Monday 30 November 2015

35 बाबा की क्लास (कुछ भ्रान्तियाॅ- 2)

35 बाबा की क्लास (कुछ भ्रान्तियाॅ- 2)
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नन्दु- अनेक विशेषज्ञों का यह कहना कितना सार्थक है कि आध्यात्मिक साधना के लिये ब्रह्मचर्य का पालन करना अनिवार्य है?

बाबा- जो लोग ब्रह्मचर्य पालन करने के भय से साधना नहीं करते, उन्हें समझना चाहिये कि मन को वाह्य जड़ात्मक चिंतन से आन्तरिक सूक्ष्म चिंतन की ओर ले जाने का प्रयास करना ही ब्रह्मचर्य का पालन करना है। प्रकृति के प्रभाव से ही मन जड़ता की ओर जाता है और उसके प्रभाव को कम करने से वह सूक्ष्मता की ओर जाता है। मुक्ति का अर्थ है प्रकृति के प्रभाव को कम करके जड़ता से सूक्ष्मता की ओर जाना। ब्रह्म स्वभाव से सूक्ष्म हैं अतः यदि मन जड़ता की ओर होगा तो वह ब्रह्म को नहीं पा सकता इसलिये मन को साॅंसारिक जड़ पदार्थो से दूर करने का उपाय है ‘‘ ब्रह्म का चिंतन करना‘‘ जो प्रकृति का मन पर प्रभाव कम करते हुए ही किया जा सकता है क्योंकि प्रकृति ही उसे चारों ओर के जड़ पदार्थों की ओर खींचती रहती है। इसलिये ब्रह्मचर्य वह कार्य है जो प्रकृति के प्रभावों से मन को ब्रह्म की ओर ले जाने का प्रयत्न करे और ब्रह्मचारी वह है जो हमेशा  ब्रह्म चिंतन में डूॅबा रहे। यह कार्य साधना का अभ्यास करने पर ही संभव है। साधारणरतः वीर्य संरक्षण को ही ब्रह्मचर्य माना जाता है पर वास्तव में अष्ट पाश  और षडरिपु मन को बाहरी ओर के संसार में ही बाॅंधते हैं, इन चौदह में से ‘काम‘  केवल एक है अतः जब तक यह सभी चौदह नियंत्रण में नहीं आते केवल ‘काम‘ को नियंत्रित करने  से ब्रह्मचर्य का पालन करना नहीं कहला सकता। अविद्यामाया जो इन चौदह प्रकारों से मन को इतना जकड़े रहती है उससे तब तक नहीं छूटा जा सकता जबतक साधना न की जावे। इस साधना के सहारे धीरे धीरे मन अविद्या के प्रभाव से दूर होता जाता है और वही ब्रह्मचारी कहलाता है जो अविद्या के प्रभाव से मुक्त हो गया। जो साधना का अभ्यास किये बिना ही ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहते हैं वे केवल समय को ही नष्ट करते हैं। इसलिये ब्रह्मचर्य पालन करने के लिये पारिवारिक जीवन को त्यागने की आवश्यकता नहीं हैं। साधना का बल प्रकृति के बल से अधिक होता है अतः इसकी सहायता से कोई भी ब्रह्मचारी हो सकता है, वीर्य का रक्षण कर सकता है और बुद्धि को तीक्ष्ण बना सकता है।

रवि- बाबा! आपने अनेक बार षडरिपुओं और अष्टपाशों  का संदर्भ दिया है, वे क्या हैं?

बाबा- मनुष्य का जीवन आठ प्रकार के बंधनों और छः प्रकार के शत्रुओं से घिरा रहता है ।  काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, और मात्सर्य ये षडरिपु और भय, लज्जा, घृणा, शंका, कुल, शील, मान और जुगुप्सा ये अष्ट पाश  है। षड रिपु का अर्थ है छै शत्रु, इन्हें शत्रु इसलिये कहा जाता है क्योंकि ये इकाई चेतना को सूक्ष्मता की ओर जाने से रोककर स्थूलता में अवशोषित करने का कार्य करते हैं। इकाई चेतना का उच्चतम स्तर सूक्ष्म है अतः उस ओर जाने से रोकने वाला शत्रु हुआ। अष्ट पाश  का अर्थ है आठ बंधन, बंधनों में बंधा हुआ कोई भी व्यक्ति अपनी गति खो देता है। स्रष्टि में हम देखते हैं कि मानव की गति स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है परंतु अष्ट पाश  जैसे लज्जा घृणा और भय आदि स्थूलता से जकड़े रहने के कारण सूक्ष्मता की ओर जाने से रोके रहते हैं।

राजू- लेकिन कुछ लोग तो यह सलाह देते हैं कि साधना करना, भजन पूजन करना तो बुढ़ापे के काम हैं छोटी अवस्था से इनमें लगना बेकार है?
बाबा- कुछ लोग मानते हैं कि बुढ़ापे के लिये ही भजन कीर्तन ठीक हैं, इसलिये युवावस्था में इससे दूर ही रहते हैं पर वे यह नहीं जानते कि उनके जीवन में बुढ़ापा आयेगा भी या नहीं यह निश्चित  नहीं है। बृद्धावस्था में जब शरीर कमजोर हो जाता है, नजरें कमजोर हो जातीं हैं, बीमारियाॅं घेरे रहती हैं, स्मरणशक्ति कमजोर पड़ जाती है, कर्मों का फल भोगते हुए मन कुछ भी नया करने का साहस नहीं करता, ऐसी दशा  में ईश्वर  को केवल इसलिये पुकारना कि कष्ट से मुक्ति मिले कितना उचित है? इतना ही नहीं, जब इन झंझटों के कारण मन स्थिर नहीं हो पायेगा तो भगवान को पुकारने का कोई मूल्य नहीं । इस अवस्था में शरीर की कमजोरियों और पूर्वकाल की यादों के चिंतन में ही मन को फुरसत नहीं मिल पाती फिर ईश्वर  का चिंतन कहाॅं संभव होगा। यही कारण है कि बुढ़ापे में साधना का अभ्यास कर पाना संभव ही नहीं हो पाता यदि प्रारंभ से ही उस ओर मन को लगाने का अभ्यास न किया जाये। बांस के पेड़ को उसकी युवावस्था में इच्छानुसार मोड़ना सरल होता है, बहुत पुराना हो जाने पर मोड़ने से वह टूट जाता है, यही हाल साधना का होता है प्रारंभ से ही अभ्यास करना सफलता देता है बुढ़ापे में नहीं।

रवि- यह सुख और दुख क्या हैं?

बाबा- साॅंसारिक भोगों को पाकर मन बड़ा प्रसन्न होता है और न पाने पर दुखी । पर, जब मन उन्हें चाहे ही नहीं तो उनके पाने या न पाने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इच्छा होने पर भी जब वह प्राप्त न हो तो और अधिक दुख होता है और मन को विचलित करता है। जैसे शराबी को यदि शराब न मिले तो उसे अपार कष्ट अनुभव होगा पर गैरशराबी पर इसके मिलने या न मिलने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा । साधना करने की प्रणाली का अभ्यास सक्षम गुरु के द्वारा इस प्रकार कराया जाता है कि वह अतीन्द्रिय रूप से मन को जड़ पदार्थों की ओर जाने से रोक देता है और भौतिक पदार्थों की चाह समाप्त हो जाती है। कुछ लोग सोचते हैं कि साधना करने पर भौतिक आनन्द और सुख सुविधाएं छिन जायेंगी उनका यह विचार अविवेकपूर्ण है और वे जो इन सुख सुविधाओं को जीवन का आवश्यक  अंग मानते हैं वे भी गलती करते हैं।

Sunday 22 November 2015

34 बाबा की क्लास (कुछ भ्रान्तियाॅ- 1)

34  बाबा की क्लास (कुछ भ्रान्तियाॅ- 1)
रवि-बाबा! कुछ लोगों का मानना है कि अमुक संत के पास सिद्धि है और वे किसी भी समस्या का समाधान कर सकते हैं, कष्ट दूर कर सकते हैं, घटनायें टाल सकते हैं? यह कैसे होता है?

बाबा- यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया बराबर और विपरीत दिशा  में होती है बशर्ते टाइम, स्पेस और पर्सन में परिवर्तन न हो । इस नियम  के माध्यम से प्रकृति का उद्देश्य  यह  शिक्षा देना होता है कि बुरे कार्यों से दूर रहना चाहिये। पर कुछ लोग साधना से प्राप्त बल के द्वारा इसे दूर करने का प्रयास करने में इस विधिमान्य नियम को भूल जाते हैं और समझते हैं कि वे कल्याण कर रहे हैं। कर्मफल तो कर्म करने वाले को भोगना ही पड़ेगा, चाहे कितना बड़ा भक्त क्यों न हो वह इसे नहीं रोक सकता यदि वह ऐंसा करता है तो वह भोले भाले लोगों को धोखा देने के अलावा कुछ नहीं माना जायेगा। यह हो सकता है कि कर्मफल का दंड भोगने का समय कुछ आगे टल जाये पर वह भोगना ही पड़ेगा चाहे उसे फिर से जन्म क्यों न लेना पड़े, क्योंकि हो सकता है कि दंड भोग के समय, व्यक्ति के मन में साधना कर मुक्ति की जिज्ञासा जाग जाये परंतु साधना सिद्धि प्राप्त व्यक्ति अपने बल से उसका कष्ट दूर करने का प्रयास करे तो यह प्रकृति के नियम के विरुद्ध होने के कारण वह कल्याणकारी नहीं माना जायेगा वरन् वह दंड का भागीदार माना जायेगा।  इसलिये पराशक्तियों का उपयोग करना ईशनिंदा ही माना जायेगा क्योंकि यह प्रकृति के नियमों को चुनौती देकर उन्हें उदासीन करना ही कहलायेगा। पराशक्तियों के उपयोग से पानी पर चल सकते हैं, आग में चल सकते हैं, असाध्य बीमारियों को दूर कर सकते हैं, चमत्कार दिखा सकते हैं पर यह प्रकृति के स्थापित संवैधानिक नियमों की अवहेलना होगी और उस पराशक्ति के उपयोगकर्ता को कर्मफल भोगना ही पड़ेगा।

नन्दू- एक दिन राजू के पिता कह रहे थे कि उनके गुरुजी बहुत उच्च स्तर के हैं और वह जिस पर कृपा कर दें तो उसे मुक्ति मोक्ष तत्काल मिल जाता है, उसे कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं होती?

बाबा- कुछ लोग यह भ्रान्त धारणा पाल लेते हैं कि उनके गुरु तो पहुँचे हुए हैं, उनकी कृपा से वे मुक्त हो जायेंगे उन्हें साधना की क्या आवश्यकता? पर वे गलती करते हैं क्योंकि मुक्ति बिना प्रयास के नहीं मिल सकती। गुरु की कृपा के बिना मुक्ति नहीं मिल सकती परंतु यह बात भी सही है कि गुरुकृपा पाने की योग्यता भी तो होना चाहिये केवल तभी कृपा मिल सकती है। गुरु कृपा पाने के लिये ही शिष्य को , विश्वास  और भक्तिभाव से साधना करने के लिये गुरु सतत निर्देश  देते हैं।

इंदु- परंतु बाबा! भक्त गण हमेशा  दुखी ही देखे जाते हैं ,शायद इसीलिये लोग आध्यात्म से दूर ही रहना चाहते हैं?
बाबा- आध्यात्मिक साधना करने वाले भक्त अपने कर्मफलों को भोगने के लिये पुनः जन्म नहीं लेना चाहते अतः वे इसी जन्म में मुक्त होने की उत्कंठा से शेष बचे सभी संस्कारों के प्रभावों को शीघ्र ही इसी जन्म में भोग लेना चाहते हैं अतः यदि उन्हें साधना करने में समस्यायें/कष्ट आते हैं तो इसे शुभ संकेत माना जाना चाहिये क्यों कि यह उनके कर्मफल का भोग तेजी से ही हो रहा होता है।

चंदू- तो क्या साधना करने और अविद्या माया के जंजाल से बचने के लिये जंगल में जाना आवश्यक  है, क्योंकि यहाॅं तो साॅंसारिक लोग, कष्ट पा रहे साधकों पर व्यंग करते हुए हॅंसते ही है?

बाबा- अविद्या माया का अर्थ है अष्टपाश  और शडरिपुओं का समाहार, अतः अविद्यामाया से दूर भाग कर उससे बचा नहीं जा सकता। उससे बचने के लिये मन को सूक्ष्मता की ओर प्रत्यावर्तित करना पड़ता है। जैसे, किसी घाव के ऊपर मंडराने वाली मक्खियों को दूर भगाना ही पर्याप्त समाधान नहीं है घाव को भरने का भी प्रयत्न करना होगा। महान गुरु के द्वारा सिखाई गयी साधना की विधि घाव भरने वाली मरहम है इसी की सहायता से कोई भी अविद्या को दूर भगाकर मुक्त हो सकता है। अविद्यामाया के हटने पर साधना के समय आने वाले सभी व्यवधान समाप्त हो जाते हैं। चूंकि यही एकमात्र विधि है जो अविद्या को दूर करती है अतः घर में रहते हुए सरलता से की जा सकती हैं, भले अविद्या प्रारंभ में कुछ व्यवधान करे पर एक बार हार जाने के बाद वह आध्यात्म साघना में रुकावट नहीं डालती। घर में रहकर साधना करने में, उनकी तुलना में अधिक सुविधा होती है जो घर छोड़कर जंगल में जाकर अभ्यास करते हैं। सत्य की पहचान कर लेने पर लोगों की हॅंसी या व्यंग करने का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

रवि- बाबा! कुछ लोग किसी स्थान विशेष जैसे तीर्थ आदि, में जाकर साधना करने की सलाह देते हैं यह कितना उचित है?
बाबा- यह भेदभाव करना कि किसी स्थान विशेष पर साधना करने में सुविधा होती है या कोई स्थान साधना के लिये खराब है यह उचित नहीं है यह तो ब्रह्म को भागों में बाॅंटना हुआ। सभी कुछ तो ब्रह्म की ही रचना है अतः किसी को अच्छा या बुरा कहना ब्रह्म को ही अच्छा या बुरा कहना हुआ, इसप्रकार तो स्रष्टि की शेष रचनाओं के साथ एकत्व रख पाना कठिन होगा। ब्रह्म के लिये सभी स्थान एक से ही हैं अतः ब्रह्म साधना कहीं भी की जा सकती है। संसार को छोड़कर साधना के लिये जंगल या अन्य स्थान को जाना अतार्किक है और संसार के छूट जाने के भय से साधना न करना अविवेकपूर्ण है ।

Thursday 19 November 2015

33 परिग्रह


फटे वस्त्रों में जीर्ण देह को लपेटे, रोड के एक किनारे बैठे, ललचायी आॅंखों से प्रत्येक राहगीर को देख रहे व्यक्ति की ओर मैं अचानक ही कुछ मदद करने की इच्छा से जा पहुंचा। 
कुछ भी देने से पहले मैं ने उससे, उसकी इस दशा  के लिये कौन उत्तरदायी है यह जानना चाहा।
वह, बहुत गहराई में डूबी अपनी व्यथित हॅंसी को सप्रयास प्रकट करते हुए बोला, 
‘‘साहब! यदि घर में केवल एक दर्जन केले हों और खाने वाले दस लोग हों तो विवेकपूर्ण निर्णय क्या होगा ?‘‘
मैंने कहा, ‘‘ कम से कम एक केला प्रत्येक को ले लेना चाहिये और बचे हुए दो केलों को सर्वानुमति से उन्हें देना चाहिये जिन्हें सबसे अधिक भूख लगी हो‘‘
‘‘ परंतु, साहब! यदि सभी बारह केले एक ही व्यक्ति खा ले तो ? बाकी नौ लोग तो मेरे जैसे ही हो जायेंगे, है कि नहीं?‘‘
इस एक प्रश्न  के साथ जुड़ी लंबी आभासी प्रश्नावली  की आहट पा, मैं निरुत्तर हो गया।

Saturday 14 November 2015

32 बाबा की क्लास ( स्वर विज्ञान-2)

मित्रो! पिछली क्लास में आपने स्वरविज्ञान के उस वैज्ञानिक पक्ष को जाना जिसे प्राणायाम कहते हैं इस क्लास में स्वरविज्ञान के उस व्यावहारिक पक्ष पर चर्चा की जायेगी जो हमारे दैनिक जीवन के हर कार्य से संबंधित है।

32  बाबा की क्लास ( स्वर विज्ञान-2)
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चंदू - बाबा! साधारण और विशेष प्राणायाम में क्या अंतर है?

बाबा- साधारण प्राणायाम में निर्धारित विधि से श्वास को लेते हुए और छोड़ते हुए इष्टमंत्र के साथ लयबद्ध होना पड़ता है जबकि विशेष प्राणायाम में श्वास को निर्धारित विधि से लेना अर्थात् पूरक, रोकना अर्थात् कुंभक और छोड़ने अर्थात् रेचक का क्रम, रोग के अनुसार निर्धारित विंदु पर  मन को केन्द्रित करने और मंत्र के साथ लयबद्ध करना होता है।  

रवि- आपने कहा कि विशेष प्राणायाम विशेष प्रकार की बीमारियों को दूर करने के लिये किये जाते हैं, वे कौन कौन से हैं? क्या हम लोग भी उन्हें कर सकते हैं?

बाबा-  रवि! शायद तुम्हें ज्ञात होगा कि यह जगत परमसत्ता  की विचार तरंगें  अर्थात् ब्राह्मिक प्रवाह या cosmic flow है और जब इसका कोई इकाई अस्तित्व  अपने को उससे पृथक प्रवाह मानने लगता है तब उसका वैचारिक संसार ही अलग हो जाता है और सभी प्रकार के शारीरिक और मानसिक व्यतिक्रम  होने लगते हैं। विश्व  के सभी दर्शन  और उनके अनुयायी जितने भी प्रकार की पूजा या उपासना पद्धतियाॅं सिखाते हैं वे उसी ब्राह्मिक लय अर्थात् cosmic rhythm   जिसे उपनिषदों में ‘‘ओंकार ध्वनि" कहा गया है, के साथ लयबद्धता अर्थात् resonance करने के प्रयास ही होते हैं, यह अलग बात है कि पोंगा पंथियों ने इस यथार्थ को छिपाकर स्वार्थवश  अपना अपना व्यवसाय बना लिया है और अपने आप के साथ साथ सब को धोखा दे रहे हैं। उचित विधियों के द्वारा जब रोग प्रभावित व्यक्ति ब्राह्मिक प्रवाह के साथ लयबद्धता प्राप्त करने लगता है, वह संबंधित रोग से मुक्त होने लगता है । विशेष प्राणायाम  विशेषज्ञ के द्वारा ही सिखाये जाते है और वे उनकी उपस्थिति में केवल संबंधित जटिल रोगों के दूर करने के लिये ही रोगी द्वारा किये जाते हैं । स्पष्ट है कि उन्हें सभी को सीखने की आवश्यकता नहीं होती। तुम लोगों की जानकारी के  लिये उनके नाम बताये देता हॅूं जैसे, वस्तिकुंभक, शीतलीकुंभक, सीतकारीकुंभक, कर्कट प्राणायाम, पक्षबध प्राणायाम आदि। प्राणायाम, प्राणवायु को नियंत्रित करने की विधि है अतः नाड़ीजन्य, वातजन्य और अस्थिजन्य व्याधियों को दूर करने के लिये इन्हें प्रयुक्त किया जाता है। 

नन्दू- बाबा! स्वर विज्ञान के अनुसार हमें किस स्वर में कौन सा कार्य करने पर उत्साहवर्धक परिणाम प्राप्त होते हैं?

बाबा- सामान्यतः लोग स्वरशास्त्र के संबंध में कुछ नहीं जानते और अपनी श्वास  क्रिया पर उचित नियंत्रण करना भी नहीं जानते जबकि श्वसन क्रिया  का भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य से गहरा संबंध है। जैसे ,जब शरीर भौतिक कार्यों जैसे दौड़ना, चलना, भोजन आदि करता हो तो श्वास  दाॅंयी नासिका से प्रवाहित होना चाहिये। भोजन को सही ढंग से पचाने के लिये भोजन करने के आधा घंटा पहले , भोजन करने के  दौरान और भोजन करने के एक घंटा बाद तक दाॅंया स्वर ही चलना चाहिये।
इसके विपरीत मानसिक और मस्तिष्क संबंधी कार्य जैसे पढ़ना, याद करना, स्वाध्याय, ध्यान धारणा , प्रत्याहार , गुरुपूजा आदि कार्य वाॅंये स्वर में करना चाहिये। वैसे, वाॅयाॅं और दायाॅ दोनों स्वर एकसाथ चलने की दशा  भगवद् चिंतन और ध्यान के लिये सबसे अच्छे माने गये हैं परंतु दोनों स्वर एक साथ चलने का पता चल पाना कठिन होता है। 
स्वस्थ व्यक्ति का स्वर डेड़ से दो घंटे के बीच स्वाभाविक रूप से बदलता रहता  हैं। इस परिवर्तन के संबंध में उचित रूपसे जानकारी रखना बहुत जरूरी होता है क्यों कि दिनचर्या में परिवर्तन होने पर किसी विशेष काम के लिये उचित स्वर प्राप्त करना कठिन हो जाता है। इस परिस्थिति में कृत्रिम विधियों से अनुकूल स्वर को लाना होता है ।

रवि- बाबा! वह कृत्रिम विधि क्या है जिससे हम आवष्यकतानुसार स्वर पा सकते हैं?

बाबा-  आवश्यकतानुसार किसी कार्य के करने के समय यदि उचित स्वर नहीं चलता है और वह कार्य कर लिया जाता है तो अनेक प्रकार की मानसाध्यात्मिक समस्यायें  जन्म ले लेती हैं। इसलिये उचित कार्य हेतु उचित स्वर पाने के लिये कृत्रिम रूप से स्वर को लाना पड़ता है , जैसे भोजन करने के समय यदि वाॅंया स्वर चलता हो तो इस अवस्था में भोजन करने पर वह ठीक तरह से नहीं पचेगा अतः भोजन करने के पहले वाॅंये हाथ को सीधा फैलाये हुए वायीं करवट कुछ मिनट तक लेटे रहने पर स्वर दायाॅं चलने लगेगा, इसी प्रकार वाॅंया स्वर लाने के लिये दायाॅ हाथ फैलाये दायीं करवट कुछ मिनट लेटने पर वाॅयां स्वर प्राप्त हो जायेगा। 
श्वसन क्रिया पूर्णतः वैज्ञानिक है, जब इडा नाड़ी सक्रिय होती है तो स्वर वाॅंया और जब पिंगला नाड़ी सक्रिय होती है तो स्वर दायां  चलता है। जब सुषुम्ना नाड़ी सक्रिय होती है तब दोनों स्वर चलते हैं। इस प्रकार ये नाडि़याॅं मानव शरीर की मानसिक और आध्यात्मिक क्रियाशीलता को गहराई से प्रभावित करती हैं।

चंदू- सोने के लिये सबसे अच्छी स्थिति क्या है?

बाबा- सोते समय पाचन प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है अतः स्पष्ट है कि उसकी सक्रियता बढ़ाने के लिये श्वास दाॅंयी नासिका से चलना चाहिये , यह तभी होगा जब आप वाॅंयी करवट से सोयेंगे। पीठ के बल सोना बुरा है और उससे भी बुरा है दायीं करवट से सोना, और सबसे बुरा है पेट के बल सोना, इसलिये इन बातों का ध्यान रखना चाहिये।

नन्दू- इसके अलावा दैनिक जीवन के वे कौन से कार्य हैं जहाॅं स्वर का ध्यान रखना चाहिये?

बाबा- उपवास का  दिन भगवद् चिंतन के लिये सबसे उपयुक्त दिन होता  हैं परंतु नवाभ्यासी के लिये भूख लगना स्वाभाविक बाधा खड़ी करता है  अतः स्वर को बदल कर भूख पर नियंत्रण पाया जा सकता है जैसे, उपवास के दिन जब भी भूख लगे दायीं करवट से लेट जाने पर पाॅंच दस मिनट में ही वाॅया स्वर चलने लगेगा और भूख लगने का आभास नहीं होगा।  
- अजीर्ण होने पर अधिक दर्द होने की स्थिति में जिस स्वर से श्वास  चल रही हो उसी करवट लेट जाने पर श्वास  कुछ मिनट में बदल जायेगी और दर्द दूर हो जायेगा।
- योगासन करने के समय या तो वाॅंये या दोनों स्वर चलना चाहिये परंतु दायें स्वर के चलने पर योगासन नहीं करना चाहिये। किंतु भुजंगासन, पद्मासन, वीरासन, सिद्धासन , दीर्घप्रणाम आदि आसन करते समय स्वर पर ध्यान देना आवश्यक  नहीं है। 
- सधना करते समय यदि मन यहाॅं वहाॅं भागता है तो पता करें कि कौन सा स्वर चल रहा है और दाॅंयीं ओर कुछ मिनट लेटकर उसे वाॅंये स्वर में बदल जाने पर फिर से साधना में बैठ जायें मन लगने लगेगा।

Monday 9 November 2015

31 बाबा की क्लास (स्वर विज्ञान-1)

31 बाबा  की क्लास (स्वर विज्ञान-1)
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नन्दू- बाबा! आज हमें स्कूल में योगशिक्षक ने प्राणायाम सिखाया।

चंदू- कैसे?

नन्दू-  एक ओर से साॅंस को रोककर दूसरी ओर से लेना और दूसरी ओर से साॅंस बाहर करना और फिर से उसी ओर लेते हुए दूसरी ओर छोड़ना।

बाबा- और क्या बताया?

नन्दू- बस, इसी का अभ्यास कराते रहे।

बाबा- यह तो अधूरा ज्ञान है, इससे तो यह करने वालों को लाभ के स्थान पर हानि हो सकती है। चलो ,आज हम लोग इसी पर चर्चा करते हैं ध्यान से सुनकर याद रखना। भगवान शिव ने सबसे पहले यह अवलोकन किया कि हमारा जीवन श्वास की आवृत्तियों से बंधा हुआ है। ये प्रतिदिन 21000 से 25000 तक होती हैं जो व्यक्ति व्यक्ति में बदलती रहती हैं। मनुष्य की श्वास लेने की पद्धति, मन, बुद्धि और आत्मा पर प्रभाव डालती है। इडा, पिंगला, और सुषुम्ना स्वरों की पहचान करना और किस स्वर में किस कार्य को करना चाहिये , आसन प्राणायाम धारणा ध्यान आदि कब करना चाहिये यह सब स्वरविज्ञान या स्वरोदय कहलाता है। शिव से पहले यह किसी को ज्ञात नहीं था, बद्ध कुंभक, शून्य कुंभक आदि भी इसी के प्रकार हैं। उन्होंने बताया कि जब इडानाड़ी सक्रिय होती है तो वायां स्वर, जब पिंग़लानाड़ी सक्रिय होती है तो दायां स्वर और सुषुम्नानाड़ी के सक्रिय होने पर दोनों नासिकाओं से स्वर चलते हैं। ये स्वर निर्धारित समयान्तर में स्वाभावतः बदलते रहते हैं परंतु इन्हें इच्छानुसार बदला भी जा सकता है।

रवि- बाबा! हमें यह क्यों सीखना चाहिये क्या इन स्वरों का मन और शरीर पर भी कोई प्रभाव पड़ता है?

बाबा- हाॅं रवि! वास्तव में प्राणायाम की सही क्रिया का अभ्यास करने से मन को नियंत्रित किया जा सकता है और जब मन नियंत्रित हो जाता है तो जीवन में सब कुछ नियंत्रित हो जाता है। शास्त्र कहते हैं ‘‘ इन्द्रियाणाॅं मनो नाथः मनोनाथस्तु मारुतः‘‘ अर्थात् इन्द्रियों का स्वामी मन है और मन का स्वामी मारुत अर्थात् वायु। इसीलिये मानव मन और आत्मा पर श्वास लेने का बहुत प्रभाव पड़ता है। जैसे, जब कोई व्यक्ति दौड़ता है तो उसकी श्वास  तत्काल तेज हो जाती है अतः उसकी ज्ञानेद्रियाॅं  जैसे , जीभ , नाक आदि उचित ढंग से कार्य नहीं कर पाती और उसके सोचने विचारने का अववोध असंतुलित हो जाता है। इतना ही नहीं उसकी श्वास किस ओर से चल रही है (अर्थात् दायीं नासिका से या वाॅंयीं से या दोनों से) इसका भी बहुत प्रभाव पड़ता है । सामान्य रूप से श्वास लेते हुए यदि कोई भारी वजन उठाता है तो कठिनाई होती है जबकि श्वास रोककर भारी वजन उठाने में सरलता होती है और श्वास  के पूरी तरह बाहर होते हुए वजन उठाना मौत को आमंत्रित करने जैसा ही है।श्वास  के संबंध में रहस्यमय ज्ञान प्राप्त करने का क्षेत्र स्वर विज्ञान के अंतर्गत आता है।

चंदू- लेकिन बाबा! हम तो प्राणायाम की चर्चा कर रहे थे, वह सही सही क्या है ओर योग में उसका क्या महत्व है?

बाबा- स्वाभाविक श्वा पर नियंत्रण करने का कार्य अष्टाॅंग योग में अनिवार्य घटक माना गया है, संस्कृत में इसे प्राणायाम कहते हैं। वह विधि जिससे प्राण (vital force) अर्थात् प्राण के दसों प्रकार प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, क्रकर, देवदत्त और धनन्जय, इन सब पर नियंत्रण किया जाता है प्राणायाम कहलाती है। यदि आप हर प्रकार के ज्ञान को आत्मसात कर पाने की अपनी षक्ति को बढ़ाना चाहते हैं तो प्राणों को अधिकतम विस्थापन अर्थात् आयाम(amplitude ) देने की यह वैज्ञानिक विधि सीखना चाहिये जिससे मन को एक विंदु पर केन्द्रित करना सरल हो जाता है। यह शरीर के अनेक रोगों को दूर करने के भी काम आता है , परंतु किसी भी प्रकार के प्राणायाम को बिना उचित मार्गदर्शक के करना वर्जित है। प्राणायाम को  साधारण, सहज, विशेष और अन्तः इन चार प्रकारों में विभाजित किया गया है ।

रवि- प्राणायाम की सही विधि क्या है?
बाबा- साधारण प्राणायाम की विधि में आॅंखें बंद कर सिद्धासन या पद्मासन में बैठकर आसनशुद्धि करने के बाद मन को योग के आचार्य के द्वारा बताये गये विंदु पर स्थिर करके चित्तशुद्धि करने के बाद अपने इष्ट मंत्र के पहले अक्षर पर चिंतन करते हुए दाॅंये हाथ के अंगूठे से दायीं नासिका को दबाये हुए वाॅंयी नासिका से धीरे धीरे गहरीश्वा भीतर खींचना चाहिये और इस समय सोचना चाहिये कि अनन्त ब्रह्म जो हमारे चारों ओर है उसके किसी विंदु से अनन्त जीवनीशक्ति भीतर प्रवेश  कर रही है। पूर्ण श्वा भर जाने के बाद वाॅंयीं नासिका को मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठा अंगुली से बंद करते हुए दाॅयीं नासिका से अंगूठे को हटा कर श्वास  को धीरे धीरे बाहर करते हुए सोचना चाहिये कि अनन्त जीवनीशक्ति अनन्त ब्रह्म में वापस जा रही है और साथ साथ अपने इष्ट मंत्र के दूसरे अक्षर पर चिंतन करते रहना चाहिये। यह ध्यान रखना चाहिये कि  श्वास लेते हुए या छोड़ते हुए आवाज न हो । पूरी श्वास  निकल जाने के बाद अब दाॅयीं नासिका से धीरे धीरे पूरी श्वा लेते हुए उसी प्रकार चिंतन करते हुए अंगूठे को उसी प्रकार दबा कर अंगुलियों को हटाकर श्वास  को पूर्णतः बाहर कर देना चाहिये । यह एक प्राणायाम हुआ। 

चंदू- तो क्या इसकी न्यूनतम और अधिकतम संख्या निर्धारित है?

बाबा- हाॅं, एक सप्ताह तक केवल तीन प्राणायाम दोनों समय करना चाहिये, फिर प्रति सत्ताह एक एक की वृद्धि करते हुए अधिकतम सात प्राणायाम करने की सलाह दी जाती है। प्राणायाम को एक दिन में अधिकतम चार बार तक किया जा सकता है। जो नियमित रूप से दो बार प्राणायाम कर रहे हों और किसी दिन वे तीनबार करना चाहते हैं तो कर सकते हैं पर उन्हें अचानक चार बार प्राणायाम नहीं करना चाहिये । इसलिये उचित यही है कि पहले पहले दोनों समय तीन और फिर एक सप्ताह बाद क्रमशः  एक एक बढ़ाते हुए अधिकतम सात की संख्या तक ही करना चाहिये। फिर भी कोई यदि किसी दिन निर्धारित संख्या में प्राणायाम नहीं कर पाया हो तो सप्ताह के अंत में उतनी संख्या बार प्राणायाम करके क्षतिपूर्ति कर लेना चाहिये। यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि धूल, धुएं और दुर्गंध से दूर रहें तथा अधिक शारीरिक श्रम न करें। इसका अभ्यास प्रारंभ करने के समय प्रथम दो माह तक पर्याप्त मात्रा में दूध और उससे बनी सामग्री का उपयोग भोजन में करना चाहिये।

नन्दू- लेकिन बाबा! आपने तो इसे बहुत ही कठिन कर दिया क्योंकि जब तक भूतशुद्धि, चित्तशुद्धि, इष्टमंत्र आदि का ज्ञान न हो तब तक कोई इसे विधि विधान से सही सही कैसे कर सकता है?

बाबा- तुम सही कहते हो, इसीलिये तो मैंने कहा था कि नन्दू के स्कूल में जो सिखाया गया है वह अपूर्ण है। भूतशुद्धि में मन को बाहरी संसार से कैसे हटाना, चित्तशुद्धि में बाहर से हटाये गये मन को कैसे  उचित शुद्ध आसन पर बिठाना आदि सिखाया जाता है , इष्ट मंत्र प्रत्येक व्यक्ति का अलग अलग होता है । यह सब योग विद्याताॅंत्रिक कौलगुरु ही सिखा सकते हैं। अन्य विशेष प्रकार के प्राणायाम,  विशेष प्रकार की बीमारियों को दूर करने के लिये प्रयुक्त किये जाते हैं। 



Sunday 1 November 2015

30 बाबा की क्लास (तर्क ऋषि )

30 बाबा की क्लास (तर्क ऋषि )
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रवि-  बाबा! आज राजू नहीं आयेगा, वह अपनी माॅं के साथ ‘‘ हरसिद्धि देवी‘‘ के मंदिर के पुजारी के कहने पर कुछ अनुष्ठान करने गया है। वह कह रहा था कि इससे,  उसके परिवार पर आई वाधायें दूर हो जायेंगी।

चंदू- बाबा! ये हरसिद्धि देवी कौन हैं? ये किससे संबंधित हैं? 

बाबा- तुम लोगों को मैं ने पिछली बार बताया था कि सभी देवी देवता पौराणिक काल में ही कल्पित किये गये हैं जिनका आधार तथाकथित पंडितों का स्वार्थ है। सभी काल्पनिक देवी देवताओं को महत्व और मान्यता मिलती रहे इसलिये सभी का किसी न किसी प्रकार शिव से संबंध जोड़ दिया गया है। तुम लोग जानते हो कि भगवान सदाशिव सात हजार वर्ष पहले धरती पर आये थे जबकि यह देवी देवता तेरह सौ वर्ष पहले ही कल्पित किये गये हैं अतः शिव से उनका संबंध किस प्रकार जोड़ा जा सकता है? पर तथाकथित पंडित लोग इस तर्क को सुनना ही नहीं चाहते।

नन्दू- बाबा! लेकिन पंडितों को यह कल्पनायें करने की क्या आवश्यकता हुई?

बाबा-अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये और समाज में वर्चस्व बनाये रखने के लिये। सभी मतों के तथाकथित विद्वान पंडितों ने संसार भर के विभिन्न समाजों को शोषण करने के लिये नये नये तरीके खोज रखे हैं और खोजते जा रहे हैं। कहीं कहीं उन्होंने लोगों को दिव्य स्वर्ग से ललचाया है तो उसी के साथ नर्क का भय दिखाकर उनको धमकाया भी है। किसी विशेष पंडित की विचारधारा को ‘भगवान के शब्द‘ कहकर जनसामान्य की स्वाभाविक अभिव्यक्तियों को सीमित कर दिया है और उन्हें बौद्धिक रूप से दिवालिया बना डाला है ।

रवि- कुछ मतों में तो पंडित नेताओं ने जनसामान्य की द्रष्टि में स्वयं को सदैव मन की उच्चतम दशा  में रहने का स्थायी प्रभाव जमा कर अपने को भगवान का अवतार या भगवान के द्वारा नियुक्त संदेशवाहक घोषित कर दिया है।

बाबा- इतना ही नहीं रवि! उन्होंने अपने तथाकथित धर्मशास्त्रों के द्वारा परोक्ष रूप में लोगों को यह समझा दिया कि उनके समान ईश्वर  के निकट और कोई नहीं है, जिससे सामान्य लोगों के मन में हीनता का वोध सदा ही बना रहे और  वे चाहे भय से हो या भक्ति से, उनकी शिक्षाओं को मानते रहें। यही कारण है कि बुद्धिमान लोग भी उनके इस फंदे में फंस गये और यह कहने को विवश  हो गये हैं कि ‘‘विश्वासे  मिले वस्तु तर्के बहुदूर...‘‘ ... अर्थात् वस्तु की प्राप्ति विश्वास  से होती है न कि तर्क से अथवा यह कि ‘‘मजहब में अकल का दखल नहीं है‘‘ ।

चंदू- अर्थात् विश्वास  करने से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती ? फिर यह क्यों कहा गया है कि ‘‘विश्वासम्  फलदायकम् ?

बाबा- तर्क और विवेकपूर्ण आधार पर प्राप्त किये गये निष्कर्ष ही  विश्वसनीय  होते हैं तर्कविहीन आधार पर किया गया विश्वास  तो अंधविश्वास  ही कहा जाता है परंतु अनेक मतों के धुरंधर अपनी बात के सामने अन्य किसी तर्क वितर्क को धर्म विरुद्ध कहकर भयभीत करते हैं और जनसामान्य को मनोवैज्ञानिक ढंग से शोषित करते हैं। निरुक्तकार (etymologists ) अर्थात् शाब्दिक व्युत्पत्ति के विद्वान इसे इस प्रकार समझाते हैं- ‘‘ जब धीरे धीरे ज्ञानवान ऋषियों की संख्या घटने लगी तो विद्वान जिज्ञासुओं ने परस्पर विवेचना की, कि जब सभी ऋषिगण उत्क्रमण कर जायेंगे तो हमारा मार्गदर्शन  कौन करेगा? इस पर यही निष्कर्ष निकला कि ‘तर्क ऋषि ‘ हमारा मार्गदर्शन  करेगा।
‘‘(मनुष्या वा ऋषिषूत्क्रामत्सु देवानुब्रवन् को न ऋषिर्भवतीति। .....  तेभ्यं एतं तर्कऋषिं प्रायच्छन् ... ...।)‘‘

रवि- ‘‘ विज्ञान‘‘ में तर्क और विवेक का सहारा लेकर ही नये नये अनुसंधान किये जाते हैं और उनमें सदैव नयेपन का स्वागत किया जाता है यही कारण है कि बहुत कम समय में विज्ञान ने विश्व  पर अपना प्रभुत्व जमा लिया है जबकि पूर्वोक्त अतार्किक शिक्षाओं के बढ़ते जाने के कारण आध्यात्म जैसा उत्कृष्ट क्षेत्र केवल आडम्बर ओढ़ कर रह गया है।

बाबा- रवि तुमने  विल्कुल सही कहा है। हमारे पूर्व मनीषियों ने यही निर्धारित किया है जैसा कि ऊपर श्लोक  में बताया गया है, परंतु स्वार्थ और लोभ के वशीभूत होकर तथाकथित पंडितगण यह हथकंडे अपनाते हैं और तर्क करने वालों को पास नहीं फटकने देते या स्वयं ही उनसे दूर रहते हैं। श्रुतियों का ही कथन है ‘‘यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्मं वेद नापरः‘‘ अर्थात् जो तर्क से वेदार्थ का अनुसन्धान करता है वही धर्म को जानता है दूसरा नहीं। स्पष्ट है कि  तर्क से विश्लेषण  करते हुए निश्चित  किया हुआ अर्थ ही ऋषियों के अनुकूल होगा। इसलिये विना सोचे विचारे, अतार्किक और अवैज्ञानिक तथ्यों को स्वीकार नहीं करना चाहिये , तुम लोग राजू को यह समझा देना।