169 बाबा की क्लास (समय का वर्णक्रम और ओंकार )
इन्दु- आपने एक बार बताया था कि समाज को स्वरशास्त्र का ज्ञान सदाशिव ने ही सबसे पहले कराया था परन्तु हमारी लिपि में स्वर और व्यंजन नामक कुल पचास ध्वनियों का पृथक पृथक विवरण किसने दिया?
बाबा- हाॅं सही है, परंतु जब से सृष्टि की प्रतिसंचर धारा मनुष्य अवस्था तक आई मनुष्य ने धीरे धीरे अपने और सृष्टि के उद्गम को समझने का प्रयत्न प्रारंभ किया तथा अपने सभी प्रकार के ज्ञानानुभवों को ‘वेद‘ के नाम से अपने पश्चातवर्ती आगन्तुकों को मौखिक रूप से ही हस्तान्तरित करते गये। सुन सुन कर याद रखने के कारण वेद, श्रुति भी कहलाते हैं। चूूंकि सभी ध्वनियाॅं मुंह से ही उच्चारित की जाती थीं तथा उस समय तक लिपि का अनुसंधान नहीं हुआ था अतः , समय के वर्णक्रम को समझाने के लिये प्रत्येक स्वर और व्यंजन की ध्वनि उच्चारित करते हुए एक एक मुंह का आकार बनाते हुए ‘काल‘ अर्थात् ‘‘एटरनल टाइम फैक्टर‘‘ को प्रकट करने के लिये ‘कालिका‘ नामक संकल्पना को मानवीय आकार देकर सभी पचास अक्षरों में से एक ‘अ‘ (अर्थात निर्माण) उच्चारित करते हुए हाथ में और शेष उनन्चास को अन्य अक्षर उच्चारित करते हुए उनकी माला बनाकर गले में पहने हुए दर्शाया जाता रहा, ताकि उसे देखकर लोग उनका सही उच्चारण करना सीखें। परंतु जैसा कि तुम लोग जानते हो कि इसके बहुत बाद में, पौराणिक काल में मार्कंडेय पुराण में वर्णित काली या दुर्गा को इन मुंडमालाओं से विभूषित कर दिया गया है जिसका पूर्व में कहे गये ‘एटरनल टाइम फैक्टर‘ या कालिका से कोई संबंध नहीं है। पुराणों की यथार्थता के बारे में तो तुम लोग पहले ही जान चुके हो।
रवि- लेकिन पिछली कक्षाओं में आपने इन पचास ध्वनियों के संयुक्त रूप को ओंकार कहा था?
बाबा- हाॅं, सृष्टि के निर्माण के समय सबसे पहले जो ध्वनि अर्थात् ‘कास्मिक साउंड आफ क्रिएशन’ उत्पन्न हुई उसे ओंकार ध्वनि कहते हैं और उसका विश्लेषण करने पर वह स्वरों और व्यंजनों में विभक्त पचास प्रकार की मूल आवृत्तियों में अनुभव की जाती है। यह ओंकार ध्वनि आज भी ब्रह्मांड में उपस्थित है जिसे योगिक विधियों द्वारा अनुभव किया जाता है।
चन्दू- तो क्या इन मूल आवृत्तियों को समय का वर्णक्रम अर्थात् स्पेक्ट्रम कहा जा सकता है?
बाबा- समय या काल क्या है? क्रिया की गतिशीलता के ऊपर मन की कल्पना विशेष। अतः सभी प्रकार की आवृत्तियाॅं समय का स्पेक्ट्रम कही जा सकती हैं।
इन्दु- लेकिन आधुनिक वैज्ञानिक तो ‘‘टाइम और स्पेस ’’ की परिभाषा के संबंध में कुछ भी कहने से बचते हैं, उनके अनुसार इनके बारे में स्पष्ट कुछ नहीं है परन्तु वे टाइम और स्पेस को कपड़े के रेशों की तरह आपस में बुना हुआ मानते हैं?
बाबा- वैज्ञानिक इसे तब तक नहीं समझ पाएंगे जब तक वे ‘कास्मिक माइंड ’ और ‘यूनिट माइंड ’ के अस्तित्व को नहीं मान लेते। वास्तव में, इस ब्रह्मांड में देश अर्थात् स्पेस, काल अर्थात् टाइम और पात्र अर्थात् अवलोकनकर्ता इन तीनों के माध्यम से ही सम्पूर्ण ज्ञान का प्रकाशन होता है। अवलोकनकर्ता अपने मन के द्वारा ही सभी कियाओं को अवलोकित कर अपने अनुभवों को संचित करता है। इसीलिए कहा गया है कि क्रिया की गतिशीलता के ऊपर मन की कल्पना विशेष ‘टाइम’ कहलाता है, मन की सहायता से इस गतिशीलता को ग्रहण करने वाला ‘पात्र’ कहलाता है और ‘पात्र’ तथा ‘काल’ के बीच संबंध स्थापित करने वाली सत्ता ‘देश अर्थात् स्पेस’ कहलाती है।
राजू- क्या आप यह कहना चाहते हैं कि समय अवलोकनकर्ता के मन के अनुसार बदलता रहता है?
बाबा- धरती पर जो समय हम मापते हैं और किसी अन्य सोलरसिस्टम के किसी ग्रह पर जो समय मापते हैं क्या वह एक समान होता है? या स्थिर अवस्था में जो समय मापा जाता है वह गतिशील अवस्था में भी वही रह पाता है? यदि अवलोकनकर्ता अपने मापन का संदर्भ बिन्दु बदलता है तो क्या समय स्थिर रह पाता है? यह सापेक्षिता का सिद्धान्त आधुनिक वैज्ञानिकों के द्वारा ही बताया गया है कि नहीं?
चन्दू- बाबा! वैज्ञानिक तो कहते हैं कि इस ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति ‘‘बिगबेंग’’ के साथ अचानक ही हुई, परंतु विस्फोट जैसा कुछ नहीं हुआ ?
बाबा- वैज्ञानिकों के इस कथन पर चिंतन करो, ‘‘बिगबेंग, दस घात माइनस सेंतीस सेकेंड में, दस घात पन्द्रह केल्विन ताप के विकिरण के साथ, स्पेस टाइम में फैलता हुआ अचानक ही अस्तित्व में आया।‘‘ समय की सूक्ष्मता और ताप की अधिकता पर चिंतन करो? क्या वे यह भी बता सकते हैं कि यह बिगबेंग किस के द्वारा किया गया अथवा 3 से 100 गुणित, दस घात बाईस सूर्य जैसे तारों की संख्या बराबर और 80 बिलियन गेलेक्सियों में वितरित यह पदार्थ कहाॅं से आया? ‘‘कुछ नहीं ‘‘ से ‘कुछ‘ कैसे उत्पन्न हो सकता है? निष्कर्ष यही है कि कोई ऐसी सत्ता अवश्य है जिसकी इच्छा से यह सब हुआ और उनकी कल्पना से इस काॅसमस के उत्पन्न होने का प्रमाण है समय की अकल्पनीय अत्यंत कम अवधि होना । इसलिये वैज्ञानिक माने या नहीं परमसत्ता के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता इस काॅसमस के दृश्य और अदृश्य सभी पदार्थ उस ‘‘काॅस्मिक माइंड‘‘ की ही विचार तरंगें हैं।
राजू- परंतु बाबा! अनेक स्थानों और मंदिरों में भी बड़ा ‘ऊ‘ बनाकर चंद्र विन्दु लगाते हुए लिखा पाया जाता है और कहा जाता है कि इसका उच्चारण ‘ओम‘ है, भगवान का यही नाम है। इसलिये ‘‘ओम ओम‘‘ इस प्रकार का सभी भक्त लोग जाप भी करते देखे गये हैं?
बाबा- हाॅं। ओंकार ध्वनि का शुद्ध उच्चारण हो ही नहीं सकता क्योंकि वह पचास अक्षरों की आवृत्तियों का एकीकरण है। हिंदी वर्णमाला के इन सभी पचास अक्षरों को एक साथ प्रदर्शित करने के लिये इस प्रकार का संकेताक्षर बड़े ही सोच बिचार कर बनाया गया है। इसमें बड़ा ‘ऊ‘ ब्रह्म की सगुणता को अर्थात् ऊर्जा के ‘कायनेटिक‘ रूप को प्रकट करता है जिसमें ‘ अ‘, ‘उ‘ और ‘म‘ सम्मिलित होते हैं और क्रमशः उत्पत्ति, पालन और संहार का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनसे जुड़ी क्रियात्मक सत्ता को दार्शनिक नामों से क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहा गया है। ( ‘अ‘ वर्णमाला का प्रथम अक्षर है अतः इससे उत्पत्ति का, ‘उ‘ स्वरों का मध्य अक्षर है इससे पालन का और ‘म‘ सभी व्यंजनों का अंतिम है इसलिये इसे मृत्यु का द्योतक माना गया है।) चंद्र बिन्दु के नीचे की ‘वक्राकार रेखा‘ निर्गुण से सगुण के बीच की क्रियात्मकता को और ‘बिंदु‘ निर्गुण ब्रह्म को अर्थात् ऊर्जा के ‘पोटेशियल‘ रूप को प्रदर्शित करते हैं। रेखागणित में, तुम लोग यह तो जानते ही हो कि बिंदु की स्थिति अर्थात् पोजीशन तो होती है परंतु विमायें अर्थात् डायमेन्शन्स नहीं, इसीलिये निर्गुण ब्रह्म को बिंदु से प्रदर्शित किया जाता है। इस प्रकार इस ‘‘ऊॅं‘‘ संकेताक्षर में सगुण और निर्गुण को एक साथ प्रदर्शित करने का प्रयास किया गया है और अपेक्षा की गयी है कि परम सत्ता के निर्गुण से सगुण होने की अवस्था में उत्पन्न ओंकार ध्वनि को इसी के माध्यम से अनुभव किया जाये।
रवि- तो जो लोग ओम ओम जोर जोर से चिल्लाते हैं उसका कोई महत्व है या नहीं?
बाबा- नहीं, चिल्लाने का कोई महत्व नहीं है, यह अच्छी तरह से मन में बिठा लो कि ओंकार ध्वनि तो ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के क्षण से ही समग्र सृष्टि में व्याप्त है इसे ‘‘काॅसमिक साउंड आफ क्रियेशन‘‘ ही कहते हैं और लगातार अभ्यास करने पर मन से मन में ही अनुभव की जा सकती है। इसलिये यदि कोई ओम ओम चिल्लाता है तो व्यर्थ है क्योंकि जब तक उसके पीछे क्या रहस्य छिपा है यह ज्ञात न हो तो चिल्लाने से भी क्या होगा? और जब रहस्य पता चल जायेगा तो वह कुछ भी उच्चारित नहीं कर पायेगा और उसे अनुभव करने के अभ्यास में जुटना ही पड़ेगा। इसलिये तुम सब अपने अपने इष्ट मंत्र के सहारे बार बार ओंकार के साथ अनुनादित होने का अभ्यास किया करो, यही सब कुछ है, जिसने इसे अनुभव कर लिया उसने सब कुछ पा लिया। इसके पीछे विज्ञान यह है कि हम अपने ‘‘ऐंन्टिटेटिव रिद्म‘‘ और ‘‘इनकान्टिटेटिव रिद्म‘‘ में संतुलन बिठाते हुए ‘‘काॅस्मिक रिद्म‘‘ के साथ अनुनाद अर्थात् ‘‘रेजोनेन्स‘‘ स्थापित करें। इसी के सहारे हम सृष्टि के उद्गम और उसके निर्माणकर्ता तक पहुंच पाते हैं।
इन्दु- आपने एक बार बताया था कि समाज को स्वरशास्त्र का ज्ञान सदाशिव ने ही सबसे पहले कराया था परन्तु हमारी लिपि में स्वर और व्यंजन नामक कुल पचास ध्वनियों का पृथक पृथक विवरण किसने दिया?
बाबा- हाॅं सही है, परंतु जब से सृष्टि की प्रतिसंचर धारा मनुष्य अवस्था तक आई मनुष्य ने धीरे धीरे अपने और सृष्टि के उद्गम को समझने का प्रयत्न प्रारंभ किया तथा अपने सभी प्रकार के ज्ञानानुभवों को ‘वेद‘ के नाम से अपने पश्चातवर्ती आगन्तुकों को मौखिक रूप से ही हस्तान्तरित करते गये। सुन सुन कर याद रखने के कारण वेद, श्रुति भी कहलाते हैं। चूूंकि सभी ध्वनियाॅं मुंह से ही उच्चारित की जाती थीं तथा उस समय तक लिपि का अनुसंधान नहीं हुआ था अतः , समय के वर्णक्रम को समझाने के लिये प्रत्येक स्वर और व्यंजन की ध्वनि उच्चारित करते हुए एक एक मुंह का आकार बनाते हुए ‘काल‘ अर्थात् ‘‘एटरनल टाइम फैक्टर‘‘ को प्रकट करने के लिये ‘कालिका‘ नामक संकल्पना को मानवीय आकार देकर सभी पचास अक्षरों में से एक ‘अ‘ (अर्थात निर्माण) उच्चारित करते हुए हाथ में और शेष उनन्चास को अन्य अक्षर उच्चारित करते हुए उनकी माला बनाकर गले में पहने हुए दर्शाया जाता रहा, ताकि उसे देखकर लोग उनका सही उच्चारण करना सीखें। परंतु जैसा कि तुम लोग जानते हो कि इसके बहुत बाद में, पौराणिक काल में मार्कंडेय पुराण में वर्णित काली या दुर्गा को इन मुंडमालाओं से विभूषित कर दिया गया है जिसका पूर्व में कहे गये ‘एटरनल टाइम फैक्टर‘ या कालिका से कोई संबंध नहीं है। पुराणों की यथार्थता के बारे में तो तुम लोग पहले ही जान चुके हो।
रवि- लेकिन पिछली कक्षाओं में आपने इन पचास ध्वनियों के संयुक्त रूप को ओंकार कहा था?
बाबा- हाॅं, सृष्टि के निर्माण के समय सबसे पहले जो ध्वनि अर्थात् ‘कास्मिक साउंड आफ क्रिएशन’ उत्पन्न हुई उसे ओंकार ध्वनि कहते हैं और उसका विश्लेषण करने पर वह स्वरों और व्यंजनों में विभक्त पचास प्रकार की मूल आवृत्तियों में अनुभव की जाती है। यह ओंकार ध्वनि आज भी ब्रह्मांड में उपस्थित है जिसे योगिक विधियों द्वारा अनुभव किया जाता है।
चन्दू- तो क्या इन मूल आवृत्तियों को समय का वर्णक्रम अर्थात् स्पेक्ट्रम कहा जा सकता है?
बाबा- समय या काल क्या है? क्रिया की गतिशीलता के ऊपर मन की कल्पना विशेष। अतः सभी प्रकार की आवृत्तियाॅं समय का स्पेक्ट्रम कही जा सकती हैं।
इन्दु- लेकिन आधुनिक वैज्ञानिक तो ‘‘टाइम और स्पेस ’’ की परिभाषा के संबंध में कुछ भी कहने से बचते हैं, उनके अनुसार इनके बारे में स्पष्ट कुछ नहीं है परन्तु वे टाइम और स्पेस को कपड़े के रेशों की तरह आपस में बुना हुआ मानते हैं?
बाबा- वैज्ञानिक इसे तब तक नहीं समझ पाएंगे जब तक वे ‘कास्मिक माइंड ’ और ‘यूनिट माइंड ’ के अस्तित्व को नहीं मान लेते। वास्तव में, इस ब्रह्मांड में देश अर्थात् स्पेस, काल अर्थात् टाइम और पात्र अर्थात् अवलोकनकर्ता इन तीनों के माध्यम से ही सम्पूर्ण ज्ञान का प्रकाशन होता है। अवलोकनकर्ता अपने मन के द्वारा ही सभी कियाओं को अवलोकित कर अपने अनुभवों को संचित करता है। इसीलिए कहा गया है कि क्रिया की गतिशीलता के ऊपर मन की कल्पना विशेष ‘टाइम’ कहलाता है, मन की सहायता से इस गतिशीलता को ग्रहण करने वाला ‘पात्र’ कहलाता है और ‘पात्र’ तथा ‘काल’ के बीच संबंध स्थापित करने वाली सत्ता ‘देश अर्थात् स्पेस’ कहलाती है।
राजू- क्या आप यह कहना चाहते हैं कि समय अवलोकनकर्ता के मन के अनुसार बदलता रहता है?
बाबा- धरती पर जो समय हम मापते हैं और किसी अन्य सोलरसिस्टम के किसी ग्रह पर जो समय मापते हैं क्या वह एक समान होता है? या स्थिर अवस्था में जो समय मापा जाता है वह गतिशील अवस्था में भी वही रह पाता है? यदि अवलोकनकर्ता अपने मापन का संदर्भ बिन्दु बदलता है तो क्या समय स्थिर रह पाता है? यह सापेक्षिता का सिद्धान्त आधुनिक वैज्ञानिकों के द्वारा ही बताया गया है कि नहीं?
चन्दू- बाबा! वैज्ञानिक तो कहते हैं कि इस ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति ‘‘बिगबेंग’’ के साथ अचानक ही हुई, परंतु विस्फोट जैसा कुछ नहीं हुआ ?
बाबा- वैज्ञानिकों के इस कथन पर चिंतन करो, ‘‘बिगबेंग, दस घात माइनस सेंतीस सेकेंड में, दस घात पन्द्रह केल्विन ताप के विकिरण के साथ, स्पेस टाइम में फैलता हुआ अचानक ही अस्तित्व में आया।‘‘ समय की सूक्ष्मता और ताप की अधिकता पर चिंतन करो? क्या वे यह भी बता सकते हैं कि यह बिगबेंग किस के द्वारा किया गया अथवा 3 से 100 गुणित, दस घात बाईस सूर्य जैसे तारों की संख्या बराबर और 80 बिलियन गेलेक्सियों में वितरित यह पदार्थ कहाॅं से आया? ‘‘कुछ नहीं ‘‘ से ‘कुछ‘ कैसे उत्पन्न हो सकता है? निष्कर्ष यही है कि कोई ऐसी सत्ता अवश्य है जिसकी इच्छा से यह सब हुआ और उनकी कल्पना से इस काॅसमस के उत्पन्न होने का प्रमाण है समय की अकल्पनीय अत्यंत कम अवधि होना । इसलिये वैज्ञानिक माने या नहीं परमसत्ता के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता इस काॅसमस के दृश्य और अदृश्य सभी पदार्थ उस ‘‘काॅस्मिक माइंड‘‘ की ही विचार तरंगें हैं।
राजू- परंतु बाबा! अनेक स्थानों और मंदिरों में भी बड़ा ‘ऊ‘ बनाकर चंद्र विन्दु लगाते हुए लिखा पाया जाता है और कहा जाता है कि इसका उच्चारण ‘ओम‘ है, भगवान का यही नाम है। इसलिये ‘‘ओम ओम‘‘ इस प्रकार का सभी भक्त लोग जाप भी करते देखे गये हैं?
बाबा- हाॅं। ओंकार ध्वनि का शुद्ध उच्चारण हो ही नहीं सकता क्योंकि वह पचास अक्षरों की आवृत्तियों का एकीकरण है। हिंदी वर्णमाला के इन सभी पचास अक्षरों को एक साथ प्रदर्शित करने के लिये इस प्रकार का संकेताक्षर बड़े ही सोच बिचार कर बनाया गया है। इसमें बड़ा ‘ऊ‘ ब्रह्म की सगुणता को अर्थात् ऊर्जा के ‘कायनेटिक‘ रूप को प्रकट करता है जिसमें ‘ अ‘, ‘उ‘ और ‘म‘ सम्मिलित होते हैं और क्रमशः उत्पत्ति, पालन और संहार का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनसे जुड़ी क्रियात्मक सत्ता को दार्शनिक नामों से क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहा गया है। ( ‘अ‘ वर्णमाला का प्रथम अक्षर है अतः इससे उत्पत्ति का, ‘उ‘ स्वरों का मध्य अक्षर है इससे पालन का और ‘म‘ सभी व्यंजनों का अंतिम है इसलिये इसे मृत्यु का द्योतक माना गया है।) चंद्र बिन्दु के नीचे की ‘वक्राकार रेखा‘ निर्गुण से सगुण के बीच की क्रियात्मकता को और ‘बिंदु‘ निर्गुण ब्रह्म को अर्थात् ऊर्जा के ‘पोटेशियल‘ रूप को प्रदर्शित करते हैं। रेखागणित में, तुम लोग यह तो जानते ही हो कि बिंदु की स्थिति अर्थात् पोजीशन तो होती है परंतु विमायें अर्थात् डायमेन्शन्स नहीं, इसीलिये निर्गुण ब्रह्म को बिंदु से प्रदर्शित किया जाता है। इस प्रकार इस ‘‘ऊॅं‘‘ संकेताक्षर में सगुण और निर्गुण को एक साथ प्रदर्शित करने का प्रयास किया गया है और अपेक्षा की गयी है कि परम सत्ता के निर्गुण से सगुण होने की अवस्था में उत्पन्न ओंकार ध्वनि को इसी के माध्यम से अनुभव किया जाये।
रवि- तो जो लोग ओम ओम जोर जोर से चिल्लाते हैं उसका कोई महत्व है या नहीं?
बाबा- नहीं, चिल्लाने का कोई महत्व नहीं है, यह अच्छी तरह से मन में बिठा लो कि ओंकार ध्वनि तो ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के क्षण से ही समग्र सृष्टि में व्याप्त है इसे ‘‘काॅसमिक साउंड आफ क्रियेशन‘‘ ही कहते हैं और लगातार अभ्यास करने पर मन से मन में ही अनुभव की जा सकती है। इसलिये यदि कोई ओम ओम चिल्लाता है तो व्यर्थ है क्योंकि जब तक उसके पीछे क्या रहस्य छिपा है यह ज्ञात न हो तो चिल्लाने से भी क्या होगा? और जब रहस्य पता चल जायेगा तो वह कुछ भी उच्चारित नहीं कर पायेगा और उसे अनुभव करने के अभ्यास में जुटना ही पड़ेगा। इसलिये तुम सब अपने अपने इष्ट मंत्र के सहारे बार बार ओंकार के साथ अनुनादित होने का अभ्यास किया करो, यही सब कुछ है, जिसने इसे अनुभव कर लिया उसने सब कुछ पा लिया। इसके पीछे विज्ञान यह है कि हम अपने ‘‘ऐंन्टिटेटिव रिद्म‘‘ और ‘‘इनकान्टिटेटिव रिद्म‘‘ में संतुलन बिठाते हुए ‘‘काॅस्मिक रिद्म‘‘ के साथ अनुनाद अर्थात् ‘‘रेजोनेन्स‘‘ स्थापित करें। इसी के सहारे हम सृष्टि के उद्गम और उसके निर्माणकर्ता तक पहुंच पाते हैं।
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