4.11
जैन शिव
सब जानते हैं कि जैन धर्म लगभग 2000 वर्ष से कुछ अधिक पहले प्रचलित हुआ, कुछ लोग मानते हैं कि भगवान महावीर से भी पहले तीर्थंकर हुए हैं फिर भी वे सब शिव के बहुत समय बाद हुये। जब जैन धर्म का प्रचार हो रहा था तब शिव जन सामान्य के देवता बन चुके थे क्योंकि उनका असाधारण व्यक्तित्व ही नहीं था वे मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपना गहरा प्रभाव जमा चुके थे। जैन धर्म ने अपना प्रचार और प्रभाव जारी रखा परंतु तत्कालीन लोगों ने उसे ऊपरी तौर पर ही स्वीकार किया और शैव धर्म भी साथ साथ चलता रहा। जैन धर्म की अनेक शाखाओं में से मुख्यतः दो ही एतिहासिक रिसर्च में मान्य हैं, दिगम्बर और श्वेताम्बर । जैन मुख्यतः दिगम्बर ही हैं परंतु बाद में निर्ग्रन्थिवाद अर्थात् पहने जाने वाले कपड़ों में गांठ न बांधना, प्रचारित किया गया जो गृही लोगों ने स्वीकार नहीं किया। बाद में यह निर्ग्रन्थिवादी जैन धर्म, शैव धर्म से जोड़ दिया गया। लोग ऊपर से जैन धर्मानुयायी थे पर भीतर ही भीतर वे शैव थे। प्रागैतिहासिक काल में ही नहीं वैदिक युग से पहले से ही लोग लिंग पूजा करते आये हैं, कारण यह था कि उस समय लोग दिन में या रात में कभी भी सुरक्षित नहीं थे। एक समूह दूसरे पर आक्रमण कर अपने समूह और प्रभाव को संरक्षित करना चाहता था अतः स्वाभाविक था कि उनकी संख्या अधिक हो, इसलिये लिंगपूजा को जनसंख्या बढ़ाने के उद्देश्य से मान्यता दी गई। तत्कालीन विश्व के लगभग सभी देशों में लिंगपूजा किये जाने के प्रमाण मिले हैं। अतः सत्य यही है कि लिंगपूजा को प्रागैतिहासिक काल से ही सामाजिक रिवाज के रूप में ही माना जाता था न कि आध्यात्मिक या आधार पर। जैन युग में तीर्थंकरों की नग्नमूर्तियों ने लोगों के मन में नया विचार जगाया और लिंगपूजा को आध्यात्म से जोड़ा गया । इस तरह जैन और बुद्ध के विचार आगे आगे और आजूबाजू में शिव तंत्र का रूपान्तरण भी चलता रहा जिससे जैन धर्म के प्रभाव से आज से लगभग 2500 वर्ष पहले शिवतंत्र में शिवलिंगपूजा का समावेश हुआ। तीर्थंकरों को नया महत्व मिलने के कारण लिंगपूजा का, जनसंख्या बढ़ाने का पुराना अर्थ बदलकर नया दार्शनिक और आध्यात्मिक अर्थ यह किया गया, ‘‘ लिंगायते गमयते यस्मिन तल्लिंगम‘‘ अर्थात् वह परमसत्ता जिस ओर सभी जा रहे हैं वही लिंग है। यह माना जाने लगा कि सभी मानसिक और भौतिक जगत के कंपन परम रूपान्तरकारी शिवलिंग की ओर ही जा रहे हैं अतः यह शिवलिंग ही अंतिम स्थान है जहां सबको पहुंचना है। इस तरह प्रागैतिहासिक काल की लिंग पूजा का रूपान्तरण हो गया और पूरे भारत में फैल गया इतना ही नहीं शिव का बीज मंत्र भी बदल गया। ब्रह्म्माॅंड के प्रत्येक अस्तित्व से तरंगें निकलती हैं यह आधुनिक वैज्ञानिक भी मानते हैं, यही तरंगें किसी वस्तु विशेष की मूल आवृत्ति कहलाती है जिसे दार्शनिक भाषा में बीज मंत्र कहते हैं। दार्शनिक आधार पर किसी भी अस्तित्व के निर्माण करने का बीज मंत्र ‘अ‘ पालन करने का ‘उ‘ तथा नष्ट करने का ‘म‘ है। वेदों में शिव का बीज मंत्र ‘म‘ कहा गया है जो जैन तंत्र, बौद्ध तंत्र और पश्चात्वर्ती शिवतंत्र में ‘ऐ‘ कर दिया गया। चूंकि ‘ऐ‘ बारह स्वरों में से एक है और वाच्य या ज्ञान का बीज मंत्र है और ज्ञान गुरु की वाणी से प्राप्त होता है और शिव को गुरु माना गया है अतः जैनतंत्र, बौद्धतंत्र और उत्तरशिवतंत्र में शिव का बीज मंत्र ‘‘ऐम‘ कर दिया गया जो पौराणिक काल में जब सरस्वतीदेवी को ज्ञान की देवी के रूप में लाया गया तो ‘ऐम‘ बीज मंत्र उन्हें दे दिया गया। स्पष्ट है कि जब बीज मंत्र ही बदल गया तो उससे जुड़ा प्रत्येक कार्य ही अप्रभावी हो जायेगा। ये जैन शिव, जैनसमाज में ही स्वीकृत हैं, क्योंकि शिव से जोडे़ बिना उनका महत्व नहीं होता। शिवतंत्र में इन्हें मान्यता नहीं दी गई परंतु बहुत समय बाद समाज में अनेक विभाजन और उपविभाजन हुए जिससे शिवलिंग और उसके पूजन में अलग अलग मतों के अनुसार नाम भी दिये जाते रहे। किसी समूह में आदिलिंग, किसी में ज्योतिंर्लिंग , किसी में अनादि लिंग। इसी व्यवस्था में बहुत समयबाद उत्तर बंगाल अर्थात तत्कालीन वारेंन्द्र भूमि, के राजकुमार ‘बाण‘ ने वाणशिवलिंग की पूजा प्रारंभ कर दी। इस तरह जैन काल में शिवलिंग की पूजा मेें अनेक परिवर्तन हुए। यद्यपि जैन और शैव दोनों ही शाकाहरी थे परंतु जैनधर्म के पालन में अनेक व्यावहारिक कठिनाइयाॅं आने के कारण शैव धर्म के प्रति लोगों का स्वाभाविक रुझान बना रहा।
4.12
बौद्धशिव
जिस प्रकार जैन और शैव परस्पर एक दूसरे से प्रभावित हुए उसी प्रकार बौद्ध और शैव भी। भगवान महावीर और भगवान बुद्ध की आयु में लगभग 50 वर्ष का अंतर था अतः दोनों समकालीन ही कहे जावेंगे। महायान बौद्ध भारत ,चीन, जापान में प्रभावी हो चुका था इसकी दो शाखाओं ने तान्त्रिक पद्धति को अपना लिया था अतः शिवोत्तरतंत्र काल के शिव को बौद्धतंत्र में स्वीकार कर लिया गया और शिव की मूर्ति के स्थान पर शिवलिंग की पूजा की जाने लगी। यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि शिव के ध्यान मंत्र में शिवलिंग का कहीं भी उल्लेख नहीं है जिससे प्रकट होता है कि यह बहुत बाद में ही जोड़ा गया है। शिव के व्यापक प्रभाव के कारण बौद्ध युग में भी उन्हें नहीं भुलाया जा सका और शिवलिंग अथवा शिव मूर्ति की पूजा की जाती रही परंतु थोड़े संशोधन के साथ। शिव को पूर्ण देवता न मानकर उन्हें बोधिसत्व माना गया, अतः शिव की मूर्ति अथवा शिवलिंग पर बुद्ध की छोटी मूर्ति को बनाया जाने लगा जो प्रकट करता था कि शिव के लक्ष्य बुद्ध थे। इस प्रकार के बोधिसत्व शिव बाद में बटुकभैरव के नाम से प्रसिद्ध हुए।
4.13
पौराणिक शिव
इस काल में भी शिव की पूजा जारी रही इतना ही नहीं तत्कालीन सभी 22 प्रकार के शिवलिंगों, ज्योतिर्लिंगों , आदिलिंगों, अनादिलिंगों आदि सभी को एकीकृत कर दिया गया। ये शिव जैनशिव, बौद्धशिव और
शिवोत्तरतंत्र कालीन शिव से बिलकुल भिन्न थे क्योंकि अब इनका पुराना बीजमंत्र ‘ऐम‘ से ‘होम‘ कर दिया गया। चूंकि बीज मंत्र के बदलने से देवता की संकल्पना ही बदल जाती है अतः 7000 वर्ष से लोगों में बसे अपने शिव, बौद्ध शिव, जैनशिव या शिवोत्तरतंत्र के शिव एक नहीं रहे, अनेक होगये। बौद्धतंत्र जब पौराणिक तंत्र से प्रभावित हो रहा था तो उस संक्रमण काल में नाथ कल्ट का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था, नाथ कल्ट में नाथ शब्द को उनके प्रवर्तकों के नाम के बाद जोड़ने की पृथा अपनाई गई जैसे आदिनाथ, मीनानाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ आदि। इसके सभी प्रवर्तकों को शिव के अवतार के रूप में प्रस्तुत किया गया और उनकी मृत्यु के बाद उनकी मूर्ति को शिव के अवतार के रूप में पूजा जाने लगा। अतः शिव को भी विश्वनाथ, वैद्यनाथ तारकनाथ आदि नाम दे दिये गये। पौराणिक युग के शिव और शाक्त कल्ट के अनुयायी शिवलिंग की पूजा करते रहे पर नाथ कल्ट से अपने को भिन्न प्रदर्शित करने के लिये वे उन्हें तारकेश्वर ,विश्वेश्वर , या कभी कभी दोनों का उच्चारण करते रहे। इस तरह चाहे कोई भी समय रहा हो और कितना ही प्रभावी व्यक्तित्व अपनी किसी भी प्रकार की संकल्पना को स्थापित करना चाहता रहा हो शिव के विना उसे कोई मान्यता प्राप्त नहीं हुई। 7000 वर्ष पुराने भोले भाले सदाशिव की आजतक की यात्रा में क्या क्या गति कर दी गई है नीचे दिये गयेे श्लोकों से सरलता से समझा जा सकता है।
सौराष्ट्रे सोमनाथंच श्रीशेल मल्लिकार्जुनम,
उज्जन्याम् महाकालम् ओंकारम् अमलेश्वरम् ।
वनारस्याम् विश्वनाथः सेतुबंधे रामेश्वरम्।
झारखंडे वैद्यनाथः राढ़े च तारकेश्वरा ।
4.14
अज्ञात इतिहास
पौराणिक हिन्दु युग में जब बौद्ध धर्म और शैव धर्म आपस में मिश्रित होने लगे तो , तब इस मिश्रित धर्म को नाथ धर्म कहा गया। अधिकाॅंशतः पूर्वी भारत में इस धर्म के अनुयायी अधिक पाये जाते हैं। उन्होंने इसे नाथ धर्म इस लिये कहा क्योंकि उनके गुरुगण अपने नाम के अंत में नाथ (अर्थात् स्वामी) शीर्षक का उपयोग करते थे, जैसे आदिनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ, रोहिणीनाथ, चैरंगीनाथ आदि आदि। अर्थात् इनका उद्गम मूलतः बौद्ध धर्म से हुआ पर भारत से बौद्ध धर्म के नष्ट हो जाने पर उन्होंने शैव धर्म को अपना लिया फिर भी वे बौद्ध धर्म की कुछ कर्मकाॅंडीय विधियों का पालन करते रहे। यह रहस्य इनमें से कोई नहीं जानता सभी अपने को शैव ही कहते हैं।
4.15
लौकिक शिव
इनका उल्लेख किन्हीं ग्रंथों में नहीं है वरन् ये तो लोगों के द्वारा निर्मित उनके अपने भोलेनाथ हैं। शिव की साधुता सरलता और तेजस्विता के कारण वे समाज के बड़े से बड़े और छोटे से छोटे स्तर के लोगों से सीधे ही जुड़े थे। उन्होंने ही समाज से वर्गभेद और जातिभेद मिटाया, उन्होंने समाज में भ्रामकता और स्वार्थतापूर्ण भावजड़ता फैलाने वालों को अपने त्रिशूल से नष्ट कर दिया। स्त्रियों और शूद्रों को वेदमंत्रों का उच्चारण करना तो दूर सुन लेने पर भी वैदिक काल में सजा दी जाती थी, इसे शिव ने समाप्त कराया। समाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में शिव की पहुंच ने उन्हें जनजन का प्रिय देवता बनाया, आज भी भारत में छोटी छोटी बच्चियाॅं मिट्टी के शिवलिंग बनाकर घी के दीपक से आरती करतीं हैं और अपनी तथा अपने परिवार की समृद्धि के लिये प्रार्थना करतीं हैं। ये शिव न तो वैदिक ,न तांत्रिक ,न जैन, न बौद्ध, न पौराणिक ,न नाथ कल्ट, किसी से भी मान्य नहीं हैं ये तो लौकिक शिव हैं, सरल लोगों के सरल देवता, न इनका कोई बीज मंत्र है न प्रणाम मंत्र और न ही ध्यान मंत्र । इनकी पूजा करने के लिये न किसी पंडित की आवश्यकता होती है और न ही किसी बाहरी कर्मकांडीय प्रदर्शन की, केवल नमः शिवाय कह देने से ही उनकी पूजा हो जाती है। ये परमब्रह्म न हों, परमपुरुष भी न हों परंतु सरल लोगों के सरल और आत्मीय देवता अवश्य हैं। 7000 वर्ष पुराने सदाशिव से इनका कोई संबंध नहीं है। प्रश्न उठता है कि फिर ये शिव आये कहां से? उत्तर है, शिव की सरलता, साधुता और तेजस्विता ने लोगों के हृदय में इतने गहरे पहुंच बना ली है कि लोग उनके साथ के बिना नहीं रह सकते। उनके सरलतम व्यक्तित्व के संबंध में अनेक किस्से कहे जाते हैं, परंतु वे अनेक दिव्य, अमूल्य खजानों के सागर थे। वे कहते थे बहादुर बनो, धर्म का पालन करो, सरलता को कभी न छोड़ो और सीधे रास्ते पर चलो। यही कारण है कि हर संवर्ग के लोग उनके सामने नतमस्तक हो कहते हैं ‘‘ निवेदयामी च आत्मानम् त्वमगतिः परमेश्वरा ।‘‘ अर्थात् हे मेरे जीवन के अंतिम लक्ष्य, मैं आपके समक्ष पूर्ण समर्पण करता हूँ ।
4.16
जैन और बौद्ध धर्म
आध्यत्मिक साधना की ओर झुकाव की मानसिकता दो प्रकार से पायी जाती है, एक आत्मसुखवाद और दूसरी समसमाज तत्व। जब निरी स्वार्थसिद्धि की भावना लोगों के मन में जागती है तो वे सोचते हें कि केवल वे ही अच्छा पहने ,खायें, और विलासिता के साधनों का उपभोग करें। इन लोगों की दुहरी मानसिकता होती है और वे समाज में किसी न किसी प्रकार का डोग्मा या भावजड़ता का रोपण कर लोगों को उसका गुलाम बनाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहते हैं। संसार के अधिकाॅंश धर्म इसी मानसिकता पर आधारित पाये जाते हैं। यही कारण है कि लोग उन देवी देवताओं की पूजा में लगे रहते है जिनसे उन्हें भौतिक जगत की उपलब्धियों, धन,नाम, यश आदि प्राप्त होने का लोभ दिया जाता है, ये तथाकथित पंडितों की कल्पनायें होती हैं क्योंकि इनके माध्यम से उनकी दूकानदारी चलती रहती है।
* जैन और बौद्ध धर्म के निर्वाणतत्व और अर्हतत्व तो सर्वत्याग की बात करते हैं । ये जीवन और भौतिक संसार के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोंण पर आधारित हैं। कर्मसंन्यास और स्थिति संन्यास इसके मार्गदर्शक सिद्धान्त है जो सिखाते हैं कि संसार में दुख के अलावा कुछ नहीं है। इस प्रकार उन्होंने संसार को ही नहीं अपने आप को भी धोखा दिया है क्योंकि जीवन के लयबद्ध विस्तार को त्याग कर मनुष्य सोचने लगे कि उनके चारों ओर जड़ता के अंधेरे के अलावा कुछ नहीं है। यह उसी प्रकार है जैसे, एक सुदृढ़ प्रज्वलित हो रहे दीपक को, जो मानवता के अस्तित्व को प्रकाशित और महिमान्वित करता है, बुझा दिया जावे। जीवन का दीपक , एक बार पूर्ण रूप से बुझ जाने के बाद उसे पुनः प्रज्वलित नहीं किया जा सकता चाहे हजार बार जलती तीली उसके पास लायी जावे। यह प्रबल नकारात्मकता है।
* मोक्ष और निर्वाण समानार्थी नहीं हैं, क्योंकि मोक्ष पर आधारित तंत्र तो निर्पेक्ष विस्तार की साधना है जो प्रकाश की चाल से जड़ता के घने अंधकार से दिव्य प्रकाश की ओर ले जाता है जबकि निर्वाण का अनुसरण करना अमूल्य जीवन के प्रकाशित दीपक को जानबूझकर बुझाने की साधना है। यह और कुछ नहीं है बल्कि भीतरी और बाहरी संसार के प्रकाश को धीमा और धीमा करते जाना है। और, अपने आपको रसातल में खो देना ही नहीं गूढ़ अज्ञानता के प्रभाव से अपने अस्तित्व को ही नकार देना है। अपने आप को अंधकार में खो देने की साधना धर्म अथवा मानव की प्रकृति नहीं कहला सकता। जैन और बौद्ध दर्शन ने पूर्व से स्थापित शैव दर्शन को अगणित क्षति पहुंचाई है। पूर्णतः विपरीत सिद्धान्तों अर्थात् निर्वाण पर आधारित निर्ग्रन्थ जैन और विस्तारित शैव, लोगों के हृदय में साथ साथ लंबे समय तक चलते रहे। फिर स्वभावतः परस्पर संयोजन का काल आया जिसमें जैन तंत्र, दिगम्बर अर्थात् निर्ग्रन्थवादी साधना पद्धति ने इन साधकों को आत्म साधना के मार्ग में आन्तरिक रूप से संतुष्ट नहीं कर पाया, क्योंकि वे मूलतः पूर्व से सुस्थापित शैव तंत्र के ही उपासक थे।
* यद्यपि ‘‘जैन‘‘, ‘‘जिन‘‘ शब्द से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है ‘ विजयी होना‘, सभी क्षेत्रों में संघर्ष कर विजयी होना परंतु क्या कछुए की तरह जीवित रहकर विजयी होना संभव है? विजयी होने के लिये दृढ ऊर्ध्वगामी संवेग चाहिये होता है। इसलिये जैन दर्शन व्यक्ति को अंधेरे में ले जाकर अक्रियता की गुफा में फेकता है और पूर्णतः दोषदर्शी बनाता है। यही कारण है कि जैन दर्शन भारत के बाहर कभी नहीं फैल पाया। यह जीवन के प्राकृतिक दर्शन के विपरीत है। भारत के पश्चिमी भाग के कुछ व्यापारियों के बीच ही जैन दर्शन जीवित है, आज वह वहां से भी उखाड़ फेका गया है जहाॅं कभी उसका जन्म हुआ था। जैन धर्म को कुछ धनी वैश्यों को छोड़कर अन्य लोगों ने नहीं अपनाया क्योंकि :-
1. जैनवाद संघर्ष का विरोधी है, महावीर के द्वारा अहिंसा की जो व्याख्या की गई वह अप्राकृतिक और अव्यावहारिक है, जैसे , अहिंसा के अनुसार किसी जीव की हत्या नहीं करना है परंतु खेती करने में प्रति दिन करोड़ों अरबों जीवधारियों का मरना निश्चय होता है अतः जैन धर्म के साधक खेती कैसे करेंगे? नाक से श्वास के साथ अनेक माइक्रोब शरीर में पहुंचकर मर जाते हैं अतः वे बिना श्वास के कैसे जीवित रहेंगे और कब कब नाक के ऊपर कपड़ा रखेंगे।
2. निर्ग्रन्थवाद में आध्यात्मिक साधना के अंतिम अभ्यास के समय निर्वस्त्र होकर अर्थात् दिगम्बर होकर रहने के निर्देश हैं जो समाज में रहने वालों द्वारा अव्यावहारिक होने के कारण नकार दिया गया।
3. समाज में दीर्घकाल से सुस्थापित शैव धर्म के उपासकों के लिये नास्तिक जैनदर्शन और आस्तिक शैवदर्शन के बीच बहुत अधिक अंतर प्रतीत हुआ।
इस प्रकार मगध में महावीर को जैन धर्म के प्रचार में सफलता न मिलने के कारण वह राढ़ के
प्रसिद्ध नगर आस्तिक नगर पहुॅंचे जहाॅं भी उनके इस अक्रियवाद को लोगों ने नहीं सुना
(केवल कुछ धनी व्यापारियों को छोड़कर, वह भी धर्म से प्रभावित होकर नहीं वरन् वैश्य घराने
के होने के कारण)।
This Professor knows nothing about Jainism. He is trying to disrepute Jainism by spreading untruthful beliefs. Jainism is an old age religion since and Rishab dev was the first teerthankar. Mayberry was the last and 24th teerthankar who reformed Jainism. It's always Jain idols are excavated in India. Have any body ever heard that idols of any other religions are excavated. Actually other religions including Hinduism always tried to destroy Jain idols as they felt worried from the spreading of Jainism after Mahveer. This Professor is also seems to be biased from Jainism.
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ReplyDeleteDo jains have birth certificate of this fictitious rishabh ? No proof exist for his existence. Then why jains cry "jainism is oldest religion".
ReplyDeleteAnd Hinduism never tried to destroy jain idols. I agree in south india there was enimity between saiva and jains, buddhist and smartas.. at the same time there was also wars going on between buddhist and jains. I ask why these so called śramna cult fought? If non violence is the essence of their sprituality?
In above article writer rightly point out intermixing of saivism and jainism. And i agree with him. Jain adopted much of saivism in early centuries of christ. Saiva influence can bee seen in jain scriptures like siddha chakra and rishimandal stotra.