Monday 19 October 2015

28 बाबा की क्लास ( नवदुर्गा 3 )

28 बाबा की क्लास ( नवदुर्गा 3 )
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नन्दू- तो क्या जो लोग यह आयोजन करते हैं वह सभी निष्फल होता है?

बाबा- अच्छा नन्दू! यदि तुम यहाॅं से दिल्ली जाने वाले रास्ते के पास जाकर बड़ी सी फूलमाला, चंदन और अगरबत्ती लगाकर प्रार्थना करने लगो कि हे राजमार्ग! तुम कितने सुंदर हो, कितने लंबेचैड़े हो, तुम्हारे दोनों ओर कितनी हरियाली है, जंगल हों या मैंदान तुम निर्भयता से देश  की राजधानी तक जाते हो..... ... आदि आदि, और फिर कहो कि मैं प्रार्थना करता हॅूं कि मुझे दिल्ली तक पहुंचा दो तो क्या वह तुम्हें वहाॅं पहुचा देगा? नहीं न? इसी प्रकार इन लोगों की पूजा जड़ की स्तुति और प्रार्थना ही है। जड़ शक्ति अंधी होती है और उसमें स्वयं निर्णय करने की क्षमता नहीं होती। विद्युत धारा बहते तार को चाहे बच्चा पकड़े या युवक या बृद्ध झटका सबको एकसा ही लगेगा। शक्ति की पूजा का अर्थ है ऊर्जा के घनीभूत स्वरूप इस पदार्थ की  शक्ति पर नियंत्रण करने के उपाय खोजना और उनका सभी प्राणियों के कल्याण के लिये उपयोग करना।

रवि- बाबा! आपकी बात तो बिलकुल सही है परंतु पौराणिक काल से यह कुरीतियाॅं कैसे हमारे बीच आ गईं ? क्या उस समय इस सच्चाई के जानकार नहीं थे? हमारे ऋ़षिगण क्या कर रहे थे?
बाबा- पौराणिक काल बहुत पुराना नहीं है, उस समय अपने अपने ज्ञान को श्रेष्ठ करने की होड़ में तत्कालीन ज्ञानी लोग कल्पनाओं के आधार पर साधारण जनता को अपने अपने पक्ष में करने में ही रुचि लेते थे इसलिये आध्यात्म के शुद्ध स्वरूप को कल्पना के आडम्बर ने ढक लिया है। ईसा से लगभग 300 वर्ष पूर्व हुए ऋषि मार्कंडेय  से ऋषि जैमिनी ने महाभारत का इतिहास पढ़कर अपनी भ्राॅंतियाॅं दूर करने के लिये अनेक प्रश्न  पूछे जिनके उत्तर समझाने के लिये ऋषि मार्कंडेय को अनेक कल्पनाओं का सहारा लेना पड़ा जिनका संग्रह कर मार्कंडेय पुराण बना। परमाणु शक्ति के प्रचण्ड और भयावह स्वरूप को समझाने के लिये उन्होंने अपनी कल्पना से ही 700 श्लोक  लिखे जिन्हें आजकल दुर्गासप्तशती कहा जाता है , सप्त अर्थात् सात और शती अर्थात् सौ । अभी जो तुम लोगों ने शक्ति की वैज्ञानिक व्याख्या बताई है वही उन सात सौ श्लोकों में से केवल एक में समझाई गयी है पर उसे उन्होंने अन्य सैकड़ों काल्पनिक कथाओं और घटनाओं को अन्य श्लोकों   में रचकर इसे कर्मकाॅंड के पुरोधाओं को भेंट कर दिया जो आज पूरे समाज में व्याप्त है। यह भी याद रखने योग्य है कि ऋषि जैमिनी, मार्कंडेय की कहानियों से संतुष्ठ नहीं हुए और उन्होंने अपना अलग दर्शन  बनाया जिसे "पूर्व मीमाॅंसा और उत्तर मीमाॅंसा" कहा  जाता है।
नन्दू- बाबा! वह एक  श्लोक  कौन सा है जो आज की विज्ञान के अनुसार खरा है?
बाबा- ‘‘ सर्व रूपमयी देवी सर्वदेवीमयं जगत, ततोहं विश्वरूपाॅं ताॅं नमामि परमेश्वरीम्।" अर्थात् यह सम्पूर्ण जगत और उसकेभीतर पाये जाने वाले जड़ और चेतन सभी  आकार प्रकार देवीमय हैं अर्थात् शक्ति से भरे हुये हैं, अतः मैं उस विश्वव्यापी  नियंत्रणकारी शक्ति को प्रणाम करता हॅूं। इस प्रकार पदार्थ और ऊर्जा की समतुल्यता प्रकट करने वाले इस श्लोक  को कल्पना के लोक में ले जाकर मार्कंडेय ने अपने ज्ञान  को प्रदर्शित  किया जिसका परिणाम ही आज इस नवदुर्गा नामक पूजा  के रूप में हम देखते हैं। 
रवि- लेकिन आज के गली चैराहों के जैसा पूजा आडम्बर मार्कंडेय ऋषि ने बनाया था अथवा  यह पश्चात्वर्ती  प्रभाव है?
बाबा- ऋषि मार्कंडेय ने काल्पनिक आकार देकर ही सही, पर उसे व्यक्ति विशेष के घर तक सीमित कर शालीनता के साथ कर्मकांडीय विधियों से जोडा़ था, परंतु पठानकाल के प्रारंभ में बंगाल के राजशाही जिले के ताहिरपुर के एक बहुत संपन्न मालगुजार कॅंसनारायण राय को अपनी सम्पदा के प्रदर्शन  करने हेतु एक विचार आया कि क्यों न  वे  राजसूय या अश्वमेध यज्ञ कर लोगों को दिखा दें कि वह क्या हैं, इस पर तत्कालीन पंडितों ने कहा कि ये तो कलियुग है इसमें ये राजसूय/अश्वमेध यज्ञ करना वर्जित है अतः आप तो मार्कंडेय पुराण में वर्णित दुर्गापूजा ही करें और उसी समय जितना अधिक दान करना हो सो करें। इस पूजा में कॅंसनारायण राय ने सात लाख सोने के सिक्कों को खर्च किया, इसे देख सुन कर वर्तमान बॅंगलादेश  के रंगपुर जिले के इकटकिया के जगतवल्लभ/जगतनारायण ने कहा कि क्या हम कॅंसनारायन से कम हैं, हम भी इनसे ज्यादा खर्च कर दुर्गा पूजा में अपना नाम आगे करेंगें, इन्होंने आठ लाख पचास हजार सोने के सिक्के खर्च किये। इस प्रकार जमीदारों में अपनी सम्पन्नता प्रदर्शित  करने की होड़ लग गई परंतु इसी बीच हुगली जिले के गुप्तीपारा गांव के 12 मित्रों ने मिलकर कहा कि हम अलग अलग भले ही  जमींदारों के बराबर पूजा में खर्च नहीं कर सकते पर सभी मिलकर तो कर सकते हैं इसतरह सबने मिलकर दुर्गापूजा का प्रदर्शन   किया , बारह मित्रों/यारों के सम्मिलित होने के कारण इसे बरयारी पूजा कहा गया। इसके बाद यह सार्वजनिक पूजा बन गई और अब तो हर जगह हर चैराहे पर यह की जाने लगी है जिसमें सबकुछ बदल गया है। वर्तमान में इसे सार्वजनिक स्थानों पर मनाये जाने का स्वरूप कितना व्यावसायिक और विकृत हो गया है यह किसी से छिपा नहीं हैं।
चंदू- परंतु बाबा! आध्यात्मिक स्तर पर आपके द्रष्टिकोण से ‘‘देेवी तत्व‘‘ सही सही क्या है ?
बाबा- जब ब्रह्मांड के नाभिक से कोई रचनात्मक तरंग उत्सर्जित  होती है तो वह अपने संकोच विकासी स्वरूप के साथ विकसित होने के लिये प्रमुख रूप से दो प्रकार के बलों का सहारा लेती है। 1. चितिशक्ति 2. कालिकाशक्ति। वास्तव में पहला बल उसे आधार जिसे हम ‘‘स्पेस‘‘ कहते हैं, देता है और दूसरा बल ‘‘टाइम‘‘ अर्थात् कालचक्र में बांधता है, इसके बाद ही उस तरंग का स्वरूप आकार पाता है। ध्यान रहे इस कालिकाशक्ति का तथाकथित कालीदेवी से कोई संबंध नहीं है, काल अर्थात् (eternal time factor) के माध्यम से अपनी क्रियाशीलता बनाये रखने के कारण ही इसे कालिकाशक्ति नाम दिया गया है।

राजू- कुछ विद्वान तो कहते हैं कि ‘भद्र काली‘ नामक देवी का उल्लेख वेदों में भी मिलता है तो फिर आपका यह कहना कि ‘काली देवी‘ या ‘दुर्गादेवी‘ की पूजा मार्कंडेय पुराण जो कि मात्र 2300 वर्ष पुराना है से प्रारंभ हुई है, क्या गलत नहीं है क्योंकि वेद तो 15000 वर्ष से भी पहले के माने गये हैं?

बाबा- वैदिक ‘भद्रकाली‘ और कालीदेवी तथा दुर्गादेवी में कोई साम्य नहीं है। ब्रह्माॅंड के निर्माण होने के समय जो ध्वनि उत्पन्न हुई उसे वेदों में ओंकार ध्वनि के नाम से जाना जाता है जिसमें उत्पत्ति, पालन और संहार तीनों सम्मिलित हैं। मानव कानों की श्रव्यसीमा में आने वाली ये ध्वनि की तरंगें विश्लेषित  करने पर पचास प्रकार की पाई जाती हैं जिन्हें काल अर्थात् समय का वर्णक्रम कहा जाता है इन्हें स्वर ‘अ‘ से प्रारंभ (निर्माण का बीज मंत्र) और व्यंजन ‘म‘ (समाप्ति का बीज मंत्र) में अंत मानकर काल को अखंड रूप में प्रकट करने के लिये अथर्ववेदकाल में भद्रकाली की कल्पना कर उसके हाथ में ‘अ‘ उच्चारित करता हुआ मानव मुंह बनाया गया, अन्य स्वरों और व्यंजनों के प्रत्येक के एक एक मुंह बनाकर शेष 49 अक्षरों के मुंहों की माला भद्र काली को पहनाई गई और कालचक्र पूरा किया गया। 
यद्यपि अथर्ववेदकाल में लिखना पढ़ना लोगों ने सीख लिया था परंतु वेदों के लिखने पर प्रतिबंध था अतः पूर्वोक्त मानव मुंहों को ही वर्णमाला/अक्षमाला का प्रतिनिधि उदाहरण माना गया क्योंकि  उच्चरण मुंह से ही किया जाता है। वास्तव में काल या समय, क्रिया की गतिशीलता का मानसिक परिमाप है और यह अनन्त ध्वनियों/तरंगों का सम्मिलित रूप होने से अखंड नहीं है, यह अलग बात है कि हम अपने कानों से उन सभी को नहीं सुन पाते हैं ।
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