Tuesday, 5 December 2017

168 बाबा की क्लास (अंक और अंकेश्वर )

168 बाबा की क्लास (अंक और अंकेश्वर )

नन्दू- आपने समय समय पर भगवान, ईश्वर, देवता आदि की दार्शनिक व्याख्या की है, इतना ही नहीं उनकी सीमाएं और कार्यक्षेत्र के संबंध में समझाया है परन्तु क्या परमपुरुष को गणित के अंकों द्वारा समझाया जा सकता है?
बाबा- अवश्य । पूरी गणित में ‘शून्य’ और ‘एक’ यही दो संख्यायें व्याप्त होती हैं। संख्या कितनी ही बड़ी क्यों न हो यदि गंभीरता से विचार करें तो वास्तव में संख्या ‘एक‘ ही उस बड़ी संख्या में उतनी बार समायी रहती है अतः संख्या मूलतः ‘एक‘ ही होती है। परमपुरुष ‘एक’ ही हैं ।

रवि- गणित में ‘अनन्त संख्या’ की अवधारणा भी होती है और बिन्दु की भी?
बाबा- "अनन्त" सीमा रहित है अतः संख्या ‘एक‘ ही अनन्त बार इसमें समायी हुई है। परमपुरुष को अनन्त कहा गया है। बिंदु का परिमाण नहीं होता केवल स्थिति होती है। परन्तु शून्य के साथ इनकी पारस्परिक स्थिति के अनुसार परिणाम में विचित्र परिवर्तन देखे जाते हैं।

राजू- यह परिवर्तन किस प्रकार होते हैं?
बाबा- ‘शून्य‘ और ‘एक‘ का संख्याओं में बहुत महत्व है, जैसे एक के पहले यदि शून्य लगादें तो उसका मूल्य वही रहता है और यदि आगे लगा दें तो दस गुना बढ़ जाता है। बिन्दु और शून्य का संख्या के साथ विपरीत स्वभाव होता है। बिन्दु संख्या के पहले लगाने पर उसका मूल्य दस गुना घट जाता है और आगे लगाने पर मान अपरिवर्तित रहता है।

इन्दु- तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि अस्तित्व तो केवल संख्या वह भी, ‘एक‘ का ही है । उसके अनेकत्व में अथवा मूल्य में आभासी कमी या बृद्धि होने के लिये तो ‘बिंदु और शून्य’ की स्थितियां ही उत्तरदायी होती हैं?
बाबा- इसे अच्छी तरह से समझ लो । बिंदु ‘काल‘ अर्थात् टाइम है , शून्य ‘आकाश ‘ अर्थात् स्पेस है और ‘अंक‘ है नित्य, सार्वभौमिक सत्ता। अंक, बिंदु और शून्य पारस्परिक रूप से जुड़कर जिस प्रकार अपने अनन्त आकारों में प्राप्त होते हैं उसी प्रकार  सार्वभौमिक परम आत्मतत्व, देश  और काल के पारस्परिक स्थानान्तर से अपने अनन्त स्वरूप बनाता है जिसे यह ‘सृष्टि’ कहा जाता है। हम उसके अत्यल्प भाग हैं और उसी के सापेक्ष अपना अस्तित्व रखते हैं।

चंदू- परन्तु कुछ दर्शन तो इस ‘जगत या सृष्टि’ को मिथ्या कहते हैं?
बाबा- सार्वभौमिक परमसत्ता परमसत्य है और उनकी यह सृष्टि सापेक्षिक सत्य है।

राजू- तो फिर ‘बिन्दु’ का रोल क्या है?
बाबा- ‘स्पेस और टाइम’ में जकड़ा यह प्रपंच अंततः बिन्दु में ही आश्रय पाता है क्योंकि वही उसका जनक है। इस बिंदु को आज के वैज्ञानिक भी महत्व देते हैं वे कहते हैं कि ‘ब्लेकहोल’ एक बिंदु ही है जिसमें प्रकाश  के कण अर्थात् ‘फोटान’ ही नहीं अंत में सभी गैलेक्सियाॅं और स्पेस तक अवशोषित हो जाते हैं । इस प्रकार ‘बिन्दु ’ को ‘अंक’ की शरण में जाना पड़ता है क्योंकि असली अस्तित्व अर्थात् नित्यत्व तो उसी ‘‘एक’’ का है। स्पष्ट है कि ‘बिंदु और शून्य’ के चंगुल से जो छूूट गया उसे ‘अंक’ प्राप्त हो ही जाता है यह अंक ही परमसत्ता है, परमसत्ता की अंक अर्थात् गोद है। इसी ‘एक‘ को प्राप्त करना ही मानव जीवन का लक्ष्य है।

रवि- आपने संख्या ‘एक’ को अनन्त बार समाहित करने वाली संख्या को "अनन्त" कहा परन्तु यह संख्या ‘एक’ को शून्य से विभाजित करने पर भी तो प्राप्त होती है , यह ‘अनन्त’ क्या भिन्न  या दूसरा "अनन्त" कहा जा सकता है ?
बाबा- चलो, इस समस्या का हल खोजते हैं। यदि अंक और शून्य के विभाजन पर ध्यान दें तो इस प्रकार के विचित्र परिणाम प्राप्त होते  हैंः
जैसे, संख्या 25 में संख्या 1 का भाग दें तो भजनफल 25 होगा परन्तु संख्या 25 को शून्य अर्थात् आकाश से विभाजित करें तो भजनफल होगा  ‘अनन्त‘। संख्या 50 कोे संख्या 1 से भाग दें तो भजनफल 50 होगा परन्तु शून्य से भाग दें तो भी भजनफल ‘‘अनन्त‘‘। संख्या 75 को संख्या 1 से भाग दें तो भजनफल 75 होगा परन्तु शून्य से भाग दें तो भी भजनफल ‘‘‘अनन्त‘‘‘। अब प्रश्न उठता है कि क्या उपरोक्त तीनों स्थितियों में प्राप्त  ‘अनन्त‘, ‘‘अनन्त‘‘ और ‘‘‘अनन्त‘‘‘ एक ही हैं या अलग, क्योंकि जो 25 को शून्य से विभाजित करने पर ‘अनन्त‘ प्राप्त होता है वह 50 को शून्य से विभाजित करने पर प्राप्त ‘‘अनन्त‘‘ से आधा होना चाहिए और 75 को शून्य से विभाजित करने पर प्राप्त होने वाले ‘‘‘अनन्त‘‘‘ से तिहाई होना चाहिए।  अतः अंकगणितीय तर्क से यह तीनों अनन्त एक ही नहीं हो सकते हैं । इसी तर्क के आधार पर असंख्य अनन्त हो सकते हैं जो एक समान नहीं होंगे।
इस जटिलता को वेद में इस प्रकार दूर किया गया है-
‘‘पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते, पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।’’ अर्थात् यह भी पूर्ण है और वह भी पूर्ण है। पूर्ण (परमपुरुष) से ही पूर्ण (सृष्ट जगत ) आया है । पूर्ण से यदि पूर्ण निकाल लिया जाय तब भी शेष पूर्ण ही रहता है।यह सगुण भूमा सत्ता अनन्त, वह गुणातीत सत्ता भी अनन्त। उस गुणातीत सत्ता से यह गुणान्वित भूमा सत्ता को अलग करके निकाल देने पर भी जो वियोगफल प्राप्त होगा वह भी अनन्त ही होगा।
मूल बात यही है कि असंख्य अनन्त भी सभी एक नहीं हैं और संख्याओं में कहे गए अनन्त भी सभी एक नहीं हैं। असंख्य सान्त भी सभी एक नहीं हैं और संख्याओं में व्यक्त सान्त तो एक नहीं ही हैं।

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