4.18
ध्यान मंत्र में शिव
ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचंद्रावतंसं
रत्नाकल्पोज्ज्वलांगम् परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्।
पद्मासीनम्समन्ताम स्तुतम् अग्रगनै: व्याघ्रकृत्तिं वसानम्
विश्वाद्यं विश्ववीजम निखिलभयहरम् पंचवक्त्रम् त्रिनेत्रम्।
शब्दार्थ - ऐसे भगवान महेश्वर का ध्यान करना चाहिये जो चांदी के पर्वत के समान चमक वाले हैं, सुन्दर चंद्रमा का मुकुट पहने हुए हैं, जिनके सभी अंग विभिन्न रत्नों की चमक वाले हैं, सदा प्रसन्न रहते हुये जो सबको वर और अभयदान के लिये आश्वस्त करते हैं, पशुओं की रक्षा के लिये जो हाथ में फरशा लिये हैं, व्याघ्रचर्म पहने, पद्मासन में बैठे हुए जिनकी सब देवता पूजा करते हैं, जो बीज और इस विराट ब्रह्माॅंड के कारण हैं और अपने पाॅंच मुखों और तीन नेत्रों से जो पूरे ब्रह्माॅड के असीमित भय को दूर करने वाले हैं।
पद वार व्याख्या
+ महेशम्- संस्कृत में नियंत्रक को ईश्वर कहते हैं। संसार के छोटे बड़े सभी मामलों में हर स्तर के नियंत्रक होते हैं जो विभिन्न अधिकारों से सम्पन्न होते हैं। पर, जो अत्यंत तेज मस्तिष्क वाला, दूरदृष्टा और सबके प्रति हृदय में असीम करुणा और स्नेह से भरा हो वह इन छोटे, मध्यम और बड़े सभी नियंत्रकों का नियंत्रण कर सकता है। शिव सबको नियंत्रित करते थे अतः उन्हें महेश्वर कहा गया है।
+ रजतगिरिनिभम्- वर्फ की तरह सफेद। रैवतक पर्वत पर जब सूर्य का प्रकाश पड़ता है तो वह जिस प्रकार चमकता है वैसे ही शिव का शरीर चाॅंदी की तरह चमकता था।
+ चारुचंद्रावतंसम्- अर्थात् सुंदर चंद्रमा जिनका मुकुट है। क्या सचमुच शिव के सिर पर चंद्रमा का मुकुट था? इस संबंध में सच्चाई को इस प्रकार समझ सकते हैं, मानव शरीर में सूक्ष्म ऊर्जा के अनेक केन्द्र और उपकेन्द्र हैं जिन्हें चक्र या पद्म कहते हैं इन चक्रों से विभिन्न प्रकार के हारमोन्स उत्सर्जित होते रहते हैं जो विभिन्न वृत्तियों को नियंत्रित करते हैं। इन वृत्तियों के नियंत्रक विंदु जिनकी संख्या 50 है वे इन 9 चक्रों में अपने अपने रंग और ध्वनि के साथ स्थित होते हैं। ये पचास ध्वनियां ही मूल स्वर और व्यंजन के रूप में हम सभी उच्चारित करते हैं। सामान्यतः उच्च स्थित चक्र से निकलने वाला हारमोन निम्न स्थित चक्रों को अपने रंग और ध्वनि से प्रभावित करता है। सर्वोच्च स्थित सहस्रार चक्र निम्न स्थित सभी चक्रों को प्रभावित कर 1000 वृत्तियों को नियंत्रित करता है। सहस्रार से निकलने वाला यह हारमोन मानव मन और हृदय को अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति कराता है जिससे आत्मिक उन्नति होती है और मनुष्य विचारमुक्त अवस्था में आ जाता है। यह दिव्य अमृत प्रत्येक व्यक्ति के सहस्रार से निकलता रहता है पर मनुष्यों का मन प्रायः भौतकवादी मामलों या वस्तुओं के चिंतन में ही उलझा रहता है इसलिये वह वहीं पर अवशोषित हो जाता है नीचे के चक्रों को प्रभावित नहीं कर पाता है। परंतु यदि इस हारमोन के उत्सर्जन के समय व्यक्ति आध्यात्मिक चिंतन में मन को लगाये रहे तो वह आध्यात्मिक उन्नति कर आनंददायी बेहोशी का अनुभव करता है और बाहर से लोग उसे देखकर समझने लगते हैं कि यह तो शराबी है। शिव हमेशा इसी उच्च अवस्था में ही रहते थे अतः अनेक लोग जो भांग, अफीम आदि का नशा किया करते थे वे प्रचारित करने लगे कि शिव भी इन नशीली चीजों का उपयोग करते हैं। अन्य लोग सोचते थे कि चंद्रमा की 16 कलाओं में से प्रतिपदा से पूर्णिमा तक प्रतिदिन एक एक दिखाई देती है पर सोलहवीं कभी नहीं और इसी से अमृत निकलता है, इसे ‘अमाकला‘ नाम भी दिया गया, इस अमृत के प्रभाव से शिव अपने आप में ही मग्न रहा करते हैं इसलिये अनेक लोगों का मत था कि यह अदृश्य सोलहवीं चंद्र कला शिव के ही मस्तक पर होना चाहिये, इसतरह चारुच्रद्रावतंसं कहा गया है। सहस्रार के इस दिव्य अमृत के उत्सर्जन से शिव अपने वाह्य जगत और अन्य आवश्यकताओं से अनजान, भोलेभाले दिखाई पड़ते थे अतः उन्हें लोग भोलानाथ भी कहने लगे थे।
+ रत्नाकल्पोज्ज्वलांगम्- क्या शिव केवल सफेद रंग के ही थे? नहीं , उनका सारा शरीर उस दिव्य अमृत के क्षरण से चमकता था और मध्यान्ह के सूर्य की भांति इस प्रकार प्रभावित करता था कि जैसे उनके शरीर से अनेक हीरे जवाहारात चमक रहे हों। न केवल चमकदार वरन् उनका शरीर कोमल और सुगंधित भी था।
+ परशु मृगवराभीतिहस्तं- दुष्टों की दुष्टता को दबाने के लिये शिव हाथ में फरसा लिये रहते थे तथा सभी मनुष्यों पौधों और पशुओं की देखभाल अपने बच्चों की तरह करते थे। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि मृग शब्द को संस्कृत के समानार्थी सामान्य पशु के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है केवल मृग अर्थात् हिरण के अर्थ में नहीं। मृग का अर्थ है कोई भी पशु , जैसे, शाखमृग का मतलब है बंदर क्योंकि वह शाखाओं पर रहता हैं, मृगचर्म का मतलब है किसी भी जंगली पशु का चर्म, मृगया का अर्थ है किसी भी जंगली पशु का शिकार करना आदि आदि। इस प्रकार सभी पशु और मानव खतरे के समय शिव की शरण में आकर सुरक्षा अनुभव करते थे और शिव भी सबको निर्भय रहने का वरदान देने की मुद्रा में रहते थे। शिव जो कि स्वयं की सुख सुविधाओं के प्रति बिलकुल उदासीन रहते थे वे किसी के आंसू नहीं देख सकते थे उसे सब सुविधायें उपलब्ध करा देते थे। चाहे वह दुष्ट ही क्यों न हो यदि उसकी आंखों में आंसू दिखते तो शिव उसके शुद्धीकरण का रास्ता बताते और वरदान भी दे देते थे।
+ प्रसन्नम्- प्रत्येक परिस्थिति में वह अपना मानसिक संतुलन बनाकर रखते थे, कितनी ही बिकट स्थिति क्यों न हो उनके चेहरे से प्रसन्नता ही झलकती थी। इतिहास में इस प्रकार का सदा हंसमुख चेहरा दुर्लभ है।
+ पद्मासीनम्समन्ताम्- शिव हमेशा पद्मासन में ही बैठा करते थे। जिस प्रकार खिले हुए कमल सदैव पानी से ऊपर रहते हैं जबकि उनके तने और जड़े कीचड़ में, उसी प्रकार पद्मासन में बैठा व्यक्ति संसार में रहते हुए भी अपने मन को बाहरी वातावरण से पूर्णतः मुक्त रख सकता है। यही कारण है कि साधना करने के लिये उचित आसन पद्मासन ही है। इस प्रकार शिव एक ओर भौतिक जगत में मानसिक संतुलन बनाये रहते थे और दूसरी ओर आत्मिक संसार में।
+ स्तुतम् अग्रगनै- यह सत्य है कि इस संसार में जो भी निर्मित हुआ है वह परिवर्तनीय और नष्ट होने के लिये है और यह भी सत्य है कि परमसत्ता के विचार स्पंदन के विस्तार, जिन्हें देवता कहते हैं वे भी ब्रह्माॅंडीय नाभिक से निकलकर दूरस्थ भविष्य के अपरिमित शून्य में भागते जा रहे हैं। इससे हम इन दिव्य किरणों या देवताओं को अमर कह सकते हैं क्योंकि वे पास आते हैं और अगणित दूर, लाखों प्रकाश वर्ष दूर चले जाते हैं। यह कहा जाता है कि ये देवता भी देवों के देव महादेव के सामने नतमस्तक रहते हैं क्योंकि यह सामान्य नियम है कि जब कोई, किसी व्यक्ति में अपने से अधिक अच्छे गुण पाता है तो वह उसे पूजने लगता हैं। शिव के सामने इन सबका तेज और दिव्यगुण बहुत निम्न स्तर का है अतः वे सब मिलकर उनकी स्तुति करते हैं। सच तो यह है कि ये सब देवता तो गुणों से बंधे हुए हैं जबकि शिव सभी बंधनों से मुक्त है अतः स्पष्ट है कि बंधन में रहने वाले बंधन मुक्त की शरण में ही जाना चाहेंगे।
+ व्याघ्रकृत्तिं वसानम्- जैन दर्शन के प्रभावी काल में कुछ अज्ञानियों ने शिव को दिगम्बर मान लिया जब कि ध्यान मंत्र में स्पष्ट है कि वे व्याघ्रचर्म पहना करते थे, इसी कारण उनका एक नाम ‘कृत्तिवास‘ भी है।
+ विश्वाद्यं विश्वबीजम - शिव को परम पुरुष मानने का कारण यह है कि उनमें परमसत्ता के सभी गुण हैं और वे हमारे विल्कुल निकट हैं अतः उन्हें परमपिता कहना न्याय संगत है। वे पुरुषोत्तम हैं, प्रथम पुरुष है, परम शिव हैं और वे विश्वाद्य अर्थात् बृह्माॅंड के उद्गम है। विश्व के उद्गम का कारण भी इन्हीं प्रथम पुरुष में है, आदिशिव ही अपने निष्कलत्व को सकलत्व में मात्र इच्छा से ही रूपान्तरित कर देते हैं। आदिशिव की इच्छा के बिना प्रकृति कोई भी रचना नहीं कर सकती। इसलिये विश्व के मूल कारण आदिशिव हैं न कि प्रकृति। ध्यान मंत्र में यह स्पष्ट कहा है कि शिव ही विश्व के बीज हैं।
+ निखिलभयहरम्- असीमित या अबाधित अस्तित्व को निखिल या अखिल कहते हैं। जीवन के अनेक क्षेत्रों में मनुष्य अनेक चीजों से डर पाल लेते हैं। पशु भी अपने शत्रुओं से डरते हैं। वर्तमान में मनुष्यों के भौतिक स्तर के भय में कमी आई है पर मानसिक स्तर में भय की बृद्धि हुई है। शिव ने मनुष्यों और पशुओं दोनों को निर्भय करने के लिये अनेक कदम उठाये। बीमारियों से निपटने हेतु चिकित्सा विज्ञान को विकसित किया, शत्रुओं से निपटने के लिये अनेक हथियार बनाये, मानसिक भय को दूर करने के लिये ज्ञान की अनेक शाखाओं को विकसित किया और आत्मिक भय को हटाने के लिये तंत्रविज्ञान को स्थापित किया। पशुओं और पौधों को सुरक्षा देना , पालना और पोषण करना भी उन्होंने सिखाया, इसी लिये उन्हें संसार के दुख/भयहर्ता के नाम सेजाना जाता है।
+ पंचवक्त्रम्- अर्थात जिसके पांच मुंह हों वह। क्या शिव के सचमुच पांच मुंह थे? नहीं , एक ही मुख से पांच प्रकार के प्रदर्शन करते थे। मुख्य मुंह बीच में , कल्याण सुंदरम। सबसे दायीं ओर का मुंह दक्षिणेश्वर । कल्याण सुंदरम और दक्षिणेश्वर के बीच में ईशान। सबसे बायीं ओर वामदेव और वामदेव तथा कल्यान्सुन्दरम के बीच
में कालाग्नि। दक्षिणेश्वर का स्वभाव मध्यम कठोर, ईशान और भी कम कठोर, कालाग्नि सबसे कठोर, परंतु कल्याणसुदरम में कठोरता बिल्कुल नहीं, वह सदा ही मुस्कुराते हैं। मानलो किसी ने कुछ गलती की, दक्षिणेश्वर कहेंगे, तुमने ऐंसा क्यों किया? इसके लिये तुम्हें दंडित किया जायेगा। ईशान कहेंगे तुम गलत क्यों कर रहे हो क्या तुम्हें इसके लिये दंडित नहीं किया जाना चाहिये? कालाग्नि कहेंगे, तुम गलत क्यों कर रहे हो ? मैं तुम्हें कठोर दंड दूंगा मैं इन गलतियों को सहन नहीं करूंगा, और क्षमा नहीं करूंगा। वामदेव कहेंगे, बड़े दुष्ट हो, मैं तुम्हें नष्ट कर दूंगा, जलाकर राख कर दूंगा। और कल्याणसुदरम हंसते हुए कहेंगे, ऐंसा मत करो तुम्हारा ही नुकसान होगा। इस प्रकार पांच तरह के भाव प्रकट करने के कारण शिव को पंचवक्त्र कहा जाता है।
+ त्रिनेत्रम्- मनुष्यों का अचेतन मन सभी गुणों और ज्ञान का भंडार है। अपनी अपनी क्षमता के अनुसार लोग जागृत या स्वप्न की अवस्था में इस अपार ज्ञान का कुछ भाग अचेतन से अवचेतन में और उससे भी कम अवचेतन से चेतन मन तक ला पाते हैं। परंतु व्यक्ति सभी असीमित ज्ञान को अचेतन मन से अवचेतन या चेतन मन में नहीं ला सकते हैं। यदि कोई ऐंसा कर सकता है तो इस क्रिया को ‘‘ज्ञान को ज्ञाननेत्र से देखना‘‘ कहते हैं। यह ज्ञाननेत्र तृतीय नेत्र के नाम से जाना जाता है। शिव अनन्त ज्ञान के भंडार थे अतः कहा जाता है कि उनका ज्ञान नेत्र बहुत ही विकसित था। वे त्रिकालदर्शी थे अतः ध्यान मंत्र में त्रिनेत्रम् कहा गया है।
4.19
प्रणाम मंत्र में शिव
नमस्तुभ्यं विरुपाक्ष नमस्ते दिव्य चक्षुसे, नमः पिनाक हस्ताय वज्रहस्ताय वै नमः,
नमः त्रिशूल हस्ताय दंडपाशासिपानये, नमस्त्रैलोक्यनाथाय भूतानाम पतयेनमः,
नमः शिवाय शांताय कारणत्रयहेतबे, निवेदयामि चात्मानम् त्वमगतिः परमेश्वरा ।
शब्दार्थ - दिव्यदृष्टि वाले विरूपाक्ष तुम्हें प्रणाम, पिनाक और बज्र को हाथ में धारण करने वाले तुम्हें प्रणाम, त्रिशूल रस्सी और दंड को धारण करने वाले तुम्हें प्रणाम, सभी प्राणियों/भूतों के स्वामी और तीनों लोेकों के स्वामी तुम्हें प्रणाम, तीनों लोकों के आदिकारण शांत शिव को प्रणाम, परम प्रभो! मेरी यात्रा के अंतिम बिंदु और लक्ष्य मैं अपने आप को आपके समक्ष समर्पित करता हॅूं।
+ शब्द ' विरूपाक्ष' के दो अर्थ हैं, एक तो वह जिसके नेत्र विरूप अर्थात् अप्रसन्न या क्रोधित हों, दूसरा यह कि जो प्रत्येक को विशेष मधुर और कल्याणकारी द्रष्टि से, दयालुता से देखता हो। पापियों के लिये शिव, विरूपाक्ष पहले रूप में और सद्गुणियों के लिये दूसरे अर्थ में लेते थे।
+' दिव्यचक्षु ' का अर्थ है जिसके पास प्रत्येक वस्तु के भीतर छिपे मूल कारण को देख सकने की दिव्य दृष्टि है, अर्थात् वर्तमान भूत और भविष्य को देख सकने वाला।
+' पिनाक' अर्थात् जो डमरु को बजा कर सभी प्राणियों के शरीर मन और आत्मा को कंपित कर देता हो वह सदाशिव हैं। दुष्टों को दंडित करने और अच्छे लोगों की रक्षा के लिये हमेशा , हर युग में हथियार बनाये जाते रहे हैं शिव ने भी सब की भलाई के लिये भयंकर वज्र धारण किया। इसलिये वे वज्रधर ही नहीं शुभवज्रधर कहलाते हैं + 'त्रिशूल' से शिव शत्रुओं को तीन ओर से छेदित करते थे, शिव इसे हाथमें लिये रहते थे इसलिये वे शूलपाणि कहलाते हैं। पापियों के हृदय में भय पैदा करने और बांधने के लिये, जिससे कि वे पाप से दूर रहें और भले लोगों को शांति से रहने दें, शिव, दंड और रस्सी लिये रहते थे।
+ 'त्रैलोक्यनाथ', शिव तीनों लोकों के जीवन प्रवाह को नियंत्रित, पालित, पोषित करने के कारण त्रैलोक्यनाथ और इस पृथ्वी के सभी जीवधारियों की प्रकृति को भलीभांति जानते हैं अतः वे भूतनाथ कहलाते हैं। संगीत विद्या के विद्यार्थियों के लिये वह प्रमथनाथ हैं। चूॅंकि शिव अपने भीतर और बाहर पूर्ण नियंत्रित रहते थे अतः वे शान्त कहलाते हैं। इस शांत पुरुष के पास सब पर नियंत्रित करने की शक्ति है इसलिये कहा गया है ‘नमः शिवाय शान्ताय‘।
+ जड़, सूक्ष्म और कारण संसार के मूलकारण घटक को चितिशक्ति कहते हैं। ये शिव और चितिशक्ति एक ही हैं। इसीलिये उन्हें ‘कारणस्त्रयहेतबे‘ कहा गया है। उस परम सत्ता को, जिसने अपने मधुर और प्रभावी प्रकाश से सभी निर्मित और अनिर्मित को भीतर बाहर से प्रकाशित कर रखा है, सभी प्रणाम करते हैं और समर्पित रहते हैं। वही सबके अंतिम लक्ष्य होते हैं, अतः कहा गया है ‘निवेदयामि च आत्मानम् त्वम गतिः परमेश्वरा ‘। हे परमेश्वर ! मैं अपने आपको आपके समक्ष समर्पित करता हूॅ क्योंकि आप ही मेरे परम आश्रय हैं। हे शिव, हे परम पुरुष, अनाथों के अंतिम आश्रय, थकेमांदों के अंतिम आश्रयस्थल, मैं अपने अस्तित्व की सभी भावनायें आपके चरणों में समर्पित करता हूूॅं। आपके अलावा मेरा कुछ नहीं ,आपके बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं।
It is wonderful explanation with real knowledge, every one should know the reality about Lord Shiva.
ReplyDelete🙏🏻🙏🏻🙏🏻व्याघ्रकृत्तिमवसानम् का पद विच्छेद कैसे होगा ?
ReplyDeleteव्याघ्रकृत्तिं वसानम्
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