189 नैतिकता
जो कुछ जैसा है वैसा ही प्रकट करना ‘यथार्थता ’ के अन्तर्गत आता है, संस्कृत में इसके लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द है ‘‘ऋत’’ । इसे निर्पेक्ष सत्य (absolute truth) कहा जाता है। आध्यात्मिक रूप से ‘परमपुरुष’ अर्थात् (supreme entity) ही निर्पेक्ष सत्य के अन्तर्गत आते हैं। यह प्रकृति उन परमपुरुष की ही क्रियात्मक शक्ति है जिससे निर्मित यह ‘स्पेस, टाइम’ और समस्त ब्रह्माण्डीय पिंड सापेक्षिक सत्य (relative truth) कहलाते हैं क्योंकि ये सब स्थायी नहीं हैं। जगत के अस्थायी होने के आधार पर अनेक विद्वान इसे मिथ्या कहते रहे हैं। ‘‘ सापेक्षिक सत्य ’’ को पारिभाषित करने के लिये यह कहा गया है कि ‘‘परहितार्थं वांगमनासो यर्थातत्वम् सत्यम्।’’ अर्थात् कल्याण की भावना लेकर प्रयुक्त शब्द का प्रयोग और तदनुसार कर्म करना ही ‘सत्य’ कहलाता है। स्पष्ट है कि यह ‘‘ऋत’’ से भिन्न है अतः इसे सापेक्षिक सत्य की ही परिभाषा कहेंगे।
मानव जीवन में सदाचरण करने के लिए इन्हीं दोनों की आवश्यकता पड़ती है इसलिए जहाॅं ‘ऋत ’ का पालन किया जाता है वह ‘सहज नैतिकता’ और जहाॅं ‘सत्य’ का पालन किया जाता है वह ‘‘ आध्यात्मिक नैतिकता’’ कहलाती है। परमपुरुष ‘ऋत’ में प्रतिष्ठित हैं अतः उनकी विचार तरंगे यह जगत और प्रकृति के द्वारा निर्मित किए जा रहे क्षण क्षण बदलते ये आकार जब तक प्रकृति के आधीन रहते हैं वे ‘ऋत’ का ही पालन करते हैं परन्तु जैसे जैसे जैसे प्रकृति के बंधन से छूटने के लिए जीवधारी का मन प्रधान होने लगता है वह ‘सत्य’ की ओर जाने लगता है। मनुष्य मन प्रधान है अतः पेड़ पौधों और पशुओं से होता हुआ जब मनुष्य के शरीर में आता है तो शिशु और बाल्यावस्था में वह ‘ऋत’ का ही अनुपालन करता है परन्तु बौद्धिक प्रयोग के आधार पर वह ‘सत्य’ और फिर असत्य का पालन करने लगता है। छोटे बच्चों को असत्य बोलना हम ही सिखाते हैं। वर्तमान युग के अधिकाॅंश गोरखधंधे असत्य पर ही आधारित होते हैं।
वैज्ञानिक भाषा में कहें तो सहजनैतिकता को ‘‘स्थितिज ऊर्जा (potential form)’’ और आध्यात्मिक नैतिकता को ‘‘गतिज ऊर्जा (kinetic form)’’ कहा जा सकता है। पोटेशियल इनर्जी में कार्य करने की क्षमता होती है पर वह इसे कार्यरूप नहीं दे पाती। सभी जानते हैं कि कायनेटिक इनर्जी अपनी क्षमता को कार्यरूप दे सकती है अतः सहज नैतिकता से आध्यात्मिक नैतिकता का मूल्य अधिक हो जाता है परन्तु सहजनैतिकता मानविक मौलनीति के अन्तर्गत आती है। नीतिवादी होने का लाभ यह है कि उसमें यथेष्ठ मात्रा में नैतिक बल होता है। ‘‘ अतीत में मैंने अपराध नहीं किया है, आज भी नहीं करता हॅूं और भविष्य में भी नहीं करूंगा’’ इस प्रकार का बोध जाग्रत होने से नैतिक बल अवश्य ही जागता है। कोई गुंडा या बदमाश व्यक्ति शारीरिक रूप से बलशाली होते हुए भी पुलिस को देखते ही डर जाता है क्योंकि उसके पास नैतिक बल नहीं होता जबकि नीतिवादी शारीरिक रूप से कमजोर होने पर भी पुलिस से भयभीत नहीं होता ।
वर्तमान युग में मिथ्या अर्थात् असत्य को ही सत्य के रूप में चलाये जाने का नियम सा बन गया है जो चालाक बुद्धि के बिना सम्भव नहीं है। जैसे, दंड से बचने के लिए ‘चोर’ पुलिस और न्यायालय में चालाक बुद्धि का सहारा लेता है इसी से असत्य का संसार निर्मित होता है। इसलिए आध्यात्मिक पथ पर चलने की इच्छा रखने वाले आध्यात्मिकता को अच्छी तरह समझने बाद ही नैतिकवादी हो सकते हैं। सहज नैतिकता और आध्यात्मिक नैतिकता के बीच का अन्तर महाभारत के कुछ चरित्रों के उदाहरणों से स्पष्ट हो सकता है। जैसे,
(1) भीष्म और कर्ण, दोनों ही तत्कालीन प्रचलित सहज नैतिकता के धनी थे और अजेय योद्धा थे परन्तु इसी सहजनैतिकता का लाभ कुटिल बुद्धि दुर्योधन ने लिया। भीष्म और कर्ण, दोनों ही जानते थे कि दुर्योधन अधार्मिक आचरण करता है फिर भी वे युद्ध में उसके साथ थे । यहाॅं उनके मन में सहज नैतिकता का आधार वाक्य यह था कि उन्होंने ‘दुर्योधन का नमक खाया है’। यदि वे आध्यात्मिक नैतिकता का आश्रय लिये होते तो कह सकते थे कि दुर्योधन ! तुम्हारा नमक खाया है इसलिए सुझाव दे रहा हूॅ कि धर्म के रास्ते पर चलो अन्यथा, हम तुम्हारा साथ छोड़ देंगे। कर्ण सहजनैतिकता के प्रभाव से अपने आशीर्वादी कवच और कृंडल भी दान में दे बैठे जबकि वह जानते थे कि यह विप्र कवच और कुंडल नहीं उनकी मृत्यु माॅंगने आया है । यदि वे आध्यात्मिक नैतिकता का सहारा लेते तो कह सकते थे कि अभी तो मैं युद्ध में जा रहा हॅूं लौट कर आऊॅंगा तब ले जाना।
(2) अर्जुन ने प्रतिज्ञा की ‘कि जयद्रथ को सूर्यास्त के पहले नहीं मारा तो आत्मदाह कर लूॅंगा’ । सूर्यास्त हो गया अतः तत्कालीन प्रचलित सहजनैतिकता के कारण आत्मदाह की चिता पर बैठे अर्जुन को देखने के लिए सभी नागरिक एकत्रित हो गए, इतना तक कि स्वयं जयद्रथ भी निर्भय होकर सामने आ गया। चूॅंकि कृष्ण चाहते थे पाप का अन्त और धर्म की संस्थापना अतः आध्यात्मिक नैतिकता आधारित उन्होंने अपनी इच्छा से सूर्य को काले बादल से इस प्रकार ढंक दिया कि लगने लगा सचमुच सूर्यास्त हो गया और ज्योंही जयद्रथ अर्जुन के सामने आया कृष्ण की ही इच्छा से बादल हटा और जयद्रथ का भी अन्त हो गया ।
(3) गाॅंधारी का चरित्र सहज और आध्यात्मिक नैतिकता के बीच संतुलन बनाता है। जब उन्हें पता चला कि उनका होने वाला पति जन्माॅंध है तो उन्होंने सहज नैतिकता में आकर तत्काल अपनी आॅंखों पर भी पट्टी यह कहते हुए बाॅंध ली कि जब मेरा पति नहीं देख सकता तो मैं इस संसार को अपनी आखों से क्यों देखूॅं , परन्तु युद्ध में जाते हुए अपने पुत्रों को विजय का आशीर्वाद न देकर आध्यात्मिक नैतिकता का पालन करते हुए यह कहा ‘‘ यतो कृष्णः ततो धर्मः, यतो धर्मः ततो जयः ’ अर्थात् जहाॅं कृष्ण हैं वहाॅं धर्म है और जहाॅं धर्म है वहीं विजय है।
(4) गाॅंधारी के नैतिक बल का एक और उदाहरण उल्लेखनीय है। नैतिक बल की दृढ, इस महिला ने अपनी आॅंखों की पट्टी जीवन में केवल दो बार ही खोली, एक बार अपने पति के कहने पर युद्ध में पुत्रों को विजयी होने का आशीर्वाद देने के लिये जिसकी अभी चर्चा हो चुकी । और, दूसरी बार कृष्ण को देखने के लिए; युद्ध समाप्त होने पर , युद्धस्थल पर वह मृत पड़े अपने सौ पुत्रों के पास अपनी सभी विधवा पुत्रवधुओं साथ शोक प्रकट कर रही थी। पाॅंडवों के साथ कृष्ण ने उनके पास जाकर कहा, ‘‘ आप क्यों रो रही हैं, यह तो प्रकृति का नियम है, सभी एक दिन यहाॅं से चले जाएंगे , अतः रोना क्यों? ’’ गाॅंधारी ने कहा, ‘‘ कृष्ण ! तुम व्यर्थ सान्त्वना क्यों दे रहे हो? यह तुम्हें शोभा नहीं देता ।‘‘ कृष्ण ने पूछा क्यों? वह बोली, ‘‘तुम यदि न चाहते तो मेरे पुत्रों का नाश नहीं होता’’ । कृष्ण ने कहा , ‘‘धर्म की रक्षा और पाप का विनाश करने के लिए यह अनिवार्य हो गया था’’ । वह फिर बोलीं, ‘‘ लेकिन तुम तो तारकब्रह्म हो, अगर चाहते तो अवश्य ही बिना युद्ध किए मेरे पुत्रों के मनोभावों में परिवर्तन कर सकते थे।’’ इस पर कृष्ण चुप रह गए। तो, यह है नैतिक बल का प्रभाव। वास्तव में यह संभव था कि यदि कृष्ण सोचते कि दुर्योधन के मन में परिवर्तन हो जाए, तो हो जाता। परन्तु वह तो जगत के सामने एक दृष्टान्त स्थापित करना चाहते थे कि पाप का पतन अवश्यम्भावी है, लोग इस युद्ध से यह शिक्षा ग्रहण करें । कृष्ण गाॅंधारी के नैतिक बल को महत्व देना चाहते थे अतः बहुत कुछ कहने को होते हुए भी चुप रह गए।
इन उदाहरणों से हमें कृष्ण के चरित्र से यह शिक्षा लेना चाहिए कि यदि कोई व्यक्ति अन्याय, अत्याचार कर रहा है तो किसी भी परिस्थिति में इसे नहीं स्वीकारें ; उन दुर्नीति परायण लोगों के विरूद्ध संग्राम करना ही होगा, परन्तु यदि कोई व्यक्ति यथार्थ नीतिवादी है, धार्मिक है तो उसके सामने नतमस्तक हो जाने में अपना सम्मान ही बढ़ेगा, इसमें कोई बुराई नहीं है। वर्तमान युग तो कपटनीति का है, चुनाव के समय सैकड़ों प्रतिज्ञाएं की जाती हैं, चुनाव जीतने के बाद सब भूल जाते हैं। दैनिक उपभोग की हों या व्यावसायिक सभी के उत्पादन पर जो लागत होती है उसका अनेक गुना लाभ लेने और जनसामान्य के हितों की अनदेखी करना आज के व्यवसायियों का मूल मंत्र है। अनेक शोधकर्ता विद्वान यह मानते हैं कि महाभारत युद्ध होने के पीछे एक कारण यह भी था कि व्यापारियों ने युद्ध सामग्री को बड़े पैमाने पर निर्मित और आयात करने में अपनी अधिकाॅंश पूॅंजी लगा ली थी अतः यदि युद्ध न होता तो वे कंगाल हो जाते। आध्यात्मिक नैतिकता का पालन करने वालों को एकजुट होकर, कृष्ण के बताए अनुसार इनके विरुद्ध धर्मयुद्ध छेड़े बिना मानव जीवन दूभर होता जाएगा।
जो कुछ जैसा है वैसा ही प्रकट करना ‘यथार्थता ’ के अन्तर्गत आता है, संस्कृत में इसके लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द है ‘‘ऋत’’ । इसे निर्पेक्ष सत्य (absolute truth) कहा जाता है। आध्यात्मिक रूप से ‘परमपुरुष’ अर्थात् (supreme entity) ही निर्पेक्ष सत्य के अन्तर्गत आते हैं। यह प्रकृति उन परमपुरुष की ही क्रियात्मक शक्ति है जिससे निर्मित यह ‘स्पेस, टाइम’ और समस्त ब्रह्माण्डीय पिंड सापेक्षिक सत्य (relative truth) कहलाते हैं क्योंकि ये सब स्थायी नहीं हैं। जगत के अस्थायी होने के आधार पर अनेक विद्वान इसे मिथ्या कहते रहे हैं। ‘‘ सापेक्षिक सत्य ’’ को पारिभाषित करने के लिये यह कहा गया है कि ‘‘परहितार्थं वांगमनासो यर्थातत्वम् सत्यम्।’’ अर्थात् कल्याण की भावना लेकर प्रयुक्त शब्द का प्रयोग और तदनुसार कर्म करना ही ‘सत्य’ कहलाता है। स्पष्ट है कि यह ‘‘ऋत’’ से भिन्न है अतः इसे सापेक्षिक सत्य की ही परिभाषा कहेंगे।
मानव जीवन में सदाचरण करने के लिए इन्हीं दोनों की आवश्यकता पड़ती है इसलिए जहाॅं ‘ऋत ’ का पालन किया जाता है वह ‘सहज नैतिकता’ और जहाॅं ‘सत्य’ का पालन किया जाता है वह ‘‘ आध्यात्मिक नैतिकता’’ कहलाती है। परमपुरुष ‘ऋत’ में प्रतिष्ठित हैं अतः उनकी विचार तरंगे यह जगत और प्रकृति के द्वारा निर्मित किए जा रहे क्षण क्षण बदलते ये आकार जब तक प्रकृति के आधीन रहते हैं वे ‘ऋत’ का ही पालन करते हैं परन्तु जैसे जैसे जैसे प्रकृति के बंधन से छूटने के लिए जीवधारी का मन प्रधान होने लगता है वह ‘सत्य’ की ओर जाने लगता है। मनुष्य मन प्रधान है अतः पेड़ पौधों और पशुओं से होता हुआ जब मनुष्य के शरीर में आता है तो शिशु और बाल्यावस्था में वह ‘ऋत’ का ही अनुपालन करता है परन्तु बौद्धिक प्रयोग के आधार पर वह ‘सत्य’ और फिर असत्य का पालन करने लगता है। छोटे बच्चों को असत्य बोलना हम ही सिखाते हैं। वर्तमान युग के अधिकाॅंश गोरखधंधे असत्य पर ही आधारित होते हैं।
वैज्ञानिक भाषा में कहें तो सहजनैतिकता को ‘‘स्थितिज ऊर्जा (potential form)’’ और आध्यात्मिक नैतिकता को ‘‘गतिज ऊर्जा (kinetic form)’’ कहा जा सकता है। पोटेशियल इनर्जी में कार्य करने की क्षमता होती है पर वह इसे कार्यरूप नहीं दे पाती। सभी जानते हैं कि कायनेटिक इनर्जी अपनी क्षमता को कार्यरूप दे सकती है अतः सहज नैतिकता से आध्यात्मिक नैतिकता का मूल्य अधिक हो जाता है परन्तु सहजनैतिकता मानविक मौलनीति के अन्तर्गत आती है। नीतिवादी होने का लाभ यह है कि उसमें यथेष्ठ मात्रा में नैतिक बल होता है। ‘‘ अतीत में मैंने अपराध नहीं किया है, आज भी नहीं करता हॅूं और भविष्य में भी नहीं करूंगा’’ इस प्रकार का बोध जाग्रत होने से नैतिक बल अवश्य ही जागता है। कोई गुंडा या बदमाश व्यक्ति शारीरिक रूप से बलशाली होते हुए भी पुलिस को देखते ही डर जाता है क्योंकि उसके पास नैतिक बल नहीं होता जबकि नीतिवादी शारीरिक रूप से कमजोर होने पर भी पुलिस से भयभीत नहीं होता ।
वर्तमान युग में मिथ्या अर्थात् असत्य को ही सत्य के रूप में चलाये जाने का नियम सा बन गया है जो चालाक बुद्धि के बिना सम्भव नहीं है। जैसे, दंड से बचने के लिए ‘चोर’ पुलिस और न्यायालय में चालाक बुद्धि का सहारा लेता है इसी से असत्य का संसार निर्मित होता है। इसलिए आध्यात्मिक पथ पर चलने की इच्छा रखने वाले आध्यात्मिकता को अच्छी तरह समझने बाद ही नैतिकवादी हो सकते हैं। सहज नैतिकता और आध्यात्मिक नैतिकता के बीच का अन्तर महाभारत के कुछ चरित्रों के उदाहरणों से स्पष्ट हो सकता है। जैसे,
(1) भीष्म और कर्ण, दोनों ही तत्कालीन प्रचलित सहज नैतिकता के धनी थे और अजेय योद्धा थे परन्तु इसी सहजनैतिकता का लाभ कुटिल बुद्धि दुर्योधन ने लिया। भीष्म और कर्ण, दोनों ही जानते थे कि दुर्योधन अधार्मिक आचरण करता है फिर भी वे युद्ध में उसके साथ थे । यहाॅं उनके मन में सहज नैतिकता का आधार वाक्य यह था कि उन्होंने ‘दुर्योधन का नमक खाया है’। यदि वे आध्यात्मिक नैतिकता का आश्रय लिये होते तो कह सकते थे कि दुर्योधन ! तुम्हारा नमक खाया है इसलिए सुझाव दे रहा हूॅ कि धर्म के रास्ते पर चलो अन्यथा, हम तुम्हारा साथ छोड़ देंगे। कर्ण सहजनैतिकता के प्रभाव से अपने आशीर्वादी कवच और कृंडल भी दान में दे बैठे जबकि वह जानते थे कि यह विप्र कवच और कुंडल नहीं उनकी मृत्यु माॅंगने आया है । यदि वे आध्यात्मिक नैतिकता का सहारा लेते तो कह सकते थे कि अभी तो मैं युद्ध में जा रहा हॅूं लौट कर आऊॅंगा तब ले जाना।
(2) अर्जुन ने प्रतिज्ञा की ‘कि जयद्रथ को सूर्यास्त के पहले नहीं मारा तो आत्मदाह कर लूॅंगा’ । सूर्यास्त हो गया अतः तत्कालीन प्रचलित सहजनैतिकता के कारण आत्मदाह की चिता पर बैठे अर्जुन को देखने के लिए सभी नागरिक एकत्रित हो गए, इतना तक कि स्वयं जयद्रथ भी निर्भय होकर सामने आ गया। चूॅंकि कृष्ण चाहते थे पाप का अन्त और धर्म की संस्थापना अतः आध्यात्मिक नैतिकता आधारित उन्होंने अपनी इच्छा से सूर्य को काले बादल से इस प्रकार ढंक दिया कि लगने लगा सचमुच सूर्यास्त हो गया और ज्योंही जयद्रथ अर्जुन के सामने आया कृष्ण की ही इच्छा से बादल हटा और जयद्रथ का भी अन्त हो गया ।
(3) गाॅंधारी का चरित्र सहज और आध्यात्मिक नैतिकता के बीच संतुलन बनाता है। जब उन्हें पता चला कि उनका होने वाला पति जन्माॅंध है तो उन्होंने सहज नैतिकता में आकर तत्काल अपनी आॅंखों पर भी पट्टी यह कहते हुए बाॅंध ली कि जब मेरा पति नहीं देख सकता तो मैं इस संसार को अपनी आखों से क्यों देखूॅं , परन्तु युद्ध में जाते हुए अपने पुत्रों को विजय का आशीर्वाद न देकर आध्यात्मिक नैतिकता का पालन करते हुए यह कहा ‘‘ यतो कृष्णः ततो धर्मः, यतो धर्मः ततो जयः ’ अर्थात् जहाॅं कृष्ण हैं वहाॅं धर्म है और जहाॅं धर्म है वहीं विजय है।
(4) गाॅंधारी के नैतिक बल का एक और उदाहरण उल्लेखनीय है। नैतिक बल की दृढ, इस महिला ने अपनी आॅंखों की पट्टी जीवन में केवल दो बार ही खोली, एक बार अपने पति के कहने पर युद्ध में पुत्रों को विजयी होने का आशीर्वाद देने के लिये जिसकी अभी चर्चा हो चुकी । और, दूसरी बार कृष्ण को देखने के लिए; युद्ध समाप्त होने पर , युद्धस्थल पर वह मृत पड़े अपने सौ पुत्रों के पास अपनी सभी विधवा पुत्रवधुओं साथ शोक प्रकट कर रही थी। पाॅंडवों के साथ कृष्ण ने उनके पास जाकर कहा, ‘‘ आप क्यों रो रही हैं, यह तो प्रकृति का नियम है, सभी एक दिन यहाॅं से चले जाएंगे , अतः रोना क्यों? ’’ गाॅंधारी ने कहा, ‘‘ कृष्ण ! तुम व्यर्थ सान्त्वना क्यों दे रहे हो? यह तुम्हें शोभा नहीं देता ।‘‘ कृष्ण ने पूछा क्यों? वह बोली, ‘‘तुम यदि न चाहते तो मेरे पुत्रों का नाश नहीं होता’’ । कृष्ण ने कहा , ‘‘धर्म की रक्षा और पाप का विनाश करने के लिए यह अनिवार्य हो गया था’’ । वह फिर बोलीं, ‘‘ लेकिन तुम तो तारकब्रह्म हो, अगर चाहते तो अवश्य ही बिना युद्ध किए मेरे पुत्रों के मनोभावों में परिवर्तन कर सकते थे।’’ इस पर कृष्ण चुप रह गए। तो, यह है नैतिक बल का प्रभाव। वास्तव में यह संभव था कि यदि कृष्ण सोचते कि दुर्योधन के मन में परिवर्तन हो जाए, तो हो जाता। परन्तु वह तो जगत के सामने एक दृष्टान्त स्थापित करना चाहते थे कि पाप का पतन अवश्यम्भावी है, लोग इस युद्ध से यह शिक्षा ग्रहण करें । कृष्ण गाॅंधारी के नैतिक बल को महत्व देना चाहते थे अतः बहुत कुछ कहने को होते हुए भी चुप रह गए।
इन उदाहरणों से हमें कृष्ण के चरित्र से यह शिक्षा लेना चाहिए कि यदि कोई व्यक्ति अन्याय, अत्याचार कर रहा है तो किसी भी परिस्थिति में इसे नहीं स्वीकारें ; उन दुर्नीति परायण लोगों के विरूद्ध संग्राम करना ही होगा, परन्तु यदि कोई व्यक्ति यथार्थ नीतिवादी है, धार्मिक है तो उसके सामने नतमस्तक हो जाने में अपना सम्मान ही बढ़ेगा, इसमें कोई बुराई नहीं है। वर्तमान युग तो कपटनीति का है, चुनाव के समय सैकड़ों प्रतिज्ञाएं की जाती हैं, चुनाव जीतने के बाद सब भूल जाते हैं। दैनिक उपभोग की हों या व्यावसायिक सभी के उत्पादन पर जो लागत होती है उसका अनेक गुना लाभ लेने और जनसामान्य के हितों की अनदेखी करना आज के व्यवसायियों का मूल मंत्र है। अनेक शोधकर्ता विद्वान यह मानते हैं कि महाभारत युद्ध होने के पीछे एक कारण यह भी था कि व्यापारियों ने युद्ध सामग्री को बड़े पैमाने पर निर्मित और आयात करने में अपनी अधिकाॅंश पूॅंजी लगा ली थी अतः यदि युद्ध न होता तो वे कंगाल हो जाते। आध्यात्मिक नैतिकता का पालन करने वालों को एकजुट होकर, कृष्ण के बताए अनुसार इनके विरुद्ध धर्मयुद्ध छेड़े बिना मानव जीवन दूभर होता जाएगा।
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