167 बाबा की क्लास (अष्टसिद्धि )
चन्दू- परन्तु अनेक विद्वान तो सिद्धियों के आठ प्रकार मानते हैं, ये मंत्र सिद्धि से भिन्न होती हैं या सभी एक ही हैं ?
बाबा- मंत्र सिद्धि के पूर्व की अवस्थाएं आठ प्रकार की सिद्धियाॅं कहलाती हैं । वास्तव में ये आध्यात्म पथ की धूल मानी जाती हैं और मंत्र सिद्धि में बाधक बनती हैं इसलिए, इनसे सावधान रहने की सलाह दी जाती है।
इन्दु- जब इन्हें सिद्धियाॅं कहा जाता है, तो ये आध्यात्म पथ में बाधा कैसे पहुंचा सकती हैं?
बाबा- इन सिद्धियों के पा जाने पर साधक का अहंकार बढ़ने की पूरी संभावना होती है जिससे वह पथभ्रमित हो जाता है । अपने को महान सिद्ध मानकर जनसामान्य से पूजित किये जाने की इच्छा से घिर जाता है और मूल लक्ष्य से भटक जाता है। इसीलिए साधना के प्रत्येक स्तर पर हर क्षण प्राप्त होने वाली ऊर्जा को परमपुरुष को ही वापस भेंट करते जाने की सलाह गुरुगण देते रहते हैं।
राजू- ये आठ सिद्धियाॅं कौन सी हैं?
बाबा- इनके नाम हैं अणिमा, महिमा, लघिमा , प्राप्ति, ईशित्व, वशित्व, प्रकाम्य और अन्तर्यामित्व। ये सभी मिलकर ऐश्वर्य कहलाती हैं । इसीलिए जिसके पास यह सभी होती हैं वह ईश्वर कहलाता है।
इन्दु- ‘‘ अणिमा’’ नामक सिद्धि किस प्रकार की होती है?
बाबा- इसका अर्थ है अणुओं और परमाणुओं की तरह छोटे से छोटा हो जाने की क्षमता प्राप्त हो जाना। परमपुरुष को विराट कहा जाता है परन्तु वह अणिमा के कारण ही सब के मन की गहरी पर्तों में , हृदय के भीतरी क्षेत्रों में और भाभुकता के नियंत्रक बिन्दु में रहते हैं। जब हम कोई विचार मन में लाते हैं तो वे हमारे एक्टोप्लाज्मिक शरीर में सहानुभूतिक कम्पन उत्पन्न करते हैं, चूंकि वह हमारे मन में इस अणिमा द्वारा वैठे रहते हैं इसलिए प्रत्येक विचार को वे जानते हैं, वही हमारे मन के स्वामी होते हैं। उनसे कुछ भी छिपाया नहीं जा सकता। इसलिए बेकार के विचार मन में कभी नहीं लाना चाहिए । यदि कभी भूल से किसी के संबंध में अनुचित विचार आ जाय तो उसे तुरंत परमपुरुष की ओर प्रवाहित करते हुए कहना चाहिए कि ‘ हे प्रभो ! मेरे माध्यम से तुम्हारी इच्छा पूरी हो।’ साधना की प्रगति होने पर जिसके पास यह सिद्धि आ जाती है वह किसी के भी मन के विचार जान सकता है क्यों कि वह किसी के विचारों की तरंगों के साथ अपनी मानसिक तरंगों को एक समान कर सकता है।
रवि- ‘ महिमा ’ कैसी होती है और उसके पा जाने पर क्या होता है?
बाबा- महिमा का अर्थ है विराटता । अर्थात् मन की परिधि को बड़ा बना लेना इतना कि पूरा विश्व उसमें समा जाए। इस सिद्धि के प्राप्त हो जाने पर पुस्तकों के बिना पढ़े भी वह सब कुछ ज्ञान हो जाता है जो उनमें लिखा हुआ है । इस प्रकार वह व्यक्ति अनेकता में एकता का अनुभव करता है। हमारा इकाई अस्तित्व उन परमपुरुष के विराट अस्तित्व में ही आश्रय पाये हुए है । यदि इकाई मन पानी की बूंद है तो उनका मन महासागर है। इसलिए हमारे मन में उत्पन्न मानसिक तरंगे और प्रत्येक आभास उन्हीं के विराट मन के भीतर होता है। हम सभी उनसे ही सभी दसों दिशाओं से घिर हुए हैं, उनके बाहर कहीं नहीं जा सकते । जब तक हम इस सत्य से अनभिज्ञ रहते हैं तब हमें लगता है कि जो भी हम सोच रहे हैं या कर रहे हैं वह कोई नहीं जानता और जब हमें यह सच्चाई ज्ञात होती है तब तक बहुत देर हो चुकती है। इसके पा जाने पर व्यक्ति में अहंकार की पराकाष्ठा आ जाती है जो अधोपतन का कारण बनती है।
राजू- ‘तो ‘लघिमा ’ क्या है?
बाबा- लघिमा का अर्थ है सरलता। इससे हमारा मन सभी प्रकार की जिम्मेवारियों से मुक्त हो जाता है। भौतिक बंधनों से मुक्त और चिन्ता मुक्त इस प्रकार का मन अमूर्त क्षेत्र के किसी भी विचार (चाहे वह सू़क्ष्म हो या जड़ता भरा ) को अच्छी तरह समझ सकता है। आप लोग जानते हैं कि बच्चे जब बीस या तीस वर्ष के हो जाते हैं तो वे बड़े गंभीर हो जाते हैं और अपने से कम आयु के बच्चों के साथ बड़े ही नियंत्रित ढंग से बातचीत करने लगते हैं । जैसे, वे जोर से नहीं हॅसते जितना कि उन्हें स्वभावतः हॅसना चाहिए क्योंकि वे सोचने लगते हैं कि नहीं तो छोटे बच्चे उन्हें तुच्छ समझने लगेंगे। अर्थात् वास्तव में वे गंभीर नहीं होते वरन् वे गंभीर होने का बहाना करते हैं । परन्तु परमपुरुष के संबंध में यह कहा जाता है कि वे छोटे बच्चों की तरह बिलकुल सरल होते हैं। वे सरल होने का बहाना नहीं करते क्योंकि जो सारे ब्रह्माॅंड का बोझ उठाये हैं उन्हें अपने ऊपर और अधिक बोझ बढ़ाने का कोई कारण नहीं दिखता। इस सिद्धि के पाने पर साधक भी छोटे बच्चों जैसा सरल हो जाता है।
इन्दु- ‘प्राप्ति’ में क्या होता है?
बाबा- यह परमपुरुष का चौथा एश्वर्य है। इसमें व्यक्ति अपने को और अन्य अनेक लोगों को परमपुरुष की कृपा पाने के लिये सहायता कर सकता है। हम लोग कितनी इच्छायें नहीं करते, पर क्या वे सभी पूरी हो पाती हैं? नहीं। इसके अलावा एक बात यह भी है कि हम जानते ही नहीं हैं कि हमारी वास्तविक आवश्यकताएं क्या हैं। परन्तु परमपुरुष जानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति की क्या आवश्यकताएं हैं। उनकी अपनी कोई इच्छा नहीं होती परन्तु वे सब कुछ इस संसार को ही देते जाते हैं। जीवों को उनकी उपयुक्त आवश्यकता के अनुसार वे सब कुछ देते जाते हैं। या तो वे इन्हें सीधे ही दे देते हैं या परोक्ष रूप में किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से। वे यह समझा देते हैं कि किस प्रकार से आगे बढ़ें कि उनकी इच्छाएं सरलता से पूरी हो सकें। यदि लोग उनके समझाने के अनुसार नहीं चल पाते हैं तो उनकी इच्छाएं पूरी नहीं होेंगी पर यदि वे सही ढंग से उनके बताये गए रास्ते पर चलते हैं तो उनकी सभी इच्छायें पूरी होती हैं और वे बंधन मुक्त हो जाते हैं । स्पष्ट है कि इस प्रकार की सिद्धि पा जाने पर साधक को किसी भी वस्तु को पाने की इच्छा नहीं रहती और यदि होती है तो वह तत्काल पूरी हो जाती है।
चन्दू- और ‘ईशित्व’ का अर्थ क्या है?
बाबा- ‘ईश’ का अर्थ है नियंत्रण करना या शासन करना। इस सिद्धि से साधक दूसरों के मनोरोगी मन को मार्गदर्शित कर सकता है। परमपुरुष सभी पर नियंत्रण रखते हैं इतना ही नहीं वे कठोरता से शासन करते हुए जो सद् गुणी व्यक्ति होते हैं उन्हें और अधिक सद् गुणी बनने की प्रेरणा देते हैं और जो दुष्ट होते हैं, असद् गुणी होते हैं उन्हें सन्मार्ग पर लाने के अवसर देते हैं। इस प्रकार की क्षमता जिनमें आ जाती है तो कहा जाता है कि उन्हें ईशित्व की उपलब्धि हो गई है। यह भी स्पष्ट है कि जिन्हें अभी बताई गई चारों सिद्धियाॅं प्राप्त हो जाती हैं उन्हें यह ईशित्व सिद्धि भी प्राप्त हो जाती है।
रवि- ‘वशित्व’ से क्या तात्पर्य है?
बाबा- इसका अर्थ है सभी कुछ को अपने नियंत्रण में बनाए रखना । यह दूसरों के त्रुटिपूर्ण विचारों भरे मन को परम सत्ता की ओर मोड़ने में सहायता करती है। जैसे घोड़े को लगाम बाॅंधी जाए तो उस पर नियंत्रण करना सरल हो जाता है उसी प्रकार इस सिद्धि को पाने पर चर अचर सभी वश में करने की क्षमता आ जाती है और यह अन्य नाम से वशीकार सिद्धि भी कहलाती है। ध्यान रहे जहाॅं ईशित्व शासन करने की क्षमता से संबंधित है वहीं वशित्व सब पर नियंत्रण करने से संबंधित होती है।
रवि- आप ‘प्रकाम्य’ के संबंध में क्या कहेंगे?
बाबा- इसका अर्थ है इच्छामात्र से सब कुछ घटित करने की क्षमता होना। अर्थात् सोचने की सही प्रणाली जो संसार को ज्ञान का नया प्रकाश प्राप्त कराती है। इस प्रकार की सिद्धि प्राप्त साधक के मन में यदि आता है कि अमुक व्यक्ति की गंभीर बीमारी दूर हो जाए तो वह तत्काल दूर हो जाती है। प्रकृति पर उसका पूरा नियंत्रण होता है। इस संबंध में महाभारत से अनेक दृष्टान्त दिये जा सकते हैं। जैसे, कृष्ण के पास यह सिद्धि थी; जयद्रथ वध के समय उन्होंने चाहा कि सभी लोग अनुभव करें कि सूर्य अस्त हो गया है, तो सभी ने अनुभव किया कि सूर्य अस्त हो गया और जब उन्होंने चाहा कि अब सूर्य दिखाई देने लगे तो तत्काल वह दिखाई देने लगा।
इन्दु- ‘अन्तर्यामित्व’ क्या है? क्या यह ‘अणिमा’ जैसी ही होती है?
बाबा- किसी के मन में परमाणु से भी सूक्ष्मातिसूक्ष्म सत्ता के रूप में रहते हुए सभी मानसिक क्रियाओं का साक्ष्य देना अन्तर्यामित्व भी कहला सकता है परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से कुछ अन्तर है । अन्तर्यामित्व में मन और शरीर के भीतर जाकर वहाॅं होने वाली प्रत्येक और सभी गतिविधियों को जानना भी सम्मिलित होता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि इससे दूसरों के मन को पढ़ा जा सकता है। केवल शरीर के प्रत्येक अवयव में प्रवेश कर लेना ही पर्याप्त नहीं होता वहाॅं क्या और किस प्रकार घटित हो रहा है यह जानना भी आवश्यक होता है। इसके लिए साधना के साथ साथ परमपुरुष की कृपा भी आवश्यक होती है। इसलिए अन्तर्यामित्व में लोगों का अधिकतम भला करने के उद्देश्य से उनके मन की चिन्ताएं, मानसिक बीमारियाॅ और उत्सुकताओं को भी जानना आवश्यक होता है। परमपुरुष का यह आठवाॅं ऐश्वर्य कहलाता है। इस प्रकार जिसके पास यह आठों सिद्धियाॅं आ जाती हैं वही ईश्वर कहलाता है।
रवि- आपने कहा था कि साधना मार्ग पर चलते हुए यह सिद्धियाॅं धूल की तरह हमसे चिपकने की कोशिश करती हैं ; हमें इनसे सावधान रहने की सलाह दी थी ऐसा क्यों ? इनकी सहायता से यदि हम सभी का बहुत भला कर सकते हैं तो इन्हें क्यों न उपलब्ध किया जाए?
बाबा- हाॅं सही कहा था और फिर कहता हूँ कि इन से दूर रहना ही उचित है। इनके चक्कर में पड़कर अहंकार को जन्म लेते देर नहीं लगती जो अच्छे से अच्छे आत्मनियंत्रित साधक को भी पतन का रास्ता दिखा देता है। इस प्रकार, इनका सदुपयोग करने के स्थान पर दुरुपयोग होने की ही अधिक संभावना होती है। वास्तव में हम यहाॅं बहुत कम समय के लिए आए हैं अतः समय का अधिकतम सदुपयोग करते हुए हमें अपने लक्ष्य को पा लेने की ओर ही प्रयासरत रहने में भलाई है। इन सभी सिद्धियों के स्वामी परमपुरुष ही हैं और वे ही उनका कब कहाॅं और कैसा उपयोग करना है यह जानते हैं अतः यदि यह हमें अपने मार्ग में आकर प्रलोभन देती भी हैं तो उन्हें परमपुरुष की ओर ही वापस समर्पित कर देना चाहिए।
चन्दू- परन्तु अनेक विद्वान तो सिद्धियों के आठ प्रकार मानते हैं, ये मंत्र सिद्धि से भिन्न होती हैं या सभी एक ही हैं ?
बाबा- मंत्र सिद्धि के पूर्व की अवस्थाएं आठ प्रकार की सिद्धियाॅं कहलाती हैं । वास्तव में ये आध्यात्म पथ की धूल मानी जाती हैं और मंत्र सिद्धि में बाधक बनती हैं इसलिए, इनसे सावधान रहने की सलाह दी जाती है।
इन्दु- जब इन्हें सिद्धियाॅं कहा जाता है, तो ये आध्यात्म पथ में बाधा कैसे पहुंचा सकती हैं?
बाबा- इन सिद्धियों के पा जाने पर साधक का अहंकार बढ़ने की पूरी संभावना होती है जिससे वह पथभ्रमित हो जाता है । अपने को महान सिद्ध मानकर जनसामान्य से पूजित किये जाने की इच्छा से घिर जाता है और मूल लक्ष्य से भटक जाता है। इसीलिए साधना के प्रत्येक स्तर पर हर क्षण प्राप्त होने वाली ऊर्जा को परमपुरुष को ही वापस भेंट करते जाने की सलाह गुरुगण देते रहते हैं।
राजू- ये आठ सिद्धियाॅं कौन सी हैं?
बाबा- इनके नाम हैं अणिमा, महिमा, लघिमा , प्राप्ति, ईशित्व, वशित्व, प्रकाम्य और अन्तर्यामित्व। ये सभी मिलकर ऐश्वर्य कहलाती हैं । इसीलिए जिसके पास यह सभी होती हैं वह ईश्वर कहलाता है।
इन्दु- ‘‘ अणिमा’’ नामक सिद्धि किस प्रकार की होती है?
बाबा- इसका अर्थ है अणुओं और परमाणुओं की तरह छोटे से छोटा हो जाने की क्षमता प्राप्त हो जाना। परमपुरुष को विराट कहा जाता है परन्तु वह अणिमा के कारण ही सब के मन की गहरी पर्तों में , हृदय के भीतरी क्षेत्रों में और भाभुकता के नियंत्रक बिन्दु में रहते हैं। जब हम कोई विचार मन में लाते हैं तो वे हमारे एक्टोप्लाज्मिक शरीर में सहानुभूतिक कम्पन उत्पन्न करते हैं, चूंकि वह हमारे मन में इस अणिमा द्वारा वैठे रहते हैं इसलिए प्रत्येक विचार को वे जानते हैं, वही हमारे मन के स्वामी होते हैं। उनसे कुछ भी छिपाया नहीं जा सकता। इसलिए बेकार के विचार मन में कभी नहीं लाना चाहिए । यदि कभी भूल से किसी के संबंध में अनुचित विचार आ जाय तो उसे तुरंत परमपुरुष की ओर प्रवाहित करते हुए कहना चाहिए कि ‘ हे प्रभो ! मेरे माध्यम से तुम्हारी इच्छा पूरी हो।’ साधना की प्रगति होने पर जिसके पास यह सिद्धि आ जाती है वह किसी के भी मन के विचार जान सकता है क्यों कि वह किसी के विचारों की तरंगों के साथ अपनी मानसिक तरंगों को एक समान कर सकता है।
रवि- ‘ महिमा ’ कैसी होती है और उसके पा जाने पर क्या होता है?
बाबा- महिमा का अर्थ है विराटता । अर्थात् मन की परिधि को बड़ा बना लेना इतना कि पूरा विश्व उसमें समा जाए। इस सिद्धि के प्राप्त हो जाने पर पुस्तकों के बिना पढ़े भी वह सब कुछ ज्ञान हो जाता है जो उनमें लिखा हुआ है । इस प्रकार वह व्यक्ति अनेकता में एकता का अनुभव करता है। हमारा इकाई अस्तित्व उन परमपुरुष के विराट अस्तित्व में ही आश्रय पाये हुए है । यदि इकाई मन पानी की बूंद है तो उनका मन महासागर है। इसलिए हमारे मन में उत्पन्न मानसिक तरंगे और प्रत्येक आभास उन्हीं के विराट मन के भीतर होता है। हम सभी उनसे ही सभी दसों दिशाओं से घिर हुए हैं, उनके बाहर कहीं नहीं जा सकते । जब तक हम इस सत्य से अनभिज्ञ रहते हैं तब हमें लगता है कि जो भी हम सोच रहे हैं या कर रहे हैं वह कोई नहीं जानता और जब हमें यह सच्चाई ज्ञात होती है तब तक बहुत देर हो चुकती है। इसके पा जाने पर व्यक्ति में अहंकार की पराकाष्ठा आ जाती है जो अधोपतन का कारण बनती है।
राजू- ‘तो ‘लघिमा ’ क्या है?
बाबा- लघिमा का अर्थ है सरलता। इससे हमारा मन सभी प्रकार की जिम्मेवारियों से मुक्त हो जाता है। भौतिक बंधनों से मुक्त और चिन्ता मुक्त इस प्रकार का मन अमूर्त क्षेत्र के किसी भी विचार (चाहे वह सू़क्ष्म हो या जड़ता भरा ) को अच्छी तरह समझ सकता है। आप लोग जानते हैं कि बच्चे जब बीस या तीस वर्ष के हो जाते हैं तो वे बड़े गंभीर हो जाते हैं और अपने से कम आयु के बच्चों के साथ बड़े ही नियंत्रित ढंग से बातचीत करने लगते हैं । जैसे, वे जोर से नहीं हॅसते जितना कि उन्हें स्वभावतः हॅसना चाहिए क्योंकि वे सोचने लगते हैं कि नहीं तो छोटे बच्चे उन्हें तुच्छ समझने लगेंगे। अर्थात् वास्तव में वे गंभीर नहीं होते वरन् वे गंभीर होने का बहाना करते हैं । परन्तु परमपुरुष के संबंध में यह कहा जाता है कि वे छोटे बच्चों की तरह बिलकुल सरल होते हैं। वे सरल होने का बहाना नहीं करते क्योंकि जो सारे ब्रह्माॅंड का बोझ उठाये हैं उन्हें अपने ऊपर और अधिक बोझ बढ़ाने का कोई कारण नहीं दिखता। इस सिद्धि के पाने पर साधक भी छोटे बच्चों जैसा सरल हो जाता है।
इन्दु- ‘प्राप्ति’ में क्या होता है?
बाबा- यह परमपुरुष का चौथा एश्वर्य है। इसमें व्यक्ति अपने को और अन्य अनेक लोगों को परमपुरुष की कृपा पाने के लिये सहायता कर सकता है। हम लोग कितनी इच्छायें नहीं करते, पर क्या वे सभी पूरी हो पाती हैं? नहीं। इसके अलावा एक बात यह भी है कि हम जानते ही नहीं हैं कि हमारी वास्तविक आवश्यकताएं क्या हैं। परन्तु परमपुरुष जानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति की क्या आवश्यकताएं हैं। उनकी अपनी कोई इच्छा नहीं होती परन्तु वे सब कुछ इस संसार को ही देते जाते हैं। जीवों को उनकी उपयुक्त आवश्यकता के अनुसार वे सब कुछ देते जाते हैं। या तो वे इन्हें सीधे ही दे देते हैं या परोक्ष रूप में किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से। वे यह समझा देते हैं कि किस प्रकार से आगे बढ़ें कि उनकी इच्छाएं सरलता से पूरी हो सकें। यदि लोग उनके समझाने के अनुसार नहीं चल पाते हैं तो उनकी इच्छाएं पूरी नहीं होेंगी पर यदि वे सही ढंग से उनके बताये गए रास्ते पर चलते हैं तो उनकी सभी इच्छायें पूरी होती हैं और वे बंधन मुक्त हो जाते हैं । स्पष्ट है कि इस प्रकार की सिद्धि पा जाने पर साधक को किसी भी वस्तु को पाने की इच्छा नहीं रहती और यदि होती है तो वह तत्काल पूरी हो जाती है।
चन्दू- और ‘ईशित्व’ का अर्थ क्या है?
बाबा- ‘ईश’ का अर्थ है नियंत्रण करना या शासन करना। इस सिद्धि से साधक दूसरों के मनोरोगी मन को मार्गदर्शित कर सकता है। परमपुरुष सभी पर नियंत्रण रखते हैं इतना ही नहीं वे कठोरता से शासन करते हुए जो सद् गुणी व्यक्ति होते हैं उन्हें और अधिक सद् गुणी बनने की प्रेरणा देते हैं और जो दुष्ट होते हैं, असद् गुणी होते हैं उन्हें सन्मार्ग पर लाने के अवसर देते हैं। इस प्रकार की क्षमता जिनमें आ जाती है तो कहा जाता है कि उन्हें ईशित्व की उपलब्धि हो गई है। यह भी स्पष्ट है कि जिन्हें अभी बताई गई चारों सिद्धियाॅं प्राप्त हो जाती हैं उन्हें यह ईशित्व सिद्धि भी प्राप्त हो जाती है।
रवि- ‘वशित्व’ से क्या तात्पर्य है?
बाबा- इसका अर्थ है सभी कुछ को अपने नियंत्रण में बनाए रखना । यह दूसरों के त्रुटिपूर्ण विचारों भरे मन को परम सत्ता की ओर मोड़ने में सहायता करती है। जैसे घोड़े को लगाम बाॅंधी जाए तो उस पर नियंत्रण करना सरल हो जाता है उसी प्रकार इस सिद्धि को पाने पर चर अचर सभी वश में करने की क्षमता आ जाती है और यह अन्य नाम से वशीकार सिद्धि भी कहलाती है। ध्यान रहे जहाॅं ईशित्व शासन करने की क्षमता से संबंधित है वहीं वशित्व सब पर नियंत्रण करने से संबंधित होती है।
रवि- आप ‘प्रकाम्य’ के संबंध में क्या कहेंगे?
बाबा- इसका अर्थ है इच्छामात्र से सब कुछ घटित करने की क्षमता होना। अर्थात् सोचने की सही प्रणाली जो संसार को ज्ञान का नया प्रकाश प्राप्त कराती है। इस प्रकार की सिद्धि प्राप्त साधक के मन में यदि आता है कि अमुक व्यक्ति की गंभीर बीमारी दूर हो जाए तो वह तत्काल दूर हो जाती है। प्रकृति पर उसका पूरा नियंत्रण होता है। इस संबंध में महाभारत से अनेक दृष्टान्त दिये जा सकते हैं। जैसे, कृष्ण के पास यह सिद्धि थी; जयद्रथ वध के समय उन्होंने चाहा कि सभी लोग अनुभव करें कि सूर्य अस्त हो गया है, तो सभी ने अनुभव किया कि सूर्य अस्त हो गया और जब उन्होंने चाहा कि अब सूर्य दिखाई देने लगे तो तत्काल वह दिखाई देने लगा।
इन्दु- ‘अन्तर्यामित्व’ क्या है? क्या यह ‘अणिमा’ जैसी ही होती है?
बाबा- किसी के मन में परमाणु से भी सूक्ष्मातिसूक्ष्म सत्ता के रूप में रहते हुए सभी मानसिक क्रियाओं का साक्ष्य देना अन्तर्यामित्व भी कहला सकता है परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से कुछ अन्तर है । अन्तर्यामित्व में मन और शरीर के भीतर जाकर वहाॅं होने वाली प्रत्येक और सभी गतिविधियों को जानना भी सम्मिलित होता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि इससे दूसरों के मन को पढ़ा जा सकता है। केवल शरीर के प्रत्येक अवयव में प्रवेश कर लेना ही पर्याप्त नहीं होता वहाॅं क्या और किस प्रकार घटित हो रहा है यह जानना भी आवश्यक होता है। इसके लिए साधना के साथ साथ परमपुरुष की कृपा भी आवश्यक होती है। इसलिए अन्तर्यामित्व में लोगों का अधिकतम भला करने के उद्देश्य से उनके मन की चिन्ताएं, मानसिक बीमारियाॅ और उत्सुकताओं को भी जानना आवश्यक होता है। परमपुरुष का यह आठवाॅं ऐश्वर्य कहलाता है। इस प्रकार जिसके पास यह आठों सिद्धियाॅं आ जाती हैं वही ईश्वर कहलाता है।
रवि- आपने कहा था कि साधना मार्ग पर चलते हुए यह सिद्धियाॅं धूल की तरह हमसे चिपकने की कोशिश करती हैं ; हमें इनसे सावधान रहने की सलाह दी थी ऐसा क्यों ? इनकी सहायता से यदि हम सभी का बहुत भला कर सकते हैं तो इन्हें क्यों न उपलब्ध किया जाए?
बाबा- हाॅं सही कहा था और फिर कहता हूँ कि इन से दूर रहना ही उचित है। इनके चक्कर में पड़कर अहंकार को जन्म लेते देर नहीं लगती जो अच्छे से अच्छे आत्मनियंत्रित साधक को भी पतन का रास्ता दिखा देता है। इस प्रकार, इनका सदुपयोग करने के स्थान पर दुरुपयोग होने की ही अधिक संभावना होती है। वास्तव में हम यहाॅं बहुत कम समय के लिए आए हैं अतः समय का अधिकतम सदुपयोग करते हुए हमें अपने लक्ष्य को पा लेने की ओर ही प्रयासरत रहने में भलाई है। इन सभी सिद्धियों के स्वामी परमपुरुष ही हैं और वे ही उनका कब कहाॅं और कैसा उपयोग करना है यह जानते हैं अतः यदि यह हमें अपने मार्ग में आकर प्रलोभन देती भी हैं तो उन्हें परमपुरुष की ओर ही वापस समर्पित कर देना चाहिए।
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