Sunday 31 May 2020

318 सबसे बड़ा गुण


सम्पन्नता और राजसी ठाटबाट में पले बढ़े ठाकुर वीरविक्रम सिंह को नौकरी की आवश्यकता ही नहीं थी पर शौक पूरा करने के लिए राज्य सेवा में चयनित हो अधिकारी बन गए। पहली पोस्ंिटग में ही उन्हें महिला बाॅस के आधीन कार्य करना पड़ा जो उनकी शान के खिलाफ था पर किसी प्रकार काम चलने लगा। अपनी आदतों के अनुसार ठाकुर साहब कार्यालयीन भृत्यों को ही नहीं बाबुओं को भी अपने घरेलु नौकरों की तरह आदेश दिया करते, महिला अधिकारी को भी वह तुच्छ समझते। प्रारंभ में सभी कर्मचारी यह सोच कर कि नये नये अधिकारी हैं आगे सब ठीक हो जाएगा काम करते रहे। पर, जब कई माह निकलने के बाद भी स्थिति वही बनी रही तब एक दिन किसी भृत्य ने उन्हें उन्हीं की स्टाइल में जबाब दे दिया। अब क्या था ठाकुर साहब ने उसे दो तीन थप्पड़ जड़ दिए। उनकी वरिष्ठ महिला अधिकारी के द्वारा बीच बचाव करने के बावजूद भी यूनियनबाजी, नारेबाजी और अंततः पुलिस प्रकरण बन गया। पुलिस ने भी ठाकुर साहब की पोजीशन भांपकर मामला विभागीय मानकर विभाग के संचालक को भेज दिया। संचालक ने महिला अधिकारी से पुलिस की रिपोर्ट पर टिप्पणी चाही।
महिला ने ठाकुर साहब को बुलाकर समझाया कि गलती आपकी है, आपने सरकारी सेवा के आचरण नियमों का उल्लंघन किया है। आपकी नई नई नौकरी है इसलिए मैं नहीं चाहती कि आपको कोई दंड मिले अतः सुझाव देती हॅूं कि आप लम्बी छुट्टी पर चले जाएं। उनके लम्बी छुट्टी पर चले जाने से कार्यालय में यथावत कार्य चलने लगा। लोग सोचते थे कि प्रभावशाली परिवार के होने से शायद वह अपना ट्रांस्फर करा लें।
घर पर ठाकुर साहब की बड़ी बहिन अपने बच्चों सहित आई हुई थी। एक दिन फोर्थ स्टेंडर्ड के छात्र उनके भानजे ने कहा,
‘‘मामा! मैंने हिन्दी का यह लेसन तो पढ़ लिया है, एक क्वेश्चन को छोड़ सभी के आन्सर बन गए हैं, क्या आप मुझे इसका आन्सर सर्च करने में हेल्प कर सकेंगे?’’
‘‘ क्या क्वेश्चन है बताना?’’ ठाकुर साहब बोले।
‘‘ वह कौन सी चीज है जो स्वयं तो मुफ्त में मिलती है पर उससे सभी कुछ खरीदा जा सकता है?’’
ठाकुर साहब सोच में पड़ गए, बोले जरा बताओ देखूं लेसन क्या है? और पूरा पाठ पढ़ डाला। उन्होंने भानजे को प्रश्न का उत्तर लिखवाया,
‘‘विनम्रता मुफ्त में मिलती है, पर उससे सभी कुछ खरीदा जा सकता है।’’
 और, सब छुट्टियां केंसिल कर अगले ही दिन वे अपनी ड्युटी ज्वाइन करने चल पड़े।


Thursday 28 May 2020

317 जय हो


आचार्य शंकर (788-820) से एक विद्वान ने पूछा,
‘‘आचार्य! मोक्ष को अनुभव करने का सर्वोत्तम उपाय क्या है?’’
‘‘ सर्वेषां मोक्ष साधनानाम् भक्तिरेव गरीयसी’’ आचार्य ने कहा।
(अर्थत् मोक्ष पाने के लिए जितने भी उपाय हैं उनमें सबसे श्रेष्ठ उपाय है भक्ति पा लेना)
‘‘ तो भक्ति कैसे पाई जाती है?’’ विद्वान ने फिर पूछा।
आचार्य बोले, ‘‘ज्ञानपूर्वक कर्म करने से ही भक्ति प्राप्त हो सकती है।’’
‘‘ तो क्या जो विद्वान लच्छेपुच्छेदार भाषा में तत्वज्ञान पर व्याख्यान देते हैं, शास्त्रार्थ कर अपनी कीर्तिपताका लहराते हैं, वे मोक्ष का अनुभव प्राप्त कर चुके होते हैं?’’ विद्वान ने फिर प्रश्न किया। (ध्यान रहे आचार्य शंकर देश भर में शास्त्रार्थ कर अपने को अजेय घोषित कर चुके थे।)
आचार्य बोले
‘‘ वाग्बैखरी शब्दझरी, शास्त्र व्याख्यान कौशलम्। वैदुष्यम् विदुषां तद्वद् भुक्तये न तु मुक्तये।।’’
(अर्थात् तत्वज्ञान संबंधी शास्त्रों पर लच्छेपुच्छेदार भाषा में व्याख्यान देने की कुशलता, केवल शास्त्रार्थ करने और दूसरों पर अपना प्रभाव जमाकर प्रतिष्ठा दिलाने तक सीमित होती है; यह तो बंधन में बांधने के लिए ही होती है इससे मुक्ति की आशा करना व्यर्थ है।)
‘‘जगद्गुरु शंकराचार्य की जय हो, जय हो’’ कहता हुआ वह विद्वान उन्हें साष्टांग दण्डवत प्रणाम करने लगा।

Sunday 24 May 2020

316 ‘विवाह’ और ‘मेरिज’


‘विवाह’ को अंग्रेजी के ‘मेरिज’ शब्द के समतुल्य रखा जाना भ्रामक है। धार्मिक विवाह की संकल्पना  भगवान शिव के कार्यकाल में इसलिये लाई गई थी कि पति और पत्नी मिलकर आदर्श संतान को जन्म दें और आदर्श समाज की स्थापना करें। जबकि मेरिज का अर्थ  किसी पुरुष और नारी का धर्म अथवा न्यायालय द्वारा मान्यता प्राप्त एक साथ जीने का अधिकार है। 
परंतु विवाह, मेरिज से बहुत कुछ अधिक है; यथार्थतः विवाह पुरुष और स्त्री के बीच की आजीवन वचनबद्धता है जिसमें:-
-दोनों  परमपुरुष के नाम पर व्रत लेते हैं कि दोनों एक दूसरे के भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिये प्रयत्नशील रहेंगे।
-दोनों अपने वंश के कल्याण के लिये सब कुछ बलिदान करने के लिये तैयार रहेंगे।
-दोनों को समान अधिकार प्राप्त होंगे और दोनों एक ही धरातल पर रहेंगे। यह तथ्य किसी भी धर्म में नहीं बताया गया है परंतु शिव ने सबसे पहले यही निर्धारित किया था, जो अतुल्य है।
-पुरुष का 90 प्रतिशत उत्तरदायित्व परिवार के पालन पोषण और वंश को आर्थिक मदद करने का होगा।
स्त्री का प्रारंभिक कार्य बच्चों के पालन पोषण और प्रेम से उनकी देखरेख करने का होगा परंतु शेष बचे समय में परिवार की आय बढ़ाने के लिये सहयोग करेगी।
-पुरुष को ‘‘भर्ता‘‘ नाम दिया गया है क्योंकि वही अपनी पत्नी और परिवार का आर्थिक रूप से भरण पोषण करता है। तथा स्त्री को  ‘ कल़त्र ‘ नाम दिया गया है जिसका अर्थ है, कि वह अपने भर्ता और संतान के साथ अपने कर्तव्यों का इस प्रकार पालन करेगी कि बच्चों को किसी भी प्रकार की कठिनाई न हो। अतः विवाह इस विशेष व्यवस्था के अंतर्गत जीवन यापन करने की पद्धति है।


Friday 15 May 2020

315 दुष्ट और सज्जन


प्रश्न1- यदि दुष्ट व्यक्ति के पास विद्या(अर्थात् कौशल), धन और शक्ति हो तो वह इनका क्या करेगा?
उत्तर- दुष्ट व्यक्ति अपनी विद्या को विवाद में, धन को घमंड बढ़ाने में और शक्ति को दूसरों को कष्ट देने में प्रयुक्त करेगा।
प्रश्न2-यदि सज्जन व्यक्ति के पास विद्या(कौशल), धन और शक्ति हो तो वह इनका क्या करेगा?
उत्तर- सज्जन व्यक्ति अपनी विद्या को ज्ञानवर्धन में, धन को जरूरतमंदों की सहायता करने में, और शक्ति दूसरों की रक्षा करने में प्रयुक्त करेगा। 
इस संबंध में एक सुभाषित इस प्रकार है-
‘‘विद्या विवादाय, धनं मदाय, शक्तिः जनानां परिपीड़नाय।
खलस्य साधो विपरीतमस्ति, ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।।’’

Wednesday 13 May 2020

314 शुष्क ज्ञानी समाज के लिये बोझ क्यों हैं?

शुष्क ज्ञानी समाज के लिये बोझ क्यों हैं?
समाज के अनेक धर्मों में शुष्क विद्वानों अर्थात् कथावाचकों का बड़ा सम्मान होता है । परन्तु वे सचमुच उस सम्मान के पात्र नहीं होते। कारण यह है कि वे जनसामान्य को, उस ज्ञान को समझने की व्यावहारिक विधियों को नहीं सिखा पाते। इस प्रकार के भक्तिविहीन ज्ञानी अपनी ही विशेषताओं को स्थापित करते देखे गये हैं। यही कारण है कि सत्य का अनुसंधान करने के स्थान पर वे अपनी ही प्रतिष्ठा की स्थापना और पूजा किये जाने पर अधिक ध्यान देते हैं। इस प्रकार के कोई भी दो ज्ञानी आपस में किसी विचार पर या बिन्दु पर सहमत नहीं होते वरन् अपनी कही गई बातों को दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करने में लगे रहते हैं। उनकी इस मानसिक स्थिति के कारण वे किसी भी विचाराधीन प्रकरण की तह तक नहीं पहुंच पाते और न ही सत्यता की खोज करने में सफल हो पाते हैं। उनका उद्देश्य केवल अपने को समाज का विशिष्ट प्राणी सिद्ध करने और उनके अपने विचार ही सर्वश्रेष्ठ हैं, यह स्थापित करने का होता है। 
अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये वे तथ्यों को उलट सकते हैं और गलत को सही और सही को गलत सिद्ध कर सकते हैं। उनके इस कार्य से लाखों लोग भ्रमित होते हैं जिससे समाज विभक्त होता है और इससे युद्ध होते भी देखे गये हैं। इसलिये, जिन्होंने प्रचुर ज्ञान भंडार तो प्राप्त कर लिया है परन्तु उनमें भक्ति और सेवापरायण मानसिकता का लेश मात्र भी नहीं है वे शुष्क ज्ञानियों की श्रेणी में आते हैं। यही कारण है कि अवसर मिलने पर वे अपनी महानता स्थापित करने के लिये समाज को अपूर्णीय क्षति पहुंचाते हैं। 
अब प्रश्न उठता है कि साधारण और सरल हृदय के लोग क्या करें , किस पर विश्वास करें और जिसे भक्ति कहा जाता है उसे किस प्रकार प्राप्त करें? इसका उत्तर यह है कि उन्हें इस प्रकार से सुने अथवा पढ़े गये तथ्यों और सिद्धान्तों को तर्क, विज्ञान और विवेक का उपयोग कर ही ग्रहण करना चाहिए तथा व्यावहारिक पक्ष पर ईमानदारी से चलना प्रारंभ कर देना चाहिए। ज्ञानपूर्वक कर्म करने से ही भक्ति उत्पन्न होती है, अंधानुकरण करते हुए चंदन लगाने या गेरुए वस्त्र पहिनने से नहीं। भक्ति के उत्पन्न होते ही यदि सावधानी नहीं रखी गई तो शुष्क ज्ञानियों की तरह अहंकार भी घेरने लगता है इसलिये बार बार यह भावना दृढ़ करते जाना चाहिये कि जो भी अनुभूतियाॅं अथवा ज्ञान प्राप्त हो रहा है वह परमपुरुष का ही है उस पर मेरा कोई अधिकार नहीं है। इससे अहंकार नहीं पनपेगा और परमपुरुष की महानता का आभास होता रहेगा।
यह संसार परमपुरुष की विचार तरंगों से निर्मित है अतः कोई भी संरचना व्यर्थ नहीं है। हर छोटे बड़े अस्तित्व में विशेषज्ञता भरी हुई है, हमें उसकी इस विशेषता से सीख लेकर व्यावहारिक बनना चाहिए। 
बुद्धिमान व्यष्टि वे ही हैं जो ‘‘बोधि’’ अर्थात् ‘इन्ट्यूशन’ को जगाने की कोशिश करते हैं । जो परमात्मा को पाने की कोशिश करते हैं,  वे ‘इन्टेलेक्ट’ अर्थात् ज्ञान की बन्ध्या-चर्चा नहीं करते हैं । जन-कल्याण के लिए लोग ज्ञान की चर्चा करें, मगर ‘इन्टेलेक्ट’ के लिये जो ‘इन्टेलेक्चुअल’ चर्चा करते हैं, वह चर्चा बन्ध्या-चर्चा कहलाती है, बाँझ चर्चा से कुछ फल मिलनेवाला नहीं है । बुद्धिमान व्यष्टि अवश्य ही साधक बनेंगे, और असाधक वही हैं जो निर्बोध हैं। जो अधिक बुद्धिमान हैं, वे अल्प-उम्र में ही साधना-मार्ग को अपना लेते हैं। 

Saturday 9 May 2020

313 सहज नैतिकता और आध्यात्मिक नैतिकता

वर्तमान युग में मिथ्या अर्थात् असत्य को ही सत्य के रूप में चलाये जाने का नियम सा बन गया है जो चालाक बुद्धि के बिना सम्भव नहीं है। जैसे, दंड से बचने के लिए ‘चोर’ पुलिस के सामने और न्यायालय में चालाक बुद्धि का सहारा लेता है इसी से असत्य का संसार निर्मित होता है। इसलिए आध्यात्मिक पथ पर चलने की इच्छा रखने वाले आध्यात्मिकता को अच्छी तरह समझने बाद ही नैतिकवादी हो सकते हैं। सहज नैतिकता और आध्यात्मिक नैतिकता के बीच का अन्तर महाभारत के कुछ चरित्रों के उदाहरणों से स्पष्ट हो सकता है। जैसे,
 (1) भीष्म और कर्ण, दोनों ही तत्कालीन प्रचलित सहज नैतिकता के धनी थे और अजेय योद्धा थे परन्तु इसी सहजनैतिकता का लाभ कुटिल बुद्धि दुर्योधन ने लिया। भीष्म और कर्ण,  दोनों ही जानते थे कि दुर्योधन अधार्मिक आचरण करता है फिर भी वे युद्ध में उसके साथ थे । यहाॅं उनके मन में सहज नैतिकता का आधार वाक्य यह था कि उन्होंने ‘दुर्योधन का नमक खाया है’। यदि वे आध्यात्मिक नैतिकता का आश्रय लिये होते तो कह सकते थे कि दुर्योधन ! तुम्हारा नमक खाया है इसलिए सुझाव दे रहा हूॅ कि धर्म के रास्ते पर चलो अन्यथा, हम तुम्हारा साथ छोड़ देंगे। कर्ण सहजनैतिकता के प्रभाव से अपने आशीर्वादी कवच और कृंडल भी दान में दे बैठे जबकि वह जानते थे कि यह विप्र कवच और कुण्डल  नहीं उनकी मृत्यु माॅंगने आया है । यदि वे आध्यात्मिक नैतिकता का सहारा लेते तो कह सकते थे कि अभी तो मैं युद्ध में जा रहा हॅूं लौट कर आऊॅंगा तब ले जाना। 
(2) अर्जुन ने प्रतिज्ञा की ‘कि जयद्रथ को सूर्यास्त के पहले नहीं मारा तो आत्मदाह कर लूॅंगा’ । सूर्यास्त हो गया अतः तत्कालीन प्रचलित सहजनैतिकता के कारण आत्मदाह की चिता पर बैठे अर्जुन को देखने के लिए सभी नागरिक एकत्रित हो गए, इतना तक कि स्वयं जयद्रथ भी निर्भय होकर सामने आ गया। चूॅंकि कृष्ण चाहते थे पाप का अन्त और धर्म की संस्थापना अतः आध्यात्मिक नैतिकता आधारित उन्होंने अपनी इच्छा से सूर्य को काले बादल से इस प्रकार ढंक दिया कि लगने लगा सचमुच सूर्यास्त हो गया और ज्योंही जयद्रथ अर्जुन के सामने आया कृष्ण की ही इच्छा से बादल हटा और जयद्रथ का भी अन्त हो गया । 
(3) गाॅंधारी का चरित्र सहज और आध्यात्मिक नैतिकता के बीच संतुलन बनाता है। जब उन्हें पता चला कि उनका होने वाला पति जन्माॅंध है तो उन्होंने सहज नैतिकता में आकर तत्काल अपनी आँखों पर भी पट्टी यह कहते हुए बाॅंध ली कि जब मेरा पति नहीं देख सकता तो मैं इस संसार को अपनी आँखों  से क्यों देखूॅं , परन्तु युद्ध में जाते हुए अपने पुत्रों को  विजय का आशीर्वाद न देकर आध्यात्मिक नैतिकता का पालन करते हुए यह कहा ‘‘ यतो कृष्णः ततो धर्मः, यतो धर्मः ततो जयः ’ अर्थात् जहाॅं कृष्ण हैं वहाॅं धर्म है और जहाॅं धर्म है वहीं विजय है। 
(4) गाॅंधारी के नैतिक बल का एक और उदाहरण उल्लेखनीय है। नैतिक बल की दृढ, इस महिला ने अपनी  आँखों की पट्टी जीवन में केवल दो बार ही खोली, एक बार अपने पति के कहने पर युद्ध में पुत्रों को विजयी होने का आशीर्वाद देने के लिये जिसकी अभी चर्चा हो चुकी । और, दूसरी बार कृष्ण को देखने के लिए; युद्ध समाप्त होने पर युद्धस्थल पर वह मृत पड़े अपने सौ पुत्रों के पास अपनी सभी विधवा पुत्रवधुओं साथ शोक प्रकट कर रही थी। पाॅंडवों के साथ कृष्ण ने उनके पास जाकर कहा, ‘‘ माँ ! आप क्यों रो रही हैं, यह तो प्रकृति का नियम है, सभी एक दिन यहाॅं से चले जाएंगे , अतः रोना क्यों? ’’ गाॅंधारी ने कहा, ‘‘ कृष्ण ! तुम व्यर्थ सान्त्वना क्यों दे रहे हो? यह तुम्हें शोभा नहीं देता ।‘‘ कृष्ण ने पूछा क्यों?  वह बोली, ‘‘तुम यदि न चाहते तो मेरे पुत्रों का नाश नहीं होता’’ । कृष्ण ने कहा , ‘‘धर्म की रक्षा और पाप का विनाश करने के लिए यह अनिवार्य हो गया था’’ । वह फिर बोलीं, ‘‘ लेकिन तुम तो तारकब्रह्म हो, अगर चाहते तो अवश्य ही बिना युद्ध किए मेरे पुत्रों के मनोभावों में परिवर्तन कर सकते थे।’’ इस पर कृष्ण चुप रह गए। तो, यह है नैतिक बल का प्रभाव। वास्तव में यह संभव था कि यदि कृष्ण सोचते कि दुर्योधन के मन में परिवर्तन हो जाए, तो हो जाता। परन्तु वह तो जगत के सामने एक दृष्टान्त स्थापित करना चाहते थे कि लोग इस युद्ध से यह शिक्षा ग्रहण करें कि " पाप का पतन अवश्यम्भावी है।"   कृष्ण, गाॅंधारी के नैतिक बल को महत्व देना चाहते थे अतः बहुत कुछ कहने को होते हुए भी चुप रह गए।
इन उदाहरणों से हमें कृष्ण के चरित्र से यह शिक्षा लेना चाहिए कि यदि कोई व्यक्ति अन्याय, अत्याचार कर रहा है तो किसी भी परिस्थिति में इसे नहीं स्वीकारें ; उन दुर्नीति परायण लोगों के विरूद्ध संग्राम करना ही होगा, परन्तु यदि कोई व्यक्ति यथार्थ नीतिवादी है, धार्मिक है तो उसके सामने नतमस्तक हो जाने में अपना सम्मान ही बढ़ेगा, इसमें कोई बुराई नहीं है। वर्तमान युग तो कपटनीति का है, चुनाव के समय सैकड़ों प्रतिज्ञाएं की जाती हैं, चुनाव जीतने के बाद सब भूल जाते हैं। दैनिक उपभोग की हों या व्यावसायिक सभी के उत्पादन पर जो लागत होती है उसका अनेक गुना लाभ लेने और जनसामान्य के हितों की अनदेखी करना आज के व्यवसायियों का मूल मंत्र है। अनेक शोधकर्ता विद्वान यह मानते हैं कि महाभारत युद्ध होने के पीछे एक कारण यह भी था कि व्यापारियों ने युद्ध सामग्री को बड़े पैमाने पर निर्मित और आयात करने में अपनी अधिकाॅंश पूॅंजी लगा ली थी अतः यदि युद्ध न होता तो वे कंगाल हो जाते। आध्यात्मिक नैतिकता का पालन करने वालों को एकजुट होकर, कृष्ण के बताए अनुसार इनके विरुद्ध धर्मयुद्ध छेड़े बिना मानव जीवन दूभर होता जाएगा।

Tuesday 5 May 2020

312 छोटे बच्चों की शिक्षा

छोटे बच्चों की शिक्षा
बच्चों को सृष्टि और इस जगत की उत्पत्ति के संबंध में इस प्रकार समझाया जाना चाहिये कि उनके मन पर अनावश्यक काल्पनिकता का बोझा न लद जाये। परमपुरुष ने सृष्टि को क्यों रचा ? इसके लिये उनसे कहा जा सकता है कि परमपुरुष बिलकुल अकेले थे, अन्य कोई नहीं था, स्वभावतः उन्हें किसी साथी की आवश्यकता हुई जिसके साथ वह खेल सकें। सच भी है कौन चाहेगा सदा ही अकेला रहना? हम सभी अपने परिवार और मित्रों को अपने आस पास ही रखना चाहते हैं तभी हमें आनन्द मिलता है। इसी प्रकार परमपुरुष भी किसी को अपने साथ में चाहते थे जिसके साथ वे हॅंस सकें , खेल सकें। परंतु था तो कुछ नहीं इसलिये वह कुछ रचना चाहते थे जिससे वे अकेले न रहें। यदि तुम कोई खिलौना बनाना चाहो तो कुछ पदार्थ चाहिये होगे कि नहीं? जैसे, प्लास्टिक, लकड़ी, कागज, धातु ,रबर आदि जिससे तुम अपने मन पसंद खिलौने को बना सकते हो। परमपुरुष तो अकेले थे निर्माण करने के लिये कोई पदार्थ नहीं था इसलिये उन्होंने अपने मन का कुछ भाग एक ओर रख कर उससे वाॅंछित पदार्थ पाया और रचना करने लगे जिसे "संचर" कहा जाता है।
जब वह पदार्थ तैयार हो गया तो उन्होंने पौधे और जन्तुओं को बनाया, छोटे बड़े पक्षी ,कुत्ते , बंदर चिंपांजी और अंत में मनुष्य। इस संरचना में उन्होंने सभी को मन दिया कुछ में अधिक उन्नत और किसी किसी का कम उन्नत, परंतु सभी उनके सार्वभौमिक परिवार के अभिन्न अंग हैं। इस प्रकार उनका अकेलापन दूर हो गया । जड़ पदार्थों से मनुष्य के निर्माण करने की पद्धति "प्रतिसंचर" कहलााती है। इस तरह परमपुरुष ही सबके पिता हैं वे सभी को अपने प्रेम और आकर्षण से अपनी ओर वापस बुला रहे हैं। अपने दिव्य आकर्षण से वह प्रत्येक को खींच रहे हैं। इस ब्रह्माॅंड की यह प्राकृतिक कार्य प्रणाली है।
बच्चे जब इस प्रकार से स्पष्ट रूप से यह जानेंगे  कि वे कौन हैं और कहाॅं से आये हैं तो निश्चय ही वे अनुभव करेंगे कि वे सब परमपुरुष की ही संताने हैं, उन्हीं की बेटे बेटियाॅं हैं । इस प्रकार की धारणा उनके मन में बन जाने पर वे अपने जीवन में पूर्ण आत्मविश्वास भर कर कार्य कर सकेंगे। वे अपने लक्ष्य को स्पष्टतः समझेंगे और उसे पाने के लिये यहाॅं वहाॅं नहीं भटकेंगे, वे यह सदा ही अनुभव करते रहेंगे कि परमपुरुष उन्हें लगातार देख रहे हैं। वे इस विश्व को समझ सकेंगे कि यह सब विभिन्न रचनायें, उन्हीं के आकार और प्रकार हैं और वे सब परमपुरुष केन्द्रित विश्व में ही रहते हैं। इस प्रकार वे दूसरों के साथ में अपने संबंधों को भी पसंद करेंगे क्योंकि स्वाभाविक रूपसे वे परमपुरुष को पिता और संसार की छोटी बड़ी सभी रचनाओं और अस्तित्वों को  अपने परिवार का हिस्सा मानेंगे। इसलिये वे सभी पेड़ पौधों और प्राणियों के साथ अपना मधुर व्यवहार बनायेंगे। इस प्रकार वे धर्म के रास्ते पर सरलता से बढ़ते जायेंगे। एक महत्वपूर्ण बात उनके मन में बस जायेगी वह यह कि हम परमपुरुष से आये हैं और उनके पास ही लौटकर जाना है इसके लिये साधना करना घर वापस लौटने की प्रक्रिया है उसे अवश्य करना चाहिये।