Sunday 19 November 2017

167 बाबा की क्लास (अष्टसिद्धि )

167 बाबा की क्लास (अष्टसिद्धि )

चन्दू- परन्तु अनेक विद्वान तो सिद्धियों के आठ प्रकार मानते हैं, ये मंत्र सिद्धि से भिन्न होती हैं या सभी एक ही हैं ?
बाबा- मंत्र सिद्धि के पूर्व की अवस्थाएं आठ प्रकार की सिद्धियाॅं कहलाती हैं । वास्तव में ये आध्यात्म पथ की धूल मानी जाती हैं और मंत्र सिद्धि में बाधक बनती हैं इसलिए, इनसे सावधान रहने की सलाह दी जाती है।

इन्दु- जब इन्हें सिद्धियाॅं कहा जाता है, तो ये आध्यात्म पथ में बाधा कैसे पहुंचा सकती हैं?
बाबा- इन सिद्धियों के पा जाने पर साधक का अहंकार बढ़ने की पूरी संभावना होती है जिससे वह पथभ्रमित हो जाता है । अपने को महान सिद्ध मानकर जनसामान्य से पूजित किये जाने की इच्छा से घिर जाता है और मूल लक्ष्य से भटक जाता है। इसीलिए साधना के प्रत्येक स्तर पर हर क्षण प्राप्त होने वाली ऊर्जा को परमपुरुष को ही वापस भेंट करते जाने की सलाह गुरुगण देते रहते हैं।

राजू- ये आठ सिद्धियाॅं कौन सी हैं?
बाबा- इनके नाम हैं अणिमा, महिमा, लघिमा , प्राप्ति, ईशित्व, वशित्व, प्रकाम्य और अन्तर्यामित्व। ये सभी मिलकर ऐश्वर्य कहलाती हैं । इसीलिए जिसके पास यह सभी होती हैं वह ईश्वर कहलाता है।

इन्दु- ‘‘ अणिमा’’ नामक सिद्धि किस प्रकार की होती है?
बाबा-  इसका अर्थ है अणुओं और परमाणुओं की तरह छोटे से छोटा हो जाने की क्षमता प्राप्त हो जाना। परमपुरुष को विराट कहा जाता है परन्तु वह अणिमा के कारण ही सब के मन की गहरी पर्तों में , हृदय के भीतरी क्षेत्रों में और भाभुकता के नियंत्रक बिन्दु में रहते हैं। जब हम कोई विचार मन में लाते हैं तो वे हमारे एक्टोप्लाज्मिक शरीर में सहानुभूतिक कम्पन उत्पन्न करते हैं, चूंकि वह हमारे मन में इस अणिमा द्वारा वैठे रहते हैं इसलिए प्रत्येक विचार को वे जानते हैं, वही हमारे मन के स्वामी होते हैं। उनसे कुछ भी छिपाया नहीं जा सकता। इसलिए बेकार के विचार मन में कभी नहीं लाना चाहिए । यदि कभी भूल से किसी के संबंध में अनुचित विचार आ जाय तो उसे तुरंत परमपुरुष की ओर प्रवाहित करते हुए कहना चाहिए कि ‘ हे प्रभो ! मेरे माध्यम से तुम्हारी इच्छा पूरी हो।’  साधना की प्रगति होने पर जिसके पास यह सिद्धि आ जाती है वह किसी के भी मन के विचार जान सकता है क्यों कि वह किसी के विचारों की तरंगों के साथ अपनी मानसिक तरंगों को एक समान कर  सकता है।

रवि- ‘ महिमा ’ कैसी होती  है और उसके पा जाने पर क्या होता है?
बाबा- महिमा का अर्थ है विराटता । अर्थात् मन की परिधि को बड़ा बना लेना इतना कि पूरा विश्व उसमें समा जाए। इस सिद्धि के प्राप्त हो जाने पर पुस्तकों के बिना पढ़े भी वह सब कुछ ज्ञान हो जाता है जो  उनमें लिखा हुआ है । इस प्रकार वह व्यक्ति अनेकता में एकता का अनुभव करता है। हमारा इकाई अस्तित्व उन परमपुरुष के विराट अस्तित्व में ही आश्रय पाये हुए है । यदि इकाई मन पानी की बूंद है तो उनका मन महासागर है। इसलिए हमारे मन में उत्पन्न मानसिक तरंगे और प्रत्येक आभास उन्हीं के विराट मन के भीतर होता है। हम सभी उनसे ही सभी दसों दिशाओं से घिर हुए हैं, उनके बाहर कहीं नहीं जा सकते । जब तक हम इस सत्य से अनभिज्ञ रहते हैं तब हमें लगता है कि जो भी हम सोच रहे हैं या कर रहे हैं वह कोई नहीं जानता और जब हमें यह सच्चाई ज्ञात होती है तब तक बहुत देर हो चुकती है। इसके पा जाने पर व्यक्ति में अहंकार की पराकाष्ठा आ जाती है जो  अधोपतन का कारण बनती है।

राजू- ‘तो ‘लघिमा ’ क्या है?
बाबा- लघिमा का अर्थ है सरलता। इससे हमारा  मन सभी प्रकार की जिम्मेवारियों से मुक्त हो जाता है। भौतिक बंधनों से मुक्त और चिन्ता मुक्त इस प्रकार का मन अमूर्त क्षेत्र के किसी भी विचार (चाहे वह सू़क्ष्म हो या जड़ता भरा ) को अच्छी तरह समझ सकता है। आप लोग जानते हैं कि बच्चे जब बीस या तीस वर्ष के हो जाते हैं तो वे बड़े गंभीर हो जाते हैं और अपने से कम आयु के बच्चों के साथ बड़े ही नियंत्रित ढंग से बातचीत करने लगते हैं । जैसे, वे जोर से नहीं हॅसते जितना कि उन्हें स्वभावतः हॅसना चाहिए क्योंकि वे सोचने लगते हैं कि नहीं तो छोटे बच्चे उन्हें तुच्छ समझने लगेंगे। अर्थात् वास्तव में वे गंभीर नहीं होते वरन् वे गंभीर होने का बहाना करते हैं । परन्तु परमपुरुष के संबंध में यह कहा जाता है कि वे छोटे बच्चों की तरह बिलकुल सरल होते हैं। वे सरल होने का बहाना नहीं करते क्योंकि जो सारे ब्रह्माॅंड का बोझ उठाये हैं उन्हें अपने ऊपर और अधिक बोझ बढ़ाने का कोई कारण नहीं दिखता। इस सिद्धि के पाने पर साधक भी छोटे बच्चों जैसा सरल हो जाता है।

इन्दु-  ‘प्राप्ति’ में क्या होता है?
बाबा- यह परमपुरुष का चौथा  एश्वर्य है। इसमें व्यक्ति अपने को और अन्य अनेक लोगों को परमपुरुष की कृपा पाने के लिये सहायता कर सकता है। हम लोग कितनी इच्छायें नहीं करते, पर क्या वे सभी पूरी हो पाती हैं? नहीं। इसके अलावा एक बात यह भी है कि हम जानते ही नहीं हैं कि हमारी वास्तविक आवश्यकताएं क्या हैं। परन्तु परमपुरुष जानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति की क्या आवश्यकताएं हैं।  उनकी अपनी कोई इच्छा नहीं होती परन्तु वे सब कुछ इस संसार को ही देते जाते हैं। जीवों को उनकी उपयुक्त आवश्यकता के अनुसार वे सब कुछ देते जाते हैं। या तो वे इन्हें सीधे ही दे देते हैं या परोक्ष रूप में किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से। वे यह समझा देते हैं कि किस प्रकार से आगे बढ़ें कि उनकी इच्छाएं सरलता से पूरी हो सकें। यदि लोग उनके समझाने के अनुसार नहीं चल पाते हैं तो उनकी इच्छाएं पूरी नहीं होेंगी पर यदि वे सही ढंग से उनके बताये गए रास्ते पर चलते हैं तो उनकी सभी इच्छायें पूरी होती हैं और वे बंधन मुक्त हो जाते हैं । स्पष्ट है कि इस प्रकार की सिद्धि पा जाने पर साधक को किसी भी वस्तु को पाने की इच्छा नहीं रहती और यदि होती है तो वह तत्काल पूरी हो जाती है।

चन्दू- और ‘ईशित्व’ का अर्थ क्या है?
बाबा- ‘ईश’ का अर्थ है नियंत्रण करना या  शासन करना। इस सिद्धि से साधक दूसरों के मनोरोगी मन को मार्गदर्शित कर सकता है। परमपुरुष सभी पर नियंत्रण रखते हैं इतना ही नहीं वे कठोरता से शासन करते हुए जो सद् गुणी  व्यक्ति होते हैं उन्हें और अधिक सद् गुणी  बनने की प्रेरणा देते हैं और जो दुष्ट होते हैं, असद् गुणी  होते हैं उन्हें सन्मार्ग पर लाने के अवसर देते हैं। इस प्रकार की क्षमता जिनमें आ जाती है तो कहा जाता है कि उन्हें ईशित्व की उपलब्धि हो गई है। यह भी स्पष्ट है कि जिन्हें अभी बताई गई चारों सिद्धियाॅं प्राप्त हो जाती हैं उन्हें यह ईशित्व सिद्धि भी प्राप्त हो जाती है।

रवि- ‘वशित्व’ से क्या तात्पर्य है?
बाबा-  इसका अर्थ है सभी कुछ को अपने नियंत्रण में बनाए रखना ।  यह  दूसरों के त्रुटिपूर्ण विचारों भरे मन को परम सत्ता की ओर मोड़ने में सहायता करती  है। जैसे घोड़े को लगाम बाॅंधी जाए तो उस पर नियंत्रण करना सरल  हो जाता है उसी प्रकार इस सिद्धि को पाने पर चर अचर सभी वश में करने की क्षमता आ जाती है और यह अन्य नाम से वशीकार सिद्धि भी कहलाती है। ध्यान रहे जहाॅं ईशित्व शासन करने की क्षमता से संबंधित है वहीं वशित्व सब पर नियंत्रण करने से संबंधित होती है।

रवि- आप ‘प्रकाम्य’ के संबंध में क्या कहेंगे?
बाबा- इसका अर्थ है इच्छामात्र से सब कुछ घटित करने की क्षमता होना। अर्थात् सोचने की सही प्रणाली जो संसार को ज्ञान का नया प्रकाश प्राप्त कराती है। इस प्रकार की सिद्धि प्राप्त साधक के मन में यदि आता है कि अमुक व्यक्ति की गंभीर बीमारी दूर हो जाए तो वह तत्काल दूर हो जाती है। प्रकृति पर उसका पूरा नियंत्रण होता है। इस संबंध में महाभारत से अनेक दृष्टान्त दिये जा सकते हैं। जैसे, कृष्ण के पास यह सिद्धि थी; जयद्रथ वध के समय उन्होंने चाहा कि सभी लोग अनुभव करें कि सूर्य अस्त हो गया है,  तो सभी ने अनुभव किया कि  सूर्य अस्त हो गया  और जब उन्होंने चाहा कि अब सूर्य दिखाई देने लगे तो तत्काल वह दिखाई देने लगा।

इन्दु- ‘अन्तर्यामित्व’ क्या है? क्या यह ‘अणिमा’ जैसी ही होती है?
बाबा- किसी के मन में परमाणु से भी सूक्ष्मातिसूक्ष्म सत्ता के रूप में रहते हुए सभी मानसिक क्रियाओं का साक्ष्य देना अन्तर्यामित्व भी कहला सकता है परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से कुछ अन्तर है । अन्तर्यामित्व में मन और शरीर के भीतर जाकर वहाॅं होने वाली प्रत्येक और सभी गतिविधियों को जानना भी सम्मिलित होता है।  संक्षेप में कहा जा सकता है कि इससे दूसरों के मन को पढ़ा जा सकता है। केवल शरीर के प्रत्येक अवयव में प्रवेश कर लेना ही पर्याप्त नहीं होता वहाॅं क्या और किस प्रकार घटित हो रहा है यह जानना भी आवश्यक होता है। इसके लिए साधना के साथ साथ परमपुरुष की कृपा  भी आवश्यक होती है। इसलिए अन्तर्यामित्व में लोगों का अधिकतम भला करने के उद्देश्य से उनके मन की चिन्ताएं, मानसिक बीमारियाॅ और उत्सुकताओं को भी जानना आवश्यक होता है। परमपुरुष का यह आठवाॅं ऐश्वर्य कहलाता है। इस प्रकार जिसके पास यह आठों सिद्धियाॅं आ जाती हैं वही ईश्वर कहलाता है।

रवि- आपने कहा था कि साधना मार्ग पर चलते हुए यह सिद्धियाॅं धूल की तरह हमसे चिपकने की कोशिश करती हैं ;  हमें इनसे सावधान रहने की सलाह दी थी ऐसा क्यों ? इनकी सहायता से यदि हम सभी का बहुत भला कर सकते हैं तो इन्हें क्यों न उपलब्ध किया जाए?
बाबा- हाॅं सही कहा था और फिर कहता हूँ  कि इन से दूर रहना ही उचित है। इनके चक्कर में पड़कर अहंकार को जन्म लेते देर नहीं लगती जो अच्छे से अच्छे आत्मनियंत्रित साधक को भी पतन का रास्ता दिखा देता है। इस प्रकार, इनका सदुपयोग करने के स्थान पर दुरुपयोग होने की ही अधिक संभावना होती है। वास्तव में हम यहाॅं बहुत कम समय के लिए आए हैं अतः समय का अधिकतम सदुपयोग करते हुए  हमें अपने लक्ष्य को पा लेने की ओर ही प्रयासरत रहने में भलाई है। इन सभी सिद्धियों के स्वामी परमपुरुष ही हैं और वे ही उनका कब कहाॅं और कैसा उपयोग करना है यह जानते हैं अतः यदि यह हमें अपने मार्ग में आकर प्रलोभन देती भी हैं तो उन्हें परमपुरुष की ओर ही वापस समर्पित कर देना चाहिए।


Thursday 16 November 2017

166 सत्याश्रयी कम ही होते हैं।

166: सत्य को जानने की इच्छा रखने वाले लोग कम क्यों होते हैं?
हम सबका अनुभव है कि यदि कहीं सात्विक और ज्ञानपूर्ण चर्चा के कार्यक्रम में आप दो सौ व्यक्तियों को आमंत्रित करें तो आप पायेंगे कि अधिकतम साठ लोग ही आये हैं; इनमें से दस या बारह लोग ही पूरे मनोयोग से चर्चा को सुनेंगे और इन श्रोताओं में से भी कुछ ही विषयवस्तु को सही सही समझ पायेंगे। इन थोड़े से समझदार लोगों के समूह में से अल्प ही ऐंसे होंगे जो समझ में आई विषयवस्तु को याद रख पायेंगे और अन्त में शेष रहे इस समूह के मात्र एक या दो ही व्यक्ति वे होंगे जो सुनी और समझी गई विषयवस्तु को आचरण में उतार पायेंगे।
ऐसा , केवल अविद्या और विद्या के द्वारा मन में उत्पन्न किये जा रहे संघर्ष के कारण होता है। इस संघर्ष में अविद्या की विजय होना प्रकट करता है कि आप विद्या के आन्तरिक झुकाव से बाहर की ओर भाग रहे हैं। इसका कारण यह है कि औसत व्यक्ति के मन में पाशविक संस्कार अधिक और सात्विक आन्तरिक संवेग कम होता है। अविद्या की ऐंद्रियगत भावनायें व्यक्ति के विचार प्रवाह में छन्ने का काम करती रहती हैं । सच्चाई की ओर चलने के लिये प्रयासरत प्रत्येक व्यक्ति के मन में यह प्रक्रिया लम्बे समय से चल रही होती है और बहुत अभ्यास के बाद ही सात्विक विचार मन में स्थायी हो पाते हैं। इसीलिये सत्याश्रयी कम ही होते हैं।

Monday 13 November 2017

165 बाबा की क्लास ( ऋद्धि और सिद्धि)

165 बाबा की क्लास ( ऋद्धि और सिद्धि)
राजू- अनेक लोगों को यह कहते देखा गया है कि उन्होंने बड़ा ही परोपकार किया है जबकि वास्तव में वह उस स्तर का नहीं पाया जाता जितना कि बताया जाता है?
बाबा- इसे अहंकार कहते हैं। आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ने में यह सबसे बड़ा अवरोधक बनता है। जो इस रहस्य को नहीं जानते वे इस प्रकार के अहंकार में डूबकर अपनी आत्मिक क्षति कर लेते हैं।

इन्दु- तो क्या किसी को परोपकार करना ही नहीं चाहिए?
बाबा- परोपकार तो सदा करना ही चाहिए परन्तु उससे अपने अहं को नहीं जोड़ना चाहिए। परोपकार हमेशा कर्तव्य मानकर ही करना चाहिए।

रवि- लेकिन जब हम किसी का भला करते हैं तो यह भावना तो स्वाभाविक रूप से ही उत्पन्न हो जाती है कि यह कार्य मैं ने किया। इसके अलावा जो उपकृत होता है वह भी सबको यही कहता है कि अमुक ने यह कार्य किया है, इससे अहंकार को और बल मिलता है?
बाबा- आध्यात्मिक साधना करने वाले साधक जानते हैं कि वे अपना हर अच्छा और बुरा कार्य अपने इष्ट को ही अर्पित करते जाते हैं। इस अभ्यास के लगातार करने से सम्पूर्ण समर्पण की भावना स्थायी हो जाती है फिर वह कर्मबंधन में नहीं बंधता है।

रवि- सम्पूर्ण समर्पण का असली रहस्य क्या है? 
बाबा- मनुष्य के जितने भी अहंकार भरे कर्म होते हैं जितने भी ‘मैं’ से जुड़े कार्य और प्रदर्शन होते है। वे सभी दम्भ और दर्प से घिरे होते हैं और ‘मै’ की भावना उत्प्रेरित करते हैं। यह ‘मै’ ही सभी प्रकार के अहंकार का आधार है।  जैसे, जब कोई व्यक्ति बहुत अधिक पढ़ लिख लेता है तो उसका अहंकार बढ़ जाता है। वह अपने इस लघु अस्तित्व को बचाए रखने के लिये इतना सतर्क हो जाता है कि वह परमपुरुष के प्रति समर्पण का भाव लाने में कठिनाई का अनुभव करता है। उसके सामने यदि तर्कसम्मत सिद्धान्त भी रखा जाय तो वह अस्वीकार कर देता है क्योंकि यदि वह स्वीकार करता है तो उसे यह हास्यास्पद लगने लगता है। इस प्रकार का मनोविज्ञान उसे सदा ही विपरीत सलाह देता रहता है। समर्पण करने का तरीका है उन परमपुरुष के ध्यान में अपने ‘‘मैंपन’’ को समर्पित करना और संसार के सभी वाह्य अस्तित्वों में ईश्वरीय भावना को संबद्ध करना।

इन्दु- परन्तु अपने ‘‘मैंपन’’ को समर्पित करने की विधि क्या है?
बाबा- किसी गरीब भूखे व्यक्ति को भोजन कराने पर विचार आ सकते हैं कि यह मैंने बहुत बड़ा काम किया, इस प्रकार का अहंकार मानसिक बीमारी है। अब यदि किसी गरीब या बीमार को मदद करते समय यह भावना मन में लाते हैं कि मैं इस रूप में सामने आए परमपुरुष की मदद कर रहा हॅूं तो इस प्रकार के कर्म से अहंकार उत्पन्न नहीं होगा। इसलिए अहंकार को जीतने के लिए मन में यह प्रतिक्रिया बनाए रखना चाहिए कि ईश्वर ने मुझे जो योग्यता या धन दिया है अब वही इस रूप में उसे लेने आये हैं, मैं उसे वापस कर रहा हॅूं जो उसका असली मालिक है। इस शरीर का भी असली मालिक वह परमपुरुष है इसलिए इसमें स्थित ‘मन’ का भी वही मालिक है, उसे उसकी वस्तु वापस कर रहा हॅूं। इस प्रकार की भावना से अहंकार उत्पन्न नहीं होता।

रवि- आपने अभी बताया है कि परमपुरुष का ध्यान करते हुए ही सब कर्मों को अर्पित करना चाहिए यह कैसे हो सकता है?
बाबा- ध्यान करते समय  सभी लोग परमपुरुष को कर्म अर्थात् ‘आब्जेक्ट’ और अपने को कर्ता अर्थात् ‘सब्जेक्ट’ मानते हैं । इस प्रकार वे अपने को दृष्टा और परमपुरुष को दृश्य मानते हैं। जबकि यह संभव नहीं होता। परन्तु अपनी आन्तरिक आॅंखों से उन परमपुरुष की ओर देखते समय मन में यह भावना होना चाहिए कि ‘मैं उनका ध्यान नहीं कर रहा हॅूं और न ही मानसिक रूप से उन्हें देख रहा हॅूं वरन् , वास्तव में वही मुझे देख रहे हैं। अर्थात् वह मेरे सब्जेक्ट हैं और मैं उनका आब्जेक्ट। इस प्रकार से अहंकार और दम्भ के नागपाश से मुक्त रहा जा सकता है।

चन्दू- यह तो ध्यान के समय की क्रियाएं हुईं , हम तो सामाजिक व्यवहार के समय की बात कर रहे हैं, वहाॅं पर हमारा आचरण कैसा हो जिससे अहंकार से बचा जा सके?
बाबा- सामाजिक व्यवहार में हमें घास के तृणों की तरह अपने को सहनशील बनाकर उन लोगों को भी उतना ही सम्मान देना सीखना चाहिए जिन्हें कोई भी आदर नहीं देता । यह नहीं होना चाहिए कि कोई धन सम्पन्न और समाज में अधिक प्रभावी व्यक्ति के साथ आपका व्यवहार विशेष हो और अपेक्षतया कम प्रभावी साधारण व्यक्ति के साथ साधारण या उपेक्षापूर्ण। तात्पर्य यह कि बिना किसी भेद भाव के सभी के साथ एकसमान आदर भाव रखने पर अहंकार को पनपने का अवसर नहीं मिल पाएगा।

राजू- कुछ लोगों को यह कहते सुना जाता है कि अहंकार रहित योगाभ्यास से सिद्धियाॅं प्राप्त होती हैं,  यह कैसे संभव हैं?
बाबा- परमपुरुष की एक अद्वितीय विशेषता यह है कि जो भी उनका चिंतन करता है वह उनके साथ एक हो जाता है। जीवात्मा परमात्मा हो जाता है। साधक इस प्रकार महान बनने का रहस्य जानता है और यही ‘‘रस साधना’’ का आधारभूत नियम है कि अपनी सभी व्यक्तिगत इच्छाओं /रुचियों को परमपुरुष की ओर प्रवाहित कर दो । केवल इस प्रकार वह ‘पूर्णता अर्थात् रिद्धि’ और ‘सफलता अर्थात् सिद्धि’ पा सकता है।

रवि- इसमें इष्टमंत्र की क्या भूमिका होती है?
बाबा-प्रत्येक मंत्र का एक लय और स्पंदन होता है । जब इसे इकाई मन, "कास्मिक" प्रणाली के साथ स्पंदित करता है और इस अभ्यास के लगातार करने से जब अपने इकाई स्पंदनों को "कास्मिक " स्पंदनों के साथ अनुनादित करने लगता है तो इसे ‘मंत्र सिद्धि’ कहते हैं। वह व्यक्ति अपने बाह्य भौतिक स्पंदनों के साथ आन्तरिक "एक्टोप्लाज्मिक" स्पंदनों को समानान्तर कर लेता है और अपना आध्यात्मिक स्तर दूसरों की तुलना में ऊंचा उठा लेता है । इस प्रक्रिया का अन्तिम परिणाम ही ‘‘मंत्र सिद्धि’’ में परिवर्तित हो जाता है। इसलिए आध्यात्मिक साधना लघुता के बंधनों  को समाप्त करने का प्रयत्न है और सिद्धि अथवा सौंदर्य वह अवस्था है जब यह बंधन समाप्त हो चुकते हैं।

Monday 6 November 2017

164 बाबा की क्लास (दीर्घायु)

164  बाबा की क्लास (दीर्घायु)

रवि- वेदों का कथन है कि ’’ कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविशेच्छातम समाः, एवं त्वयी नान्यथेतोष्टि न कर्म लिप्यते नरे। ’’  अर्थात्, जीवन को कर्म में सलग्न रखते हुए सौ साल तक जीने की कामना करना चाहिए’। अतः लोगों की यह धारणा कि प्राचीन काल में मनुष्य सौ वर्ष से अधिक जीते थे , गलत है?
बाबा- तुम्हारा निष्कर्ष बिलकुल सही है। सत्य यही है कि विज्ञान , चिकित्सा विज्ञान और आध्यात्मिक विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति से आज लोगों की आयु में पर्याप्त बृध्दि हुई है। सौ साल की आयु प्राप्त करना प्राचीन काल में विरलों को ही संभव होता था इसीलिए वेद में इस प्रकार की प्रार्थना करने को कहा गया है कि अच्छे काम करने के लिए सौ साल तक जीने की कामना करो, बेकार शरीर का बोझ ढोने का क्या फायदा । इस युग में कुछ लोग सौ वर्ष से अधिक जिए हैं परन्तु उनकी संख्या अधिक नहीं हैं।

राजू- परन्तु , सौ या अधिक वर्ष तक जीने की इच्छा करने का औचित्य क्या है?
बाबा- केवल लंबा जीना ही पर्याप्त नहीं है , महत्व है गरिमापूर्ण जीवन जीने का। मानव जीवन की महत्ता उत्तम और  महान कार्य करने में ही होती है। वास्तव में सभी व्यक्तियों का यह ध्येय होना चाहिए कि वे जितना भी जिएं गरिमामय जीवन जिएं, केंचुए की तरह नहीं। मनुष्यों को अपना जीवनयापन निर्धारित कर्तव्य का पालन करते हुए करना होता है। उनका भौतिक पराक्रम इस बात पर निर्भर करता है कि उनके निवास क्षेत्र की आर्थिक स्थिति कैसी है। क्योंकि, जिस क्षेत्र की सामाजिक आर्थिक स्थिति उन्नत होती है, उन्हें भौतिक पराक्रम कम करना होता है। इसके बदले, उनका मानसिक पराक्रम बढ़ जाता है जो कि प्राकृतिक नियम है। सौ डेड़ सौ साल पहले आज की तुलना में लोगों को अधिक पराक्रम करना पड़ता था।

इन्दु- तो लम्बी आयु पाने के लिए यथार्थ कर्म कौन सा है?
बाबा- आध्याात्मिक साधना करने से  मन शांत और सरल बना रहता है जिससे सभी नाड़ियों  और ग्रंथियों में हारमोन्स का स्राव संतुलन में रहता है। अतः आध्यात्मिक साधना करने से आयु में बृद्धि होती है। वे सात्विक शाकाहारी साधक जो नियमित रूप से आध्यात्मिक साधना करते हुए शुद्ध बिचार रखते हैं और सदाचार में लीन रहते हैं वे नब्बे वर्ष से अधिक जीवित रहते हैं।

राजू- परन्तु देखा गया है कि विवेकानन्द, शंकराचार्य जैसी विभूतियाॅ तो अल्पायु ही हुए हैं?
बाबा- हाॅं विवेकानन्द तो बहुत कम जिये, उसका कारण है अत्यधिक शारीरिक परिश्रम करना। अत्यधिक परिश्रम करने से आयु घटती है। चैतन्य महाप्रभु पचास वर्ष से कम जिये , वे शायद अधिक जी सकते थे परन्तु पूरे भारत में पैदल चलकर उन्होंने अनेक यात्राएं की । यही हाल शंकराचार्य का हुआ उन्होंने भी पूरे भारत में पैदल यात्राएं की अन्यथा शायद वे और अधिक जीवित रहते। इसलिए भव्य जीवन जीने के लिये सात्विक कर्मों के करते हुए क्रियाशील बने रहकर चलते रहना चाहिए, चरैवेति चरैवेति ।

चन्दू- प्रायः यह सुना जाता है कि धरती पर आने के लिए देवता भी तरसते हैं?
बाबा- बात यह है कि जब तक भौतिक शरीर है तभी तक आध्यात्मिक साधना शरीर के माध्यम से की जा सकती है बिना शरीर के नहीं , देवता अदेह होते हैं। इसलिए , जब तक जीवन है तब तक सद्कर्म से जुड़े रहकर आत्मोन्नति के रास्ते पर सक्रिय बने रहने में ही सार है। जब तक मनुष्य जीवित रहता है तब तक उसे अपने मन और आत्मा से शरीर का उपयोग करना चाहिए। आप पूछ सकते हैं कि आत्मा कैसे कार्य कर सकता है? आत्मा का कार्य है आन्तरिक संसार सागर  में अधिक से अधिक गहराई तक डुबकी लगाना। इसके अलावा उसका कोई काम नहीं है। इसलिए मन का कार्य है कि वह लगातार आत्मोन्नति के लिए सद्कर्म करता रहे। इसी प्रकार शरीर भी लगातार पवित्र कामों के लिए प्रयोग में लाना चाहिए क्योंकि, पवित्र काम से जुड़े रहने पर मन में भी अच्छे विचार आते हैं ।  अपवित्र काम करने से मन में सदा ही अपवित्र विचार आते हैं  और, फिर उसके पतन होने में देर नहीं लगती।

रवि- दीर्घायु पाने के लिये भोजन का क्या योगदान है?
बाबा- दीर्घ जीवन के संचालन के लिए पौष्टिक सात्विक भोजन भी आवश्यक है परन्तु हम केवल भोजन के लिए यहाॅं नहीं आए हैं हमें आजीवन अच्छे कर्म में संलग्न रहना है , जीते जीते कर्म करना है मरते मरते कर्म करना है। और, यह कर्म समाज कल्याण के लिये होना चाहिए तभी हम कर्मबंधन से मुक्त हो सकते हैं। कर्म बंधन से मुक्त होने के बाद हमें उनके परिणाम भोगने की आवश्यकता नहीं पड़ती चाहे वे अच्छे हों या बुरे। यदि केवल समाज कल्याण के लिए ही कर्म किये गये हैं तो फिर उनके परिणाम स्वरूप इस संसार में पुनः नहीं आना पड़ता।

इन्दु- जब अधिक शारीरिक परीश्रम करने से आयु क्षीण होती है तो फिर इसका वैकल्पिक अभ्यास कौन सा है जो शरीर को तो स्वस्थ रखे ही आयु सहित  आध्यात्मिक रूप से भी लाभदायी हो?
बाबा-  इसके लिये योगासनें सहयोग करती हैं। योगासन वे स्थितियाँ  हैं जिनके होने पर कोई भी व्यक्ति अपने आपको स्थिर और सुविधाजनक अनुभव करता है ‘‘ स्थिरसुखमासनम्’’ । योगासनें एक प्रकार का शारीरिक अभ्यास हैं जिनकेे लगातार करते रहने पर शरीर दृढ़ और स्वस्थ बना रहता है और अनेक बीमारियाॅं दूर हो जाती हैं। परन्तु , समान्यतः योगासनों को बीमारियाॅं दूर करने के लिए नहीं सिखाया जाता क्योंकि विशेष आसन करने से केवल उन बीमारियों को ठीक किया जा सकता है जो साधना करने में बाधा पहुंचाती हैं।

रवि- योगासनों से आध्यात्मिक उन्नति करने में किस प्रकार सहायता मिलती है?
बाबा- मनुष्य के शरीर में अनेक ग्रंथियां और उपग्रन्थियां होती हैं जिनसे पचास प्रकार की ‘‘वृत्तियां’’ अर्थात् प्रोपेंसिटीज, जुड़ी रहती हैं। आधुनिक विज्ञान अभी इनसे अपरिचित है। नियमित रूप से योगासन करते रहने से इन ग्रन्थियों पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है जिससे उनसे जुड़ी वृत्तियों पर नियंत्रण किया जा सकता है और इस प्रकार मन के विचारों और उसके व्यवहार पर भी नियंत्रण पाया जा सकता है। यह योगासन इन ग्रंथियों या उपग्रन्थियों पर या तो दबाव डालती हैं या उन्हें विस्तारित करती हैं। जैसे नियमित रूप से  मयूरासन करने से मणीपूर चक्र से निकलने वाले हरमोन्स पर दबाव पड़ता है अतः इस चक्र से जुड़ी सभी मनोवृत्तियां संतुलित होने लगती हैं। मानलो कोई व्यक्ति जनसभाओं में या समाज के बीच बोलने में डरता है तो अवश्य उसका मनीपूर चक्र कमजोर है अतः यदि वह मयूरासन नियमित रूप से करता है तो यह भयवृत्ति समाप्त हो जाएगी। मन और शरीर का निकटता से संबंध है और मन के द्वारा ही वृत्तियों का उपभोग किया जाता है जबकि वृत्तियाॅं ग्रंथियों से संयुक्त रहती हैं। इसलिए ग्रंथियों से स्रावित होने वाले हारमोन्स यदि अधिक हों या कम हों तो उन ग्रंथियों से सम्बद्ध वृत्तियाॅं उत्तेजित हो जाती हैं। यही कारण होता है कि कुछ लोगों में नैतिक आचरण करने और साधना करने के प्रति सच्ची इच्छा होते हुए भी वे नहीं कर पाते क्योंकि उनका मन किसी न किसी वृत्ति के प्रभाव में आकर बाह्य संसार में भटकने लगता है। यदि कोई व्यक्ति अपनी इन वृत्तियों की उत्तेजना पर नियंत्रण करना चाहता है तो उसे संबंधित ग्रंथियों के दोष को दूर करना चाहिए और इसमें योगासनें बहुत अधिक सहयोग कर सकती हैं। यही कारण है कि अष्टांग योग में आसन को यम और नियम के बाद तीसरा स्थान प्राप्त है।