216 भक्ति की पराकाष्ठा ‘‘राधा’’
श्रीमद्भगवद्गीता में सकाम और निष्काम भक्तों के बारे में बताया गया है कि जो ईश्वर को किसी कामना (अर्थात् धन, यश, पद और भौतिक सुविधाओं को पाने) के लिए ही पूजते हैं वे ‘सकाम’ परन्तु जो केवल प्रभु को आनन्द देना चाहते हैं बदले में कुछ नहीं चाहते वे ‘निष्काम’ भक्त कहलाते हैं और निष्काम भक्त ही भगवान को प्रिय होते हैं। कहा गया है ‘‘भक्तिः भक्तस्य जीवनम्’’ अर्थात् भक्त का पूरा जीवन भक्तिमय होता है। जब कोई व्यक्ति अपने ‘इष्ट’ को पहचान लेता है तब वह उससे प्रेम करने लगता है। यही प्रेम फिर, उसके ही अध्ययन, चिन्तन, मनन, ध्यान और निदिध्यासन में लगाए रखता है इसीलिए कहा गया है कि ‘भक्तिः प्रेम स्वरूपिणी’। भक्ति का असली स्वरूप यही है न कि चन्दन, माला और गेरुए वस्त्र पहिनकर बाहरी दिखावा करना।
अपने इष्ट का नियमित अविभक्त मन से चिन्तन करने वाला प्रगति करते हुए जब पराकाष्ठा पर पहॅुंच जाता है तब वह ‘‘राधा’’ भाव में प्रतिष्ठित हुआ कहा जाता है। इस अवस्था में वह सभी जड़ और चेतन में अपने इष्ट को ही देखता है और अपने इष्ट के लिए वह स्वयं किसी भी कष्ट को उठाने के लिए तत्पर रहता है। इस क्षेत्र के विशेषज्ञों ने ‘राधा भाव’ को अनुभव करने वालों को भी दो भागों में बाॅंटा है एक है ‘रागानुगा भक्ति’ करने वाले और दूसरे हैं ‘रागात्मिका भक्ति’ करने वाले । रागानुगा भक्तों का मानना है कि भगवान का भजन, पूजा अर्चना वे इसलिए करते हैं कि भगवान को प्रसन्नता हो, चूॅकि भगवान उनके इस कार्य से प्रसन्न होंगे इसलिए उन्हें भी प्रसन्नता मिलेगी। अर्थात् वे भगवान से प्रसन्नता चाहते हैं। परन्तु रागात्मिका भक्त कहते हैं कि वे सब कुछ केवल भगवान को प्रसन्न करने के लिए ही करते हैं भले ही स्वयं को अपार कष्ट उठाना पड़े। अर्थात् वे हर हालत में भगवान को प्रसन्न ही देखना चाहते हैं उनका दुख उन्हें सहन नहीं होता।
भारतीय दर्शन में ब्रह्मा को सृष्टि का उत्पन्नकर्ता, विष्णु को पालनकर्ता और सर्वसुखदाता तथा महेश को अपने में लयकर्ता माना गया है और यह एक ही परमसत्ता को उनके कार्य क्षे़त्र के अनुसार दिये गए नाम हैं। प्रत्येक अणु की सुधि रखने वाले सर्वव्याप्त विष्णु को प्रसन्न करने से मिले सुख में ही आनन्दित रहने वाले रागानुगा भक्त उच्च स्तर पर पहुॅंचकर कहते हैं कि ‘मैं शक्कर नहीं होना चाहता, यदि मैं शक्कर हो गया तो उसका स्वाद कौन चखेगा?’ अर्थात् वे अपने मूल उद्गम में वापस जाना ही नहीं चाहते । वे सदैव द्वैत बनाए रखना चाहते हैं; एक भगवान और दूसरा भक्त।
रागात्मिका भक्त के उदाहरण, महाभारत के इन दो सर्वविदित दृष्टान्तों से समझाये जा सकते हैं ।
(1) एक बार भगवान कृष्ण के सिर में अचानक बहुत दर्द होने लगा, अनेक उपलब्ध उपचार किए गये ,सब जगह के विशेषज्ञ राजवैद्य भी थक गए तब भक्त नारद ने उन्हीं से पूछ लिया कि वे ही इसका उपचार बताएं। भगवान बोले, कोई भक्त अपने पैरों की धूल मेरे माथे पर लगा दे तो तत्काल यह सिरदर्द देर हो जाएगा। भक्तराज नारद अचरज में पड़ गए, जहाॅं जहाॅं बड़े बड़े भक्त थे उन सबने यह कहकर मना कर दिया कि भगवान के सिर पर अपने पैरों की धूल रखकर वे रौरव नरक में नहीं जाना चाहते। अन्त में बृजगोपियों को जब पता चला तो वे व्यथित हुई कि उनके प्रभु कष्ट में हैं और नारद जी को सबने अपने अपने पैरों की धूल, पोटली में बाॅंध कर दे दी। नारद जी ने जब यह कहा कि अपने पैर की धूल भगवान के माथे पर लगाने से तुम लोग रौरव नर्क में जाओगी, तब वे बोलीं हम सौ बार रौरव नर्क में जाने को तैयार हैं यदि हमारे पैर की धूल से हमारे प्रभु का कष्ट दूर हो जाए।
(2) महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद, एकबार कृष्ण और अर्जुन सामान्य नागरिक जैसी वेशभूषा में नगर से दूर एकान्त में चले जा रहे थे तभी खेतों में एक सज्जन लॅंगोटी लगाए, कमर में तलवार लटकाए और पीठ पर बाॅंस की टोकनी बाॅंधे खेतों की फसल कटने के बाद गिरी हुई गेहूॅं की बालों को ढूॅूड़ रहे थे । अर्जुन से न रहा गया अतः उनसे पूछा, महोदय ! अन्न के थोड़े से दानों के लिए खेतों में घूमना, यह कृश काया, और फिर भी कमर में यह तलवार किसलिए? वे बोले, महोदय ! इस तलवार से मुझे तीन लोगों को मारना है, एक सुदामा, दूसरी द्रौपदी और तीसरा अर्जुन । अर्जुन ने कहा, लेकिन जहाॅं तक मुझे जानकारी है ये तीनों तो भगवान के अच्छे भक्त हैं, इन्हें क्यों मारना चाहते हो ? इन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा? वे बोले, क्या कहा अच्छे भक्त ! ! इन तीनों ने मेरे भगवान को बड़ा कष्ट पहुॅंचाया है, सुदामा ने अपने पैर धुलवाने मेरे प्रभु को नंगे पैर प्रवेश द्वार तक दौड़ाया; द्रोपदी ने तो हद ही कर दी, मेरे प्रभु भोजन करने के लिए पहला कौर भी मुॅंह तक न ले जा पाए कि उसने रो रो कर अपनी मदद के लिए पुकार लिया; और, अर्जुन ने मेरे प्रभु से रथ चलवाया, घोड़ों की लगाम थामे उनके हाथों में फफोले पड़ गए , ओह! मैं इसीलिए इन्हें लगातार ढूॅंड़ रहा हॅूं ।
इन दृष्टान्तों में जिस तथ्य को समझाने का प्रयास किया गया है वह है ‘एकीकृत भाव की प्रखरता’, जिसे दार्शनिकगण ‘‘राधा भाव’’ कहते हैं। पौराणिक कथाओं में इसी तथ्य को सुन्दर महिला आकृति में ‘राधा’ नाम देकर श्रीकृष्ण की अद्वितीय प्रेमिका के रूप में प्रस्तुत किया गया है । राधा का प्रेम रागात्मिका भक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण है जिसमें वह स्वयं आजीवन कष्ट उठाती है परन्तु अपने सुख के लिए अपने आराध्य कृष्ण को उनके समाजोत्थान और धर्म संस्थापन के लक्ष्य से हटने नहीं देती। इसलिए कहानियों के शब्दों और भाषा पर न जाकर कथ्य के भीतर छिपे रहस्य को जानने का प्रयास करने से ही आध्यात्म का रसपान किया जा सकता है । अपने इष्ट से निर्पेक्ष प्रेम और बिना शर्त पूर्ण समर्पण ही अभीष्ट की प्राप्ति कराता है; यही सभी प्रकार की आराधना का फल है। ध्यान रहे राधा का अस्तित्व कोई महिला का रूप नहीं, वह है भक्त का सर्वोच्च भक्ति भाव जिसकी आराधना करना सार्थक है । इसलिए राधा भाव से की गई आराधना ही सर्वश्रेष्ठ मानी गई है।
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