अवस्था अर्थात् कौल को प्राप्त करा देने की योग्यता रखते हैं। अभी तक भगवान शिव और कृष्ण ही महाकौल हुये हैं। गुरु होने के लिये महाकौल होना अनिवार्य है। सैद्धान्तिक और प्रायोगिक साधना का ज्ञान, शास्त्रों का ज्ञान और सभी महत्वपूर्ण भाषाओं का ज्ञान होना गुरु के लिये अनिवार्य है। आध्यात्मिक गुरु के पास स्नेह करने और दंड देने की क्षमता होना चाहिये परंतु दंड का स्तर स्नेह करने के स्तर से अधिक नहीं होना चाहिये। गुरु को सभी विषयों के आध्यात्मिक, मानसिक और भौतिक पक्ष का पूरा ज्ञान होना चाहिये, किताबों में जो लिखा है उससे भी अधिक, तभी वह शिष्यों को स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाकर पूरा ज्ञान दे सकेगा। मानव मन में अपेक्षाओं का तंतु रहता है , जो इसे दूर कर संतोष दे सकता है वही गुरु है। मन की क्रियायें और उसे नियंत्रित करने का साधन बताना भी गुरु का कर्तव्य है। मनुष्य, गुरु, और शिष्य सभी हाड़ मास के पुतले हैं, सबके दुख और सुख है भौतिक आवश्यकताएं  हैं, आंसु हैं सुख के और दुख के भी, पर असली गुरु को भौतिक क्षेत्र में लोगों के भोजन ,वस्त्र , आवास ,चिकित्सा और शिक्षा जैसी मूलभूत आवश्यकताओं के समाधानकारक उपाय सुझाने में कुशल होना चाहिये। इसलिये पृथवी पर गुरु होने के लिये उसमें आध्यात्मिक जगत की सर्वोच्च योग्यता के साथ साथ भौतिक जगत में पहाड़ों जैसी समस्याओं को हल करने की क्षमता भी होना चाहिये।
गुरु में शिष्य के मन के भीतर का अंधकार हटाने की क्षमता होना चाहिये। इसी लिये कहा गया है कि ‘‘ब्रह्मैव गुरुरेकः नापरः‘‘ अर्थात् ब्रह्म ही गुरु हैं अन्य दूसरा कोई नहीं। अतः स्पष्ट है कि गुरु की जिम्मेदारी निभाना बच्चों का खेल नहीं है। वह जो रूपहीन, आदिअन्त  रहित अनन्त चेतना हैं वही प्राप्त करना जीवमात्र का लक्ष्य होना चाहिये, वही एकमात्र जगतगुरु हैं और ब्रह्म विद्या को उन्हीं के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। लोगों को उनकी महानता को स्वीकारना चाहिये।
आजकल किसी कार्य विशेष के जानकार को गुरु कहने की पृथा चली है जैसे कंप्युटरगुरु, मेकेनिक गुरु, राजनीतिगुरु, खेल गुरु आदि आदि पर यह गुरु शब्द की महत्ता को कम करना ही है।
शास्त्र कहते हैं कि ‘‘ गुरवः वहवः सन्ति, वित्तहर्ता न तु चित्तहर्ता।‘‘  अर्थात् वित्तहर्ता गुरु तो बहुत हैं, पर चित्तहर्ता गुरु बहुत कठिनाई से मिलते हैं।

गुरुपूजा:-    साधक और गुरु के बीच यह एक व्यक्तिगत मामला होता है जहां वह अपने को गुरु के अत्यन्त निकट होने का अनुभव करता है। इस अवस्था में वह गुरु के प्रति अपना सर्वस्व अर्पण कर देता है। गुरुपूजा की सफलता शिष्य की सही भक्ति भावना के साथ एकाग्रचित्त होने पर निर्भर करती है। शिष्य को उन परिस्थितियों का ज्ञान होना आवश्यक होता है जिनमें आंखें बंद करके या खुली रखकर गुरुपूजा करने का विधान है क्योंकि साधक की आत्मिक उन्नति पर इसका भी बहुत प्रभाव पड़ता है। इसलिये गुरु के प्रति भक्ति भाव से पूर्ण समर्पण कर देने में ही भलाई है।

परम पुरुष से बात करना:-  मनुष्य को परमपुरुष ने बोलने की शक्ति दी है, इसलिये यदि वह उनसे कुछ कहता है तो उसे सुनना पड़ेगा। यदि वह नहीं सुनेगा तो कौन सुनेगा। इसलिये मनुष्य अपने सभी दुखों और समस्याओं को अपने निकटतम और सबसे प्रिय को ही तो कह सकेगा। परमपुरुष को उन्हें सुनना पड़ेगा। इसका अर्थ है कि हमें अपने सभी सुखों ओर दुखों के बारे में अपनी ध्यान साधना के दौरान परम पुरुष से बात करना चाहिये जिससे कि मन और हृदय में गहरे छिपे भावों को उन तक  पहुँचाया  जा सके। भक्त के जीवन में परमपुरुष के निकट आने और उनसे सीधे जुड़ने  का यह तरीका  सरल समीकरण है। 

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