Monday, 2 April 2018

186 पाप और पुण्य

186 पाप और पुण्य

जिन्हें हम वेदव्यास के नाम से जानते हैं उनका असली नाम था कृष्णद्वैपायन व्यास । वह प्रयाग के पास गंगा और यमुना के संगम के बीच के काले रंग की मिट्टी वाले द्वीप, जिसे कृष्णद्वीप कहा जाता था, पर रहने वाले एक मत्स्यजीवी परिवार में जन्मे थे । इसीलिए , उनका नाम पड़ा कृष्णद्वैपायन और उनके परिवार की उपाधि थी व्यास। लगभग साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व भारतीय जन समाज में वेद प्रायः लुप्त हो चले थे; कृष्णद्वैपायन व्यास ने वेदों के बिखरे ज्ञान को काल क्रम के आधार पर सुव्यवस्थित कर चार भागों में बाॅंटा। तभी से वे वेदव्यास नाम से जाने जाते हैं। पहले तीन भागों, ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद में गद्यात्मक और चौथे  सामवेद में पद्यात्मक वर्णन दिया गया है। वेदों का ज्ञान बाॅंटने जब वह भीड़ वाले स्थानोें, चैराहों और बाजारों में जनसामान्य से मिलते तो कोई भी उनकी बातें नहीं सुनता उल्टे उन्हें ही यह कहते हुए दस बातें सुना देता कि तुम्हारी, ये समझ में न आने वाली व्यर्थ की बातें सुनने लगेंगे तो घर गृहस्थी कौन चलाएगा, आदि। व्यास जी समझाते कि धर्माचारण से न केवल मोक्ष ही मिलता है उससे अर्थ और काम भी सिद्ध होते हैं परन्तु , जब किसी ने उन्हें नहीं सुना तो उन्होंने सरल भाषा में शिक्षाप्रद काल्पनिक कहानियों के माध्यम से लोक शिक्षा देने के लिए अठारह पुराणों की रचना की ।  सभी पुराणों का सार यह है कि परोपकार करने से पुण्य और दूसरों को पीड़ा देने से मनुष्य पाप ग्रस्त हो जाता है।

चलिए, ‘पुण्य’ के बारे में कुछ भी कहने के पहले ‘पाप’ क्या है? यह जानने की चेष्टा करते हैं जिससे, पुण्य की परिभाषा अपने आप स्पष्ट हो जाएगी। पाप के दो प्रकार हैं, (1 ) जो करना चाहिए परन्तु नहीं किया उसे ‘प्रत्यवाय’ कहते हैं ( जैसे घर में कोई बीमार है, उसकी सेवा करना चाहिए परन्तु नहीं की तो यह प्रत्यवाय हुआ।) और, (2) जो नहीं करना चाहिए वह किया तो उसे ‘पाप’ कहते हैं । कर्मविज्ञान के मर्मज्ञों द्वारा इस प्रकार के पाप को तीन भागों में बाॅंटा गया है, पातक, अतिपातक और महापातक।

‘पातक’ उसे कहते हैं कि जो अनुचित कार्य नहीं करना चाहिए था वह कर दिया परन्तु बाद में पश्चाताप हुआ और प्रायश्चित करने की इच्छा जागी तो जहाॅं प्रायश्चित करना सम्भव है उस प्रकार के पाप को पातक कहेंगे ( जैसे , किसी की कोई वस्तु चुरा ली लेकिन पश्चाताप होने पर उसे वापस देकर माफी माॅंग ली कि भाई मुझ से भूल हो गई थी, तो प्रायश्चित हो गया) ।

‘अतिपातक’ उसे कहते हैं कि जिसको करना नहीं चाहिए था परन्तु कर दिया और फिर पश्चाताप करना भी सम्भव नहीं है (जैसे, किसी बेकसूर आदमी का हाथ काट दिया पर बाद में पश्चाताप हुआ कि यह तो अनुचित काम हो गया परन्तु अब उसका हाथ वापस तो नहीं दिया जा सकता, उसका प्रायश्चित नहीं है ) । इसलिए वह काम जिससे व्यक्ति या समाज की स्थायी क्षति होती है अतिपातक की श्रेणी में आ जाता है इसका प्रायश्चित नहीं किया जा सकता। कुछ विद्वानों का मत है कि अतिपातकी यदि प्रायश्चित करना चाहता है तो केवल एक ही उपाय है, वह यह कि उसे समाज सेवा के लिए अपना आत्मोत्सर्ग करना होगा।

तीसरा है ‘महापातक’, इसमें भी अतिपातक की तरह प्रायश्चित करना संभव नहीं है, और यह है भी ‘रिकरिंग नेचर’ का अर्थात् पुनरावर्ती या बार बार जुड़ते जाने वाला, कभी समाप्त न होने वाला ( जैसे, किसी ने काली मिर्च में पपीते के बीज मिलाकर बेचना प्रारंभ किया और लाभ कमाने लगा , किसी दूसरे ने भी इसे देखकर वही करना प्रारंभ कर दिया , फिर तीसरे ने .. यह समाजिक क्षति बार बार दुहराई जाने लगी अतः यह महापातक की कोटि में आएगा ) इसलिए महापातकी को समाज में रहने का अधिकार नहीं है। कुछ विद्वानों का मत है कि यदि महापातकी समाज में रहना चाहता है तो आदर्श के लिए उसे अपना जीवन दान करना होगा; पर, इतने से भी काम नहीं चलेगा उसे पुनरावर्ती प्रकृति का समाज हित में अच्छा काम करना पड़ेगा जिसका प्रभाव लगातार चलता रहे तभी प्रायश्चित होगा। इस संबंध में दृष्टान्त है; 
‘‘युद्ध में जब रावण मरने लगे तो उन्होंने अपने इष्टदेव भगवान शिव को मदद के लिए पुकारा। शिव ने कोई ध्यान नहीं दिया तब पार्वती ने कहा , तुम्हारा भक्त कष्ट में है वह तुम्हें मदद के लिए बार बार पुकार रहा है, भले ही वह पातकी है पर है तो तुम्हारा भक्त , तुम्हें उसकी मदद करना ही चाहिए। शिव ने कहा, देवि ! वह पातकी या अतिपातकी नहीं, वह तो महापातकी है। यदि पातकी होता तो शायद मैं उसकी मदद कर भी देता परन्तु महापातकी की मदद कैसे करूॅं? उसने परनारी का अपहरण किया वह भी साधु के रूप में? अब कोई भी कुलीन नारी सच्चे साधु पर भी संदेह करेगी कि यह आडम्बरी है। यह समाज की अपूर्णीय क्षति है, मैं उसकी मदद नहीं कर सकता।’’

तो, देखा ! महापातकी को मदद करने से परमपुरुष भी मुॅंह फेर लेते हैं। कर्मविज्ञान के मर्मज्ञ शोधकर्ताओं में से अधिकाॅंश यह मानते हैं कि ‘रावण’ और ‘कंस’ की मृत्यु भले ही साक्षात् परमपुरुष के हाथों हुई परन्तु वे मुक्त नहीं हुए उन्हें कर्मफल भोगना ही पड़ेगा। यह जीवधारी, संसार बंधनों से मुक्त तभी हो पाता है जब उसके सभी प्रकार के पुण्य और पाप कर्मों का फल भोग लिया जाता है। इसीलिए शास्त्र कहते हैं ‘अवश्यमेव हि भोक्तव्यम् कृतकर्म शुभाशुभम्’ अर्थात् चाहे पुण्य हों या पाप , सभी कर्मों का फल स्वयं को ही भोगना पड़ता है।

इस विश्लेषण और व्याख्या के परिप्रेक्ष्य  में जब वेदव्यास जी ने आत्मनिरीक्षण किया तब त्रिकालज्ञ वेदव्यासजी ने तत्काल जान लिया कि भले ही उनका उद्देश्य लोक शिक्षा देकर सभी को आत्मोन्नति के पथ पर बढ़ाना है परन्तु कालान्तर में इन ग्रंथों का मनमाना अर्थ निकाला जाएगा और सारतत्व  से किनारा करते हुए कथाओं के पात्रों और उनके आचरण को ही सत्य माना जाने लगेगा। यह जानकर वे अपार दुख से घिर गए और परमपुरुष से अपने इन तीन दोषों के लिए क्षमायाचना करते हुए अपना लेखन कार्य समाप्त कर दिया। उन्होंने लिखा,
‘‘रूपम् रूपविवर्जितस्य भवतो, यत् ध्यानेन कल्पितम्।
स्तुत्यानिर्वचनियताः अखिलो गुरो दूरीकृता यन्मया।
व्यापित्वं च निराकृतं भगवतो यत् तीर्थयात्रादिना।
क्षन्तव्यं जगदीशो तद्विकलता दोषत्रयम् मत्कृतम्।’’
अर्थात् हे परमपुरुष ! तुम्हारा कोई रूप या आकार नहीं है परन्तु मैंने कथाओं में अनेक काल्पनिक रूप दे डाले, तुम्हारी व्याख्या शब्दों में नहीं की जा सकती पर मैंने इन कल्पित रूपों की अनेक प्रकार से स्तुति और प्रशंसा कर परस्पर दूरी बना डाली, तुम तो समग्र ब्रह्माण्ड के कण कण में व्याप्त हो पर मैं ने तुम्हें तीर्थों का नाम देकर अनेक स्थानों पर बाॅंध दिया । हे जगदीश ! मेरे द्वारा किए गए इन तीन दोषों के कारण मेरा मन अपार विकलता का अनुभव कर रहा है, मुझे क्षमा कर देना।

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