शुष्क ज्ञानी समाज के लिये बोझ क्यों हैं?
समाज के अनेक धर्मों में शुष्क विद्वानों अर्थात् कथावाचकों का बड़ा सम्मान होता है । परन्तु वे सचमुच उस सम्मान के पात्र नहीं होते। कारण यह है कि वे जनसामान्य को, उस ज्ञान को समझने की व्यावहारिक विधियों को नहीं सिखा पाते। इस प्रकार के भक्तिविहीन ज्ञानी अपनी ही विशेषताओं को स्थापित करते देखे गये हैं। यही कारण है कि सत्य का अनुसंधान करने के स्थान पर वे अपनी ही प्रतिष्ठा की स्थापना और पूजा किये जाने पर अधिक ध्यान देते हैं। इस प्रकार के कोई भी दो ज्ञानी आपस में किसी विचार पर या बिन्दु पर सहमत नहीं होते वरन् अपनी कही गई बातों को दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करने में लगे रहते हैं। उनकी इस मानसिक स्थिति के कारण वे किसी भी विचाराधीन प्रकरण की तह तक नहीं पहुंच पाते और न ही सत्यता की खोज करने में सफल हो पाते हैं। उनका उद्देश्य केवल अपने को समाज का विशिष्ट प्राणी सिद्ध करने और उनके अपने विचार ही सर्वश्रेष्ठ हैं, यह स्थापित करने का होता है।
अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये वे तथ्यों को उलट सकते हैं और गलत को सही और सही को गलत सिद्ध कर सकते हैं। उनके इस कार्य से लाखों लोग भ्रमित होते हैं जिससे समाज विभक्त होता है और इससे युद्ध होते भी देखे गये हैं। इसलिये, जिन्होंने प्रचुर ज्ञान भंडार तो प्राप्त कर लिया है परन्तु उनमें भक्ति और सेवापरायण मानसिकता का लेश मात्र भी नहीं है वे शुष्क ज्ञानियों की श्रेणी में आते हैं। यही कारण है कि अवसर मिलने पर वे अपनी महानता स्थापित करने के लिये समाज को अपूर्णीय क्षति पहुंचाते हैं।
अब प्रश्न उठता है कि साधारण और सरल हृदय के लोग क्या करें , किस पर विश्वास करें और जिसे भक्ति कहा जाता है उसे किस प्रकार प्राप्त करें? इसका उत्तर यह है कि उन्हें इस प्रकार से सुने अथवा पढ़े गये तथ्यों और सिद्धान्तों को तर्क, विज्ञान और विवेक का उपयोग कर ही ग्रहण करना चाहिए तथा व्यावहारिक पक्ष पर ईमानदारी से चलना प्रारंभ कर देना चाहिए। ज्ञानपूर्वक कर्म करने से ही भक्ति उत्पन्न होती है, अंधानुकरण करते हुए चंदन लगाने या गेरुए वस्त्र पहिनने से नहीं। भक्ति के उत्पन्न होते ही यदि सावधानी नहीं रखी गई तो शुष्क ज्ञानियों की तरह अहंकार भी घेरने लगता है इसलिये बार बार यह भावना दृढ़ करते जाना चाहिये कि जो भी अनुभूतियाॅं अथवा ज्ञान प्राप्त हो रहा है वह परमपुरुष का ही है उस पर मेरा कोई अधिकार नहीं है। इससे अहंकार नहीं पनपेगा और परमपुरुष की महानता का आभास होता रहेगा।
यह संसार परमपुरुष की विचार तरंगों से निर्मित है अतः कोई भी संरचना व्यर्थ नहीं है। हर छोटे बड़े अस्तित्व में विशेषज्ञता भरी हुई है, हमें उसकी इस विशेषता से सीख लेकर व्यावहारिक बनना चाहिए।
बुद्धिमान व्यष्टि वे ही हैं जो ‘‘बोधि’’ अर्थात् ‘इन्ट्यूशन’ को जगाने की कोशिश करते हैं । जो परमात्मा को पाने की कोशिश करते हैं, वे ‘इन्टेलेक्ट’ अर्थात् ज्ञान की बन्ध्या-चर्चा नहीं करते हैं । जन-कल्याण के लिए लोग ज्ञान की चर्चा करें, मगर ‘इन्टेलेक्ट’ के लिये जो ‘इन्टेलेक्चुअल’ चर्चा करते हैं, वह चर्चा बन्ध्या-चर्चा कहलाती है, बाँझ चर्चा से कुछ फल मिलनेवाला नहीं है । बुद्धिमान व्यष्टि अवश्य ही साधक बनेंगे, और असाधक वही हैं जो निर्बोध हैं। जो अधिक बुद्धिमान हैं, वे अल्प-उम्र में ही साधना-मार्ग को अपना लेते हैं।
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