Sunday 31 December 2017

174 बाबा की क्लास ( शिवलिंग )

मित्रो ! भगवान सदाशिव के संबंध में जानने योग्य सभी तथ्यों एवं समाज को उनके योगदान संबंधी जानकारी को आप लोग पिछली दो ‘‘ बाबा की क्लासों’’ में पा चुकेे हैं। इस क्लास में वह जानकारी दी जा रही है जिसे पाने के लिए आप सभी प्रयासरत रहे हैं पर, समाधानकारक व्याख्या प्राप्त नहीं होने के कारण उसमें आज भी भ्रम बना हुआ है। वह है ‘‘शिवलिंग’’ । इस क्लास के प्रश्नोत्तरों की प्रत्येक लाइन को ध्यानपूर्वक पढ़िए फिर मनन कीजिए और यदि तर्क तथा विज्ञान सम्मत लगती हो तो विवेकपूर्वक निर्णय लेकर उसे स्वीकार कीजिए और अन्य सभी को भी अवगत कराइए। नववर्ष 2018 की सादर  मंगलकामनाएं।

174 बाबा की क्लास ( शिवलिंग )

राजू- शिवपूजन के साथ एक बड़ा ही विचित्र और भ्रामक विधान ‘लिंगपूजा‘ का बनाया गया है यह बात समझ के बाहर है?
बाबा- प्रागैतिहासिक काल में ही नहीं वैदिक युग से पहले से ही लोग लिंगपूजा करते आये हैं। कारण यह था कि उस समय लोग दिन में या रात में कभी भी सुरक्षित नहीं थे। एक समूह दूसरे पर आक्रमण कर अपने समूह के प्रभाव को संरक्षित करना चाहता था अतः स्वाभाविक था कि उनकी संख्या अधिक हो, इसलिये लिंगपूजा को जनसंख्या बढ़ाने के उद्देश्य  से तत्कालीन समाज में मान्यता दी गई। इसीलिये, यह भी प्रचारित किया गया कि जिसके अधिक संतान होगी वे भगवान को अधिक प्रिय होंगे और समाज में आदरणीय; (दुश्परिणामतः , वर्तमान में इसके विपरीत परिवार नियोजन और छोटे परिवार की अवधारणा आई है) । तत्कालीन विश्व  के लगभग सभी देशों  में लिंगपूजा किये जाने के प्रमाण मिले हैं। अतः सत्य यही है कि लिंगपूजा को प्रागैतिहासिक काल से ही ‘‘सामाजिक रिवाज’’ के रूप में ही माना जाता था न कि आध्यात्मिक या दार्शनिक  आधार पर।

रवि- तो ‘लिंगपूजा‘ को शिव से कब और कैसे जोड़ा गया?
बाबा- जैन मत के प्रचार के समय तीर्थंकरों की नग्नमूर्तियों की पूजा ने लोगों के मन में नया विचार जगाया और लिंगपूजा को आध्यात्म से जोड़ने का कार्य प्रारंभ हुआ। जैन धर्म के प्रभाव से आज से लगभग 2500 वर्ष पहले तीर्थंकरों को नया महत्व मिलने के कारण लिंगपूजा का, जनसंख्या बढ़ाने का पुराना अर्थ बदलकर शिवतंत्र में स्वीकृत दार्शनिक और आध्यात्मिक अर्थ ‘‘ लिंगयते गमयते यस्मिन तल्लिंगम‘‘से जोड़ दिया गया। जिसका अर्थ है वह परमसत्ता जहाॅं से सभी आए हैं और जिस ओर सभी जा रहे हैं वही लिंग है। अतः समाज में यह माना जाने लगा कि सभी मानसिक और भौतिक जगत के कंपन परम रूपान्तरकारी शिवलिंग की ओर ही जा रहे हैं अतः यह शिवलिंग ही अंतिम स्थान है जहां सबको पहुंचना है। प्रागैतिहासिक काल की लिंगपूजा का इस प्रकार रूपान्तरण हो गया और पूरे भारत में फैल गया इतना ही नहीं पूर्व से स्थापित शिव का बीजमंत्र भी बदल दिया गया।

राजू- शिव का बीजमंत्र तो ‘म‘ है, उसे जैन और बौद्ध मत में किस प्रकार बदला गया?
बाबा- सर्वविदित है कि आधुनिक वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि ब्रह्म्माॅंड के प्रत्येक अस्तित्व से तरंगें निकलती हैं । यही तरंगें किसी वस्तु विशेष  की मूल आवृत्ति कहलाती है जिसे दार्शनिक  भाषा में बीजमंत्र कहते हैं। दार्शनिक  आधार पर किसी भी अस्तित्व के निर्माण करने का बीजमंत्र ‘अ‘ पालन करने का ‘उ‘ तथा नष्ट करने का ‘म‘ है। वेदों में शिव  का बीजमंत्र ‘म‘ कहा गया है जो जैनतंत्र और बौद्धतंत्र के प्रभाव से पश्चात्वर्ती शिवतंत्र  में ‘ऐम‘ कर दिया गया। चूंकि ‘ऐ‘ बारह स्वरों में से एक है और ‘वाच्य या ज्ञान’ का बीजमंत्र है । ’’ज्ञान‘‘ गुरु की वाणी से प्राप्त होता है और शिव को गुरु माना गया है अतः जैनतंत्र, बौद्धतंत्र और उत्तरशिवतंत्र में शिव का बीजमंत्र ‘‘ऐम’’ कर दिया गया जो पौराणिक काल में जब सरस्वती देवी को ज्ञान की देवी के रूप में प्रस्तुत किया गया तो ‘ऐम‘ बीज मंत्र उन्हें दे दिया गया।

रवि- कितना आश्चर्य है! जब बीजमंत्र ही बदल गया तो उसका दार्शनिक महत्व क्या रहेगा? क्या उन लोगों ने इस पर नहीं सोचा?
बाबा-सही है, जब बीजमंत्र ही बदल गया तो उससे जुड़ा प्रत्येक कार्य ही अप्रभावी हो जायेगा। ये जैन शिव, जैनसमाज में ही स्वीकृत हैं, क्योंकि सदाशिव से जोडे़ बिना उन्हें कोई महत्व नहीं मिलता। शिवतंत्र में इन्हें मान्यता नहीं दी गई है । परंतु अपने अपने मत को श्रेष्ठ कहने के प्रयास में समाज में अनेक विभाजन और उपविभाजन हुए जिससे शिवलिंग और उसके पूजन में अलग अलग मतों के अनुसार नाम भी दिये जाते रहे। किसी समूह में आदिलिंग, किसी में ज्योतिर्लिंग , किसी में अनादि लिंग। उत्तर बंगाल (तत्कालीन वारेंन्द्र भूमि) के राजकुमार ‘बाण‘ ने वाणशिवलिंग की पूजा प्रारंभ कर दी। इस तरह जैन काल में शिवलिंग की पूजा मेें अनेक परिवर्तन हुए।

इंदु- क्या बुद्ध मत पर शिव का कोई प्रभाव नहीं पड़ा?
बाबा- जिस प्रकार जैन और शैव परस्पर एक दूसरे से प्रभावित हुए उसी प्रकार बौद्ध और शैव भी। भगवान महावीर और भगवान बुद्ध की आयु में लगभग 50 वर्ष का अंतर था अतः दोनों समकालीन ही कहे जावेंगे। महायान बौद्धमत भारत, चीन और जापान में प्रभावी हो चुका था इसकी दो शाखाओं  ने तान्त्रिक पद्धति को अपना लिया था । शिव के व्यापक प्रभाव के कारण बौद्ध युग में भी उन्हें नहीं भुलाया जा सका और शिवलिंग  अथवा शिवमूर्ति की पूजा की जाती रही परंतु थोड़े संशोधन के साथ। शिव को पूर्ण देवता न मानकर उन्हें बोधिसत्व माना गया, अतः शिव की मूर्ति अथवा शिवलिंग पर बुद्ध की छोटी मूर्ति को बनाया जाने लगा जिसका अर्थ यह बताया जाने लगा कि शिव के लक्ष्य बुद्ध थे। इस प्रकार के बोधिसत्व शिव, बाद में ‘बटुकभैरव’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।

रवि - तथाकथित शिवलिंग का भगवान सदाशिव से कोई संबंध नहीं है, इसका सबसे बड़ा आधार क्या है?
बाबा- सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि शिव के ध्यान मंत्र में शिवलिंग  का कहीं भी उल्लेख नहीं है जिससे प्रकट होता है कि यह बहुत बाद में ही जोड़ा गया है।

चंदू- आपके अनुसार विद्यातन्त्र विज्ञान में शिवलिंग के सम्बंध में किस प्रकार की मान्यता है?
बाबा- तन्त्रविज्ञान में शंभूलिंग वह है जहाॅं से सृष्टि का उद्गम हुआ है। ‘शम’ का अर्थ है नियंत्रण करना और ‘भू’ का अर्थ है होना। इसलिए शंभू का अर्थ हुआ वह सत्ता जिसका आविर्भाव सांसारिक मामलों पर नियंत्रण करने के लिए हुआ है । शम + क्रि +अल = शंकर, अर्थात् सभी पर नियंत्रण करने वाली सत्ता। चूंकि यह सृष्टि के उद्गम का बिन्दु है इसलिए इसे इस सृष्ट जगत की मूल धनात्मकता कहा जाता है । अर्थात् मनुष्य सहित सभी सृष्ट वस्तुएं इस शंभूलिंग के माध्यम से ही कारणात्मक उत्पत्ति स्थान के संपर्क में आते हैं। तंत्र में लिंग की परिभाषा है ‘लिंग्यते गमयते यस्मिन तल्लिंगम’ । सम्पूर्ण सृष्टि का अन्तिम लक्ष्य यह लिंगम ही है और, जहाॅं कम्पनकारी सभी अस्तित्व अस्थायी रूप से रुकते हैं उसे कहते हैं स्वयंभूलिंग। यह स्वयंभूलिंग मनुष्य के शरीर में सुसुम्ना के अन्तिम खंड में माना गया है जिसे मूल ऋणात्मकता कहा जाता है। इसी स्वयंभूलिंग में इकाई दिव्यसत्ता सुप्तावस्था में रहती है। सभी आध्यात्मिक पथिकों के लिए यह बिन्दु ही प्रारंभिक बिन्दु होता है।

इन्दु- तंत्रविज्ञान में इसकी उपासना वैसी ही की जाती है जैसी वर्तमान में शिव मंदिरों में देखी जाती है या अलग?
बाबा- वर्तमान में की जाने वाली पूजा का कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं है। आधारहीन पौराणिक काल्पनिक कथाओं को सुनाकर भोले भाले लोगों को भ्रमित किया जाता है। विद्यातन्त्र की विधियों में महाकौल गुरु के व्यक्तिगत प्रयास से सोई हुई मूल ऋणात्मकता को मूल धनात्मकता की ओर संचालित करने का कार्य किया जाता है। अर्थात् स्वयंभूलिंग को शंभूलिंग के स्तर तक पहॅुंचाया जाता है। तन्त्र विज्ञान में इस क्रिया को पुरश्चरण कहा जाता है। महाकौल के द्वारा यह कार्य जिस मन्त्र के द्वारा किया जाता है इसे मंत्रचैतन्य या सिद्ध मंत्र कहा जाता है । आध्यात्मिक प्रगति के लिये साधारण मंत्र किसी काम का नहीं होता, सिद्ध मंत्र ही आवश्यक होता है जिसे महाकौल ही निर्मित कर सकते हैं अन्य कोई नहीं । भगवान सदाशिव महाकौल गुरु हैं। उन्होंने ही सभी प्रकार की जपक्रिया या आध्यात्मिक साधना के लिए सिद्ध मंत्रों या चैतन्य मंत्रों का अनुसंधान किया है। चैतन्य मंत्र के आघात से प्रसुप्त देवत्व जाग जाता है और संबंधित व्यक्ति के सभी संस्कार क्षय होने लगते है। इस विधि से संस्कारों को क्षय किए जाने का कार्य ही शिव उपासना या शिवलिंग पूजा कही जाती है अन्य नहीं। सभी संस्कारों के क्षय हो जाने पर इकाई ऋणात्मकता, मूल धनात्मकता के साथ एकीकृत हो जाती है इसे ही मोक्ष की अवस्था कहते हैं। अपनी इस मूल अवस्था में पहुॅंचना ही सभी जीवाधारियों का लक्ष्य है।

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