Monday 26 October 2015

29 बाबा की क्लास (रासलीला)

29 बाबा की क्लास (रासलीला)
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राजू- बाबा! आज तो कुछ लोग शाम से ही तेजी से मंदिरों की ओर जाते दिखाई दिये वे कह रहे थें कि आज वहाॅं रासलीला कार्यक्रम है।
नन्दु- कुछ नहीं, शरदपूर्णिमा है न ! इसलिये वहां खीर बाॅंटी जायेगी इसी लालच में जा रहे हैं। वह इसे रासलीला का प्रसाद कहते हैं।
चंदू- पर यह रासलीला है क्या? रासलीला तो भगवान कृष्ण ने गोपियों के साथ की थी, क्या वैसा ही कुछ है बाबा?
बाबा- रासलीला का अर्थ सभी लोग नहीं जानते और जो लोग  थोड़ा बहुत  जानते हैं वह ठीक ढंग से समझा नहीं पाते। वास्तव में यह साधना का एक प्रकार है जिसमें अपनी सभी मनोभावनायें अपने इष्ट की ओर संचालित करना होती हैं। चूंकि यह कार्य मानसिक रूप से अधिक और शारीरिक रूप से कम संबंधित होता है इसलिये इसे समझ पाना सभी के लिये संभव नहीं होता । कृष्ण ने सर्वप्रथम कुछ उन्नत भक्तों, जिन्हें गोप कहा जाता है, को यह साधना शरदपूर्णिमा के दिन सिखाई थी और वे सभी इसे सीखकर इतने आनन्दित हुए थे कि भक्तिरस के प्रवाह में नाचने कूदने लगे। उन्हें लगता था कि उनका इष्ट अर्थात् कृष्ण भी प्रत्येक के साथ नाच रहा है।
रवि- बाबा! इस प्रकार की साधना कैसे की जाती है, इसके पीछे रहस्य क्या है?
बाबा- लगातार अपने इष्ट मंत्र के साथ ईश्वर  प्रणिधान करते करते जब भक्त को इशोपलब्धि नहीं होती है तब ‘‘रस साधना‘‘ का सहारा लेना पड़ता है जिसमें  मूल भावना यह होती है कि व्यक्तिगत इच्छायें , वाॅंछायें और सभी कुछ परमपुरुष की ओर संप्रेषित करना है क्योंकि वही एकमात्र चिदानन्द रस का प्रवाह हैं।  इस प्रकार रस साधना में पूर्णता होना ‘‘ रिद्धि ‘‘ और ‘‘सफलता प्राप्त होना‘‘ सिद्धि कहलाती है। शास्त्रों में इसे ही  रासलीला कहा गया है। जिस किसी की रचना हुई है वह सब परम पुरुष की इच्छा से ही उन्हीं का चक्कर लगा रहा है। किसी का अध्ययन, बुद्धि और व्यक्तिगत स्तर, सब कुछ व्यर्थ हो जाते हैं जब तक उन्हें परमपुरुष की ओर संप्रेषित नहीं किया जाता । इस परम सत्य को जानने के बाद चतुर व्यक्ति यह कहते हुए आगे बढ़ता जाता है कि है, ‘‘परमपुरुष मुझे कुछ नहीं चाहिए मेरे इसी जीवन में आपकी इच्छा पूरी हो।‘‘
नन्दू- बाबा! क्या वर्तमान युग में किसी भक्त ने इस प्रकार का रसानन्द प्राप्त किया है या प्रदर्शित  किया है जैसा कि शास्त्रों में रासलीला के नाम से वर्णित है?
बाबा- सोलहवी शताब्दि में ब्रह्म का स्वरस अर्थात् दिव्य प्रवाह चैतन्य महाप्रभु के द्वारा प्रदर्शित  किया गया था इससे लोग उनके पीछे पागलों की तरह भागते, रोते, नाचते, गाते और दिव्यानन्द में हॅंसते थे। इससे चार हजार वर्ष पूर्व ब्रह्म का स्वरस कृष्ण ने अपनी वाॅंसुरी के द्वारा प्रदर्शित  किया था जिसे सुनकर लोग पागलों की तरह अपने परिवार, संस्कृति, प्रतिष्ठा, सामाजिक स्तर आदि छोड़कर उनकी ओर भागते थे। इतना ही नहीं बृंदावन की गोपियाॅं तो अपने घर की गोपनीयता छोड़कर वाॅंसुरी के स्वर में नाचतीं गाती और अट्टहास करतीं थी। अष्टाॅंग योग मार्ग में ब्रह्म का स्वरस साधना के विभिन्न स्तरों में भर दिया गया है अतः जो इसे करते हैं या भविष्य में करेंगे अवश्य  ही ब्रह्मानन्द में डूब कर नाचेंगे, गायेंगे , रोयेंगे और स्थायी रूप से परम पुरुष को पाने की दिशा  में बढ़ेंगे। 

Monday 19 October 2015

28 बाबा की क्लास ( नवदुर्गा 3 )

28 बाबा की क्लास ( नवदुर्गा 3 )
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नन्दू- तो क्या जो लोग यह आयोजन करते हैं वह सभी निष्फल होता है?

बाबा- अच्छा नन्दू! यदि तुम यहाॅं से दिल्ली जाने वाले रास्ते के पास जाकर बड़ी सी फूलमाला, चंदन और अगरबत्ती लगाकर प्रार्थना करने लगो कि हे राजमार्ग! तुम कितने सुंदर हो, कितने लंबेचैड़े हो, तुम्हारे दोनों ओर कितनी हरियाली है, जंगल हों या मैंदान तुम निर्भयता से देश  की राजधानी तक जाते हो..... ... आदि आदि, और फिर कहो कि मैं प्रार्थना करता हॅूं कि मुझे दिल्ली तक पहुंचा दो तो क्या वह तुम्हें वहाॅं पहुचा देगा? नहीं न? इसी प्रकार इन लोगों की पूजा जड़ की स्तुति और प्रार्थना ही है। जड़ शक्ति अंधी होती है और उसमें स्वयं निर्णय करने की क्षमता नहीं होती। विद्युत धारा बहते तार को चाहे बच्चा पकड़े या युवक या बृद्ध झटका सबको एकसा ही लगेगा। शक्ति की पूजा का अर्थ है ऊर्जा के घनीभूत स्वरूप इस पदार्थ की  शक्ति पर नियंत्रण करने के उपाय खोजना और उनका सभी प्राणियों के कल्याण के लिये उपयोग करना।

रवि- बाबा! आपकी बात तो बिलकुल सही है परंतु पौराणिक काल से यह कुरीतियाॅं कैसे हमारे बीच आ गईं ? क्या उस समय इस सच्चाई के जानकार नहीं थे? हमारे ऋ़षिगण क्या कर रहे थे?
बाबा- पौराणिक काल बहुत पुराना नहीं है, उस समय अपने अपने ज्ञान को श्रेष्ठ करने की होड़ में तत्कालीन ज्ञानी लोग कल्पनाओं के आधार पर साधारण जनता को अपने अपने पक्ष में करने में ही रुचि लेते थे इसलिये आध्यात्म के शुद्ध स्वरूप को कल्पना के आडम्बर ने ढक लिया है। ईसा से लगभग 300 वर्ष पूर्व हुए ऋषि मार्कंडेय  से ऋषि जैमिनी ने महाभारत का इतिहास पढ़कर अपनी भ्राॅंतियाॅं दूर करने के लिये अनेक प्रश्न  पूछे जिनके उत्तर समझाने के लिये ऋषि मार्कंडेय को अनेक कल्पनाओं का सहारा लेना पड़ा जिनका संग्रह कर मार्कंडेय पुराण बना। परमाणु शक्ति के प्रचण्ड और भयावह स्वरूप को समझाने के लिये उन्होंने अपनी कल्पना से ही 700 श्लोक  लिखे जिन्हें आजकल दुर्गासप्तशती कहा जाता है , सप्त अर्थात् सात और शती अर्थात् सौ । अभी जो तुम लोगों ने शक्ति की वैज्ञानिक व्याख्या बताई है वही उन सात सौ श्लोकों में से केवल एक में समझाई गयी है पर उसे उन्होंने अन्य सैकड़ों काल्पनिक कथाओं और घटनाओं को अन्य श्लोकों   में रचकर इसे कर्मकाॅंड के पुरोधाओं को भेंट कर दिया जो आज पूरे समाज में व्याप्त है। यह भी याद रखने योग्य है कि ऋषि जैमिनी, मार्कंडेय की कहानियों से संतुष्ठ नहीं हुए और उन्होंने अपना अलग दर्शन  बनाया जिसे "पूर्व मीमाॅंसा और उत्तर मीमाॅंसा" कहा  जाता है।
नन्दू- बाबा! वह एक  श्लोक  कौन सा है जो आज की विज्ञान के अनुसार खरा है?
बाबा- ‘‘ सर्व रूपमयी देवी सर्वदेवीमयं जगत, ततोहं विश्वरूपाॅं ताॅं नमामि परमेश्वरीम्।" अर्थात् यह सम्पूर्ण जगत और उसकेभीतर पाये जाने वाले जड़ और चेतन सभी  आकार प्रकार देवीमय हैं अर्थात् शक्ति से भरे हुये हैं, अतः मैं उस विश्वव्यापी  नियंत्रणकारी शक्ति को प्रणाम करता हॅूं। इस प्रकार पदार्थ और ऊर्जा की समतुल्यता प्रकट करने वाले इस श्लोक  को कल्पना के लोक में ले जाकर मार्कंडेय ने अपने ज्ञान  को प्रदर्शित  किया जिसका परिणाम ही आज इस नवदुर्गा नामक पूजा  के रूप में हम देखते हैं। 
रवि- लेकिन आज के गली चैराहों के जैसा पूजा आडम्बर मार्कंडेय ऋषि ने बनाया था अथवा  यह पश्चात्वर्ती  प्रभाव है?
बाबा- ऋषि मार्कंडेय ने काल्पनिक आकार देकर ही सही, पर उसे व्यक्ति विशेष के घर तक सीमित कर शालीनता के साथ कर्मकांडीय विधियों से जोडा़ था, परंतु पठानकाल के प्रारंभ में बंगाल के राजशाही जिले के ताहिरपुर के एक बहुत संपन्न मालगुजार कॅंसनारायण राय को अपनी सम्पदा के प्रदर्शन  करने हेतु एक विचार आया कि क्यों न  वे  राजसूय या अश्वमेध यज्ञ कर लोगों को दिखा दें कि वह क्या हैं, इस पर तत्कालीन पंडितों ने कहा कि ये तो कलियुग है इसमें ये राजसूय/अश्वमेध यज्ञ करना वर्जित है अतः आप तो मार्कंडेय पुराण में वर्णित दुर्गापूजा ही करें और उसी समय जितना अधिक दान करना हो सो करें। इस पूजा में कॅंसनारायण राय ने सात लाख सोने के सिक्कों को खर्च किया, इसे देख सुन कर वर्तमान बॅंगलादेश  के रंगपुर जिले के इकटकिया के जगतवल्लभ/जगतनारायण ने कहा कि क्या हम कॅंसनारायन से कम हैं, हम भी इनसे ज्यादा खर्च कर दुर्गा पूजा में अपना नाम आगे करेंगें, इन्होंने आठ लाख पचास हजार सोने के सिक्के खर्च किये। इस प्रकार जमीदारों में अपनी सम्पन्नता प्रदर्शित  करने की होड़ लग गई परंतु इसी बीच हुगली जिले के गुप्तीपारा गांव के 12 मित्रों ने मिलकर कहा कि हम अलग अलग भले ही  जमींदारों के बराबर पूजा में खर्च नहीं कर सकते पर सभी मिलकर तो कर सकते हैं इसतरह सबने मिलकर दुर्गापूजा का प्रदर्शन   किया , बारह मित्रों/यारों के सम्मिलित होने के कारण इसे बरयारी पूजा कहा गया। इसके बाद यह सार्वजनिक पूजा बन गई और अब तो हर जगह हर चैराहे पर यह की जाने लगी है जिसमें सबकुछ बदल गया है। वर्तमान में इसे सार्वजनिक स्थानों पर मनाये जाने का स्वरूप कितना व्यावसायिक और विकृत हो गया है यह किसी से छिपा नहीं हैं।
चंदू- परंतु बाबा! आध्यात्मिक स्तर पर आपके द्रष्टिकोण से ‘‘देेवी तत्व‘‘ सही सही क्या है ?
बाबा- जब ब्रह्मांड के नाभिक से कोई रचनात्मक तरंग उत्सर्जित  होती है तो वह अपने संकोच विकासी स्वरूप के साथ विकसित होने के लिये प्रमुख रूप से दो प्रकार के बलों का सहारा लेती है। 1. चितिशक्ति 2. कालिकाशक्ति। वास्तव में पहला बल उसे आधार जिसे हम ‘‘स्पेस‘‘ कहते हैं, देता है और दूसरा बल ‘‘टाइम‘‘ अर्थात् कालचक्र में बांधता है, इसके बाद ही उस तरंग का स्वरूप आकार पाता है। ध्यान रहे इस कालिकाशक्ति का तथाकथित कालीदेवी से कोई संबंध नहीं है, काल अर्थात् (eternal time factor) के माध्यम से अपनी क्रियाशीलता बनाये रखने के कारण ही इसे कालिकाशक्ति नाम दिया गया है।

राजू- कुछ विद्वान तो कहते हैं कि ‘भद्र काली‘ नामक देवी का उल्लेख वेदों में भी मिलता है तो फिर आपका यह कहना कि ‘काली देवी‘ या ‘दुर्गादेवी‘ की पूजा मार्कंडेय पुराण जो कि मात्र 2300 वर्ष पुराना है से प्रारंभ हुई है, क्या गलत नहीं है क्योंकि वेद तो 15000 वर्ष से भी पहले के माने गये हैं?

बाबा- वैदिक ‘भद्रकाली‘ और कालीदेवी तथा दुर्गादेवी में कोई साम्य नहीं है। ब्रह्माॅंड के निर्माण होने के समय जो ध्वनि उत्पन्न हुई उसे वेदों में ओंकार ध्वनि के नाम से जाना जाता है जिसमें उत्पत्ति, पालन और संहार तीनों सम्मिलित हैं। मानव कानों की श्रव्यसीमा में आने वाली ये ध्वनि की तरंगें विश्लेषित  करने पर पचास प्रकार की पाई जाती हैं जिन्हें काल अर्थात् समय का वर्णक्रम कहा जाता है इन्हें स्वर ‘अ‘ से प्रारंभ (निर्माण का बीज मंत्र) और व्यंजन ‘म‘ (समाप्ति का बीज मंत्र) में अंत मानकर काल को अखंड रूप में प्रकट करने के लिये अथर्ववेदकाल में भद्रकाली की कल्पना कर उसके हाथ में ‘अ‘ उच्चारित करता हुआ मानव मुंह बनाया गया, अन्य स्वरों और व्यंजनों के प्रत्येक के एक एक मुंह बनाकर शेष 49 अक्षरों के मुंहों की माला भद्र काली को पहनाई गई और कालचक्र पूरा किया गया। 
यद्यपि अथर्ववेदकाल में लिखना पढ़ना लोगों ने सीख लिया था परंतु वेदों के लिखने पर प्रतिबंध था अतः पूर्वोक्त मानव मुंहों को ही वर्णमाला/अक्षमाला का प्रतिनिधि उदाहरण माना गया क्योंकि  उच्चरण मुंह से ही किया जाता है। वास्तव में काल या समय, क्रिया की गतिशीलता का मानसिक परिमाप है और यह अनन्त ध्वनियों/तरंगों का सम्मिलित रूप होने से अखंड नहीं है, यह अलग बात है कि हम अपने कानों से उन सभी को नहीं सुन पाते हैं ।
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27 बाबा की क्लास ( नवदुर्गा 2)


रवि- लेकिन बाबा! यह विभिन्न आकार प्रकार की देवियों की नौ दिन तक पूजा करने का समारोह तो पूरे देश  में हर वर्ष सभी लोग धूम धाम से मनाते हैं?
बाबा- हाॅं तुम ठीक कहते हो, इस प्रकार के समारोहों में भक्तिभाव तो कुछ ही लोगों में देखा जाता है आडम्बर और हो हल्ला ही मुख्यतः दिखाई देता है ।
नन्दू- तो क्या ‘‘देवी शक्ति ‘‘ की अवधारणा असत्य है ?
बाबा- देवीशक्ति की अवधारणा की यथार्थता पौराणिक काल से काल्पनिक कथाओं , आकारों , आडम्बर और बाहरी प्रदर्शनों  में विलुप्त ही हो गई है बहुत कम लोग ही यह सच्चाई  जानते हैं।
चन्दू- तो इस अवधारणा की सच्चाई क्या है आप हमें बताइये जिससे हम अन्य लोगों को उसका ज्ञान करा सके? इन देवियों के माता पिता कौन हैं ? ये सब कहाॅं से आई और अब कहाॅं हैं?
बाबा- अच्छा! तुम लोग विज्ञान में शक्ति अथवा ऊर्जा के बारे में क्या पढ़ते हो? क्या तुम उसे उत्पन्न कर सकते हो, क्या उसे नष्ट कर सकते हो? अथवा क्या तुम उसे देख सकते हो?
रवि,नन्दू और चन्दू - नहीं बाबा! ऊर्जा को न तो उत्पन्न किया जा सकता है और न ही नष्ट । हाॅं, उसका रूपान्तरण, अपने कार्य में लेने के अनुसार अवश्य  किया जा सकता है जैसे चुम्बक , विद्युत, ऊष्मा, प्रकाश , ध्वनि आदि आदि।
बाबा- तुम लोग सही कह रहे हो, पर यह बताओ कि शक्ति क्या है? क्या इसके अनेक हाथ पैर , मुंह या कोई अन्य आकार होता है?
रवि- बाबा! हम लोग तो यह जानते हैं कि भौतिक कार्य करने की क्षमता को ऊर्जा अर्थात् एनर्जी औरसमय के सापेक्ष  कार्य करने की दर को शक्ति अर्थात् पावर कहते हैं । इसके हाथ पैर मुंह होने का तो प्रश्न  ही नहीं है।
बाबा- तो अब तुम्हीं लोग बताओ कि यह जो आडम्बर और प्रदर्शन  देवी पूजा के नाम पर होता है उसकी सार्थकता क्या है?
नन्दू- बाबा! यह बात तो समझ में आ गई कि भौतिक कार्य करने की दर को शक्ति कहते हैं पर उसकी पूजा करने का अर्थ क्याहै?
बाबा- तुम लोग विज्ञान में यह भी पढ़ते हो कि पदार्थ क्या है? 
चन्दू- हाॅं बाबा! ऊर्जा और पदार्थ एक दूसरे में रूपान्तरित होते रहते हैं आइंस्टीन के ‘‘ मास एनर्जी इक्वेलेंस ‘‘ के अनुसार। इसका अर्थ है पदार्थ और कुछ नहीं ऊर्जा का घनीभूत रूप ही है । और इस ‘कासमस‘ अर्थात् ब्रह्माॅंड में पदार्थ , ऊर्जा और रिक्त स्थान अर्थात् ‘स्पेस‘ के अलावा कुछ नहीं है ।
बाबा- तो अब तुम्हीं लोग बताओ कि जब पदार्थ और ऊर्जा के अलावा कुछ है नहीं तो हमें इनका अधिकतम सदुपयोग करना चाहिये कि नहीं ? उनके रूपान्तरण करने और नियंत्रण करने की नयी नयी विधियाॅं खोजना और जनहित में उनका सदुपयोग करना सीखना ही हमारी पूजा हुयी या उसके अनेक भयावह आकार देकर डरना डराना और पानी फूल पत्ते भेंट देकर सारे संसार पर राज्य करने का वरदान पाने की इच्छा रखना?

Tuesday 13 October 2015

26 बाबा की क्लास ( नवदुर्गा 1)



रवि- बाबा!आजकल सबेरे से ही अनेक लोग अपने बगीचे के फूल तोड़ने आ जाते हैं, बिना पूछे ही डंडे से या हाथ से खींच खीच कर जासोन की तो कलियाॅं और डालियाॅं तक तोड़ जाते हैं। कल मैं ने कुछ लोगों को टोका तो कहने लगे नवदुर्गा के लिये चाहिये हैं उन्हें जासोन का फूल प्रिय है। बाबा! यह नवदुर्गा क्या हैं ?

बाबा- प्रागैतिहासिक युग के लोग फार्मेकोलाजी से अपरिचित थे अतः वे पेड़ पौधों को सीधे ही रोगों को दूर करने में प्रयुक्त करते थे। उन दिनों विशेषतः भारत में लोग नौ प्रकार के पेड़ पौधों के संपर्क में आये जो दवाओं या भोजन के रूप में अत्यंन्त लाभदायी थे। वे उन्हें जीवनदायी मानकर उन्हें अत्यधिक आदर के साथ पालते और रक्षा करते।  बाद में उन्हें नष्ट होने से बचाने के उद्देश्य  से उनमें देवी देवताओं का स्वरूप दे दिया गया जिसका परिणाम अन्धानुकरण और आडम्बर के रूप में आज तक दिखाई दे रहा है। ये नौ पौधे जिनमें भारत के लोगों ने विशेष औषधीय गुण पाये, वे हैं, कदली (Plantain) कचु या अरबी (arum) हरिद्रा(Turmeric) जयंती, अशोक, विल्व, दाडि़म्ब अर्थात् अनार , मान अर्थात् कन्द और धान्य (Unhusked rice)।

नंदु- बाबा! ये नौ पौधे किस प्रकार जीवनदायी हैं?

बाबा-  कदली एक अच्छा न्युट्रिशियस भोजन है और एक दिन के अंतर से आने वाले ज्वर के लिये बढि़या औषधि है, इसके अलावा वह पेंक्रियाज और किडनी के लिये अच्छी तरह क्रियाशील बनाये रखने में भी सहायक है। वह डिसेंट्री के लिये औषधि है ही। उन माताओं के लिये यह अच्छा भेाजन है जिनके बच्चे छोटी अवस्था में मर जाते हैं। उन बच्चों के लिये जिनकी माॅं की मृत्यु हो जाने के कारण दूध के न मिल पाने से रिकेट्स की बीमारी हो जाती है, उन्हें यह काले चिट्टे वाले अधिक पके केले के रूप में खिलाये जाने पर रामवाण औषधि है। इतना ही नहीं यह, वे बछड़े जिनकी माॅं मर गयी हो उनको अधिक पके  केले और सत्तू के एक अनुपात दो के अनुपात में पेस्ट के रूप में खिलाने पर स्वस्थ हो जाते हैं। स्पष्ट है कि कदली में अनेक जीवनदायी गुणों के कारण लोगों ने उसे देवता की तरह आदर देना प्रारंभ किया।
दूसरा है कचु या अरबी अर्थात् अरुम, इसकी भोजन के रूप में कम उपयोगिता है परंतु किडनी के लिये यह बहुत ही उपयोगी है।
तीसरा है हरिद्रा अर्थात् टर्मेरिक, यह एन्टीसेप्टिक होती है और अच्छा मसाला भी है। भोजन में प्रयुक्त होने वाली हल्दी धूप में सुखाई गई होती है, सीधे खेत से लाई गई हरी हल्दी विषैली होती है अधिक उपयोग करने पर मृत्यु भी हो सकती है, परंतु ऐंटीसेप्टिक है वह खून को साफ करती है तथा त्वचा के रोगों को दूर करती है। जब किसी के घर कोई्र बड़ा समारोह आयोजित होता है तो आज भी एकत्रित होने वाली महिलाओं में हल्दी का उबटन लगाने की प्रथा है खास तौर पर विवाह के अवसरों पर, क्यांेकि अनेक स्थानों के व्यक्ति एकत्रित होने से इन्फेक्शस डिजीज होने की संभावना रहती है।
चौथा है जयन्ती, इसकी जड़ों में औषधीय गुण अधिक होते हैं, यह श्वेत कुष्ठ के लिये सही दवा है। यथार्थतः यह सात प्रकार के त्वचीय रोगों में से चार प्रकार के लिये अधिक उपयोगी है।
पाॅंचवाॅं है अशोक, अर्थात् सीता अशोक, केवल अशोक कहने  का अर्थ है देवदारु। सीता अशोक में ही औषधीय गुण पाये जाते हैं। यह सभी प्रकार के स्त्री रोगों की आदर्श  औषधि है।
छठवाॅं है विल्व, अर्थात् बेल का फल। बिना पका बेल हर प्रकार के पेट रोग की दवा है। कच्चे बेल फल को भूंन कर खाना चाहिये। बिल का अर्थ है सूक्ष्म छिद्र अतः विल्व का अर्थ है ‘वह जो छोटे से छोटे छिद्र में प्रवेश   कर पेट को अधिकतम लाभ पहुंचाता है‘। इसके असाधारण गुणों के कारण इसे  श्रीफल भी कहते है जिसका मतलब है उत्तम गुणों वाला फल।
सातवाॅं है दाडि़म्ब, इसकी छाल, जड़ें और फल सभी महिलाओं की सभी प्रकार की बीमारियों की अच्छी दवा है। चीन और भारत की आयुर्वेदिक पद्धतियों में दाडि़म्ब के ये गुण मान्यता प्राप्त हैं।
आठवाॅं है मान अर्थात् कंन्द, जो मनुष्य के शरीर में मास बढ़ाने बाले सभी प्रकार के स्टार्ची खाद्य पदार्थों में अतुलनीय है। यह आलु अथवा कटहल के बीजों की तुलना में अधिक अच्छा है। कटहल के बीज आलु से ढाई गुने अच्छे हैं। भारत में आलु के आने के पहले यहाॅं इन्हीं बीजों का उपयोग किया जाता था, मान इन बीजों से भी अधिक मूल्य रखता है। इसके अलावा मान के द्वारा मानव शरीर पर ठंडा प्रभाव डाला जाता है। गर्मी के समय यह अच्छी दवा है, जब शरीर गर्मी से प्रभावित होकर नाक से खून बहाने लगता है तो यह औषधि और भोजन दोनों की तरह काम में लाया जाता है। 
नौवाॅं है धान्य अर्थात् पैडी जिसके अनेक उपयोग हैं, सबसे सरल तो यह है कि इससे अल्कोहल बनाया जाता है जो अनेक प्रकार की दवायें बनानें के काम आता है।

चंदु- परंतु बाबा! मंदिरों में तो इनके अनेक आकार, प्रकार, के मुंह हाथ आदि होते हैं?

बाबा- यह सभी काल्पनिक हैं, किसी रचनाकार की कल्पना को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। इन नौ प्रकार के पौधों के विशेष गुणों के कारण ही उनमें लोगों ने अपना पूज्य भाव स्थापित किया और बहुत समय  बाद  पौराणिक काल में उनमें नौ प्रकार की चंडिका शक्ति के वास स्थान होने की कल्पना की गई,  जैसे,  कदली में ब्राह्मणी, अरुम में कालिका, हरिद्रा में दुर्गा, जयंति में कार्तिकी, अशोक में शोकरहिता, विल्व में शिव, दाडिंब में रक्तदन्तिका, मान में चामुंडा, और धान्य में लक्ष्मी। 
राजू - अच्छा ! इसीलिए आज भी यदि किसी के पैर भूल से चावल के दानों से छू जावें तो वह फौरन ‘‘ओ माता लक्ष्मी‘‘ कह कर क्षमा मागते हुए प्रणाम करने लगता है। 

बाबा- इस प्रकार का सोच उस समय लोगों का था। अभी भी देवी शक्तियों को लोग संयुक्त रूप से उसी प्रकार इन पौधों में होने की मान्यता देते हैं और नवदुर्गा का नाम देकर पूजते हैं ;अर्थात् अगरबत्ती लगाकर घी के दीपक जलाकर आरती उतारते हैं और चंदन का तिलक लगाते हैं तथा जैसा कि तुमलोगों ने भी देखा चोरी के जासोन के फूल चढ़ाकर भौतिक वैभव और स्वर्ग की कामना करते हैं, और उन पौधों को संयुक्त रूप में नव पत्रिका का नाम देते हैं। अब तुम लोग ही सोचो  कि पौधों की पूजा करने का अर्थ  उन्हें पालने, पानी, खाद और अन्य पोषक तत्वों से उनका संवर्धन और रक्षण करने में होता है या केवल आरती और चंदन या अगरबत्ती से?  बस, यहीं से अन्धानुकरण और आडंबर ने जन्म लिया है और बढ़ता ही जा रहा है। 
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Monday 5 October 2015

25 बाबा की क्लास (तीर्थ , भगदड़ और मृत्यु )

 

राजू- बाबा! पिछले 24 सितम्बर 2015 को सऊदी अरब के हाजी में भगदड़ होने पर मरने वालों की संख्या अलग अलग रिपोर्टो में 769 से 1184 के बीच बताई गयी है । इसी स्थान पर , 1990 में , हज यात्रा के पहले ही दिन 1426 यात्री भगदड़ में मारे गये थे। इतनी भीड़ इन स्थानों पर क्यों होती है?

रवि- हाॅं बाबा! भारत में भी अक्टूबर 2013 में रतनगढ़ (मप्र) की सिंध नदी के पुल पर यात्रियों की भगदड़ में 115 लोग मर गये थे और 100 से अधिक घायल हुए थे, और इससे पहले भी अप्रेल 2008 में हिमाचल प्रदेश  के  एक पर्वत पर बने मंदिर कों जाते समय मची भगदड़ में 145 लोगों ने अपने प्राणों से हाथ धोये थे।

चंदू- ये तो अपेक्षतया हाल के ही उदाहरण हैं बाबा! भूतकाल के अनेक हृदय विदारक द्रश्य  भी सभी को ज्ञात हैं जो समय समय पर तीर्थों धार्मिक मेलों और उत्सवों में एकत्रित भीड़ में लोगों के प्राणहर्ता बने हैं?

बाबा- तुम लोग तो आज आॅंकड़ों सहित आये हो, चलो आज ‘तीर्थ‘ पर ही चर्चा करते हैं। प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन मे तीन प्रकार की भूख क्रमशः  लगती है, एक तो शारीरिक जो समय समय पर भोजन करने से, दूसरी मानसिक जो भौतिक सुख सुविधायें जुटाने से और तीसरी आध्यात्मिक जो सच्चे ज्ञान की प्राप्ति से शाँत होती है। जब प्रथम दो प्रकार की भूखों को तृप्त करने पर भी मन शान्त  नहीं होता तो वह उस रास्ते या व्यक्ति को ढूंडने लगता है जो भौतिक और मानसिक जगत से ऊपर हो और मन को शांत  कर सके, इसे आध्यात्मिक जगत कहते हैं। इसे खोजने के कार्य को हमारे पूर्व मनीषियों ने ‘‘पर्यटन‘‘ कहा है जिसका अर्थ है ज्ञान प्राप्ति के लिये अध्ययन करते हुए घूमना। इस प्रकार अलग अलग विचार धाराओं के लोग अपने अपने ढंग से इस प्रकार ज्ञान प्राप्त करने के लिये अध्ययन हेतु स्थान स्थान पर जाते थे। बाद में कुछ स्वार्थी लोगों ने इन्हें आय के साधनों की तरह उपयोग में लेना प्रारंभ कर दिया। इसलिये यह अब विकराल अंधानुकरण में बदल गया है।

राजू- बाबा! इन्हीं स्थानों को  क्या तीर्थ कहा गया है ? या कोई अन्य? तीर्थ वास्तव में है क्या?

बाबा- मनुष्यों का यह स्वभाव है कि वे भौतिक जगत में हो या आध्यात्मिक जगत में, बिना कुछ पराक्रम किये सब कुछ पाना चाहते हैं । यही कारण है कि वे अपने सौभाग्य को पाने या पापों को धोने के लिये तथाकथित तीर्थों की यात्रा करते हैं। इन तथाकथित तीर्थों में गाय की पूछ पकड़ कर वैतरणी पार कराकर स्वर्ग में ले जाने का ठेका चलाने वाले तथाकथित ज्ञानी लोग इन भोले भाले लोगों को ही नहीं डिग्री धारी पढ़े लिखे लोगों को भी ठगते देखे जाते हैं क्योंकि वे उनकी इस मानसिक कमजोरी को पहचानते हैं। यात्री, अपने ज्ञान और इच्छा से कोई पूजा पाठ नहीं कर पाते और इन धूर्तों के बहकावे में आकर एक स्थान से दूसरे स्थान को तीर्थ यात्रा के नाम पर भटकते रहते हैं और अपना बहुमूल्य समय, धन और पराक्रम व्यर्थ ही व्यय करते रहते है। अनेक स्थलों पर चाहे प्राकृतिक घटना कहें या मानव निर्मित त्रासदी, हजारों लोग इस अवसर पर जीवन भी समाप्त कर बैठते हैं, इसके अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। कुछ तो तुम लोग बता ही चुके हो। पवित्र स्थलों या तीर्थों का ‘डोग्मा‘ लोगों के मन में इतना गहरा गया है कि वे  भौतिक सम्पदा जैसे धन, पति, पत्नि, विवाह, पदोन्नति, स्वर्ग और अनेक सुखोपभोग की वस्तुओं को विना पराक्रम किये इन स्थानों पर जाकर पाने की इच्छा करते हैें और फिर भगदड़ जैसी कृत्रिम घटनाओं में अपने प्राण तक खो बैठते हैं।

रवि- तो क्या जिन स्थानों को तीर्थ स्थान कहा जाता है वे व्यर्थ हैं? यदि हाॅं तो वास्तविक तीर्थ क्या हैं?

बाबा- तीर्थ का अर्थ है ‘‘तीरे स्थितः यः सः तीर्थः।‘‘ जैसे नदी के किनारे पहुंचने पर यदि एक ही कदम आगे बढ़ाते हैं तो नदी के पानी में जा पहुंचते हैं और नदी किनारे से  एक ही कदम पीछे रहते हैं तो स्थल पर ही बने रहते हैं, है कि नहीं?

सभी बच्चे- हाॅं बाबा! इसीलिये नदी के किनारे को तीर कहते हैं ।

बाबा-  बिलकुल सही। इसी प्रकार भौतिक जगत और आध्यात्मिक जगत की मिलन रेखा पर  (अर्थात् तीर पर ) जो स्थित हो गया उसे कहेंगे ‘तीरस्थ‘ और वह मिलन स्थल तीर्थ । कितना आश्चर्य  है कि अन्तरिक्ष में अपना अपना राज्य फैलाने को उत्सुक संसार के देश  अपने नागरिकों को इतना शिक्षित नहीं कर पाये कि वास्तविकता क्या है , धर्म अधर्म और आस्था अनास्था क्या है।
धर्मप्राण भारत के ही पुरोधा कह गये हैं कि ‘‘ इदं तीर्थं इदं तीर्थं भ्रामयन् तमसा जनाः, आत्मतीर्थं न जानन्ति कथम् मोक्ष वरानने?‘‘ अर्थात् अज्ञान के प्रभाव से लोग इस तीर्थ से उस तीर्थ में भटकते फिरते हैं, परंतु जब तक आत्मतीर्थ को नहीं जाना है मोक्ष कैसे मिल सकता है?
 ----- अब तुम्हीं लोग बताओ क्या हमें अब भी जनसामान्य में व्याप्त इस अज्ञान को हटाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये?