164 बाबा की क्लास (दीर्घायु)
रवि- वेदों का कथन है कि ’’ कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविशेच्छातम समाः, एवं त्वयी नान्यथेतोष्टि न कर्म लिप्यते नरे। ’’ अर्थात्, जीवन को कर्म में सलग्न रखते हुए सौ साल तक जीने की कामना करना चाहिए’। अतः लोगों की यह धारणा कि प्राचीन काल में मनुष्य सौ वर्ष से अधिक जीते थे , गलत है?
बाबा- तुम्हारा निष्कर्ष बिलकुल सही है। सत्य यही है कि विज्ञान , चिकित्सा विज्ञान और आध्यात्मिक विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति से आज लोगों की आयु में पर्याप्त बृध्दि हुई है। सौ साल की आयु प्राप्त करना प्राचीन काल में विरलों को ही संभव होता था इसीलिए वेद में इस प्रकार की प्रार्थना करने को कहा गया है कि अच्छे काम करने के लिए सौ साल तक जीने की कामना करो, बेकार शरीर का बोझ ढोने का क्या फायदा । इस युग में कुछ लोग सौ वर्ष से अधिक जिए हैं परन्तु उनकी संख्या अधिक नहीं हैं।
राजू- परन्तु , सौ या अधिक वर्ष तक जीने की इच्छा करने का औचित्य क्या है?
बाबा- केवल लंबा जीना ही पर्याप्त नहीं है , महत्व है गरिमापूर्ण जीवन जीने का। मानव जीवन की महत्ता उत्तम और महान कार्य करने में ही होती है। वास्तव में सभी व्यक्तियों का यह ध्येय होना चाहिए कि वे जितना भी जिएं गरिमामय जीवन जिएं, केंचुए की तरह नहीं। मनुष्यों को अपना जीवनयापन निर्धारित कर्तव्य का पालन करते हुए करना होता है। उनका भौतिक पराक्रम इस बात पर निर्भर करता है कि उनके निवास क्षेत्र की आर्थिक स्थिति कैसी है। क्योंकि, जिस क्षेत्र की सामाजिक आर्थिक स्थिति उन्नत होती है, उन्हें भौतिक पराक्रम कम करना होता है। इसके बदले, उनका मानसिक पराक्रम बढ़ जाता है जो कि प्राकृतिक नियम है। सौ डेड़ सौ साल पहले आज की तुलना में लोगों को अधिक पराक्रम करना पड़ता था।
इन्दु- तो लम्बी आयु पाने के लिए यथार्थ कर्म कौन सा है?
बाबा- आध्याात्मिक साधना करने से मन शांत और सरल बना रहता है जिससे सभी नाड़ियों और ग्रंथियों में हारमोन्स का स्राव संतुलन में रहता है। अतः आध्यात्मिक साधना करने से आयु में बृद्धि होती है। वे सात्विक शाकाहारी साधक जो नियमित रूप से आध्यात्मिक साधना करते हुए शुद्ध बिचार रखते हैं और सदाचार में लीन रहते हैं वे नब्बे वर्ष से अधिक जीवित रहते हैं।
राजू- परन्तु देखा गया है कि विवेकानन्द, शंकराचार्य जैसी विभूतियाॅ तो अल्पायु ही हुए हैं?
बाबा- हाॅं विवेकानन्द तो बहुत कम जिये, उसका कारण है अत्यधिक शारीरिक परिश्रम करना। अत्यधिक परिश्रम करने से आयु घटती है। चैतन्य महाप्रभु पचास वर्ष से कम जिये , वे शायद अधिक जी सकते थे परन्तु पूरे भारत में पैदल चलकर उन्होंने अनेक यात्राएं की । यही हाल शंकराचार्य का हुआ उन्होंने भी पूरे भारत में पैदल यात्राएं की अन्यथा शायद वे और अधिक जीवित रहते। इसलिए भव्य जीवन जीने के लिये सात्विक कर्मों के करते हुए क्रियाशील बने रहकर चलते रहना चाहिए, चरैवेति चरैवेति ।
चन्दू- प्रायः यह सुना जाता है कि धरती पर आने के लिए देवता भी तरसते हैं?
बाबा- बात यह है कि जब तक भौतिक शरीर है तभी तक आध्यात्मिक साधना शरीर के माध्यम से की जा सकती है बिना शरीर के नहीं , देवता अदेह होते हैं। इसलिए , जब तक जीवन है तब तक सद्कर्म से जुड़े रहकर आत्मोन्नति के रास्ते पर सक्रिय बने रहने में ही सार है। जब तक मनुष्य जीवित रहता है तब तक उसे अपने मन और आत्मा से शरीर का उपयोग करना चाहिए। आप पूछ सकते हैं कि आत्मा कैसे कार्य कर सकता है? आत्मा का कार्य है आन्तरिक संसार सागर में अधिक से अधिक गहराई तक डुबकी लगाना। इसके अलावा उसका कोई काम नहीं है। इसलिए मन का कार्य है कि वह लगातार आत्मोन्नति के लिए सद्कर्म करता रहे। इसी प्रकार शरीर भी लगातार पवित्र कामों के लिए प्रयोग में लाना चाहिए क्योंकि, पवित्र काम से जुड़े रहने पर मन में भी अच्छे विचार आते हैं । अपवित्र काम करने से मन में सदा ही अपवित्र विचार आते हैं और, फिर उसके पतन होने में देर नहीं लगती।
रवि- दीर्घायु पाने के लिये भोजन का क्या योगदान है?
बाबा- दीर्घ जीवन के संचालन के लिए पौष्टिक सात्विक भोजन भी आवश्यक है परन्तु हम केवल भोजन के लिए यहाॅं नहीं आए हैं हमें आजीवन अच्छे कर्म में संलग्न रहना है , जीते जीते कर्म करना है मरते मरते कर्म करना है। और, यह कर्म समाज कल्याण के लिये होना चाहिए तभी हम कर्मबंधन से मुक्त हो सकते हैं। कर्म बंधन से मुक्त होने के बाद हमें उनके परिणाम भोगने की आवश्यकता नहीं पड़ती चाहे वे अच्छे हों या बुरे। यदि केवल समाज कल्याण के लिए ही कर्म किये गये हैं तो फिर उनके परिणाम स्वरूप इस संसार में पुनः नहीं आना पड़ता।
इन्दु- जब अधिक शारीरिक परीश्रम करने से आयु क्षीण होती है तो फिर इसका वैकल्पिक अभ्यास कौन सा है जो शरीर को तो स्वस्थ रखे ही आयु सहित आध्यात्मिक रूप से भी लाभदायी हो?
बाबा- इसके लिये योगासनें सहयोग करती हैं। योगासन वे स्थितियाँ हैं जिनके होने पर कोई भी व्यक्ति अपने आपको स्थिर और सुविधाजनक अनुभव करता है ‘‘ स्थिरसुखमासनम्’’ । योगासनें एक प्रकार का शारीरिक अभ्यास हैं जिनकेे लगातार करते रहने पर शरीर दृढ़ और स्वस्थ बना रहता है और अनेक बीमारियाॅं दूर हो जाती हैं। परन्तु , समान्यतः योगासनों को बीमारियाॅं दूर करने के लिए नहीं सिखाया जाता क्योंकि विशेष आसन करने से केवल उन बीमारियों को ठीक किया जा सकता है जो साधना करने में बाधा पहुंचाती हैं।
रवि- योगासनों से आध्यात्मिक उन्नति करने में किस प्रकार सहायता मिलती है?
बाबा- मनुष्य के शरीर में अनेक ग्रंथियां और उपग्रन्थियां होती हैं जिनसे पचास प्रकार की ‘‘वृत्तियां’’ अर्थात् प्रोपेंसिटीज, जुड़ी रहती हैं। आधुनिक विज्ञान अभी इनसे अपरिचित है। नियमित रूप से योगासन करते रहने से इन ग्रन्थियों पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है जिससे उनसे जुड़ी वृत्तियों पर नियंत्रण किया जा सकता है और इस प्रकार मन के विचारों और उसके व्यवहार पर भी नियंत्रण पाया जा सकता है। यह योगासन इन ग्रंथियों या उपग्रन्थियों पर या तो दबाव डालती हैं या उन्हें विस्तारित करती हैं। जैसे नियमित रूप से मयूरासन करने से मणीपूर चक्र से निकलने वाले हरमोन्स पर दबाव पड़ता है अतः इस चक्र से जुड़ी सभी मनोवृत्तियां संतुलित होने लगती हैं। मानलो कोई व्यक्ति जनसभाओं में या समाज के बीच बोलने में डरता है तो अवश्य उसका मनीपूर चक्र कमजोर है अतः यदि वह मयूरासन नियमित रूप से करता है तो यह भयवृत्ति समाप्त हो जाएगी। मन और शरीर का निकटता से संबंध है और मन के द्वारा ही वृत्तियों का उपभोग किया जाता है जबकि वृत्तियाॅं ग्रंथियों से संयुक्त रहती हैं। इसलिए ग्रंथियों से स्रावित होने वाले हारमोन्स यदि अधिक हों या कम हों तो उन ग्रंथियों से सम्बद्ध वृत्तियाॅं उत्तेजित हो जाती हैं। यही कारण होता है कि कुछ लोगों में नैतिक आचरण करने और साधना करने के प्रति सच्ची इच्छा होते हुए भी वे नहीं कर पाते क्योंकि उनका मन किसी न किसी वृत्ति के प्रभाव में आकर बाह्य संसार में भटकने लगता है। यदि कोई व्यक्ति अपनी इन वृत्तियों की उत्तेजना पर नियंत्रण करना चाहता है तो उसे संबंधित ग्रंथियों के दोष को दूर करना चाहिए और इसमें योगासनें बहुत अधिक सहयोग कर सकती हैं। यही कारण है कि अष्टांग योग में आसन को यम और नियम के बाद तीसरा स्थान प्राप्त है।
रवि- वेदों का कथन है कि ’’ कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविशेच्छातम समाः, एवं त्वयी नान्यथेतोष्टि न कर्म लिप्यते नरे। ’’ अर्थात्, जीवन को कर्म में सलग्न रखते हुए सौ साल तक जीने की कामना करना चाहिए’। अतः लोगों की यह धारणा कि प्राचीन काल में मनुष्य सौ वर्ष से अधिक जीते थे , गलत है?
बाबा- तुम्हारा निष्कर्ष बिलकुल सही है। सत्य यही है कि विज्ञान , चिकित्सा विज्ञान और आध्यात्मिक विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति से आज लोगों की आयु में पर्याप्त बृध्दि हुई है। सौ साल की आयु प्राप्त करना प्राचीन काल में विरलों को ही संभव होता था इसीलिए वेद में इस प्रकार की प्रार्थना करने को कहा गया है कि अच्छे काम करने के लिए सौ साल तक जीने की कामना करो, बेकार शरीर का बोझ ढोने का क्या फायदा । इस युग में कुछ लोग सौ वर्ष से अधिक जिए हैं परन्तु उनकी संख्या अधिक नहीं हैं।
राजू- परन्तु , सौ या अधिक वर्ष तक जीने की इच्छा करने का औचित्य क्या है?
बाबा- केवल लंबा जीना ही पर्याप्त नहीं है , महत्व है गरिमापूर्ण जीवन जीने का। मानव जीवन की महत्ता उत्तम और महान कार्य करने में ही होती है। वास्तव में सभी व्यक्तियों का यह ध्येय होना चाहिए कि वे जितना भी जिएं गरिमामय जीवन जिएं, केंचुए की तरह नहीं। मनुष्यों को अपना जीवनयापन निर्धारित कर्तव्य का पालन करते हुए करना होता है। उनका भौतिक पराक्रम इस बात पर निर्भर करता है कि उनके निवास क्षेत्र की आर्थिक स्थिति कैसी है। क्योंकि, जिस क्षेत्र की सामाजिक आर्थिक स्थिति उन्नत होती है, उन्हें भौतिक पराक्रम कम करना होता है। इसके बदले, उनका मानसिक पराक्रम बढ़ जाता है जो कि प्राकृतिक नियम है। सौ डेड़ सौ साल पहले आज की तुलना में लोगों को अधिक पराक्रम करना पड़ता था।
इन्दु- तो लम्बी आयु पाने के लिए यथार्थ कर्म कौन सा है?
बाबा- आध्याात्मिक साधना करने से मन शांत और सरल बना रहता है जिससे सभी नाड़ियों और ग्रंथियों में हारमोन्स का स्राव संतुलन में रहता है। अतः आध्यात्मिक साधना करने से आयु में बृद्धि होती है। वे सात्विक शाकाहारी साधक जो नियमित रूप से आध्यात्मिक साधना करते हुए शुद्ध बिचार रखते हैं और सदाचार में लीन रहते हैं वे नब्बे वर्ष से अधिक जीवित रहते हैं।
राजू- परन्तु देखा गया है कि विवेकानन्द, शंकराचार्य जैसी विभूतियाॅ तो अल्पायु ही हुए हैं?
बाबा- हाॅं विवेकानन्द तो बहुत कम जिये, उसका कारण है अत्यधिक शारीरिक परिश्रम करना। अत्यधिक परिश्रम करने से आयु घटती है। चैतन्य महाप्रभु पचास वर्ष से कम जिये , वे शायद अधिक जी सकते थे परन्तु पूरे भारत में पैदल चलकर उन्होंने अनेक यात्राएं की । यही हाल शंकराचार्य का हुआ उन्होंने भी पूरे भारत में पैदल यात्राएं की अन्यथा शायद वे और अधिक जीवित रहते। इसलिए भव्य जीवन जीने के लिये सात्विक कर्मों के करते हुए क्रियाशील बने रहकर चलते रहना चाहिए, चरैवेति चरैवेति ।
चन्दू- प्रायः यह सुना जाता है कि धरती पर आने के लिए देवता भी तरसते हैं?
बाबा- बात यह है कि जब तक भौतिक शरीर है तभी तक आध्यात्मिक साधना शरीर के माध्यम से की जा सकती है बिना शरीर के नहीं , देवता अदेह होते हैं। इसलिए , जब तक जीवन है तब तक सद्कर्म से जुड़े रहकर आत्मोन्नति के रास्ते पर सक्रिय बने रहने में ही सार है। जब तक मनुष्य जीवित रहता है तब तक उसे अपने मन और आत्मा से शरीर का उपयोग करना चाहिए। आप पूछ सकते हैं कि आत्मा कैसे कार्य कर सकता है? आत्मा का कार्य है आन्तरिक संसार सागर में अधिक से अधिक गहराई तक डुबकी लगाना। इसके अलावा उसका कोई काम नहीं है। इसलिए मन का कार्य है कि वह लगातार आत्मोन्नति के लिए सद्कर्म करता रहे। इसी प्रकार शरीर भी लगातार पवित्र कामों के लिए प्रयोग में लाना चाहिए क्योंकि, पवित्र काम से जुड़े रहने पर मन में भी अच्छे विचार आते हैं । अपवित्र काम करने से मन में सदा ही अपवित्र विचार आते हैं और, फिर उसके पतन होने में देर नहीं लगती।
रवि- दीर्घायु पाने के लिये भोजन का क्या योगदान है?
बाबा- दीर्घ जीवन के संचालन के लिए पौष्टिक सात्विक भोजन भी आवश्यक है परन्तु हम केवल भोजन के लिए यहाॅं नहीं आए हैं हमें आजीवन अच्छे कर्म में संलग्न रहना है , जीते जीते कर्म करना है मरते मरते कर्म करना है। और, यह कर्म समाज कल्याण के लिये होना चाहिए तभी हम कर्मबंधन से मुक्त हो सकते हैं। कर्म बंधन से मुक्त होने के बाद हमें उनके परिणाम भोगने की आवश्यकता नहीं पड़ती चाहे वे अच्छे हों या बुरे। यदि केवल समाज कल्याण के लिए ही कर्म किये गये हैं तो फिर उनके परिणाम स्वरूप इस संसार में पुनः नहीं आना पड़ता।
इन्दु- जब अधिक शारीरिक परीश्रम करने से आयु क्षीण होती है तो फिर इसका वैकल्पिक अभ्यास कौन सा है जो शरीर को तो स्वस्थ रखे ही आयु सहित आध्यात्मिक रूप से भी लाभदायी हो?
बाबा- इसके लिये योगासनें सहयोग करती हैं। योगासन वे स्थितियाँ हैं जिनके होने पर कोई भी व्यक्ति अपने आपको स्थिर और सुविधाजनक अनुभव करता है ‘‘ स्थिरसुखमासनम्’’ । योगासनें एक प्रकार का शारीरिक अभ्यास हैं जिनकेे लगातार करते रहने पर शरीर दृढ़ और स्वस्थ बना रहता है और अनेक बीमारियाॅं दूर हो जाती हैं। परन्तु , समान्यतः योगासनों को बीमारियाॅं दूर करने के लिए नहीं सिखाया जाता क्योंकि विशेष आसन करने से केवल उन बीमारियों को ठीक किया जा सकता है जो साधना करने में बाधा पहुंचाती हैं।
रवि- योगासनों से आध्यात्मिक उन्नति करने में किस प्रकार सहायता मिलती है?
बाबा- मनुष्य के शरीर में अनेक ग्रंथियां और उपग्रन्थियां होती हैं जिनसे पचास प्रकार की ‘‘वृत्तियां’’ अर्थात् प्रोपेंसिटीज, जुड़ी रहती हैं। आधुनिक विज्ञान अभी इनसे अपरिचित है। नियमित रूप से योगासन करते रहने से इन ग्रन्थियों पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है जिससे उनसे जुड़ी वृत्तियों पर नियंत्रण किया जा सकता है और इस प्रकार मन के विचारों और उसके व्यवहार पर भी नियंत्रण पाया जा सकता है। यह योगासन इन ग्रंथियों या उपग्रन्थियों पर या तो दबाव डालती हैं या उन्हें विस्तारित करती हैं। जैसे नियमित रूप से मयूरासन करने से मणीपूर चक्र से निकलने वाले हरमोन्स पर दबाव पड़ता है अतः इस चक्र से जुड़ी सभी मनोवृत्तियां संतुलित होने लगती हैं। मानलो कोई व्यक्ति जनसभाओं में या समाज के बीच बोलने में डरता है तो अवश्य उसका मनीपूर चक्र कमजोर है अतः यदि वह मयूरासन नियमित रूप से करता है तो यह भयवृत्ति समाप्त हो जाएगी। मन और शरीर का निकटता से संबंध है और मन के द्वारा ही वृत्तियों का उपभोग किया जाता है जबकि वृत्तियाॅं ग्रंथियों से संयुक्त रहती हैं। इसलिए ग्रंथियों से स्रावित होने वाले हारमोन्स यदि अधिक हों या कम हों तो उन ग्रंथियों से सम्बद्ध वृत्तियाॅं उत्तेजित हो जाती हैं। यही कारण होता है कि कुछ लोगों में नैतिक आचरण करने और साधना करने के प्रति सच्ची इच्छा होते हुए भी वे नहीं कर पाते क्योंकि उनका मन किसी न किसी वृत्ति के प्रभाव में आकर बाह्य संसार में भटकने लगता है। यदि कोई व्यक्ति अपनी इन वृत्तियों की उत्तेजना पर नियंत्रण करना चाहता है तो उसे संबंधित ग्रंथियों के दोष को दूर करना चाहिए और इसमें योगासनें बहुत अधिक सहयोग कर सकती हैं। यही कारण है कि अष्टांग योग में आसन को यम और नियम के बाद तीसरा स्थान प्राप्त है।
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