Monday 23 April 2018

190 किस रास्ते पर चलें?


190 किस रास्ते पर चलें?

प्रकृति के आधीन रहकर तदनुसार अपना कार्य व्यवहार करने वाले जीवधारी जब, क्रमशः प्रगति की धारा में आगे बढ़ते हुए मनुष्य स्तर तक आ जाते हैं तब, वे मन प्रधान होने के कारण अपने बुद्धि और विवेक का प्रयोग करने लगते हैं और प्रकृति के बंधनों से छूटने का उपाय ढॅूंड़ने लगते हैं। इस तरह जितने प्रकार के मन उतनी ही प्रकार की विचारधाराएं सामने आती हैं और वह निर्णय नहीं कर पाता कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। इस समस्या का  निराकरण करने के लिए महाभारत में एक दृष्टान्त दिया गया है; यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा, ‘‘कः पंथा?’’ अर्थात् रास्ता कौन सा उचित है? युधिष्ठिर ने मनुष्य मात्र की मनःस्थिति को दर्शाते हुए अपना विचार इस प्रकार प्रस्तुत कियाः-
‘‘श्रुतियो विभिन्ना स्मृतियो विभिन्ना, नैको मुनिर्यस्य मतम् न भिन्नम्।
धर्मस्य तत्वम् निहितम् गुहायां , महाजनो येन गतः स पन्था।’’
अर्थात् , ‘‘श्रुतियाॅं (वेद) एक नहीं चार चार हैं और सभी अलग अलग बातें करते हैं, स्मृतियाॅं (धर्मशास्त्र) एक नहीं अठारह हैं वे भी अलग अलग निर्देश देते हैं, इतना ही नहीं एक भी मुनि (विद्वान) ऐसा नहीं है जिसका मत दूसरे मुनि से भिन्न न हो। इस स्थिति में मन का भ्रमित हो जाना स्वाभाविक है परन्तु मेरे विचार से धर्मतत्व तो हमारे ‘‘मैं पन’’ के पीछे हृदय की गहराई में छिपा होता है इसलिए महाजन (जिन्होंने धर्मतत्व का व्यावहारिक अनुभव किया है ) जिस रास्ते पर चलकर अपने लक्ष्य को पा लिए हैं वही रास्ता उचित है।’’

इस युग में भी सबकी यही समस्या है परन्तु सच्चे व्यावहारिक ज्ञान के मार्गदर्शक न मिलने के कारण सभी अपनी अपनी ढपली और अपना अपना राग अलाप रहे हैं , उसी को सर्वश्रेष्ठ बता कर दम्भ प्रकट कर रहे हैं और जनसामान्य को भ्रमित कर रहे हैं। मूलतः सभी का लक्ष्य है परमपुरुष को पाना परन्तु इसका चिंतन और चर्चा न कर भौतिक वस्तुओें और सुख साधनों को पाने का लालच देकर अतार्किक, अवैज्ञानिक और अविवेकपूर्ण सिद्धान्तों केा प्रचार प्रसार किया जा रहा है। आइए हम सब, अब तक के सभी महाजनों के मतों पर तार्किक चिन्तन करें और देखें कि किसका आधार वैज्ञानिक है ताकि विवेकपूर्ण चयन  कर अपने लक्ष्य को पाने का प्रयास कर सकें।
वैदिक साहित्य की प्राचीनता पर शोध करनेवाले विद्वानों के अनुसार आज से सात हजार वर्ष पूर्व भगवान ‘सदाशिव’ ने बिखरे हुए तन्त्र विज्ञान को एकीकृत किया और नए सिरे से पूर्णतः वैज्ञानिक आधार पर ‘शैव’ पद्धति से आत्मसाक्षात्कार करना सिखाया जो आज से 3500 वर्ष पूर्व आए महासम्भूति ‘कृष्ण’ के काल तक आते आते फिर से बिखरने लगा जिसे कृष्ण ने फिर से व्यवस्थित कर कर्मयोग पर आधारित ‘वैष्णव तन्त्र ’ स्थापित किया। शैवतन्त्र को आधार बनाकर वैष्णवतन्त्र ने व्यापक महत्व और प्रसार पाया परन्तु 2500 वर्ष पूर्व आए भगवान ‘महावीर’ (497-425 या 599-527 बीसीई0) के ‘जैन मत’ और इन्हीं के समकालीन भगवान ‘गौतम बुद्ध’ (563-480 या 483-400 बीसीई0)के  ‘बौद्ध मत’ के प्रभाव से इसमें अनेक परिवर्तन हुए और अवैज्ञानिक, अव्यावहारिक पद्धतियों का समावेश होने लगा। 2000 वर्ष पूर्व आए ‘जीसस क्राइस्ट’ (04-30/33 बीसी0) के ‘ईसाई मत’ ने ‘‘प्रेम  और सेवा’’ की बात करते हुए स्वर्ग नर्क जैसी अवधारणा कल्पित की और इसे स्थायी मान्यता प्राप्त हो सके, उन्होंने  अपने को ईश्वर का पुत्र घोषित कर दिया। इसी का 1500 वर्ष पूर्व आए ‘मोहम्मद पैगम्बर’(570-632 ई0) के ‘इस्लाम मत’ ने भी समर्थन किया और अपने को ईश्वर का दूत घोषित कर ‘‘अल्लाह एक है’’ की विचारधारा को ही मानने के लिए अपने अनुयायियों के साथ छल, बलपूर्वक जन सामान्य को अपने मत की ओर घसीटने लगे। धीरे धीरे विश्व के सभी मतों में स्वर्ग और नर्क की कल्पना ने लोगों को भयग्रस्त कर दिया और फिर ईश्वर को दंडाधिकारी की तरह प्रस्तुत किया गया। इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि सभी ईश्वर की सन्तान हैं और वह सबके पिता हैं, परमपिता हैं। सोचिए, यदि वह हमारे परमपिता हैं तो निश्चय ही हमें प्यार करते हैं इसलिए केवल दंडाधिकारी की तरह होंगे यह किसी भी प्रकार मान्य नहीं किया जा सकता। अवश्य ही, वह हमारे सबसे प्रिय और निकटतम संबंधी हैं जिन्हें जानना, पहचानना और मिलना हमारा लक्ष्य है तो वह हमें स्वर्ग के आकर्षण और नर्क के भय को दिखाकर हमसे पृथक नहीं रह सकते। इसी प्रकार जैन मत में शैव मत के आठ भागों में से ‘पाँच  यमों’ में से केवल  ’अहिंसा और ‘पाॅंच नियमों’ में से केवल ‘तप’ पर विशेष जोर देकर ‘जियो और जीने दो’ को लक्ष्य वक्य बनाकर शेष को छोड़ दिया गया और तन्त्र को अव्यावहारिक बना दिया गया। बौद्ध मत में शैव और वैष्णव तन्त्र के अष्टाॅंग योग के कुछ अंशों को लिया गया और उसे दुखवाद से प्रेरित कर जनसामान्य की रसमयता पर गहरा आधात पहुॅंचाया गया जबकि ‘ईश्वर’ के होने या न होने बारे में कुछ कहा ही नहीं गया । 
इस प्रकार हम देखते हैं कि जीवन की सच्चाई को जानने, समझने और अनुभव करने के लिए आध्यात्मविज्ञान के पुरोधा ऋषियों ने अपने अनुभवों के आधार पर अष्टाॅंगयोग की विधि को प्रतिपादित कर मनुष्यों को नयी दिशा  दी थी पर कालक्रम में अनेक विद्वानों ने अपने अपने मत और संप्रदायों की अहंकार भरी भावनाओं से उस विधि में अनेक विकृतियाॅं कर डाली और सरलता लाने के प्रयास में खंड खंड में विभाजित कर उसे अप्रभावी कर डाला। कुछ विद्वानों ने वामाचार और कुछ ने दक्षिणाचार को अपनाया।  लक्ष्य हो या नहीं अंधकार के विरुद्ध संघर्ष करता जाऊॅंगा और अंत में माया नष्ट कर सिद्धि लाभ करूॅंगा इस भावना को वामाचार कहते हैं, इसमें साधक को विपत्ति में पड़ने और अधोगति में जाने की सम्भावना होती है क्योंकि वामाचारी साधक अपनी अर्जित शक्तियों का दुरुपयोग करने लगता है और पशुत्व  की ओर गति कर बैठता है। दक्षिणाचार में साधक प्रकृति से अनुनय विनय कर प्रकृति को वश  में करना चाहते हैं। वे कहते हें कि हे प्रकृति! तुम अपना अॅंधकार समेट लो और मेरे लिये मार्ग बना दो। इस प्रकार क्या किसी की खुशामद से मुक्ति पाई जा सकती है? खुशामद भीरु का लक्षण है। शक्तिशाली  व्यक्ति, भीरु की खुशामद से प्रसन्न हो कुछ सुविधा दे सकता है पर पूरी स्वाधीनता नहीं दे सकता ।  इन विधियों के दोषों को दूर करने के लिये आया मध्यमाचार। इसके अनुसार विद्या की सहायता से संघर्ष करते हुए अविद्या को हरा कर, विद्या और अविद्या दोनों को त्याग कर ब्रह्म की चरमावस्था में स्थित होना पड़ता है। 
 परन्तु मूलतः ‘शैव’ मतानुयायी, कालक्रम के प्रभाव से जैन और बौद्ध के प्रभाव में आते जा रहे थे। जैन तन्त्र की अव्यावहारिकता और बौद्ध तन्त्र की दुखवादिता से जनसामान्य अपने जीवन की रसमयता को खोता जा रहा था । आठवीं सदी के अन्त में आचार्य शंकर (788-820 ) का आविर्भाव हुआ जिन्होंने तत्कालीन प्रचलित और अपने अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने पर तुले सभी मतों को उनसे शास्त्रार्थ करने के लिए चुनौती दी ताकि जो भी शास्त्रार्थ में जीतेगा वही मतवाद श्रेष्ठ मानकर उसी के अनुसार सभी आचरण करेंगे। परन्तु ईसाई, इस्लाम और जैन मतावलम्बी शास्त्रार्थ करने आगे ही नहीं आए और बौद्ध शास्त्रार्थ में पराजित हो गए। आचार्य शंकर ने  ‘‘अद्वैतवाद‘‘ का प्रवर्तन किया तथा शैव, जैन और बौद्ध तन्त्र के बीच समन्वय स्थापित करने के लिए नया ‘पौराणिक कल्ट’ स्थापित किया जिसमें पौराणिक कथाओं के आधार पर मानव जीवन के चौसठ  प्रकार के अभिव्यक्तिकरण को मान्यता दी। इनमें जैन, और बौद्ध तन्त्र की मान्य देवी देवताओं जैसे अम्बिका, तारा, वाराही और दस महाविद्याएं, आदि को स्थान दिया और उन्हें योगिनियों का नाम देकर तीनों तन्त्रों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया । यह चौसठ  योगिनियाॅं ‘शिव‘ की शक्ति अर्थात् पत्नियों के रूप में स्वीकृत की गई। यहाॅं सोचने की बात यह है कि अद्वैतवाद के प्रवर्तक और अगाध  ज्ञान के सागर इन आचार्य श्री ने काल्पनिक देवी देवताओं को मान्यता देकर एकीकरण के लिये पूरे देश के अलग अलग कोनों में चार मठ स्थापित किये! और , कालान्तर में पौराणिक कल्ट के अनुयायी, आचार्य शंकर को ‘शंकराचार्य‘ नाम देकर अद्वैतवाद के मूल मत को ही भूल गए। समन्वय के इस आधार पर उन्होंने मुख्यतः इन पद्धतियों को  मान्यता दी है:-
 (1) शैवाचार (2) शाक्ताचार (3) वैष्णवाचार (4) गणपत्याचार (5) सौराचार।

शैवाचार का लक्ष्य शिवसमाधि अर्थात् आत्मसाक्षात्कार है, इसमें बाहरी वृत्तियों को आन्तरिक करते हुए अंत में परमात्मा में मिलाने का अभ्यास किया जाता है। ‘‘यच्छेद्वांग्मनसो प्रज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महती नियच्छेद् तद्यच्छेद्छान्तात्मनि"। अर्थात् मन को बाहरी सभी अकर्षणों से भीतर खींचकर अहं तत्व में फिर अहं तत्व को महत तत्व में और महत तत्व को आत्म तत्व में मिला देना चाहिये। इसका अभ्यास विभिन्न स्तरों पर आत्मसाक्षात्कारी गुरु अपनी देखरेख में कराते हैं। विद्यातन्त्र, कुंडलनी योग , योग विज्ञान, स्वरविज्ञान और नाद विज्ञान इसी के अन्तर्गत आते हैं।
शाक्ताचार के अनुसार तामसिक शक्ति को भवानी या कालिका शक्ति में मिलना चाहिए जिसका बीजमंत्र ‘‘सम्‘‘ है, इसमें से राजसिक शक्ति को निकालकर भैरवीशक्ति में मिलाना चाहिये जिसका बीज मंत्र है ‘‘शम्‘‘। इससे सात्विक शक्ति को खींचकर कौषिकीशक्ति में मिला देना चाहिये। पौराणिक शाक्ताचार के ये क्रमागत पद हैं जिन पर चलकर साधक लाभ पाता है। यहाँ  कालिकाशक्ति का आशय दार्शनिक  अर्थात् ‘टाइम और स्पेस’ से संबंधित है, शिव की पत्नी काली अथवा बौद्ध और शिवोत्तर तंत्र की कालिकाशक्ति से इसका कोई संबंध नहीं। परन्तु पश्चतवर्ती विद्वानों ने लोलुपतावश इसे पशुबलि आदि से जोड़कर प्रकृतिपूजा और अविद्यातन्त्र की ओर मोड़ दिया है।
वैष्णवाचार में विश्व  की सभी वस्तुओं में विष्णु को व्याप्त मानकर उपासना की जाती है, ‘विस्तारः सर्वभूतस्यविष्नोरविष्वमिदम जगत्, द्रष्टव्यमआत्मवत् तस्माद्भेदेन विचक्षनैः। अर्थात् यह विस्त्रित द्रश्य अदृश्य प्रपञ्च  सभी कुछ विष्णु ही है अतः स्वयं सहित सभी में उनको अनुभव करने का अभ्यास करना चाहिये। पौराणिक काल्पनिक कथाओं के द्वारा इसी सिद्धान्त को लोक शिक्षा के लिए सरल ढंग से समझाने का प्रयास किया गया है परन्तु वह सब कर्मकान्ड ने चपेट लिया है और लोगों को पथभ्रमित कर दिया है।
गणपत्याचार में प्राचीनकाल के समूह नेतृत्व वाले गणपति को चुनकर समूह के स्थान पर विश्व  के नेता का भाव दिया गया और इन्हें ही परमपुरुष के रूपमें उपासना हेतु कहा गया है। परंतु आजकल इन्हें काल्पनिक आकार प्रकार देकर आडम्बर फैलाया जाता है।
सौराचार मूलतः सूर्य की उपासना से संबंधित है जो दक्षिण रूस के सेक्डोनिया से आये ब्राह्मणों की उपासना पद्धति है। सेक्डोनियन ब्राह्मण वेद या अन्य कोई पद्धति नहीं मानते थे वे केवल ज्योतिष और आयुर्वेद को ही मान्यता देते थे । उनके सूर्य ही उपास्य देवता थे क्योंकि वे मानते थे कि सूर्य से ही पृथ्वी, चंद्र और अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई है अतः विश्व  के नियन्ता सूर्य ही हैं। यह मत सीमित क्षेत्रों में ही माना गया है । 

इस प्रकार इन पौराणिक मान्यताओं को व्यापक प्रसार नहीं मिल पाया क्योंकि इसके कुछ भागों को दार्शनिक  मान्यता थी और कुछ को नहीं। यह विवरण प्रकट करता है कि विद्यातन्त्र और उपनिषदों में वर्णित अद्वितीय, निष्कल, सच्चिदानन्दघनसत्ता परमपुरुष , को पाने के उपायों को तथ्यों सहित शैवाचार के अलावा कोई भी पद्धति , पूर्णतः सम्मिलित नहीं कर पाती वरन् एक दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयासों में आडम्बर और परस्पर वैमनस्यता को ही बढ़ावा देती है। बीसवीं सदी में आए महासम्भूति श्री श्री आनन्दमूर्ति (1921- 1990) ने इन सभी दर्शनों की अव्यावहारिक बातों को अलग कर शेष को पुनः एकीकृत कर ‘‘नव्यमानवतावाद’’ आधारित ‘‘प्रउत दर्शन’’ (प्रगतिशील उपयोगी तत्व) दिया जिसमें अष्टाॅंग योग के सिद्धान्तों को ‘‘शिव’’ के द्वारा स्थापित मूल विद्यातन्त्र के आधार पर व्यावहारिक बनाया गया है। शंकराचार्य के ‘‘ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या’’ को उन्होंने संशेधित कर कहा ‘‘ब्रह्म सत्यम् जगदपिसत्यमापेक्षिकम्।’’ अर्थात् ब्रह्म सत्य है और यह जगत भी सापेक्षिक सत्य है। इस तन्त्र के मर्मज्ञ अपने व्यावहारिक ज्ञान को इस प्रकार समझाते हैं, ‘‘उत्तमो ब्रह्म सद्भावो, मध्यो ध्यान धारणा । अधमो स्तुति अर्चना चा मूर्तिपूजाधमोधमा।’’ अर्थात् सर्वोत्तम है ब्रह्म सद्भाव, मध्यम है ध्यान धारणा, निम्न है स्तुति अर्चना और निम्नतम है मूर्तिपूजा।
अब आप युधिष्ठिर के बताए अनुसार इन पद्धतियों में से अपने रुचिकर रास्ते का तर्क, विज्ञान और विवेक से चयन कर सकते हैं।

Monday 16 April 2018

189 नैतिकता

189 नैतिकता

जो कुछ जैसा है वैसा ही प्रकट करना ‘यथार्थता ’ के अन्तर्गत  आता है, संस्कृत में इसके लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द है ‘‘ऋत’’ । इसे निर्पेक्ष सत्य  (absolute truth) कहा जाता है। आध्यात्मिक रूप से ‘परमपुरुष’ अर्थात् (supreme entity) ही निर्पेक्ष सत्य के अन्तर्गत आते हैं। यह प्रकृति उन परमपुरुष की ही क्रियात्मक शक्ति है जिससे निर्मित यह ‘स्पेस, टाइम’ और समस्त ब्रह्माण्डीय पिंड सापेक्षिक सत्य (relative truth) कहलाते हैं क्योंकि ये सब स्थायी नहीं हैं। जगत के अस्थायी होने के आधार पर अनेक विद्वान इसे मिथ्या कहते रहे हैं। ‘‘ सापेक्षिक सत्य ’’ को पारिभाषित करने के लिये यह कहा गया है कि ‘‘परहितार्थं वांगमनासो यर्थातत्वम् सत्यम्।’’ अर्थात् कल्याण की भावना लेकर प्रयुक्त शब्द का प्रयोग और तदनुसार कर्म करना ही ‘सत्य’ कहलाता है। स्पष्ट है कि यह ‘‘ऋत’’ से भिन्न है अतः इसे सापेक्षिक सत्य की ही परिभाषा कहेंगे।

मानव जीवन में सदाचरण करने के लिए इन्हीं दोनों  की आवश्यकता पड़ती है इसलिए जहाॅं ‘ऋत ’ का पालन किया जाता है वह ‘सहज नैतिकता’ और जहाॅं ‘सत्य’ का पालन किया जाता है वह ‘‘ आध्यात्मिक नैतिकता’’ कहलाती है। परमपुरुष ‘ऋत’ में प्रतिष्ठित हैं अतः उनकी विचार तरंगे यह जगत और प्रकृति के द्वारा निर्मित किए जा रहे क्षण क्षण बदलते ये आकार जब तक प्रकृति के आधीन रहते हैं वे ‘ऋत’ का ही पालन करते हैं परन्तु जैसे जैसे जैसे प्रकृति के बंधन से छूटने के लिए जीवधारी का मन प्रधान होने लगता है वह ‘सत्य’ की ओर जाने लगता है। मनुष्य मन प्रधान है अतः पेड़ पौधों और पशुओं से होता हुआ जब मनुष्य के शरीर में आता है तो शिशु और बाल्यावस्था में वह ‘ऋत’ का ही अनुपालन करता है परन्तु बौद्धिक प्रयोग के आधार पर वह ‘सत्य’ और फिर असत्य का पालन करने लगता है। छोटे बच्चों को असत्य बोलना हम ही सिखाते हैं। वर्तमान युग के अधिकाॅंश गोरखधंधे असत्य पर ही आधारित होते हैं।

वैज्ञानिक भाषा में कहें तो सहजनैतिकता को ‘‘स्थितिज ऊर्जा (potential form)’’ और आध्यात्मिक नैतिकता को ‘‘गतिज ऊर्जा (kinetic form)’’ कहा जा सकता है। पोटेशियल इनर्जी में कार्य करने की क्षमता होती है पर वह इसे कार्यरूप नहीं दे पाती। सभी जानते हैं कि कायनेटिक इनर्जी अपनी क्षमता को कार्यरूप दे सकती है अतः सहज नैतिकता से आध्यात्मिक नैतिकता का मूल्य अधिक हो जाता है परन्तु सहजनैतिकता मानविक मौलनीति के अन्तर्गत आती है। नीतिवादी होने का लाभ यह है कि उसमें यथेष्ठ मात्रा में नैतिक बल होता है। ‘‘ अतीत में मैंने अपराध नहीं किया है, आज भी नहीं करता हॅूं और भविष्य में भी नहीं करूंगा’’ इस प्रकार का बोध जाग्रत होने से नैतिक बल अवश्य ही जागता है। कोई गुंडा या बदमाश व्यक्ति शारीरिक रूप से बलशाली होते हुए भी पुलिस को देखते ही डर जाता है क्योंकि उसके पास नैतिक बल नहीं होता जबकि नीतिवादी शारीरिक रूप से कमजोर होने पर भी पुलिस से भयभीत नहीं होता ।

वर्तमान युग में मिथ्या अर्थात् असत्य को ही सत्य के रूप में चलाये जाने का नियम सा बन गया है जो चालाक बुद्धि के बिना सम्भव नहीं है। जैसे, दंड से बचने के लिए ‘चोर’ पुलिस और न्यायालय में चालाक बुद्धि का सहारा लेता है इसी से असत्य का संसार निर्मित होता है। इसलिए आध्यात्मिक पथ पर चलने की इच्छा रखने वाले आध्यात्मिकता को अच्छी तरह समझने बाद ही नैतिकवादी हो सकते हैं। सहज नैतिकता और आध्यात्मिक नैतिकता के बीच का अन्तर महाभारत के कुछ चरित्रों के उदाहरणों से स्पष्ट हो सकता है। जैसे,
 (1) भीष्म और कर्ण, दोनों ही तत्कालीन प्रचलित सहज नैतिकता के धनी थे और अजेय योद्धा थे परन्तु इसी सहजनैतिकता का लाभ कुटिल बुद्धि दुर्योधन ने लिया। भीष्म और कर्ण,  दोनों ही जानते थे कि दुर्योधन अधार्मिक आचरण करता है फिर भी वे युद्ध में उसके साथ थे । यहाॅं उनके मन में सहज नैतिकता का आधार वाक्य यह था कि उन्होंने ‘दुर्योधन का नमक खाया है’। यदि वे आध्यात्मिक नैतिकता का आश्रय लिये होते तो कह सकते थे कि दुर्योधन ! तुम्हारा नमक खाया है इसलिए सुझाव दे रहा हूॅ कि धर्म के रास्ते पर चलो अन्यथा, हम तुम्हारा साथ छोड़ देंगे। कर्ण सहजनैतिकता के प्रभाव से अपने आशीर्वादी कवच और कृंडल भी दान में दे बैठे जबकि वह जानते थे कि यह विप्र कवच और कुंडल नहीं उनकी मृत्यु माॅंगने आया है । यदि वे आध्यात्मिक नैतिकता का सहारा लेते तो कह सकते थे कि अभी तो मैं युद्ध में जा रहा हॅूं लौट कर आऊॅंगा तब ले जाना।
(2) अर्जुन ने प्रतिज्ञा की ‘कि जयद्रथ को सूर्यास्त के पहले नहीं मारा तो आत्मदाह कर लूॅंगा’ । सूर्यास्त हो गया अतः तत्कालीन प्रचलित सहजनैतिकता के कारण आत्मदाह की चिता पर बैठे अर्जुन को देखने के लिए सभी नागरिक एकत्रित हो गए, इतना तक कि स्वयं जयद्रथ भी निर्भय होकर सामने आ गया। चूॅंकि कृष्ण चाहते थे पाप का अन्त और धर्म की संस्थापना अतः आध्यात्मिक नैतिकता आधारित उन्होंने अपनी इच्छा से सूर्य को काले बादल से इस प्रकार ढंक दिया कि लगने लगा सचमुच सूर्यास्त हो गया और ज्योंही जयद्रथ अर्जुन के सामने आया कृष्ण की ही इच्छा से बादल हटा और जयद्रथ का भी अन्त हो गया ।
(3) गाॅंधारी का चरित्र सहज और आध्यात्मिक नैतिकता के बीच संतुलन बनाता है। जब उन्हें पता चला कि उनका होने वाला पति जन्माॅंध है तो उन्होंने सहज नैतिकता में आकर तत्काल अपनी आॅंखों पर भी पट्टी यह कहते हुए बाॅंध ली कि जब मेरा पति नहीं देख सकता तो मैं इस संसार को अपनी आखों से क्यों देखूॅं , परन्तु युद्ध में जाते हुए अपने पुत्रों को  विजय का आशीर्वाद न देकर आध्यात्मिक नैतिकता का पालन करते हुए यह कहा ‘‘ यतो कृष्णः ततो धर्मः, यतो धर्मः ततो जयः ’ अर्थात् जहाॅं कृष्ण हैं वहाॅं धर्म है और जहाॅं धर्म है वहीं विजय है।
(4) गाॅंधारी के नैतिक बल का एक और उदाहरण उल्लेखनीय है। नैतिक बल की दृढ, इस महिला ने अपनी आॅंखों की पट्टी जीवन में केवल दो बार ही खोली, एक बार अपने पति के कहने पर युद्ध में पुत्रों को विजयी होने का आशीर्वाद देने के लिये जिसकी अभी चर्चा हो चुकी । और, दूसरी बार कृष्ण को देखने के लिए; युद्ध समाप्त होने पर , युद्धस्थल पर वह मृत पड़े अपने सौ पुत्रों के पास अपनी सभी विधवा पुत्रवधुओं साथ शोक प्रकट कर रही थी। पाॅंडवों के साथ कृष्ण ने उनके पास जाकर कहा, ‘‘ आप क्यों रो रही हैं, यह तो प्रकृति का नियम है, सभी एक दिन यहाॅं से चले जाएंगे , अतः रोना क्यों? ’’ गाॅंधारी ने कहा, ‘‘ कृष्ण ! तुम व्यर्थ सान्त्वना क्यों दे रहे हो? यह तुम्हें शोभा नहीं देता ।‘‘ कृष्ण ने पूछा क्यों?  वह बोली, ‘‘तुम यदि न चाहते तो मेरे पुत्रों का नाश नहीं होता’’ । कृष्ण ने कहा , ‘‘धर्म की रक्षा और पाप का विनाश करने के लिए यह अनिवार्य हो गया था’’ । वह फिर बोलीं, ‘‘ लेकिन तुम तो तारकब्रह्म हो, अगर चाहते तो अवश्य ही बिना युद्ध किए मेरे पुत्रों के मनोभावों में परिवर्तन कर सकते थे।’’ इस पर कृष्ण चुप रह गए। तो, यह है नैतिक बल का प्रभाव। वास्तव में यह संभव था कि यदि कृष्ण सोचते कि दुर्योधन के मन में परिवर्तन हो जाए, तो हो जाता। परन्तु वह तो जगत के सामने एक दृष्टान्त स्थापित करना चाहते थे कि पाप का पतन अवश्यम्भावी है, लोग इस युद्ध से यह शिक्षा ग्रहण करें । कृष्ण गाॅंधारी के नैतिक बल को महत्व देना चाहते थे अतः बहुत कुछ कहने को होते हुए भी चुप रह गए।

इन उदाहरणों से हमें कृष्ण के चरित्र से यह शिक्षा लेना चाहिए कि यदि कोई व्यक्ति अन्याय, अत्याचार कर रहा है तो किसी भी परिस्थिति में इसे नहीं स्वीकारें ; उन दुर्नीति परायण लोगों के विरूद्ध संग्राम करना ही होगा, परन्तु यदि कोई व्यक्ति यथार्थ नीतिवादी है, धार्मिक है तो उसके सामने नतमस्तक हो जाने में अपना सम्मान ही बढ़ेगा, इसमें कोई बुराई नहीं है। वर्तमान युग तो कपटनीति का है, चुनाव के समय सैकड़ों प्रतिज्ञाएं की जाती हैं, चुनाव जीतने के बाद सब भूल जाते हैं। दैनिक उपभोग की हों या व्यावसायिक सभी के उत्पादन पर जो लागत होती है उसका अनेक गुना लाभ लेने और जनसामान्य के हितों की अनदेखी करना आज के व्यवसायियों का मूल मंत्र है। अनेक शोधकर्ता विद्वान यह मानते हैं कि महाभारत युद्ध होने के पीछे एक कारण यह भी था कि व्यापारियों ने युद्ध सामग्री को बड़े पैमाने पर निर्मित और आयात करने में अपनी अधिकाॅंश पूॅंजी लगा ली थी अतः यदि युद्ध न होता तो वे कंगाल हो जाते। आध्यात्मिक नैतिकता का पालन करने वालों को एकजुट होकर, कृष्ण के बताए अनुसार इनके विरुद्ध धर्मयुद्ध छेड़े बिना मानव जीवन दूभर होता जाएगा।

Tuesday 10 April 2018

188

ए बादशाहों के बादशाह !
तुम लुटाते ही जाते हो
हजार हाथों से,
सब को,
सब कुछ,
बिना माॅंगे,
बिना भेदभाव के,
बिना कृपणता के।

और,
हम सब ! माॅंगते नहीं थकते.... ...
घर लबालब भरा है तो भी,
बटोरते नहीं थकते ।

फिर भी,
हमारी कृतघ्नता तो देखो!
कि उधारी वापस करने का विचार तो दूर... ..
तुम्हारे लिये
कुछ नहीं करते ! ! !

( डॉ टी आर शुक्ल , सागर म प्र )
25 सितंबर 2015

Saturday 7 April 2018

187 समग्र क्रान्ति की आवश्यकता

187 समग्र क्रान्ति की आवश्यकता
संसार में अनेक नेतागण जाति भेद और अस्प्रश्यता पर लम्बे भाषण देते देखे जाते हैं । वे कहा करते हैं , नहीं, नहीं , कोई जाति भेदभाव बर्दास्त नहीं होगा। सभी समान हैं। मैं किसी भी जाति के व्यक्ति का छुआ भोजन ग्रहण कर लूंगा ! यदि आप मुझे छना हुआ पानी का ग्लास देंगे तो मैं पीने से नहीं हिचकिचाऊंगा। देखो ! मैं यह पी रहा हॅूं। बस क्या है दर्शक और श्रोता वाहवाही कर उठते हैं, बहुत अच्छा बहुत अच्छा। इस प्रकार के नेताओं को सुधारवादी नेता कहा जाता है; परन्तु वास्तव में उनके भीतरी मन में जातिवाद को बनाए रखने की भावना रहती है। यदि उनमें सही अर्थ में इसे हटाने की भावना होती तो वे घोषणा कर सकते हैं कि ’ इस अस्प्रश्यता का कारण जातिवाद है, जातिवाद के कारण ही छोटे बड़े, ऊंचे और नीचे, छूत और अछूत, एक जाति और दूसरी जाति , ये सब पनपे हैं। इसलिए सबसे पहले हमें इस जातिवाद को हटाना चाहिए’ यदि उनमें सीधे ही इस प्रकार की घोषणा करने की हिम्मत होती तो वे क्रान्तिकारी नेता कहलाते। उनके पास यह साहस नहीं है इसलिए वे इस  सामाजिक बुराई को दूर न कर समाज का अहित कर रहे हैं।
इसी के साथ समाज में डोग्मा ने भी गहरी जड़े जमा रखी हैं। वे लोगों के मन में गहराई से घुसे हुए हैं। इन झूठे विचारों से जनसामान्य मुक्त नहीं हो पाते क्यों कि यह विचार उन के मन में जन्म से ही भर दिए जाते हैं। इसी का प्रतिफल यह है कि मानव समाज अनेक देशों में बंट गया है और प्रत्येक देश विभिन्न धर्मों, और धर्म विभिन्न जातियों और जातियाॅं विभिन्न उपजातियों में विभाजित होती जा रही है। यह कैसी स्थिति है? हमको केवल यही सिखाया जाता है कि समाज को किस प्रकार से विभाजित और उपविभाजित किया जाता है, पर यह कभी नहीं सिखाया जाता कि लोगों  को किस प्रकार एकता के सूत्र में बांधा जा सकता है। यह सभी त्रुटिपूर्ण डोगमेटिक शिक्षा के कारण ही हो रहा है।

Monday 2 April 2018

186 पाप और पुण्य

186 पाप और पुण्य

जिन्हें हम वेदव्यास के नाम से जानते हैं उनका असली नाम था कृष्णद्वैपायन व्यास । वह प्रयाग के पास गंगा और यमुना के संगम के बीच के काले रंग की मिट्टी वाले द्वीप, जिसे कृष्णद्वीप कहा जाता था, पर रहने वाले एक मत्स्यजीवी परिवार में जन्मे थे । इसीलिए , उनका नाम पड़ा कृष्णद्वैपायन और उनके परिवार की उपाधि थी व्यास। लगभग साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व भारतीय जन समाज में वेद प्रायः लुप्त हो चले थे; कृष्णद्वैपायन व्यास ने वेदों के बिखरे ज्ञान को काल क्रम के आधार पर सुव्यवस्थित कर चार भागों में बाॅंटा। तभी से वे वेदव्यास नाम से जाने जाते हैं। पहले तीन भागों, ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद में गद्यात्मक और चौथे  सामवेद में पद्यात्मक वर्णन दिया गया है। वेदों का ज्ञान बाॅंटने जब वह भीड़ वाले स्थानोें, चैराहों और बाजारों में जनसामान्य से मिलते तो कोई भी उनकी बातें नहीं सुनता उल्टे उन्हें ही यह कहते हुए दस बातें सुना देता कि तुम्हारी, ये समझ में न आने वाली व्यर्थ की बातें सुनने लगेंगे तो घर गृहस्थी कौन चलाएगा, आदि। व्यास जी समझाते कि धर्माचारण से न केवल मोक्ष ही मिलता है उससे अर्थ और काम भी सिद्ध होते हैं परन्तु , जब किसी ने उन्हें नहीं सुना तो उन्होंने सरल भाषा में शिक्षाप्रद काल्पनिक कहानियों के माध्यम से लोक शिक्षा देने के लिए अठारह पुराणों की रचना की ।  सभी पुराणों का सार यह है कि परोपकार करने से पुण्य और दूसरों को पीड़ा देने से मनुष्य पाप ग्रस्त हो जाता है।

चलिए, ‘पुण्य’ के बारे में कुछ भी कहने के पहले ‘पाप’ क्या है? यह जानने की चेष्टा करते हैं जिससे, पुण्य की परिभाषा अपने आप स्पष्ट हो जाएगी। पाप के दो प्रकार हैं, (1 ) जो करना चाहिए परन्तु नहीं किया उसे ‘प्रत्यवाय’ कहते हैं ( जैसे घर में कोई बीमार है, उसकी सेवा करना चाहिए परन्तु नहीं की तो यह प्रत्यवाय हुआ।) और, (2) जो नहीं करना चाहिए वह किया तो उसे ‘पाप’ कहते हैं । कर्मविज्ञान के मर्मज्ञों द्वारा इस प्रकार के पाप को तीन भागों में बाॅंटा गया है, पातक, अतिपातक और महापातक।

‘पातक’ उसे कहते हैं कि जो अनुचित कार्य नहीं करना चाहिए था वह कर दिया परन्तु बाद में पश्चाताप हुआ और प्रायश्चित करने की इच्छा जागी तो जहाॅं प्रायश्चित करना सम्भव है उस प्रकार के पाप को पातक कहेंगे ( जैसे , किसी की कोई वस्तु चुरा ली लेकिन पश्चाताप होने पर उसे वापस देकर माफी माॅंग ली कि भाई मुझ से भूल हो गई थी, तो प्रायश्चित हो गया) ।

‘अतिपातक’ उसे कहते हैं कि जिसको करना नहीं चाहिए था परन्तु कर दिया और फिर पश्चाताप करना भी सम्भव नहीं है (जैसे, किसी बेकसूर आदमी का हाथ काट दिया पर बाद में पश्चाताप हुआ कि यह तो अनुचित काम हो गया परन्तु अब उसका हाथ वापस तो नहीं दिया जा सकता, उसका प्रायश्चित नहीं है ) । इसलिए वह काम जिससे व्यक्ति या समाज की स्थायी क्षति होती है अतिपातक की श्रेणी में आ जाता है इसका प्रायश्चित नहीं किया जा सकता। कुछ विद्वानों का मत है कि अतिपातकी यदि प्रायश्चित करना चाहता है तो केवल एक ही उपाय है, वह यह कि उसे समाज सेवा के लिए अपना आत्मोत्सर्ग करना होगा।

तीसरा है ‘महापातक’, इसमें भी अतिपातक की तरह प्रायश्चित करना संभव नहीं है, और यह है भी ‘रिकरिंग नेचर’ का अर्थात् पुनरावर्ती या बार बार जुड़ते जाने वाला, कभी समाप्त न होने वाला ( जैसे, किसी ने काली मिर्च में पपीते के बीज मिलाकर बेचना प्रारंभ किया और लाभ कमाने लगा , किसी दूसरे ने भी इसे देखकर वही करना प्रारंभ कर दिया , फिर तीसरे ने .. यह समाजिक क्षति बार बार दुहराई जाने लगी अतः यह महापातक की कोटि में आएगा ) इसलिए महापातकी को समाज में रहने का अधिकार नहीं है। कुछ विद्वानों का मत है कि यदि महापातकी समाज में रहना चाहता है तो आदर्श के लिए उसे अपना जीवन दान करना होगा; पर, इतने से भी काम नहीं चलेगा उसे पुनरावर्ती प्रकृति का समाज हित में अच्छा काम करना पड़ेगा जिसका प्रभाव लगातार चलता रहे तभी प्रायश्चित होगा। इस संबंध में दृष्टान्त है; 
‘‘युद्ध में जब रावण मरने लगे तो उन्होंने अपने इष्टदेव भगवान शिव को मदद के लिए पुकारा। शिव ने कोई ध्यान नहीं दिया तब पार्वती ने कहा , तुम्हारा भक्त कष्ट में है वह तुम्हें मदद के लिए बार बार पुकार रहा है, भले ही वह पातकी है पर है तो तुम्हारा भक्त , तुम्हें उसकी मदद करना ही चाहिए। शिव ने कहा, देवि ! वह पातकी या अतिपातकी नहीं, वह तो महापातकी है। यदि पातकी होता तो शायद मैं उसकी मदद कर भी देता परन्तु महापातकी की मदद कैसे करूॅं? उसने परनारी का अपहरण किया वह भी साधु के रूप में? अब कोई भी कुलीन नारी सच्चे साधु पर भी संदेह करेगी कि यह आडम्बरी है। यह समाज की अपूर्णीय क्षति है, मैं उसकी मदद नहीं कर सकता।’’

तो, देखा ! महापातकी को मदद करने से परमपुरुष भी मुॅंह फेर लेते हैं। कर्मविज्ञान के मर्मज्ञ शोधकर्ताओं में से अधिकाॅंश यह मानते हैं कि ‘रावण’ और ‘कंस’ की मृत्यु भले ही साक्षात् परमपुरुष के हाथों हुई परन्तु वे मुक्त नहीं हुए उन्हें कर्मफल भोगना ही पड़ेगा। यह जीवधारी, संसार बंधनों से मुक्त तभी हो पाता है जब उसके सभी प्रकार के पुण्य और पाप कर्मों का फल भोग लिया जाता है। इसीलिए शास्त्र कहते हैं ‘अवश्यमेव हि भोक्तव्यम् कृतकर्म शुभाशुभम्’ अर्थात् चाहे पुण्य हों या पाप , सभी कर्मों का फल स्वयं को ही भोगना पड़ता है।

इस विश्लेषण और व्याख्या के परिप्रेक्ष्य  में जब वेदव्यास जी ने आत्मनिरीक्षण किया तब त्रिकालज्ञ वेदव्यासजी ने तत्काल जान लिया कि भले ही उनका उद्देश्य लोक शिक्षा देकर सभी को आत्मोन्नति के पथ पर बढ़ाना है परन्तु कालान्तर में इन ग्रंथों का मनमाना अर्थ निकाला जाएगा और सारतत्व  से किनारा करते हुए कथाओं के पात्रों और उनके आचरण को ही सत्य माना जाने लगेगा। यह जानकर वे अपार दुख से घिर गए और परमपुरुष से अपने इन तीन दोषों के लिए क्षमायाचना करते हुए अपना लेखन कार्य समाप्त कर दिया। उन्होंने लिखा,
‘‘रूपम् रूपविवर्जितस्य भवतो, यत् ध्यानेन कल्पितम्।
स्तुत्यानिर्वचनियताः अखिलो गुरो दूरीकृता यन्मया।
व्यापित्वं च निराकृतं भगवतो यत् तीर्थयात्रादिना।
क्षन्तव्यं जगदीशो तद्विकलता दोषत्रयम् मत्कृतम्।’’
अर्थात् हे परमपुरुष ! तुम्हारा कोई रूप या आकार नहीं है परन्तु मैंने कथाओं में अनेक काल्पनिक रूप दे डाले, तुम्हारी व्याख्या शब्दों में नहीं की जा सकती पर मैंने इन कल्पित रूपों की अनेक प्रकार से स्तुति और प्रशंसा कर परस्पर दूरी बना डाली, तुम तो समग्र ब्रह्माण्ड के कण कण में व्याप्त हो पर मैं ने तुम्हें तीर्थों का नाम देकर अनेक स्थानों पर बाॅंध दिया । हे जगदीश ! मेरे द्वारा किए गए इन तीन दोषों के कारण मेरा मन अपार विकलता का अनुभव कर रहा है, मुझे क्षमा कर देना।

Sunday 1 April 2018

185 पशु वध

185 पशु वध
हमारी धरती पर अनेक मतों के अनुयायी अपने अपने धार्मिक उत्सव में बकरे या भैंसा की बलि देते हुए किसी देवी माॅं का नामोच्चार करते हैं ताकि वह प्रसन्न हो जाएं । तो, उस समय वे यह जानते हैं कि जिस जीवधारी की वे हत्या कर रहे हैं वह प्रकृति का ही अंग है और मर जाने पर उसे वापस नहीं लाया जा सकता परन्तु , वे लोग फिर भी उसकी हत्या करते हैं और कहते हैं कि यह देवि या देवता की प्रसन्नता के लिए किया जा रहा है और उनके धर्म का अंग है।
वास्तव में यह उन आडम्बरी लोगों की भावजड़ता या ‘dogma’ ही कहलाएगा जो यह शिक्षा देते हैं कि अन्य सभी जीव मनुष्यों के उपभोग की सामग्री हैं। यदि कोई अपने भाई की हत्या माॅं के सामने करेगा तो क्या माॅं प्रसन्न होगी? नहीं , वह नहीं हो सकती। वह तो हर संभव प्रयत्न करेगी कि उसका पुत्र बच जाए , वह उसकी हत्या अपने सामने नहीं होने दे सकती।
इन दो घटनाओं में अंतर यह है कि तथाकथित देवि या देवता उस हत्या को किसी भी प्रकार से रोक नहीं सकते जबकि माॅं आवश्यक कार्यवाही कर उसे रोकने में सक्षम है । स्पष्ट है कि वह देवी उन अनुयायियों की स्वार्थलोलुप आपूर्ति हेतु की गई कल्पना की उड़ान के अलावा कुछ नहीं है अन्यथा अवश्य ही वह इस दुष्टता भरे अनुपयोगी कृत्य को रोकने में हस्तक्षेप करती ??