Thursday 27 December 2018

226 चिलम

226 चिलम

मुख्य सड़क से तीन चार किलोमीटर दूर बसे गाॅंव में आयोजित यज्ञकार्य के लिए मुख्य पुरोहित के रूप में आमंत्रित किए गए पंडितजी को सड़क से गाॅंव तक ले जाने के लिए यजमान ने बैलगाड़ी का प्रबंध किया। बस से उतरकर पंडितजी बैलगाड़ी से  थोड़ी देर ही आगे बढ़े थे कि एक नाले के समीप पेड़ के नीचे बैठे दो चरवाहे चिलम पीते दिखे। पंडितजी, उन्हें  देखते हुए आगे बढ़ते, मुश्किल से पाॅंच मिनट ही अपने मन पर नियंत्रण रख पाए और बैलगाड़ी चालक से बोले,
‘‘ भैया ! आपके पास चिलम है क्या?’’
‘‘ नहीं महाराज! मैं चिलम नहीं पीता‘‘
‘‘ अच्छा, तो थोड़ी देर रुको, मैं अभी आया’’ कहकर वे उन चरवाहों के पास पहॅुचे और बोले ,
‘‘मुझे चिलम पिलाओगे?’’
‘‘ लेकिन महाराज! हम लोग छोटी जाति के चरवाहे हैं’’ अचरज सहित डरते हुए वे बोले।
‘‘ अच्छा! तो बोलो शिव, शिव, शिव।’’
उनमें से एक झट से बोला, ‘‘महाराज! बिना बताए आपने मेरा नाम जान लिया आप तो बहुत पहुॅंचे हुए लगते हैें’’ और दोनों शिव शिव बोलते हुए दूर से ही जमीन पर लेटकर उन्हें प्रणाम करने लगे। पंडितजी ने उनके हाथ से चिलम लेकर दो तीन कश लगाए और बैलगाड़ी की ओर चल पड़े। उधर पूरे दृश्य को बैलगाड़ी चालक आश्चर्य से देखता रहा। गाॅंव पहुॅंचकर पंडितजी के स्वागत में स्थानीय पंडितों सहित यजमान खड़े थे पर बैलगाड़ी चालक ने धीरे से उनके कानों में देखे गए दृश्य का वर्णन कह सुनाया। सभी पंडित और समाज के अन्य लोग आगन्तुक पंडित को प्रधान पुरोहित बनाने तो क्या यज्ञमंडप में भी प्रवेश नहीं करने देने पर अड़ गए। स्थिति को समझ आगंतुक पंडित सबसे बोले,
‘‘ यह ठीक है कि चिलम पीना बहुत हानिकारक है, पर क्या शिव को श्मशान में बैठकर साधना करने से उन्हें अपवित्र और पतित माना जा सकता है?’’
‘‘ अरे! शिव को यज्ञ का देवता माना ही कहाॅं गया है जो उनका उदाहरण दे रहे हो? यदि मान भी लेें तो शिव, शिव हैं उनकी आप अपने से तुलना कैसे कर सकते हैं?’’ सभी एकसाथ चिल्ला उठे।
‘‘ मित्रो! शिव का नाम ही सबको पवित्र करने वाला होता है फिर वे लोग तो अनेक बार शिव शिव बोल चुके थे, उनमें से एक शिव ही था। जब सब कुछ शिवमय हो गया तो अपवित्रता कहाॅं रही?’’
सब स्तब्ध।

Friday 30 November 2018

225 आत्मज्ञान

225 आत्मज्ञान

ज्ञान क्या है? इस संबंध में निगमागम शास्त्रों में कहा गया है कि ‘‘ आत्मज्ञानं विदुर्ज्ञानं  ज्ञानान्यानि यानि तु, तानि ज्ञानावभासानि सारस्य नैव बोधनात्।’’ अर्थात् आत्मज्ञान ही तात्विक दृष्टि से ज्ञान कहा जाता है। संसार में जिन अन्य बातों को ज्ञान कहा जाता है वह ज्ञान नहीं ज्ञान के अवभास हैं, इनसे सारतत्व का बोध कभी नहीं हो सकता।
‘ज्ञान’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘ज्ञा’ धातु में ‘अनट्’ प्रत्यय लगाकर की गई है। प्राचीन लेटिन में यह धातु ‘keno’ में रूपान्तरित हुई जिससे अंग्रेजी का ‘know’ शब्द बना । चॅूंकि लेटिन के केनो में ‘के’ अक्षर आया है इसलिए अंग्रेजी में भी ‘के’ को रखा गया भले ही उसका उच्चारण न होता हो।
अब मूल समस्या यह है कि आत्मज्ञान को जानने की प्रक्रिया कैसे होती है? बाहरी जगत के पदार्थों या उनकी तन्मात्राओं के आन्तरिक अधिग्रहण को जानने की क्रिया कहा जाता है। (subjectization of external objectivities is faculty of knowing ) ।
 परन्तु क्या मानसिक जगत की किसी वस्तु को आन्तरिक रूपसे अधिग्रहित किया जा सकता है? हाॅं किया जा सकता है। आस्तित्विक ‘‘मैं बोध’’ को बाहरी और मानसिक जगत ( ‘मैं बोध’ को छोड़कर ) का सभी कुछ, जानने की परिधि में आते हैं। परन्तु क्या ‘आस्तित्विक मैं बोध’ अपने से अधिक किसी को जान सकता है? यह ‘साइकोलाजी’ का बहुत जटिल प्रश्न है।
अस्तित्व की सूक्ष्मतम भावना मानसिक जगत की पहली अवस्था है और ‘‘चितिसत्ता’’ (cognitive faculty) मन की इस प्रथम अवस्था की क्रियात्मकता की साक्षीसत्ता। जैसे कोई कहे कि ‘‘मैं जानता हॅूं कि मैं हॅूं’’ तो इसमें ‘मैं हॅूं का मैं’ मन की प्रथम अवस्था है तथा ‘मैं जानता हॅूं’ का मैं’ पहली अवस्था वाले मैं का साक्ष्य देता है जो स्पष्टतः मन की प्रथम अवस्था से सूक्ष्म है, वास्तव में यह सभी अस्तित्वों से सूक्ष्म होता है। परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि चितिसत्ता मन की इस पहली अवस्था का साक्ष्य दे ही। यदि वह साक्ष्य देती है तो ‘‘सकल चितिसत्ता’’ और साक्ष्य नहीं देती है तो ‘‘निष्कल चितिसत्ता’’ कहलाती है। यही चितिसत्ता, भूमा (cosmic mind) की साक्षीसत्ता के रूप में क्रियाशील होने के समय ‘‘प्रत्यगात्मा’’ कहलाती है जो गुणों से प्रभावित होने पर सकल और अप्रभावित होने पर निष्कल कहलाती है। अब, व्यावहारिक रूप से इस ज्ञेयसत्ता या चितिसत्ता को कैसे जाना जाय? वह मन की प्रथम अवस्था का ज्ञाता है पर प्रथम अवस्था में आस्तित्विक ‘मैं’, जब मैं जानता हॅूं के ‘मैं’ के बारे में सोचता है तो उसका अस्तित्व सूक्ष्मतम से भी सूक्ष्म हो जाता है और अन्ततः चितिसत्ता में विलीन हो जाता है। इसीलिए कहा गया है कि चितिसत्ता को जनना अर्थात् उसी में विलीन होना, जैसे नमक के पुतले का समुद्र की गहराई को मापना। सैद्धान्तिक रूपसे इसे ही आत्मज्ञान कहते हैं । अन्य साॅसारिक ज्ञान, ज्ञान की मात्र छाया और प्रतिच्छायाएं हैं उनसे सारतत्व का बोध नहीं हो सकता।
सांसारिक जानकारी के लिए क्रिया ‘ज्ञा’ के स्थान पर ‘विद’ का उपयोग करना अधिक सार्थक है। इसी से ‘‘वेद, विद्या और विद्वान’’ शब्द बने हैं।
विद् को मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया गया है, एक ‘पराविद्या’ और दूसरा ‘अपराविद्या’। पराविद्या ज्ञान की वह शाखा है जिसमें विश्लेषण द्वारा अनन्त से सीमित या सान्त तक और संश्लेषण द्वारा सान्त से अनन्त तक का ज्ञान कराया जाता है। यह शाखा व्यक्ति को ‘आत्मज्ञान’ की स्वर्णिम रेखा तक ले जाती है जो सांसारिक ज्ञान और आत्मज्ञान के बीच विभाजक रेखा होती है। इस रेखा के उस पार ही सर्व ज्ञानात्मक सत्ता का चिन्तन हो पाता है। पराविद्या पहले चरण में व्यापक अध्ययन के द्वारा संबंधित सभी शंकाओं को दूर करती है दूसरे चरण में आन्तरिक और वाह्य विचारों पर ज्ञान का सदुपयोग करने के लिए विवेकपूर्ण विश्लेषण करने की पद्धति सिखाती है। तीसरे स्तर पर परिप्रश्न द्वारा आध्यात्मिक आदर्श को दृढ़ करती है और चौथे  स्तर पर परमसत्ता के प्रति आत्मसमर्पण करना सिखाती है। अपराविद्या भी पहले चरण में व्यापक अध्ययन के द्वारा संबंधित सभी शंकाओं को दूर करती है जिससे संसार का कल्याण कर सकें, दूसरे स्तर पर प्राप्त किए गए ज्ञान का विवेकपूर्ण विश्लेषण करना, तीसरे स्तर पर प्राप्त ज्ञान के सारतत्व को संसार के कल्याण के लिए प्रयुक्त करने हेतु आवश्यक विधियों की खोज करने को प्रेरित करती है। स्पष्ट है कि पराविद्या एक कदम आगे जाकर मोक्ष का रास्ता खोलती है जिसमें आत्मज्ञान की आवश्यकता होती है। इसलिए संसार में रहते हुए प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य हो जाता है कि वह परा और अपरा विद्या का विवेकपूर्ण संयुक्तिकरण करते हुए अपने लक्ष्य ‘मोक्ष’ तक पहुॅंचे। यही कारण है कि सफल जीवन के लिए यह मूलमंत्र बताया गया है, ‘‘ आत्ममोक्षर्थं जगद् हिताय च ।’’ अर्थात्  मोक्षमार्ग की ओर चलते हुए जगत का कल्याण करते रहना। सफल मानव जीवन के लिए ‘‘subjective approach through objective adjustment ’’ का यह सूत्र अनुकरणीय है।  तन्त्रविज्ञान भी इसी तथ्य का समर्थन करती है, इसमें कहा गया है कि ‘‘ तत्कर्म यं न बंधाय, सा विद्या या विमुक्तये। आयासाद् अपरकर्म विद्यान्यानि यानि तु।’’ अर्थात् सही कर्म वह है जो बंधन में न बाॅंधे और सही विद्या वह है जो मुक्ति की ओर ले जाए; अन्य कर्म केवल आयास मात्र हैं और अन्य विद्याएं कौशल।
इस प्रकार जब आत्मज्ञानपूर्वक कर्म किया जाएगा तभी परिणामस्वरूप भक्ति का उदय होगा और लगातार रागरहित अभ्यास करते हुए पराभक्ति को पाकर आत्मसाक्षात्कार किया जा सकेगा।

Tuesday 20 November 2018

224 तीर्थ

224 तीर्थ
प्राचीनकाल में मानव मन में उठने वाले आध्यत्मिक गूढ़ प्रश्नों को सांकेतिक रूप में ‘‘पार्वती’’ के नाम से और उनके व्यावहारिक दर्शन से जुड़े सुसंगत उत्तर ‘‘शिव’’ के नाम से कहे जाते रहे हैं। पार्वती के प्रश्नों का व्यवस्थित संग्रह ‘निगम’ और शिव के उत्तरों का संग्रह ‘आगम’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। व्यावहारिक तन्त्रविज्ञान में उन्हें हंस के दोनों पंखों का रूपक दिया गया है अर्थात् हंस को उड़ने के लिए जिस प्रकार अपने दोनों पंखों की आवश्यकता होती है वह एक पंख से उड़ नहीं सकता, उसी प्रकार आध्यात्म को सही ढंग से समझने के लिए निगम और आगम दोनों की आवश्यकता होती है। इनमें से किसी एक के बिना साधक की आध्यात्मिक यात्रा संभव नहीं है।
जनसामान्य के मन में जब से भगवान या ‘‘ईश्वर’’ का विचार आया है तभी से उनके मन में ‘तीर्थ’ की अवधारणा भी उत्पन्न हुई। वे उन्हें पाने या देखने के लिए अबाध रूप से तीर्थ यात्राएं करने लगे। ऐसे भी अनेक उदाहरण मिलते हैं जब तीर्थ यात्रा करने के लिए महिलाओं और पुरुषों ने अपने गहने और अन्य सम्पत्ति बेच दी। आज भी यह ज्वलन्त प्रश्न है कि आखिर यह तीर्थ क्या है? ‘निगम’ शास्त्र में भी पार्वती के माध्यम से जनसाधारण का यह प्रश्न पूछा गया है और ‘आगम’ में शिव द्वारा दिए गए उत्तरों में इसका समाधान इस प्रकार समझाया गया है।

सामान्यतः ‘तीर्थ’ शब्द का अर्थ ‘यात्रा का स्थान’ से लगाया जाता है। परन्तु इसका विच्छेदन करने पर हम देखते हैं कि ‘‘तीर्थ=तीर+स्था+ड’’ अर्थात् किनारे की रेखा, जहाॅं जल और स्थल एक दूसरे को स्पर्श करते हैं। इस किनारे का ढलानी भाग ‘तट’ कहलाता है। इस प्रकार कोई व्यक्ति इस किनारे की रेखा से एक कदम तट की ओर बढ़ाता है तो वह सूखे स्थान पर आ जाता है परन्तु उससे एक कदम पानी की ओर बढ़ाता है तो वह पानी में जा पहुँचता  है। इस भौगोलिक ‘तीर’ की समानता दर्शाता ‘‘तीर्थ’’ का वास्तविक अर्थ है ‘ भौतिक और आध्यात्मिक जगत के बीच का स्थान। क्योंकि यदि कोई व्यक्ति भौतिक संसार की ओर एक कदम बढ़ाता है तो वह भौतिकवाद के आकर्षण में फंस जाता है परन्तु एक ही कदम आघ्यात्म के जल की ओर बढ़ाता है तो वह इसके प्रवाह में बहने लगता है। इसलिए वह विन्दु जो भौतिकता और आध्यात्मिकता से जोड़ने का सम्पर्क कराता है वही है असली तीर्थ, इसीलिए कहा गया है ‘तीरस्थम् तीर्थमित्याहुः’ ।

सामान्यतः लोग चाहे आध्यात्मिक क्षेत्र हो या भौतिक, बिना किसी साधना या प्रयास के मुक्ति या भौतिक सुख सम्पन्नता चाहते हैं, या पापों को धोना चाहते हैं, अतः वे एक स्थान से दूसरे स्थान को तीर्थयात्रा के नाम पर भटकते हैं। वे सोचते हैं कि गाय की पूछ पकड़कर वे वैतरणी तर जाएंगे पर धूर्तो के जाल में उलझकर अपना मूल्यवान समय, धन और ऊर्जा व्यय करते रहते हैं। इसलिए, आगमशास्त्र में शिव ने पार्वती के प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया- ‘‘इदम तीर्थमिदम तीर्थम् भ्रमन्ति तामसाः जनाः, आत्मतीर्थम् न जानन्ति कथं मोक्ष वरानने।’’

अर्थात् अज्ञान के अंधकार में रहने वाले (तामसी) लोग इस तीर्थ से उस तीर्थ में यात्राएं करने भटकते रहते हैं परन्तु पार्वती! जब तक वे अपने हृदय में स्थित तीर्थ को नहीं खोजते हैं तब तक उन्हें मोक्ष कैसे मिल सकता है?
तो, यह असली तीर्थ क्या है और कहाॅं पर स्थित है? शिव का उत्तर है, ‘‘मानव हृदय के भीतर वह स्वर्णिम रेखा जहाॅं संकल्प और विकल्प उत्पन्न होते हैं और इसके जिस विन्दु पर वे सम्पर्क में आकर मधुर आध्यात्मिक आनन्द उत्पन्न करते हैं, वही है असली तीर्थ और उसका स्थान।’’ वह जो इस उभयनिष्ठ विन्दु पर रहता है उसे कहा जाता है ‘‘तीरस्थ’’ या तीर्थ; यहाॅं व्यक्ति और उस स्थान का प्रभु एक हो जाते हैं। वे जो अपने हृदय के भीतर स्थायी रूप से प्रज्ज्वलित अलौकिक ‘ज्योति’ को भूलकर भौतिक जगत के तथाकथित पवित्र स्थानों में यहाॅं वहाॅं भटकते हैं, वे कभी मोक्ष नहीं पा सकते हैं । जिन एतिहासिक महापुरुषों ने शिव के द्वारा बताये गए इस आत्मज्योति के सहारे आगे बढ़ने का प्रयास किया है उन्होंने कीर्तिमान स्थापित कर अमरत्व पा लिया है, पर हम केवल उनकी काल्पनिक मूर्तियों की स्थापना कर इसे ही तीर्थ और अन्तिम सत्य मान बैठे हैं, कितना आश्चर्य है!

Tuesday 13 November 2018

223 कुछ लोग आध्यात्मिक पथ से भटक क्यों जाते हैं?

223 कुछ लोग आध्यात्मिक पथ से भटक क्यों जाते हैं?
अविद्यामाया का बल साधारण मनुष्यों की तुलना में आध्यात्म की ओर बढ़ने वाले व्यक्तियों को अधिक प्रभावित करता है। उनके सामने अनेक कठिनाइयाॅं आती हैं जैसे, पारिवारिक असंतुलन और अशाॅंति, या अत्यधिक धन और प्रतिष्ठा, या आर्थिक अभाव और अपमान। परन्तु सच्चे साधक इन कठिनाइयों को परीक्षा की तरह लेते हैं और बहादुरी से उनका सामना करते हैं। वे पीछे मुड़ने की कभी नहीं सोचते  क्योंकि अविद्या बल हमेशा पीठ पर अर्थात् छिपकर, घातक हमला करता है। इसलिए, सभी परिस्थितियों में अपने आध्यात्मिक और मानसिक विकास से संबंधित सोई हुई शक्तियों को जागृत करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए।  विचित्रता यह है कि इस संसार में यदि कोई गलत कार्य करता है तो विद्यामाया उसे यह करने से रोकती है। जैसे, यदि कोई नया चोर चोरी करने जाता है तो उसके मन में पुलिस से पकड़े जाने का भय विद्यामाया पैदा करती है। इसी प्रकार जब कोई अच्छा कार्य करने की सोचता है तो अविद्यामाया उसे अधिक भयंकर रूप से यह करने से रोकती है। जैसे, कोई व्यक्ति साधना करने बैठता है तो अविद्यामाया इन में से किसी एक या अधिक प्रकार से बाधा पहुॅंचा सकती है, ‘‘पारिवारिक असंतुलन और अशाॅंति, या अत्यधिक धन और प्रतिष्ठा, या आर्थिक अभाव और अपमान। ’’इतना ही नहीं इसके अलावा भी  अनेक प्रकार से अविद्यामाया साधक की पीठ में छुरा मारने का कार्य करती है जिससे वह साधना का रास्ता छोड़ कर भाग जाए।
इस प्रकार से भागने वाले लोग अविद्यामाया से पराजित माने जाते हैं। इसलिए जब भी इस प्रकार की परिस्थितियाॅं आड़े आती हों तो तत्काल समझ जाना चाहिए कि यह सब अविद्यामाया का जंजाल है इसका दृढ़ता से सामना करना है न कि पीछे भाग जाना। सभी जानते हैं कि अनेक साधु पुरुषों को गुरु मिल जाने के बाद भी वे पूर्वोक्त कारणों से अविद्या के साथ मुकाबला करने में डर गए और पथभ्रष्ट होकर भटक गए और फिर समाज में समाज घृणा के पात्र बने।
यहाॅं, यही समझाया गया है कि जिस प्रकार आगे चलने पर पृथ्वी का घर्षणबल गति की विपरीत दिशा में सक्रिय हो जाता है परन्तु हम उसके विरुद्ध लगातार क्रियारत रहकर आगे बढ़ते जाते हैं, यदि घर्षणबल से डर कर रुक जाएं तो कभी भी आगे नहीं जा सकते । अतः अविद्या और विद्यामाया को यदि एक दूसरे का सहायक मानकर संघर्ष किया जाय तो अवश्य सफलता मिल जाती है। उपनिषदों में कहा गया है कि जो केवल अविद्या की उपासना करते हैं वे अंधकूप में गिरते हैं और जो केवल विद्या की उपासना करते हैं वे उससे भी अधिक अंधे कुए में गिरते हैं।

Friday 9 November 2018

222 ज्ञानदीप

222
ज्ञानदीप हर ओर जलाएं
आओ दीपावली मनाएं।

तम आच्छादित दिवा रात्रि,
घनघोर शोर में बहरे होते।
दूभर जीवन दूषित हो
नव कष्ट देह में गहरे ढोते।
धूलधूसरित धरा धाम पर ,
मेघ पुनीत नीर बरसाएं।
ज्ञानदीप हर ओर जलाएं
आओ दीपावली मनाएं।1।

दम्भ प्रदर्शन की जड़ता ने
मनोभाव पंगु कर डाले।
मानवता कराहती पल पल,
रिश्तों में भी विष भर डाले।
अज्ञ विज्ञ सब हुए पंकमय
प्रज्ञनीर में सभी नहाएं।
ज्ञानदीप हर ओर जलाएं
आओ दीपावली मनाएं।2।

लोभ मोह की क्षुधा प्रसारित
जल थल नभ रोते अपनों  पर।
नीर समीर व्योम पावक सब
चकित व्यथित दूषित सपनों पर।
दिव्य प्रकाश ज्योति फैलाकर
क्यों न नव्यमानवता लाएं ?
ज्ञानदीप हर ओर जलाएं
आओ दीपावली मनाएं।3।

8 नवम्बर 2018

Monday 5 November 2018

221 दिव्य नाटक

221 दिव्य नाटक
ऋषिगण कहते हैं, उसके दिव्य नाटक में सदा ही अनेक पात्रों की आवश्यकता हर क्षण बनी रहती है। कोई अमीर, कोई गरीब,  बुद्धिमान, मूर्ख, मोटे ,पतले, काले , गोरे सभी प्रकार के पात्र अपनी दी गई भूमिका के अलावा अन्य किसी की भूमिका नहीं निभा सकते। राजा हो या रंक सभी को उस संचालक के निर्देशों के अनुसार ही चलना होता है। जिन्हें दुखी भूमिका दी गई है वे स्टेज पर रोकर और विदूषक हॅंसकर और हॅसाकर अपना अपना काम करेंगे। पर यह सब हॅंसना रोना उसके नाटक के ही अंग हैं। एक सच्चा भक्त इस रहस्य को समझता है। नाटक में राजा कहलाने वाला अन्त में अपने घर जाकर सूखी रोटी खाता है पर नाटक में तो वह राजा ही होता है।
इसलिए विश्व में जो कुछ भी घटित हो रहा है वह उस परमसत्ता के द्वारा दिया गया कार्य और भूमिका ही है अतः किसी को यह नहीं मान लेना चहिए कि यह स्तर उसका सदा के लिए बना रहेगा। हर जीवित प्राणी उस परमपुरुष का ही वंशज है। सभी रूप और आकार उसी में रहते हैं और अन्त में उसी में मिल जाते हैं इसलिए किसी को हीन भावना का शिकार नहीं होना चाहिए। एक छोटी सी बॅूद और पूरा महासागर तत्वतः एक ही ‘जल’ के अलग अलग आकार हैं, एक छोटा और दूसरा बड़ा। जब पानी की छोटी बूँद  महासागर से एकत्व बना लेती है तो वह पृथक छोटी बॅूंद नहीं रह जाती वह भी महासागर ही हो जाती है।

Saturday 27 October 2018

220 मित्र और शत्रु

220 मित्र और शत्रु
सामाजिक जीवन में हमें ‘मित्र’ और ‘शत्रु’ इन दो शब्दों से प्रायः सामना करना होता है। मित्र होने से लाभ और शत्रु होने से हानि का विचार अपने आप आ जाता है। यह भी देखा जाता है कि किसी समय के अभिन्न मित्र अचानक जानी दुश्मन हो जाते हैं। एक बार किसी से शत्रुता हो गई तो फिर जीवन में पहले जैसी मित्रता हो पाना असंभव ही होता है । कभी कभी छोटी छोटी सी बातों के कारण पीढ़ियों से स्थापित संबंध समाप्त होकर शत्रुता में बदल जाते हैं जिसके पीछे ‘ स्वार्थ ’ या ‘अहंकार’ एक कारण पाया जाता है। चाणक्य नीति में कहा गया है कि मित्र नहीं बनाना चाहिए परन्तु यदि बनाना ही पड़े तो कुमित्र को कभी भी मित्र नहीं बनाना चाहिए ( वरं न मित्रम् न कुमित्र मित्रम् ) । परन्तु शास्त्रों का मत इस विषय में कुछ दूसरा ही है, वे कहते हैं: न कोई किसी का मित्र होता है और न ही शत्रु, वह तो अपना अपना व्यवहार ही होता है जो शत्रु या मित्र बनाता है। जैसे,
‘‘न कश्य कश्यचित मित्रम् न कश्य कश्यचित रिपुम् , व्यवहारेण जायन्ति मित्राणि रिपवस्तथा।’’
श्रीमद्भग्वदगीता में यही भावधारा कुछ इस प्रकार प्रस्स्तुत की गई हैः अपने आप का उत्थान करना चाहिए पतन नहीं क्योंकि अपना आप ही अपना मित्र और अपना आप ही अपना शत्रु होता है।

‘‘उद्धरेदात्मानम् न आत्मानम् वसादयेत्, आत्मैः आत्मनो बन्धु आत्मैव रिपुरात्मना।’’
इससे यही स्पष्ट होता है कि कुशलता पूर्वक अपने व्यवहार को इस प्रकार बनाना चाहिए कि आत्मोत्थान में किसी प्रकार की बाधा न आ सके । कुछ मनोवैज्ञानिक दार्शनिकों ने बन्धु, सुहृद, मित्र और सखा की व्याख्या इस प्रकार की हैः
‘‘अत्यागसहनो बन्धुः सदैवानुमतः सुहृद, एकक्रियम् भवेन्मित्रं समप्राण सखा स्मृतः।’’
अर्थात् इस धरती पर जिसे छोड़कर जीवित नहीं रहा जा सकता अर्थात् प्रेमबन्धन इतना अधिक है कि तोड़ा नहीं जा सकता वह है बन्धु। जिनके बीच कभी भी कोई मतभेद न हो वह है सुहृद। जिनका काम धंधा एकसा हो वह कहलाता है मित्र, जैसे दो बकील, दो डाक्टर आदि। जहाॅं प्रेम इतना अधिक होता है कि सभी अनुभव करते हैं कि दोनों में एक ही प्राण हैं वे कहलाते हैं सखा। कृष्ण के सखा अर्जुन और अर्जुन के सखा कृष्ण थे।

Friday 19 October 2018

219 विजयोत्सव

 जय का अर्थ है भौतिक या मानसिक स्तर पर अस्थायी सफलता पाना।
 जैसे, (1) कुश्ती में, चुनाव में या किसी भी प्रतियोगिता में आपने अपने प्रतिद्वन्द्वी को पराजित कर दिया, यह हुई अस्थायी सफलता क्योंकि वह प्रतिद्वन्द्वी भविष्य में कुछ और अभ्यास कर स्वयं सफल हो सकता है और आप असफल।
अथवा, (2) मानसिक स्तर पर यदि आपने अभ्यास कर क्रोधवृत्ति पर नियंत्रण पा लिया परन्तु किसी अन्य परिस्थिति में वह क्रोध फिर से मन में आ सकता है; इसलिए जीवन में शत्रुओं अर्थात् विरोधी बलों पर इस प्रकार की अस्थायी सफलता को संस्कृत में ‘‘जय’’ कहा जाता है।

विजय का संस्कृत में अर्थ है विरोधी बलों अर्थात् शत्रुओं पर स्थायी सफलता पाना; शत्रु को पूर्णतः नष्ट कर देना ताकि वह फिर से आक्रमण न कर सके। परन्तु यह तो सर्वसाधारण की बात हुई। आध्यात्मिक साधना करने वालों का चाहे व्यक्तिगत जीवन हो, सामूहिक जीवन हो, सामाजिक जीवन हो या आध्यात्मिक जीवन सभी स्तरों पर उनका युद्ध तो विद्या और अविद्या के साथ होता है । उसे सामाजिक बुराइयों के साथ साथ अपने जन्मजात छः शत्रुाओं  (काम, क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य और मोह) और आठ प्रकार के बंधनों (घृणा, लज्जा, भय, शंका, कुल, यश, शील और दम्भ ) से भी संघर्ष कर उन्हें समूल नष्ट करना होता है। इसलिए जिस क्षण अविद्या की स्थायी पराजय हो जाती है तब साधक को ‘‘विजयी’’ कहा जाता है और वह अवस्था कहलाती है मोक्ष।

‘विजयादशमी’ का अर्थ है वह तिथि जब धर्म की अधर्म पर स्थायी जीत, ज्ञान की अज्ञान पर स्थायी जीत, सात्विक वृत्तियों की असात्विक वृत्तियों पर स्थायी जीत, नीति की अनीति पर स्थायी जीत अर्थात् ‘‘विजय’’ हुई है।

‘उत्सव’ का अर्थ है जीवन में नई चेतना की प्रेरणा देना। उत्+अल्+सव =उत्सव। उत्=ऊपर की ओर। सु= पुनः जन्म लेना। सु+अल्=सव अर्थात् नया जोश या स्फूर्ति भरना, इसीलिए आसव= नयी ऊर्जा देने वाला पदार्थ, प्रसव=जन्म देना। अतः स्पष्ट है कि उत्सव वह है जो जीवन में नया जोश भर कर उन्नत होने की प्रेरणा देता है। अतः विजयादशमी या दशहरा वास्तव में ‘विजयोत्सव’ है जो अधर्म पर धर्म की विजय का सूचक है, इससे स्फूर्ति पाकर हमें अज्ञान, असमानता, अन्याय और शोषण के विरुद्ध संघर्ष कर आत्मोन्नति करते हुए विजय प्राप्त करने का व्रत लेना चाहिए।

Tuesday 16 October 2018

218 बड़ों के मूल्य

218 बड़ों के मूल्य

यह एक तथ्य है कि हर दिन हम  बड़े होते  जाते हैं - हमारे भौतिक शरीर की  उम्र, शिकन,  भूरे बाल आदि बड़े होने की सूचना देते  हैं। यह एक सामान्य घटना है। फिर भी कोई भी "बूढ़ा होना पसंद नहीं करता।" साथ ही योग में  विभिन्न पद्धतियां हैं जो इस उम्र बढ़ने की प्रक्रिया से जूझकर  शरीर को युवा और जीवंत रखने के लिए प्रयुक्त की जा  सकती हैं।  इसके अलावा , अधिक उम्र अर्थात बुजुर्ग होना एक सम्मानित विशेषता है। और एक अन्य बिंदु यह है कि हमारा  अंतर्ज्ञान संकाय कालातीत रहता है ; पूरी तरह से काल अर्थात टाइम  से अप्रभावित।

भौतिकवाद और उम्र बढ़ना

विभिन्न देशों में बुजुर्ग या वरिष्ठ नागरिकों के प्रति विभिन्न दृष्टिकोण हैं। लेकिन दुनिया भर में आम भावना यह है कि कोई भी "पुराने" के रूप में वर्णित होना पसंद नहीं करता है। यही कारण है कि यदि कोई , किसी व्यक्ति को "बूढ़ा" कहता है, तो वह व्यक्ति नाखुश हो सकता है या अंदरूनी परेशानी  महसूस कर सकता है। यही कारण है कि यदि कोई बड़े व्यक्ति के प्रति सम्मान करना चाहता है, तो एक बहुत ही विनम्र और सम्मानजनक तरीके से "वरिष्ठ  नागरिक"  इस तरह के शब्द का उपयोग करना होता है । सामान्य समाज के सदस्यों के साथ काम करते समय यह  विशेष रूप से आवश्यक होता है ।
उन जगहों पर जहां भौतिकवाद अधिक हावी है, बूढा होना,  बहुत तनाव और निराशा लाता है क्योंकि ऐसी जगहों में अक्सर, परिवार अपने वृद्ध सदस्यों को साथ में रखना पसंद नहीं करता है।  नतीजतन, उन बुजुर्ग व्यक्तियों के  जीवन का  अवमूल्यन हो जाता है। इसलिए, बुजुर्गों को "पुराना" कहा जाना पसंद नहीं है क्योंकि  यह "पुराना" बेकार समझा जाता  है। भौतिकवादी समाज में आम लोगों की यह दुखद और दोषपूर्ण मानसिकता है
इसके अलावा, भौतिकवादी देशों में जहां "सेक्स " प्रभावशाली होता है, बुढ़ापा  यौन अपील की हानि का प्रतीक है, जिससे उसका अस्तित्व  लगभग बेमानी हो जाता है। भौतिकवादी समुदायों में महिलायें  इस रोग से पीड़ित हैं। इसके  सीधे विपरीत, हमारी  आध्यात्मिक जीवन शैली में, परिदृश्य पूरी तरह से अलग है। "एजिंग" सम्मान और गरिमा का प्रतीक माना जाता  है।  भारत के प्राचीन इतिहास को देखते हुए, हम पाते हैं कि "वरिष्ठ नागरिकों" का बहुत सम्मान था - युवाओं की तुलना में कहीं ज्यादा। यह परंपरा एक तांत्रिक परंपरा है और विभिन्न महासम्भूतियों ने  भी इसी गुण का सम्मान किया है । यही कारण है कि हमारे भागवत जीवन  दर्शन के विभिन्न समारोहों और कार्यक्रमों में चर्याचर्य  में उल्लिखित निर्देशों के अनुसार , वरिष्ठ व्यक्तियों को अधिक से अधिक सम्मान दिया जाता है ।


योगाचारी व्यक्तियों की उम्र आम लोगों से भिन्न होती है

"बाबा" के अनुसार, जब कोई भी साधना करता है और षोडश विधि  का अनुसरण करता है तो उसके गुण लगातार  बढ़ते जाते हैं। वे अधिक से अधिक मानवीय गुणों से पूर्ण  हो जाते हैं। यह अद्वितीय समीकरण है, क्योंकि ब्रह्मांडीय विचारधारा की मदद से, मन की परिधि बढ़ती है- उन्हें अधिक समझदार और गतिशील बनाती  है। इस तरह से, वरिष्ठ नागरिक स्वार्थ से  अपनी इकाई "मैं " में  ही सीमित नहीं रहते । यही कारण है कि अधिकांश मामलों में, अपने बुढ़ापे में अच्छे साधक समाज की सेवा के लिए अधिक से अधिक समय समर्पित करते हैं। लेकिन जब लोग  भौतिकवाद  की मानसिकता  से भर जाते हैं , तो बुढ़ापे का मतलब है दूसरों के लिए 'सिरदर्द' होना। यही कारण है कि यूरोपीय और कई पश्चिमी देशों में, बड़े होकर बच्चे अक्सर अपने बुजुर्ग माता-पिता के साथ रहना पसंद नहीं करते । क्योंकि, जब प्रारम्भ से ही वे  वरिष्ठ नागरिकों को  सिर्फ अपनी ही स्वार्थी गतिविधियों में शामिल होते देखते रहे होते हैं तब निश्चित रूप से वे उनके बुढ़ापे में  उनके  कल्याण के बारे में सोचना नहीं चाहते। उनके मन और मस्तिष्क  भौतिकवाद के आत्म-केंद्रित दर्शन में  डूब चुके होते हैं। हालांकि, ऐसे कई अन्य देशों में जो इतने भौतिकवादी नहीं हैं, यह स्थिति नहीं है। उन समुदाय उन्मुख समाजों में वृद्ध लोग अन्य  सभी के  विकास का ध्यान  रखते हैं अतः  उस समाज में हर कोई वृद्ध सदस्यों का सम्मान करता है।
और, एक साधक का जीवन तो और भी अधिक उन्नत होता  है क्योंकि कई  वर्षों से मन को आध्यात्मिक तरीके से प्रशिक्षण देने के बाद, उनके उन्नत वर्षों में वह  पूरी तरह से परमपुरुष  के विचारों और अपने बच्चों के  कल्याण करने में लीन हो जाता है।  इस वातावरण में रहने वाले  पुराने साधक निस्स्वार्थ  होते हैं  सभी के प्रति उदार होते हैं। स्वाभाविक रूप से  हर कोई  उनकी  कंपनी में रहना पसंद करता है।

उम्र बढ़ने की प्रक्रिया की रोक : आसन और नृत्य

मानव अस्तित्व के तीन पहलू हैं: शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक। 39 सालों के बाद, भौतिक शरीर धीरे धीरे बुढ़ापे  की ओर बढ़ने लगता  है। लेकिन आसन, कौशिकी , और तांडव नृत्य  करके यह अधिकांशतः   नियंत्रित या कम किया जा  सकता है।जो लोग अपने आसन, कौशिकी और तांडव  का अभ्यास अनेक वर्षों से करते  रहे हैं, वे उसे  अपने आगे के वर्षों में भी जारी रख सकते हैं। यह उनके शरीर को सुचारू, लचीला और ऊर्जावान रखता है।  साधक  अपनी  वास्तविक उम्र से अपने को ज्यादा युवा अनुभव करते  हैं। पर  उन लोगों के लिए ऐसा नहीं होता है, जिन्होंने इस तरह के योग अभ्यास कभी नहीं किया होता है । उनके शरीर अधिक  कठोर हो जाते हैं और यहां तक कि अगर उनकी  ऐसा करने  की इच्छा भी होती है तो वे 65 या 75 वर्ष की उम्र में तांडव शुरू नहीं कर सकते हैं - निश्चित रूप से 95 साल में तो और भी नहीं, क्योंकि उनके शरीर इस क्षेत्र में  अभ्यस्त नहीं होते हैं । जबकि साधक तो 100  की उम्र में भी कौशिकी और  तांडव कर सकते हैं और अपने जीवन को बनाए रख सकते हैं।

मस्तिष्क पुराना हो जाता है - अंतर्ज्ञान कालातीत होता है

बुढ़ापे की प्रक्रिया न केवल हाथों  और पैरों को प्रभावित करती है, बल्कि मस्तिष्क सहित पूरे शरीर को भी जो  कि हमारा  मानसिक केंद्र है । यही कारण है कि 50 या 60 साल की आयु पार करने के बाद, आम लोगों की बुद्धि कमजोर पड़ती है। उनकी तंत्रिका कोशिकायें अधिक से अधिक  कमजोर हो जाती हैं। लोग अपनी स्मृति और मनोवैज्ञानिक संकाय धीरे धीरे  एक दिन खो देते हैं और एक दिन  उनके दिमाग भी काम करना बंद कर देते हैं।  यह कई गैर साधकों  के साथ होता है जब वे बहुत बूढ़े हो जाते हैं। हालांकि, भक्तों के मामले में, यह नहीं है। इसलिए  "आपको केवल बुद्धि पर ही निर्भर नहीं होना चाहिए क्योंकि बुद्धि में इतनी  दृढ़ता नहीं होती है। अगर आपके पास भक्ति है, तो अंतर्ज्ञान विकसित होगा और इसके साथ, आप समाज की  बेहतर से  बेहतर सेवा करने में सक्षम हो सकेंगे । " इसलिए मानसिक क्षेत्र में, भक्त अंतर्ज्ञान पर अधिक निर्भर करते हैं - और यह कभी भी क्षय नहीं होता। क्योंकि अंतर्ज्ञान ब्रह्मांडीय विचार है और जब मन को सुदृढ़ किया जाता है , उस सूक्ष्म दृष्टिकोण की ओर निर्देशित किया जाता  है, तो वह  "पुराना हो रहा है" इसका प्रश्न ही नहीं उठता । मन अपना विस्तार करना  जारी रखता है जिससे वह  अधिक तेज और अधिक एकाग्र  हो जाता है परन्तु जो लोग केवल बुद्धि पर निर्भर होते हैं वे बहुत कष्ट पाते हैं।  क्योंकि बुढ़ापे की शुरुआत से ही  उनका  मानसिक संकाय अधिक से अधिक कमजोर  होता  जायेगा, जब तक कि आखिरकार उनकी बुद्धि पूरी तरह से नष्ट होने  की संभावना न हो जाय । जबकि जो लोग अपने दिल में भक्ति कर रहे हैं वे आसानी से परमपुरुष  द्वारा अंतर्ज्ञान पाने का  आशीर्वाद प्राप्त कर लेते  हैं।
अतः  अगर किसी ने अपनी युवा अवस्था  से ही उचित साधना की है  और मन को आध्यात्मिक  अभ्यास  में प्रशिक्षण दिया  है तो उसकी  प्राकृतिक प्रवृत्ति परमार्थ  की ओर बढ़ने की हो जाती है।  इस प्रकार  साधना करते हुए  उसे अंतिम सांस तक कोई समस्या आने का कोई प्रश्न नहीं उठता । उनका मन  आसानी से ब्रह्मांडीय लय और  ताल में बह जाएगा और साधना क्रिया स्वाभाविक  सरल होगी । इसके विपरीत यदि कोई कहे कि साधना करना तो बुढ़ापे का कार्य है तो उसे बहुत कठिनाई होगी।

Wednesday 10 October 2018

217 सतयुग

217 सतयुग

पौराणिक कथाओं में समय का बड़ा मापक  ‘‘युग’’ के नाम से कहा  गया है। जिस समय में किसी महापुरुष ने अपने ज्ञान और पराक्रम से समाज को कुछ नया दिया वह काल उसी के नाम पर याद रखा जाने लगा। अनेक कथाओं में समय के प्रभाव से होने वाली अच्छी या बुरी घटनाओं को ध्यान में रखकर प्रायः चार कालों का नाम दिया जाता है; सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग।  वेदों के अन्तिम भाग उपनिषदों में इस काल विशेष को समझाने के लिए  ऋषियोें ने एक दृष्टान्त की सहायता से इस प्रकार स्पष्ट किया है।
"रोहित के पिता पढ़े लिखे नहीं थे परन्तु वे पढ़ने का महत्व जानते थे इसलिए उन्होंने अपने बेटे रोहित को उच्च ज्ञान पाने के लिए प्रतिष्ठित गुरुकुल में भेज दिया। समयानुसार ‘बालक रोहित’ वेदान्त की विशेषज्ञता प्राप्त कर डिग्रीधारी ‘नवयुवक रोहित’ के रूप में अपने घर वापस आया। रोहित के पिता अपने पुत्र के उच्च ज्ञान की डिग्री लेकर आने से प्रसन्न थे कि अब उनके परिवार का नाम भी ज्ञानी लोगों के साथ लिया जाएगा और रोहित कुछ अच्छा काम करेगा। समय बीतने लगा, रोहित कुछ काम न करता। काम के संबंध में पूछे जाने पर यही कहता कि सब कुछ भगवान की इच्छा से ही होता है, यह सभी प्रपंच उन्हीं का रचा हुआ है, वही सब कुछ करते हैं, हमें कुछ करने की आवश्यकता ही क्या है, एकमात्र उन्हीं का चिन्तन और आराधन करना चाहिए, मैं वही करता हॅूं।
समय यों ही बीतता जाता और रोहित के पिता की चिन्ता बढ़ती जाती। अन्ततः एक दिन वे बोले, देखो रोहित ! मैंने तुम्हारे जैसे वेदान्त को तो पढ़ा लिखा नहीं है, पर इतना जानता हॅूं कि मनुष्य को सक्रिय रहना चाहिए निष्क्रिय नहीं;
‘‘कलौ शयानो भवति, संदिहानस्तु द्वापरः। उत्तिष्ठति त्रेता भवति, कृतौ सम्पाद्यते चरण।’’
अर्थात् , जो सोया है समझ लो वह ‘कलियुग’ में है, जो जाग गया वह ‘द्वापरयुग’  में आ गया, जो उठकर खड़ा हो गया वह ‘त्रेतायुग’ में पहुँच  गया और जिसने चलना प्रारंभ कर दिया वह समझो ‘सतयुग’ में है। इसलिए मैं कहता हॅूं , गतिशील बनो, स्थिरता हानिकारक है। चरैवेति, चरैवेति। चलते रहो , चलते रहो, रुको नहीं।"
कठिन तत्वज्ञान की विषयवस्तु को वेदों में इसी प्रकार के दृष्टान्तों द्वारा समझाया गया है। परन्तु दुख यह है कि सभी लोग कहानियाॅ तो कहते सुनते पाए जाते हैं परन्तु उनके पीछे दी गई शिक्षा पर चिन्तन नहीं करते।   

Sunday 7 October 2018

216 भक्ति की पराकाष्ठा ‘‘राधा’’

216 भक्ति की पराकाष्ठा ‘‘राधा’’
 श्रीमद्भगवद्गीता  में सकाम और निष्काम भक्तों के बारे में बताया गया है कि जो ईश्वर को किसी कामना (अर्थात् धन, यश, पद और भौतिक सुविधाओं को पाने) के लिए ही पूजते हैं वे ‘सकाम’ परन्तु जो केवल प्रभु को आनन्द देना चाहते हैं बदले में कुछ नहीं चाहते वे ‘निष्काम’ भक्त कहलाते हैं और निष्काम भक्त ही भगवान को प्रिय होते हैं। कहा गया है ‘‘भक्तिः भक्तस्य जीवनम्’’ अर्थात् भक्त का पूरा जीवन भक्तिमय होता है। जब कोई व्यक्ति अपने ‘इष्ट’ को पहचान लेता है तब वह उससे प्रेम करने लगता है। यही प्रेम फिर, उसके ही अध्ययन, चिन्तन, मनन, ध्यान और निदिध्यासन में लगाए रखता है इसीलिए कहा गया है कि ‘भक्तिः प्रेम स्वरूपिणी’। भक्ति का असली स्वरूप यही है न कि चन्दन, माला और गेरुए वस्त्र पहिनकर बाहरी दिखावा करना।

अपने इष्ट का नियमित अविभक्त मन से चिन्तन करने वाला प्रगति करते हुए जब पराकाष्ठा पर पहॅुंच जाता है तब वह ‘‘राधा’’ भाव में प्रतिष्ठित हुआ कहा जाता है। इस अवस्था में वह सभी जड़ और चेतन में अपने इष्ट को ही देखता है और अपने इष्ट के लिए वह स्वयं किसी भी कष्ट को उठाने के लिए तत्पर रहता है। इस क्षेत्र के विशेषज्ञों ने ‘राधा भाव’ को अनुभव करने वालों को भी दो भागों में बाॅंटा है एक है ‘रागानुगा भक्ति’ करने वाले और दूसरे हैं ‘रागात्मिका भक्ति’ करने वाले । रागानुगा भक्तों का मानना है कि भगवान का भजन, पूजा अर्चना वे इसलिए करते हैं कि भगवान को प्रसन्नता हो, चूॅकि भगवान उनके इस कार्य से प्रसन्न होंगे इसलिए उन्हें भी प्रसन्नता मिलेगी। अर्थात् वे भगवान से प्रसन्नता चाहते हैं। परन्तु रागात्मिका भक्त कहते हैं कि वे सब कुछ केवल भगवान को प्रसन्न करने के लिए ही करते हैं भले ही स्वयं को अपार कष्ट उठाना पड़े। अर्थात् वे हर हालत में भगवान को प्रसन्न ही देखना चाहते हैं उनका दुख उन्हें सहन नहीं होता।

भारतीय दर्शन में ब्रह्मा को सृष्टि का उत्पन्नकर्ता, विष्णु को पालनकर्ता और सर्वसुखदाता तथा महेश को अपने में लयकर्ता माना गया है और यह एक ही परमसत्ता को उनके कार्य क्षे़त्र के अनुसार दिये गए नाम हैं। प्रत्येक अणु की सुधि रखने वाले सर्वव्याप्त विष्णु को प्रसन्न करने से मिले सुख में ही आनन्दित रहने वाले रागानुगा भक्त उच्च स्तर पर पहुॅंचकर कहते हैं कि ‘मैं शक्कर नहीं होना चाहता, यदि मैं शक्कर हो गया तो उसका स्वाद कौन चखेगा?’ अर्थात् वे अपने मूल उद्गम  में वापस जाना ही नहीं चाहते । वे सदैव द्वैत बनाए रखना चाहते हैं; एक भगवान और दूसरा भक्त।
रागात्मिका भक्त के उदाहरण, महाभारत के इन दो सर्वविदित दृष्टान्तों से समझाये जा सकते हैं ।
(1) एक बार भगवान कृष्ण के सिर में अचानक बहुत दर्द होने लगा, अनेक उपलब्ध उपचार किए गये ,सब जगह के विशेषज्ञ राजवैद्य भी थक गए तब भक्त नारद ने उन्हीं से पूछ लिया कि वे ही इसका उपचार बताएं। भगवान बोले, कोई भक्त अपने पैरों की धूल मेरे माथे पर लगा दे तो तत्काल यह सिरदर्द देर हो जाएगा। भक्तराज नारद अचरज में पड़ गए, जहाॅं जहाॅं बड़े बड़े भक्त थे उन सबने यह कहकर मना कर दिया कि भगवान के सिर पर अपने पैरों की धूल रखकर वे रौरव नरक में नहीं जाना चाहते। अन्त में बृजगोपियों को जब पता चला तो वे व्यथित हुई कि उनके प्रभु कष्ट में हैं और नारद जी को सबने अपने अपने पैरों की धूल, पोटली में बाॅंध कर दे दी। नारद जी ने जब यह कहा कि अपने पैर की धूल भगवान के माथे पर लगाने से तुम लोग रौरव नर्क में जाओगी, तब वे बोलीं हम सौ बार रौरव नर्क में जाने को तैयार हैं यदि हमारे पैर की धूल से हमारे प्रभु का कष्ट दूर हो जाए।
(2) महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद, एकबार कृष्ण और अर्जुन सामान्य नागरिक जैसी वेशभूषा में नगर से दूर एकान्त में चले जा रहे थे तभी खेतों में एक सज्जन लॅंगोटी लगाए, कमर में तलवार लटकाए और पीठ पर बाॅंस की टोकनी बाॅंधे खेतों की फसल कटने के बाद गिरी हुई गेहूॅं की बालों को ढूॅूड़ रहे थे । अर्जुन से न रहा गया अतः उनसे पूछा, महोदय ! अन्न के थोड़े से दानों के लिए खेतों में घूमना, यह कृश काया, और फिर भी कमर में यह तलवार किसलिए? वे बोले, महोदय ! इस तलवार से मुझे तीन लोगों को मारना है, एक सुदामा, दूसरी द्रौपदी और तीसरा अर्जुन । अर्जुन ने कहा, लेकिन जहाॅं तक मुझे जानकारी है ये तीनों तो भगवान के अच्छे भक्त हैं,  इन्हें क्यों मारना चाहते हो ? इन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा? वे बोले, क्या कहा अच्छे भक्त ! !  इन तीनों ने मेरे भगवान को बड़ा कष्ट पहुॅंचाया है, सुदामा ने अपने पैर धुलवाने मेरे प्रभु को नंगे पैर प्रवेश द्वार तक दौड़ाया; द्रोपदी ने तो हद ही कर दी, मेरे प्रभु भोजन करने के लिए पहला कौर भी मुॅंह तक न ले जा पाए कि उसने रो रो कर अपनी मदद के लिए पुकार लिया; और, अर्जुन ने मेरे प्रभु से रथ चलवाया, घोड़ों की लगाम थामे उनके हाथों में फफोले पड़ गए , ओह! मैं इसीलिए इन्हें लगातार ढूॅंड़ रहा हॅूं ।
इन दृष्टान्तों में जिस तथ्य को समझाने का प्रयास किया गया है वह है ‘एकीकृत भाव की प्रखरता’, जिसे दार्शनिकगण ‘‘राधा भाव’’ कहते हैं। पौराणिक कथाओं में इसी तथ्य को सुन्दर महिला आकृति में ‘राधा’ नाम देकर श्रीकृष्ण की अद्वितीय प्रेमिका के रूप में प्रस्तुत किया गया है । राधा का प्रेम रागात्मिका भक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण है जिसमें वह स्वयं आजीवन कष्ट उठाती है परन्तु अपने सुख के लिए अपने आराध्य कृष्ण को उनके समाजोत्थान और धर्म संस्थापन के लक्ष्य से हटने नहीं देती। इसलिए कहानियों के शब्दों और भाषा पर न जाकर कथ्य के भीतर छिपे रहस्य को जानने का प्रयास करने से ही आध्यात्म का रसपान किया जा सकता है । अपने इष्ट से निर्पेक्ष प्रेम और बिना शर्त पूर्ण समर्पण ही अभीष्ट की प्राप्ति कराता है; यही सभी प्रकार की आराधना का फल है। ध्यान रहे राधा का अस्तित्व कोई महिला का रूप नहीं, वह है भक्त का सर्वोच्च भक्ति भाव जिसकी आराधना करना सार्थक है । इसलिए राधा भाव से की गई आराधना ही सर्वश्रेष्ठ मानी गई है।

Tuesday 2 October 2018

215 ‘नामी’ और ‘नाम’

215 ‘नामी’ और  ‘नाम’

दृष्टान्त -1 एक सज्जन ने तोता पालकर उसे ‘राम राम’ कहना सिखा दिया। वह सभी आगन्तुकों से राम राम कहता। सभी लोग यह सुनकर तोते की तारीफ करते और उन सज्जन की भी। एक दिन मौका पाकर बिल्ली, तोते के पिंजरे पर झपटी। तोता, राम राम कहना भूल टें टें टें करने लगा।

दृष्टान्त -2 श्रीराम ने जब सुना कि हनुमान पत्थरों पर ‘राम’, ‘राम’ लिखकर पानी में डालते हैं तो वे तैरने लगते हैं डूबते नहीं हैं, अतः इनसे पुल बनाकर वानर सेना को समुद्र पार कराने की योजना है। तब श्रीराम ने सोचा, यदि ऐसा ही है तो मैं क्यों न पत्थर छूकर पानी में तैरा दॅू जिससे समय बचेगा और पुल जल्दी तैयार हो जाएगा। ज्योंही राम ने पत्थर उठा कर पानी में डाले वे डूबते गए, नहीं तैरे।

पहले दृष्टान्त में तोता, राम राम कहना सीख तो गया पर उसका वास्तव में अर्थ क्या है और उसका कितना महत्व है यह नहीं जान पाया। इसलिए जब अपने शत्रु को सामने देखा तो डर गया और सबकुछ भूलकर अपनी भाषा में चिल्लाने लगा। दूसरे दृष्टान्त में हनुमान ने अपने बीजमंत्र ‘राम’ के महत्व को आत्मसात कर पत्थर तैराया जिससे पत्थर तैरता रहा, परन्तु स्वयं राम ने उसे केवल अपना नाम होने के कारण साधारण माना जिससे पत्थर डूब गया।
इन उदाहरणों में क्रमशः ‘बीजमंत्र’ का और ‘नामी’ से भी ‘नाम’ का अधिक महत्व होना दर्शाया गया है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार ‘बीजमंत्र अथवा इष्टमंत्र’ का महत्व बताने के लिए एक और दृष्टान्त प्रचलित है।
नारदजी ने हनुमानजी से कहा, ‘‘मित्र ! श्रीनाथ अर्थात् नारायण और जानकीनाथ अर्थात् राम, दोनों एक ही सत्ता का नाम है कि नहीं ?’’ हनुमानजी बोले , ‘‘ इसमें क्या सन्देह, दोनों एक ही हैं।’’
‘‘तो फिर आप हमेशा राम राम राम ही कहते रहते हो, नारायण का नाम आपके मुॅंह से कभी नहीं सुना?’’ नारद जी ने पूछा।
हनुमानजी बोले, ‘‘ ठीक है भैया, पर मेेरे लिए तो कमललोचन श्रीराम ही सब कुछ हैं, मैं किसी नारायण को नहीं जानता।’’

‘‘राम’’ अन्य शब्दों जैसा साधारण शब्द है, परन्तु जब वह शक्ति सम्पन्न कर दिया जाता है तो मन्त्र बन जाता है। और जब, जिस किसी व्यक्ति को ‘‘कौल गुरु’’ के द्वारा बीजमंत्र के रूप में इसे दिया जाता है तो उसे यही सब कुछ हो जाता है। बीजमंत्र प्राप्त व्यक्ति के लिए उसके बीजमंत्र के अलावा अन्य सभी मंत्र केवल शब्द मात्र ही होते हैं। बीजमंत्र का अर्थ समझते हुए उसकी आवृत्तियों के साथ अपनी आस्तित्विक आवृत्ति का अनुनाद कर लेने वाला व्यक्ति उसी के सहारे अपने छोटे बड़े,  सरल कठिन, संभव असंभव सभी कार्य सहज ही कर डालता है।

जब, न तो मंत्र का सही सही अर्थ समझा और न ही उसकी आवृत्तियों से अपने मन को अनुनादित करने की विधि का पालन किया परन्तु , दूसरों से देख सुनकर जो लोग तोते की तरह रटन्त विद्या का अनुसरण करने लगते हैं वे सदा भयग्रस्त ही रहते हैं; कभी अपने लक्ष्य को भी नहीं पाते। परन्तु हनुमान की तरह जिन्होंने अपने बीजमंत्र का रसास्वादन करते हुए उसे अपनी मूल आवृत्ति के साथ अनुनादित कर लिया होता है उसे किसी से कोई भय नहीं होता और उनका लक्ष्य भी उनकी मुट्ठी में ही होता है।
यहाॅं स्मरणीय है कि पौराणिक कथाओं के अनुसार, श्रीराम और रावण दोनों का बीजमंत्र ‘‘शिव’’ तथा भगवान शिव और हनुमान का बीजमंत्र ‘‘राम’’ था। इस पर गम्भीरता से चिन्तन कीजिए।

Monday 24 September 2018

214 ब्राह्मण

214 ब्राह्मण
सभ्यता के उद्गम के साथ ही ज्ञान की खोज बढ़ने लगी और जो भी व्यक्ति कुछ नया करता या कहता उसके सार्वजनिक महत्व का पाये जाने पर वह व्यक्ति समाज में अधिक महत्व पाने लगता। तात्कालिक इन्हीं महत्वपूर्ण अनुसंधानकर्ता व्यक्तियों को "ऋषि" कहा जाने लगा। ऋषियों के द्वारा प्राप्त किया गया ज्ञान कालान्तर में बढ़ने लगा और समयानुसार उनकी आयु समाप्त होने के बाद दूसरों के आने और प्राप्त ज्ञान को संग्रहित कर आगामी समाज को हस्तान्तरित करने का उपाय खोजा गया। उस समय तक लिपि का अनुसंधान नहीं हो पाया था अतः ऋषियों के द्वारा संग्रहित किए गए छन्दबद्ध ज्ञान को याद रखकर एक दूसरे में हस्तान्तरित करने के लिए एक ही छन्द को अनेक बार जोर जोर से उच्चारित कर दूसरे को सुनाया जाता जिसे सुनने वाला भी अनेक बार दुहराता और कुछ देर में उसे वह छन्द याद हो जाता। ये सत्य के वचन थे, ज्ञान के वचन थे अतः उन्हें जानकर तत्कालीन असंस्कृत लोग संस्कृति के प्रकाश की ओर बढ़ने लगे इसलिए उन्हें ‘वेद’ या ‘ज्ञान’ कहा गया।
वैदिक क्रिया ‘विद’ का अर्थ है ‘‘जानना’’ इस में ‘अल’ प्रत्यय जोड़ने से ‘वेद’ शब्द बनता है जिसका अर्थ है ‘‘ज्ञान’’। (शब्द ‘वेद’ का लिखित रूप देखकर कुछ स्वरविज्ञानियों का विचार है कि इसे ‘घञ’ प्रत्यय लगाकर बनाया गया है; तो भी, यही सही है कि उसे ‘अल’ प्रत्यय लगाकर बनाया गया है और वह पुल्लिंग है।) चूँकि लिपि के अभाव में उसे गुरु से मौखिक सुनकर याद रखा जाता था इसलिए उसका दूसरा नाम ‘श्रुति’ है। (श्रु + क्तिन = श्रुति; क्रिया ‘श्रु’ का अर्थ है सुनना, इसलिए श्रुति का एक अर्थ है ‘कान’  और इसीलिए कहा गया है कि जो कान से सुनकर याद रखा गया है वह है ‘वेद’) वेदों के सबसे पुराने भाग के प्रत्येक श्लोक को ‘ऋक’ कहा गया है, (ऋक् + क्विप =ऋक) । वैदिक क्रिया ‘ऋक’ का अर्थ है ‘ महिमामंडन करना ’ (गीत से या सामान्य भाषा में) ‘‘ऋक’’ का संस्कृत में अर्थ है ‘स्तवन’ करना। जब अनेक श्लोकों (ऋकों) को एक साथ रखकर किसी विचार को प्रदर्शित किया जाता, तो उसे कहा गया ‘सूक्त’ और अनेक सूक्तों को संग्रहित कर बनाया गया ‘मंडल’ ।

इस ज्ञान के लगातार बढ़ते जाने के कारण उसे  कालान्तर में यथावत संग्रहित बनाए रखने के लिए यह मान्यता बनायी गयी कि ‘‘ आवृत्तिः सर्वशास्त्राणां बोधादपि गरीयसी’’ अर्थात् समझ में आए या नहीं बार बार दुहराकर याद करना ही उचित है। अतः जिन्होंने वेदों के सभी छः अंगों, छन्द , कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, आयुर्वेद या धनुर्वेद को याद कर लिया वे ‘‘षडांगी’’ कहलाए। पहले केवल  एक ही वेद था ‘ऋग्वेद’ जिसमें ‘पण्डा’ प्राप्त करने को प्रोत्साहित किया गया है, ( ‘‘ पण्डा ’’ = अहं ब्रह्मास्मीति बुद्धिः सा पण्डा, अहं ब्रह्मास्मीति बुद्धिर्तामितः प्राप्तः पण्डितः।’’ अर्थात् ‘ मैं ब्रह्म हॅूं ’ इस प्रकार की बुद्धि कहलाती है पण्डा; जिसकी इस प्रकार की बुद्धि हो चुकती है वह कहलाता है पण्डित, और जो इस प्रकार की बुद्धि को पाने का जी जान से प्रयास करता है वह है "पाण्डेय, अपभ्रंश पांड़े "।) इस एक वेद को याद कर लेने वाले पण्डा या ‘पाण्डेय’, दो वेदों (ऋक, और यजुः) को याद कर लेने वाले ‘द्विवेदी’ या दुबे, तीन वेदों (ऋक, यजुः, अथर्व) को याद कर लेने वाले ‘त्रिवेदी’ या तिवारी और चारों वेदों (ऋक, यजुः, अथर्व और साम ) को कण्ठाग्र कर लेने वाले ‘चतुर्वेदी’ या चौबे  कहलाने लगे। ऋग्वेद के बाद यजुर्वेद की ऋचाएं भी कालक्रम से अधिक हो गईं अतः उसे दो भागों (कृष्ण और शुक्ल) में बाॅंट दिया गया । वास्तव में कृष्ण यजुर्वेद का विवरण अस्त व्यस्त था इस कारण उसे पुनः व्यवस्थित किया गया जिसे शुक्ल यजुर्वेद कहा गया । शुक्ल यजुर्वेद के ज्ञाता ‘शुक्ल’ कहलाए। आगे चलकर यह समस्या आई कि वेदों को याद कर लेने वालों की संख्या तो बहुत बढ़ गयी परन्तु उन्हें सही अर्थ देकर समझाने वाले नहीं बचे। अतः व्याकरण विशेषज्ञ, जो पाॅंडे, दुबे आदि से वेदपाठ सुनकर उसकी विस्त्रित व्याख्या करते वे "त्रिपाठी" कहलाए।

वेदों में ‘यज्ञ’ करना शुभ कर्म माना जाता था। यज्ञ का उद्भव कर्म से होता है, यज् + न =यज्ञ, अर्थात् क्रियाएं । इसलिए, हम जो भी करते हैं वह यज्ञ है। इन शुभ कर्मों को सम्पन्नता, प्रभाव और प्रकाण्डता से संबद्ध करते हुए कालान्तर में इन्हें अनेक प्रकार के नामों से जाना गया जैसे, अश्वमेध यज्ञ, राजसूय यज्ञ, वाजपेय यज्ञ आदि। ये यज्ञ, धन और बल सम्पन्न लोगों अर्थात् राजाओं के द्वारा किये जाते थे जिससे वे अपने धन और पराक्रम की प्रतिष्ठा को जनसामान्य में स्थापित किया करते थे। जो वेदज्ञ  जितने प्रकार से यज्ञ कराया करते उन्हें भी वैसा ही सामाजिक महत्व प्राप्त होता। कोई समृद्धिशाली व्यक्ति चतुर्दिक कीर्ति और यश की कामना करता तो वह अश्वमेध यज्ञ करके चक्रवर्ती सम्राट कहलाता, अन्य अपेक्षाकृत कम सामर्थ्य  और क्षेत्र के प्रतिनिधित्व वाला होता परन्तु वह अपने क्षेत्र में अपनी प्रतिष्ठा और यशकीर्ति को बनाए रखने और राज्य का विस्तार करने के लिए राजसूय यज्ञ या वाजपेय यज्ञ करता । यज्ञों को करने के समय और  बाद में जनसाधारण को अन्न, धन और अन्य वाॅंछित सामग्री भेंट की जाती थी जिससे राजसिक और गैरराजसिक सभी प्रकार के लोग आनन्द मनाया करते । अपनी अपनी सामर्थ्य  के अनुसार ये यज्ञ एक वर्ष, आधे वर्ष या एक माह तक किए जाते। राजाओं के यज्ञ सम्पन्न कराने वाले "राजपुरोहित", वाजपेय यज्ञ करने और कराने वाले "वाजपेयी", और जो सभी प्रकार के यज्ञ सम्पन्न कराते थे वे "मिश्र" कहलाए। इन विशेषज्ञों से अपने अपने क्षेत्र में प्रशिक्षण प्राप्त कर दक्ष हुए विद्वान "दीक्षित" कहलाए। प्रशिक्षण देने वाले विशेषज्ञ "आचार्य" और जो आचार्यों के मार्गदर्शन में अन्य जिज्ञासुओं को सिखाया करते वे "उपाध्याय " कहलाए। वेदों में प्रधानतः जिस शिक्षा पर बल दिया गया है वह है आत्मोपलब्धि अर्थात् अपने आप को जानना, अर्थात् ‘पण्डा’ को प्राप्त करना, अनुभव करना । जिन्हें यह पण्डायुक्त बुद्धि प्राप्त हो जाती वे तो पण्डित कहलाते और जो प्राप्त करने के लिए अभ्यास करते रहते वे पाण्डेय; परन्तु वे जो इनके बीच की किसी विशेष उन्नत अवस्था को पाकर ही आनन्दित होते उन्हें "अवस्थी" कहा जाता। कालान्तर में साधना जगत में आगे बढ़ रहे ऋषियों और गुरुओं ने अपने अपने आश्रम या गुरुकुल जिन्हें उस समय चतुष्पाठी कहा जाता था, बनाकर शिक्षा देना प्रारम्भ की, तब उनसे शिक्षा प्राप्त कर निकले विद्वान आपने को अपने गुरुओं के नाम से ही परिचय देने लगे। इस तरह, गर्ग, गौतम, कात्यायन, शाण्डिल्य, वशिष्ठ, भरद्वाज, भृगु या भार्गव, आदि अनेक प्रकार के ब्राह्मण या तो अपने गुरुओं या फिर निवास स्थानों के नाम से भी अपनी पहचान बताने लगे।
ज्ञान की उच्चतम अवस्था में सभी ने एक मत से स्वीकार किया कि इस समस्त दृश्य या अदृश्य प्रपंच का निर्माणकर्ता एक अद्वितीय परमचैतन्यसत्ता है, जिसे ‘‘ ब्रह्म’’ (अर्थात् जो बहुत बड़ा है तथा उसके सम्पर्क में आने वालों को भी बड़ा बना देता है) नाम से उच्चारित किया गया और यह भी कि जब वह परमसत्ता इस प्रपंच को रचने लगता है तब उसे ‘ब्रह्मा’ तथा रचित प्रपंच को ‘ब्रह्माण्ड’ कहा गया। इसीलिए वे शोधकर्ता ऋषिगण जो ब्रह्म का साक्षात्कार करने का प्रयत्न करने लगे वही "ब्राह्मण" कहलाए। वेदान्त के प्रवर्तक प्रकाण्ड विद्वान  शंकराचार्य (788-820) ने ब्राह्मण कौन है इस सम्बंध में लिखा है:-
‘‘ यं न सन्तं न चासन्तं न श्रुतं न वहुश्रुतं, न सुबृत्तं न दुर्बृत्तं वेद कश्चित स ब्राह्मणः।
 गूढ़ धर्माश्रितो विद्वान अज्ञात चरितं चरेत्, अन्धवत् जड़वत् चापि मूकवत् च महिं चरेत्।’’
(अर्थात् , जो न तो सन्त है और न ही असन्त है, न अज्ञानी है और न ही बहुत ज्ञानी है, न ही बहुत ही अच्छी वृत्तियों वाला है और न ही बुरी वृत्तियों वाला है उसे ब्राह्मण कहा जा सकता है । वह गम्भीरता से आडम्बर रहित धर्माचरण करता है और धरती पर चलते समय मौन रहकर अन्धे व्यक्ति जैसा रहता है।)

परन्तु आज, मुख्यतः विचारणीय बात यह है कि अपने को वेदों के ज्ञान, ऋषियों की संतान , यज्ञों और गुरुओं के नाम से प्रसिद्ध उपनाम देते हुए ‘पण्डित और ब्राह्मण’ कहने वाले कितने लोग अपने आचरण और ज्ञान से यथार्थतः पूर्वोक्त व्याख्या के अनुसार सही सिद्ध होते हैं ? 

Monday 17 September 2018

213 यज्ञ

213 यज्ञ
श्रीमद्भग्वदगीता में कहा गया है ‘‘ यज्ञः कर्म समुद्भवः (3/14)’’ अर्थात् यज्ञ का उद्भव कर्म से होता है। यज् + न = यज्ञ, अर्थात् क्रियाएं। हम जो भी करते हैं वह यज्ञ है। क्रिया का उद्गम कहाॅं से होता है? मन से। मन ही सभी कार्य करता है, ज्योंही मन में कोई विचार आता है उसके संवेदन ही बाहरी संसार में कार्य के रूप में प्रकट होते हैं। जब भी कोई कार्य होता है उससे पहले उसके सम्बन्ध में विचार मन के भीतर आते हैं इसीलिए कर्म या यज्ञ को मनोभौतिक कहा जाता है। कोई व्यक्ति कर्म के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता। ‘मुक्ति’ का इसीलिए मतलब है सभी प्रकार के यज्ञ या कर्म से छुटकारा पाना। सामान्यतः चार प्रकार के यज्ञ होते हैं, भूतयज्ञ, नृयज्ञ, पितृयज्ञ और आध्यात्म यज्ञ। इनमें से प्रथम तीन मनोभौतिक होते हैं क्योंकि इनके स्पन्दन पहले मन में आते हैं और फिर भौतिक जगत में कर्म के रूप में दिखाई देते हैं। चौथा  अर्थात् ‘आध्यात्मिक यज्ञ’ पूर्णतः आन्तरिक होता है। जैसे, किसी को कुछ भी दान देने के पहले विचार मन में आते हैं फिर, हाथ उसे देने के लिए आगे बढ़ते हैं ; अतः, मनोआत्मिक यज्ञ का क्षेत्र मन के भीतर होता है जबकि आध्यात्मिक यज्ञ का उद्गम क्षेत्र आत्मा से होता है और आत्मा के भीतर ही समाप्त हो जाता है।
(1) भूतयज्ञ- इसका अर्थ है इस संसार में आकार लेने वाले प्रत्येक अस्तित्व की सेवा करना। जैसे, पेड़ पौधों को पानी देना, पशुओं की सेवा करना, सबके कल्याण करने हेतु वैज्ञानिक अनुसन्धान करना। भूत का अर्थ होता है इस संसार का प्रत्येक अस्तित्व। अॅग्रेजी में जिसे ‘घोस्ट’ या ‘स्प्रिट’ कहते हैं उसका संस्कृत में समानार्थी है ‘‘प्रेत’’। ( यहाॅं ध्यान रखने की बात यह है कि ‘घोस्ट’ या ‘प्रेत’ का कोई अस्तित्व नहीं होता वह पूर्णतः मन की भावना को मन पर अध्यारोपण करने का बाहरी प्रक्षेप होता है, ‘अभिभावनात् चित्ताणुसृष्ट प्रेतदर्शनम्।’)

(2) नृयज्ञ- मनुष्यों के लिए किए गए सेवा कार्य इसके अन्तर्गत आते हैं। यह भूतयज्ञ का ही भाग है। ये चार प्रकार के होते हैं, शूद्रोचित, वैश्योचित, क्षत्रियोचित और विप्रोचित। संसार की सेवा इस भौतिक शरीर से करना शूद्रोचित सेवा के अन्तर्गत आता है जैसे, अपने सुखों का त्याग कर दूसरों को सुख पहॅुचाना, दूसरों के दुखों को दूर करना, रोगियों की सेवा करना इसी के अन्तर्गत आता है। किसी को भोजन, रुपया पैसा, आदि देकर सहायता करना वैश्योचित सेवा कहलाती है। अपने जीवन को भी कष्ट में डालकर दूसरों के जीवन की रक्षा करने का कार्य क्षत्रियोचित सेवा के अन्तर्गत आता है। विप्रोचित सेवा वह है जिसमें अपने आध्यात्मिक ज्ञान के अनुभवों से दूसरों को लाभान्वित करते हुए उन्हें वह ज्ञान देकर आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

स्पष्ट है कि शूद्रोचित सेवा समाज की रीढ़ की हड्डी है। जो शूद्रोचित सेवा को कमतर आॅंकते हैं वे न तो वैश्योचित, न ही क्षत्रियोचित और न ही विप्रोचित सेवा कर सकते हैं। इसलिए यदि कोई अपने को विप्र कहता है तो उसमें ये चारों गुण होना चाहिए। यद्यपि सभी प्रकार की सेवाओं का एकसमान महत्व है फिर भी विप्रोचित सेवा की भव्यता विशेष मानी जाती है क्योंकि वह सीधे आध्यात्म यज्ञ से जुड़ी होती है। पर यह ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी सेवा हो वह समय, स्थान और परिस्थितियों के अनुसार ही महत्व पाती है। मानलो कोई पथिक कष्ट में पड़कर अकेले स्थान में मरने की स्थिति में आ पहुॅंचा हो तो उस समय विप्रोचित सेवा करना व्यर्थ होगा, इस अवस्था में शूद्रोचित सेवा (अर्थात् देखरेख और चिकित्सा की व्यवस्था) करना ही उत्तम होगी। भूख से मरने वाले को क्या करोगे? भाषण दोगे? या चिकित्सा करोगे? नहीं। उसे भोजन देकर उसके जीवन को बचाया जा सकता है अतः वैश्योचित सेवा का ही यहाॅं अधिक महत्व होगा। दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि किसी असहाय व्यक्ति को किसी दुष्ट के द्वारा प्रताड़ना दी जा रही है तो न तो उसे ज्ञानोपदेश, न ही भोजन और न ही सुश्रुषा काम आयेगी, उसे तो क्षत्रियोचित सेवा के द्वारा बचाया जाना ही अधिक महत्वपूर्ण होगा। दूसरी ओर, किसी शराबी की शूद्रोचित सेवा करना या रुपया देकर वैश्योचित सेवा करना किसी मतलब का नहीं होगा क्योंकि इससे वह और प्रोत्साहित होगा और शराब पीना नहीं छोड़ सकेगा। उसे मारना पीटना भी बेकार जाएगा क्योंकि वह उस स्थान को छोड़कर कहीं और जाकर शराब पिएगा। उसे दृढ़तापूर्वक क्षत्रियोचित सेवा के साथ साथ विप्रोचित सेवा (नीतिवचन या वाक्य दंड) दिया जाना ही सार्थक होगा।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अलग अलग परिस्थितियों में अलग अलग सेवाओं का महत्व है परन्तु अन्य तीन की तुलना में विप्रोचित सेवा का प्रभाव स्थायी होता है। परिस्थितियाॅं चाहे जो भी हों सेवा करते समय हमें दूसरों को धोखा देने से बचना चाहिए । यह तभी हो सकता है जब हम सेवा किए जाने वाले प्रत्येक प्राणी को नारायण का ही रूप मानकर सेवा करेंगे। इसके लिए सेवा करने से पहले सच्चाई से मन में यह विचार लाना होता है कि ‘ हे नारायण ! मेरी सेवा को स्वीकार कर कृतार्थ करें ; आपने कृपापूर्वक मुझे इस रूप में सेवा करने का मूल्यवान अवसर प्रदान किया है।’ इस भावना से किए गए सेवा कार्य से कर्मबन्धन भी नहीं होगा और धोखा देने का विचार भी नहीं आएगा। कर्मबन्धन में बँधने का मुख्य कारण होता है धोखा देना और यश कीर्ति पाने के लिए लालायित होना। मानलो किसी व्यक्ति ने किसी संस्था को दस हजार रुपए दान दिए, अगले ही दिन से वह न्यूज पेपर में अपना नाम छपे होने की प्रतीक्षा उत्सुकता से करने लगेगा, जब उसका नाम पेपर में नहीं दिखेगा तो अपने सम्बँधियों सहित दूसरों से कहने लगेगा ‘‘ मैंने दस हजार रुपए दान में दिये परन्तु मैं कोई प्रचार नहीं करना चाहता था इसलिए पेपर वालों को नाम छापने से मना कर दिया था ’’; यह क्या है? यह सेवा भावना से की गई सेवा नहीं है उल्टे स्वयं को धोखा देना ही है। अतः इसका कर्मबन्धन होगा और फल भोगना ही पड़ेगा।

(3) पितृयज्ञ- इसका अर्थ है पूर्वजों, ऋषियों और सन्तों का स्मरण करना। जब तक कोई भी मनुष्य अपना शरीर धारण किए रहता है वह अपने पूर्वजों का ऋणी रहता है। वे जो सन्तों और ज्ञानियों से उचित शिक्षा पाकर अपने और समाज को मुक्ति के मार्ग पर ले जाने का कार्य करते हैं वे उनके ऋण से मुक्त हो जाते  हैं। ऋषि वे हैं जिनकी बौद्धिक क्षमता और  अनुसन्धानों से समाज को अनेक प्रकार से भौतिक और आध्यात्मिक लाभ और सुविधाएं प्राप्त हुई हैं। जो विध्वंसात्मक हथियारों का निर्माण और अनुसन्धान करते हैं उन्हें ऋषि नहीं कहा जा सकता। इन कल्याणपरक पूर्वजों को  आदर सहित स्मरण करना ही पितृयज्ञ कहलाता है।

(4) आध्यात्मिक यज्ञ- यह आन्तरिक क्षेत्र से जुड़ा होता है जिसके करने की ऊर्जा आत्मा के क्षेत्र से निकलकर मानसिक क्षेत्र में आती है और मन साधना कर्म करने लगता है । ये सब अन्ततः आत्मा में ही समाप्त होते हैं। आध्यात्मिक यज्ञ निवृत्ति से तथा भूत, नृ और पितृ यज्ञ निवृत्ति/प्रवृत्ति दोनों से जुड़े होते हैं । आध्यात्मिक यज्ञ में, परमात्मा के प्रति निस्पृह प्रेम और समर्पण के साथ ईश्वर प्रणिधान करते हुए अपना ‘‘मैंपन’’ उन्हें अर्पित करना होता है, किसी बाहरी वस्तुओं जैसे फूल, चन्दन, घी या अन्य कीमती वस्तुओं को अग्नि में जलाने का कोई महत्व नहीं है। उत्तम खाद्य पदार्थों को अग्नि में जलाने के स्थान पर उन्हें, उन कमजोर और भूखे लोगों में बाँट देना अधिक उचित होता है जिन्हें सचमुच उनकी आवश्यकता होती है अन्यथा दुरुपयोग ही माना जाएगा। जहाँ तक यज्ञ में घी जलाकर वर्षा उत्पन्न करने का प्रश्न है वह भ्रामक है, सही बात यह है कि वैज्ञानिक शोध ‘भूतयज्ञ’ के अन्तर्गत आते हैं अतः नये शोध कर वाॅंछित स्थानों पर कित्रिम वर्षा कर लाभ उठाया जा सकता है। आध्यात्मिक यज्ञ पूर्णतः आन्तरिक होता है उसमें धन सम्पदा का कोई महत्व नहीं है, इनका उपयोग केवल भूत, नृ और पित्रयज्ञ में ही होता है । प्रत्येक स्तर पर निस्वार्थ प्रेम का होना अनिवार्य होता है अन्यथा सभी प्रकार के यज्ञ निरर्थक हो जाते हैं। कुछ लोग त्याग करने या बलिदान करने को यज्ञ कहते हैं परन्तु त्याग या बलिदान करने का सही अर्थ यह है कि दूसरों की सेवा करने के लिए अपने सुख सुविधाओं का त्याग करना न कि पशुओं की हत्या करना। इस प्रकार परमात्मा में एकीभाव होकर ब्रह्म रूपी अग्नि में, ब्रह्म रूपी हविः को, ब्रह्म  रूपी कर्ता द्वारा जो हवन किया जाता है वह सभी कुछ ब्रह्म ही है, आध्यात्म यज्ञ यही है ; यह भावना ही ब्रह्मोपलब्धि कराती है जो मनुष्य जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। इस विवरण से स्पष्ट है कि विभिन्न सांसारिक भौतिक वस्तुओं से सम्पन्न किए जाने वाले भूतयज्ञों की तुलना में ज्ञानयज्ञ ही श्रेष्ठ है । अतः ज्ञानयज्ञ के द्वारा सभी संशयों से मुक्त होकर परमात्मा का साक्षात्कार सम्भव हो पाता है अन्य सब केवल आडम्बर की श्रेणी में आता है।

Sunday 9 September 2018

212 श्रीमद्भग्वद्गीता का प्रथम श्लोक

212 श्रीमद्भग्वद्गीता का प्रथम श्लोक
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे  कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः । मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।
सामान्यतः इसका अर्थ ‘‘ धृतराष्ट्र बोले, हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित हुए युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?’’ किया जाता है।
परन्तु हमारे पितामह (अर्थात् बाबा) ने हम लोगों को इसे इस प्रकार समझाया है:-
(1) धृतराष्ट्र = धृत + राष्ट्र । धृत = धारण करना। राष्ट्र = संरचना अर्थात् स्ट्रक्चर। अर्थात् जो आपकी संरचना को धारण किए हुए है वह धृतराष्ट्र । धृतराष्ट्र कैसा था? जन्माॅंध। आपकी शारीरिक संरचना को धारण करने वाला कौन है ? आपका मन। मन कैसा है अन्धा, वह इन्द्रियों की सहायता बिना कुछ भी अनुभव नहीं कर सकता। उवाच = बोलना, पूछना । तो ‘धृतराष्ट्र उवाच’ का अर्थ हुआ ‘‘ मन ने पूछा’’ ।
(2) धर्मक्षेत्र = धर्म = लाक्षणिता अर्थात् केरेक्टरिस्टिक्स और क्षेत्र = मैदान, एरिया। इसलिए धर्मक्षेत्र का अर्थ हुआ जो सभी प्रकार के लक्षणों से भरा हुआ है वह एरिया अर्थात् यह शरीर, यह आन्तरिक मानसिक संसार।
(3) कुरुक्षेत्र = कुरु = करना और क्षेत्र = मैदान । इसलिए कुरुक्षेत्र का अर्थ हुआ वह मैदान जो कह रहा है कि कुछ करो, कुछ करो अर्थात् सम्पूर्ण धरती, यह कर्म संसार।
(4) समवेता = एकत्रित हुए ।
(5) युयुत्सवः = युद्ध की इच्छा से।
(6) मामकाः = मेरे पुत्रों । अर्थात् जन्माॅंध धृतराष्ट्र के 100 पुत्रों; यहाॅं जन्माॅंध धृतराष्ट्र कौन है? ‘मन’। मन के एकसौ पुत्र कौन से हैं? मन, पाॅच ज्ञानेन्द्रियों ( आॅंख , कान , नाक , जीभ और त्वचा) और पाॅंच कर्मेद्रियों ( हाथ, पैर, वाक्, उपस्थ और पायुः) की सहायता से दसों दिशाओं ( पूर्व, पश्चिम , उत्तर दक्षिण, ऊर्ध्व  और अधः ये छः दिशायें और ईषान, आग्नेय, वायव्य, और नैऋत्य ये चार अनुदिशायें ) में कार्य करता है इसलिए 10 गुणित 10 बराबर 100 , ये धृतराष्ट्र के पुत्र हैं।
(7) पाण्वाश्चैव = पाण्डवाः + च + इव अर्थात् और पाण्डु के पुत्रोें ने ही। पॅडु = पॅंडा = अहं ब्रह्मास्मीति बुद्धिः सा पॅंडा, अहं ब्रह्मास्मीति बुद्धिर्तामितः प्राप्तः पंडितः । अर्थात् ‘ मैं ब्रह्म हॅूं ’ इस प्रकार की बुद्धि कहलाती है पॅडा; जिसकी इस प्रकार की बुद्धि हो चुकती है वह कहलाता है पंडित, और जो इस प्रकार की बुद्धि को पाने का जी जान से प्रयास करता है वह है पाॅंडेय, अपभ्रंश पांड़े या पाॅडु। अब, पाॅंडु के पुत्र पाण्डव कौन हैं? शरीर की रचना करने वाले पँच तत्व पाॅंडव हैं। सहदेव, ठोस अवस्था या पृथ्वी तत्व (अर्थात्, मूलाधार चक्र) जो कि सभी को अपने साथ रखता है। नकुल, ‘यस्य कुलं नास्ति’ (स्वाधिष्ठान चक्र) अर्थात् जलतत्व । अर्जुन, अग्नितत्व अर्थात् ऊर्जा को प्रदर्शित  करते हैं अर्थात् (मनीपुर चक्र्)। भीम, पवनपुत्र, वायुतत्व अर्थात् (अनाहत चक्र) । और, विशुद्ध चक्र या व्योमतत्व को युधिष्ठिर प्रदर्शित  करते हैं। विशुद्ध चक्र तक भौतिक संसार समाप्त हो जाता है और आध्यात्मिक संसार प्रारंभ हो जाता है। इसलिये भौतिकवादियों और आध्यात्मवादियों अर्थात् स्थूल और सूक्ष्म के बीच में होने वाले झगड़े में युधिष्ठिर स्थिर रहते हैं। युद्धे स्थिरः यः सः युधिष्ठिरः।
(8) किमकुर्वत = किम् + अकुर्वत् = क्या किया ?
(9) संजय = विवेक (अर्थात् कन्साइंस)। अँधा मन विवेक की सहायता के बिना कुछ निर्णय नहीं कर सकता।

अब देखिए, ‘परमपुरुष कृष्ण’ अर्थात् ‘‘कास्मिक काॅन्ससनैस’’ सहस्त्रार में  बैठे हैं और ‘जीवात्मा’ अर्थात् ‘‘यूनिट काॅन्ससनैस’’ मूलाधार में कुन्डलनी के आकार में हैं। यह इकाई चेतना अर्थात् जीवात्मा, पाॅंडवों की सहायता से कृष्ण तक पहुॅंचना चाहता है परन्तु अँधे मन धृतराष्ट्र के सौ पुत्र उन्हें रोककर इसी बाहरी संसार में फॅसाए रखना चाहते हैं। इसलिए इनका युद्ध धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के साथ लगातार चल रहा है। जिन्होंने विवेक का उपयोग कर अपना इष्टमंत्र जानकर, रास्ता पहचान लिया है वे पंचतत्वों की सहायता से उचित रास्ता पाकर, राजमार्ग ( सुसुम्ना मार्ग) का अनुसरण करते हुए सहस्त्रार पर स्थित कृष्ण के पास जा पहुँचते हैं और उन्हें ही विजयी माना जाता है। अन्यथा, महाभारत तो सब के साथ रोज ही चल रहा है। महाभारत का असली रहस्य यही है।
इसलिए, श्लोक में अंधे धृतराष्ट्र, विवेकी संजय से पूछते हैं कि मेरे और पाण्डु के पुत्रों के बीच होने वाले युद्ध में क्या हुआ?

Sunday 2 September 2018

211 महासम्भूति कृष्ण और कुन्डलनी साधना

211 महासम्भूति कृष्ण और कुन्डलनी साधना

श्रीकृष्ण वास्तव में आध्यात्मिक सत्ता हैं परन्तु साधारण जनता उन्हें मानव शरीर में देखती है क्योंकि वह भौतिक सत्ताओं को भी नियंत्रित करते हैं। ब्रह्माॅंड में विभिन्न संरचनाओं केे अलग अलग उपकेन्द्र होते हैं परन्तु मूल केन्द्र एक ही होता है । मानव अस्तित्व का बड़ा भाग मानसिक होता है और अल्प भाग शारीरिक। अविकसित मनुष्य तो स्वयं एक समस्या होता है। मनुष्य शरीर होने से ही कोई मनुष्य नहीं कहला सकता उसे मन से भी यथार्थ  मनुष्य होना चाहिए। सभी उपकेन्द्र और विश्व के प्राणकेन्द्र का नियंत्रण और परिचालन स्वयं श्रीकृष्ण के द्वारा होता है परन्तु प्रत्येक उपकेन्द्र में वह स्वयं नहीं होते। मनुष्य के सम्पूर्ण शरीर का नियंत्रक है सहस्त्रार चक्र। चाहे एक कोशीय जीव हो या बहुकोशीय , प्रत्येक का उपकेन्द्र उसके भावात्मक चक्रों के केन्द्र में  होता है और उसके स्नायु तन्तुओं और स्नायु कोशों को प्रस्तुत करता है। यह स्नायु तन्तु और स्नायुकोश क्रमशः मन को प्रस्तुत करते हैं। इसी प्रकार स्थूल मन, सूक्ष्म मन को प्रस्तुत करता है।

कभी कभी व्यक्ति के मन के साथ आत्मा अर्थात् काॅस्मिक कान्शसनैस का संज्ञान सम्पर्क  स्थापित हो जाता है, जितना अधिक यह संज्ञान संपर्क होता है उतना ही अधिक उसमें आध्यात्मिक साधना के प्रति निष्ठा जमती है। साधक और असाधक में यही अन्तर है। भूमा चैतन्य अर्थात् कॅास्मिक कान्शसनैस के साथ मन के इसी संयोग को अधिकाधिक दृढ़ करने की प्रचेष्टा को ही ‘‘योग’’ कहते हैं। चूँकि  विभिन्न चक्रों के नियंत्रण बिन्दु अलग अलग होते हैं अतः साधना की दो दिशाएं हैं, पहली हार्मोन के निःसरण  की सहायता से नियंत्रण बिन्दुओं को दृढ़ करना । यह पूर्ण रूप से देह को केन्द्र बना कर उसी पर आश्रित होती है इसलिए इस पद्धति को हठ योग कहते हैं। दूसरी है मन को कृष्णार्पण करना। यह शारीरिक नहीं भावात्मक है, अन्तर्मुखी है अतः विद्यातन्त्र  में मानी जाती है। सच्ची साधना यही है इसमें शारीरिक और मानसिक सत्ता को परमपुरुष को पूर्णतया समर्पित करना होता है। परमपुरुष और जीवात्मा का संयोग बिन्दु है सहस्त्रार के नीचे के बिन्दु में। प्रत्येक केन्द्र परिवर्ती केन्द्र के साथ इसी प्रकार संबंधित रहता है। नीचे के चक्र क्रमशः स्थूल होते हैं। प्रत्येक चक्र का भौतिक नियंत्रण उसी के द्वारा होता है परन्तु भावात्मक नियंत्रण ठीक ऊपर वाले चक्र के नियंत्रक बिन्दु से होता है। जैसे, स्वाधिष्ठान चक्र का नियंत्रण भौतिक रूप से उसी के नियंत्रक बिन्दु से होगा परन्तु भावात्मक नियंत्रण उसके ऊपर स्थित मणिपुर चक्र के नियंत्रक बिन्दु से होगा। सहस्त्रार चक्र कोई स्थूल भौतिक क्षेत्र नहीं है यह पूर्णतः आध्यात्मिक क्षेत्र है। इसका नियंत्रक बिन्दु सूक्ष्मतम मानस बिन्दु है जहाॅं परमशिव का पीठस्थान होता है। परमशिव हैं लघुतम बिन्दु, विशुद्ध अहंबोध अर्थात् ‘मैं हॅूं’ बोध । कुंडलिनी शक्ति, मूलाधार चक्र के भीतर होती है जो आद्याशक्ति, या राधा शक्ति भी कहलाती है। वैज्ञानिक शब्दावली  में सहस्त्रार में परम शिव या परमपुरुष कृष्ण की स्थिति ‘फंडामेंटल पाजीटिविटी’ और मूलाधार में स्थित कुंडलिनी शक्ति या राधाशक्ति ‘फंडामेंटल नेगेटिविटी’ कहलाती है। साधना के द्वारा राधाशक्ति को परमपुरुष कृष्ण से संस्पर्श कराना होता है।
अब, चूंकि अहंबोध का पीठ है आज्ञाचक्र और उसका भावात्मक नियंत्रण होता है सहस्त्रार में स्थित परमपुरुष श्रीकृष्ण से। अतः श्रीकृष्ण जिसके शुद्ध अहंबोध के पीठ आज्ञाचक्र को अपने काम के लिए चुन लेते हैं वह परमपुरुष के प्रत्यक्ष संयोग द्वारा शक्ति और मुक्ति प्राप्त कर लेता है। अतः परमपुरुष की प्राप्ति के लिए प्रत्येक चक्र को शुद्ध करना होगा। परमपुरुष श्रीकृष्ण प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से मूलकेन्द्र और उपकेन्द्रों का नियंत्रण करते हैं। परमात्म कृष्ण स्वयं विशुद्ध आध्यात्मभाव का नियंत्रण करते हैं और जीवात्म कृष्ण मानसाध्यात्मिक भावों को नियंत्रित करते हैं। साधक के लिए एक ही व्रत है कि अपने सभी उपकेन्द्रों को शुद्ध और दृढ़ करके अपने मूल केन्द्र को परमात्म कृष्ण के चरणों में समर्पित करना । वे स्वयं व्यक्ति विशेष के साथ संयोग संबंध बनाए रखते हें महासम्भूति या विश्व के केन्द्र बिन्दु के रूप में। 

Tuesday 28 August 2018

210 भागवत धर्म

210 भागवत धर्म

जिसने आपको बाॅंध कर जड़ पदार्थों, पेड़ पौधों, कीड़े मकोड़ों ,पक्षियों और पशुओं से अलग अस्तित्व अर्थात् मानव होने का बोध कराया है उसे मानवधर्म कहा गया है। वैसे ही जैसे, अग्नि का ‘ज्वलन’ धर्म और जल का ‘शीतलन’ धर्म। यदि अग्नि, ज्वलनशीलता और जल, शीतलता को त्याग दे तो उन्हें अग्नि और जल नहीं कहा जा सकता। इसलिए मानवोचित लक्षण ही मनुष्य को दूसरों से पृथक करते हैं अतः यही लक्षण उसका धर्म कहलाते हैं। मानव सभ्यता के प्रथम चरण में भौगोलिक और पर्यावरणीय परिस्थितियाॅं आज जैसी नहीं थीं अतः उस समय से आज तक की यात्रा में मानव मन की बढ़ती जिज्ञासाओं के कारण उसके लक्षणों में बहुत परिवर्तन हुए है और होते जाएंगे। मानव मन की जिज्ञासा शारीरिक, शारीरमानसिक, मानसाध्यात्मिक और आध्यात्मिक इन चार प्रकार से व्यक्त होती रही है जिनका अभिव्यक्तिकरण काव्य, पुराण, इतिकथा और इतिहास आदि में मिलता है। सरस और प्राॅंजल भाषा में व्यक्त भावों को ‘काव्य’ कहा जाता है ‘‘ वाक्यं रसात्मकं काव्यं’’ । ‘पुराण’ में वर्णित  घटनाएं वास्तविक न भी हों तो भी उनमें लोक शिक्षा की प्रधानता होती है। ‘इतिकथा’ में घटनाओं का क्रमशः तिथिवार संग्रह कर धारावाहिक विवरण होता है। इन घटनाओं से लोकशिक्षा हो भी सकती है और नहीं भी, परन्तु इसके पढ़ने पर पुराकालीन सामाजिक अवस्था के बारे में जाना जा सकता है और वर्तमान से उसकी तुलना की जा सकती है। ‘इतिकथा’ के संस्कृत में अनेक पर्यायवाची शब्द हैं जैसे, पुराकथा, इतिवृत्त, पुरावृत्त आदि, पर अंग्रेजी में एक ही शब्द है ‘‘हिस्ट्री’’। ‘‘इति हसति इत्यर्थे इतिहासः’’ ; हस् धातु का अर्थ है हॅंसना, विकसित होना, लिखना। इसलिए इतिहास , इतिकथा का सोद्देश्य विकसित रूप है।

इतिकथात्मक सभी रचनाएं इतिहास नहीं हैं, इतिहास सोद्देश्य लेखन होता है जबकि इतिकथा प्रामाणिक घटनाओं का मात्र पंजीकरण। इतिहास के बारे में शास्त्रों में कहा गया है ‘‘ धर्मार्थकाममोक्षाार्थं नीतिवाक्य समन्वितम्, पुरावृत्तकथायुक्तं इतिहासं प्रचक्षते।’’ अतः इतिहास पुरावृत्त कथाओं की ऐसी प्रस्तुति है जिसके अनुशीलन से काम, अर्थ, धर्म, मोक्ष चारों की प्राप्ति होती है। काम का संबंध है शरीर से जैसे, धन, मान, यश, आहार, वस्त्र आदि के प्रति आसक्त होना। अर्थ का संबंध  है शरीर और मन दोनों से जैसे, भूख लगने पर रुपये से कुछ खरीद कर खा लिया तो भूख शाॅंत हुई , मानसिक स्तर पर यदि किसी शब्द का अर्थ नहीं समझ में आ रहा है और शब्दकोष की मदद से उसे जान लिया तो मन को शाॅंति मिल गई । अर्थ अर्थात् धन, शारीरिक और मानसिक कष्ट को अस्थायी रूप से ही दूर कर पाता है। इसलिए मानसाध्यात्मिकता जिसे ‘धर्म’ कहा जाता है वह इन कष्टों का स्थायी हल  निकालने में मदद करता है। परन्तु मनुष्य का मन सीमित सुख और आनन्द से संतुष्ट नहीं होता अतः अनन्त सुख और आनन्द पाने का अन्तिम स्तर कहलाता है ‘मोक्ष’ जिसमें इकाई मन, परमात्मा में विलीन हो जाता है। परन्तु इतिहास में ये बातें सैद्धान्तिक रूप से ही बताई जाती हैं अतः उन्हें व्यवहार में उतारने के लिए ‘नीति’ का सहारा लिया जाता है जिसे पुराकथा या पुरावृत्त से जोड़कर ‘महाभारत’ जैसे इतिहास की रचना संभव हो पाती है।

सभ्यता के उद्गम स्तर पर सबसे बलिष्ठ व्यक्ति के संरक्षण में लोगों का समूह पहाड़ोें पर रहा करता था । संस्कृत में पहाड़ को गोत्र कहते हैं अतः उस व्यक्ति के नाम से उस पहाड़ पर रहने वाले सभी लोग अपना गोत्र परिचय दिया करते थे। जो व्यक्ति जीवनोपयोगी किसी वस्तु को खोज लेता या संरक्षण करता उसे आदर देने के लिए उन्हें ऋषि कहा जाता। एक प्रकार से ऋषिगण अनुसंधानकर्ता ही होते थे। जो इन अनुसंधानकर्ताओं को नियंत्रण और मार्गदर्शन करता उसे महर्षि कहा जाता । इन ऋषियों को, उच्च चिन्तन करने की अवस्था में जो कुछ नया बोधज्ञान होता उसे वे सबको समझाते और कहे गए वाक्यों को ‘आप्तवाक्य’ नाम देते। इन आप्त वाक्यों को आधार मानकर जीवनयापन करने की पद्धति को ‘आर्षधर्म’ कहा गया। जीवन के अनुभवों को इन्हीं आप्त वाक्यों के द्वारा संग्रहित कर याद रखा जाने लगा जिसे ऋषिगण अपने से पीछे आने वालों को समझाकर याद रखने का निर्देश देते जो कालान्तर में ऋग्वेद के नाम से जाना गया। इस वैदिकयुग में आदरणीय व्यक्ति के लिये ‘आर्य’ कहकर सम्बोधित किया जाता था जो समयानुसार भाषाओं में परिवर्तन होने से अपभ्रंश होकर प्राकृत में ‘आय्य ’  होते हुए ‘अज्ज’, ‘अज्जि’, ‘अजी’ और अब ‘जी’ हो गया । भाषाएं इसी प्रकार जनप्रवाह में बिगड़ती बनती रही हैं। ऋग्वैदिक काल आज से पन्द्रह हजार वर्ष पूर्व से सात हजार वर्ष पूर्व तक माना जाता है अतः ऋग्वेद में आठ हजार से भी अधिक वर्षों का ज्ञान (विशेषतः शिल्प, चित्र, स्थापत्य, शिक्षा, ललितकलाओं और चिकित्सा के संबंध में) अव्यवस्थित रूप से संग्रहीत था । विशेषज्ञ अपने महत्व को बनाए रखने के लिए बहुत सी विद्याएं दूसरों को पूर्णतः नहीं बताया करते थे इसलिए बहुत सा महत्वपूर्ण ज्ञान लुप्त ही हो गया।

ऋग्वैदिक काल की समाप्ति और यजुर्वैदिक काल के प्रारम्भ में भगवान शिव जैसी अद्वितीय सत्ता का आविर्भाव हुआ जिन्होंने  सामाजिक संगठन का सूत्रपात किया और सभी विधाओं तथा ललितकलाओं के आदि गुरु होकर मानव मनीषा के  विकास के सभी क्षेत्रों में नियमवद्ध प्रणाली की स्थापना की। भगवान शिव की साधुता, सरलता और तेजस्विता के प्रभाव से समाज के सभी स्तरों के लोग उन तक सीधी पहॅुच रखते थे इतना ही नहीं पेड़पौधों सहित सभी प्राणियों और पशुओं को भी उनका संरक्षण प्राप्त था । उनका प्रभाव इतना था कि सभी "आर्ष "  धर्मावलम्बी एक ही मंत्र जपने लगे ‘‘सर्व गोत्रान् परित्यज्य शिव गोत्रं प्रविशतु’’ अर्थात् सभी गोत्रों को त्यागकर शिव गोत्र में प्रवेश करो। उन्होंने ऋग्वेद के ‘आर्षधर्म’ के सैद्धान्तिक रूप को व्यावहारिक बनाया और विद्यातन्त्र के साथ शिल्प, चित्र, स्थापत्य, शिक्षा, ललितकलाओं, संगीत अर्थात् वाद्य, नृत्य और गीत आदि को पूरे जम्बूद्वीप (जो उस समय, आज के अफगानिस्तान से फिलीपीन्स तक अर्थात् सम्पूर्ण दक्षिण पूर्व एशिया तक फैला था) में पार्वती, भैरव, भैरवी, कार्तिकेय, विश्वकर्मा, नन्दी, धन्वन्तरी, भरत और कुबेर के माध्यम से प्रचारित कर स्थापित किया जो कालान्तर में ‘शैव धर्म’ के नाम से विख्यात हुआ। भगवान शिव के बाद अथर्ववैदिक काल में लिपि का अनुसंधान हो जाने पर भी वेदों के ज्ञान को परम्परा के नाम पर मौखिक ही सिखाया जाता था, लिखने नहीं दिया जाता था । ऋषि अथर्वा ने अपने साथियों अंगिरा, अंगिरस और वैदर्भि के सहयोग से छिप छिप कर वेदों को लिखने का कार्य किया । आज से तीन हजार पाॅंच सौ वर्ष पूर्व जब समाज में विकृतियाॅं आने लगीं थी उस समय भगवान शिव की तरह विराट व्यक्तित्व के धनी भगवान श्रीकृष्ण का आविर्भाव हुआ जिन्होंने व्यक्ति के स्वतंत्र विकास के साथ एकीकृत समाजबद्ध जीवन पद्धति का सूत्रपात किया और बताया कि धर्म ही हर व्यक्ति को समाज के रूप में धारण करता है, ‘‘ धर्मो धारयते प्रजाः’’। इस प्रकार धर्म के नाम पर प्रचलित अनेक विधियों के बड़े बड़े ऋषियों, मुनियों, अविद्यातन्त्र के उपासकों, शैव और विद्यातान्त्रिकों, शाक्तों, कौल साधकों और बड़े बड़े गुरुकुलों के कुलपतियों को एक सूत्र में बाॅंधकर भगवान शिव के द्वारा स्थापित शैव धर्म को आधार बनाकर ‘‘भागवत धर्म’’ में प्रवेश दिलाया और समाज को नयी दिशा दी। भागवत धर्म कालान्तर में ‘वैष्णव तंत्र’ या ‘सनातन धर्म’ के नाम से जाना गया। कृष्ण के समय में ही कृष्णद्वैपायन व्यास ने जिन्हें वेदव्यास के नाम से जाना जाता है, वेदों के अस्तव्यस्त ज्ञान को व्यवस्थित कर कालक्रम के अनुसार चार भागों ऋक, यजुः, अथर्व और साम में विभाजित किया। सामवेद पृथक से वेद नहीं है वह तीनों वेदों में से पद्यात्मक भाग को अलग कर एक साथ रखकर चौथे  वेद के नाम से जाना जाता है।

जब वेदव्यास ने शिव के विद्यातन्त्र और कृष्ण के भागवत धर्म आधारित शिक्षाएं देना प्रारंभ की तब तत्कालीन जनसमाज को उन्हें पूर्णतः समझने में कठिनाई हुई इसलिए उस ज्ञान को उन्होंने सरल भाषा में काल्पनिक कहानियों के द्वारा समझाना  शुरु किया जिसे लिपिबद्ध कर अठारह पुराणों में लिखा गया है। इस प्रकार की लम्बी यात्रा में आर्षधर्म> विद्यातन्त्र > शैवधर्म > भागवत धर्म > वैष्णव तंत्र > सनातन धर्म  आदि में रूपान्तरित होता रहा जिसके आधार में शिवतन्त्र सदा भूमिगत जलप्रवाह की तरह बना रहा। कृष्ण के बाद एक हजार वर्ष तक ‘भागवत धर्म’ अपनी पराकाष्ठा पर बना रहा परन्तु आज से दो हजार पाॅंच सौ वर्ष पूर्व वर्धमान महावीर के द्वारा अहिंसा और तप केन्द्रित जैन धर्म के प्रभाव में उनके अनुयायी पराक्रम से दूर होकर भीरु होने लगे और उनकी मूर्ति बनाकर काल्पनिक देवी देवताओं को अपना आराध्य मान कर उपासना करने लगे। भागवत धर्म नैपथ्य में चला गया । इसी काल में गौतम बुद्ध का भी आविर्भाव हुआ जिन्होंने जैन धर्म की तुलना में कुछ सरल विचारधारा रखी और उनके अनुयायी कुछ जैन तथा कुछ अपनी काल्पनिकता के आधार पर बुद्ध की प्रतिमाओं को नये नये नामों से पूजने लगे परन्तु शैवतन्त्र भूमिगत जल की तरह इन सब के साथ ही बहता रहा। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि चाहे वे जैन देवी देवता हों या बौद्ध सभी का सम्बंध शिव से किसी न किसी प्रकार जोड़े रखा गया है जिसका कारण था कि शिव से जोड़े बिना उन्हें कोई महत्व न मिलता, शिव तो जन जन के महादेव थे। वर्धमान महावीर और गौतम बुद्ध के बाद आज से एक हजार दो सौ वर्ष पूर्व आए ‘शंकराचार्य’ ने धर्म के नाम पर चल रहे वितण्डावाद को शास्त्रार्थ के बल पर धराशायी कर दिया और नए सिरे से ‘‘वैष्णव तन्त्र’’ आधारित ‘पौराणिक धर्म’ की स्थापना की जिसमें सामाजिक समन्वय के दृष्टिकोण से कुछ जैन और कुछ बौद्ध धर्म के काल्पनिक देवी देवताओं को समावेशित किया गया । उनके जाने के बाद पुराणों में वर्णित मूल तथ्यों को भूल कर लोग कर्मकाण्ड आधारित काल्पनिक देवी देवताओं की उपासना में ही आज भी लगे हुए देखे जा सकते हैं। सर्वविदित है कि कालान्तर में क्रमशः मुसलमानों और अंग्रेजों के प्रभाव में ‘‘भारत’’ ( ‘भर्’’= भरण पोषण, और ‘‘तन्’’= विस्तार कर क्रम से बढ़ने वाला के अर्थ से भर् + अल् + तन्= भारत ) ‘‘सिंधु नदी / इन्डस नदी’’ के नाम से सिन्दोस्तान / इन्डिया से संयुक्त होकर हिन्दोस्तान कहलाने लगा। इस प्रकार इनके शासन काल में ही भागवत धर्म से रूपान्तरित हुए पौराणिक धर्म को ‘हिन्दु धर्म’ नाम दे दिया गया  । अब, हमारे देश भारत का मूल भागवत धर्म विकृत होकर तथाकथित हिन्दुधर्म के नाम पर अपने आॅंसू बहा रहा है। 

Monday 20 August 2018

209 ये यथा माम् प्रपद्यन्ते ..

ये यथा माम् प्रपद्यन्ते ..

 जो मुझे जिस प्रकार भजते हैं मैं भी उन्हें वैसे ही भजता हॅूं, यह कथन है गीता में श्रीकृष्ण का।
देखा जाता है कि लोग भगवान की पूजा , भजन, आरती , कीर्तन आदि, कुछ न कुछ पाने के लिए ही करते हैं। वे कहा करते हैं, हे भगवान मैं धनी हो जाऊॅं, सुखी रहूँ , कोई कष्ट न हो, मेरे सभी शत्रु नष्ट हो जाएं, परीक्षा में पास हो जाएं, पुत्र पुत्रियों की नौकरी लग जाए, उनकी अच्छे घर  में शादी हो जाय, और न जाने क्या क्या....। जबकि, प्रकृति के विकास क्रम में यह मनुष्य शरीर हमें ‘उनकी’ कृपा से ही प्राप्त हुआ है, उन्हें ही अनुभव करते हुए उन्हीं को पाने के लिए। पर कितना आश्चर्य है कि उन्हें पाने की जगह हम उनसे भौतिक जगत की अनेक वस्तुएं और सुख साधन माॅंगते नहीं थकते। "उन्हें" पाने का तो कभी विचार ही नहीं आता। अब मानलो कोई व्यक्ति कहता है कि हे भगवान ! मैं ‘राजा’ हो  जाऊं, तो हो सकता है, अगले जन्म में वह किसी गरीब के घर जन्म लेकर ‘राजा’ नाम का व्यक्ति कहलाए। वह राजा बनना चाहता था इसलिए वह हो गया। इसका स्पष्ट अर्थ यह है,  कि किसी भी प्रकार की इच्छा करते समय बहुत ही सावधान रहना चाहिए।

इस संबंध में एक दृष्टाॅंत है, ‘‘किसी व्यक्ति ने भगवान शिव से अमर हो जानें का वरदान माॅंगा। शिव ने कहा, अमर होना तो असंभव है; गहराई से विचार कर कुछ और माॅंग लो । वह बोला, ठीक है, मैं न दिन में मरूं और न रात में। तो, वह मरा संध्याकाल में।’’

सच तो यह है कि परमपुरुष से कुछ माॅंगा ही न जाय अर्थात् भौतिक जगत की कोई चीज माॅंगने का क्या औचित्य क्यों कि अगले एक सेकेंड का भी तो किसी को नहीं मालूम कि क्या होगा, वह जिएगा भी या नहीं। हम स्वयं अपने भविष्य की आवश्यकताओं को नहीं जानते तो कुछ भी माॅंगने से क्या लाभ। इसलिए सबसे अच्छा तो यह कहना होता है कि "हे प्रभु ! मेरे जीवन में आपकी इच्छा पूरी हो।"  यदि कुछ माॅंगना ही हो तो सर्वोच्च भक्ति ‘पराभक्ति’ माॅंगना चाहिए।

Tuesday 14 August 2018

208 आचरण

  आचरण

भावजड़ता में डूबे धर्मान्ध अनुयायी गण, समाज के तथाकथित उच्च वर्ग और वर्ण के कहे जाने वाले लोगों के शिकार होते रहे हैं। पीले या गेरुए वस्त्रों वाले किसी भी व्यक्ति को वे सदाचारी मानकर दंडवत प्रणाम करते हैं भले ही वे गाॅंजा और हशीस का धूम्रपान करते हों, मास खाते हों , शराब पीते हों, अफीम खाते हों , तामसी भोजन और प्याज, लहसुन की तो बात ही क्या करना वह तो उनके रोचक खाद्य पदार्थ होते हैं। यदि उनसे तर्क करें तो पिटा पिटाया जबाब होता है, ‘‘ हम तो उनकी पोशाक को प्रणाम करते हैं उन्हें नहीं।

किसी के भी आचरण को देखकर यह सरलता से जाना जा सकता है कि वह ईश्वर के दिव्य प्रेम में कितना डूबा है, जो इस दिव्य प्रेम का रसपान कर चुकता है वह दूसरों का शोषण कभी नहीं कर सकता। इस प्रकार के लोग हर प्रकार के अन्याय, अत्याचार ओर शोषण के बिरुद्ध अपनी आवाज बुलन्द करते हैं। वे जो अनीति के विरुद्ध साहस पूर्वक खड़े नहीं हो सकते उन्हें आचरणवान नहीं कहा जा सकता।

वे, जिन्हें समाज ने दूसरों को रास्ता दिखाने का उत्तरदायित्व सौंपा है उनका चरित्र तो सर्वोत्तम होना चाहिए। वे और उनके अनुयायी नियमित रूप से श्रेय और सर्वांगीण विकास का रास्ता चुनते हैं।  ‘‘ आचरणात् पाठयति यः सः आचार्यः ’’ अर्थात् वे, जो अपने व्यवस्थित व्यवहार और आचरण से शिक्षा देते हैं उन्हें ही आचार्य कहते हैं। यह ध्यान रखना चाहिए कि आचार्य की छोटी सी कमजोरी (या आचरण का दोष ) जन सामान्य का बड़ा नुकसान कर सकती है या उन्हें गलत रास्ते की ओर ले जा सकती है। जैसे पिता अपने बच्चों को अपने अच्छे आचरण से शिक्षित करता है उसी प्रकार आचार्य को सदा अपनी वार्ता और क्रियाकलाप से अपने को प्रमाणित करना चाहिए। आचरण से  आदर्श झलकना चाहिए, इसमें किसी की शिक्षा का स्तर या सामाजिक स्तर या आर्थिक स्तर का कोई महत्व नहीं। इसीलिए कहा गया है कि धर्म और कुछ नहीं आपके आचरण का एकीकरण है- आप कैसे खाते हैं, कैसे बोलते हैं, कैसे साधना करते हैं ... । यदि आपका आचरण ठीक है तो आपका धर्म आपके साथ है और नहीं तो धर्म भी आपसे दूर रहता है । जब किसी का धर्म साथ छोड़ देता है तो सर्वनाश निकट आ जाता है अर्थात् उसका भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक पतन हो जाता है। आचरण, धर्म का प्रधान घटक माना जाता है। अच्छे आचरण वाले सदाचारी व्यक्ति को निश्चित ही परमात्मा को पाना सरल हो जाता है।

Tuesday 7 August 2018

207 ऋग्वेद

ऋग्वेद
ऋग्वेद बहुत पुराना है इसके अतिरिक्त यह भी निश्चित है कि कृष्णद्वैपायन व्यास ने वेदों को उनकी प्राचीनता के अनुसार सबसे पुराना, मध्य, और पश्चात्वर्ती इन तीन अलग अलग भागों में ‘जैन युग’ के बहुत पहले विभाजित कर दिया था। जैन युग का संदर्भ देने का कारण यह है कि वेदों का उल्लेख जैन साहित्य में भी मिलता है जो कि तत्कालीन प्राकृत भाषा में लिखा गया है। वर्धमान महावीर 2500 वर्ष से कुछ पहले हुए थे और प्राकृत भाषा का उद्गम चार से पाॅंच हजार वर्ष के बीच हुआ। इस प्रकार वेदों का जो भी भाग सबसे बाद का माना जाय, वह निश्चय ही पाॅंच हजार वर्ष से कम पुराना नहीं हैं। जैन साहित्य का जहाॅं तक संबंध है उसका कुछ भाग वर्धमान महावीर के पहले, कुछ जैन सन्तों के द्वारा रचित हुआ था तो भी वे किसी भी प्रकार से पाॅंच हजार वर्ष से पहले के नहीं हैं।
ऋग्वेद का रचनाकाल लगभग पन्द्रह हजार वर्ष से दस हजार वर्ष पूर्व के बीच का है जबकि यजुर्वेद का दस हजार से सात हजार वर्ष के बीच का और अथर्ववेद का सात से पाॅंच हजार वर्ष के बीच का माना जाता है। सामवेद कोई वेद नहीं है, शब्द ‘साम’ का अर्थ है ‘गीत या भजन’ । सामवेद को पूर्वोक्त सभी वेदों के संगीत वाले भाग को अलग कर एक साथ प्रस्तुत किया गया जिसे सामवेद का नाम दिया गया है। अर्थात् सामवेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद सभी में पाया जाता है। वेदों का सबसे पहले विभाजन हुआ तब उन्हें ऋक, यजुः और अथर्व नाम दिया गया। परन्तु जैन साहित्य में केवल सामवेद का उल्लेख मिलता है जो प्रकट करता है कि जैन साहित्य के उद्गम से बहुत पहले वेदों को तीन भागों में विभाजित किया जा चुका था और बाद में सभी तीनों भागों में से संगीत वाले भाग को एकत्रित कर सामवेद बनाया गया था।
जैसे लिपि के अभाव में वेदों को लिखा जाना संभव नहीं हो पाया था उसी प्रकार जैन सन्त जितने भी पुराने क्यों न हों वे भी अपनी शिक्षाओं को लिपि के माध्यम से व्यक्त नहीं कर सके। वर्धमान महावीर का जन्म लिपि के अनुसंधान हो जाने के बाद हुआ अतः उनके समय जैन साहित्य तत्कानील प्राकृत भाषा में लिखा गया । उनका जन्म पूर्वी भारत के वैशाली नामक स्थान हुआ था और उन्होंने मगध तथा राढ़ में अपनी शिक्षाओं का प्रचार प्रसार किया था । अतः स्पष्ट है कि उन्होंने जो भी कहा या लिखा था वह तत्समय की प्रचलित प्राकृत भाषा में ही पाया जा सकता है। मुख्य प्राकृत भाषाएं सात प्रकार की हैं और जैन साहित्य की भाषा उनमें से एक है जिसे मागधी प्राकृत कहते हैं। ऋग्वेद और यजुर्वेद  के कार्यकाल में लिपि का अनुसंधान नहीं हुआ था इसलिए उन्हें लिखा नहीं जा सका, लिपि का अनुसंधान अथर्ववेद अर्थात् वेदों के अंतिम भाग के समय हो चुका था परन्तु चॅूंकि ऋक और यजुः को लिखा नहीं गथा इसलिये लोगों ने सोचा कि शायद अथर्ववेद को भी नहीं लिखा जाना चाहिए और वह भाग भी अलिखित रह गया। अथर्ववेद के प्रवर्तक ( उस समय  कहलाते थे ‘आदर्शपुरुष’ ) ब्रह्मर्षि अथर्वा थे ।वह मध्य एशिया के थे और यह कहना आवश्यक नहीं है कि वह भारत के ही मूल निवासी थे। और, यह भी कि अथर्ववेद के अंतिम भाग के प्रवर्तक विशेषतः महर्षि वैदर्भि भारत के ही मूल निवासी थे क्योंकि विदर्भ,  भारत के पश्चिम मध्य भाग की आबादी का नाम था।
कृष्णद्वैपायन व्यास को वेदव्यास के नाम से जाना जाता है क्योंकि उन्होंने वेदों को तीन मुख्य भागों ऋक, यजुः और अथर्व , में बाॅंटा था। इस शब्द ‘व्यास’ के संबंध में मतभिन्नता पाई जाती है। अनेक एतिहासिक व्यक्तियों के व्यास नाम पाए जाते हैं परन्तु सावधानी से विचार करने पर ज्ञात होता है कि  व्यास कोई नाम नहीं है वह वंशानुगत शीर्षक है। वादरायण व्यास, संजय व्यास, विवस्वत व्यास आदि के उपनाम व्यास थे न कि नाम। व्यास, जिन्होंने वेदों के तीन भाग किए उनका नाम था कृष्णद्वैपायन जो कि एक ‘कैवर्त’ परिवार (मत्स्य परिवार) में गंगा और यमुना के बीच प्रयाग के पास काली मिट्टी के द्वीप (कृष्ण द्वीप) पर उत्पन्न हुए थे जिस कारण उनका नाम कृष्णद्वैपायन पड़ा। इन्होंने ही महाभारत ग्रंथ की रचना की जो वेदों के बहुत बहुत बाद में अस्तित्व में आया  पर फिर भी निःसंदेह तीन हजार वर्ष से अधिक पुराना  है। यद्यपि ऋग्वेद में मुख्यतः स्तोत्र हैं परन्तु उसमें कहानियाॅं और दृष्टान्त भी हैं। भले ही ये सभी कहानियाॅं एक से आध्यात्मिक महत्व की न हों पर वे सभी प्राचीन समय के लोगों की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती हैं। उनसे पता चलता है कि समाज की संरचना और विचारधारा का क्रमशः किस प्रकार विकास हुआ। इस दृष्टिकोण से ऋग्वेद की भाषा, साहित्य और अभिव्यक्तिकरण संसार के लिए विशेष महत्व रखता है। यह सत्य है कि उस समय लिपि नहीं थी परन्तु ध्वनिविज्ञान, ध्वनि की अभिव्यक्ति , उनकी क्रमबद्धता और व्यवस्थापन आदि उस समय अस्तित्व में थे। विभिन्न अक्षरों की अनेक प्रकार की ऋग्वैदिक उच्चारण करने की विधियाॅं उस समय प्रचलन में थीं जो समय समय पर अपने गुरुओं से उनके शिष्यगण मौखिक सुन कर याद रखा करते थे। ऋग्वेद में ‘ऋक’ और ‘सूक्त’ के नामकरण का विशेष नियम था। ऋक का नाम, सामान्यतः परमसत्ता के नाम पर सम्बोधन के अनुसार दिया जाता था और जहाॅं परमसत्ता को नाम से सम्बोधित नहीं किया जाता था वहाॅं सूक्त; या कहीं कहीं ऋक भी, पहले शब्द के नाम पर दिया जाता था। अन्य विशेषता यह कि अधिकाॅंतः ऋक को निश्चित छंदों में रचा गया है।

मुख्यतः सात प्रकार के छंद पाए जाते हैं, गायत्री, उष्णिक, त्रिष्टुप, अनुष्टुप, ब्रहती, जगती, और पॅंक्ति। इसके अलावा वैदिक भाषा में कोई सर्वस्वीकृत व्याकरण नहीं थी अतः छंदों  और प्रचलित अलिखिम व्याकरण के बीच भिन्नताओं को इस नियम के अनुसार समाधान किया जाता था कि व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार छंद को काट छाॅंट कर घटा बढ़ाकर ध्वनि को व्यवस्थित कर सकता था जिससे वह छंद यथावत बना रहे। एक उदाहरण स्वीकृत ऋक 310/62 का है, जिसे सामान्यतः गायत्री मंत्र कहा जाता है, जो यथार्थतः सावित्र ऋक है। गायत्री एक विशेष छंद का नाम है, मंत्र का अर्थात् ऋक का नहीं। इस गायत्री में परमपुरुष को ‘‘सविता’’ के नाम से संबोधित किया गया है। इस शब्द की व्युत्पत्ति है , सु + त्रन् या त्रक  इसलिए इसे ‘‘सावित्र ऋक’’ कहा गया है। ऋग्वेद के प्रथम मंडल के एक सूक्त में कहा गया है कि
नासदासीन्नो सदासीतदानीम, नासीद्राजो न व्योमा परो यत।
इसका प्रारंभ शब्द ‘नासद’ से किया गया है इसलिए इसका नाम हुआ ‘नासदीय सूक्त’ । पूर्वोक्त ‘सावित्र ऋक’ गायत्री छंद में रचा गया है जिसमें आठ शब्दाॅंश होते हैं। इसकी तीन लाइनें  हैं इसलिए कुल चौबीस शब्दाॅंश हैं। ऋक इस प्रकार है,
तत्सवितुर्वरेण्यम
भर्गो देवस्य धीमही
धियो यो नः प्रचोदयात्।
‘‘अर्थात्, परम पिता, जिसने सृष्टि को सात स्तरों ( लोकों  ) में निर्मित किया है, उसके दिव्य तेज का हम ध्यान करते हैं जिससे वह हमारी बुद्धि को आनन्दित पथ की ओर जाने में मार्गदर्शन करे।’’

अब यदि हम इस ऋक का विश्लेषण करें तो दूसरी लाइन में आठ शब्दाॅंश- भर, गो, दे, व, स्य, धी, म और ही ; तथा तीसरी लाइन में भी आठ शब्दाॅंश - धि, यो, यो, नः, प्र, चो, द और यात् पाए जाते हैं। परन्तु पहली लाइन में केवल सात शब्दाॅंश - तत् स, वि, तुर, व, रे, और न्यं पाए जाते हैं अर्थात् इस लाइन में एक शब्दाॅंश की कमी है अतः इसे उच्चारित करने के समय आज अथवा तत्समय भी तत्कालीन प्रचलित अलिखित व्याकरण नियमों का उल्लंघन होता है। इसलिए इसे इस प्रकार उच्चारित किया जाता है कि आठ शब्दाॅंश हो जाएं, जैसे, तत् स, वि, तुर, व, रे, नि, अम् ।
मंत्र के प्रारंभ में ‘‘ओम् भूर्भुवः स्वः ओम् ’’ जोड़ दिया जाता है और अन्त में ओम् जोड़ा जाता है। यह मूलतः ऋग्वेद में नहीं है, ये अथर्ववेद में है। यह मंत्र परमब्रह्म के सप्त लोकों की सृष्टि का सामूहिक अभिव्यक्तिकरण है- भूर्भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, और सत्य। परन्तु जहाॅं स्थूल , सूक्ष्म और कारण नामक लोकों को संक्षिप्त रूप में प्रयुक्त किया जाता है वहाॅं केवल ‘‘भूभुर्वः.स्वः’’ इन तीन नामों का ही उच्चारण किया जाता है जिनके लिए ‘‘महाव्याहृति’ (अर्थात् परमोच्चारण) शब्द का उपयोग किया जाता था। ये मूलतः ऋग्वैदिक ‘सावित्र ऋक’ के भाग नहीं हैं। सावित्र ऋक के उच्चारण का अभ्यास करने के लिए
‘‘ ओम भूभुर्वः स्वः
ओम् तत्सवितुर्वरेण्यं
भर्गो  देवस्य धीमही
धियो यो नः प्रचोदयात् ओम्’’
 इस प्रकार महाव्याहृति को जोड़कर ‘‘सावित्र ऋक ’’ का अर्थ प्रबल किया जाता है। इसे जोड़ने का कारण यह है-  महाव्याहृति के जोड़ने पर मंत्र का अर्थ स्पष्ट हो जाता है जैसे, ‘‘इन, भूः भुवः स्वः अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म और कारण लोकों में हम सविता (अर्थात् परमपिता) के प्रखर तेज का ध्यान कर रहे हैं जिससे वह हमारी ‘धी’ अर्थात् बुद्धि को सच्चाई के रास्ते पर चलाए रखने  में मार्गदर्शन करें ।’’ परमपुरुष से इस मंत्र के द्वारा आध्यात्मिक दिशा पाने के लिए प्रेरणा पाने का प्रयत्न करना ‘‘वैदिक दीक्षा’’ कहलाता है। बाद में जब व्यक्ति आध्यात्मिक रास्ते पर चलने के लिए तत्संबंधी उचित निर्देश पा जाता है तो इसे ‘‘तान्त्रिकी दीक्षा’’ कहते हैं।

ऋग्वेद को प्राचीन काल में प्रमुख वेद माना जाता था केवल इसलिए नहीं कि वह सबसे पुराना था वरन् इसलिए कि वैदिक दीक्षा ऋग्वेद के सावित्र ऋक पर न्यूनाधिक रूप से आधारित थी यद्यपि आध्यात्मिक साधक के लिए भौतिक संसार और आध्यात्मिक संसार में संतुलन बनाए रखकर आगे बढ़ने के क्षेत्र में सहायक होने के दृष्टिकोण से यजुर्वेद, ऋग्वेद का अतिक्रमण कर जाता है। यजुर्वेद में शब्दों का उच्चारण और ध्वनि विज्ञान, ऋग्वेद से बिलकुल भिन्न है। यजुर्वेद, तन्त्र के अधिक निकट है और अथर्व भी लगभग हर पद पर तन्त्र से मिश्रित पाया जाता है। एक समय तो ऐसा था जब रूढ़ीवादी पंडितों ने अथर्ववेद के अनुयायियों को सामाजिक रूप से वहिष्कृत कर दिया था और वे कहते थे कि
‘‘ अथर्वान्नाम मा भुन्जीथाः’’
अर्थात् अथर्ववेद के अनुयायियों का भोजन स्वीकार नहीं करना चाहिए ! ! !

Saturday 4 August 2018

206 साधना के समय मन क्यों भटकता है?

साधना के समय मन क्यों भटकता है?

अनेक लोग मन की चतुर्थ अवस्था अर्थात् एकाग्रता से परिचित हैं। इस उन्नत अवस्था में मानव मन कभी कभी दिव्यता की मधुरता अनुभव करता है और कभी कभी इस स्तर तक गिर जाता है कि सब कुछ भूलकर वह नारकीय प्राणी की तरह राक्षसीय व्यवहार करने लगता है। कभी कभी सत्संगति में आकर सोचता है कभी असत्य नहीं बोलूॅंगा पर अगले ही क्षण वह रिश्वत लेता है, मादक द्रव्य पीता है, चरित्रहीन हो जाता है और सोचता है कि ईमानदारी और सद् गुण  मूर्खतापूर्ण हैं, जो मैं कर रहा हॅूं वही सही है। इस प्रकार मन अच्छे और बुरे के बीच गेंद की तरह उछलने लगता है। परन्तु जब वह योग साधना का अभ्यास करने लगता है और उत्साहित होकर ‘श्रेय’ को अपना आदर्श बना लेता है तब उसका मन सत्य की एकाग्रभूमि में स्थापित हो जाता है। इस स्थिति में चित्त से अनेक प्रकार की तरंगे निकलने लगती हैं।

‘‘ शान्तादितौ तुल्यप्रत्यायो चित्तस्यैकाग्रतापरिणाम।  ’’

साधना करने के प्रारंभ में साधक का मन एकाग्र नहीं रह पाता, अपने इष्ट मंत्र के थोड़े से दुहराने के बाद ही मन में हजारों अवाॅंछित विचार आ धमकते हैं। उसे लगता है मैं साधना कर ही नहीं सकॅूंगा वरन् उन विचारों से परेशान होता रहॅूंगा जो मैं नहीं चाहता। हाथ माला फेरते हैं, ओंठ मंत्र जाप करते हैं पर मन नरक की गंदगी की ओर भागता है। जब मन में उठने वाले इस प्रकार के अवांछित विचार हटा दिये जाते हैं तभी एक आनन्ददायी तरंग उत्सर्जित होती है और मन एकाग्रभूमि की अवस्था पा लेता है। साधना करते समय यदि मन एकाग्र नहीं रहता है तो उसका कारण है कि इष्ट मंत्र का उचित प्रकार से जाप नहीं किया जा रहा है। ईमानदारी से नियमित अभ्यास के द्वारा यह जापक्रिया सही सही बनाई जा सकती है।

Friday 3 August 2018

205 ऋक

ऋक

ऋक+ क्विप= ऋक । वैदिक क्रिया "ऋक" का अर्थ है ‘ महिमामंडन करना ’ (गीत से या सामान्य भाषा में) ‘‘ऋक’’ का संस्कृत में अर्थ है ‘स्तवन’ करना। प्राचीन समय में साधु लोग प्रकृति के विभिन्न रूपों को किसी न किसी देवता का खेल मानते थे अतः उन्होंने उनके लिए स्तवन या भजन करना प्रारंभ किया। जब उन्होंने उषा, इन्द्र,पर्जन्य,मातरिष्वा, वरुण आदि के भजन गाए तब उन्हें ‘साम’ कहा गया। उस समय तक लिपि का अनुसंधान नहीं हुआ था इसलिए शिष्य अपने गुरु से मौखिक शिक्षा को ग्रहण किया करते थे। ये सत्य के वचन थे, ज्ञान के वचन थे अतः उन्हें जानकर तत्कालीन असंस्कृत लोग संस्कृति के प्रकाश की ओर बढ़ने लगे इसलिए उन्हें ‘वेद’ या ‘ज्ञान’ कहा गया।

वैदिक क्रिया ‘विद’ का अर्थ है ‘‘जानना’’ इस में ‘अल’ प्रत्यय जोड़ने से ‘वेद’ शब्द बनता है जिसका अर्थ है ‘‘ज्ञान’’। शब्द ‘वेद’ का लिखित रूप देखकर कुछ स्वरविज्ञानियों का विचार है कि इसे ‘घञ’ प्रत्यय लगाकर बनाया गया है; तो भी, यही सही है कि उसे ‘अल’ प्रत्यय लगाकर बनाया गया है और वह पुल्लिंग है। चूँकि लिपि के अभाव में उसे गुरु से मौखिक सुनकर याद रखा जाता था इसलिए उसका दूसरा नाम ‘श्रुति’ है। श्रु+ क्तिन =श्रुति। क्रिया ‘श्रु’ का अर्थ है, सुनना। इसलिए श्रुति का एक अर्थ है ‘कान’  और इसीलिए कहा गया है कि जो कान से सुनकर याद रखा गया है वह है ‘वेद’ । वेदों के सबसे पुराने भाग के प्रत्येक श्लोक को ‘ऋक’ कहा गया है, जब अनेक श्लोकों को एक साथ रखकर किसी विचार को प्रदर्शित किया जाता है तो उसे कहा गया है ‘सूक्त’  और अनेक सूक्तों को संग्रहित कर बनाया गया है ‘मंडल’ ।

Saturday 28 July 2018

204 मगध की स्वतंत्र विचारधारा

मगध  की स्वतंत्र विचारधारा : ऐतिहासिक तथ्य

वैशाली के सम्पन्न वैश्य घराने में सिद्धार्थ और त्रिशला के घर लगभग 2500 वर्ष पूर्व वर्धमान महावीर का जन्म हुआ था। गौतम बुद्ध की तरह उन्होंने भी अपनी शिक्षाओं को पहले अपनी जन्मभूमि में प्रचारित नहीं किया वरन् वह भी इस कार्य को करने के लिए मगध की भूमि पर आए।
इस कार्य के लिए उन दोनों ने मगध को ही क्यों क्यों चुना इसका कारण जानने के लिए कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में मगध के हाथ पैर वैदिक धर्म से नहीं बंधे थे और वहाॅं के लोग जीवन के संबंध में अपनी स्वतंत्र सोच रखते थे इसलिए दोनों ने उसी भूमि को अपनी अपनी विचारधारा समझाने के लिए चुना। अपनी धार्मिक शिक्षाओं  को समझाने में बुद्ध सफल हुए क्योंकि वे  अंधविश्वास की अपेक्षा तर्क पर अधिक आधारित थीं। यह बात भी सही है कि वर्धमान महावीर की शिक्षाओं में भी रूढ़ीवादिता के विरुद्ध संघर्ष का संदेश था परन्तु मगध के लोगों के विचार में उनका अहिंसा का सिद्धान्त व्यावहारिकता से परे होने के कारण उन्होंने उसे सरलता से स्वीकार नहीं किया। यह भी सही है कि कुछ लोगों ने उन्हें स्वीकार तो किया पर उन्हें  अवास्तविक सैद्धान्तिक व्यक्ति मान कर गुप्त शक्तियों के प्रयोग से  धरती पर ला दिया । यही कारण है कि उन्हें अपने नये धर्म को प्रचारित करने के लिए अन्य स्थान को खोजना पड़ा।

उस समय राढ़ की राजधानी आस्तिकनगर (अत्थिनगर) अपनी शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में उन्नत विचारों के लिए प्रसिद्ध था। वर्धमान महावीर वहाॅं गए और लगभग आठ वर्ष तक रहे। वहाॅं उन्होंने अपने अहिंसा के सिद्धान्त को कुछ कुछ वास्तविकता के धरातल पर लागू करने की व्यवस्था बनायी । वहाॅं के कुछ प्रसिद्ध व्यापारियों ने उनके अहिंसा के सिद्धान्त को स्वीकार किया और उनके नाम पर उस स्थान का नाम वर्धमान (बरद्वान) कर दिया। इसलिए कहा जाता है कि जैन धर्म सबसे पहले राढ़ में स्थापित हुआ। बरद्वान से लौट कर वह फिर से मगध की ओर आए और मयूराक्षी नदी के किनारे स्वामिस्थान ( संचित्थान> संचित्थींचा> संथिया) नामक छोटे से गाॅंव में अपनी शिक्षाओं का प्रचार करने के लिए थोड़े से समय तक रुके। उस समय तक वह वयोवृद्ध हो चुके थे जबकि गौतम बुद्ध युवा थे। वर्धमान महावीर ने अपनी अंतिम साॅंस राढ़ की भूमि, पावपुरी में ली।

उत्तर भारत के अनेक लोगों ने मगध की इस स्वतंत्र मानसिकता को पसन्द नहीं किया और उन्होंने मगध को अन्य लोगों की दृष्टि में नीचा दिखाने के अनेक प्रयत्न किए पर मगध उनसे हतोत्साहित नहीं हुआ पर  संस्कृत के विघटन स्वरूप इन  सात प्रकार की प्राकृत भाषाओं का उदय हुआ :-

1 महाराष्ट्री प्राकृत जो कि कोकणी, मराठी, वैदर्भी या वाराही की पूर्वज थी।
2 मालवी प्राकृत जो गुजराती सौराष्ट्री, कच्छी मालवी, मेवाड़ी, हड़ौती और मारवाड़ी की पूर्वज थी।
3 सैंधवी या सौबीरी प्राकृत जिससे सिंध और मुल्तानी भाषा का जन्म हुआ।
4 पाश्चात्य प्राकृत जो पश्तु , काश्मीरी, उज्बेकी, ताजाकी की पूर्वज थी।
5 पैशाची प्राकृत जो कि डोगरी, पहाड़ी और पंजाबी की पूर्वज थी।
6 शौरसेनी प्राकृत जो हिन्दी, अवधी, बुंदेली , बघेली और बृज भाषा की पूर्वज थी।
7 मागधी प्राकृत जो कि मगही, बंगाली, उड़िया, अंगिका, आसामी , नागपुरी, मैथिली, छत्तीसगढ़ी और भोजपुरी की पूर्वज थी।

मगधी प्राकृत की दो शाखायें थीं पूर्वी अर्धमागधी और पश्चिमी अर्धमागधी। पश्चिमी अर्धमागधी ने बाद में मागधी भाषा को जन्म दिया। किसी समय मागधी प्राकृत केवल पूर्वी भारत में ही नहीं बोली जाती थी वरन् मध्यभारत और अन्य शिक्षित समाज में विचारों के आदान प्रदान में भी प्रयुक्त की जाती थी। मागधी प्राकृत सीखने के लिए शिक्षित लोगों में वैसा ही उत्साह देखा जाता था जैसा संस्कृत सीखने में। मागधी प्राकृत भाषा की संरचना सीधी और सरल है। व्याकरण भी कठिन नहीं है। बुद्ध और महावीर दोनों ने ही उस समय मागधी प्राकृत में अपनी शिक्षाएं दी हैं जिसे आजकल पाली भाषा कहा जाता है। पाली और पाश्चात्य मागधी प्राकृत में बहुत साहित्य लिखा गया है। मगध की अपनी लिपि भी थी। बोध गया में आज भी उस प्राचीन मागधी लिपि में शिलालेख देखे जा सकते हैं। वह श्रीहर्ष लिपि की छोटी बहिन है और आधुनिक मैंथिली या त्रिहुति और बंगाली लिपि से निकटता से जुड़ी हुई है।

Wednesday 25 July 2018

203 दस प्राण और मृत्यु

203 दस प्राण और मृत्यु
हम नाक से जिस वायु को श्वास के रूप में ग्रहण करते हैं उसमें से शरीर को संचालित करने के लिए आवश्यक भाग जिसे ‘आक्सीजन’ या प्राण वायु कहा जाता है, शरीर के विभिन्न भागों में अपने अपने क्षेत्रों में सक्रिय होकर प्राणों (vital forces) का संचार करती है। शरीर के विभिन्न भागों में कार्य के आधार पर योग विज्ञान में इनके दस प्रकार माने गये हैं। पाॅंच आन्तरिक और पाॅंच वाह्य । इन पाॅंचों भीतरी और पाॅंचों बाहरी वायुओं का सम्मिलित नाम ‘‘प्राणाः’’ है और वह पद्धति जिससे हम इन्हें नियंत्रण में लाने का प्रयत्न करते हैं उसे प्राणायाम कहते हैं । योगविज्ञान के अनुसार ‘‘ प्राणान यमयतये सा प्राणायामः अर्थात् प्राणों को उचित आयाम देने की विधि प्राणायाम कहलाती है।’’ इसके अलावा यह भी कहा गया है कि ‘‘ तस्मिन सति स्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः।’’ इसका अर्थ भी अन्ततः यही होता है कि वह विशेष प्रयास जिसमें श्वास प्रश्वास का सामान्य प्रवाह परिवर्तित कर अस्थायी रूप से विशेष विधि के द्वारा श्वसन को रोक दिया जाता है प्रणायाम कहलाता है। विशेष विधि में व्यक्ति का बीज मंत्र और मन को केन्द्रित बनाए रखने का स्थान महत्वपूर्ण होता है अन्यथा केवल श्वास को एक ओर से लेने और दूसरी ओर से छोड़ने की क्रिया को प्राणायाम नहीं कहा जा सकता। यह श्वसन क्रिया तो सभी लोग स्वाभाविक रूप से हर समय करते हैं जो नियमित अन्तराल पर अपने आप दायें और वायें नासिका छिद्र में बदलती रहती है।
पाॅंच आन्तरिक प्राण हैंः-
1. प्राण, जो नाभि से कंठ के बीच श्वास प्रश्वास के द्वारा ऊर्जा के प्रसार का कार्य करता है।
2. अपान, जो नाभि से गुदा के बीच मल और मूत्र की गतिशीलता को नियंत्रित करता है ।
3. समान, जो नाभि के चारों ओर गोलीय क्षेत्र में रहकर प्राण और अपान के बीच संतुलन बनाता है।
4. उदान, जो गले में रहता हुआ वाक् नलिका और वाणी पर नियंत्रण रखता है।
5. व्यान, जो पूरे शरीर में खून का संचार करने और अफेरेन्ट और इफेरेन्ट नाड़ियों की भौतिक क्रियाओं में सहयोग करता है।
और पाॅंच वाह्य प्राण हैंः-
1. नाग, जो संधियों में रहता है और कूदते समय, या शरीर को फैलाने या वस्तुओं के फेकते समय अपना कार्य करता है।
2. कूर्म, जो शरीर की विभिन्न ग्रंथियों में रहकर को उसे कछुए की तरह संकुचन करने में सहायक होता है।
(यहाॅं यह ध्यान रखने योग्य है कि कूर्मभाव और कूर्मनाड़ी एक ही नहीं हैं। कूर्मनाड़ी कंठ में स्थित वह विन्दु है जिसका निम्नतम भाग विशुद्ध चक्र की परिधि पर पड़ता है। यदि मन और कूर्मनाड़ी में भारसाम्य स्थापित कर लिया जाय तो शरीर अस्थायी रूप से स्पन्दन रहित हो जाएगा। योगियों के अनुसार बैलों में कूर्मनाड़ी के साथ मन का भारसाम्य स्थापित करने की क्षमता होती है जिससे वे लम्बे समय तक बिना हिलेडुले रह सकते हैं जैसे कि कोई पत्थर की मूर्ति हो।)
3. क्रकर, यह पूरे शरीर में फैला रहता है और वायुदाब के बढ़ाने या घटाने में प्रयुक्त होता है अतः जॅंभाई लेते समय सक्रिय रहता है। साधारणतः जॅंभाई सोने से पहले और अंगड़ाई सोने से जागने के बाद आती है।
4. देवदत्त, जो भूख और प्यास लगने पर क्रियाशील होता है और पेट के भीतर भोजन तथा पानी के दाब को नियंत्रित करता है। 
5. धनन्जय, जो भौतिक और मानसिक श्रम करने के बाद तन्द्रा और निद्रा के लिए उत्तरदायी होता है ।

अतः प्राणयाम की विधि वह है जो हमारे दसों प्राणों को उनकी कार्य सीमा में अधिकतम कार्य करने की क्षमता प्रदान करती है। यदि आप हर प्रकार के ज्ञान को आत्मसात कर पाने की  शक्ति को बढ़ाना चाहते हैं, तो सभी प्राणों को अधिकतम विस्थापन अर्थात् आयाम (amplitude) देने की यह वैज्ञानिक विधि सीखना चाहिये जिससे मन को एक विंदु पर केन्द्रित करना सरल हो जाता है।

सात्विक आहार और दोनों समय नियमित रूप से निर्धारित संख्या में अपने बीज मंत्र के अध्यारोपण के साथ प्राणायाम करने वाले व्यक्ति सदैव निरोग और स्वस्थ रहते हैं तथा जितने संस्कारों को भोगने के लिए यह शरीर मिला होता है उन्हें भोग लेने के बाद बिना किसी कष्ट के उसे छोड़ देते हैं, इसे मृत्यु कहा जाता है। 
वृद्धावस्था के कारण या बीमारी से या अनपेक्षित दुर्घटना से ‘प्राण’ वायु का आवास क्षेत्र विघटित हो जाता है जिससे वह अपना प्राकृतिक प्रवाह और क्षमता को और अधिक बनाये नहीं रख पाता । इस अप्राकृतिक परिस्थिति में वह ‘समान’ वायु को आघात पहुँचाता है जिससे वह अपना संतुलन खो देता है। इससे नाभि के पास रहने वाला ‘समान’ और ऊपरी भाग में रहने वाला ‘प्राण’ अपना अपना क्षेत्र छोड़कर आपस में एक दूसरे में मिल जाते हैं और दोनों  मिलकर ‘अपान’ वायु पर अपना दाब डालते हैं जिससे ‘उदान’ और ‘व्यान’ वायु भी अपना स्वाभाविक कार्य करना बंद कर देता है। इस अवस्था को ‘‘नाभिश्वास’’ कहते हैं। ‘उदान’ वायु के निष्क्रिय होते ही गले से आवाज निकलने लगती है जो आसन्न मृत्यु का संकेत देती है।

जब पाॅंचों आन्तरिक प्राण एकसाथ मिलकर शरीर को छोड़ देते हैं तब वे वायुघटक अथवा महाप्राण में मिल जाते हैं। इनके निकलने के बाद, बाहरी पाॅंच प्राणों में में से चार , नाग, देवदत्त, कूर्म और क्रकर भी प्राण वायु के साथ जा मिलते हैं केवल धनंजय वायु शरीर में बचा रहता है। धनंजय का कार्य निद्रा और तंद्रा लाना है अतः शरीर को स्थायी विश्राम देने के लिये यह अन्त तक रहता है जब तक कि शरीर को जला न दिया जाय या कब्र में पूर्णतः विघटित न हो जाय। इसे बाद वह भी पंचमहाभूतों में प्रवेशकर वायु घटक में मिल जाता है।
कभी कभी अचानक दुर्घटना से, घातक बीमारी से जैसे कोलेरा, पाक्स, साॅप के काटने या जहर से या फाॅंसी पर लटकने से, शरीर इतना विचलित हो जाता है कि उसके प्राण लकवाग्रस्त हो जाते हैं। यह दुर्घटनावश अचानक मृत्यु मानी जाती है पर शरीर के विच्छेदन न होने से नाभिश्वास का अवसर नहीं आता या बहुत कम आता है, अतः इस अवस्था में प्राणों के लकवाग्रस्त होने से तत्काल मृत्यु नहीं होती वरन् कुछ देर बाद होती है। इस अवस्था में यदि कृत्रिम  विधियों द्वारा श्वसन क्रिया फिर से स्थापित की जा सके तो प्राण ऊर्जा फिर सेे सक्रिय हो सकती है। जब तक प्राण ऊर्जा लकवाग्रस्त रहती है शरीर में विघटन होने के लक्षण दिखाई नहीं देते। पुराने समय में इनमें से किसी कारण से होने वाली मौत में शरीर को जलाने या दफनाने के बदले उसे लकड़ी के बेडे़ पर नदी के पानी में तैरा दिया जाता था अतः स्वच्छ , ठंडे और खुले वातावरण के प्रभाव में कभी कभी प्राण फिर से सक्रिय हो जाया करता था। अतः इन परिस्थितियों में हुई मौत के मामलों को जब तक सक्षम डाक्टर से परीक्षण न करा लिया जाय तब तक जलाना या दफनाना नहीं चाहिए।