Sunday 27 December 2015

40 बाबा की क्लास (संस्कार)

40 बाबा की क्लास (संस्कार)
नन्दू- बाबा! आपने अनेक बार अपनी वार्ता में ‘संस्कार‘ शब्द का उच्चारण किया है यह क्या है? क्या अन्य लोग जिन संस्कारों की बात करते हैं उनसे यह भिन्न होते हैं?

बाबा- नन्दू! अन्य लोग जिन संस्कारों के संबंध में बातें करते हैं वे केवल अच्छी आदतें और व्यवहार अर्थात् आचरण के अर्थ में ही होते हैं परंतु योगविज्ञान में संस्कार, प्रत्येक व्यक्ति के मन पर प्रत्येक क्षण उसके विचारों और क्रियाओं के द्वारा अंकित किये जा रहे प्रभावों अर्थात् (reactive momenta) को कहा गया है। चूंकि मन एक लगातार परिवर्तनशील क्रियात्मक अवयव है इसलिये उसमें इसके पूर्व की स्थितियों के सभी परिवर्तनों के परिणाम संचित रहते हैं क्योंकि प्रत्येक स्थिति अपने पूर्व की स्थितियों का परिणाम होती है। इन्हें ही संस्कार कहते हैं जो इकाई मन को संवेग (momentum) प्रदान कर आगे सक्रिय रखते हैं। 

रवि- फिर तो हम  आजीवन संस्कारों का ही निर्माण और भोग करते है?

बाबा- हाॅं! जिन संस्कारों के भोगने का अवसर आ जाता है तो उन्हें भोगना ही पड़ता है और जो नहीं भोग पाते उन्हें भोगने के लिये हमारा मन उचित अवसर तलाशता रहता है चाहे इसके लिये कितने ही जन्म क्यों न लेना पड़ें।

राजू- इनका प्रारंभ कब से होता है और ये कब समाप्त होते हैं, समाप्त होते भी हैं या नहीं क्योंकि आपके अनुसार यह तो जन्म जन्मान्तर तक चलने वाली प्रक्रिया है?

बाबा- चूॅंकि सभी प्रकार के पूर्व परिणामों, ब्रह्मचक्र अर्थात् संचर और प्रतिसंचर के लिये ब्राह्मिक मन  (cosmic mind) ही कारण होता है अतः इकाई मन को उसी का आकर्षण और अधिक त्वरित करता जाता है।  प्रकृति के सक्रिय होने के प्रथम विंदु से संचर क्रिया के अंतिम अर्थात् जड़ पदार्थों के निर्माण होने तक यह संवेग ब्रह्म मन के द्वारा ही दिया गया है। जिस प्रथम अवस्था में इकाई मन में  अहम तत्व और महत्तत्व नहीं था वहाॅं कोई संस्कार भी नहीं था और वह ब्रह्म चक्र के केन्द्र की ओर बढ़ता जा रहा था। पर  आगे की स्थितियों में जीव इकाई मन, पौधों और प्राणियों के रूपमें अपने में क्रमशः  अहं को विकसित करता गया जो उसकी मानसिक क्रियाओं को नियंत्रित करता रहा और इस प्रकार उसके संस्कार बनने लगे। इसी के उन्नत क्रम में मनुष्य आया जो प्रतिसंचर में बढ़ते हुए अपने दिव्य लक्ष्य परमपुरुष की ओर जाने के साथ साथ वापस विपरीत प्रतिसंचर और संचर मार्ग को भी अपना सकता है और मनुष्य से नीचे के प्राणी या निर्जीव के संस्कारों को भी अपने मन में ग्रहण कर संचित रख सकता है। इस प्रकार सामान्य जीव प्रकृति के सहारे प्रतिसंचर में आगे ही बढ़ता है क्योंकि उसका अहं बहुत कम होता है, पर मनुष्य का अहं अधिक होने के कारण वह आगे पीछे कहीं भी जा सकता है। 

रवि- तो क्या हमसब अपने पूर्व संस्कारों को भोगने के लिये ही जन्में हैं? यदि हाॅं, तो फिर हमारी भौतिक और आध्यात्मिक प्रगति की चेष्टायें व्यर्थ ही हैं?

बाबा- पेड़ पौधे और पशु  अपनी प्रगति में प्रकृति के अनुसार ही चलते हैं उनका अपना स्वतंत्र इच्छायें या मत कुछ नहीं होता परंतु मनुष्य के स्तर पर जीव अपना स्वतंत्र विचार और इच्छायें रख सकते हैं इसीलिये वे अपने संस्कार निर्मित करते हैं और क्षय भी कर सकते हैं। आध्यात्मिक चेष्टायें सभी प्रकार के संस्कारों को क्षय करने और नये संस्कार जन्म न ले पायें इसीलिये ही की जाती हैं। 

इंदु- बाबा! यह सब कैसे होता रहता है?

बाबा-   प्रतिसंचर गति में इकाई संरचना को किसी वस्तु के साथ अपना साम्य स्थापित करने के लिये मानसिक और भौतिक तरंगों में संतुलन के साथ साथ प्राणों में संतुलन स्थापित होना अनिवार्य होता है इस संतुलन के अभाव में इनमें इकाई संरचना का स्थायित्व नहीं रह सकेगा। अतः इन मानसिक और भौतिक तरंगों के साम्य अथवा असाम्य होने पर संचर क्रिया में आगे उन्नति या पीछे की ओर अवनति होती है। जैसे किसी कुत्ते का मनुष्यों का सामीप्य पाने पर उसकी मानसिक तरंग दैर्घ्य  में बृद्धि होते  जाने पर एक स्तर पर वह अपने कुत्ते वाले शरीर के साथ संतुलन नहीं बिठा पायेगा और उसे उस शरीर को छोड़कर अन्य उपयुक्त और उन्नत तरंगदैर्घ्य  वाले शरीर को पाने की तलाश  करना होगी। इस प्रकार कुत्ता को उसके मन में उन्नत तरंग के स्थायी हो जाने पर मरना पड़ेगा। इसी प्रकार यदि किसी मनुष्य की मानसिक तरंगे उसकी भौतिक देह के साथ संतुलन नहीं बना पाती तो उसका मानसिक शरीर भौतिक शरीर को त्याग कर उस शरीर को खोजने लगेगा जिसके साथ उसकी मानसिक तरंगों का संतुलन हो सके अतः वह अपनी मानसिक तरंगों के अनुसार आगे उन्नत मानव या नीचे अवनत पशु  या पेड़ के शरीर को पा सकता है।

राजू- तो क्या हम इस विज्ञान का जनसामान्य के लाभ के लिये भी उपयोग कर सकते हैं?

बाबा- बिलकुल, इसके लिये बहुत अभ्यास की आवश्यकता होती है। कहने का अर्थ यह है कि संस्कार जनित उन्नत तरंग दैर्घ्य  का अनुसरण, निम्न स्तर के जीव को उच्च स्तर पर और निम्न तरंगदैर्घ्य  के अनुसरण से उच्च स्तर का मनुष्य, निम्न स्तर के प्राणी की देह में चला जाता है। इस तरह एक डाक्टर यदि इस विज्ञान को जान कर किसी व्यक्ति को दवाओें के आधार पर उसकी भौतिक तरंगदैर्घ्यों  को संतुलन में लाकर बढ़ा दे तो उसका जीवन काल बढ़ा सकता है पर यदि उसने व्यक्ति की मानसिक शरीर की तरंगदैर्घ्य   में बृद्धि कर दी तो फिर वह उस मनुष्य को किसी और मनुष्य में बदल डालेगा। मिस्टर ‘‘एक्स‘‘ मिस्टर ‘‘वाय‘‘ हो जावेंगे। इसलिये शरीर के उचित संचालन के लिये मानसिक शरीर, भौतिक शरीर और प्राण इन तीनों में सुसंतुलन होना अनिवार्य है।

रवि- यह तो बड़ा ही विचित्र है! मुझे तो यही समझ में नहीं आ रहा कि यह सब जानकर अब हमें क्या करना चाहिये और क्या नहीं?

बाबा- तुम लोगों को यह तो स्पष्ट हो गया है कि यह ब्रह्माॅंड सगुण ब्रह्म की मानसिक तरंगों का प्रवाह है जो संचर और प्रतिसंचर गतियों में लगातार गतिशील रह कर ब्रह्मचक्र (cosmic cycle) कहलाता है। हमारा जीवन केवल इसी जन्म और मृत्यु तक सीमित नहीं है वरन् वह ब्रह्मचक्र  के सभी स्तरों की पूर्वोक्त तरंगों अर्थात् स्पेस टाइम में बंधकर गेेलेक्सियों तारों और पंचभूतों के साथ पौधों और प्राणियों में से होता हुआ अभी इस मनुष्य स्तर पर आ पाया है और उसे अपने मूल उद्गम (origin) तक पहुॅंचना है तभी उसकी यह यात्रा पूरी होगी। मनुष्य के स्तर पर आकर यह स्वतंत्रता है कि या तो बचा हुआ रास्ता आगे बढ़कर पूरा करे या पीछे लौट कर इन्हीं जीवजंतुओं और पेड़पौधों में से होकर फिर से लाखों वर्षों तक ठोस द्रव गैस और प्लाज्मा अवस्थाओं में भटकता रहे। चूंकि यह जन्म पिछले लाखों जन्मों का परिणाम है अतः स्वाभाविक रूप से उन सबके अभुक्त संस्कारों (unrequited reactive momenta)  का बोझ हमें ढोते जाना होगा जब तक कि वे समग्रतः समाप्त नहीं हो जाते। यह संस्कार हमारे सोच विचार और कर्मों के अनुसार लगातार प्रत्येक क्षण बनते और क्षय होते रहते हैं। इन संस्कारों से मुक्त होना तभी संभव हो सकता है जब नये संस्कार बन ही न पायें और पुराने जल्दी से जल्दी समाप्त हो जायें। मृत्यु के समय जिस प्रकार के संस्कारों का समूह भोगने के लिये बचा रहेगा उसी के अनुसार अनुकूल अवसर आने पर ही प्रकृति हमें उस प्रकार का शरीर उपलब्ध करायेगी और तब तक हमें अपने संस्कारों का बोझ लादकर मानसिक शरीर या सूक्ष्म शरीर (luminous body) में रहते हुए ही आकाश (space) में भटकते रहना होगा। साधना ही वह प्रक्रिया है जिसका अनुसरण कर हम नये संस्कारों को जन्म लेने से रोक सकते हैं और पुराने संस्कारों को शीघ्रातिशीघ्र  समाप्त कर सकते हैं। संस्कारों के शून्य हो जाने पर हम वापस अपने असली घर में पहुंच जाते हैं जो देश , काल ( time and space) से मुक्त परमानन्द अवस्था है। साधना क्या है और कैसे की जाती है यह कौल गुरु ही सिखा सकते हैं वे बताते हैं कि किस प्रकार व्यक्ति विशेष के द्वारा, ब्राह्मिक भाव लेकर कार्य करने से नये संस्कार जन्म नहीं  ले पाते , किस प्रकार के इष्टमंत्र से पिछले सभी संस्कारों को अभ्यास द्वारा क्षय किया जाता है और हमारे इस मानव शरीर में प्रसुप्त देवत्व को जाग्रत कर हम कैसे अपने चिदानन्द स्वरूप को पा सकते हैं।

Sunday 20 December 2015

39 बाबा की क्लास (माया)

39
बाबा की क्लास (माया)
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रवि- बाबा! कुछ विद्वान लोग कहते हैं कि यह संसार ही मिथ्या है ये जो कुछ दिखाई देता है वह सब माया है, इसका क्या अर्थ है?

बाबा- जिन विद्वानों ने जगत को मिथ्या कहा है वे यह तब कह पाये जब उन्होंने आत्मसाक्षात्कार कर लिया। उन्होंने  इस अवस्था को  अनुभव किया और यह कहा कि ‘ब्रह्म सत्यम जगद्मिथ्या‘ अर्थात् ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या। इसे दर्शनशास्त्र  में मायावाद कहा गया है।

नन्दू- मेरी तो समझ के बाहर है, जो स्पष्ट दिखाई दे रहा है , जिसके अस्तित्व का हम आप और सभी अनुभव करते हैं उसे मिथ्या कैसे कहा जा सकता है?

बाबा- नन्दू ! तुम्हारा कहना गलत नहीं है। हमें पहले ‘सत्य‘ की परिभाषा को अच्छी तरह समझ लेना चाहिये तभी तो असत्य या मिथ्या को समझ सकेंगे, ठीक है? सत्य क्या है, बताओ? नहीं जानते?

रवि- सत्य माने जो जैसा है वैसा ही और मिथ्या माने जो अपने मूलस्वरूप से भिन्न हो वह।

बाबा- ठीक कहा, ‘सत्य‘ अपरिवर्तनशील होता है, प्रत्येक स्थिति में एक सा, एकरस। परंतु ‘असत्य या मिथ्या‘ परिवर्तनशील होता है। जो अपरिर्विर्तत रहता है उसे निर्पेक्ष सत्य और जो परिवर्तित होता है उसे सापेक्षिक सत्य कहते हैं। तुम लोग जानते हो कि यह ब्रह्माॅंड उस एक ही 'परमसत्ता' के परम मन अर्थात् कास्मिक माइंड की विचार तरंगों के अलावा कुछ नहीं है अतः निर्पेक्ष या परमसत्य तो केवल परमपुरुष ही हैं अन्य सब का अस्तित्व उनके सापेक्ष ही है इसलिये यह जगत सापेक्षिक सत्य है परंतु अज्ञानवश  हम इसे निर्पेक्ष सत्य मानकर उसके स्वाभाविक परिवर्तनों से प्रभावित होकर सुख दुख का अनुभव करते हैं और मैं- मेरा तथा तू - तेरा के चक्कर में पड़ जाते हैं।

राजू- बाबा! परंतु विद्वान महापुरुषों  ने तो इसे स्पष्टतः मिथ्या कहा है और ‘माया‘ अर्थात् इल्यूजन कहकर दूर रहने का संदेश  बार बार दिया है।

बाबा- श्रुति में माया के सम्बन्ध में कहा गया  है ‘ घातना अघातना पतीयसी माया‘ अर्थात् ‘‘जो है, वह न होने और जो नहीं है, उसे होने जैसा अनुभव कराने वाली  सत्ता माया कहलाती है।" इस संसार में सभी कुछ निश्चित  समय के लिये ही अस्तित्व में रह पाता है परंतु हमें अनुभव यही होता है कि यह सब हमारे साथ सदा ही रहेगा यही भ्रम माया के नाम से जाना जाता है।

चंदू- बड़ी विचित्र बात है! हम हैं भी और नहीं भी, इसे कैसे समझें? इस जगत और माया को हम किस प्रकार समझ सकते हैं?

बाबा- इसीलिये तो निर्पेक्ष अवस्था का अनुभव करने वाले महापुरुष इसे मिथ्या कहने लगते हैं। जगत को दार्शनिकगण  ‘सापेक्षिक सत्य‘ कहते हैं जो विद्यामाया और अविद्या माया के द्वारा अपना अस्तित्व बनाये रखता है। यह वैसा ही है जैसे वृत्ताकार गति करने वाले किसी पिंड पर संतुलन बनाये रखने के लिये तुरंत दो बल सक्रिय हो जाते हैं एक केन्द्र की ओर अर्थात् सेन्ट्रीपीटल और दूसरा केन्द्र के बाहर की ओर अर्थात् सेन्ट्रीफ्यूगल। ब्रह्माॅंड के केन्द्र में परमपुरुष की ओर विद्यामाया और बाहर की ओर अविद्यामाया सक्रिय रहती है। हमें यह अष्ट पाषों और षडरिपुओं के जाल में उलझाकर अपने अस्तित्व को बनाये रखती है। मनुष्य के जीवन का उद्देश्य  इन आठों बंधनों और छहों शत्रुओं से लगातार संघर्ष करते हुए अपने मूल स्वरूप अर्थात् केन्द्र स्थित परमपुरुष की ओर लौट जाना है जहाॅं से कभी हम उनकी विचार तरंगों के रूप में  अर्थात् ब्रह्म चक्र में आये और सूक्ष्म से स्थूल और स्थूल से सूक्ष्म रूपों में लगातार चक्कर लगा रहे हैं।

इंदु- हमारे  छह शत्रु और आठ बंधन कौन कौन से हैं बाबा?

बाबा- शायद  तुम पिछली क्लासों में उपस्थित नहीं थीं , इसे पहले बताया जा चुका है ,फिर से समझ लो। मनुष्य का जीवन आठ प्रकार के बंधनों और छः प्रकार के शत्रुओं से घिरा रहता है ।  काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, और मात्सर्य ये षडरिपु और भय, लज्जा, घृणा, शंका, कुल, शील, मान और जुगुप्सा ये अष्ट पाश  है। षड रिपु का अर्थ है छै शत्रु, इन्हें शत्रु इसलिये कहा जाता है क्योंकि ये इकाई चेतना को सूक्ष्मता की ओर जाने से रोककर स्थूलता में अवशोषित करने का कार्य करते हैं। इकाई चेतना का उच्चतम स्तर सूक्ष्म है अतः उस ओर जाने से रोकने वाला शत्रु हुआ। अष्ट पाश  का अर्थ है आठ बंधन, बंधनों में बंधा हुआ कोई भी व्यक्ति अपनी गति खो देता है। स्रष्टि में हम देखते हैं कि मानव की गति स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है परंतु अष्ट पाश  जैसे लज्जा, घृणा और भय ..  आदि स्थूलता से जकड़े रहने के कारण सूक्ष्मता की ओर जाने से रोके रहते हैं।

रवि- जब इतने प्रबल शत्रु और बंधन सब के साथ हैं तो उन से कहाॅं तक संघर्ष किया जाये? अपने मूलस्वरूप में वापस हो पाना संभव ही नहीं है?

बाबा- ऐसा नहीं है रवि! इन से किया जाने वाला यही संघर्ष ही साधना करना या पूजा करना कहलाता है। अविद्या माया, विरोधात्मक बल उपरोक्त प्रकार से लगाती अवश्य है  परंतु वह हमारी आध्यात्मिक अग्रगति में सहायता करने के लिये ही यह करती है।  जैसे, धरती पर चलते समय घर्षण बल हमारी गति का विरोध करता है परंतु जब हम फिर भी आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं तो यही सहायक बन जाता है, यदि यह विरोध न हो तो हम आगे चल ही नहीं सकते । चिकने तल पर चलकर देखना यह तथ्य समझ में आ जायेगा। 

नन्दू- तो क्या हमें विद्यामाया का ही सहारा लेना चाहिये और अविद्यामाया से दूर रहना चाहिये?

बाबा- नहीं, केवल एक किसी के सहारे हमें अपने संघर्ष में सफलता नहीं मिल सकती । हमें सम्यक रूपसे अविद्यामाया की मदद लेते हुए विद्यामाया का साथ देना चाहिये। यदि हम  केवल विद्या की उपासना करेंगे तो जीवन की मूलभूत आवश्यकतायें भोजन, वस्त्र ,आवास आदि कौन जुटायेगा? इन्हें आवश्यकतानुसार प्राप्त करने के लिये ही अविद्या का सहारा लेना पड़ता है । यदि केवल अविद्या की उपासना करेंगे तो यहीं फंसे रहेंगे । श्रुतियों में कहा गया है ‘‘ अंधं तमः प्रविश्यन्ति ये अविद्यामुपासते, ततो भूय ऐव ते तमो य उ विद्यायांरताः ।‘‘ अर्थात् जो केवल अविद्या की उपासना करते हैं वे अंधे कुए में ही अपने को फेकते हैं और जो केवल विद्या की उपासना करते हैं वे उससे भी अधिक गहरे अंधे कुए में अपने को फेक देते हैं। अतः स्पष्ट है कि सम्यक  अविद्या का उपयोग कर विद्या की उपासना करने से ही हम अपनी आध्यात्मिक प्रगति कर सकते हैं। इसलिये यह जगत मिथ्या नहीं सापेक्षिक सत्य है।

Wednesday 16 December 2015

38 संकल्प

संकल्प
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  ‘‘ अभी तक जितनी लड़कियाॅं देखीं हैं उनमें से जिसे कल देख कर आये हैं मुझे तो वह सबसे अच्छी व सुंदर लगी, अपने ‘हर्ष‘ को भी पसंद आई, दोनों इंजीनियर हैं एक ही कंपनी में काम भी करते हैं, एक सी सेलरी भी है, मैं तो कहती हॅूं आज ही लड़की वालों से आगे की बात कर  शुभ लग्न देखकर विवाह सम्पन्न कर दो, देरी करना उचित नहीं है‘‘
‘‘ मैं भी यही सोचता हॅूं।  यदि ‘हर्ष‘ का भी यही विचार है तो फिर मैं बात आगे बढ़ाता हॅूं।‘‘

‘‘ हेलो, पाॅंडे जी ! मैं त्रिपाठी,  हमें लड़की पसंद है, अब आगे की रूपरेखा के संबंध में बात करना है, यदि आप यहाॅं आ जायें तो अच्छा होगा‘‘
‘‘ ओहो, नमस्कार त्रिपाठी जी!, मैं आपके आदेश  का पालन करनें हेतु अभी आपके पास हाजिर होता हॅूं । ... ... ...

‘‘   आइये, आइये पाॅंडे जी! यहाँ  बैठिये।  - - -  वास्तव में, मैं यह जानना चाह रहा था कि आपका संकल्प क्या है?‘‘
‘‘ आदरणीय! मेरा संकल्प तो यह है कि, भगवान ने मुझे लड़कियाॅं ही दी हैं इसलिये उन्हें लड़कों के समान ही शिक्षित कर आत्मनिर्भर बना दॅूं, बस, धीरे धीरे वही पूरा करता जा रहा  हॅूं।‘‘
‘‘ अरे पाॅंडे जी! वह तो सभी करते हैं, मैं तो इस विवाह के संबंध में किये गये आपके संकल्प के बारे में पूछ रहा था अर्थात् कितना खर्च करने का विचार है?‘‘
‘‘आप ही बता दें कि आप कम से कम कितना खर्च करना चाहते हैं‘‘
‘‘  इस जमाने में दस से पन्द्रह लाख तो साधारण लोग भी खर्च कर देते हैं फिर हमारा स्तर तो,,, आप जानते ही हैं‘‘
‘‘ महोदय! जहाॅं तक मैं जानता हॅूं, ‘संबंध‘ का अर्थ है ‘सम प्लस बंध‘, अर्थात् दोनों परिवारों की ओर से प्रेम और आकर्षण के एक समान बंधन, इक्वल बाॅडस् आफ लव एन्ड अफेक्शन , इसलिये आप जो भी खर्च निर्धारित करेंगे हम दोनों परिवार बराबर बराबर बाॅंट लेंगे, ठीक है?‘‘
‘‘ अच्छा, पाॅंडे जी! फिर तो हमें इस विकल्प पर विचार करना पड़ेगा, नमस्कार!‘‘

Sunday 13 December 2015

37 बाबा की क्लास (उपवास)

बाबा की क्लास (उपवास)
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रवि-  बाबा! आज हमें उपवास के संबंध में बताईये यह क्या है, और इसका महत्व भी है या केवल प्रदर्शन  ही करते हैं लोग? 

बाबा- उपवास का अर्थ है निकट बैठना,( उप= निकट, वास = बैठना) । किसके निकट बैठना, ईश्वर  के निकट बैठना। समझे? परंतु , अधिकाॅंश  लोग उपवास का अर्थ निकालते हैं भोजन का त्याग करना और फलफूल खाना, या दिन भर भोजन त्याग कर रात में मन चाहा सुस्वादु भोजन करना। लेकिन इसे उपवास नहीं कह सकते क्योंकि केवल भोजन का त्याग करने को संस्कृत में कहते हैं ‘अनशन‘ या ‘निराहार‘, और भोजन त्याग कर केवल फलफूल खाने को कहते हैं ‘फलाहार‘।

नन्दू-  जब उपवास का अर्थ है ईश्वर  के निकट वैठना, तो भोजन के त्याग करने का कोई औचित्य ही नहीं है?

बाबा-  उपवास का सीधा संबंध स्वास्थ्य से है, मानव शरीर जीववैज्ञानिक मशीन है उसके प्रत्येक अंग को समय समय पर विश्राम देने के लिये भोजन का त्याग कर शरीर के पाचन तंत्र की सफाई करना आवश्यक होता  है। भोजन न करने पर अन्य सभी अंग आराम करते हैं और मन सक्रिय रहता है इसलिये उसे उचित आराम देने के लिये ईश्वर के  चिंतन में लगाकर उनके निकट बैठाना पड़ता है । इसलिये उपवासों के दिन ही  ईश्वर  चिंतन के लिये सर्वोत्तम दिन होते हैं। वास्तव में हम जो भोजन प्रतिदिन करते हैं उसका, पाचनतंत्र के विभिन्न अवयवों के द्वारा परिमार्जन किया जाकर मस्तिष्क के लिये उचित भोजन तैयार किया जाता है जो लसिका  या लिम्फ  कहलाता है। हमारे मस्तिष्क के ‘एक्टोप्लाज्मिक सैल‘ इसी से सक्रिय होते  हैं, इनकी संख्या पूरे ब्रह्माॅंड के कुल तारों की संख्या से अधिक होती है। इनकी आधी संख्या के बराबर न्यूरान होते हैं जो सोचने विचारने के लिये तथा आधे ‘ग्लायल सैल‘ कहलाते हैं जो न्यूरान्स को सक्रिय बनाये रखने में सहायता करते हैं। आधुनिक शोधों से पता चला है कि आइंस्टीन के स्तर के विद्वानों के ब्रेन सैल भी अधिकतम 9 से 10 प्रतिशत ही सक्रिय पाये गये हैं शेष उदासीन। इससे ही अंदाज लगाया जा सकता है कि जिनके शतप्रतिशत ब्रेनसैल सक्रिय होंगे वे इस दुनियाॅ में किस स्तर पर कहलायेंगे। इससे यह स्पष्ट होता है कि वह लिंफ ही है जिसका सदुपयोग कर हम अपने ब्रेन सैलों को अधिकाधिक संख्या में सक्रिय बना सकते हैं।

राजू-  तो बाबा! इसका अर्थ क्या यह नहीं है कि हमें अधिकाधिक भोजन करना चाहिये जिससे हमारे अधिक से अधिक ब्रेन सैल सक्रिय हो जायें ? भोजन आखिर क्यों त्यागा जाये?

बाबा- ऋषियों ने इस संबंध में एक और रहस्योद्घाटन किया है वह यह कि एक माह में जो भोजन हम करते हैं  उससे बनने वाले लिंफ को ये क्रमशः सक्रिय होते जाने वाले सैल पूरा उपयोग में नहीं ला पाते और चार दिन के भोजन से बनने वाले लिंफ के बराबर लिंफ अतिशेष हो जाता है जो पुरुषों में ‘सीमेन‘ के रूप में और महिलाओं में ‘ ओवा‘ के रूप में बदलकर नष्ट होता रहता है। इसी अतिशेष लिंफ को पूर्ण रूपेण लाभदायी बनाने के लिये माह में चार दिन उपवास करने का उपाय निकाला गया । इसके लिये प्रत्येक माह की दोनों एकादशियाॅं और अमावश्या  तथा पूर्णिमा को उपवासों के लिये उपयुक्त दिन माना गया है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक पक्ष की इन तिथियों के बीच चंद्रमा, पृथ्वी के अधिक निकट आ जाता है जो जलीयतत्व अर्थात  एक्वस फेक्टर  को आकर्षित करता है जिससे हमारे मन पर ज्वार भाटे जैसे उत्तेजक विचार आने लगते हैं। अतः उन दिनों यदि निर्जल उपवास रखा जाता है तो अतिशेष लिंफ सीमेन में नहीं बदल पायेगा और नष्ट होने से बच जायेगा तथा अन्य लिंफ सक्रिय ब्रेन सैल्स के द्वारा पूर्ववत  अवशोषित किया जाकर उपयोग में ले लिया जायेगा। नैष्ठिक ब्रह्मचारियों और संन्यासियों के लिये लिंफ की एक भी बूंद नष्ट नहीं होनें देनें के निर्देशों  का पालन करना होता है। ग्रहस्थों अर्थात् प्राजापत्य ब्रह्मचारियों को  इस अतिशेष लिंफ का ही उपयोग केवल संतानोत्पत्ति के लिये करने के निर्देश  हैं। वर्तमान युग के लोगों में विशेषतः युवा वर्ग में लिंफ के महत्व की जानकारी नहीं होती अतः अवांछित उत्तेजक विचारों के आने पर वे अनियंत्रित होकर अनैतिक और समाज विरोधी गतिविधियों में लग जाते हैं जिससे अपना जीवन तो नष्ट करते ही हैं वे समाज का भी अनेक प्रकार से अहित करते हैं।

चंदू-  बाबा! क्या उपवास करने के लिये किसी विशेष विधि का पालन करना भी निर्धारित है या नहीं?

बाबा- उपवास प्रारंभ करने और समाप्त करने के लिये भी विहित प्रक्रिया का पालन करना चाहिये, इसमें सूर्योदय से सूर्योदय तक भोजन और पानी का त्याग करना चाहिये परंतु यदि कोई बीमारी हो तो बीच बीच में  केवल जल पिया जा सकता है। जिस दिन उपवास करना हो उसकी पूर्व संध्या को आधा भोजन ही करना चाहिये। उपवास का पूरा दिन साधना और ईश्वर प्रणिधान में लगाना चाहिये जिसमें स्वाध्याय, चिंतन, मनन और निदिद्यासन भी बीच बीच में करते रहना चाहिये क्योंकि यही विधियाॅं हैं जो मन को ईश्वर  के अधिक निकट ले जाती हैं। उपवास तोड़ते समय दो या तीन नीबू हल्के गर्म, एक लिटर पानी में निचोड़ कर दो चम्मच नमक डालकर गुनगुने पानी को धीरे धीरे पूरा पी चुकने के आधे घंटे बाद फिर आधा लिटर सादा पानी पीने पर यदि टायलेट जाने की इच्छा न हो तो कुछ मिनटों में आधा लिटर सादा पानी और पीना चाहिये और टायलेट के आसपास ही चलते फिरते रहना चाहिये, अगले आधे घंटे में रुक रुक कर  तीन या चार बार टायलेट जाना पड़ सकता है जिसमें पेट का रुका हुआ सभी दूषित पदार्थ पानी की तरह पतला होकर बाहर हो जायेगा।  इसे डायरिया मानकर डरें नहीं।  जब स्वच्छ पानी की तरह यूरिन/शौच आने लगे  तब इसके बाद फिर टायलेट नहीं जाना पड़ेगा । स्नान कर दो या तीन केले खा लेना चाहिये और आधे घंटे के बाद हल्का भोजन खिचड़ी आदि ही लेना चाहिये, इसके एक दो घंटे बाद पूरा भोजन करना चाहिये। इस प्रकार पेट की सफाई हो जायेगी और ईश्वर  चिंतन भी , जो कि उपवास की परिभाषा के अनुकूल है।
इस प्रकार उपवास में लगभग 36 घंटे तक निराहार रहना पड़ता है परंतु जो इतनी लंबी अवधि तक नहीं रह सकते हैं वे कम सम कम 24 घंटे के अनुसार इस विधि को व्यवस्थित कर सकते हैं। 
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Sunday 6 December 2015

36 बाबा की क्लास (इष्ट मंत्र)

36 बाबा की क्लास (इष्ट मंत्र)
रवि- बाबा! आपने अनेक बार ‘मंत्र‘ और ‘इष्टमंत्र‘ इन शब्दों का उल्लेख अपनी चर्चाओं में किया है, क्या ये दोनों अलग अलग हैं? वास्तव में ये हैं क्या?

बाबा-  यह समग्र ब्रह्माॅंड विराट मन (cosmic mind)  की विचार तरंगों का प्रवाह है। इसलिये इसका प्रत्येक छोटा बड़ा घटक कंपनकारी है। इसके घटकों में स्वाभाविक विभिन्नता प्रकट करती है कि वे सब अपनी अपनी पृथक आवृत्तियाॅं (frequencies) अथवा तरंग लम्बाइयां  (wave lengths)  रखते हैं । प्रत्येक इकाई अस्तित्व की आवृत्ति उसकी मूल आवृत्ति  (fundamental frequency) या बीज मंत्र या इष्टमंत्र कहलाती है। यदि किसी इकाई मन  (unit mind)  को उसकी मूल आवृत्ति ज्ञात करा दी जाये और विराट मन की मूलआवृत्ति के साथ अनुनाद (resonance) स्थापित करने को कहा जाये तो वह समग्र ब्रह्माॅंड के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेगा और उस परमसत्ता के साथ अपना एक्य स्थापित कर लेगा। योगविज्ञान (spiritual science) इसी सिद्धान्त पर आधारित है। मंत्र वह है जिसके मनन करने से मुक्ति मिले, ‘‘मननात् तारयेत यस्तु सः मंत्रः प्रकीर्तितः‘ ।

चंदू- तो साधना करना क्या है? और आत्मसाक्षात्कार करना क्या है?

बाबा- कोई व्यक्ति जो परम सत्ता से साक्षात्कार करने का अभिलाषी होता है  उसे सक्षम गुरु द्वारा उसकी मूल आवृत्ति से परिचय कराया जाता है जिसे इष्टमंत्र कहते हैं, इष्टमंत्र की सहायता से अपने लक्ष्य और अभीष्ट को पाने के लिये किया जाने वाला प्रयास साधना करना कहलाता है और अपनी मूल आवृत्ति को विराटमन की आवृत्ति के साथ अनुनादित कर लेना आत्मसाक्षात्कार कहलाता है।

नन्दू- क्या इष्टमंत्र को विशेष प्रकार से बनाया जाता है या कोई निर्धारित विधि होती है?

बाबा- सक्षम गुरु किसी सुपात्र का चयन कर ही उसके संस्कारों के अनुकूल ऐंसा इष्टमंत्र चुनते हैं जिससे लक्ष्य की ओर जाने का स्पष्ट अर्थ निकलता हो , जो केवल दो अक्षरों का हो और उसे श्वाश प्रश्वाश   के साथ सरलता से जाप क्रिया में प्रयुक्त किया जा सकता हो। इसके बाद उसे शक्तिसंपन्न कर शिष्य को प्रदान करते हैं। इष्टमंत्र प्राप्त करने की यह क्रिया दीक्षा प्राप्त करना कहलाती है। इसके प्राप्त होते ही पिछले सभी जन्मों के संस्कार क्षय होना प्रारंभ हो जाते हैं ।

रवि- इष्टमंत्र की पहचान करना और उसे शक्तिसम्पन्न करना यह तो विरले गुरु ही कर पाते होंगे?

बाबा-  हाॅं, साधक के लिये सबसे महत्वपूर्ण उसका इष्टमंत्र ही है, उसी के चिंतन, मनन और निदिध्यासन से वह परम प्रकाश  पाता है। इष्टमंत्र प्रत्येक व्यक्ति का अलग अलग होता है जो उसके संस्कारों के अनुसार चयन किया जाकर सद्गुरु की कृपा से प्राप्त होता है। यह कार्य कौलगुरु ही करते हैं क्योंकि वे ही पुरश्चरण की क्रिया में प्रवीण होते हैं। पुरश्चरण का अर्थ है शब्दों को शक्ति सम्पन्न करने की क्षमता होना। अपने अपने इष्टमंत्र का  श्वाश प्रश्वाश  की सहायता से नियमित रूपसे जाप करते रहने का इतना अभ्यास करना होता है कि यह जाप नींद में भी चलता रहे। इस स्थिति को प्राप्त होने पर ओंकार (cosmic sound)  के साथ अनुनाद स्थापित करने में कठिनाई नहीं होती। अनुनाद की यही स्थिति जब स्थिर या स्थायी हो जाती है तो इसे ही समाधि कहते हैं। शक्तिमान शब्द  ही मंत्र कहलाते हैं जो कौलगुरु साधक को उसके संस्कारों के अनुसार इष्टमंत्र के रूप में कृपापूर्वक देते हैं और मंत्रचैतन्य हो जाने पर अर्थात् उपरोक्तानुसार ओंकार के साथ अनुनाद स्थापित हो जाने पर, उन्हीं की कृपा से परमपुरुष से साक्षात्कार होता है। जिसे सक्षम गुरु से इष्टमंत्र मिल गया वही धन्य है उसी का जीवन सफल है। अन्य सब तो प्रदर्शन मात्र है।

Monday 30 November 2015

35 बाबा की क्लास (कुछ भ्रान्तियाॅ- 2)

35 बाबा की क्लास (कुछ भ्रान्तियाॅ- 2)
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नन्दु- अनेक विशेषज्ञों का यह कहना कितना सार्थक है कि आध्यात्मिक साधना के लिये ब्रह्मचर्य का पालन करना अनिवार्य है?

बाबा- जो लोग ब्रह्मचर्य पालन करने के भय से साधना नहीं करते, उन्हें समझना चाहिये कि मन को वाह्य जड़ात्मक चिंतन से आन्तरिक सूक्ष्म चिंतन की ओर ले जाने का प्रयास करना ही ब्रह्मचर्य का पालन करना है। प्रकृति के प्रभाव से ही मन जड़ता की ओर जाता है और उसके प्रभाव को कम करने से वह सूक्ष्मता की ओर जाता है। मुक्ति का अर्थ है प्रकृति के प्रभाव को कम करके जड़ता से सूक्ष्मता की ओर जाना। ब्रह्म स्वभाव से सूक्ष्म हैं अतः यदि मन जड़ता की ओर होगा तो वह ब्रह्म को नहीं पा सकता इसलिये मन को साॅंसारिक जड़ पदार्थो से दूर करने का उपाय है ‘‘ ब्रह्म का चिंतन करना‘‘ जो प्रकृति का मन पर प्रभाव कम करते हुए ही किया जा सकता है क्योंकि प्रकृति ही उसे चारों ओर के जड़ पदार्थों की ओर खींचती रहती है। इसलिये ब्रह्मचर्य वह कार्य है जो प्रकृति के प्रभावों से मन को ब्रह्म की ओर ले जाने का प्रयत्न करे और ब्रह्मचारी वह है जो हमेशा  ब्रह्म चिंतन में डूॅबा रहे। यह कार्य साधना का अभ्यास करने पर ही संभव है। साधारणरतः वीर्य संरक्षण को ही ब्रह्मचर्य माना जाता है पर वास्तव में अष्ट पाश  और षडरिपु मन को बाहरी ओर के संसार में ही बाॅंधते हैं, इन चौदह में से ‘काम‘  केवल एक है अतः जब तक यह सभी चौदह नियंत्रण में नहीं आते केवल ‘काम‘ को नियंत्रित करने  से ब्रह्मचर्य का पालन करना नहीं कहला सकता। अविद्यामाया जो इन चौदह प्रकारों से मन को इतना जकड़े रहती है उससे तब तक नहीं छूटा जा सकता जबतक साधना न की जावे। इस साधना के सहारे धीरे धीरे मन अविद्या के प्रभाव से दूर होता जाता है और वही ब्रह्मचारी कहलाता है जो अविद्या के प्रभाव से मुक्त हो गया। जो साधना का अभ्यास किये बिना ही ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहते हैं वे केवल समय को ही नष्ट करते हैं। इसलिये ब्रह्मचर्य पालन करने के लिये पारिवारिक जीवन को त्यागने की आवश्यकता नहीं हैं। साधना का बल प्रकृति के बल से अधिक होता है अतः इसकी सहायता से कोई भी ब्रह्मचारी हो सकता है, वीर्य का रक्षण कर सकता है और बुद्धि को तीक्ष्ण बना सकता है।

रवि- बाबा! आपने अनेक बार षडरिपुओं और अष्टपाशों  का संदर्भ दिया है, वे क्या हैं?

बाबा- मनुष्य का जीवन आठ प्रकार के बंधनों और छः प्रकार के शत्रुओं से घिरा रहता है ।  काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, और मात्सर्य ये षडरिपु और भय, लज्जा, घृणा, शंका, कुल, शील, मान और जुगुप्सा ये अष्ट पाश  है। षड रिपु का अर्थ है छै शत्रु, इन्हें शत्रु इसलिये कहा जाता है क्योंकि ये इकाई चेतना को सूक्ष्मता की ओर जाने से रोककर स्थूलता में अवशोषित करने का कार्य करते हैं। इकाई चेतना का उच्चतम स्तर सूक्ष्म है अतः उस ओर जाने से रोकने वाला शत्रु हुआ। अष्ट पाश  का अर्थ है आठ बंधन, बंधनों में बंधा हुआ कोई भी व्यक्ति अपनी गति खो देता है। स्रष्टि में हम देखते हैं कि मानव की गति स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है परंतु अष्ट पाश  जैसे लज्जा घृणा और भय आदि स्थूलता से जकड़े रहने के कारण सूक्ष्मता की ओर जाने से रोके रहते हैं।

राजू- लेकिन कुछ लोग तो यह सलाह देते हैं कि साधना करना, भजन पूजन करना तो बुढ़ापे के काम हैं छोटी अवस्था से इनमें लगना बेकार है?
बाबा- कुछ लोग मानते हैं कि बुढ़ापे के लिये ही भजन कीर्तन ठीक हैं, इसलिये युवावस्था में इससे दूर ही रहते हैं पर वे यह नहीं जानते कि उनके जीवन में बुढ़ापा आयेगा भी या नहीं यह निश्चित  नहीं है। बृद्धावस्था में जब शरीर कमजोर हो जाता है, नजरें कमजोर हो जातीं हैं, बीमारियाॅं घेरे रहती हैं, स्मरणशक्ति कमजोर पड़ जाती है, कर्मों का फल भोगते हुए मन कुछ भी नया करने का साहस नहीं करता, ऐसी दशा  में ईश्वर  को केवल इसलिये पुकारना कि कष्ट से मुक्ति मिले कितना उचित है? इतना ही नहीं, जब इन झंझटों के कारण मन स्थिर नहीं हो पायेगा तो भगवान को पुकारने का कोई मूल्य नहीं । इस अवस्था में शरीर की कमजोरियों और पूर्वकाल की यादों के चिंतन में ही मन को फुरसत नहीं मिल पाती फिर ईश्वर  का चिंतन कहाॅं संभव होगा। यही कारण है कि बुढ़ापे में साधना का अभ्यास कर पाना संभव ही नहीं हो पाता यदि प्रारंभ से ही उस ओर मन को लगाने का अभ्यास न किया जाये। बांस के पेड़ को उसकी युवावस्था में इच्छानुसार मोड़ना सरल होता है, बहुत पुराना हो जाने पर मोड़ने से वह टूट जाता है, यही हाल साधना का होता है प्रारंभ से ही अभ्यास करना सफलता देता है बुढ़ापे में नहीं।

रवि- यह सुख और दुख क्या हैं?

बाबा- साॅंसारिक भोगों को पाकर मन बड़ा प्रसन्न होता है और न पाने पर दुखी । पर, जब मन उन्हें चाहे ही नहीं तो उनके पाने या न पाने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इच्छा होने पर भी जब वह प्राप्त न हो तो और अधिक दुख होता है और मन को विचलित करता है। जैसे शराबी को यदि शराब न मिले तो उसे अपार कष्ट अनुभव होगा पर गैरशराबी पर इसके मिलने या न मिलने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा । साधना करने की प्रणाली का अभ्यास सक्षम गुरु के द्वारा इस प्रकार कराया जाता है कि वह अतीन्द्रिय रूप से मन को जड़ पदार्थों की ओर जाने से रोक देता है और भौतिक पदार्थों की चाह समाप्त हो जाती है। कुछ लोग सोचते हैं कि साधना करने पर भौतिक आनन्द और सुख सुविधाएं छिन जायेंगी उनका यह विचार अविवेकपूर्ण है और वे जो इन सुख सुविधाओं को जीवन का आवश्यक  अंग मानते हैं वे भी गलती करते हैं।

Sunday 22 November 2015

34 बाबा की क्लास (कुछ भ्रान्तियाॅ- 1)

34  बाबा की क्लास (कुछ भ्रान्तियाॅ- 1)
रवि-बाबा! कुछ लोगों का मानना है कि अमुक संत के पास सिद्धि है और वे किसी भी समस्या का समाधान कर सकते हैं, कष्ट दूर कर सकते हैं, घटनायें टाल सकते हैं? यह कैसे होता है?

बाबा- यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया बराबर और विपरीत दिशा  में होती है बशर्ते टाइम, स्पेस और पर्सन में परिवर्तन न हो । इस नियम  के माध्यम से प्रकृति का उद्देश्य  यह  शिक्षा देना होता है कि बुरे कार्यों से दूर रहना चाहिये। पर कुछ लोग साधना से प्राप्त बल के द्वारा इसे दूर करने का प्रयास करने में इस विधिमान्य नियम को भूल जाते हैं और समझते हैं कि वे कल्याण कर रहे हैं। कर्मफल तो कर्म करने वाले को भोगना ही पड़ेगा, चाहे कितना बड़ा भक्त क्यों न हो वह इसे नहीं रोक सकता यदि वह ऐंसा करता है तो वह भोले भाले लोगों को धोखा देने के अलावा कुछ नहीं माना जायेगा। यह हो सकता है कि कर्मफल का दंड भोगने का समय कुछ आगे टल जाये पर वह भोगना ही पड़ेगा चाहे उसे फिर से जन्म क्यों न लेना पड़े, क्योंकि हो सकता है कि दंड भोग के समय, व्यक्ति के मन में साधना कर मुक्ति की जिज्ञासा जाग जाये परंतु साधना सिद्धि प्राप्त व्यक्ति अपने बल से उसका कष्ट दूर करने का प्रयास करे तो यह प्रकृति के नियम के विरुद्ध होने के कारण वह कल्याणकारी नहीं माना जायेगा वरन् वह दंड का भागीदार माना जायेगा।  इसलिये पराशक्तियों का उपयोग करना ईशनिंदा ही माना जायेगा क्योंकि यह प्रकृति के नियमों को चुनौती देकर उन्हें उदासीन करना ही कहलायेगा। पराशक्तियों के उपयोग से पानी पर चल सकते हैं, आग में चल सकते हैं, असाध्य बीमारियों को दूर कर सकते हैं, चमत्कार दिखा सकते हैं पर यह प्रकृति के स्थापित संवैधानिक नियमों की अवहेलना होगी और उस पराशक्ति के उपयोगकर्ता को कर्मफल भोगना ही पड़ेगा।

नन्दू- एक दिन राजू के पिता कह रहे थे कि उनके गुरुजी बहुत उच्च स्तर के हैं और वह जिस पर कृपा कर दें तो उसे मुक्ति मोक्ष तत्काल मिल जाता है, उसे कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं होती?

बाबा- कुछ लोग यह भ्रान्त धारणा पाल लेते हैं कि उनके गुरु तो पहुँचे हुए हैं, उनकी कृपा से वे मुक्त हो जायेंगे उन्हें साधना की क्या आवश्यकता? पर वे गलती करते हैं क्योंकि मुक्ति बिना प्रयास के नहीं मिल सकती। गुरु की कृपा के बिना मुक्ति नहीं मिल सकती परंतु यह बात भी सही है कि गुरुकृपा पाने की योग्यता भी तो होना चाहिये केवल तभी कृपा मिल सकती है। गुरु कृपा पाने के लिये ही शिष्य को , विश्वास  और भक्तिभाव से साधना करने के लिये गुरु सतत निर्देश  देते हैं।

इंदु- परंतु बाबा! भक्त गण हमेशा  दुखी ही देखे जाते हैं ,शायद इसीलिये लोग आध्यात्म से दूर ही रहना चाहते हैं?
बाबा- आध्यात्मिक साधना करने वाले भक्त अपने कर्मफलों को भोगने के लिये पुनः जन्म नहीं लेना चाहते अतः वे इसी जन्म में मुक्त होने की उत्कंठा से शेष बचे सभी संस्कारों के प्रभावों को शीघ्र ही इसी जन्म में भोग लेना चाहते हैं अतः यदि उन्हें साधना करने में समस्यायें/कष्ट आते हैं तो इसे शुभ संकेत माना जाना चाहिये क्यों कि यह उनके कर्मफल का भोग तेजी से ही हो रहा होता है।

चंदू- तो क्या साधना करने और अविद्या माया के जंजाल से बचने के लिये जंगल में जाना आवश्यक  है, क्योंकि यहाॅं तो साॅंसारिक लोग, कष्ट पा रहे साधकों पर व्यंग करते हुए हॅंसते ही है?

बाबा- अविद्या माया का अर्थ है अष्टपाश  और शडरिपुओं का समाहार, अतः अविद्यामाया से दूर भाग कर उससे बचा नहीं जा सकता। उससे बचने के लिये मन को सूक्ष्मता की ओर प्रत्यावर्तित करना पड़ता है। जैसे, किसी घाव के ऊपर मंडराने वाली मक्खियों को दूर भगाना ही पर्याप्त समाधान नहीं है घाव को भरने का भी प्रयत्न करना होगा। महान गुरु के द्वारा सिखाई गयी साधना की विधि घाव भरने वाली मरहम है इसी की सहायता से कोई भी अविद्या को दूर भगाकर मुक्त हो सकता है। अविद्यामाया के हटने पर साधना के समय आने वाले सभी व्यवधान समाप्त हो जाते हैं। चूंकि यही एकमात्र विधि है जो अविद्या को दूर करती है अतः घर में रहते हुए सरलता से की जा सकती हैं, भले अविद्या प्रारंभ में कुछ व्यवधान करे पर एक बार हार जाने के बाद वह आध्यात्म साघना में रुकावट नहीं डालती। घर में रहकर साधना करने में, उनकी तुलना में अधिक सुविधा होती है जो घर छोड़कर जंगल में जाकर अभ्यास करते हैं। सत्य की पहचान कर लेने पर लोगों की हॅंसी या व्यंग करने का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

रवि- बाबा! कुछ लोग किसी स्थान विशेष जैसे तीर्थ आदि, में जाकर साधना करने की सलाह देते हैं यह कितना उचित है?
बाबा- यह भेदभाव करना कि किसी स्थान विशेष पर साधना करने में सुविधा होती है या कोई स्थान साधना के लिये खराब है यह उचित नहीं है यह तो ब्रह्म को भागों में बाॅंटना हुआ। सभी कुछ तो ब्रह्म की ही रचना है अतः किसी को अच्छा या बुरा कहना ब्रह्म को ही अच्छा या बुरा कहना हुआ, इसप्रकार तो स्रष्टि की शेष रचनाओं के साथ एकत्व रख पाना कठिन होगा। ब्रह्म के लिये सभी स्थान एक से ही हैं अतः ब्रह्म साधना कहीं भी की जा सकती है। संसार को छोड़कर साधना के लिये जंगल या अन्य स्थान को जाना अतार्किक है और संसार के छूट जाने के भय से साधना न करना अविवेकपूर्ण है ।

Thursday 19 November 2015

33 परिग्रह


फटे वस्त्रों में जीर्ण देह को लपेटे, रोड के एक किनारे बैठे, ललचायी आॅंखों से प्रत्येक राहगीर को देख रहे व्यक्ति की ओर मैं अचानक ही कुछ मदद करने की इच्छा से जा पहुंचा। 
कुछ भी देने से पहले मैं ने उससे, उसकी इस दशा  के लिये कौन उत्तरदायी है यह जानना चाहा।
वह, बहुत गहराई में डूबी अपनी व्यथित हॅंसी को सप्रयास प्रकट करते हुए बोला, 
‘‘साहब! यदि घर में केवल एक दर्जन केले हों और खाने वाले दस लोग हों तो विवेकपूर्ण निर्णय क्या होगा ?‘‘
मैंने कहा, ‘‘ कम से कम एक केला प्रत्येक को ले लेना चाहिये और बचे हुए दो केलों को सर्वानुमति से उन्हें देना चाहिये जिन्हें सबसे अधिक भूख लगी हो‘‘
‘‘ परंतु, साहब! यदि सभी बारह केले एक ही व्यक्ति खा ले तो ? बाकी नौ लोग तो मेरे जैसे ही हो जायेंगे, है कि नहीं?‘‘
इस एक प्रश्न  के साथ जुड़ी लंबी आभासी प्रश्नावली  की आहट पा, मैं निरुत्तर हो गया।

Saturday 14 November 2015

32 बाबा की क्लास ( स्वर विज्ञान-2)

मित्रो! पिछली क्लास में आपने स्वरविज्ञान के उस वैज्ञानिक पक्ष को जाना जिसे प्राणायाम कहते हैं इस क्लास में स्वरविज्ञान के उस व्यावहारिक पक्ष पर चर्चा की जायेगी जो हमारे दैनिक जीवन के हर कार्य से संबंधित है।

32  बाबा की क्लास ( स्वर विज्ञान-2)
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चंदू - बाबा! साधारण और विशेष प्राणायाम में क्या अंतर है?

बाबा- साधारण प्राणायाम में निर्धारित विधि से श्वास को लेते हुए और छोड़ते हुए इष्टमंत्र के साथ लयबद्ध होना पड़ता है जबकि विशेष प्राणायाम में श्वास को निर्धारित विधि से लेना अर्थात् पूरक, रोकना अर्थात् कुंभक और छोड़ने अर्थात् रेचक का क्रम, रोग के अनुसार निर्धारित विंदु पर  मन को केन्द्रित करने और मंत्र के साथ लयबद्ध करना होता है।  

रवि- आपने कहा कि विशेष प्राणायाम विशेष प्रकार की बीमारियों को दूर करने के लिये किये जाते हैं, वे कौन कौन से हैं? क्या हम लोग भी उन्हें कर सकते हैं?

बाबा-  रवि! शायद तुम्हें ज्ञात होगा कि यह जगत परमसत्ता  की विचार तरंगें  अर्थात् ब्राह्मिक प्रवाह या cosmic flow है और जब इसका कोई इकाई अस्तित्व  अपने को उससे पृथक प्रवाह मानने लगता है तब उसका वैचारिक संसार ही अलग हो जाता है और सभी प्रकार के शारीरिक और मानसिक व्यतिक्रम  होने लगते हैं। विश्व  के सभी दर्शन  और उनके अनुयायी जितने भी प्रकार की पूजा या उपासना पद्धतियाॅं सिखाते हैं वे उसी ब्राह्मिक लय अर्थात् cosmic rhythm   जिसे उपनिषदों में ‘‘ओंकार ध्वनि" कहा गया है, के साथ लयबद्धता अर्थात् resonance करने के प्रयास ही होते हैं, यह अलग बात है कि पोंगा पंथियों ने इस यथार्थ को छिपाकर स्वार्थवश  अपना अपना व्यवसाय बना लिया है और अपने आप के साथ साथ सब को धोखा दे रहे हैं। उचित विधियों के द्वारा जब रोग प्रभावित व्यक्ति ब्राह्मिक प्रवाह के साथ लयबद्धता प्राप्त करने लगता है, वह संबंधित रोग से मुक्त होने लगता है । विशेष प्राणायाम  विशेषज्ञ के द्वारा ही सिखाये जाते है और वे उनकी उपस्थिति में केवल संबंधित जटिल रोगों के दूर करने के लिये ही रोगी द्वारा किये जाते हैं । स्पष्ट है कि उन्हें सभी को सीखने की आवश्यकता नहीं होती। तुम लोगों की जानकारी के  लिये उनके नाम बताये देता हॅूं जैसे, वस्तिकुंभक, शीतलीकुंभक, सीतकारीकुंभक, कर्कट प्राणायाम, पक्षबध प्राणायाम आदि। प्राणायाम, प्राणवायु को नियंत्रित करने की विधि है अतः नाड़ीजन्य, वातजन्य और अस्थिजन्य व्याधियों को दूर करने के लिये इन्हें प्रयुक्त किया जाता है। 

नन्दू- बाबा! स्वर विज्ञान के अनुसार हमें किस स्वर में कौन सा कार्य करने पर उत्साहवर्धक परिणाम प्राप्त होते हैं?

बाबा- सामान्यतः लोग स्वरशास्त्र के संबंध में कुछ नहीं जानते और अपनी श्वास  क्रिया पर उचित नियंत्रण करना भी नहीं जानते जबकि श्वसन क्रिया  का भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य से गहरा संबंध है। जैसे ,जब शरीर भौतिक कार्यों जैसे दौड़ना, चलना, भोजन आदि करता हो तो श्वास  दाॅंयी नासिका से प्रवाहित होना चाहिये। भोजन को सही ढंग से पचाने के लिये भोजन करने के आधा घंटा पहले , भोजन करने के  दौरान और भोजन करने के एक घंटा बाद तक दाॅंया स्वर ही चलना चाहिये।
इसके विपरीत मानसिक और मस्तिष्क संबंधी कार्य जैसे पढ़ना, याद करना, स्वाध्याय, ध्यान धारणा , प्रत्याहार , गुरुपूजा आदि कार्य वाॅंये स्वर में करना चाहिये। वैसे, वाॅयाॅं और दायाॅ दोनों स्वर एकसाथ चलने की दशा  भगवद् चिंतन और ध्यान के लिये सबसे अच्छे माने गये हैं परंतु दोनों स्वर एक साथ चलने का पता चल पाना कठिन होता है। 
स्वस्थ व्यक्ति का स्वर डेड़ से दो घंटे के बीच स्वाभाविक रूप से बदलता रहता  हैं। इस परिवर्तन के संबंध में उचित रूपसे जानकारी रखना बहुत जरूरी होता है क्यों कि दिनचर्या में परिवर्तन होने पर किसी विशेष काम के लिये उचित स्वर प्राप्त करना कठिन हो जाता है। इस परिस्थिति में कृत्रिम विधियों से अनुकूल स्वर को लाना होता है ।

रवि- बाबा! वह कृत्रिम विधि क्या है जिससे हम आवष्यकतानुसार स्वर पा सकते हैं?

बाबा-  आवश्यकतानुसार किसी कार्य के करने के समय यदि उचित स्वर नहीं चलता है और वह कार्य कर लिया जाता है तो अनेक प्रकार की मानसाध्यात्मिक समस्यायें  जन्म ले लेती हैं। इसलिये उचित कार्य हेतु उचित स्वर पाने के लिये कृत्रिम रूप से स्वर को लाना पड़ता है , जैसे भोजन करने के समय यदि वाॅंया स्वर चलता हो तो इस अवस्था में भोजन करने पर वह ठीक तरह से नहीं पचेगा अतः भोजन करने के पहले वाॅंये हाथ को सीधा फैलाये हुए वायीं करवट कुछ मिनट तक लेटे रहने पर स्वर दायाॅं चलने लगेगा, इसी प्रकार वाॅंया स्वर लाने के लिये दायाॅ हाथ फैलाये दायीं करवट कुछ मिनट लेटने पर वाॅयां स्वर प्राप्त हो जायेगा। 
श्वसन क्रिया पूर्णतः वैज्ञानिक है, जब इडा नाड़ी सक्रिय होती है तो स्वर वाॅंया और जब पिंगला नाड़ी सक्रिय होती है तो स्वर दायां  चलता है। जब सुषुम्ना नाड़ी सक्रिय होती है तब दोनों स्वर चलते हैं। इस प्रकार ये नाडि़याॅं मानव शरीर की मानसिक और आध्यात्मिक क्रियाशीलता को गहराई से प्रभावित करती हैं।

चंदू- सोने के लिये सबसे अच्छी स्थिति क्या है?

बाबा- सोते समय पाचन प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है अतः स्पष्ट है कि उसकी सक्रियता बढ़ाने के लिये श्वास दाॅंयी नासिका से चलना चाहिये , यह तभी होगा जब आप वाॅंयी करवट से सोयेंगे। पीठ के बल सोना बुरा है और उससे भी बुरा है दायीं करवट से सोना, और सबसे बुरा है पेट के बल सोना, इसलिये इन बातों का ध्यान रखना चाहिये।

नन्दू- इसके अलावा दैनिक जीवन के वे कौन से कार्य हैं जहाॅं स्वर का ध्यान रखना चाहिये?

बाबा- उपवास का  दिन भगवद् चिंतन के लिये सबसे उपयुक्त दिन होता  हैं परंतु नवाभ्यासी के लिये भूख लगना स्वाभाविक बाधा खड़ी करता है  अतः स्वर को बदल कर भूख पर नियंत्रण पाया जा सकता है जैसे, उपवास के दिन जब भी भूख लगे दायीं करवट से लेट जाने पर पाॅंच दस मिनट में ही वाॅया स्वर चलने लगेगा और भूख लगने का आभास नहीं होगा।  
- अजीर्ण होने पर अधिक दर्द होने की स्थिति में जिस स्वर से श्वास  चल रही हो उसी करवट लेट जाने पर श्वास  कुछ मिनट में बदल जायेगी और दर्द दूर हो जायेगा।
- योगासन करने के समय या तो वाॅंये या दोनों स्वर चलना चाहिये परंतु दायें स्वर के चलने पर योगासन नहीं करना चाहिये। किंतु भुजंगासन, पद्मासन, वीरासन, सिद्धासन , दीर्घप्रणाम आदि आसन करते समय स्वर पर ध्यान देना आवश्यक  नहीं है। 
- सधना करते समय यदि मन यहाॅं वहाॅं भागता है तो पता करें कि कौन सा स्वर चल रहा है और दाॅंयीं ओर कुछ मिनट लेटकर उसे वाॅंये स्वर में बदल जाने पर फिर से साधना में बैठ जायें मन लगने लगेगा।

Monday 9 November 2015

31 बाबा की क्लास (स्वर विज्ञान-1)

31 बाबा  की क्लास (स्वर विज्ञान-1)
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नन्दू- बाबा! आज हमें स्कूल में योगशिक्षक ने प्राणायाम सिखाया।

चंदू- कैसे?

नन्दू-  एक ओर से साॅंस को रोककर दूसरी ओर से लेना और दूसरी ओर से साॅंस बाहर करना और फिर से उसी ओर लेते हुए दूसरी ओर छोड़ना।

बाबा- और क्या बताया?

नन्दू- बस, इसी का अभ्यास कराते रहे।

बाबा- यह तो अधूरा ज्ञान है, इससे तो यह करने वालों को लाभ के स्थान पर हानि हो सकती है। चलो ,आज हम लोग इसी पर चर्चा करते हैं ध्यान से सुनकर याद रखना। भगवान शिव ने सबसे पहले यह अवलोकन किया कि हमारा जीवन श्वास की आवृत्तियों से बंधा हुआ है। ये प्रतिदिन 21000 से 25000 तक होती हैं जो व्यक्ति व्यक्ति में बदलती रहती हैं। मनुष्य की श्वास लेने की पद्धति, मन, बुद्धि और आत्मा पर प्रभाव डालती है। इडा, पिंगला, और सुषुम्ना स्वरों की पहचान करना और किस स्वर में किस कार्य को करना चाहिये , आसन प्राणायाम धारणा ध्यान आदि कब करना चाहिये यह सब स्वरविज्ञान या स्वरोदय कहलाता है। शिव से पहले यह किसी को ज्ञात नहीं था, बद्ध कुंभक, शून्य कुंभक आदि भी इसी के प्रकार हैं। उन्होंने बताया कि जब इडानाड़ी सक्रिय होती है तो वायां स्वर, जब पिंग़लानाड़ी सक्रिय होती है तो दायां स्वर और सुषुम्नानाड़ी के सक्रिय होने पर दोनों नासिकाओं से स्वर चलते हैं। ये स्वर निर्धारित समयान्तर में स्वाभावतः बदलते रहते हैं परंतु इन्हें इच्छानुसार बदला भी जा सकता है।

रवि- बाबा! हमें यह क्यों सीखना चाहिये क्या इन स्वरों का मन और शरीर पर भी कोई प्रभाव पड़ता है?

बाबा- हाॅं रवि! वास्तव में प्राणायाम की सही क्रिया का अभ्यास करने से मन को नियंत्रित किया जा सकता है और जब मन नियंत्रित हो जाता है तो जीवन में सब कुछ नियंत्रित हो जाता है। शास्त्र कहते हैं ‘‘ इन्द्रियाणाॅं मनो नाथः मनोनाथस्तु मारुतः‘‘ अर्थात् इन्द्रियों का स्वामी मन है और मन का स्वामी मारुत अर्थात् वायु। इसीलिये मानव मन और आत्मा पर श्वास लेने का बहुत प्रभाव पड़ता है। जैसे, जब कोई व्यक्ति दौड़ता है तो उसकी श्वास  तत्काल तेज हो जाती है अतः उसकी ज्ञानेद्रियाॅं  जैसे , जीभ , नाक आदि उचित ढंग से कार्य नहीं कर पाती और उसके सोचने विचारने का अववोध असंतुलित हो जाता है। इतना ही नहीं उसकी श्वास किस ओर से चल रही है (अर्थात् दायीं नासिका से या वाॅंयीं से या दोनों से) इसका भी बहुत प्रभाव पड़ता है । सामान्य रूप से श्वास लेते हुए यदि कोई भारी वजन उठाता है तो कठिनाई होती है जबकि श्वास रोककर भारी वजन उठाने में सरलता होती है और श्वास  के पूरी तरह बाहर होते हुए वजन उठाना मौत को आमंत्रित करने जैसा ही है।श्वास  के संबंध में रहस्यमय ज्ञान प्राप्त करने का क्षेत्र स्वर विज्ञान के अंतर्गत आता है।

चंदू- लेकिन बाबा! हम तो प्राणायाम की चर्चा कर रहे थे, वह सही सही क्या है ओर योग में उसका क्या महत्व है?

बाबा- स्वाभाविक श्वा पर नियंत्रण करने का कार्य अष्टाॅंग योग में अनिवार्य घटक माना गया है, संस्कृत में इसे प्राणायाम कहते हैं। वह विधि जिससे प्राण (vital force) अर्थात् प्राण के दसों प्रकार प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, क्रकर, देवदत्त और धनन्जय, इन सब पर नियंत्रण किया जाता है प्राणायाम कहलाती है। यदि आप हर प्रकार के ज्ञान को आत्मसात कर पाने की अपनी षक्ति को बढ़ाना चाहते हैं तो प्राणों को अधिकतम विस्थापन अर्थात् आयाम(amplitude ) देने की यह वैज्ञानिक विधि सीखना चाहिये जिससे मन को एक विंदु पर केन्द्रित करना सरल हो जाता है। यह शरीर के अनेक रोगों को दूर करने के भी काम आता है , परंतु किसी भी प्रकार के प्राणायाम को बिना उचित मार्गदर्शक के करना वर्जित है। प्राणायाम को  साधारण, सहज, विशेष और अन्तः इन चार प्रकारों में विभाजित किया गया है ।

रवि- प्राणायाम की सही विधि क्या है?
बाबा- साधारण प्राणायाम की विधि में आॅंखें बंद कर सिद्धासन या पद्मासन में बैठकर आसनशुद्धि करने के बाद मन को योग के आचार्य के द्वारा बताये गये विंदु पर स्थिर करके चित्तशुद्धि करने के बाद अपने इष्ट मंत्र के पहले अक्षर पर चिंतन करते हुए दाॅंये हाथ के अंगूठे से दायीं नासिका को दबाये हुए वाॅंयी नासिका से धीरे धीरे गहरीश्वा भीतर खींचना चाहिये और इस समय सोचना चाहिये कि अनन्त ब्रह्म जो हमारे चारों ओर है उसके किसी विंदु से अनन्त जीवनीशक्ति भीतर प्रवेश  कर रही है। पूर्ण श्वा भर जाने के बाद वाॅंयीं नासिका को मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठा अंगुली से बंद करते हुए दाॅयीं नासिका से अंगूठे को हटा कर श्वास  को धीरे धीरे बाहर करते हुए सोचना चाहिये कि अनन्त जीवनीशक्ति अनन्त ब्रह्म में वापस जा रही है और साथ साथ अपने इष्ट मंत्र के दूसरे अक्षर पर चिंतन करते रहना चाहिये। यह ध्यान रखना चाहिये कि  श्वास लेते हुए या छोड़ते हुए आवाज न हो । पूरी श्वास  निकल जाने के बाद अब दाॅयीं नासिका से धीरे धीरे पूरी श्वा लेते हुए उसी प्रकार चिंतन करते हुए अंगूठे को उसी प्रकार दबा कर अंगुलियों को हटाकर श्वास  को पूर्णतः बाहर कर देना चाहिये । यह एक प्राणायाम हुआ। 

चंदू- तो क्या इसकी न्यूनतम और अधिकतम संख्या निर्धारित है?

बाबा- हाॅं, एक सप्ताह तक केवल तीन प्राणायाम दोनों समय करना चाहिये, फिर प्रति सत्ताह एक एक की वृद्धि करते हुए अधिकतम सात प्राणायाम करने की सलाह दी जाती है। प्राणायाम को एक दिन में अधिकतम चार बार तक किया जा सकता है। जो नियमित रूप से दो बार प्राणायाम कर रहे हों और किसी दिन वे तीनबार करना चाहते हैं तो कर सकते हैं पर उन्हें अचानक चार बार प्राणायाम नहीं करना चाहिये । इसलिये उचित यही है कि पहले पहले दोनों समय तीन और फिर एक सप्ताह बाद क्रमशः  एक एक बढ़ाते हुए अधिकतम सात की संख्या तक ही करना चाहिये। फिर भी कोई यदि किसी दिन निर्धारित संख्या में प्राणायाम नहीं कर पाया हो तो सप्ताह के अंत में उतनी संख्या बार प्राणायाम करके क्षतिपूर्ति कर लेना चाहिये। यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि धूल, धुएं और दुर्गंध से दूर रहें तथा अधिक शारीरिक श्रम न करें। इसका अभ्यास प्रारंभ करने के समय प्रथम दो माह तक पर्याप्त मात्रा में दूध और उससे बनी सामग्री का उपयोग भोजन में करना चाहिये।

नन्दू- लेकिन बाबा! आपने तो इसे बहुत ही कठिन कर दिया क्योंकि जब तक भूतशुद्धि, चित्तशुद्धि, इष्टमंत्र आदि का ज्ञान न हो तब तक कोई इसे विधि विधान से सही सही कैसे कर सकता है?

बाबा- तुम सही कहते हो, इसीलिये तो मैंने कहा था कि नन्दू के स्कूल में जो सिखाया गया है वह अपूर्ण है। भूतशुद्धि में मन को बाहरी संसार से कैसे हटाना, चित्तशुद्धि में बाहर से हटाये गये मन को कैसे  उचित शुद्ध आसन पर बिठाना आदि सिखाया जाता है , इष्ट मंत्र प्रत्येक व्यक्ति का अलग अलग होता है । यह सब योग विद्याताॅंत्रिक कौलगुरु ही सिखा सकते हैं। अन्य विशेष प्रकार के प्राणायाम,  विशेष प्रकार की बीमारियों को दूर करने के लिये प्रयुक्त किये जाते हैं। 



Sunday 1 November 2015

30 बाबा की क्लास (तर्क ऋषि )

30 बाबा की क्लास (तर्क ऋषि )
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रवि-  बाबा! आज राजू नहीं आयेगा, वह अपनी माॅं के साथ ‘‘ हरसिद्धि देवी‘‘ के मंदिर के पुजारी के कहने पर कुछ अनुष्ठान करने गया है। वह कह रहा था कि इससे,  उसके परिवार पर आई वाधायें दूर हो जायेंगी।

चंदू- बाबा! ये हरसिद्धि देवी कौन हैं? ये किससे संबंधित हैं? 

बाबा- तुम लोगों को मैं ने पिछली बार बताया था कि सभी देवी देवता पौराणिक काल में ही कल्पित किये गये हैं जिनका आधार तथाकथित पंडितों का स्वार्थ है। सभी काल्पनिक देवी देवताओं को महत्व और मान्यता मिलती रहे इसलिये सभी का किसी न किसी प्रकार शिव से संबंध जोड़ दिया गया है। तुम लोग जानते हो कि भगवान सदाशिव सात हजार वर्ष पहले धरती पर आये थे जबकि यह देवी देवता तेरह सौ वर्ष पहले ही कल्पित किये गये हैं अतः शिव से उनका संबंध किस प्रकार जोड़ा जा सकता है? पर तथाकथित पंडित लोग इस तर्क को सुनना ही नहीं चाहते।

नन्दू- बाबा! लेकिन पंडितों को यह कल्पनायें करने की क्या आवश्यकता हुई?

बाबा-अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये और समाज में वर्चस्व बनाये रखने के लिये। सभी मतों के तथाकथित विद्वान पंडितों ने संसार भर के विभिन्न समाजों को शोषण करने के लिये नये नये तरीके खोज रखे हैं और खोजते जा रहे हैं। कहीं कहीं उन्होंने लोगों को दिव्य स्वर्ग से ललचाया है तो उसी के साथ नर्क का भय दिखाकर उनको धमकाया भी है। किसी विशेष पंडित की विचारधारा को ‘भगवान के शब्द‘ कहकर जनसामान्य की स्वाभाविक अभिव्यक्तियों को सीमित कर दिया है और उन्हें बौद्धिक रूप से दिवालिया बना डाला है ।

रवि- कुछ मतों में तो पंडित नेताओं ने जनसामान्य की द्रष्टि में स्वयं को सदैव मन की उच्चतम दशा  में रहने का स्थायी प्रभाव जमा कर अपने को भगवान का अवतार या भगवान के द्वारा नियुक्त संदेशवाहक घोषित कर दिया है।

बाबा- इतना ही नहीं रवि! उन्होंने अपने तथाकथित धर्मशास्त्रों के द्वारा परोक्ष रूप में लोगों को यह समझा दिया कि उनके समान ईश्वर  के निकट और कोई नहीं है, जिससे सामान्य लोगों के मन में हीनता का वोध सदा ही बना रहे और  वे चाहे भय से हो या भक्ति से, उनकी शिक्षाओं को मानते रहें। यही कारण है कि बुद्धिमान लोग भी उनके इस फंदे में फंस गये और यह कहने को विवश  हो गये हैं कि ‘‘विश्वासे  मिले वस्तु तर्के बहुदूर...‘‘ ... अर्थात् वस्तु की प्राप्ति विश्वास  से होती है न कि तर्क से अथवा यह कि ‘‘मजहब में अकल का दखल नहीं है‘‘ ।

चंदू- अर्थात् विश्वास  करने से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती ? फिर यह क्यों कहा गया है कि ‘‘विश्वासम्  फलदायकम् ?

बाबा- तर्क और विवेकपूर्ण आधार पर प्राप्त किये गये निष्कर्ष ही  विश्वसनीय  होते हैं तर्कविहीन आधार पर किया गया विश्वास  तो अंधविश्वास  ही कहा जाता है परंतु अनेक मतों के धुरंधर अपनी बात के सामने अन्य किसी तर्क वितर्क को धर्म विरुद्ध कहकर भयभीत करते हैं और जनसामान्य को मनोवैज्ञानिक ढंग से शोषित करते हैं। निरुक्तकार (etymologists ) अर्थात् शाब्दिक व्युत्पत्ति के विद्वान इसे इस प्रकार समझाते हैं- ‘‘ जब धीरे धीरे ज्ञानवान ऋषियों की संख्या घटने लगी तो विद्वान जिज्ञासुओं ने परस्पर विवेचना की, कि जब सभी ऋषिगण उत्क्रमण कर जायेंगे तो हमारा मार्गदर्शन  कौन करेगा? इस पर यही निष्कर्ष निकला कि ‘तर्क ऋषि ‘ हमारा मार्गदर्शन  करेगा।
‘‘(मनुष्या वा ऋषिषूत्क्रामत्सु देवानुब्रवन् को न ऋषिर्भवतीति। .....  तेभ्यं एतं तर्कऋषिं प्रायच्छन् ... ...।)‘‘

रवि- ‘‘ विज्ञान‘‘ में तर्क और विवेक का सहारा लेकर ही नये नये अनुसंधान किये जाते हैं और उनमें सदैव नयेपन का स्वागत किया जाता है यही कारण है कि बहुत कम समय में विज्ञान ने विश्व  पर अपना प्रभुत्व जमा लिया है जबकि पूर्वोक्त अतार्किक शिक्षाओं के बढ़ते जाने के कारण आध्यात्म जैसा उत्कृष्ट क्षेत्र केवल आडम्बर ओढ़ कर रह गया है।

बाबा- रवि तुमने  विल्कुल सही कहा है। हमारे पूर्व मनीषियों ने यही निर्धारित किया है जैसा कि ऊपर श्लोक  में बताया गया है, परंतु स्वार्थ और लोभ के वशीभूत होकर तथाकथित पंडितगण यह हथकंडे अपनाते हैं और तर्क करने वालों को पास नहीं फटकने देते या स्वयं ही उनसे दूर रहते हैं। श्रुतियों का ही कथन है ‘‘यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्मं वेद नापरः‘‘ अर्थात् जो तर्क से वेदार्थ का अनुसन्धान करता है वही धर्म को जानता है दूसरा नहीं। स्पष्ट है कि  तर्क से विश्लेषण  करते हुए निश्चित  किया हुआ अर्थ ही ऋषियों के अनुकूल होगा। इसलिये विना सोचे विचारे, अतार्किक और अवैज्ञानिक तथ्यों को स्वीकार नहीं करना चाहिये , तुम लोग राजू को यह समझा देना।

Monday 26 October 2015

29 बाबा की क्लास (रासलीला)

29 बाबा की क्लास (रासलीला)
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राजू- बाबा! आज तो कुछ लोग शाम से ही तेजी से मंदिरों की ओर जाते दिखाई दिये वे कह रहे थें कि आज वहाॅं रासलीला कार्यक्रम है।
नन्दु- कुछ नहीं, शरदपूर्णिमा है न ! इसलिये वहां खीर बाॅंटी जायेगी इसी लालच में जा रहे हैं। वह इसे रासलीला का प्रसाद कहते हैं।
चंदू- पर यह रासलीला है क्या? रासलीला तो भगवान कृष्ण ने गोपियों के साथ की थी, क्या वैसा ही कुछ है बाबा?
बाबा- रासलीला का अर्थ सभी लोग नहीं जानते और जो लोग  थोड़ा बहुत  जानते हैं वह ठीक ढंग से समझा नहीं पाते। वास्तव में यह साधना का एक प्रकार है जिसमें अपनी सभी मनोभावनायें अपने इष्ट की ओर संचालित करना होती हैं। चूंकि यह कार्य मानसिक रूप से अधिक और शारीरिक रूप से कम संबंधित होता है इसलिये इसे समझ पाना सभी के लिये संभव नहीं होता । कृष्ण ने सर्वप्रथम कुछ उन्नत भक्तों, जिन्हें गोप कहा जाता है, को यह साधना शरदपूर्णिमा के दिन सिखाई थी और वे सभी इसे सीखकर इतने आनन्दित हुए थे कि भक्तिरस के प्रवाह में नाचने कूदने लगे। उन्हें लगता था कि उनका इष्ट अर्थात् कृष्ण भी प्रत्येक के साथ नाच रहा है।
रवि- बाबा! इस प्रकार की साधना कैसे की जाती है, इसके पीछे रहस्य क्या है?
बाबा- लगातार अपने इष्ट मंत्र के साथ ईश्वर  प्रणिधान करते करते जब भक्त को इशोपलब्धि नहीं होती है तब ‘‘रस साधना‘‘ का सहारा लेना पड़ता है जिसमें  मूल भावना यह होती है कि व्यक्तिगत इच्छायें , वाॅंछायें और सभी कुछ परमपुरुष की ओर संप्रेषित करना है क्योंकि वही एकमात्र चिदानन्द रस का प्रवाह हैं।  इस प्रकार रस साधना में पूर्णता होना ‘‘ रिद्धि ‘‘ और ‘‘सफलता प्राप्त होना‘‘ सिद्धि कहलाती है। शास्त्रों में इसे ही  रासलीला कहा गया है। जिस किसी की रचना हुई है वह सब परम पुरुष की इच्छा से ही उन्हीं का चक्कर लगा रहा है। किसी का अध्ययन, बुद्धि और व्यक्तिगत स्तर, सब कुछ व्यर्थ हो जाते हैं जब तक उन्हें परमपुरुष की ओर संप्रेषित नहीं किया जाता । इस परम सत्य को जानने के बाद चतुर व्यक्ति यह कहते हुए आगे बढ़ता जाता है कि है, ‘‘परमपुरुष मुझे कुछ नहीं चाहिए मेरे इसी जीवन में आपकी इच्छा पूरी हो।‘‘
नन्दू- बाबा! क्या वर्तमान युग में किसी भक्त ने इस प्रकार का रसानन्द प्राप्त किया है या प्रदर्शित  किया है जैसा कि शास्त्रों में रासलीला के नाम से वर्णित है?
बाबा- सोलहवी शताब्दि में ब्रह्म का स्वरस अर्थात् दिव्य प्रवाह चैतन्य महाप्रभु के द्वारा प्रदर्शित  किया गया था इससे लोग उनके पीछे पागलों की तरह भागते, रोते, नाचते, गाते और दिव्यानन्द में हॅंसते थे। इससे चार हजार वर्ष पूर्व ब्रह्म का स्वरस कृष्ण ने अपनी वाॅंसुरी के द्वारा प्रदर्शित  किया था जिसे सुनकर लोग पागलों की तरह अपने परिवार, संस्कृति, प्रतिष्ठा, सामाजिक स्तर आदि छोड़कर उनकी ओर भागते थे। इतना ही नहीं बृंदावन की गोपियाॅं तो अपने घर की गोपनीयता छोड़कर वाॅंसुरी के स्वर में नाचतीं गाती और अट्टहास करतीं थी। अष्टाॅंग योग मार्ग में ब्रह्म का स्वरस साधना के विभिन्न स्तरों में भर दिया गया है अतः जो इसे करते हैं या भविष्य में करेंगे अवश्य  ही ब्रह्मानन्द में डूब कर नाचेंगे, गायेंगे , रोयेंगे और स्थायी रूप से परम पुरुष को पाने की दिशा  में बढ़ेंगे। 

Monday 19 October 2015

28 बाबा की क्लास ( नवदुर्गा 3 )

28 बाबा की क्लास ( नवदुर्गा 3 )
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नन्दू- तो क्या जो लोग यह आयोजन करते हैं वह सभी निष्फल होता है?

बाबा- अच्छा नन्दू! यदि तुम यहाॅं से दिल्ली जाने वाले रास्ते के पास जाकर बड़ी सी फूलमाला, चंदन और अगरबत्ती लगाकर प्रार्थना करने लगो कि हे राजमार्ग! तुम कितने सुंदर हो, कितने लंबेचैड़े हो, तुम्हारे दोनों ओर कितनी हरियाली है, जंगल हों या मैंदान तुम निर्भयता से देश  की राजधानी तक जाते हो..... ... आदि आदि, और फिर कहो कि मैं प्रार्थना करता हॅूं कि मुझे दिल्ली तक पहुंचा दो तो क्या वह तुम्हें वहाॅं पहुचा देगा? नहीं न? इसी प्रकार इन लोगों की पूजा जड़ की स्तुति और प्रार्थना ही है। जड़ शक्ति अंधी होती है और उसमें स्वयं निर्णय करने की क्षमता नहीं होती। विद्युत धारा बहते तार को चाहे बच्चा पकड़े या युवक या बृद्ध झटका सबको एकसा ही लगेगा। शक्ति की पूजा का अर्थ है ऊर्जा के घनीभूत स्वरूप इस पदार्थ की  शक्ति पर नियंत्रण करने के उपाय खोजना और उनका सभी प्राणियों के कल्याण के लिये उपयोग करना।

रवि- बाबा! आपकी बात तो बिलकुल सही है परंतु पौराणिक काल से यह कुरीतियाॅं कैसे हमारे बीच आ गईं ? क्या उस समय इस सच्चाई के जानकार नहीं थे? हमारे ऋ़षिगण क्या कर रहे थे?
बाबा- पौराणिक काल बहुत पुराना नहीं है, उस समय अपने अपने ज्ञान को श्रेष्ठ करने की होड़ में तत्कालीन ज्ञानी लोग कल्पनाओं के आधार पर साधारण जनता को अपने अपने पक्ष में करने में ही रुचि लेते थे इसलिये आध्यात्म के शुद्ध स्वरूप को कल्पना के आडम्बर ने ढक लिया है। ईसा से लगभग 300 वर्ष पूर्व हुए ऋषि मार्कंडेय  से ऋषि जैमिनी ने महाभारत का इतिहास पढ़कर अपनी भ्राॅंतियाॅं दूर करने के लिये अनेक प्रश्न  पूछे जिनके उत्तर समझाने के लिये ऋषि मार्कंडेय को अनेक कल्पनाओं का सहारा लेना पड़ा जिनका संग्रह कर मार्कंडेय पुराण बना। परमाणु शक्ति के प्रचण्ड और भयावह स्वरूप को समझाने के लिये उन्होंने अपनी कल्पना से ही 700 श्लोक  लिखे जिन्हें आजकल दुर्गासप्तशती कहा जाता है , सप्त अर्थात् सात और शती अर्थात् सौ । अभी जो तुम लोगों ने शक्ति की वैज्ञानिक व्याख्या बताई है वही उन सात सौ श्लोकों में से केवल एक में समझाई गयी है पर उसे उन्होंने अन्य सैकड़ों काल्पनिक कथाओं और घटनाओं को अन्य श्लोकों   में रचकर इसे कर्मकाॅंड के पुरोधाओं को भेंट कर दिया जो आज पूरे समाज में व्याप्त है। यह भी याद रखने योग्य है कि ऋषि जैमिनी, मार्कंडेय की कहानियों से संतुष्ठ नहीं हुए और उन्होंने अपना अलग दर्शन  बनाया जिसे "पूर्व मीमाॅंसा और उत्तर मीमाॅंसा" कहा  जाता है।
नन्दू- बाबा! वह एक  श्लोक  कौन सा है जो आज की विज्ञान के अनुसार खरा है?
बाबा- ‘‘ सर्व रूपमयी देवी सर्वदेवीमयं जगत, ततोहं विश्वरूपाॅं ताॅं नमामि परमेश्वरीम्।" अर्थात् यह सम्पूर्ण जगत और उसकेभीतर पाये जाने वाले जड़ और चेतन सभी  आकार प्रकार देवीमय हैं अर्थात् शक्ति से भरे हुये हैं, अतः मैं उस विश्वव्यापी  नियंत्रणकारी शक्ति को प्रणाम करता हॅूं। इस प्रकार पदार्थ और ऊर्जा की समतुल्यता प्रकट करने वाले इस श्लोक  को कल्पना के लोक में ले जाकर मार्कंडेय ने अपने ज्ञान  को प्रदर्शित  किया जिसका परिणाम ही आज इस नवदुर्गा नामक पूजा  के रूप में हम देखते हैं। 
रवि- लेकिन आज के गली चैराहों के जैसा पूजा आडम्बर मार्कंडेय ऋषि ने बनाया था अथवा  यह पश्चात्वर्ती  प्रभाव है?
बाबा- ऋषि मार्कंडेय ने काल्पनिक आकार देकर ही सही, पर उसे व्यक्ति विशेष के घर तक सीमित कर शालीनता के साथ कर्मकांडीय विधियों से जोडा़ था, परंतु पठानकाल के प्रारंभ में बंगाल के राजशाही जिले के ताहिरपुर के एक बहुत संपन्न मालगुजार कॅंसनारायण राय को अपनी सम्पदा के प्रदर्शन  करने हेतु एक विचार आया कि क्यों न  वे  राजसूय या अश्वमेध यज्ञ कर लोगों को दिखा दें कि वह क्या हैं, इस पर तत्कालीन पंडितों ने कहा कि ये तो कलियुग है इसमें ये राजसूय/अश्वमेध यज्ञ करना वर्जित है अतः आप तो मार्कंडेय पुराण में वर्णित दुर्गापूजा ही करें और उसी समय जितना अधिक दान करना हो सो करें। इस पूजा में कॅंसनारायण राय ने सात लाख सोने के सिक्कों को खर्च किया, इसे देख सुन कर वर्तमान बॅंगलादेश  के रंगपुर जिले के इकटकिया के जगतवल्लभ/जगतनारायण ने कहा कि क्या हम कॅंसनारायन से कम हैं, हम भी इनसे ज्यादा खर्च कर दुर्गा पूजा में अपना नाम आगे करेंगें, इन्होंने आठ लाख पचास हजार सोने के सिक्के खर्च किये। इस प्रकार जमीदारों में अपनी सम्पन्नता प्रदर्शित  करने की होड़ लग गई परंतु इसी बीच हुगली जिले के गुप्तीपारा गांव के 12 मित्रों ने मिलकर कहा कि हम अलग अलग भले ही  जमींदारों के बराबर पूजा में खर्च नहीं कर सकते पर सभी मिलकर तो कर सकते हैं इसतरह सबने मिलकर दुर्गापूजा का प्रदर्शन   किया , बारह मित्रों/यारों के सम्मिलित होने के कारण इसे बरयारी पूजा कहा गया। इसके बाद यह सार्वजनिक पूजा बन गई और अब तो हर जगह हर चैराहे पर यह की जाने लगी है जिसमें सबकुछ बदल गया है। वर्तमान में इसे सार्वजनिक स्थानों पर मनाये जाने का स्वरूप कितना व्यावसायिक और विकृत हो गया है यह किसी से छिपा नहीं हैं।
चंदू- परंतु बाबा! आध्यात्मिक स्तर पर आपके द्रष्टिकोण से ‘‘देेवी तत्व‘‘ सही सही क्या है ?
बाबा- जब ब्रह्मांड के नाभिक से कोई रचनात्मक तरंग उत्सर्जित  होती है तो वह अपने संकोच विकासी स्वरूप के साथ विकसित होने के लिये प्रमुख रूप से दो प्रकार के बलों का सहारा लेती है। 1. चितिशक्ति 2. कालिकाशक्ति। वास्तव में पहला बल उसे आधार जिसे हम ‘‘स्पेस‘‘ कहते हैं, देता है और दूसरा बल ‘‘टाइम‘‘ अर्थात् कालचक्र में बांधता है, इसके बाद ही उस तरंग का स्वरूप आकार पाता है। ध्यान रहे इस कालिकाशक्ति का तथाकथित कालीदेवी से कोई संबंध नहीं है, काल अर्थात् (eternal time factor) के माध्यम से अपनी क्रियाशीलता बनाये रखने के कारण ही इसे कालिकाशक्ति नाम दिया गया है।

राजू- कुछ विद्वान तो कहते हैं कि ‘भद्र काली‘ नामक देवी का उल्लेख वेदों में भी मिलता है तो फिर आपका यह कहना कि ‘काली देवी‘ या ‘दुर्गादेवी‘ की पूजा मार्कंडेय पुराण जो कि मात्र 2300 वर्ष पुराना है से प्रारंभ हुई है, क्या गलत नहीं है क्योंकि वेद तो 15000 वर्ष से भी पहले के माने गये हैं?

बाबा- वैदिक ‘भद्रकाली‘ और कालीदेवी तथा दुर्गादेवी में कोई साम्य नहीं है। ब्रह्माॅंड के निर्माण होने के समय जो ध्वनि उत्पन्न हुई उसे वेदों में ओंकार ध्वनि के नाम से जाना जाता है जिसमें उत्पत्ति, पालन और संहार तीनों सम्मिलित हैं। मानव कानों की श्रव्यसीमा में आने वाली ये ध्वनि की तरंगें विश्लेषित  करने पर पचास प्रकार की पाई जाती हैं जिन्हें काल अर्थात् समय का वर्णक्रम कहा जाता है इन्हें स्वर ‘अ‘ से प्रारंभ (निर्माण का बीज मंत्र) और व्यंजन ‘म‘ (समाप्ति का बीज मंत्र) में अंत मानकर काल को अखंड रूप में प्रकट करने के लिये अथर्ववेदकाल में भद्रकाली की कल्पना कर उसके हाथ में ‘अ‘ उच्चारित करता हुआ मानव मुंह बनाया गया, अन्य स्वरों और व्यंजनों के प्रत्येक के एक एक मुंह बनाकर शेष 49 अक्षरों के मुंहों की माला भद्र काली को पहनाई गई और कालचक्र पूरा किया गया। 
यद्यपि अथर्ववेदकाल में लिखना पढ़ना लोगों ने सीख लिया था परंतु वेदों के लिखने पर प्रतिबंध था अतः पूर्वोक्त मानव मुंहों को ही वर्णमाला/अक्षमाला का प्रतिनिधि उदाहरण माना गया क्योंकि  उच्चरण मुंह से ही किया जाता है। वास्तव में काल या समय, क्रिया की गतिशीलता का मानसिक परिमाप है और यह अनन्त ध्वनियों/तरंगों का सम्मिलित रूप होने से अखंड नहीं है, यह अलग बात है कि हम अपने कानों से उन सभी को नहीं सुन पाते हैं ।
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