Monday 18 December 2017

171 बाबा की क्लास ( शिव: देवों के देव महादेव क्यों? )

171 बाबा की क्लास ( शिव: देवों के देव महादेव क्यों? )

नन्दू- बाबा! भगवान शिव को विचित्र ढंग से क्यों दर्शाया जाता है? शिव का सही अर्थ क्या है? उन्होंने वह कौन सा काम किया जिससे वे सबको प्रभावित कर सके?
बाबा- उन्हें विचित्रता देना उनका कार्य है जिन्होंने उन्हें समझा ही नहीं है। शिव का शाब्दिक अर्थ है कल्याण । दूसरा अर्थ है, अस्तित्व का चरम बिंदु । तीसरा अर्थ है, 7000 वर्ष पहले ऋग्वेद काल की समाप्ति और यजुर्वेद काल के प्रारंभ में जो भगवान सदाशिव धरती पर आये वह। उन्होंने, गौड़ीय और कश्मीरी  तन्त्र के रूप में अव्यवस्थित और बिखरे हुए ‘विद्यातंत्र’ को सुव्यवस्थित किया। उनकी ‘‘साधुता’’ ऐसी कि जिसने जो कुछ मांगा तत्काल दे दिया, ‘‘सरलता’’ ऐसी कि छोटे बड़े के भेदभाव बिना सभी के साथ निकटता एवं आत्मीयता रखना तथा हर संकट में साथ देना और ‘‘तेजस्विता’’ ऐसी कि कपटता, बाहुबल या घमंड के साथ जो भी पास आया उसे शरणागत होना ही पड़ा। उनके इन्हीं तीन गुणों ने सभी को प्रभावित किया।

इंदु- कभी आप शिव को महासंभूति कहते हैं और कभी तारक ब्रह्म, यह कैसी शब्दावली है?
बाबा- वह सत्ता जो प्रकृति को अपने वश में करके प्राणियों को प्रगति की सही दिशा देने के लिये अपने व्यक्तित्व तथा दर्शन को एकरूप कर अपने आपको व्यक्त करती है उसे महासंभूति कहते हैं। यही सत्ता जब ब्रह्मचक्र की प्रतिसंचर धारा में मनुष्यों को तेज गति से चलने की प्रेरणा देकर मुक्तिमार्ग की ओर ले जाती है तो यह व्यक्त और अव्यक्त जगत के बीच पुल अर्थात् (bridge) की तरह काम करती है, इसे तारक ब्रह्म कहा गया है। शिव, महासंभूति और तारक ब्रह्म दोनों हैं।

राजू- शिव के कार्यकाल में जो सामाजिक व्यवस्था थी क्या उन्होंने उसमें कुछ परिवर्तन किया?
बाबा- उस समय जनसामान्य, पहाड़ों पर रहा करते थे और प्रत्येक पहाड़ का एक मुखिया होता था जो ऋषि कहलाता था। संस्कृत में पहाड़ को गोत्र कहते हैं अतः मुखिया गोत्रपिता के नाम से जाना जाता था इसी कारण गोत्र बताने की पृथा चली जो किसी समूह विशेष की पहचान हेतु अभी भी प्रचलन में है। शिव के काल में विभिन्न गोत्रों में अपने आप को एक दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ में लड़ाइयां होती रहती थी। जब एक समूह अर्थात् गोत्र दूसरे को लड़ाई में जीत लेता था तो हारने वाले को जीतने वाले का गोत्र मानना पड़ता था। जीतने वाला गोत्र समूह हारने वाले समूह की सम्पत्ति और स्त्रियों को बल पूर्वक ले जाता था और पुरुषों को दास बनाकर उनके गोत्र बदल दिये जाते थे जिन्हें उपगोत्र अर्थात् प्रवर कहा जाता था। वर्तमान में  विवाह के समय वर और वधू को कपड़े से बांधना और महिलाओं की मांग लाल रंग से भरना वास्तव में उस काल में लड़कर जीतने और बंधक बनाने की पृथा का ही बदला हुआ रूप है। शिव ने विवाह व्यवस्था का नया रूप देकर इस प्रकार के लड़ाई झगड़े बंद कराये । वास्तव में विवाह नाम की संकल्पना शिव ही की देन है। उनके पूर्व यह पृथा नहीं थी, अतः माता को तो पहचाना जा सकता था पर पिता को नहीं । शिव ने विवाह नाम की संस्था को स्थापित कर समाज में इस पर आधारित ‘‘विशेष व्यवस्था के अंतर्गत जीवन निर्वाह करना‘‘ सिखाया। इसलिये वह सर्वप्रथम विवाहित पुरुष के नाम से भी जाने जाते हैं।

रवि- तो क्या उनके समय एक ही सामाजिक सभ्यता प्रचलित थी?
बाबा- नहीं, आर्य , मंगोल और द्रविड़ सभ्यतायें थीं और उनके सदस्य अपने अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिये आपस में लड़ाई झगड़े किया करते थे। शिव के काल में मातृसत्तात्मक सामाजिक प्रणाली समाप्ति की ओर थी और पितृसत्तात्मक प्रणाली उत्थान की ओर थी। फिर भी मातृ सम्पत्ति अधिकार की पृथा शिव के काल से बुद्ध और महावीर जैन के काल अर्थात् 2500 वर्ष पहले तक प्रचलित रही।

नन्दू- इन झगड़ों को शान्त करने में शिव की भूमिका क्या थी?
बाबा- उन्होंने परस्पर झगड़ने वाले आर्य, मंगोल और द्रविड़ों को एकीकृत करने की दृष्टि से तीनों सभ्यताओं की क्रमशः  उमा (पार्वती), गंगा और काली नाम की कन्याओं से विवाह किया। इस प्रकार उन्होंने परिवार को आदर्श स्वरूप देने के लिये पुरुष को उसके पालन पोषण का उत्तादायित्व देकर ‘भर्ता‘ और पत्नी को इस कार्य में उसके साथ समान रूप से सहभागी बनाने के लिये ‘कलत्र‘ कहा। ये दोनों ही शब्द पुल्लिंग में हैं अतः उन्होंने कभी भी लिंग के आधार पर भेदभाव को नहीं माना और न ही महिलाओं को पुरुषों से कम। इस प्रकार समाज को व्यवस्थित कर उसे उन्नत किये जाने को नया आयाम दिया।

राजू- शिव की वह शिक्षा कौन सी है जिसके आधार पर तत्कालीन विद्वान ऋषिगण प्रभावित हुए? क्या इसे  सरलता से समझाया जा सकता है?
बाबा- शिव ने समझाया कि प्रत्येक जड़ वस्तु चाहे वह सूर्य, और आकाशगंगायें हों या छुद्र इलेक्ट्रान सबका अस्तित्व है परंतु वे यह जानते नहीं हैं।  जबकि मनुष्य, चीटी, केंचुआ ये सब जानते हैं कि उनका अस्तित्व है। यह एग्जिस्टेंशियल फीलिंग ही वह आधार है जिस पर जीव व जगत टिका हुआ है। इसलिये ‘‘मैं हूं‘‘ इसके साक्षीबोध में उस परमपुरुष की सत्ता अदृश्य  रूप में रहती है। इसे सरलता से समझने के लिये हम भौतिकी के ‘‘बलों के त्रिभुज नियम‘‘ को ले सकते हैं जिसके अनुसार दीवार पर  संतुलन में टंगी तस्वीर के दो छोरों पर बंधी रस्सी से दो बलों को तो प्रदर्शित  किया जा सकता है पर तीसरा बल जो तस्वीर में से लगता हुआ संतुलन बनाये रखता है दिखाई नहीं देता जबकि तस्वीर दिखती है। यही अदृश्य  (सेंटिऐंट फोर्स) साक्षीस्वरूप परमपुरुष वह आधार है जो पूरे ब्रह्माॅंड को संतुलित रखते हैं।

रवि- वे ऋषि गण कौन थे जो शिव से सबसे पहले प्रभावित हुए? क्या शिव ने उन्हें अपने सामाजिक उत्थान के कार्य में लगाया?
बाबा- उस काल में लोग भोजन की तलाश में यहां वहाॅं भटकने में ही अधिकांश समय खर्च कर देते थे , अतः शिव ने ‘नन्दी’ को पशुपालन और कृषिकार्य में प्रशिक्षण देकर अन्न उत्पन्न करने का कार्य सभी को सिखाने का उत्तरदायित्व सौंपा । पहाड़ की गुफाओं के बदले, मैदानों और नदियों के किनारे भवन बनाकर रहने का प्रशिक्षण ‘विश्वकर्मा’ को देकर उन्हें भवन निर्माण शिल्प या स्थापत्य कला को सभी लोगों को सिखाकर घर बनाकर रहने की प्रेरणा देने का दायित्व दिया। शिव ने स्वस्थ रहने के लिये वैद्यकशास्त्र में ‘धनवन्तरि’ को प्रशिक्षित कर अन्य लोगों को सिखाने और सभी के स्वास्थ्य का निरीक्षण करने का काम सौंपा। इसके बाद काम करते करते लोग ऊबने न लगें इसलिए ‘भरत’ को संगीत विद्या में निपुण कर अन्य लोगों को सिखाने का और मनोरंजन करने का काम सौंप दिया। 

इंदु- तो क्या संगीत अर्थात् नृत्य, गीत और वाद्य यह सब शिव की देन है?
बाबा- हाॅं, शिव ने निरीक्षण कर सात प्रकार के प्राणियों से संगीत के स्वरों को जोड़ा जैसे, मोर षड़ज, बैल ऋषभ, बकरा गंधार, घोड़ा मध्यम, कोयल पंचम, गधा धैवत्य, और हाथी निषाद। इनके प्रथम अक्षर लेकर स्वर सप्तक बनाया, सा रे ग म प ध नि आदि। इस प्रकार शिव ने समाज को संगीत  अर्थात् नृत्य, गीत और वाद्य दिया। उन्होंने श्वाश , प्रश्वाश  आधारित लय के साथ मुद्रा को जोड़ा और अनेक प्रकार की नृत्य मुद्राओं का अनुसंधान किया। वैदिक काल में छंद था पर मुद्रा नहीं, वैदिक ज्ञान के 6 भाग थे, छंद, कल्प, निरुक्त, ज्योतिष, व्याकरण, आयुर्वेद या धनुर्वेद। उन्होंने महर्षि भरत को संगीत विद्या में प्रवीण कर इच्छुक व्यक्तियों को संगीत की शिक्षा का कार्य सौंपा।

राजू- शिव ने किस धर्म की स्थापना की?
बाबा- शिव ने ही सर्वप्रथम धर्म की अवधारणा को स्थापित किया जिसके अनुसार नैतिकता और आध्यात्मिक अभ्यास के द्वारा परमसत्ता को पाने की ललक ही वास्तविक धर्म है। तुम लोगों को शायद मालूम हो कि वेदों में किसी धर्म विशेष का उल्लेख नहीं है, उनमें विभिन्न ऋषियों की शिक्षाओं  का संग्रह है अतः समय के अनुसार उनकी शिक्षायें बदलती रही हैं। ऋग्वेद का आर्षधर्म अर्थात् ऋषियों का कथन यजुर्वेद से भिन्न है। मंत्रों का उच्चारण और जप क्रिया भी भिन्न भिन्न है। बंगाली यजुर्वेदी तथा गुजराती ऋग्वेदीय विधियों का पालन करते हैं।

चंदू- तो फिर शैव धर्म क्या है?
बाबा- आर्यों और अनार्यों की लड़ाई में अनार्यों को दास बनाकर उन्हें ‘ओम‘ शब्द के उच्चारण करने पर प्रतिबंध लगाया गया था। महिलायें भी ओम के स्थान पर केवल नमः कह सकतीं थीं। शिव ने इस प्रतिबंध को हटाया और यज्ञों में पषुओं की आहुति देने का विरोध किया। उन्होंने अहिंसा तथा शांति का मार्ग बतलाया जो कि आर्यों के  (geo and socio-sentiments) से ऊपर था। इसे ही शैव धर्म कहा गया है। विखरे हुये तंत्रयोग को उन्होंने एकीकृत किया और उसके व्यावहारिक पक्ष का महत्व समझाते हुये आव्जेक्टिव और सव्जेक्टिव संसार के बीच आदर्श  संतुलन बनाने की व्यवस्था की। इसमें किसी भी वर्णजाति की अवहेलना नहीं की गई, शैव धर्म परमपुरुष के साथ प्रीति करने का धर्म है। इसमें कर्मकांडीय विधियों अथवा घी या प्राणियों की आहुतियों का कोई विधान नहीं है।

इंदु- लेकिन शिव के साथ असुरों अर्थात् राक्षसों और भूतों के समूह को दर्शाया जाता है, यह क्या है? शिव को भूतनाथ भी कहा जाता है?
बाबा- असुर कोई डरावनी सूरत के 50 फीट लंबे या बड़े बड़े नाखूनों और दाॅंतों  वाले अर्थात् ‘एबनार्मल‘ नहीं थे, ये सेंट्रल एशिया के असीरिया देश  के निवासी थे। ये अनार्य थे अतः आर्य इनसे घृणा करते थे और असीरिया के होने के कारण उन्हें असुर कहते थे। अभी भी पलामू जिले में इनकी समाज पाई जाती है। शिव ने इनकी रक्षा करने की जिम्मेवारी ली और अपने पास ही रखा और घोषित किया  कि सभी परमपुरुष की संतान हैं और सबको जीने का अधिकार है । वे लोग शारीरिक रूप से कमजोर और दुबले पतले होते थे इसलिये कहा जाने लगा कि शिव के आस पास तो भूत प्रेत रहते हैं। तुम लोग जानते हो कि भूतों का कोई अस्तित्व नहीं है। भूत का अर्थ है जो कुछ भी जड़ या चेतन भौतिक अस्तित्व में आया है वह भूत है, चूंकि शिव ने न केवल मनुष्यों वरन् पेड़, पौधों और पशुओं को भी संरक्षण दिया था अतः उन्हें आदर से लोग पशुपतिनाथ या भूतनाथ कहने लगे । शिव सबको आदर्ष जीवन जीने में सहायता करने के लिये सदा तत्पर रहते थे।

रवि- शिव का अन्य महत्वपूर्ण अनुसंधान क्या है?
बाबा- शिव ने जीवन का कोई भी क्षेत्र अनछुआ नहीं छोड़ा, उन्होंने देखा कि जीवन, श्वास की आवृत्तियों से बंधा हुआ है। ये प्रतिदिन 21000 से 25000 तक होती हैं जो हर व्यक्ति में बदलती रहती हैं। मनुष्य की श्वास लेने की पद्धति, मन, बुद्धि और आत्मा पर प्रभाव डालती है। इडा, पिंगला, और सुषुम्ना स्वरों की पहचान और किस स्वर में जगत के किस कार्य को करना चाहिये  और आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान आदि कब करना चाहिये यह सब स्वरविज्ञान या स्वरोदय कहलाता है। शिव से पहले यह किसी को ज्ञात नहीं था, बद्ध कुंभक, शून्य कुंभक आदि इसी के अन्तर्गत आते  हैं। उन्होंने बताया कि जब इडा सक्रिय होती है तो वायां स्वर, जब पिंगला  सक्रिय होती है तो दायां स्वर और सुषुम्ना के सक्रिय होने पर दोनों नासिकाओं से स्वर चलते हैं। उन्होंने स्वर विज्ञान के नियमानुसार छंद और मुद्रा के साथ नृत्य करना सिखाया अतः इससे न केवल स्वयं करने वालों को वरन् दर्शकों को  भी लाभ पहुंचा। शिव ने अवलोकन किया कि मनुष्य शरीर में पायी जाने वाली अनेक ग्रंथियों को यदि उचित अभ्यास कराया जावे तो उनसे निकलने वाला हारमोन न केवल शरीर को वरन् आत्मा को भी लाभ देता है। परंतु कुछ ऐंसे ग्लेंड होते हैं जिन्हें नृत्य, मुद्रा और छंद से लाभ नहीं होता जैसे सोचना, याद करना आदि । अतः शिव ने तांडव नृत्य बनाया और पार्वती के सहयोग से महिलाओं के लिये कौषिकी नृत्य बनाया। तांडव में बहुत उछलना होता है, जब तक नर्तक जमीन से ऊपर होता है उसे अधिक लाभ मिलता है जमीन के संपर्क में आते ही यह लाभ षरीर में समा जाता है। अतः अधिक लाभ लेने के लिये इसमें अधिक देर तक जमीन से ऊपर रहना चाहिये। इस तरह छंद, मुद्रा और ग्रंथियों के उचित तालमेल से तांडव नृत्य दिया गया है जो ब्रेन के लिये एकमात्र एक्सरसाईज है जिसका न तो भूतकाल में कोई विकल्प था और न ही भविष्य में कोई विकल्प है।

इंदु- लेकिन ‘तांडव‘ को तो भयानक विनाश का समानार्थी बताया गया है?
बाबा- जिन्हें यथार्थता का ज्ञान नहीं है, वे इस प्रकार का प्रचार करते देखे गये हैं। ओखली और मूसल से जब धान से चावल निकाला जाता है तो वह बहुत उछलता है उसे ‘तंदुल‘ कहते हैं । तांडव नृत्य में भी बहुत उछल कूद करना पड़ती है। तांडव शब्द ‘तंदुल‘ से बना है। तुम लोगों को शायद ज्ञात हो कि संस्कृत में बिना पकाया गया चावल ‘तंदुल‘ तथा पकाया गया चावल ‘ओदन‘ कहलाता है। शुद्धोदन का अर्थ है जिसका पकाया गया चावल
शुद्ध हो अर्थात् जो ईमानदारी से अपनी रोजी रोटी कमाता हो। बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन था।

राजू- हमें शिव के परिवार के बारे में भी सही सही ज्ञान नहीं है?
बाबा- शिव के, पार्वती से पुत्र भैरव, गंगा से पुत्र कार्तिकेय और काली से पुत्री भैरवी का जन्म हुआ। भैरव और भैरवी ने शिव द्वारा स्थापित विद्यातन्त्र का अध्ययन और अनुशीलन कर उनकी आज्ञा से सभी पुरुष और स्त्रियों को प्रशिक्षित करने का दायित्व सम्हाला । परन्तु, कार्तिकेय का मन तन्त्रविद्या में नहीं लगता था वे बहिर्मुखी थे अतः शिव ने उन्हें पर्यवेक्षण का कार्य सौपा। वे नन्दी, विश्वकर्मा, धनवन्तरि, भरत, भैरव और भैरवी द्वारा किए जाने वाले कामों का पर्यवेक्षण कर प्रगति की सूचना शिव को देने के काम में लगाए गये।

रवि - तो गंगा को सिर पर बहते हुए क्यों दर्शाया जाता है?
बाबा- गंगा चाहती थीं कि उनका पुत्र भी पार्वती के पुत्र और काली की पुत्री की तरह अपने पिता द्वारा सिखाए गए विद्यातन्त्र का अनुशीलन करे। परन्तु गंगा को अपने पुत्र कार्तिकेय के बहिर्मुखी होने का बहुत दुख था। उनके मन की इस दशा को दूर करने के लिए शिव सदा ही उनकी छोटी बड़ी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए, पार्वती और काली की तुलना में प्राथमिकता देते थे। इस कारण लोग विनोदवश कहा करते कि शिव ने तो गंगा को सिर पर चढ़ा रखा है। जिसका, पुराणों में सिर पर नदी को बहते हुए वर्णन किया गया है जो किसी भी प्रकार स्वीकार्य नहीं है।

इन्दु- ओह! शिव के संबंध में आज पता चला कि उनका समाज के लिये कितना अमूल्य योगदान है, सचमुच हम सभी को पुराणों की कहानियाॅं भ्रामक और अतार्किक ज्ञान देती हैं !
बाबा- ये चर्चा तो कुछ भी नहीं है उनके बारे में कुछ भी कह पाना मनुष्य के सामर्थ्य  में नहीं है, जितने भी  देवी देवताओं के नाम पिछले 2000 वर्ष में कहानियों के माध्यम से सुनाए जाते रहे हैं वे सभी किसी न किसी प्रकार से शिव से ही संबंधित बताए जाते हैं ( जबकि शिव 7 हजार वर्ष पहले हुए) क्योंकि शिव से संबंध किए बिना उन्हें कोई मान्यता नहीं मिलती। शिव को इसीलिए देवों का देव महादेव कहा जाता है। उनके बारे में विद्वानों ने बहुत अनुसंधान किया परन्तु अन्त में यही कहना पड़ा कि ‘‘ तव तत्वम् न जानामि कि दृशोसि महेश्वरा, यादृशोसि महादेव तादृशाय नमोनमः।’’ अर्थात् हे महेश्वर ! तुम कैसे हो इस तत्व को जान पाना संभव नहीं है परन्तु तुम जैसे भी हो, हे देवों के देव महादेव ! तुम्हें वैसे ही बार बार प्रणाम करता हॅूं।

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