Thursday 27 November 2014

4.17
शिवोत्तर तंत्र
+  ब्रह्माॅंड के निर्माण होने के समय जो ध्वनि उत्पन्न हुई उसे वेदों में ओंकार ध्वनि के नाम से जाना जाता है जिसमें उत्पत्ति, पालन और संहार तीनों सम्मिलित हैं। मानव कानों की श्रव्यसीमा में आने वाली ये ध्वनि की तरंगें विश्लेषित  करने पर पचास प्रकार की पाई जाती हैं जिन्हें "काल" अर्थात् समय का वर्णक्रम कहा जाता है इन्हें स्वर ‘अ‘ से प्रारंभ (निर्माण का बीज मंत्र) और व्यंजन ‘म‘ (समाप्ति का बीज मंत्र) में अंत मानकर काल को अखंड रूप में प्रकट करने के लिये अथर्ववेदकाल में भद्रकाली की कल्पना कर उसके हाथ में ‘अ‘ उच्चारित करता मानव मुंह बनाया गया, अन्य स्वरों और व्यंजनों के प्रत्येक के एक एक मुंह बनाकर शेष 49 अक्षरों के मुंहों की माला भद्र काली को पहनाई गई और कालचक्र पूरा किया गया। यद्यपि अथर्ववेदकाल में लिखना पढ़ना लोगों ने सीख लिया था परंतु वेदों के लिखने पर प्रतिबंध था अतः पूर्वोक्त मानव मुंहों को ही वर्णमाला/अक्षमाला का प्रतिनिधि उदाहरण माना गया क्योंकि उच्चरण मुंह से ही किया जाता है। वास्तव में काल या समय, क्रिया
की गतिशीलता का मानसिक परिमाप है और यह अनन्त ध्वनियों/तरंगों का सम्मिलित रूप होने से अखंड नहीं है, यह अलग बात है कि हम अपने कानों से उन सभी को नहीं सुन पाते।

+ सदाशिव का आविर्भाव ऋग्वेदकाल की समाप्ति और यजुर्वेदकाल के प्रारंभ होने  के समय माना जाता है। उस समय अक्षरों के उच्चारण का ज्ञान होने के बाद भी लिपि का ज्ञान न होने के कारण उन्हें लिखना संभव नहीं था। ब्राह्मी और खरोष्टि लिपियों का अनुसंधान शिव के कुछ समय बाद अथर्ववेद के काल में हुआ। लिपियों के अनुसंधान के बाद ही वेद और तंत्र में पारस्परिक प्रभाव बढ़ पाया। सबसे बड़ी बाधा तो यह रूढि़वादिता, कि वेद
को लिखा जाना वर्जित है, अधिक समय तक बनी रही। शिव के जाने के 3500 वर्ष बाद कृष्णद्वैपायन व्यास ने वेदों को उनकी प्राचीनता के आधार पर क्रमशः  ऋग्वेद, यजुर्वेद अथर्ववेद में विभाजित किया और तीनों के काव्यरूपक भाग को एकत्रित कर अलग किया और उसे सामवेद का नाम दिया, सामवेद कोई वेद नहीं है। अथर्ववेद के प्रथम लेखक महर्षि अथर्वा और उनके अनुयायियों, अंगिरा, अंगिरस, सत्यवाह, वैदर्भि आदि ने पहली बार डरते डरते वेदों को अक्षरबद्ध करने का प्रयास किया। शिव ने अपने काल में तंत्र का जो स्वरूप दिया था वह कालान्तर में बदलता गया क्योंकि लिपि न होने के कारण एक मुनि से दूसरा सुनकर ही याद रख पाता था और जब तीसरे को बतलाता था तो व्याख्या करते समय उसके अपने विचार भी जुड़ जाते थे, इस कारण बहुत से महत्वपूर्ण अंश  लुप्त हो गये या बदल गये। इस प्रकार शिवोत्तरतंत्र के दो भाग ‘कश्मीरी ‘ और ‘गौड़ीय‘ अस्तित्व में आये। कश्मीरी  तंत्र पर वेदों का, गौड़ीय तंत्र की अपेक्षा अधिक प्रभाव पड़ा, इसी समय कश्मीरी विद्वानों  ने तत्कालीन सारदा लिपि में वेदों को लिखा। इसके बाद जैन और बौद्ध काल में शिवतंत्र समानान्तर रूप से चलता रहा। जैन साहित्य प्राकृत में और बौद्ध साहित्य मगधी प्राकृत या पाली भाषा में उस समय की थोड़ी रूपान्तरित ब्राह्मी लिपि में लिखे गये, परंतु शिवोत्तर तंत्र संस्कृत भाषा में ब्राह्मी लिपि में लिखा गया। अतः इस काल में लिपि का ज्ञान हो जाने के कारण जैन तंत्र, बौद्ध तंत्र और शिवोत्तर तंत्र का पारस्परिक रूपान्तरण होने लगा।

+ चौंसठ योगिनियाॅं-  इस प्रकार परस्पर समझ बढ़ने पर तीनों तंत्रों में इस बात पर सहमति हुई कि मानव जीवन में 64 प्रकार की अभिव्यक्तियाॅं होतीं हैं अतः तंत्र को 64 शाखाओं में बांटा जाना चाहिये। आन्तरिक रूप से समान परंतु ऊपरी तौर पर कुछ पदों में परिवर्तन कर इसे स्वीकार किया गया। जैसे, जैन तंत्र में मूला प्रज्ञाशक्ति को ‘‘ज्ञाराना‘‘ या ‘ज्ञारत्न‘ कहा गया जबकि शिवोत्तर तंत्र और बौद्ध तंत्र में क्रमशः  इसे शिव और बुद्ध कहा गया। इस प्रकार तीनों तंत्रों में 64-64 प्रकार की शाखाओं को मान्य करते हुए प्रत्येक की नियंत्रक शक्ति को ‘योगिनी‘ कहा गया तथा प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिये सबको शिव की पत्नियाॅं घोषित किया गया जबकि सदाशिव आज से 7000 वर्ष पहले और ये योगिनियाॅं मात्र 2000 वर्ष पहले  हुए। जैैन तंत्र पर आधारित 64 योगिनियों के मंदिर
जबलपुर म.प्र. में एक पहाड़ी पर बनाये गये देखे जा सकते हैं। अतः लिपि के प्रभाव से हुए इस रूपान्तरण से अनेक योगिनियों और देवी देवताओं के नामों में कुछ परिवर्तन कर स्वीकार किया गया, जैसे, जैन देवी अंबिका को शिवोत्तर तंत्र  और पौराणिक शाक्ताचार में अंविका और वाराही को बौद्ध तंत्र में वज्रवाराही के नाम से स्वीकृत किया गया। पौराणिक सत्यनारायण की संकल्पना इस्लाम की पीरभक्ति से मिलकर बंगाल में सत्यपीर के नाम से मान्य हुई। बुद्धतंत्र की तारा और शिवोत्तर तंत्र की काली और पौराणिक शाक्ताचार में सरस्वती के नाम से परस्पर रूपान्तरित किया गया।

+ दस महाविद्या-  एकीकरण के इस काल में तीनों तंत्रों में से कुछ कुछ महत्वपूर्ण देवियों को लेकर दस महाविद्याओं की कल्पना आई जो बाद में पौराणिक काल में थोड़े से परिवर्तन के साथ शाक्ताचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, गणपत्याचार, में भी मान्य की गईं हैं, इनके नाम हैं, काली, तारा, शोडसी, भुवनेश्वरी , भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बंगुलामुखी, मातुंगी और कमला। ये देवियां लगभग सभी तंत्रों में एकसे बीजमंत्र के साथ या थोड़े से परिवर्तन के साथ मान्य की गई हैं और सबको शिव से किसी न किसी प्रकार जोड़ दिया गया ताकि उन्हें लोग पूजते रहें परंतु, उन्हें दिये गये भौतिक आकार से ही प्रमाणित होता है कि कोई भी मानव आकार चार, आठ और दस हाथों वाला नहीं हो सकता।

+ दुर्गापूजा-  इसी प्रकार दुर्गादेवी की पूजा भी पौराणिक शाक्ताचार के समय मार्कंडेय पुराण से लिये गये 700 श्लोकों, जिन्हें  दुर्गासप्तशती कहा गया, के आधार पर प्रारंभ की गई और शिव की पत्नी माना गया है जो पूर्व वर्णित कारणों से काल्पनिक रचना के अलावा कुछ नहीं है। पठानकाल के प्रारंभ में बंगाल के राजशाही जिले के ताहिरपुर के एक बहुत संपन्न मालगुजार कॅंसनारायण राय को अपनी सम्पदा के प्रदर्शन  करने हेतु एक विचार आया कि वे  राजसूय या अश्वमेध  यज्ञ कर लोगों को दिखा दें कि वह क्या हैं, इस पर तत्कालीन पंडितों ने कहा
कि ये तो कलियुग है इसमें ये राजसूय/अश्वमेध  यज्ञ करना वर्जित है अतः आप तो मार्कंडेय पुराण में वर्णित दुर्गापूजा ही करें और उसी समय जितना अधिक दान करना हो सो करें। इस पूजा में कॅंसनारायण राय ने सात लाख सोने के सिक्कों को खर्च किया, इसे देखसुन कर वर्तमान बॅंगलादेश  के रंगपुर जिले के इकटकिया के जगतवल्लभ/जगतनारायण ने कहा कि क्या हम कॅंसनारायन से कम हैं, हम भी इनसे ज्यादा खर्च कर अपना, दुर्गा पूजा में नाम आगे करेंगें, इन्होंने आठ लाख पचास हजार सोने के सिक्के खर्च किये। इस प्रकार जमीदारों में अपनी सम्पन्नता प्रदर्शित  करने की होड़ लग गई परंतु इसी बीच हुगली जिले के गुप्तीपारा गांव के 12 मित्रों ने मिलकर कहा कि हम अलग अलग भले ही  जमींदारों के बराबर पूजा में खर्च नहीं कर सकते पर सभी मिलकर तो कर सकते हैं इसतरह सबने मिलकर दुर्गापूजा का प्रदर्शन  किया , बारह मित्रों/यारों के सम्मिलित होने के कारण इसे बरयारी पूजा कहा गया। इसके बाद यह सार्वजनिक पूजा बन गई और अब तो हर जगह हर
चैराहे पर यह की जाने लगी है जिसमें सबकुछ बदल गया है। वर्तमान में इसे सार्वजनिक स्थानों पर मनाये जाने का स्वरूप कितना व्यावसायिक और विकृत हो गया है यह किसी से छिपा नहीं हैं।

+ अर्धनारीश्वर  शिव-  शिव  की अतुलनीय प्रतिभा, सरलता , साधुता और तेजस्विता के प्रभाव से प्रबुद्ध वर्ग में यह चर्चा होने लगी कि शिव  और कोई नहीं मानव रूप में तारक ब्रह्म ही हैं और धीरे धीरे इस धारणा ने पूर्णता प्राप्त कर ली। आध्यात्म साधकों ने अनुभव करना प्रारंभ किया कि ब्रह्म, सर्वोच्च ज्ञानात्मक सत्ता ‘‘परमपुरुष‘‘ और सर्वोच्च क्रियात्मक सत्ता ‘‘परमाप्रकृति‘‘ का एकीकृत आकार ही हैं  और शिव यही संयुक्त आकार हैं। इसके बाद शिवोत्तर तंत्र, जैन तंत्र, बौद्ध तंत्रकाल में इस अवधारणा को पूर्ण बल मिला। इस समय शिव और शक्ति को मूर्तिकारों ने दायी ओर शिव और बायीं   ओर पार्वती का आकार देकर अर्धनारीश्वर  शिव की रचना कर ली। ‘‘शिवशक्तयात्मकम् ब्रह्म, अर्थात् ज्ञान और ऊर्जा साथ साथ कार्य करते हैं,‘‘ का यह विचार पौराणिक काल में भी स्वीकार किया गया। यह माना गया कि शिव ही वह आधार हैं जिस पर शक्ति अपना निर्माण कार्य करती है, शिव से अलग होकर वह कार्य नहीं कर सकती। शिव एक साक्षी सत्ता हैं और शक्ति की गतिविधियों के नियंत्रणकर्ता भी हैं। परंतु शीघ्र ही यह दार्शनिक  विचार लोगों के मन से निकल गया।

+ चंडिकाशक्ति-  प्रागैतिहासिक काल में लोग समूहों में रहा करते थे और प्रत्येक समूह की मुखिया महिला ही हुआ करती थी और उसे गोत्रमाता कहा जाता था। माताकेे मरने के बाद उसकी प्रापर्टी का अधिकार पुत्री को ही प्राप्त होता था परंतु पुत्रों के नाम माता के नाम से ही रखे जाते जैसे, माता का नाम मोदगल्ली तो पुत्र का नाम मोदगल्यायन, माता का नाम रूपसारी तो पुत्र का नाम सारीपुत्त, माता का नाम महापाटली तो पुत्र का नाम पाटलीपुत्र, माता का नाम पृथा तो पुत्र का नाम पार्थ आदि। इस काल में पुरुषों को कोई संम्पत्ति का अधिकार नहीं था अतः वे प्रत्येक कार्य अथवा सुविधा पाने के लिये गोत्रमाता से ही निवेदन किया करते थे अतः गोत्रमाता की पूजा की जाने लगी जिसे  कालान्तर में चंडी या चंडिका पूजा कहा जाने लगा। इसमें यह भाव थे कि जो देवी सभी आकारधारकों में माता और शक्ति के रूप में निवास करती है उसे नमस्कार। यद्यपि यह एक सामाजिक पृथा थी परंतु पौराणिक शाक्ताचार में इसे शिव की पत्नी कहा गया जो निराधार है। कालान्तर में महिला के स्थान पर पुरुष को यह अधिकार दिये गये और गोत्रपिता नाम दिया गया।

+ गणेश -  पितृ सत्तात्मक पृथा के प्रारंभ होने के बाद समूह के  प्रभावी पुरुष को मुखिया के रूप में स्वीकार किया गया और गोत्रपिता नाम दिया गया। पिता की सम्पत्ति का अधिकार पुत्र को प्राप्त होने लगा। संस्कृत में समूह को गण कहते हैं अतः समूह के नायक को गणेश , गणनायक या गणपति कहा जाने लगा। इसलिये गणेश  का अस्तित्व इतिहासपूर्व माना जाता है और लोग हँसी  में कह भी देते हैं कि जब गणेश  की पूजा सभी देवताओं के पहले की जाती है तो शिव के विवाह के समय भी गणेश  की पूजा हुई होगी फिर गणेश, शिव के पुत्र कैसे हुए? स्पष्ट है कि गणेश , शिव, पार्वती, दुर्गा आदि के पुत्र नहीं हो सकते वे सामाजिक पृथाओं के अंतर्गत हैं , धर्म से उनका कोई संबंध नहीं है। चूंकि समूह के नेता को मोटा तगड़ा होना चाहिये अतः हाथी जैसा शरीर, समूह में संख्या की खूब बृद्धि होना चाहिये अतः सवारी के लिये चूहा  (क्योंकि चूहों की संख्या अन्य प्राणियों की तुलना में तेजी से बढ़ती है) प्रतीकात्मक रूप में स्वीकार किया गया। पौराणिक काल में इसे गणपति कल्ट के रूप में स्वीकार कर धार्मिक आधार बना दिया गया। पुराणों में आपस में ही समानता नहीं है, एक ही तथ्य को अलग अलग स्थानों पर अलग अलग वर्णित किया गया है। पुराणों की कहानियां शिक्षाप्रद हैं परंतु हैं सब काल्पनिक।

+ नवदुर्गा-  प्रागैतिहासिक युग के लोग फार्मेकोलाजी से अपरिचित थे अतः वे पेड़ पौधों को सीधे ही रोगों को दूर करने में प्रयुक्त करते थे। उन दिनों विशेषतः भारत में लोग नौ प्रकार के पैड़ पौधों के संपर्क में आये जो दवाओं या भोजन के रूप में अत्यंन्त लाभदायी थे। वे उन्हें जीवनदायी मानकर उन्हें अत्यधिक आदर के साथ पालते और रक्षा करते। उन्हें नष्ट होने से बचाने के उद्देश्य  से उनमें देवी देवताओं का स्वरूप दे दिया गया जिसका परिणाम अन्धानुकरण और आडम्बर के रूप में आज तक दिखाई दे रहा है। ये नौ पौधे जिनमें भारत के लोगों ने विशेष औषधीय गुण पाये, वे हैं, कदली अर्थात् प्लानटेन, कचु अर्थात् अरबी अरुम, हरिद्रा अर्थात् टरमेरिक, जयंती, अशोक, विल्व, दाडि़म्ब अर्थात् अनार पोमेग्रेनेट, मान अर्थात् कंद और धान्य अर्थात् पैडी, अनहस्क्ड राइस।
          अब देखिये, कदली एक अच्छा न्युट्रिशियस भोजन है और एक दिन के अंतर से आने वाले ज्वर के लिये बढि़या औषधि है, इसके अलावा वह पेंक्रियाज और किडनी के लिये अच्छी तरह क्रियाशील बनाये रखने में भी सहायक है। वह डिसेंट्री के लिये औषधि है ही। उन माताओं के लिये यह अच्छा भोजन है जिनके बच्चे छोटी अवस्था में मर जाते हैं। उन बच्चों के लिये जिनकी माॅं की मृत्यु हो जाने के कारण दूध के न मिल पाने से रिकेट्स की बीमारी हो जाती है, यह काले चिट्टे वाले अधिक पके केले के रूप में खिलाये जाने पर रामवाण औषधि है। इतना ही नहीं यह, वे बछड़े जिनकी माॅं मर गयी हो, उनको अधिक पके  केले और सत्तू के एक अनुपात दो के अनुपात में पेस्ट के रूप में खिलाने पर स्वस्थ हो जाते हैं। स्पष्ट है कि कदली में अनेक जीवनदायी गुणों के कारण लोगों ने उसे देवता की तरह आदर देना प्रारंभ किया।
           दूसरा है कचु या अरबी अर्थात् अरुम, इसकी भोजन के रूप में कम उपयोगिता है परंतु किडनी के लिये यह बहुत ही उपयोगी है।
          तीसरा है हरिद्रा अर्थात् टर्मेरिक, यह एन्टीसेप्टिक होती है और अच्छा मसाला भी है। भोजन में प्रयुक्त होने वाली हल्दी धूप में सुखाई गई होती है, सीधे खेत से लाई गई हरी हल्दी विषैली होती है अधिक उपयोग करने पर मृत्यु भी हो सकती है परंतु ऐंटीसेप्टिक है वह खून को साफ करती तथा त्वचा के रोगों को दूर करती है। जब किसी के घर कोई्र बड़ा फंक्शन   होता है तो आज भी एकत्रित होने वाली महिलाओं में हल्दी का उबटन लगाने की पृथा  है खास तौर पर विवाह के अवसरों पर, क्योंकि  अनेक स्थानों के व्यक्ति एकत्रित होने से इन्फेक्शस डिजीज होने की संभावना रहती है।
       अगला है जयन्ती, इसकी जड़ों में औषधीय गुण अधिक होते हैं, यह श्वेत कुष्ठ के लिये सही दवा है। यथार्थतः यह सात प्रकार के त्वचीय रोगों में से चार प्रकार के लिये अधिक उपयोगी है। इसके बाद है अशोक, अर्थात् सीता अशोक, केवल अशोक का अर्थ है देवदारु। सीता अशोक में ही औषधीय गुण पाये जाते हैं। यह सभी प्रकार के स्त्री रोगों की आदर्श  औषधि है।
       अगला है विल्व, अर्थात् बेल का फल। बिना पका बेल हर प्रकार के पेट रोग की दवा है। कच्चे बेल फल को भूंन कर खाना चाहिये। बिल का अर्थ है सूक्ष्म छिद्र अतः विल्व का अर्थ है वह जो छोटे से छोटे छिद्र में प्रवेश  कर पेट को अीधकतम लाभ पहुंचाता है। इसकी असाधारण क्वालिटीज के कारण इसे  श्रीफल भी कहते है जिसका मतलब है उत्तम गुणों वाला फल।
       दाडि़म्ब की छाल, जड़ें और फल सभी कुछ, महिलाओं की सभी प्रकार की बीमारियों की अच्छी दवा है। चीन और भारत की आयुर्वेदिक पद्धतियों में दाडि़म्ब के ये गुण मान्यता प्राप्त हैं।
       अगला है मान अर्थात् कंन्द, जो मनुष्य के शरीर में मास बढ़ाने बाले सभी प्रकार के स्टार्ची खाद्य पदार्थों में अतुलनीय है। यह आलु अथवा कटहल के बीजों की तुलना में अधिक अच्छा है। कटहल के बीज आलु से ढाई गुने अच्छे हैं। भारत में आलु के आने के पहले यहाॅं इन्हीं बीजों का उपयोग करते थे, मान इन बीजों से भी अधिक मूल्य रखता है। इसके अलावा मान के द्वारा मानव शरीर पर ठंडा प्रभाव डाला जाता है। गर्मी के समय यह अच्छी दवा है, जब शरीर गर्मी से प्रभावित होकर नाक से खून बहाने लगता है तो यह औषधि और भोजन दोनों की तरह काम में लाया जाता है।
       अगला है धान्य अर्थात् पैडी जिसके अनेक उपयोग हैं, सबसे सरल तो यह है कि इससे अल्कोहल बनाया जाता है जो अनेक प्रकार की दवाएं  बनाने के काम आता है।
        इन नौ प्रकार के पौधों के विशेष गुणों के कारण ही उनमें लोगों ने अपना पूज्य भाव स्थापित किया और पौराणिक शाक्ताचार काल में उनमें नौ प्रकार की चंडिका शक्ति के वास स्थान होने की कल्पना की गई, जैसे,  कदली में ब्राह्मणी, अरुम में कालिका, हरिद्रा में दुर्गा, जयंति में कार्तिकी, अशोक में शोकरहिता, विल्व में शिव, दाडिंब में रक्तदंतिका, मान में चामुंडा, और धान्य में लक्ष्मी। आज भी यदि किसी के पैर भूल से चावल के दानों से छू जावें तो वह फौरन ‘‘ओ माता लक्ष्मी‘‘ कह कर क्षमा मागते हुए प्रणाम करने लगता है। इस प्रकार का सोच उस समय लोगों का था। अभी भी देवी शक्तियों को लोग संयुक्त रूप से उसी प्रकार इन पौधों में होने की मान्यता देते हैं और नवदुर्गा का नाम देकर पूजते हैं अर्थात् अगरबत्ती लगाकर घी के दीपक जलाकर आरती उतारते हैं और चंदन का तिलक लगाते हैं और उन पौधों को संयुक्त रूप में नव पत्रिका का नाम देते हैं। सोचिये, पौधों की पूजा उन्हें पालने, पानी, खाद और अन्य पोषक तत्वों से उनका संवर्धन करने में होता है या केवल आरती और चंदन या अगरबत्ती से। बस, यहीं से अन्धानुकरण और आडंबर ने जन्म लिया और बढ़ता ही जा रहा है।

+ आज से 1300-1400 वर्ष पूर्व पौराणिक सिद्धान्तों के अनुसार तत्कालीन प्रचलित अनेक मान्यताओं को शैवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, गणपत्याचार, और सौराचार भागों में विभाजित किया गया और लोगों ने अपनी रुचि के अनुसार उनका पालन करना प्रारंभ किया। शैवाचार का लक्ष्य शिवसमाधि अर्थात् आत्मसाक्षात्कार है, इसमें बाहरी वृत्तियों को आन्तरिक करते हुए अंत में परमात्मा में मिलाने का अभ्यास किया जाता है। ‘‘यच्छेद्वांग्मनसो प्रज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महती नियच्छेद् तद्यच्छेद्छान्तात्मनि‘‘। शाक्ताचार के अनुसार तामसिक शक्ति को भवानी या कालिका शक्ति में मिलाना चाहिए जिसका बीजमंत्र ‘‘सम्‘‘ है, इसमें से राजसिक शक्ति को निकालकर भैरवीशक्ति में मिलाना चाहिये जिसका बीज मंत्र है ‘‘शम्‘‘। [ भैरवी शक्ति का अर्थ है ऊर्जा की क्रियाशील अवस्था। ऊर्जा का बीजमंत्र है ‘‘रम्‘‘। सभी लोग भौतिक जगत की उपलब्धियों के साथ ऊर्जा को भी सक्रिय रखना चाहते हैं अतः नाम और यश  के प्रेरक  (श़ + र= श्र ) और स्त्रीलिंग में यह हुआ श्री, इसे आधार मानकर ही भारत में नाम के आगे श्री लगाने का प्रचलन हुआ। आजकल इस अर्थ में श्री किसी के पास नहीं है फिर भी सभी के नाम में श्री लगाते हैं।] इससे सात्विक शक्ति को खींचकर कौषिकीशक्ति में मिला देना चाहिये। पौराणिक शाक्ताचार के ये क्रमागत पद हैं जिन पर चलकर साधक लाभ पाता है। यहां कालिकाशक्ति का आशय दार्शनिक  है, शिव की पत्नी काली अथवा बौद्ध और शिवोत्तर तंत्र की कालिकाशक्ति  से इसका कोई संबंध नहीं। वैष्णवाचार में विश्व  की सभी वस्तुओं में विष्णु को व्याप्त मानकर उपासना की जाती है, ‘विस्तारः सर्वभूतस्यविष्नोरविश्वमिदम जगत्, द्रष्टव्यमआत्मवत् तस्माद्भेदेन विचक्षनैः। गणपत्याचार में प्राचीनकाल के समूह नेतृत्व वाले गणपति को चुनकर समूह के स्थान पर विश्व  के नेता का भाव दिया गया और इन्हें ही परमपुरुष के रूपमें उपासना हेतु कहा गया है। सौराचार मूलतः सूर्य की उपासना से संबंधित है जो दक्षिण रूस के सेक्डोनिया से आये ब्राह्मणों की उपासना पद्धति है। सेक्डोनियन ब्राह्मण वेद या अन्य कोई पद्धति नहीं मानते थे वे केवल ज्योतिष और आयुर्वेद को ही मान्यता देते थे अतः उनके सूर्य ही उपास्य देवता थे क्योंकि वे मानते थे कि सूर्य से ही पृथ्वी चंद्र और अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई है अतः विश्व  के नियन्ता सूर्य ही हैं। यह मत सीमित क्षेत्रों में ही माना गया। इस प्रकार पौराणिक मान्यताओं को व्यापक प्रसार नहीं मिल पाया क्योंकि इसके कुछ भागों को दार्शनिक  मान्यता थी और कुछ को नहीं।

+ सदाशिव ने हमेशा  सबको आत्मोत्थान की ओर प्रेरित किया, उन्होंने बताया कि हम सभी टाइम अर्थात् काल, स्पेस अर्थात् आकाश  से बंधे हुए हैं और समय लगातार गतिशील है अतः भूतकाल का उपयोग कर वर्तमान का निर्माण करो और भविष्य की इसतरह योजना बनाओ कि मानव संपदा एकत्रीकृत हो प्रचंड ऊर्जा से चमक उठे। अर्थात् वर्तमान में जियो। कर्मबंधनों को विद्या की उपासना से नष्ट कर दो। जो लोग भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक शोषण करते हैं उन्हें अपनी विवेकपूर्ण, तार्किक और वैज्ञानिक बुद्धि से पहचानकर उनसे दूर रहो क्योंकि ये लोग ही समाज में भावजड़ता, रूढि़वादिता और अंधविश्वासों  की नई नई बीमारियां फैलाते हैं। क्रोध, लोभ, अहंकार और मोह मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु हैं।

+ शिव ने समाज को विवाह नामक जिम्मेदारी से जीवन जीने की अवधारणा दी और पति तथा पत्नी को क्रमशः  भर्ता और कलत्र नाम दिये। भर्ता का अर्थ है परिवार का जिम्मेदारी से भरणपोषण करने वाला और कल़त्र का अर्थ है जिम्मेदारी से अपने भर्ता और संतान को परिवार के पालनपोषण में सहायक रहने वाली। संस्कृत में महिला को नारी कहा जाता है अर्थात् स्त्रीलिंग , परंतु शिव ने कलत्र कहा जो नारी को पुरुष के समान स्तर पर लाकर परिवार के संचालन में महत्व देता है क्योंकि यह शब्द स्त्रीलिंग  नहीं है पुल्लिंग है । उन्होंने समाज के प्रथम विवाहित पुरुष के रूप में आदर्श  भर्ता और कलत्र का प्रथम उदाहरण देकर मानव समाज को नई दिशा  दी।

+ आध्यात्मिक क्षेत्र में किया गया परिश्रम अभिध्यान, बौद्धिक क्षेत्र में किया गया परिश्रम धारणा, भौतिक क्षेत्र में किया गया परिश्रम श्रम कहलाता है अतः कोई भी क्षेत्र क्यों न हो परिश्रम के बिना जीवन सफल नहीं हो सकता। यह विश्व  सत्य में बंधा हुआ है, पौधे, प्राणी, मनुष्य के छोटे बच्चे और सरल तथा अविकसित व्यक्ति असत्य का सहारा कभी नहीं लेते जब तक कि उन्हें अन्यथा सिखाया न जावे। तथाकथित विकसित  और पढ़े लिखे लोग ही असत्य बोलते हैं। इसके दो ही कारण होते हैं, पहला स्वार्थ और दूसरा कृत्रिम आदत। अतः कोई कितना ही धार्मिक होने का प्रदर्शन  करे, कर्मकांड में लगा रहे, कितना ही धर्म स्थलों की यात्रायें करता रहे यदि सत्य में प्रतिष्ठित नहीं है तो धर्म उसका साथ नहीं देगा। इसीलिये कहा गया है कि मिथ्यावादी सदा दुखी। स्वभावतः सभी की सीधे और सरल रास्ते पर चलने की प्रवृत्ति होती है परंतु भीरुता, स्वार्थ और कपटवृत्ति के कारण लोग टेड़े रास्ते पर चलने लगते हैं। इस प्रकार के लोग दूसरों को हमेशा  संदेह से देखते हैं जो कि पाप करने वालों की मनोवृत्ति का द्योतक माना जाता है। यह संदेह ही अमानवीय कृत्य करने का कारण बनता है। इसीलिये कहा जाता है कि पापस्य कुटिला गतिः, अर्थात् पाप हमेशा  टेड़े रास्ते से चलता है।




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