219 विजयोत्सव
जय का अर्थ है भौतिक या मानसिक स्तर पर अस्थायी सफलता पाना।
जैसे, (1) कुश्ती में, चुनाव में या किसी भी प्रतियोगिता में आपने अपने प्रतिद्वन्द्वी को पराजित कर दिया, यह हुई अस्थायी सफलता क्योंकि वह प्रतिद्वन्द्वी भविष्य में कुछ और अभ्यास कर स्वयं सफल हो सकता है और आप असफल।
अथवा, (2) मानसिक स्तर पर यदि आपने अभ्यास कर क्रोधवृत्ति पर नियंत्रण पा लिया परन्तु किसी अन्य परिस्थिति में वह क्रोध फिर से मन में आ सकता है; इसलिए जीवन में शत्रुओं अर्थात् विरोधी बलों पर इस प्रकार की अस्थायी सफलता को संस्कृत में ‘‘जय’’ कहा जाता है।
विजय का संस्कृत में अर्थ है विरोधी बलों अर्थात् शत्रुओं पर स्थायी सफलता पाना; शत्रु को पूर्णतः नष्ट कर देना ताकि वह फिर से आक्रमण न कर सके। परन्तु यह तो सर्वसाधारण की बात हुई। आध्यात्मिक साधना करने वालों का चाहे व्यक्तिगत जीवन हो, सामूहिक जीवन हो, सामाजिक जीवन हो या आध्यात्मिक जीवन सभी स्तरों पर उनका युद्ध तो विद्या और अविद्या के साथ होता है । उसे सामाजिक बुराइयों के साथ साथ अपने जन्मजात छः शत्रुाओं (काम, क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य और मोह) और आठ प्रकार के बंधनों (घृणा, लज्जा, भय, शंका, कुल, यश, शील और दम्भ ) से भी संघर्ष कर उन्हें समूल नष्ट करना होता है। इसलिए जिस क्षण अविद्या की स्थायी पराजय हो जाती है तब साधक को ‘‘विजयी’’ कहा जाता है और वह अवस्था कहलाती है मोक्ष।
‘विजयादशमी’ का अर्थ है वह तिथि जब धर्म की अधर्म पर स्थायी जीत, ज्ञान की अज्ञान पर स्थायी जीत, सात्विक वृत्तियों की असात्विक वृत्तियों पर स्थायी जीत, नीति की अनीति पर स्थायी जीत अर्थात् ‘‘विजय’’ हुई है।
‘उत्सव’ का अर्थ है जीवन में नई चेतना की प्रेरणा देना। उत्+अल्+सव =उत्सव। उत्=ऊपर की ओर। सु= पुनः जन्म लेना। सु+अल्=सव अर्थात् नया जोश या स्फूर्ति भरना, इसीलिए आसव= नयी ऊर्जा देने वाला पदार्थ, प्रसव=जन्म देना। अतः स्पष्ट है कि उत्सव वह है जो जीवन में नया जोश भर कर उन्नत होने की प्रेरणा देता है। अतः विजयादशमी या दशहरा वास्तव में ‘विजयोत्सव’ है जो अधर्म पर धर्म की विजय का सूचक है, इससे स्फूर्ति पाकर हमें अज्ञान, असमानता, अन्याय और शोषण के विरुद्ध संघर्ष कर आत्मोन्नति करते हुए विजय प्राप्त करने का व्रत लेना चाहिए।
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