आचार्य शंकर (788-820) से एक विद्वान ने पूछा,
‘‘आचार्य! मोक्ष को अनुभव करने का सर्वोत्तम उपाय क्या है?’’
‘‘ सर्वेषां मोक्ष साधनानाम् भक्तिरेव गरीयसी’’ आचार्य ने कहा।
(अर्थत् मोक्ष पाने के लिए जितने भी उपाय हैं उनमें सबसे श्रेष्ठ उपाय है भक्ति पा लेना)
‘‘ तो भक्ति कैसे पाई जाती है?’’ विद्वान ने फिर पूछा।
आचार्य बोले, ‘‘ज्ञानपूर्वक कर्म करने से ही भक्ति प्राप्त हो सकती है।’’
‘‘ तो क्या जो विद्वान लच्छेपुच्छेदार भाषा में तत्वज्ञान पर व्याख्यान देते हैं, शास्त्रार्थ कर अपनी कीर्तिपताका लहराते हैं, वे मोक्ष का अनुभव प्राप्त कर चुके होते हैं?’’ विद्वान ने फिर प्रश्न किया। (ध्यान रहे आचार्य शंकर देश भर में शास्त्रार्थ कर अपने को अजेय घोषित कर चुके थे।)
आचार्य बोले
‘‘ वाग्बैखरी शब्दझरी, शास्त्र व्याख्यान कौशलम्। वैदुष्यम् विदुषां तद्वद् भुक्तये न तु मुक्तये।।’’
(अर्थात् तत्वज्ञान संबंधी शास्त्रों पर लच्छेपुच्छेदार भाषा में व्याख्यान देने की कुशलता, केवल शास्त्रार्थ करने और दूसरों पर अपना प्रभाव जमाकर प्रतिष्ठा दिलाने तक सीमित होती है; यह तो बंधन में बांधने के लिए ही होती है इससे मुक्ति की आशा करना व्यर्थ है।)
‘‘जगद्गुरु शंकराचार्य की जय हो, जय हो’’ कहता हुआ वह विद्वान उन्हें साष्टांग दण्डवत प्रणाम करने लगा।
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