172 बाबा की क्लास ( शिव: ईश्वरों के ईश्वर, महेश्वर क्यों? )
इन्दु- आपने शिव के परिवार में ‘गणेश’ को सम्मिलित क्यों नहीं किया, क्या वे शिव के पुत्र नहीं हैं?
बाबा- नहीं। पितृ सत्तात्मक पृथा के प्रारंभ होने के बाद समूह के प्रभावी पुरुष को मुखिया के रूप में स्वीकार किया गया और गोत्रपिता नाम दिया गया। पिता की सम्पत्ति का अधिकार पुत्र को प्राप्त होने लगा। संस्कृत में समूह को गण कहते हैं अतः समूह के नायक को गणेश , गणनायक या गणपति कहा जाने लगा। इसलिये गणेश का अस्तित्व इतिहासपूर्व माना जाता है और लोग हँसी में कह भी देते हैं कि जब गणेश की पूजा सभी देवताओं के पहले की जाती है तो शिव के विवाह के समय भी गणेश की पूजा हुई होगी तो फिर गणेश , शिव के पुत्र कैसे हुए? स्पष्ट है कि गणेश , शिव, पार्वती, दुर्गा आदि के पुत्र नहीं हो सकते वे सामाजिक पृथाओं के अंतर्गत हैं , धर्म से उनका कोई संबंध नहीं है। चूंकि समूह के नेता को मोटा तगड़ा होना चाहिये अतः हाथी जैसा शरीर, समूह में संख्या की खूब बृद्धि होना चाहिये अतः वाहन के लिये चूहा (क्योंकि चूहों की संख्या अन्य प्राणियों की तुलना में तेजी से बढ़ती है) प्रतीकात्मक रूप में स्वीकार किया गया। पौराणिक काल में इसे गणपति कल्ट के रूप में स्वीकार कर धार्मिक आधार बना दिया गया। पुराणों में आपस में ही समानता नहीं है, एक ही तथ्य को अलग अलग स्थानों पर अलग अलग वर्णित किया गया है। पुराणों की कहानियां शिक्षाप्रद हैं परंतु हैं सब काल्पनिक।
रवि- शिव के ध्यान मंत्र में उन्हें ‘पंचवक्त्रम्’ कहा गया है, तो क्या सदाशिव के पाॅंच मुंह थे?
बाबा-नहीं , एक ही मुख से पांच प्रकार के प्रदर्शन करते थे। मुख्य मुंह बीच में, कल्याण सुंदरम। सबसे दायीं ओर का मुंह दक्षिणेश्वर । कल्याणसुंदरम और दक्षिणेश्वर के बीच में ईशान । सबसे वायीं ओर वामदेव और वामदेव तथा कल्याणसुन्दरम के बीच में कालाग्नि। दक्षिणेश्वर का स्वभाव मध्यम कठोर, ईशान और भी कम कठोर, कालाग्नि सबसे कठोर, परंतु कल्याणसुदरम में कठोरता बिल्कुल नहीं, वह सदा ही मुस्कराते हैं। मानलो किसी ने कुछ गलती की, दक्षिणेश्वर कहेंगे, तुमने ऐंसा क्यों किया? इसके लिये तुम्हें दंडित किया जायेगा। ईशान कहेंगे तुम गलत क्यों कर रहे हो क्या तुम्हें इसके लिये दंडित नहीं किया जाना चाहिये? कालाग्नि कहेंगे, तुम गलत क्यों कर रहे हो , मैं तुम्हें कठोर दंड दूंगा मैं इन गलतियों को सहन नहीं करूंगा, और क्षमा नहीं करूंगा। वामदेव कहेंगे, बड़े दुष्ट हो, मैं तुम्हें नष्ट कर दूंगा, जलाकर राख कर दूंगा। और कल्याणसुदरम हंसते हुए कहेंगे , ऐंसा मत करो तुम्हारा ही नुकसान होगा। इस प्रकार पांच तरह के भाव प्रकट करने के कारण शिव को पंचवक्त्र कहा जाता है।
राजू- शिव के ध्यान मंत्र में उन्हें ‘त्रिनेत्र’ क्यों कहा गया है क्या उनके तीन नेत्र थे?
बाबा- मनुष्यों का अचेतन मन सभी गुणों और ज्ञान का भंडार है। अपनी अपनी क्षमता के अनुसार लोग जागृत या स्वप्न की अवस्था में इस अपार ज्ञान का कुछ भाग अचेतन से अवचेतन में और उससे भी कम अवचेतन से चेतन मन तक ला पाते हैं। परंतु व्यक्ति सभी असीमित ज्ञान को अचेतन मन से अवचेतन या चेतन मन में नहीं ला सकते हैं। यदि कोई ऐंसा कर सकता है तो यह क्रिया ‘‘ज्ञान को ज्ञाननेत्र से देखना’’ कहलाती हैं। यह ज्ञाननेत्र तृतीय नेत्र के नाम से जाना जाता है। शिव अनन्त ज्ञान के भंडार थे अतः कहा जाता है कि उनका ज्ञान नेत्र बहुत ही विकसित था। वे त्रिकालदर्शी थे अतः ध्यान मंत्र में त्रिनेत्रम् कहा गया है।
चंदु- शिव को कुछ लोग सदा ही नशे में डूबा रहने वाला मानते हैं और कहते हैं कि वे नशैली चीजें, भांग धतूरा, शराब आदि देने पर प्रसन्न होते हैं?
बाबा- कुछ अज्ञानियों ने इस प्रकार का व्यर्थ प्रचार कर रखा है। इस संबंध में सच्चाई को इस प्रकार समझ सकते हैं, मानव शरीर में सूक्ष्म ऊर्जा के अनेक केन्द्र और उपकेन्द्र हैं जिन्हें चक्र या पद्म कहते हैं इन चक्रों से विभिन्न प्रकार के हारमोन्स उत्सर्जित होते रहते हैं जो विभिन्न वृत्तियोंको नियंत्रित करते हैं। इन वृत्तियोंके नियंत्रक विंदु जिनकी संख्या 50 है वे इन 9 चक्रों में अपने अपने रंग और ध्वनि के साथ स्थित होते हैं। ये पचास ध्वनियां ही मूल स्वर और व्यंजन के रूप में हम सभी उच्चारित करते हैं। सामान्यतः उच्च स्थित चक्र से निकलने वाला हारमोन निम्न स्थित चक्रों को अपने रंग और ध्वनि से प्रभावित करता है। सर्वोच्च स्थित सहस्रार चक्र निम्न स्थित सभी चक्रों को प्रभावित कर 1000 वृत्तियोंको नियंत्रित करता है। सहस्रार से निकलने वाला यह हारमोन मानव मन और हृदय को अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति कराता है जिससे आत्मिक उन्नति होती है और मनुष्य विचारमुक्त अवस्था में आ जाता है। यह दिव्य अमृत प्रत्येक व्यक्ति के सहस्रार से निकलता रहता है पर मनुष्यों का मन प्रायः भौतकवादी मामलों या वस्तुओं के चिंतन में ही उलझा रहता है इसलिये वह वहीं पर अवशोषित हो जाता है, नीचे के चक्रों को प्रभावित नहीं कर पाता है। परंतु यदि इस हारमोन के उत्सर्जन के समय व्यक्ति आध्यात्मिक चिंतन में मन को लगाये रहे तो वह आध्यात्मिक उन्नति कर आनंददायी मनःस्थिति का अनुभव करता है और बाहर से लोग उसे देखकर समझने लगते हैं कि यह तो शराबी है। शिव हमेशा इसी उच्च अवस्था में ही रहते थे अतः अनेक लोग जो भांग, अफीम आदि का नशा किया करते थे वे प्रचारित करने लगे कि शिव भी इन नशीली चीजों का उपयोग करते हैं।
राजू- सिर पर गंगा के होने का रहस्य तो पिछली बार आपने बताया था, परन्तु क्या उनके सिर पर चंद्रमा भी था? चित्रों में तो यह विचित्रता दर्शायी जाती है?
बाबा- चारुचंद्रावतंसम् , अर्थात् सुंदर चंद्रमा जिनका मुकुट है। क्या सचमुच शिव के सिर पर चंद्रमा का मुकुट था? सहस्रार से निकलने वाले दिव्य अमृत अर्थात् हारमोन के प्रभाव को समझने वाले अन्य लोग सोचते थे कि चंद्रमा की 16 कलाओं में से प्रतिपदा से पूर्णिमा तक प्रतिदिन एक एक कला दिखाई देती है पर सोलहवीं कभी नहीं अतः शायद इसी से अमृत निकलता है। इसे ‘अमाकला‘ नाम भी दिया गया, वे कहने लगे कि इस अमृत के प्रभाव से शिव अपने आप में ही मग्न रहा करते हैं । इसलिये, अनेक लोगों का मत था कि यह अदृश्य सोलहवीं चंद्रकला शिव के ही मस्तक पर होना चाहिये। इसतरह उनके ध्यानमंत्र में उन्हें ‘चारुच्रद्रावतंसं ’ कहा गया है। सहस्रार के इस दिव्य अमृत के उत्सर्जन से शिव अपने वाह्य जगत और अन्य आवश्यकताओं से अनजान, भोलेभाले दिखाई पड़ते थे अतः उन्हें लोग भोलानाथ भी कहने लगे थे।
रवि- आपने पिछली बार यह बताया है कि देवों के देव महादेव शिव, आज से सात हजार वर्ष पहले धरती पर थे और पौराणिक धर्म जिसने आज के समय में अपनी कहानियों से समाज को जकड़ रखा है तेरह सौ वर्ष पहले आया; तो इस बीच के छै हजार वर्षों में क्या किसी ने शिव को याद ही नहीं किया?
बाबा- शिव तो जन जन के हृदय में महासंभूति के रूप में प्रारंभ से ही स्थापित हो चुके थे परंतु उनके बाद लिपि के अनुसंधान हो जाने से भोजपत्र पर लिखना प्रारंभ हुआ और समय समय पर आये विद्वानों ने अपने अपने दार्शनिक सिद्वान्तों से लोगों का ध्यान बाॅंटना प्रारंभ कर दिया जैसे, महर्षि कपिल ने सांख्य, पतंजली ने योग,कणाद ने वैशेषिक,जैमिनी ने पूर्व मीमांसा, बादरायण व्यास ने उत्तर मीमांसा आदि। इन्हीं के समर्थन में गौड़पाद, गोविन्दपाद, शंकराचार्य ने मायावाद, बृहस्पति या चार्वाक ने भोगवादी सिद्धान्त, वर्धमान महावीर ने महानिर्वाणवाद या कर्मनिर्वाण, गौतमबुद्ध ने ज्ञाननिर्वाण, आदि का प्रतिपादन किया जिनसे शिव के द्वारा दी गयी मूल शिक्षायें इनके आधार में नीव के पत्थर की तरह दबती चली गयीं और आज का प्रदर्शनवाद और भौतिकवाद लोगों के मन और मस्तिष्क में छा गया।
चंदू- क्या यह सभी सिद्धान्त आजकल प्रभावी हैं?
बाबा- भारत में बौद्ध धर्म का प्रभाव घटने और पौराणिक धर्म के प्रभावी होने के समय विभिन्न सिद्धान्तों और मतवादों को पौराणिक कल्ट में पांच विभागों में बाॅंट दिया गया वे हैं, शिवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, सौराचार, और गणपत्याचार। तत्कालीन बंगाल के राजकुमार मत्स्येन्द्रनाथ, नाथ कल्ट के अनुयायी थे अतः इनके समय बौद्ध और जैन धर्म में तथा उपरोक्त पांच उपविभागों में बहुत परिवर्तन हुये। महाराष्ट्र में गणपत्याचार (गणेश केन्द्रित), लगभग इसी समय बंगाल में शाक्ताचार (जिसमें पशु बलि का विधान किया गया), दक्षिण भारत में शिवाचार और शेष भारत में वैष्णवाचार उदित हुआ। सेक्डोनियन ब्राह्मणों ने सौराचार अपनाया क्योंकि वे सूर्य को ही प्रधानता देते थे और ज्योतिष का कार्य करते थे, ये लोग जहां भी रहे सूर्य मंदिर बनवाये। सूर्य देवता अफगानियों की तरह ढीले पाजामा जैकेट पहने सिर पर टोपी और हाथ में रोजरी लिये दिखाये गये हैं।
रवि- आज से 1300-1400 वर्ष पूर्व, पौराणिक कथाओं के अनुसार तत्कालीन प्रचलित अनेक मान्यताओं को शंकराचार्य ने शैवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, गणपत्याचार, और सौराचार भागों में विभाजित कर इन्हें उपासना पद्धतियों का नाम दिया लेकिन इनमें निहित तत्व क्या हैं? जिन्हें लोगों ने अपनी रुचि के अनुसार उनका पालन करना प्रारंभ किया।
बाबा- शैवाचार का लक्ष्य शिवसमाधि अर्थात् आत्मसाक्षात्कार है, इसमें बाहरी वृत्तियों को आन्तरिक करते हुए अंत में परमात्मा में मिलाने का अभ्यास किया जाता है। ‘‘यच्छेद्वांग्मनसो प्रज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महती नियच्छेद् तद्यच्छेद्छान्तात्मनि‘‘। शाक्ताचार के अनुसार तामसिक शक्ति को भवानी या कालिका शक्ति में मिलाना चाहिए जिसका बीजमंत्र ‘‘सम्‘‘ है, इसमें से राजसिक शक्ति को निकालकर भैरवीशक्ति में मिलानाचाहिये जिसका बीज मंत्र है ‘‘शम्‘‘। इससे सात्विक शक्ति को खींचकर कौषिकीशक्ति में मिला देना चाहिये। पौराणिक शाक्ताचार के ये क्रमागत पद हैं जिन पर चलकर साधक लाभ पाता है। यहाँ कालिकाशक्ति का आशय दार्शनिक है, शिव की पत्नी काली अथवा बौद्ध और शिवोत्तर तंत्र की कालिकाशक्ति से इसका कोई संबंध नहीं है। वैष्णवाचार में विश्व की सभी वस्तुओं में विष्णु को व्याप्त मानकर उपासना की जाती है, ‘विस्तारः सर्वभूतस्यविष्णोरविश्वमिदम जगत्, द्रष्टव्यमआत्मवत् तस्माद्भेदेन विचक्षनैः। गणपत्याचार में प्राचीनकाल के समूह नेतृत्व वाले गणपति को चुनकर समूह के स्थान पर विश्व के नेता का भाव दिया गया और इन्हें ही परमपुरुष के रूपमें उपासना हेतु कहा गया है। सौराचार मूलतः सूर्य की उपासना से संबंधित है जो दक्षिण रूस के सेक्डोनिया से आये ब्राह्मणों की उपासना पद्धति है। सेक्डोनियन ब्राह्मण वेद या अन्य कोई पद्धति नहीं मानते थे वे केवल ज्योतिष और आयुर्वेद को ही मान्यता देते थे अतः उनके सूर्य ही उपास्य देवता थे क्योंकि वे मानते थे कि सूर्य से ही पृथ्वी चंद्र और अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई है अतः विश्व के नियन्ता सूर्य ही हैं। यह मत सीमित क्षेत्रों में ही माना गया। इस प्रकार पौराणिक मान्यताओं को व्यापक प्रसार नहीं मिल पाया क्योंकि इसके कुछ भागों को दार्शनिक मान्यता थी और कुछ को नहीं।
राजू- परंतु आज कल तो पौराणिक धर्म के सिद्धान्तों का ही बोलबाला है जिन्हें जगद्गुरु शंकराचार्य के द्वारा प्रतिपादित किया गया कहा जाता है और उन्हें भगवान शिव का अवतार माना गया है?
बाबा-हाॅं बौद्ध और जैन धर्म का प्रभाव घटने और पौराणिक धर्म का प्रभाव बढ़ने के बीच के संधिकाल में शंकराचार्य का उद्भव हुआ जिन्होंने इन पांचों विभागों को एकीकरण करने का कार्य किया। इन्हें शिव का अवतार घोषित किया गया क्योंकि शिव से संबंधित किए बिना उन्हें शायद महत्व कम मिलता। शिव का अवतार कहा जाना ही प्रकट करता है कि किसी भी नये सिद्धान्त को जनसामान्य से मान्यता दिलाने के लिये उसे शिव से जोड़े बिना संभव नहीं है। शिव की दिव्यता इसी से सिद्ध हो जाती है।
नन्दू- परंतु ये सभी अपने अपने को श्रेष्ठ कहते हुए जन सामान्य के बीच मतभेद और वैमनस्य तो फैला रहे हैं, वे सभी अपने अपने धर्म प्रवर्तकों को ही ईश्वर और भगवान कहते हैं?
बाबा- जब किसी का व्यक्तित्व और दर्शन पूर्णतः एक समान हो जाते हैं तो वह देवता हो जाता है। ‘‘द्योतते क्रीडते यस्मात् उदयते द्योतते दिवि, तस्मात् देव इति प्रोक्तः स्तूयते सर्व देवतैः।‘‘ अर्थात् ब्रह्मांड के नाभिक से उत्सर्जित होने वाले जीवन के अनंत आकार जो समग्र ब्रह्मांड में गतिशील हैं और प्रत्येक अस्तित्व के भीतर रहकर सबको प्रभावित करते हैं, देवता कहलाते हैं। इन प्रवर्तकों को इस परिभाषा के अनुसार जाॅंच करने पर यदि सही लगता है तो वे देवता कहला सकते हैं अन्यथा नहीं। चूंकि शिव का आदर्श उनके जीवन से विलकुल एकीकृत है अतः इस परिभाषा के अनुसार उन्हें देवता कहा जाना सार्थक है। परंतु शिव के व्यक्तित्व के अनुसार वह तो समग्र देवताओं के समाहार हैं अतः देवता शब्द तो उनके लिये बहुत छोटा लगता हैं, वे तो देवताओं के भी देवता हैं अर्थात् महादेव हैं, महेश्वर हैं।
इन्दु- आपने शिव के परिवार में ‘गणेश’ को सम्मिलित क्यों नहीं किया, क्या वे शिव के पुत्र नहीं हैं?
बाबा- नहीं। पितृ सत्तात्मक पृथा के प्रारंभ होने के बाद समूह के प्रभावी पुरुष को मुखिया के रूप में स्वीकार किया गया और गोत्रपिता नाम दिया गया। पिता की सम्पत्ति का अधिकार पुत्र को प्राप्त होने लगा। संस्कृत में समूह को गण कहते हैं अतः समूह के नायक को गणेश , गणनायक या गणपति कहा जाने लगा। इसलिये गणेश का अस्तित्व इतिहासपूर्व माना जाता है और लोग हँसी में कह भी देते हैं कि जब गणेश की पूजा सभी देवताओं के पहले की जाती है तो शिव के विवाह के समय भी गणेश की पूजा हुई होगी तो फिर गणेश , शिव के पुत्र कैसे हुए? स्पष्ट है कि गणेश , शिव, पार्वती, दुर्गा आदि के पुत्र नहीं हो सकते वे सामाजिक पृथाओं के अंतर्गत हैं , धर्म से उनका कोई संबंध नहीं है। चूंकि समूह के नेता को मोटा तगड़ा होना चाहिये अतः हाथी जैसा शरीर, समूह में संख्या की खूब बृद्धि होना चाहिये अतः वाहन के लिये चूहा (क्योंकि चूहों की संख्या अन्य प्राणियों की तुलना में तेजी से बढ़ती है) प्रतीकात्मक रूप में स्वीकार किया गया। पौराणिक काल में इसे गणपति कल्ट के रूप में स्वीकार कर धार्मिक आधार बना दिया गया। पुराणों में आपस में ही समानता नहीं है, एक ही तथ्य को अलग अलग स्थानों पर अलग अलग वर्णित किया गया है। पुराणों की कहानियां शिक्षाप्रद हैं परंतु हैं सब काल्पनिक।
रवि- शिव के ध्यान मंत्र में उन्हें ‘पंचवक्त्रम्’ कहा गया है, तो क्या सदाशिव के पाॅंच मुंह थे?
बाबा-नहीं , एक ही मुख से पांच प्रकार के प्रदर्शन करते थे। मुख्य मुंह बीच में, कल्याण सुंदरम। सबसे दायीं ओर का मुंह दक्षिणेश्वर । कल्याणसुंदरम और दक्षिणेश्वर के बीच में ईशान । सबसे वायीं ओर वामदेव और वामदेव तथा कल्याणसुन्दरम के बीच में कालाग्नि। दक्षिणेश्वर का स्वभाव मध्यम कठोर, ईशान और भी कम कठोर, कालाग्नि सबसे कठोर, परंतु कल्याणसुदरम में कठोरता बिल्कुल नहीं, वह सदा ही मुस्कराते हैं। मानलो किसी ने कुछ गलती की, दक्षिणेश्वर कहेंगे, तुमने ऐंसा क्यों किया? इसके लिये तुम्हें दंडित किया जायेगा। ईशान कहेंगे तुम गलत क्यों कर रहे हो क्या तुम्हें इसके लिये दंडित नहीं किया जाना चाहिये? कालाग्नि कहेंगे, तुम गलत क्यों कर रहे हो , मैं तुम्हें कठोर दंड दूंगा मैं इन गलतियों को सहन नहीं करूंगा, और क्षमा नहीं करूंगा। वामदेव कहेंगे, बड़े दुष्ट हो, मैं तुम्हें नष्ट कर दूंगा, जलाकर राख कर दूंगा। और कल्याणसुदरम हंसते हुए कहेंगे , ऐंसा मत करो तुम्हारा ही नुकसान होगा। इस प्रकार पांच तरह के भाव प्रकट करने के कारण शिव को पंचवक्त्र कहा जाता है।
राजू- शिव के ध्यान मंत्र में उन्हें ‘त्रिनेत्र’ क्यों कहा गया है क्या उनके तीन नेत्र थे?
बाबा- मनुष्यों का अचेतन मन सभी गुणों और ज्ञान का भंडार है। अपनी अपनी क्षमता के अनुसार लोग जागृत या स्वप्न की अवस्था में इस अपार ज्ञान का कुछ भाग अचेतन से अवचेतन में और उससे भी कम अवचेतन से चेतन मन तक ला पाते हैं। परंतु व्यक्ति सभी असीमित ज्ञान को अचेतन मन से अवचेतन या चेतन मन में नहीं ला सकते हैं। यदि कोई ऐंसा कर सकता है तो यह क्रिया ‘‘ज्ञान को ज्ञाननेत्र से देखना’’ कहलाती हैं। यह ज्ञाननेत्र तृतीय नेत्र के नाम से जाना जाता है। शिव अनन्त ज्ञान के भंडार थे अतः कहा जाता है कि उनका ज्ञान नेत्र बहुत ही विकसित था। वे त्रिकालदर्शी थे अतः ध्यान मंत्र में त्रिनेत्रम् कहा गया है।
चंदु- शिव को कुछ लोग सदा ही नशे में डूबा रहने वाला मानते हैं और कहते हैं कि वे नशैली चीजें, भांग धतूरा, शराब आदि देने पर प्रसन्न होते हैं?
बाबा- कुछ अज्ञानियों ने इस प्रकार का व्यर्थ प्रचार कर रखा है। इस संबंध में सच्चाई को इस प्रकार समझ सकते हैं, मानव शरीर में सूक्ष्म ऊर्जा के अनेक केन्द्र और उपकेन्द्र हैं जिन्हें चक्र या पद्म कहते हैं इन चक्रों से विभिन्न प्रकार के हारमोन्स उत्सर्जित होते रहते हैं जो विभिन्न वृत्तियोंको नियंत्रित करते हैं। इन वृत्तियोंके नियंत्रक विंदु जिनकी संख्या 50 है वे इन 9 चक्रों में अपने अपने रंग और ध्वनि के साथ स्थित होते हैं। ये पचास ध्वनियां ही मूल स्वर और व्यंजन के रूप में हम सभी उच्चारित करते हैं। सामान्यतः उच्च स्थित चक्र से निकलने वाला हारमोन निम्न स्थित चक्रों को अपने रंग और ध्वनि से प्रभावित करता है। सर्वोच्च स्थित सहस्रार चक्र निम्न स्थित सभी चक्रों को प्रभावित कर 1000 वृत्तियोंको नियंत्रित करता है। सहस्रार से निकलने वाला यह हारमोन मानव मन और हृदय को अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति कराता है जिससे आत्मिक उन्नति होती है और मनुष्य विचारमुक्त अवस्था में आ जाता है। यह दिव्य अमृत प्रत्येक व्यक्ति के सहस्रार से निकलता रहता है पर मनुष्यों का मन प्रायः भौतकवादी मामलों या वस्तुओं के चिंतन में ही उलझा रहता है इसलिये वह वहीं पर अवशोषित हो जाता है, नीचे के चक्रों को प्रभावित नहीं कर पाता है। परंतु यदि इस हारमोन के उत्सर्जन के समय व्यक्ति आध्यात्मिक चिंतन में मन को लगाये रहे तो वह आध्यात्मिक उन्नति कर आनंददायी मनःस्थिति का अनुभव करता है और बाहर से लोग उसे देखकर समझने लगते हैं कि यह तो शराबी है। शिव हमेशा इसी उच्च अवस्था में ही रहते थे अतः अनेक लोग जो भांग, अफीम आदि का नशा किया करते थे वे प्रचारित करने लगे कि शिव भी इन नशीली चीजों का उपयोग करते हैं।
राजू- सिर पर गंगा के होने का रहस्य तो पिछली बार आपने बताया था, परन्तु क्या उनके सिर पर चंद्रमा भी था? चित्रों में तो यह विचित्रता दर्शायी जाती है?
बाबा- चारुचंद्रावतंसम् , अर्थात् सुंदर चंद्रमा जिनका मुकुट है। क्या सचमुच शिव के सिर पर चंद्रमा का मुकुट था? सहस्रार से निकलने वाले दिव्य अमृत अर्थात् हारमोन के प्रभाव को समझने वाले अन्य लोग सोचते थे कि चंद्रमा की 16 कलाओं में से प्रतिपदा से पूर्णिमा तक प्रतिदिन एक एक कला दिखाई देती है पर सोलहवीं कभी नहीं अतः शायद इसी से अमृत निकलता है। इसे ‘अमाकला‘ नाम भी दिया गया, वे कहने लगे कि इस अमृत के प्रभाव से शिव अपने आप में ही मग्न रहा करते हैं । इसलिये, अनेक लोगों का मत था कि यह अदृश्य सोलहवीं चंद्रकला शिव के ही मस्तक पर होना चाहिये। इसतरह उनके ध्यानमंत्र में उन्हें ‘चारुच्रद्रावतंसं ’ कहा गया है। सहस्रार के इस दिव्य अमृत के उत्सर्जन से शिव अपने वाह्य जगत और अन्य आवश्यकताओं से अनजान, भोलेभाले दिखाई पड़ते थे अतः उन्हें लोग भोलानाथ भी कहने लगे थे।
रवि- आपने पिछली बार यह बताया है कि देवों के देव महादेव शिव, आज से सात हजार वर्ष पहले धरती पर थे और पौराणिक धर्म जिसने आज के समय में अपनी कहानियों से समाज को जकड़ रखा है तेरह सौ वर्ष पहले आया; तो इस बीच के छै हजार वर्षों में क्या किसी ने शिव को याद ही नहीं किया?
बाबा- शिव तो जन जन के हृदय में महासंभूति के रूप में प्रारंभ से ही स्थापित हो चुके थे परंतु उनके बाद लिपि के अनुसंधान हो जाने से भोजपत्र पर लिखना प्रारंभ हुआ और समय समय पर आये विद्वानों ने अपने अपने दार्शनिक सिद्वान्तों से लोगों का ध्यान बाॅंटना प्रारंभ कर दिया जैसे, महर्षि कपिल ने सांख्य, पतंजली ने योग,कणाद ने वैशेषिक,जैमिनी ने पूर्व मीमांसा, बादरायण व्यास ने उत्तर मीमांसा आदि। इन्हीं के समर्थन में गौड़पाद, गोविन्दपाद, शंकराचार्य ने मायावाद, बृहस्पति या चार्वाक ने भोगवादी सिद्धान्त, वर्धमान महावीर ने महानिर्वाणवाद या कर्मनिर्वाण, गौतमबुद्ध ने ज्ञाननिर्वाण, आदि का प्रतिपादन किया जिनसे शिव के द्वारा दी गयी मूल शिक्षायें इनके आधार में नीव के पत्थर की तरह दबती चली गयीं और आज का प्रदर्शनवाद और भौतिकवाद लोगों के मन और मस्तिष्क में छा गया।
चंदू- क्या यह सभी सिद्धान्त आजकल प्रभावी हैं?
बाबा- भारत में बौद्ध धर्म का प्रभाव घटने और पौराणिक धर्म के प्रभावी होने के समय विभिन्न सिद्धान्तों और मतवादों को पौराणिक कल्ट में पांच विभागों में बाॅंट दिया गया वे हैं, शिवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, सौराचार, और गणपत्याचार। तत्कालीन बंगाल के राजकुमार मत्स्येन्द्रनाथ, नाथ कल्ट के अनुयायी थे अतः इनके समय बौद्ध और जैन धर्म में तथा उपरोक्त पांच उपविभागों में बहुत परिवर्तन हुये। महाराष्ट्र में गणपत्याचार (गणेश केन्द्रित), लगभग इसी समय बंगाल में शाक्ताचार (जिसमें पशु बलि का विधान किया गया), दक्षिण भारत में शिवाचार और शेष भारत में वैष्णवाचार उदित हुआ। सेक्डोनियन ब्राह्मणों ने सौराचार अपनाया क्योंकि वे सूर्य को ही प्रधानता देते थे और ज्योतिष का कार्य करते थे, ये लोग जहां भी रहे सूर्य मंदिर बनवाये। सूर्य देवता अफगानियों की तरह ढीले पाजामा जैकेट पहने सिर पर टोपी और हाथ में रोजरी लिये दिखाये गये हैं।
रवि- आज से 1300-1400 वर्ष पूर्व, पौराणिक कथाओं के अनुसार तत्कालीन प्रचलित अनेक मान्यताओं को शंकराचार्य ने शैवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, गणपत्याचार, और सौराचार भागों में विभाजित कर इन्हें उपासना पद्धतियों का नाम दिया लेकिन इनमें निहित तत्व क्या हैं? जिन्हें लोगों ने अपनी रुचि के अनुसार उनका पालन करना प्रारंभ किया।
बाबा- शैवाचार का लक्ष्य शिवसमाधि अर्थात् आत्मसाक्षात्कार है, इसमें बाहरी वृत्तियों को आन्तरिक करते हुए अंत में परमात्मा में मिलाने का अभ्यास किया जाता है। ‘‘यच्छेद्वांग्मनसो प्रज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महती नियच्छेद् तद्यच्छेद्छान्तात्मनि‘‘। शाक्ताचार के अनुसार तामसिक शक्ति को भवानी या कालिका शक्ति में मिलाना चाहिए जिसका बीजमंत्र ‘‘सम्‘‘ है, इसमें से राजसिक शक्ति को निकालकर भैरवीशक्ति में मिलानाचाहिये जिसका बीज मंत्र है ‘‘शम्‘‘। इससे सात्विक शक्ति को खींचकर कौषिकीशक्ति में मिला देना चाहिये। पौराणिक शाक्ताचार के ये क्रमागत पद हैं जिन पर चलकर साधक लाभ पाता है। यहाँ कालिकाशक्ति का आशय दार्शनिक है, शिव की पत्नी काली अथवा बौद्ध और शिवोत्तर तंत्र की कालिकाशक्ति से इसका कोई संबंध नहीं है। वैष्णवाचार में विश्व की सभी वस्तुओं में विष्णु को व्याप्त मानकर उपासना की जाती है, ‘विस्तारः सर्वभूतस्यविष्णोरविश्वमिदम जगत्, द्रष्टव्यमआत्मवत् तस्माद्भेदेन विचक्षनैः। गणपत्याचार में प्राचीनकाल के समूह नेतृत्व वाले गणपति को चुनकर समूह के स्थान पर विश्व के नेता का भाव दिया गया और इन्हें ही परमपुरुष के रूपमें उपासना हेतु कहा गया है। सौराचार मूलतः सूर्य की उपासना से संबंधित है जो दक्षिण रूस के सेक्डोनिया से आये ब्राह्मणों की उपासना पद्धति है। सेक्डोनियन ब्राह्मण वेद या अन्य कोई पद्धति नहीं मानते थे वे केवल ज्योतिष और आयुर्वेद को ही मान्यता देते थे अतः उनके सूर्य ही उपास्य देवता थे क्योंकि वे मानते थे कि सूर्य से ही पृथ्वी चंद्र और अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई है अतः विश्व के नियन्ता सूर्य ही हैं। यह मत सीमित क्षेत्रों में ही माना गया। इस प्रकार पौराणिक मान्यताओं को व्यापक प्रसार नहीं मिल पाया क्योंकि इसके कुछ भागों को दार्शनिक मान्यता थी और कुछ को नहीं।
राजू- परंतु आज कल तो पौराणिक धर्म के सिद्धान्तों का ही बोलबाला है जिन्हें जगद्गुरु शंकराचार्य के द्वारा प्रतिपादित किया गया कहा जाता है और उन्हें भगवान शिव का अवतार माना गया है?
बाबा-हाॅं बौद्ध और जैन धर्म का प्रभाव घटने और पौराणिक धर्म का प्रभाव बढ़ने के बीच के संधिकाल में शंकराचार्य का उद्भव हुआ जिन्होंने इन पांचों विभागों को एकीकरण करने का कार्य किया। इन्हें शिव का अवतार घोषित किया गया क्योंकि शिव से संबंधित किए बिना उन्हें शायद महत्व कम मिलता। शिव का अवतार कहा जाना ही प्रकट करता है कि किसी भी नये सिद्धान्त को जनसामान्य से मान्यता दिलाने के लिये उसे शिव से जोड़े बिना संभव नहीं है। शिव की दिव्यता इसी से सिद्ध हो जाती है।
नन्दू- परंतु ये सभी अपने अपने को श्रेष्ठ कहते हुए जन सामान्य के बीच मतभेद और वैमनस्य तो फैला रहे हैं, वे सभी अपने अपने धर्म प्रवर्तकों को ही ईश्वर और भगवान कहते हैं?
बाबा- जब किसी का व्यक्तित्व और दर्शन पूर्णतः एक समान हो जाते हैं तो वह देवता हो जाता है। ‘‘द्योतते क्रीडते यस्मात् उदयते द्योतते दिवि, तस्मात् देव इति प्रोक्तः स्तूयते सर्व देवतैः।‘‘ अर्थात् ब्रह्मांड के नाभिक से उत्सर्जित होने वाले जीवन के अनंत आकार जो समग्र ब्रह्मांड में गतिशील हैं और प्रत्येक अस्तित्व के भीतर रहकर सबको प्रभावित करते हैं, देवता कहलाते हैं। इन प्रवर्तकों को इस परिभाषा के अनुसार जाॅंच करने पर यदि सही लगता है तो वे देवता कहला सकते हैं अन्यथा नहीं। चूंकि शिव का आदर्श उनके जीवन से विलकुल एकीकृत है अतः इस परिभाषा के अनुसार उन्हें देवता कहा जाना सार्थक है। परंतु शिव के व्यक्तित्व के अनुसार वह तो समग्र देवताओं के समाहार हैं अतः देवता शब्द तो उनके लिये बहुत छोटा लगता हैं, वे तो देवताओं के भी देवता हैं अर्थात् महादेव हैं, महेश्वर हैं।
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