मध्य (भाग तीन) ब्रह्म की सगुणता
4: महासम्भूति और तारक ब्रह्म
तन्त्र विज्ञान के अनुसार ब्रह्मचक्र में संचर और प्रतिसंचर घाराओं में प्रवाहित होकर जीव अपने मूलतत्व परमपुरुष में मिलकर अपना चक्र पूरा करता है जो कि सभी का लक्ष्य है परंतु प्रकृति के आकर्षण प्रभाव से अधिकांश यहीं भटकते रहते हैं और यह चक्र लगातार चलता रहता है। जो महापुरुष अपनी साधना के बल से प्रकृति के बंधनों को काटकर स्वसामर्थ्य से परम पुरुष को साक्षात् कर चुकते हैं और मनुष्यों सहित सभी जीवों
के कल्याण करने और उचित दिशा में लाने के उद्देश्य से स्वेच्छा से अपना पूर्व शरीर धारण किये रहते है और साधकों को उचित मार्गदर्शन देने का संकल्प पूरा कर स्वेच्छा से ही वापस अपने मूल में पहुंच जाते हैं उन्हें महासम्भूति कहते हैं। इनका दार्शनिक नाम तारक ब्रह्म है। इनका कार्य सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म के बीच पुल की भाॅंति होता है। मानव सभ्यता के विकास क्रम में अभी तक दो महासम्भूतियाॅं हुई हैं एक लगभग सात हजार वर्ष पूर्व भगवान सदाशिव के नाम से और दूसरी लगभग साढ़ेतीन हजार वर्ष पूर्व भगवान कृष्ण के नाम से। काल क्रम के प्रवाह में इनके संबंध में लोगों को समय समय पर अनेक विद्वानों के द्वारा अनेक प्रकार से कथाओं के माध्यम से समझाया जाता रहा है पर आज की स्थिति में वह सब इतना विकृत हो गया है कि उनके संबंध में यथार्थता को भूल कर केवल किस्से कहानियाॅं ही सुनी और सुनाई जाती हैं। इन्हीं के साथ विद्वानों ने समय समय पर अपनी ओर से भी अनेक मनगढ़ंत अवैज्ञानिक और जड़ता भाव भरी परम्परायें जोड़कर आडम्बर को प्रेरित किया है और सबको पथ भ्रमित किया है। नीचे दिये गये वैज्ञानिक और तार्किक विवरण से आप समझ जायेंगे कि ये वास्तव में क्या हैं और कथाकारों द्वारा इन्हें क्या से क्या बना दिया गया है।
4.1: भगवान सदाशिव
भगवान सदाशिव के संबंध में लोगों ने अनेक भ्रांतियां फैला रखीं हैं और समाज को किये गये उनके योगदान को बिलकुल भुला रखा है। इन्हें भोला भाला भांग धतूरा खाने वाला हमेशा नशे में रहने वाला और न जाने क्या क्या उपमाओं से आवेष्ठित कर प्रस्तुत किया गया है। आश्चर्य यह है कि इसके बाद भी उन्हें अवढरदानी और आशुतोष कहा गया है। यर्थातः आध्यात्म विज्ञान में शिव को महायोगी, महासम्भूति, तारकब्रह्म आदि उपाधियों से सम्मानित किया गया है और तन्त्रविज्ञान का जनक कहा गया है।
* भगवान शिव ने सबसे पहले यह बताया कि परमब्रह्म (cosmic entity) अपने क्रियात्मक पक्ष जिसे हम प्रकृति (nature) के नाम से जानते हैं, की सहायता से आकार देकर ब्रह्माॅंड का संपूर्ण स्रजन करता है। प्रकृति सात्विक बल(sentient force) को आधार बनाकर राजसिक(mutative force) और तामसिक (static force) बलों की मदद से दृश्य प्रपंच रचती है। यथार्थतः आधार अदृश्य सा ही रहता है केवल म्युटेटिव और स्टेटिक बलों की ही जड़ानुभूति सबको होती रहती है और द्वन्द्वों का आभास होता रहता है। जबकि इन द्वन्द्वों का अस्तित्व उस सेन्टिऐंट बल पर ही टिका रहता है। यदि इनमें असंतुलन हो जाये तो वे सब अस्तित्वहीन हो जावेंगे। प्रत्येक जड़ वस्तु चाहे वह सूर्य, और आकाशगंगायें हों या छुद्र इलेक्ट्रान सबका अस्तित्व है परंतु ये यह नहीं जानते। जबकि मनुष्य, चीटी, केंचुआ ये सब जानते हैं कि उनका अस्तित्व है। यह एग्जिस्टेंशियल फीलिंग ही वह आधार है जिस पर जीव व जगत टिका हुआ है। इसलिये ‘‘मैं हूं‘‘ इसी बोध में उस परमपुरुष की सत्ता अदृश्य रूप में रहती है। इसे समझने के लिये हम भौतिकी के बलों के त्रिभुज नियम को ले सकते हैं जो संतुलन में टंगी तस्वीर के दो छोरों पर लगी रस्सी से दो बलों को तो प्रदर्शित करता है पर तीसरा बल जो तस्वीर में से लगता हुआ संतुलन बनाये रखता है दिखाई नहीं देता जबकि तस्वीर दिखती है। यही अदृश्य सेंटिऐंट बल आधार है जो तस्वीर को टांगे रहता है।
* वे प्रारंभ से ही सार्वभैमिक सत्ता के रूप में समाज की हर समस्या का हल करने के लिये उपलब्ध रहे हैं अतः मानव सभ्यता और संस्कृति के निर्माण में उनका अतुलनीय योगदान है। वे आदिपिता हैं पर उनका कोई मातापिता नहीं है, वे स्वयंभू हैं।
* प्रारंभ में सभी जगह, चाहे वह सेंट्रल एशिया हो यूरोप या दक्षिण पूर्व एशिया, एक सी भाषा थी। इसकी जो शाखा दक्षिण पूर्व एशिया में प्रसिद्ध थी वह 'संस्कृत' कहलाती थी और उत्तरपूर्व में बोली जाने वाली 'वैदिक' कहलाती थी। वैदिक संस्कृत आर्यों के साथ आयी जबकि संस्कृत भारत के मूल निवासियों की भाषा थी। वैदिक भाषा की प्राचीनता की सही सही जानकारी किसी को नहीं है, इस भाषा का सबसे प्रचीन ग्रंथ ऋग्वेद है जो लिखित रूप में बहुत बाद में आया क्योंकि उस समय लिपि का ज्ञान नहीं था। ब्राह्मी, खरोष्टी और अन्य लिपियां 5000 से 7000 वर्ष पूर्व अस्तित्व में आईं। सारदा , नारदा , कुटिला आदि लिपियां ब्राह्मी से तथा श्रीहर्ष लिपि कुटिला से उद्भूत हुई है। यद्यपि मानव का उद्भव लाखों वर्ष पहले हो गया था पर मानव सभ्यता का प्रारंभ 15000 वर्ष पहले ही माना जाता है। ऋग्वेद 15000 वर्ष पहले से 7500 वर्ष पहले के बीच रचा गया माना जाता है। ऋग्वेद काल की समाप्ति और यजुर्वेद काल के प्रारंभ में भगवान सदाशिव का भौतिक आविर्भाव माना जाता है। इन्हीं के समय आर्य लोग उत्तर पश्चिम से भारत में आये। इस प्रकार संस्कृत और वैदिक का एक दूसरे पर प्रभाव पड़ा।
* शिव ने तंत्र को सुव्यवस्थित किया, यद्यपि गौड़ीय और कश्मीरी तन्त्र के रूप में वह पहले से अव्यवस्थित और बिखरा हुआ था। शिव का अर्थ है कल्याण, अस्तित्व का चरम बिंदु तथा 7000 वर्ष पहले धरती पर आये महासंभूति सदाशिव।
*सदाशिव ने समाज के उत्थान के लिये कार्य करते समय 5 प्रकार के भाव अपने चेहरे से प्रदर्शित किये अतः उन्हें पंचवक्त्र अर्थात् पांच मुंह वाला कहा जाता है। ये पांच भाव हैं, बीच में 'कल्याणसुन्दरम', बिल्कुल बायें 'कालाग्नि' और फिर 'वामदेव' तथा बिल्कुल दायें 'ईशान' और फिर 'दक्षिणेश्वर' । कल्याणसुंदरम अन्य सभी भावों को नियंत्रित करते हैं।
*शिव के काल में मातृसत्तात्मक सामाजिक प्रणाली समाप्ति की ओर थी और पितृसत्तात्मक प्रणाली उत्थान की ओर थी। फिर भी मातृ सम्पत्ति अधिकार की पद्धति शिव के काल से बुद्ध और महावीर जैन के काल अर्थात् 2500 वर्ष पहले तक प्रचलित रही।
* जन सामान्य पहाड़ों पर रहा करते थे और प्रत्येक पहाड़ का एक मुखिया होता था जो ऋषि कहलाता था। संस्कृत में पहाड़ को गोत्र कहते हैं अतः मुखिया गोत्र पिता के नाम से जाना जाता था इसी कारण गोत्र बताने की पृथा चली जो किसी समूह विशेष की पहचान हेतु अभी भी प्रचलन में है। शिव के काल में विभिन्न गोत्रों में अपने आप को एक दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ में लड़ाइयां होती रहती थी। जब एक समूह अर्थात् गोत्र दूसरे
को लड़ाई में जीत लेता था तो हारने वाले को वह गोत्र मानना पड़ता था। जीतने वाला गोत्र समूह हारने वाले समूह की सम्पत्ति और स्त्रियों को बल पूर्वक ले जाते थे और पुरुषों को दास बनाकर उनके गोत्र बदल दिये जाते थे जिन्हें उपगोत्र अर्थात् प्रवर कहा जाता था। विवाह के समय वर वधू को कपड़े से बांधना और महिलाओं की मांग लाल रंग से भरना वास्तव में उस काल में लड़कर जीतने और बंधक बनाने की पृथा का ही बदला रूप है। शिव ने विवाह व्यवस्था का नया रूप देकर इस प्रकार के लड़ाई झगड़े बंद कराये । वास्तव में विवाह नाम की संकल्पना शिव ही की देन है। उनके पूर्व यह पृथा नहीं थी, अतः माता को तो पहचाना जा सकता था पर पिता को नहीं । शिव ने विवाह नाम की संकल्पना को स्थापित कर समाज में इस ''विशेष व्यवस्था के अंतर्गत जीवन निर्वाह करना'' सिखाया। इसलिये वह सर्व प्रथम विवाहित पुरुष के नाम से भी जाने जाते हैं। उन्होंने परस्पर झगड़ने वाले आर्य, मंगोल और द्रविड़ों को एकीकृत करने की दृष्टि से तीनों सभ्यताओं की क्रमशः 'पार्वती', 'गंगा' और
'काली' नाम की कन्याओं से विवाह किया।
*वैदिक युग में सात प्रकार के छंदों में वार्ता और आराधना करने की पृथा थी वे गायत्री, उष्निक, त्रिष्टुप, अनुष्टुप, जगति, ब्रहति और पंक्ति के नाम से जाने जाते हैं। ऋग्वेद के तीसरे मंडल के दसवें सूक्त में परम पुरुष के लिये लिखित सावित्र ऋक गायत्रीछंद में लिखा गया है। लोग गलती से उसे गायत्री मंत्र कहते हैं।
*शिव ने निरीक्षण कर 7 प्रकार के प्राणियों में संगीत के स्वरों को जोड़ा जैसे, मोर षड़ज, बैल ऋषभ, बकरा गंधार, घोड़ा मध्यम, कोयल पंचम, गधा धैवत्य, और हाथी निषाद। इनके प्रथम अक्षर लेकर स्वर सप्तक बनाया, सा रे ग म प ध नि आदि। इस प्रकार शिव ने समाज को संगीत अर्थात् नृत्य, गीत और वाद्य दिया। उन्होंने श्वाश , प्रश्वाश पर आधारित लय के साथ मुद्रा को जोड़ा। वैदिक काल में छंद था पर मुद्रा नहीं, वैदिक ज्ञान के 6 भाग थे, छंद, कल्प, निरुक्त, ज्योतिष, व्याकरण आयुर्वेद या धनुर्वेद। उन्होंने 'महर्षि भरत' को संगीत विद्या में प्रवीण कर इच्छुक व्यक्तियों को संगीत की शिक्षा का कार्य सौंपा।
* शिव ने धर्म की अवधारणा को स्थापित किया जिसके अनुसार, नैतिकता और आध्यात्मिक अभ्यास के द्वारा परमसत्ता को पाने की ललक ही वास्तविक धर्म है।
*वेदों में किसी धर्म विशेष का उल्लेख नहीं है, उनमें विभिन्न ऋषियों की शिक्षाओं का संग्रह है अतः समय के अनुसार उनकी शिक्षाएं बदलती रही हैं। ऋग्वेद का आर्ष धर्म अर्थात् ऋषियों का कथन यजुर्वेद से भिन्न है। मंत्रों का उच्चारण और जप क्रिया भी भिन्न भिन्न है। बंगाली यजुर्वेदी तथा गुजराती ऋग्वेदीय विधियों का पालन करते हैं।
*आर्यों और अनार्यों की लड़ाई में अनार्यों को दास बनाकर उन्हें ‘ओम‘ शब्द के उच्चारण करने पर प्रतिबंध लगाया गया था। महिलायें भी ओम के स्थान पर केवल नमः कह सकतीं थीं।
* शिव ने यज्ञों में पशुओं की आहुति देने का विरोध किया और अहिंसा तथा शांति का मार्ग बतलाया जो कि ज्यो और सोसियो सेंटीमेंट (Geo and Socio- sentiment) से ऊपर था। इसे ही शैव धर्म कहा गया है। बिखरे हुये तंत्रयोग को उन्होंने एकीकृत किया और उसके व्यावहारिक पक्ष का महत्व समझाते हुये आव्जेक्टिव और सव्जेक्टिव संसार के वीच आदर्श संतुलन बनाने की व्यवस्था की। इसमें किसी भी वर्णजाति की अवहेलना नहीं की गई, शैव धर्म परमपुरुष के साथ प्रीति करने का धर्म है। इसमें कर्मकांडीय विधियों अथवा घी या प्राणियों की आहुतियों का कोई विधान नहीं है।
* असुर कोई डरावनी सूरत के 50 फीट लंबे या ‘एबनार्मल‘ नहीं थे, ये सेंट्रल एशिया के असीरिया देश के निवासी थे। ये अनार्य थे अतः आर्य इनसे घृणा करते थे। अभी भी पलामू जिले में इनकी समाज पाई जाती है। शिव ने इन्हें आरक्षण दिया और बताया कि सभी परमपुरुष की संताने हैं और सबको जीने का अधिकार है । वे सबको आदर्श जीवन जीने में सहायता करने के लिये सदा तत्पर रहते थे।
* शिव ने जीवन का कोई भी क्षेत्र अनछुआ नहीं छोड़ा, उन्होंने देखा कि जीवन श्वास की आवृत्तियों से बंधा हुआ है। ये प्रतिदिन 21000 से 25000 तक होती हैं जो व्यक्ति व्यक्ति में बदलती रहती हैं। मनुष्य की श्वास लेने की पद्धति, मन, बुद्धि और आत्मा पर प्रभाव डालती है। इडा, पिंगला, और सुषुम्ना स्वरों की पहचान और किस स्वर में किस कार्य को करना चाहिये और आसन, प्राणायाम, धारणा ,ध्यान आदि कब करना चाहिये यह सब स्वरविज्ञान या स्वरोदय कहलाता है। षिव से पहले यह किसी को ज्ञात नहीं था, बद्ध कुंभक, शून्य कुंभक आदि इसी के प्रकार हैं। उन्होंने बताया कि जब इडा सक्रिय होती है तो बायां स्वर, जब पिंगला सक्रिय होती है तो दांया स्वर और सुषुम्ना के सक्रिय होने पर दोनों नासिकाओं से स्वर चलते हैं।
* शिव ने देखा कि मनुष्य शरीर में अनेक ग्रंथियों को उचित अभ्यास कराया जावे तो उनसे निकलने वाला हारमोन न केवल शरीर को वरन् आत्मा को भी लाभ देता है। उन्होंने स्वर विज्ञान के नियमानुसार छंद और मुद्रा के साथ नृत्य करना सिखाया अतः इससे न केवल स्वयं को वरन् दर्शकों को भी लाभ पहुंचा। परंतु कुछ ऐंसे ग्लेंड होते हैं जिन्हें नृत्य मुद्रा और छंद से लाभ नहीं होता जैसे सोचना, याद करना आदि, अतः शिव ने तांडव नृत्य बनाया और पार्वती के सहयोग से महिलाओं के लिये कौषिकी नृत्य बनाया। तांडव में बहुत उछलना होता है, जब तक नर्तक जमीन से ऊपर होता है उसे अधिक लाभ मिलता है जमीन के संपर्क में आते ही यह लाभ शरीर में समा जाता है। अतः अधिक लाभ लेने के लिये अधिक देर तक जमीन से ऊपर रहना चाहिये। तांडव शब्द तंदुल अर्थात् धान से चावल निकालना, से बना है। बिना पकाया गया चावल 'तंदुल' तथा पकाया गया चावल संस्कृत में 'ओदन' कहलाता है। [शुद्धोदन का अर्थ है जिसका पकाया गया चावल शुद्ध हो अर्थात् जो ईमानदारी से अपना भोजन कमाता हो। बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन था।] इस तरह छंद मुद्रा और ग्रंथियों के उचित तालमेल से तांडव नृत्य दिया गया है जो ब्रेन के लिये एकमात्र एक्सरसाईज है जिसका न तो भूतकाल में कोई विकल्प था और न ही भविष्य में कोई विकल्प है।
* शिव से पूर्व वैदिक काल में आयुर्वेद अर्थात् मुष्टियोग प्रचलित था, पर व्यवस्थित नहीं था। शिव ने तंत्र आधारित वैद्यकशास्त्र की रचना की और धन्वन्तरी को इसमें प्रशिक्षित कर इसके प्रचार प्रसार का कार्य सौंपा। वैदिक आयुर्वेद में सर्जीकल कार्य की कहीं भी उल्लेखनीय प्रगति नहीं है। सेंट्रल एशिया के सेक्डोनिया से ब्राह्मणों का एक दल आया जिसने इस क्षेत्र में सर्जरी का प्रचार किया। सेक्डोनिया को संस्कृत में शाकद्वीप या शाकलद्वीप कहते हैं, वर्तमान में इसका नाम ताशकंद है। चूंकि सेक्डोनियन ब्राह्मणों ने इस्लाम को अस्वीकार कर दिया था अतः उन्हें अपना घर छोड़कर समुद्री मार्ग से पश्चिम भारत आना पड़ा। वे अपने साथ लोंग और हस्तरेखा ज्ञान लाये। संस्कृत में लोंग का समानार्थी लवंग, देवकुसुम या वारिसंभव है। वारिसंभव का अर्थ है जो समुद्र के उस पार से लाया गया है। इसी प्रकार हस्तरेखा ज्ञान को सामुद्रिक शास्त्र कहा जाता है क्योंकि वह भी इन ब्राह्मणों के साथ समुद्र के उस पार से आया है।
* यहां ध्यान रखने की बात यह है कि सेक्डोनियन ब्राह्मण शिव के 6000 वर्ष बाद भारत आये जिन्होंने आयुर्वेद में सर्जरी को जोड़कर उसे उन्नत किया पर शिव ने अपने वैद्यकशास्त्र में सर्जीकल आपरेशन्स का वर्णन पहले ही दे दिया था क्योंकि वैद्यकशास्त्र और चिकित्सा विज्ञान को उन्होंने अपने कार्यकाल में ही व्यवस्थित किया था। इसी कारण भारत के मूल निवासी शवपरीक्षण और सर्जरी से पूर्व से ही परिचित थे परंतु आर्यों के भारत आगमन के बाद इन मूल निवासियों को उन्होंने अस्पृश्य माना क्योंकि वेदों में मृत देह का स्पर्श करना अस्पृश्य माना गया है।
* पौराणिक धर्म आज से 1300 वर्ष पहले प्रारंभ हुआ। जिन लोगों ने इसे स्वीकार किया उन्होंने प्रयाग में एक सम्मेलन किया जिसमें ब्राह्मणों की मान्यता संबंधी मानदंड निर्धारित किये गये। पौराणिक धर्म अपनाने वाले जिन्होंने वेदों की सर्वोत्तमता स्वीकार की, भले ही वे उनके निर्देशानुसार न चलते हों, उन्हें ब्राह्मण कहा गया। भारत के मूल निवासी जो शवपरीक्षण करते थे उन्हें ब्राह्मण नहीं माना गया भले ही वे कितने ही सदाचारी रहते हों। प्रयाग सम्मेलन में उत्तर भारत के 5 वर्गों अर्थात् पंचगौड़ी (पंजाब के सारस्वत, कश्मीर , दक्षिण रूस,
अफगानिस्तान और राजस्थान के गौड़, पश्चिम उत्तरप्रदेश और मिथिला के मैथिल और गुजरात के नागर)
और 5 वर्ग दक्षिण भारत के पंचद्रविड (उत्कल, तैलंग, द्रविड, कर्नाट और चित्पावन ब्राह्मण) को ब्राह्मण के रूप में मान्य किया गया। बंगाल के राढ़ी, वारेंद्र, केरल के नंबूदरी, कौकण के गौड़सारस्वत, मगध के क्रोंचद्वीपी, पश्चिम बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश के सरयूपारी ब्राह्मणों को इस सम्मेलन में मान्यता नहीं दी गयी। सेक्डोनियन ब्राह्मण इस सम्मेलन के बहुत बाद भारत आये, इनमें से जो ज्योतिष और आयुर्वेद जानते थे उन्हें ब्राह्मण माना गया, पर बंगाल के वैद्यकशास्त्र के जानकार यद्यपि चिकित्सा के क्षेत्र में आगे थे पर उन्हें ब्राह्मण के रूप में मान्य नहीं किया गया।
* शिव के जाने के बहुत बाद, बौद्ध और जैन दर्शन ने भारत को समेट लिया पर फिर भी शैव धर्म, भारतीय समाज में धरती के भीतर बहने वाले पानी की तरह अपना प्रभाव भीतर ही भीतर बनाये रखा। यही कारण है कि बौद्ध और जैन धर्म का वाह्य रूप लिये अभी भी बंगाल में शिव को केन्द्रित किये अनेक उत्सव मनाये जाते हैं जो भले ही शिव ने नहीं सिखाये जैसे, चरक अर्थात् चक्र- धर्मचक्र, गाजन अर्थात् गर्जन, झानयन आदि। ये सभी शिव के 5500 वर्ष बाद बुद्धोत्तर और जैनोत्तर काल में, जनसाधारण द्वारा शिव से जुड़े होने के कारण चलन में बने रहे। शैव धर्म के बाद बुद्ध और जैन धर्म का प्रभाव बढ़ा परंतु इनका दर्शनाधार घटने के कारण इसी बीच नया धर्म पौराणिक धर्म आया । अतः इस संक्रमणकाल में नयी संकल्पना लिये नये कल्ट ने बौद्ध योगाचार अर्थात् वज्रयान और पौराणिक धर्म जो शिवाचार कहलाया (भले ही वह शैव धर्म से संबंधित नहीं था) को संयुक्त करके इसे नाथ धर्म का नाम दिया जिसमें इसके प्रवक्ताओं के नाम के बाद नाथ लिखने की परंपरा बन गयी। इसका प्रभाव उत्तरप्रदेश , बिहार, बंगाल आदि में हुआ। इससे न केवल शैव, वरन् बौद्ध और जैन धर्म भी प्रभावित हुये।
*पौराणिक कल्ट में पांच उपविभाग किये गये शिवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, सौराचार, और गणपत्याचार। बौद्ध धर्म के घटने और पौराणिक धर्म के प्रभावी होने के समय महाराष्ट्र में गणपत्याचार (गणेश केन्द्रित), लगभग इसी समय बंगाल में शाक्ताचार (जिसमें पशु बलि का विधान किया गया), दक्षिण भारत में शिवाचार और वैष्णवाचार उदित हुआ। सेक्डोनियल ब्राह्मणों ने सौराचार अपनाया क्योंकि वे सूर्य को ही प्रधानता देते थे और ज्योतिष का कार्य करते थे, ये लोग जहां भी रहे सूर्य मंदिर बनवाये। सूर्य देवता अफगानियों की तरह ढीले पाजामा जैकेट पहने सिर पर टोपी और हाथ में रोजरी लिये दिखाये गये हैं।
*तत्कालीन बंगाल के राजकुमार मत्स्येन्द्रनाथ नाथ कल्ट के अनुयायी थे अतः इनके समय बौद्ध और जैन धर्म में उपरोक्त पांच उपविभागों में बहुत परिवर्तन हुये। बौद्ध और जैन धर्म के घटने और पौराणिक धर्म के बढ़ने के बीच के संधिकाल में शंकराचार्य का उद्भव हुआ जिन्होंने इन पांचों को एकीकरण करने का कार्य किया। इन्हें शिव का अवतार घोषित किया गया क्योंकि शिव के बिना उन्हें शायद महत्व कम मिलता।
* देवता: जब किसी का व्यक्तित्व और दर्शन पूर्णतः एक समान हो जाते हैं तो वह देवता हो जाता है। ‘‘द्योतते क्रीडते यस्मात् उदयते द्योतते दिवि, तस्मात् देव इति प्रोक्तः स्तूयते सर्व देवतैः।‘‘ अर्थात् ब्रह्मांड के नाभिक से उत्सर्जित होने वाले जीवन के अनंत आकार जो समग्र ब्रह्मांड में गतिशील हैं और प्रत्येक अस्तित्व के भीतर रहकर सबको प्रभावित करते हैं देवता कहलाते हैं। चूंकि शिव का आदर्श उनके जीवन से पूर्णतः एकीकृत है अतः इस परिभाषाके अनुसार उन्हें देवता कहा जाता है। परंतु शिव के व्यक्तित्व के अनुसार वह तो समग्र देवताओं के समाहार हैं अतः देवता शब्द तो उनके लिये बहुत छोटा लगता हैं, वे तो देवताओं के भी देवता हैं अर्थात् महादेव हैं।
* देवीशक्ति: जब ब्रह्मांड के नाभिक से कोई रचनात्मक तरंग उत्सर्जित होती है तो वह अपने संकोच विकासी स्वरूप के साथ विकसित होने के लिये प्रमुख रूप से दो प्रकार के बलों का सहारा लेती है।
1. चितिशक्ति 2. कालिकाशक्ति। वास्तव में पहला बल उसे आधार जिसे हम ‘‘स्पेस‘‘ कहते हैं, देता है और
दूसरा बल ‘‘टाइम‘‘ अर्थात् कालचक्र में बांधता है, इसके बाद ही उस तरंग का स्वरूप आकार पाता है। ध्यान रहे इस कालिकाशक्ति का तथाकथित कालीदेवी से कोई संबंध नहीं है, काल अर्थात् (eternal time factor)
के माध्यम से अपनी क्रियाशीलता बनाये रखने के कारण ही इसे कालिकाशक्ति नाम दिया गया है।
* शिव के साथ जुड़े तथाकथित देवी देवता पश्चात्वर्ती हैं, 7000 वर्ष पहले वे शिव के समय नहीं थे। वैदिक काल में इंद्र, अग्नि, वरुण आदि को देवता कहा गया है परंतु मूर्तियों द्वारा उनकी पूजा नहीं की जाती थी, यज्ञाहुतियों में ही आर्य उन्हें स्मरण करते थे। परमब्रह्म की भी मूर्ति के रूप में पूजा नहीं होती थी। वेद में कहा गया है ईश्वरस्य प्रतिमा नास्ति। प्रतिमा का अर्थ है ‘‘डुपलीकेट‘‘ अर्थात् मूल आकार के समान, चूंकि परमपुरुष के समान अन्य कोई है नहीं अतः उसकी मूर्ति हो ही नहीं सकती। शिव के समय अनेक कालशक्तियां स्वीकृत थीं पर मूर्तियां नहीं । शिव के बहुत बाद जैन और बौद्ध के प्रभाव में विभिन्न देवी देवताओं और उनकी मूर्तियों को बनाया जाने लगा। शिवोत्तर तंत्र में ही, मूलतः शिवतंत्र का ही रूपान्तरण बुद्ध और जैन तंत्र के प्रभाव में हुआ है।
* बुद्ध के 300 वर्ष बाद बौद्ध धर्म दो भागों में 1. महासंघम 2. स्थाविरवादी या थेरावादी में बंट गया। इसके कुछ समय बाद एक भाग और हुआ जिसे सम्मितीय कहा गया पर वह अधिक नहीं टिक पाया। महासंघिक अपने को महायानी और थेरावादी हीनयानी कहने लगे। महायानी, तिब्बत, चीन, मंगोलिया, अफगानिस्तान,
कश्मीर , नेपाल, भूटान, सिक्किम, नेफा, दक्षिणपूर्व रूस, जापान, कोरिया आदि में फैल गये, इनका साहित्य सामान्य संस्कृत में है जबकि बुद्ध ने अपने उपदेश पाली भाषा में दिये हैं। हीनयानी, श्रीलंका, चिटगांव, बंगाल, वर्मा, इंडोनेशिया, थाइलेंड, फिलीपीन आदि में फैल गये इनका साहित्य मगधी प्राकृत अर्थात् पाली में है। इसके कुछ समय बाद महायानी दो भागों में बंट गये 1.मंत्रयान 2.तंत्रयान। इसी समय लोगों की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये अनेक नये बौद्ध देवी देवताओं की रचना की गई। इसके बाद तंत्रयान भी
कालचक्रयान और वज्रयान दो भागों में बंट गया। इसके पीछे कारण यह था कि बुद्ध ने अपने दर्शन में दुखवाद को स्थान दिया, जैसे दुख है, दुख का कारण है, दुख दूर होता है, दुख से दूर होने के उपाय हैं, आदि आदि। इस
कारण से लोगों में इसमें अरुचि उत्पन्न होने लगी अतः भौतिक जगत के आकर्षण और वस्तुएं प्रदान करने वाले देवी देवताओं की कल्पना की गई और उनके पूजा की विधियां कल्पित की गईं और इस तरह, बुद्ध के शून्यवाद को अतिसुखवाद में परिवर्तित कर दिया गया और कहा गया कि वोधिसत्व अवस्था में बुद्ध आपको संसार के सभी सुखों को देंगे। बताया गया कि वोधिसत्व अवस्था आत्मसाक्षात्कार के थोड़े पहले की अवस्था है, इसे पंचबुद्धशक्तियों से जोड़ा गया और अक्षोभ्य, अमोघसिद्धि, अमिताभ, वैरोचन और ध्यानीबुद्ध नाम दिये गये। वोधिसत्व को, बुद्धत्व की ओर बढ़ता हुआ या बुद्धत्व प्राप्त व्यक्ति जिसने स्वेच्छा से वाह्य संसार से अपना संबंध बनाये रखा है, के अर्थ में प्रचारित किया गया। प्रारंभ में बुद्धशक्तियां पांच थीं परंतु समयानुसार इनकी संख्या
बढ़ती गई। भारत में उग्रतारा, चीन में भ्रामरीतारा, तिब्बत में वज्रतारा, वज्रयोगनी, वज्रवाराही आदि नामों से इन बुद्धशक्तियों को प्रचारित किया गया। बाद में इनके साथ हारिति, मारिचि, शीतला, मनहार जैसी वैदिक
देवियों को भी जोड़ दिया गया। इस तरह परस्पर अनेक देवीदेवताओं का आदान प्रदान शिवोत्तरकाल में होता रहा और लौकिक देवीदेवता जैसे मंगला चंडी, औलाइ चंडी, बानबीबी, शंकराचंडी, सुवाचनी, भी जोड़ दीगईं और भय के कारण लोग अंधश्रद्धालु होकर पूजने लगे। पौराणिक काल में भी इनमें से अधिकांश को मान्यता दे दी गई। वास्तव में शिव की फिलासफी और पर्सनालिटी एक समान थी, उनके असाधारण व्यक्तित्व, क्रियाशीलता और कार्य करने की जादुई क्षमता ने उन्हें देवों का देव महादेव बना दिया इसी कारण वे शिवोत्तर तंत्रकाल तक महादेव ही रहे, जैन और बौद्ध तंत्र काल ने इनकी मूर्ति पर अपना अपना प्रभाव डाला और नया आकार दे दिया। पौराणिक काल में इन्हें जनेऊ पहनाया गया जबकि शिव अपने काल में सर्पो की माला ही पहनते थे। स्पष्ट है कि इन कल्पित देवी देेवताओं की मान्यता नहीं हो पाती यदि उन्हें कहानियों के द्वारा शिव से संबंधित न किया जाता ।
*शिव के परिवार से संबंधित अनेक अतार्किक कहानियाॅं जोड़ी जाती रहीं हैं जबकि वास्तविकता कुछ और ही है। पार्वती को ही लें, इसके शाब्दिक अर्थ को पर्वतराज हिमालय की पुत्री के रूप में समझा जाता है जबकि क्या एक पहाड़ मानव कन्या को जन्म दे सकता है? नहीं। वास्तव में हिमालयन क्षेत्र में राज्य करने वाले आर्यन राजा दक्ष की पुत्री पार्वती थीं। आर्यों और भारत के मूल निवासियों जिन्हें आर्य लोग प्रायः अनार्य, दानव, असुर, दास,शू द्र आदि कहते थे, के बीच हमेशा झगड़े हुआ करते थे। तत्कालीन भारत के मूल निवासी आस्ट्रिको.मंगोलो.नीग्रोइड नस्ल के थे जिनकी अपनी संस्कृति थी और तंत्र विज्ञान तथा चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में ये बहुत उन्नत थे। शिव, भारत के मूल निवासी थे। शिव की प्रतिभा से प्रभावित होकर पार्वती ने उन्हें अपने पति के रूप में पाने की इच्छा की पर पिता को अनार्य से संबंध बनाना मान्य नहीं था। पार्वती ने शिव को पाने के लिये राजमहल त्यागकर जंगल में वनवासी कन्याओं की तरह पत्तों के वस्त्र पहिन कर तपस्या प्रारंभ कर दी। पत्तों को संस्कृत में पर्ण कहते हैं और वनवासिनी कन्यायें शिवरी कहलाती हैं। अतः उनका नाम पर्णशिवरी हो गया। पार्वती की तपस्या सफल होने पर शिव ने उनसे विवाह किया पर पार्वती वही पत्तों के वस्त्र पहना करतीं थीं, परंतु बाद में राज्य के सम्मानितों के अनुरोध पर उन्होंने राजसी वस्त्र स्वीकार कर लिये, इसके बाद उनका नाम अपर्णा हो गया। शिव से पार्वती का विवाह हो जाने के बाद लोगों ने सोचा था कि आर्यों और अनार्यों के संबंध सुधर जावेंगे पर यह संभव नहीं हुआ वरन् राजा दक्ष हमेशा शिव का विरोध करते और अपमान करने का अवसर ढूंडते रहते। एकबार उन्होंने यज्ञ किया जिसमें उन्होंने शिव को आमंत्रित ही नहीं किया। पार्वती यज्ञ में शिव के बिना अकेले ही पहुॅंचीं जहाॅं उन्होंने शिव का अपमान देखकर अपने आपको यज्ञ की अग्नि में जला डाला। इसके बाद से आर्यों और अनार्यों के परस्पर संबंध कुछ सुधर गये। गौरी या पार्वती का पौराणिक देवी दुर्गा से कोई संबंध नहीं है। दुर्गा मार्कंडेय पुराण की आठ और दस हाथों वाली काल्पनिक देवी हैं 1300 या 1400 वर्ष पुरानी, जबकि पार्वती मानव कन्या हैं दो हाथ वाली 7000 वर्ष पुरानी। पौराणिक काल में दुर्गा को शिव से जोड़ दिया गया अन्यथा उन्हें मान्यता कैसे मिल पाती।
* वेदों में भी दुर्गा के पूजन की कोई विधि वर्णित नहीं है । दुर्गा को वेदों की मान्यता देने के लिये देवीसूक्त की हेमवती उमा का उल्लेख किया जाता है परंतु इनका गौरी , पार्वती, दुर्गा से कोई संबंध नहीं है। कारण, समय का अंतर। लोग गलती से उस संबंध को माने हुये हैं। हाॅं शिव की एक अनार्य पत्नी जिनका नाम था कालिका या काली और अन्य मंगोलियन पत्नी जिनका नाम गंगा था, अवश्य थी। आर्यों के भारत में आने के बाद आर्यों, अनार्यों या द्रविड़ों और मंगोलियन सभ्यता के लोगों में परस्पर होने वाली लड़ाइयों को समाप्त करने के लिये शिव ने तीन विवाह किये। सच्चाई तो यह है कि विवाह और परिवार नाम की संकल्पना को शिव ने ही मूर्तरूप दिया और पुरुषों को परिवार के पालन पोषण की जिम्मेवारी दी तथा समाज में प्रथम विवाहित पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हुए, शिव के पहले यह सामाजिक नियम नहीं था। काली और गंगा के संबंध में भी अनेक कथायें प्रचलित हैं पर सत्य की पहचान करना चाहिये अतार्किक कल्पनाओं को छोड़ देना चाहिये। शिव की एक पत्नी गौरी या पार्वती से एक पुत्र भैरव, दूसरी पत्नी काली से एक पुत्री भैरवी और तीसरी पत्नी गंगा से एक पुत्र कार्तिकेय या षडानन, हुए। भैरव और भैरवी दोनों ही तंत्र विज्ञान में प्रवीण होकर प्रगति कर रहे थे जबकि कार्तिकेय भौतिक जगत में ही रुचि लेने लगे थे। शिव के द्वारा सिखाई गयी तंत्र साधना की विधि को श्मशान में प्रारंभिक अभ्यास करने हेतु जाने के समय एक बार काली को अपनी पुत्री भैरवी के संबंध में बहुत चिंता होने लगी और वह उसे देखने श्मशान में पहुंची। वहां पर शिव बहुत गंभीर ध्यान में मग्न थे। काली, श्मशान में अंधेरे में चलते हुए रास्ते में शिव से टकरा गयीं। शिव ने पूछा, कस्त्वम्? अर्थात् तुम कौन हो? काली घबराईं, पहले अपना नाम काली का ‘का‘ ही उच्चारित कर पायीं फिर भैरवी उच्चारित करने के प्रयास में बोल गयीं ‘‘का...वै...री‘‘ असम्यहम्। अर्थात् मैं कावेरी हूॅं, तब से उनका एक नाम कावेरी हो गया। गंगा को अपने पुत्र की प्रगति की बड़ी चिन्ता थी क्योंकि वह भौतिकवादी होते जा रहे थे। शिव उनकी चिन्ता दूर करने के लिये उन्हें समझाते और इसी कारण उनकी प्रत्येक बात को काली अथवा गौरी की तुलना में अधिक महत्व देते थे, इस पर लोग विनोदवश कहा करते कि शिव ने तो गंगा को अपने सिर पर बैठा रखा है। इन घटनाओं को पुराणकार ने क्रमशः काली को नग्नावस्था में शिव के ऊपर पैर रखे जीभ बाहर निकाले हुये वर्णित किया, और गंगा को नदी के रूप में शिव के जटाओं में से बहते दर्शाया है कितना आश्चर्य है। स्पष्ट है कि पौराणिककाल की काल्पनिक चार हाथों वाली देवी दुर्गा अथवा आठ हाथों वाली कालिका से शिव का कोई संबंध नहीं है।
* जब किसी के व्यक्तित्व से उसका आदर्श झलकने लगता है तो वह देवता के समान पूजनीय हो जाता है। अन्य सभी उसके आचरण के अनुयायी हो जाते हैं। शिव अपने समय के अंतिम कालखंड में देवों के देव महादेव के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। आर्य, अनार्य सभी उनकी भव्यता, सरलता और देवत्व के गुणों से भरपूर व्यक्तित्व के कारण अपने भेदभाव भूल गये और परस्पर सौहार्द से रहने लगे थे। वैदिक देवताओं के साथ आर्य भी शिव को एक देवता की तरह पूज्य मानने लगे और उन्हें वेदों में मान्यता दी गई। शिव अपने कार्यकाल में जनसामान्य के इतने निकट थे कि कोई भी छोटी बड़ी समस्या को हल करने के लिये वे हर समय उनके पास होते थे। यही कारण है कि उस समय उनका कोई बीजमंत्र नहीं था, परंतु वेद में, तंत्र में, प्रत्येक विशेष देवता को उसके बीजमंत्र से ही पूजा जाता है। अतः शिव को वेद में ‘म‘ बीज मंत्र दिया गया और स्पष्ट किया गया कि शिव रूपान्तरण के देवता हैं, ‘म‘ ट्रांस्म्युटेशन अर्थात् रूपान्तरण का बीज मंत्र है। शिव को वेदों में मान्य भले ही किया गया हो पर शिव ने वैदिक कल्ट का पालन कभी नहीं किया, वे हमेशा तांत्रिक कल्ट का ही पालन करते थे और अन्य लोगों को भी उसी अनुसार चलने के निर्देश देते थे।
4: महासम्भूति और तारक ब्रह्म
तन्त्र विज्ञान के अनुसार ब्रह्मचक्र में संचर और प्रतिसंचर घाराओं में प्रवाहित होकर जीव अपने मूलतत्व परमपुरुष में मिलकर अपना चक्र पूरा करता है जो कि सभी का लक्ष्य है परंतु प्रकृति के आकर्षण प्रभाव से अधिकांश यहीं भटकते रहते हैं और यह चक्र लगातार चलता रहता है। जो महापुरुष अपनी साधना के बल से प्रकृति के बंधनों को काटकर स्वसामर्थ्य से परम पुरुष को साक्षात् कर चुकते हैं और मनुष्यों सहित सभी जीवों
के कल्याण करने और उचित दिशा में लाने के उद्देश्य से स्वेच्छा से अपना पूर्व शरीर धारण किये रहते है और साधकों को उचित मार्गदर्शन देने का संकल्प पूरा कर स्वेच्छा से ही वापस अपने मूल में पहुंच जाते हैं उन्हें महासम्भूति कहते हैं। इनका दार्शनिक नाम तारक ब्रह्म है। इनका कार्य सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म के बीच पुल की भाॅंति होता है। मानव सभ्यता के विकास क्रम में अभी तक दो महासम्भूतियाॅं हुई हैं एक लगभग सात हजार वर्ष पूर्व भगवान सदाशिव के नाम से और दूसरी लगभग साढ़ेतीन हजार वर्ष पूर्व भगवान कृष्ण के नाम से। काल क्रम के प्रवाह में इनके संबंध में लोगों को समय समय पर अनेक विद्वानों के द्वारा अनेक प्रकार से कथाओं के माध्यम से समझाया जाता रहा है पर आज की स्थिति में वह सब इतना विकृत हो गया है कि उनके संबंध में यथार्थता को भूल कर केवल किस्से कहानियाॅं ही सुनी और सुनाई जाती हैं। इन्हीं के साथ विद्वानों ने समय समय पर अपनी ओर से भी अनेक मनगढ़ंत अवैज्ञानिक और जड़ता भाव भरी परम्परायें जोड़कर आडम्बर को प्रेरित किया है और सबको पथ भ्रमित किया है। नीचे दिये गये वैज्ञानिक और तार्किक विवरण से आप समझ जायेंगे कि ये वास्तव में क्या हैं और कथाकारों द्वारा इन्हें क्या से क्या बना दिया गया है।
4.1: भगवान सदाशिव
भगवान सदाशिव के संबंध में लोगों ने अनेक भ्रांतियां फैला रखीं हैं और समाज को किये गये उनके योगदान को बिलकुल भुला रखा है। इन्हें भोला भाला भांग धतूरा खाने वाला हमेशा नशे में रहने वाला और न जाने क्या क्या उपमाओं से आवेष्ठित कर प्रस्तुत किया गया है। आश्चर्य यह है कि इसके बाद भी उन्हें अवढरदानी और आशुतोष कहा गया है। यर्थातः आध्यात्म विज्ञान में शिव को महायोगी, महासम्भूति, तारकब्रह्म आदि उपाधियों से सम्मानित किया गया है और तन्त्रविज्ञान का जनक कहा गया है।
* भगवान शिव ने सबसे पहले यह बताया कि परमब्रह्म (cosmic entity) अपने क्रियात्मक पक्ष जिसे हम प्रकृति (nature) के नाम से जानते हैं, की सहायता से आकार देकर ब्रह्माॅंड का संपूर्ण स्रजन करता है। प्रकृति सात्विक बल(sentient force) को आधार बनाकर राजसिक(mutative force) और तामसिक (static force) बलों की मदद से दृश्य प्रपंच रचती है। यथार्थतः आधार अदृश्य सा ही रहता है केवल म्युटेटिव और स्टेटिक बलों की ही जड़ानुभूति सबको होती रहती है और द्वन्द्वों का आभास होता रहता है। जबकि इन द्वन्द्वों का अस्तित्व उस सेन्टिऐंट बल पर ही टिका रहता है। यदि इनमें असंतुलन हो जाये तो वे सब अस्तित्वहीन हो जावेंगे। प्रत्येक जड़ वस्तु चाहे वह सूर्य, और आकाशगंगायें हों या छुद्र इलेक्ट्रान सबका अस्तित्व है परंतु ये यह नहीं जानते। जबकि मनुष्य, चीटी, केंचुआ ये सब जानते हैं कि उनका अस्तित्व है। यह एग्जिस्टेंशियल फीलिंग ही वह आधार है जिस पर जीव व जगत टिका हुआ है। इसलिये ‘‘मैं हूं‘‘ इसी बोध में उस परमपुरुष की सत्ता अदृश्य रूप में रहती है। इसे समझने के लिये हम भौतिकी के बलों के त्रिभुज नियम को ले सकते हैं जो संतुलन में टंगी तस्वीर के दो छोरों पर लगी रस्सी से दो बलों को तो प्रदर्शित करता है पर तीसरा बल जो तस्वीर में से लगता हुआ संतुलन बनाये रखता है दिखाई नहीं देता जबकि तस्वीर दिखती है। यही अदृश्य सेंटिऐंट बल आधार है जो तस्वीर को टांगे रहता है।
* वे प्रारंभ से ही सार्वभैमिक सत्ता के रूप में समाज की हर समस्या का हल करने के लिये उपलब्ध रहे हैं अतः मानव सभ्यता और संस्कृति के निर्माण में उनका अतुलनीय योगदान है। वे आदिपिता हैं पर उनका कोई मातापिता नहीं है, वे स्वयंभू हैं।
* प्रारंभ में सभी जगह, चाहे वह सेंट्रल एशिया हो यूरोप या दक्षिण पूर्व एशिया, एक सी भाषा थी। इसकी जो शाखा दक्षिण पूर्व एशिया में प्रसिद्ध थी वह 'संस्कृत' कहलाती थी और उत्तरपूर्व में बोली जाने वाली 'वैदिक' कहलाती थी। वैदिक संस्कृत आर्यों के साथ आयी जबकि संस्कृत भारत के मूल निवासियों की भाषा थी। वैदिक भाषा की प्राचीनता की सही सही जानकारी किसी को नहीं है, इस भाषा का सबसे प्रचीन ग्रंथ ऋग्वेद है जो लिखित रूप में बहुत बाद में आया क्योंकि उस समय लिपि का ज्ञान नहीं था। ब्राह्मी, खरोष्टी और अन्य लिपियां 5000 से 7000 वर्ष पूर्व अस्तित्व में आईं। सारदा , नारदा , कुटिला आदि लिपियां ब्राह्मी से तथा श्रीहर्ष लिपि कुटिला से उद्भूत हुई है। यद्यपि मानव का उद्भव लाखों वर्ष पहले हो गया था पर मानव सभ्यता का प्रारंभ 15000 वर्ष पहले ही माना जाता है। ऋग्वेद 15000 वर्ष पहले से 7500 वर्ष पहले के बीच रचा गया माना जाता है। ऋग्वेद काल की समाप्ति और यजुर्वेद काल के प्रारंभ में भगवान सदाशिव का भौतिक आविर्भाव माना जाता है। इन्हीं के समय आर्य लोग उत्तर पश्चिम से भारत में आये। इस प्रकार संस्कृत और वैदिक का एक दूसरे पर प्रभाव पड़ा।
* शिव ने तंत्र को सुव्यवस्थित किया, यद्यपि गौड़ीय और कश्मीरी तन्त्र के रूप में वह पहले से अव्यवस्थित और बिखरा हुआ था। शिव का अर्थ है कल्याण, अस्तित्व का चरम बिंदु तथा 7000 वर्ष पहले धरती पर आये महासंभूति सदाशिव।
*सदाशिव ने समाज के उत्थान के लिये कार्य करते समय 5 प्रकार के भाव अपने चेहरे से प्रदर्शित किये अतः उन्हें पंचवक्त्र अर्थात् पांच मुंह वाला कहा जाता है। ये पांच भाव हैं, बीच में 'कल्याणसुन्दरम', बिल्कुल बायें 'कालाग्नि' और फिर 'वामदेव' तथा बिल्कुल दायें 'ईशान' और फिर 'दक्षिणेश्वर' । कल्याणसुंदरम अन्य सभी भावों को नियंत्रित करते हैं।
*शिव के काल में मातृसत्तात्मक सामाजिक प्रणाली समाप्ति की ओर थी और पितृसत्तात्मक प्रणाली उत्थान की ओर थी। फिर भी मातृ सम्पत्ति अधिकार की पद्धति शिव के काल से बुद्ध और महावीर जैन के काल अर्थात् 2500 वर्ष पहले तक प्रचलित रही।
* जन सामान्य पहाड़ों पर रहा करते थे और प्रत्येक पहाड़ का एक मुखिया होता था जो ऋषि कहलाता था। संस्कृत में पहाड़ को गोत्र कहते हैं अतः मुखिया गोत्र पिता के नाम से जाना जाता था इसी कारण गोत्र बताने की पृथा चली जो किसी समूह विशेष की पहचान हेतु अभी भी प्रचलन में है। शिव के काल में विभिन्न गोत्रों में अपने आप को एक दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ में लड़ाइयां होती रहती थी। जब एक समूह अर्थात् गोत्र दूसरे
को लड़ाई में जीत लेता था तो हारने वाले को वह गोत्र मानना पड़ता था। जीतने वाला गोत्र समूह हारने वाले समूह की सम्पत्ति और स्त्रियों को बल पूर्वक ले जाते थे और पुरुषों को दास बनाकर उनके गोत्र बदल दिये जाते थे जिन्हें उपगोत्र अर्थात् प्रवर कहा जाता था। विवाह के समय वर वधू को कपड़े से बांधना और महिलाओं की मांग लाल रंग से भरना वास्तव में उस काल में लड़कर जीतने और बंधक बनाने की पृथा का ही बदला रूप है। शिव ने विवाह व्यवस्था का नया रूप देकर इस प्रकार के लड़ाई झगड़े बंद कराये । वास्तव में विवाह नाम की संकल्पना शिव ही की देन है। उनके पूर्व यह पृथा नहीं थी, अतः माता को तो पहचाना जा सकता था पर पिता को नहीं । शिव ने विवाह नाम की संकल्पना को स्थापित कर समाज में इस ''विशेष व्यवस्था के अंतर्गत जीवन निर्वाह करना'' सिखाया। इसलिये वह सर्व प्रथम विवाहित पुरुष के नाम से भी जाने जाते हैं। उन्होंने परस्पर झगड़ने वाले आर्य, मंगोल और द्रविड़ों को एकीकृत करने की दृष्टि से तीनों सभ्यताओं की क्रमशः 'पार्वती', 'गंगा' और
'काली' नाम की कन्याओं से विवाह किया।
*वैदिक युग में सात प्रकार के छंदों में वार्ता और आराधना करने की पृथा थी वे गायत्री, उष्निक, त्रिष्टुप, अनुष्टुप, जगति, ब्रहति और पंक्ति के नाम से जाने जाते हैं। ऋग्वेद के तीसरे मंडल के दसवें सूक्त में परम पुरुष के लिये लिखित सावित्र ऋक गायत्रीछंद में लिखा गया है। लोग गलती से उसे गायत्री मंत्र कहते हैं।
*शिव ने निरीक्षण कर 7 प्रकार के प्राणियों में संगीत के स्वरों को जोड़ा जैसे, मोर षड़ज, बैल ऋषभ, बकरा गंधार, घोड़ा मध्यम, कोयल पंचम, गधा धैवत्य, और हाथी निषाद। इनके प्रथम अक्षर लेकर स्वर सप्तक बनाया, सा रे ग म प ध नि आदि। इस प्रकार शिव ने समाज को संगीत अर्थात् नृत्य, गीत और वाद्य दिया। उन्होंने श्वाश , प्रश्वाश पर आधारित लय के साथ मुद्रा को जोड़ा। वैदिक काल में छंद था पर मुद्रा नहीं, वैदिक ज्ञान के 6 भाग थे, छंद, कल्प, निरुक्त, ज्योतिष, व्याकरण आयुर्वेद या धनुर्वेद। उन्होंने 'महर्षि भरत' को संगीत विद्या में प्रवीण कर इच्छुक व्यक्तियों को संगीत की शिक्षा का कार्य सौंपा।
* शिव ने धर्म की अवधारणा को स्थापित किया जिसके अनुसार, नैतिकता और आध्यात्मिक अभ्यास के द्वारा परमसत्ता को पाने की ललक ही वास्तविक धर्म है।
*वेदों में किसी धर्म विशेष का उल्लेख नहीं है, उनमें विभिन्न ऋषियों की शिक्षाओं का संग्रह है अतः समय के अनुसार उनकी शिक्षाएं बदलती रही हैं। ऋग्वेद का आर्ष धर्म अर्थात् ऋषियों का कथन यजुर्वेद से भिन्न है। मंत्रों का उच्चारण और जप क्रिया भी भिन्न भिन्न है। बंगाली यजुर्वेदी तथा गुजराती ऋग्वेदीय विधियों का पालन करते हैं।
*आर्यों और अनार्यों की लड़ाई में अनार्यों को दास बनाकर उन्हें ‘ओम‘ शब्द के उच्चारण करने पर प्रतिबंध लगाया गया था। महिलायें भी ओम के स्थान पर केवल नमः कह सकतीं थीं।
* शिव ने यज्ञों में पशुओं की आहुति देने का विरोध किया और अहिंसा तथा शांति का मार्ग बतलाया जो कि ज्यो और सोसियो सेंटीमेंट (Geo and Socio- sentiment) से ऊपर था। इसे ही शैव धर्म कहा गया है। बिखरे हुये तंत्रयोग को उन्होंने एकीकृत किया और उसके व्यावहारिक पक्ष का महत्व समझाते हुये आव्जेक्टिव और सव्जेक्टिव संसार के वीच आदर्श संतुलन बनाने की व्यवस्था की। इसमें किसी भी वर्णजाति की अवहेलना नहीं की गई, शैव धर्म परमपुरुष के साथ प्रीति करने का धर्म है। इसमें कर्मकांडीय विधियों अथवा घी या प्राणियों की आहुतियों का कोई विधान नहीं है।
* असुर कोई डरावनी सूरत के 50 फीट लंबे या ‘एबनार्मल‘ नहीं थे, ये सेंट्रल एशिया के असीरिया देश के निवासी थे। ये अनार्य थे अतः आर्य इनसे घृणा करते थे। अभी भी पलामू जिले में इनकी समाज पाई जाती है। शिव ने इन्हें आरक्षण दिया और बताया कि सभी परमपुरुष की संताने हैं और सबको जीने का अधिकार है । वे सबको आदर्श जीवन जीने में सहायता करने के लिये सदा तत्पर रहते थे।
* शिव ने जीवन का कोई भी क्षेत्र अनछुआ नहीं छोड़ा, उन्होंने देखा कि जीवन श्वास की आवृत्तियों से बंधा हुआ है। ये प्रतिदिन 21000 से 25000 तक होती हैं जो व्यक्ति व्यक्ति में बदलती रहती हैं। मनुष्य की श्वास लेने की पद्धति, मन, बुद्धि और आत्मा पर प्रभाव डालती है। इडा, पिंगला, और सुषुम्ना स्वरों की पहचान और किस स्वर में किस कार्य को करना चाहिये और आसन, प्राणायाम, धारणा ,ध्यान आदि कब करना चाहिये यह सब स्वरविज्ञान या स्वरोदय कहलाता है। षिव से पहले यह किसी को ज्ञात नहीं था, बद्ध कुंभक, शून्य कुंभक आदि इसी के प्रकार हैं। उन्होंने बताया कि जब इडा सक्रिय होती है तो बायां स्वर, जब पिंगला सक्रिय होती है तो दांया स्वर और सुषुम्ना के सक्रिय होने पर दोनों नासिकाओं से स्वर चलते हैं।
* शिव ने देखा कि मनुष्य शरीर में अनेक ग्रंथियों को उचित अभ्यास कराया जावे तो उनसे निकलने वाला हारमोन न केवल शरीर को वरन् आत्मा को भी लाभ देता है। उन्होंने स्वर विज्ञान के नियमानुसार छंद और मुद्रा के साथ नृत्य करना सिखाया अतः इससे न केवल स्वयं को वरन् दर्शकों को भी लाभ पहुंचा। परंतु कुछ ऐंसे ग्लेंड होते हैं जिन्हें नृत्य मुद्रा और छंद से लाभ नहीं होता जैसे सोचना, याद करना आदि, अतः शिव ने तांडव नृत्य बनाया और पार्वती के सहयोग से महिलाओं के लिये कौषिकी नृत्य बनाया। तांडव में बहुत उछलना होता है, जब तक नर्तक जमीन से ऊपर होता है उसे अधिक लाभ मिलता है जमीन के संपर्क में आते ही यह लाभ शरीर में समा जाता है। अतः अधिक लाभ लेने के लिये अधिक देर तक जमीन से ऊपर रहना चाहिये। तांडव शब्द तंदुल अर्थात् धान से चावल निकालना, से बना है। बिना पकाया गया चावल 'तंदुल' तथा पकाया गया चावल संस्कृत में 'ओदन' कहलाता है। [शुद्धोदन का अर्थ है जिसका पकाया गया चावल शुद्ध हो अर्थात् जो ईमानदारी से अपना भोजन कमाता हो। बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन था।] इस तरह छंद मुद्रा और ग्रंथियों के उचित तालमेल से तांडव नृत्य दिया गया है जो ब्रेन के लिये एकमात्र एक्सरसाईज है जिसका न तो भूतकाल में कोई विकल्प था और न ही भविष्य में कोई विकल्प है।
* शिव से पूर्व वैदिक काल में आयुर्वेद अर्थात् मुष्टियोग प्रचलित था, पर व्यवस्थित नहीं था। शिव ने तंत्र आधारित वैद्यकशास्त्र की रचना की और धन्वन्तरी को इसमें प्रशिक्षित कर इसके प्रचार प्रसार का कार्य सौंपा। वैदिक आयुर्वेद में सर्जीकल कार्य की कहीं भी उल्लेखनीय प्रगति नहीं है। सेंट्रल एशिया के सेक्डोनिया से ब्राह्मणों का एक दल आया जिसने इस क्षेत्र में सर्जरी का प्रचार किया। सेक्डोनिया को संस्कृत में शाकद्वीप या शाकलद्वीप कहते हैं, वर्तमान में इसका नाम ताशकंद है। चूंकि सेक्डोनियन ब्राह्मणों ने इस्लाम को अस्वीकार कर दिया था अतः उन्हें अपना घर छोड़कर समुद्री मार्ग से पश्चिम भारत आना पड़ा। वे अपने साथ लोंग और हस्तरेखा ज्ञान लाये। संस्कृत में लोंग का समानार्थी लवंग, देवकुसुम या वारिसंभव है। वारिसंभव का अर्थ है जो समुद्र के उस पार से लाया गया है। इसी प्रकार हस्तरेखा ज्ञान को सामुद्रिक शास्त्र कहा जाता है क्योंकि वह भी इन ब्राह्मणों के साथ समुद्र के उस पार से आया है।
* यहां ध्यान रखने की बात यह है कि सेक्डोनियन ब्राह्मण शिव के 6000 वर्ष बाद भारत आये जिन्होंने आयुर्वेद में सर्जरी को जोड़कर उसे उन्नत किया पर शिव ने अपने वैद्यकशास्त्र में सर्जीकल आपरेशन्स का वर्णन पहले ही दे दिया था क्योंकि वैद्यकशास्त्र और चिकित्सा विज्ञान को उन्होंने अपने कार्यकाल में ही व्यवस्थित किया था। इसी कारण भारत के मूल निवासी शवपरीक्षण और सर्जरी से पूर्व से ही परिचित थे परंतु आर्यों के भारत आगमन के बाद इन मूल निवासियों को उन्होंने अस्पृश्य माना क्योंकि वेदों में मृत देह का स्पर्श करना अस्पृश्य माना गया है।
* पौराणिक धर्म आज से 1300 वर्ष पहले प्रारंभ हुआ। जिन लोगों ने इसे स्वीकार किया उन्होंने प्रयाग में एक सम्मेलन किया जिसमें ब्राह्मणों की मान्यता संबंधी मानदंड निर्धारित किये गये। पौराणिक धर्म अपनाने वाले जिन्होंने वेदों की सर्वोत्तमता स्वीकार की, भले ही वे उनके निर्देशानुसार न चलते हों, उन्हें ब्राह्मण कहा गया। भारत के मूल निवासी जो शवपरीक्षण करते थे उन्हें ब्राह्मण नहीं माना गया भले ही वे कितने ही सदाचारी रहते हों। प्रयाग सम्मेलन में उत्तर भारत के 5 वर्गों अर्थात् पंचगौड़ी (पंजाब के सारस्वत, कश्मीर , दक्षिण रूस,
अफगानिस्तान और राजस्थान के गौड़, पश्चिम उत्तरप्रदेश और मिथिला के मैथिल और गुजरात के नागर)
और 5 वर्ग दक्षिण भारत के पंचद्रविड (उत्कल, तैलंग, द्रविड, कर्नाट और चित्पावन ब्राह्मण) को ब्राह्मण के रूप में मान्य किया गया। बंगाल के राढ़ी, वारेंद्र, केरल के नंबूदरी, कौकण के गौड़सारस्वत, मगध के क्रोंचद्वीपी, पश्चिम बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश के सरयूपारी ब्राह्मणों को इस सम्मेलन में मान्यता नहीं दी गयी। सेक्डोनियन ब्राह्मण इस सम्मेलन के बहुत बाद भारत आये, इनमें से जो ज्योतिष और आयुर्वेद जानते थे उन्हें ब्राह्मण माना गया, पर बंगाल के वैद्यकशास्त्र के जानकार यद्यपि चिकित्सा के क्षेत्र में आगे थे पर उन्हें ब्राह्मण के रूप में मान्य नहीं किया गया।
* शिव के जाने के बहुत बाद, बौद्ध और जैन दर्शन ने भारत को समेट लिया पर फिर भी शैव धर्म, भारतीय समाज में धरती के भीतर बहने वाले पानी की तरह अपना प्रभाव भीतर ही भीतर बनाये रखा। यही कारण है कि बौद्ध और जैन धर्म का वाह्य रूप लिये अभी भी बंगाल में शिव को केन्द्रित किये अनेक उत्सव मनाये जाते हैं जो भले ही शिव ने नहीं सिखाये जैसे, चरक अर्थात् चक्र- धर्मचक्र, गाजन अर्थात् गर्जन, झानयन आदि। ये सभी शिव के 5500 वर्ष बाद बुद्धोत्तर और जैनोत्तर काल में, जनसाधारण द्वारा शिव से जुड़े होने के कारण चलन में बने रहे। शैव धर्म के बाद बुद्ध और जैन धर्म का प्रभाव बढ़ा परंतु इनका दर्शनाधार घटने के कारण इसी बीच नया धर्म पौराणिक धर्म आया । अतः इस संक्रमणकाल में नयी संकल्पना लिये नये कल्ट ने बौद्ध योगाचार अर्थात् वज्रयान और पौराणिक धर्म जो शिवाचार कहलाया (भले ही वह शैव धर्म से संबंधित नहीं था) को संयुक्त करके इसे नाथ धर्म का नाम दिया जिसमें इसके प्रवक्ताओं के नाम के बाद नाथ लिखने की परंपरा बन गयी। इसका प्रभाव उत्तरप्रदेश , बिहार, बंगाल आदि में हुआ। इससे न केवल शैव, वरन् बौद्ध और जैन धर्म भी प्रभावित हुये।
*पौराणिक कल्ट में पांच उपविभाग किये गये शिवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, सौराचार, और गणपत्याचार। बौद्ध धर्म के घटने और पौराणिक धर्म के प्रभावी होने के समय महाराष्ट्र में गणपत्याचार (गणेश केन्द्रित), लगभग इसी समय बंगाल में शाक्ताचार (जिसमें पशु बलि का विधान किया गया), दक्षिण भारत में शिवाचार और वैष्णवाचार उदित हुआ। सेक्डोनियल ब्राह्मणों ने सौराचार अपनाया क्योंकि वे सूर्य को ही प्रधानता देते थे और ज्योतिष का कार्य करते थे, ये लोग जहां भी रहे सूर्य मंदिर बनवाये। सूर्य देवता अफगानियों की तरह ढीले पाजामा जैकेट पहने सिर पर टोपी और हाथ में रोजरी लिये दिखाये गये हैं।
*तत्कालीन बंगाल के राजकुमार मत्स्येन्द्रनाथ नाथ कल्ट के अनुयायी थे अतः इनके समय बौद्ध और जैन धर्म में उपरोक्त पांच उपविभागों में बहुत परिवर्तन हुये। बौद्ध और जैन धर्म के घटने और पौराणिक धर्म के बढ़ने के बीच के संधिकाल में शंकराचार्य का उद्भव हुआ जिन्होंने इन पांचों को एकीकरण करने का कार्य किया। इन्हें शिव का अवतार घोषित किया गया क्योंकि शिव के बिना उन्हें शायद महत्व कम मिलता।
* देवता: जब किसी का व्यक्तित्व और दर्शन पूर्णतः एक समान हो जाते हैं तो वह देवता हो जाता है। ‘‘द्योतते क्रीडते यस्मात् उदयते द्योतते दिवि, तस्मात् देव इति प्रोक्तः स्तूयते सर्व देवतैः।‘‘ अर्थात् ब्रह्मांड के नाभिक से उत्सर्जित होने वाले जीवन के अनंत आकार जो समग्र ब्रह्मांड में गतिशील हैं और प्रत्येक अस्तित्व के भीतर रहकर सबको प्रभावित करते हैं देवता कहलाते हैं। चूंकि शिव का आदर्श उनके जीवन से पूर्णतः एकीकृत है अतः इस परिभाषाके अनुसार उन्हें देवता कहा जाता है। परंतु शिव के व्यक्तित्व के अनुसार वह तो समग्र देवताओं के समाहार हैं अतः देवता शब्द तो उनके लिये बहुत छोटा लगता हैं, वे तो देवताओं के भी देवता हैं अर्थात् महादेव हैं।
* देवीशक्ति: जब ब्रह्मांड के नाभिक से कोई रचनात्मक तरंग उत्सर्जित होती है तो वह अपने संकोच विकासी स्वरूप के साथ विकसित होने के लिये प्रमुख रूप से दो प्रकार के बलों का सहारा लेती है।
1. चितिशक्ति 2. कालिकाशक्ति। वास्तव में पहला बल उसे आधार जिसे हम ‘‘स्पेस‘‘ कहते हैं, देता है और
दूसरा बल ‘‘टाइम‘‘ अर्थात् कालचक्र में बांधता है, इसके बाद ही उस तरंग का स्वरूप आकार पाता है। ध्यान रहे इस कालिकाशक्ति का तथाकथित कालीदेवी से कोई संबंध नहीं है, काल अर्थात् (eternal time factor)
के माध्यम से अपनी क्रियाशीलता बनाये रखने के कारण ही इसे कालिकाशक्ति नाम दिया गया है।
* शिव के साथ जुड़े तथाकथित देवी देवता पश्चात्वर्ती हैं, 7000 वर्ष पहले वे शिव के समय नहीं थे। वैदिक काल में इंद्र, अग्नि, वरुण आदि को देवता कहा गया है परंतु मूर्तियों द्वारा उनकी पूजा नहीं की जाती थी, यज्ञाहुतियों में ही आर्य उन्हें स्मरण करते थे। परमब्रह्म की भी मूर्ति के रूप में पूजा नहीं होती थी। वेद में कहा गया है ईश्वरस्य प्रतिमा नास्ति। प्रतिमा का अर्थ है ‘‘डुपलीकेट‘‘ अर्थात् मूल आकार के समान, चूंकि परमपुरुष के समान अन्य कोई है नहीं अतः उसकी मूर्ति हो ही नहीं सकती। शिव के समय अनेक कालशक्तियां स्वीकृत थीं पर मूर्तियां नहीं । शिव के बहुत बाद जैन और बौद्ध के प्रभाव में विभिन्न देवी देवताओं और उनकी मूर्तियों को बनाया जाने लगा। शिवोत्तर तंत्र में ही, मूलतः शिवतंत्र का ही रूपान्तरण बुद्ध और जैन तंत्र के प्रभाव में हुआ है।
* बुद्ध के 300 वर्ष बाद बौद्ध धर्म दो भागों में 1. महासंघम 2. स्थाविरवादी या थेरावादी में बंट गया। इसके कुछ समय बाद एक भाग और हुआ जिसे सम्मितीय कहा गया पर वह अधिक नहीं टिक पाया। महासंघिक अपने को महायानी और थेरावादी हीनयानी कहने लगे। महायानी, तिब्बत, चीन, मंगोलिया, अफगानिस्तान,
कश्मीर , नेपाल, भूटान, सिक्किम, नेफा, दक्षिणपूर्व रूस, जापान, कोरिया आदि में फैल गये, इनका साहित्य सामान्य संस्कृत में है जबकि बुद्ध ने अपने उपदेश पाली भाषा में दिये हैं। हीनयानी, श्रीलंका, चिटगांव, बंगाल, वर्मा, इंडोनेशिया, थाइलेंड, फिलीपीन आदि में फैल गये इनका साहित्य मगधी प्राकृत अर्थात् पाली में है। इसके कुछ समय बाद महायानी दो भागों में बंट गये 1.मंत्रयान 2.तंत्रयान। इसी समय लोगों की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये अनेक नये बौद्ध देवी देवताओं की रचना की गई। इसके बाद तंत्रयान भी
कालचक्रयान और वज्रयान दो भागों में बंट गया। इसके पीछे कारण यह था कि बुद्ध ने अपने दर्शन में दुखवाद को स्थान दिया, जैसे दुख है, दुख का कारण है, दुख दूर होता है, दुख से दूर होने के उपाय हैं, आदि आदि। इस
कारण से लोगों में इसमें अरुचि उत्पन्न होने लगी अतः भौतिक जगत के आकर्षण और वस्तुएं प्रदान करने वाले देवी देवताओं की कल्पना की गई और उनके पूजा की विधियां कल्पित की गईं और इस तरह, बुद्ध के शून्यवाद को अतिसुखवाद में परिवर्तित कर दिया गया और कहा गया कि वोधिसत्व अवस्था में बुद्ध आपको संसार के सभी सुखों को देंगे। बताया गया कि वोधिसत्व अवस्था आत्मसाक्षात्कार के थोड़े पहले की अवस्था है, इसे पंचबुद्धशक्तियों से जोड़ा गया और अक्षोभ्य, अमोघसिद्धि, अमिताभ, वैरोचन और ध्यानीबुद्ध नाम दिये गये। वोधिसत्व को, बुद्धत्व की ओर बढ़ता हुआ या बुद्धत्व प्राप्त व्यक्ति जिसने स्वेच्छा से वाह्य संसार से अपना संबंध बनाये रखा है, के अर्थ में प्रचारित किया गया। प्रारंभ में बुद्धशक्तियां पांच थीं परंतु समयानुसार इनकी संख्या
बढ़ती गई। भारत में उग्रतारा, चीन में भ्रामरीतारा, तिब्बत में वज्रतारा, वज्रयोगनी, वज्रवाराही आदि नामों से इन बुद्धशक्तियों को प्रचारित किया गया। बाद में इनके साथ हारिति, मारिचि, शीतला, मनहार जैसी वैदिक
देवियों को भी जोड़ दिया गया। इस तरह परस्पर अनेक देवीदेवताओं का आदान प्रदान शिवोत्तरकाल में होता रहा और लौकिक देवीदेवता जैसे मंगला चंडी, औलाइ चंडी, बानबीबी, शंकराचंडी, सुवाचनी, भी जोड़ दीगईं और भय के कारण लोग अंधश्रद्धालु होकर पूजने लगे। पौराणिक काल में भी इनमें से अधिकांश को मान्यता दे दी गई। वास्तव में शिव की फिलासफी और पर्सनालिटी एक समान थी, उनके असाधारण व्यक्तित्व, क्रियाशीलता और कार्य करने की जादुई क्षमता ने उन्हें देवों का देव महादेव बना दिया इसी कारण वे शिवोत्तर तंत्रकाल तक महादेव ही रहे, जैन और बौद्ध तंत्र काल ने इनकी मूर्ति पर अपना अपना प्रभाव डाला और नया आकार दे दिया। पौराणिक काल में इन्हें जनेऊ पहनाया गया जबकि शिव अपने काल में सर्पो की माला ही पहनते थे। स्पष्ट है कि इन कल्पित देवी देेवताओं की मान्यता नहीं हो पाती यदि उन्हें कहानियों के द्वारा शिव से संबंधित न किया जाता ।
*शिव के परिवार से संबंधित अनेक अतार्किक कहानियाॅं जोड़ी जाती रहीं हैं जबकि वास्तविकता कुछ और ही है। पार्वती को ही लें, इसके शाब्दिक अर्थ को पर्वतराज हिमालय की पुत्री के रूप में समझा जाता है जबकि क्या एक पहाड़ मानव कन्या को जन्म दे सकता है? नहीं। वास्तव में हिमालयन क्षेत्र में राज्य करने वाले आर्यन राजा दक्ष की पुत्री पार्वती थीं। आर्यों और भारत के मूल निवासियों जिन्हें आर्य लोग प्रायः अनार्य, दानव, असुर, दास,शू द्र आदि कहते थे, के बीच हमेशा झगड़े हुआ करते थे। तत्कालीन भारत के मूल निवासी आस्ट्रिको.मंगोलो.नीग्रोइड नस्ल के थे जिनकी अपनी संस्कृति थी और तंत्र विज्ञान तथा चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में ये बहुत उन्नत थे। शिव, भारत के मूल निवासी थे। शिव की प्रतिभा से प्रभावित होकर पार्वती ने उन्हें अपने पति के रूप में पाने की इच्छा की पर पिता को अनार्य से संबंध बनाना मान्य नहीं था। पार्वती ने शिव को पाने के लिये राजमहल त्यागकर जंगल में वनवासी कन्याओं की तरह पत्तों के वस्त्र पहिन कर तपस्या प्रारंभ कर दी। पत्तों को संस्कृत में पर्ण कहते हैं और वनवासिनी कन्यायें शिवरी कहलाती हैं। अतः उनका नाम पर्णशिवरी हो गया। पार्वती की तपस्या सफल होने पर शिव ने उनसे विवाह किया पर पार्वती वही पत्तों के वस्त्र पहना करतीं थीं, परंतु बाद में राज्य के सम्मानितों के अनुरोध पर उन्होंने राजसी वस्त्र स्वीकार कर लिये, इसके बाद उनका नाम अपर्णा हो गया। शिव से पार्वती का विवाह हो जाने के बाद लोगों ने सोचा था कि आर्यों और अनार्यों के संबंध सुधर जावेंगे पर यह संभव नहीं हुआ वरन् राजा दक्ष हमेशा शिव का विरोध करते और अपमान करने का अवसर ढूंडते रहते। एकबार उन्होंने यज्ञ किया जिसमें उन्होंने शिव को आमंत्रित ही नहीं किया। पार्वती यज्ञ में शिव के बिना अकेले ही पहुॅंचीं जहाॅं उन्होंने शिव का अपमान देखकर अपने आपको यज्ञ की अग्नि में जला डाला। इसके बाद से आर्यों और अनार्यों के परस्पर संबंध कुछ सुधर गये। गौरी या पार्वती का पौराणिक देवी दुर्गा से कोई संबंध नहीं है। दुर्गा मार्कंडेय पुराण की आठ और दस हाथों वाली काल्पनिक देवी हैं 1300 या 1400 वर्ष पुरानी, जबकि पार्वती मानव कन्या हैं दो हाथ वाली 7000 वर्ष पुरानी। पौराणिक काल में दुर्गा को शिव से जोड़ दिया गया अन्यथा उन्हें मान्यता कैसे मिल पाती।
* वेदों में भी दुर्गा के पूजन की कोई विधि वर्णित नहीं है । दुर्गा को वेदों की मान्यता देने के लिये देवीसूक्त की हेमवती उमा का उल्लेख किया जाता है परंतु इनका गौरी , पार्वती, दुर्गा से कोई संबंध नहीं है। कारण, समय का अंतर। लोग गलती से उस संबंध को माने हुये हैं। हाॅं शिव की एक अनार्य पत्नी जिनका नाम था कालिका या काली और अन्य मंगोलियन पत्नी जिनका नाम गंगा था, अवश्य थी। आर्यों के भारत में आने के बाद आर्यों, अनार्यों या द्रविड़ों और मंगोलियन सभ्यता के लोगों में परस्पर होने वाली लड़ाइयों को समाप्त करने के लिये शिव ने तीन विवाह किये। सच्चाई तो यह है कि विवाह और परिवार नाम की संकल्पना को शिव ने ही मूर्तरूप दिया और पुरुषों को परिवार के पालन पोषण की जिम्मेवारी दी तथा समाज में प्रथम विवाहित पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हुए, शिव के पहले यह सामाजिक नियम नहीं था। काली और गंगा के संबंध में भी अनेक कथायें प्रचलित हैं पर सत्य की पहचान करना चाहिये अतार्किक कल्पनाओं को छोड़ देना चाहिये। शिव की एक पत्नी गौरी या पार्वती से एक पुत्र भैरव, दूसरी पत्नी काली से एक पुत्री भैरवी और तीसरी पत्नी गंगा से एक पुत्र कार्तिकेय या षडानन, हुए। भैरव और भैरवी दोनों ही तंत्र विज्ञान में प्रवीण होकर प्रगति कर रहे थे जबकि कार्तिकेय भौतिक जगत में ही रुचि लेने लगे थे। शिव के द्वारा सिखाई गयी तंत्र साधना की विधि को श्मशान में प्रारंभिक अभ्यास करने हेतु जाने के समय एक बार काली को अपनी पुत्री भैरवी के संबंध में बहुत चिंता होने लगी और वह उसे देखने श्मशान में पहुंची। वहां पर शिव बहुत गंभीर ध्यान में मग्न थे। काली, श्मशान में अंधेरे में चलते हुए रास्ते में शिव से टकरा गयीं। शिव ने पूछा, कस्त्वम्? अर्थात् तुम कौन हो? काली घबराईं, पहले अपना नाम काली का ‘का‘ ही उच्चारित कर पायीं फिर भैरवी उच्चारित करने के प्रयास में बोल गयीं ‘‘का...वै...री‘‘ असम्यहम्। अर्थात् मैं कावेरी हूॅं, तब से उनका एक नाम कावेरी हो गया। गंगा को अपने पुत्र की प्रगति की बड़ी चिन्ता थी क्योंकि वह भौतिकवादी होते जा रहे थे। शिव उनकी चिन्ता दूर करने के लिये उन्हें समझाते और इसी कारण उनकी प्रत्येक बात को काली अथवा गौरी की तुलना में अधिक महत्व देते थे, इस पर लोग विनोदवश कहा करते कि शिव ने तो गंगा को अपने सिर पर बैठा रखा है। इन घटनाओं को पुराणकार ने क्रमशः काली को नग्नावस्था में शिव के ऊपर पैर रखे जीभ बाहर निकाले हुये वर्णित किया, और गंगा को नदी के रूप में शिव के जटाओं में से बहते दर्शाया है कितना आश्चर्य है। स्पष्ट है कि पौराणिककाल की काल्पनिक चार हाथों वाली देवी दुर्गा अथवा आठ हाथों वाली कालिका से शिव का कोई संबंध नहीं है।
* जब किसी के व्यक्तित्व से उसका आदर्श झलकने लगता है तो वह देवता के समान पूजनीय हो जाता है। अन्य सभी उसके आचरण के अनुयायी हो जाते हैं। शिव अपने समय के अंतिम कालखंड में देवों के देव महादेव के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। आर्य, अनार्य सभी उनकी भव्यता, सरलता और देवत्व के गुणों से भरपूर व्यक्तित्व के कारण अपने भेदभाव भूल गये और परस्पर सौहार्द से रहने लगे थे। वैदिक देवताओं के साथ आर्य भी शिव को एक देवता की तरह पूज्य मानने लगे और उन्हें वेदों में मान्यता दी गई। शिव अपने कार्यकाल में जनसामान्य के इतने निकट थे कि कोई भी छोटी बड़ी समस्या को हल करने के लिये वे हर समय उनके पास होते थे। यही कारण है कि उस समय उनका कोई बीजमंत्र नहीं था, परंतु वेद में, तंत्र में, प्रत्येक विशेष देवता को उसके बीजमंत्र से ही पूजा जाता है। अतः शिव को वेद में ‘म‘ बीज मंत्र दिया गया और स्पष्ट किया गया कि शिव रूपान्तरण के देवता हैं, ‘म‘ ट्रांस्म्युटेशन अर्थात् रूपान्तरण का बीज मंत्र है। शिव को वेदों में मान्य भले ही किया गया हो पर शिव ने वैदिक कल्ट का पालन कभी नहीं किया, वे हमेशा तांत्रिक कल्ट का ही पालन करते थे और अन्य लोगों को भी उसी अनुसार चलने के निर्देश देते थे।
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