Saturday 27 October 2018

220 मित्र और शत्रु

220 मित्र और शत्रु
सामाजिक जीवन में हमें ‘मित्र’ और ‘शत्रु’ इन दो शब्दों से प्रायः सामना करना होता है। मित्र होने से लाभ और शत्रु होने से हानि का विचार अपने आप आ जाता है। यह भी देखा जाता है कि किसी समय के अभिन्न मित्र अचानक जानी दुश्मन हो जाते हैं। एक बार किसी से शत्रुता हो गई तो फिर जीवन में पहले जैसी मित्रता हो पाना असंभव ही होता है । कभी कभी छोटी छोटी सी बातों के कारण पीढ़ियों से स्थापित संबंध समाप्त होकर शत्रुता में बदल जाते हैं जिसके पीछे ‘ स्वार्थ ’ या ‘अहंकार’ एक कारण पाया जाता है। चाणक्य नीति में कहा गया है कि मित्र नहीं बनाना चाहिए परन्तु यदि बनाना ही पड़े तो कुमित्र को कभी भी मित्र नहीं बनाना चाहिए ( वरं न मित्रम् न कुमित्र मित्रम् ) । परन्तु शास्त्रों का मत इस विषय में कुछ दूसरा ही है, वे कहते हैं: न कोई किसी का मित्र होता है और न ही शत्रु, वह तो अपना अपना व्यवहार ही होता है जो शत्रु या मित्र बनाता है। जैसे,
‘‘न कश्य कश्यचित मित्रम् न कश्य कश्यचित रिपुम् , व्यवहारेण जायन्ति मित्राणि रिपवस्तथा।’’
श्रीमद्भग्वदगीता में यही भावधारा कुछ इस प्रकार प्रस्स्तुत की गई हैः अपने आप का उत्थान करना चाहिए पतन नहीं क्योंकि अपना आप ही अपना मित्र और अपना आप ही अपना शत्रु होता है।

‘‘उद्धरेदात्मानम् न आत्मानम् वसादयेत्, आत्मैः आत्मनो बन्धु आत्मैव रिपुरात्मना।’’
इससे यही स्पष्ट होता है कि कुशलता पूर्वक अपने व्यवहार को इस प्रकार बनाना चाहिए कि आत्मोत्थान में किसी प्रकार की बाधा न आ सके । कुछ मनोवैज्ञानिक दार्शनिकों ने बन्धु, सुहृद, मित्र और सखा की व्याख्या इस प्रकार की हैः
‘‘अत्यागसहनो बन्धुः सदैवानुमतः सुहृद, एकक्रियम् भवेन्मित्रं समप्राण सखा स्मृतः।’’
अर्थात् इस धरती पर जिसे छोड़कर जीवित नहीं रहा जा सकता अर्थात् प्रेमबन्धन इतना अधिक है कि तोड़ा नहीं जा सकता वह है बन्धु। जिनके बीच कभी भी कोई मतभेद न हो वह है सुहृद। जिनका काम धंधा एकसा हो वह कहलाता है मित्र, जैसे दो बकील, दो डाक्टर आदि। जहाॅं प्रेम इतना अधिक होता है कि सभी अनुभव करते हैं कि दोनों में एक ही प्राण हैं वे कहलाते हैं सखा। कृष्ण के सखा अर्जुन और अर्जुन के सखा कृष्ण थे।

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