‘विवाह’ को अंग्रेजी के ‘मेरिज’ शब्द के समतुल्य रखा जाना भ्रामक है। धार्मिक विवाह की संकल्पना भगवान शिव के कार्यकाल में इसलिये लाई गई थी कि पति और पत्नी मिलकर आदर्श संतान को जन्म दें और आदर्श समाज की स्थापना करें। जबकि मेरिज का अर्थ किसी पुरुष और नारी का धर्म अथवा न्यायालय द्वारा मान्यता प्राप्त एक साथ जीने का अधिकार है।
परंतु विवाह, मेरिज से बहुत कुछ अधिक है; यथार्थतः विवाह पुरुष और स्त्री के बीच की आजीवन वचनबद्धता है जिसमें:-
-दोनों परमपुरुष के नाम पर व्रत लेते हैं कि दोनों एक दूसरे के भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिये प्रयत्नशील रहेंगे।
-दोनों अपने वंश के कल्याण के लिये सब कुछ बलिदान करने के लिये तैयार रहेंगे।
-दोनों को समान अधिकार प्राप्त होंगे और दोनों एक ही धरातल पर रहेंगे। यह तथ्य किसी भी धर्म में नहीं बताया गया है परंतु शिव ने सबसे पहले यही निर्धारित किया था, जो अतुल्य है।
-पुरुष का 90 प्रतिशत उत्तरदायित्व परिवार के पालन पोषण और वंश को आर्थिक मदद करने का होगा।
स्त्री का प्रारंभिक कार्य बच्चों के पालन पोषण और प्रेम से उनकी देखरेख करने का होगा परंतु शेष बचे समय में परिवार की आय बढ़ाने के लिये सहयोग करेगी।
-पुरुष को ‘‘भर्ता‘‘ नाम दिया गया है क्योंकि वही अपनी पत्नी और परिवार का आर्थिक रूप से भरण पोषण करता है। तथा स्त्री को ‘ कल़त्र ‘ नाम दिया गया है जिसका अर्थ है, कि वह अपने भर्ता और संतान के साथ अपने कर्तव्यों का इस प्रकार पालन करेगी कि बच्चों को किसी भी प्रकार की कठिनाई न हो। अतः विवाह इस विशेष व्यवस्था के अंतर्गत जीवन यापन करने की पद्धति है।
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