Monday 9 November 2015

31 बाबा की क्लास (स्वर विज्ञान-1)

31 बाबा  की क्लास (स्वर विज्ञान-1)
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नन्दू- बाबा! आज हमें स्कूल में योगशिक्षक ने प्राणायाम सिखाया।

चंदू- कैसे?

नन्दू-  एक ओर से साॅंस को रोककर दूसरी ओर से लेना और दूसरी ओर से साॅंस बाहर करना और फिर से उसी ओर लेते हुए दूसरी ओर छोड़ना।

बाबा- और क्या बताया?

नन्दू- बस, इसी का अभ्यास कराते रहे।

बाबा- यह तो अधूरा ज्ञान है, इससे तो यह करने वालों को लाभ के स्थान पर हानि हो सकती है। चलो ,आज हम लोग इसी पर चर्चा करते हैं ध्यान से सुनकर याद रखना। भगवान शिव ने सबसे पहले यह अवलोकन किया कि हमारा जीवन श्वास की आवृत्तियों से बंधा हुआ है। ये प्रतिदिन 21000 से 25000 तक होती हैं जो व्यक्ति व्यक्ति में बदलती रहती हैं। मनुष्य की श्वास लेने की पद्धति, मन, बुद्धि और आत्मा पर प्रभाव डालती है। इडा, पिंगला, और सुषुम्ना स्वरों की पहचान करना और किस स्वर में किस कार्य को करना चाहिये , आसन प्राणायाम धारणा ध्यान आदि कब करना चाहिये यह सब स्वरविज्ञान या स्वरोदय कहलाता है। शिव से पहले यह किसी को ज्ञात नहीं था, बद्ध कुंभक, शून्य कुंभक आदि भी इसी के प्रकार हैं। उन्होंने बताया कि जब इडानाड़ी सक्रिय होती है तो वायां स्वर, जब पिंग़लानाड़ी सक्रिय होती है तो दायां स्वर और सुषुम्नानाड़ी के सक्रिय होने पर दोनों नासिकाओं से स्वर चलते हैं। ये स्वर निर्धारित समयान्तर में स्वाभावतः बदलते रहते हैं परंतु इन्हें इच्छानुसार बदला भी जा सकता है।

रवि- बाबा! हमें यह क्यों सीखना चाहिये क्या इन स्वरों का मन और शरीर पर भी कोई प्रभाव पड़ता है?

बाबा- हाॅं रवि! वास्तव में प्राणायाम की सही क्रिया का अभ्यास करने से मन को नियंत्रित किया जा सकता है और जब मन नियंत्रित हो जाता है तो जीवन में सब कुछ नियंत्रित हो जाता है। शास्त्र कहते हैं ‘‘ इन्द्रियाणाॅं मनो नाथः मनोनाथस्तु मारुतः‘‘ अर्थात् इन्द्रियों का स्वामी मन है और मन का स्वामी मारुत अर्थात् वायु। इसीलिये मानव मन और आत्मा पर श्वास लेने का बहुत प्रभाव पड़ता है। जैसे, जब कोई व्यक्ति दौड़ता है तो उसकी श्वास  तत्काल तेज हो जाती है अतः उसकी ज्ञानेद्रियाॅं  जैसे , जीभ , नाक आदि उचित ढंग से कार्य नहीं कर पाती और उसके सोचने विचारने का अववोध असंतुलित हो जाता है। इतना ही नहीं उसकी श्वास किस ओर से चल रही है (अर्थात् दायीं नासिका से या वाॅंयीं से या दोनों से) इसका भी बहुत प्रभाव पड़ता है । सामान्य रूप से श्वास लेते हुए यदि कोई भारी वजन उठाता है तो कठिनाई होती है जबकि श्वास रोककर भारी वजन उठाने में सरलता होती है और श्वास  के पूरी तरह बाहर होते हुए वजन उठाना मौत को आमंत्रित करने जैसा ही है।श्वास  के संबंध में रहस्यमय ज्ञान प्राप्त करने का क्षेत्र स्वर विज्ञान के अंतर्गत आता है।

चंदू- लेकिन बाबा! हम तो प्राणायाम की चर्चा कर रहे थे, वह सही सही क्या है ओर योग में उसका क्या महत्व है?

बाबा- स्वाभाविक श्वा पर नियंत्रण करने का कार्य अष्टाॅंग योग में अनिवार्य घटक माना गया है, संस्कृत में इसे प्राणायाम कहते हैं। वह विधि जिससे प्राण (vital force) अर्थात् प्राण के दसों प्रकार प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, क्रकर, देवदत्त और धनन्जय, इन सब पर नियंत्रण किया जाता है प्राणायाम कहलाती है। यदि आप हर प्रकार के ज्ञान को आत्मसात कर पाने की अपनी षक्ति को बढ़ाना चाहते हैं तो प्राणों को अधिकतम विस्थापन अर्थात् आयाम(amplitude ) देने की यह वैज्ञानिक विधि सीखना चाहिये जिससे मन को एक विंदु पर केन्द्रित करना सरल हो जाता है। यह शरीर के अनेक रोगों को दूर करने के भी काम आता है , परंतु किसी भी प्रकार के प्राणायाम को बिना उचित मार्गदर्शक के करना वर्जित है। प्राणायाम को  साधारण, सहज, विशेष और अन्तः इन चार प्रकारों में विभाजित किया गया है ।

रवि- प्राणायाम की सही विधि क्या है?
बाबा- साधारण प्राणायाम की विधि में आॅंखें बंद कर सिद्धासन या पद्मासन में बैठकर आसनशुद्धि करने के बाद मन को योग के आचार्य के द्वारा बताये गये विंदु पर स्थिर करके चित्तशुद्धि करने के बाद अपने इष्ट मंत्र के पहले अक्षर पर चिंतन करते हुए दाॅंये हाथ के अंगूठे से दायीं नासिका को दबाये हुए वाॅंयी नासिका से धीरे धीरे गहरीश्वा भीतर खींचना चाहिये और इस समय सोचना चाहिये कि अनन्त ब्रह्म जो हमारे चारों ओर है उसके किसी विंदु से अनन्त जीवनीशक्ति भीतर प्रवेश  कर रही है। पूर्ण श्वा भर जाने के बाद वाॅंयीं नासिका को मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठा अंगुली से बंद करते हुए दाॅयीं नासिका से अंगूठे को हटा कर श्वास  को धीरे धीरे बाहर करते हुए सोचना चाहिये कि अनन्त जीवनीशक्ति अनन्त ब्रह्म में वापस जा रही है और साथ साथ अपने इष्ट मंत्र के दूसरे अक्षर पर चिंतन करते रहना चाहिये। यह ध्यान रखना चाहिये कि  श्वास लेते हुए या छोड़ते हुए आवाज न हो । पूरी श्वास  निकल जाने के बाद अब दाॅयीं नासिका से धीरे धीरे पूरी श्वा लेते हुए उसी प्रकार चिंतन करते हुए अंगूठे को उसी प्रकार दबा कर अंगुलियों को हटाकर श्वास  को पूर्णतः बाहर कर देना चाहिये । यह एक प्राणायाम हुआ। 

चंदू- तो क्या इसकी न्यूनतम और अधिकतम संख्या निर्धारित है?

बाबा- हाॅं, एक सप्ताह तक केवल तीन प्राणायाम दोनों समय करना चाहिये, फिर प्रति सत्ताह एक एक की वृद्धि करते हुए अधिकतम सात प्राणायाम करने की सलाह दी जाती है। प्राणायाम को एक दिन में अधिकतम चार बार तक किया जा सकता है। जो नियमित रूप से दो बार प्राणायाम कर रहे हों और किसी दिन वे तीनबार करना चाहते हैं तो कर सकते हैं पर उन्हें अचानक चार बार प्राणायाम नहीं करना चाहिये । इसलिये उचित यही है कि पहले पहले दोनों समय तीन और फिर एक सप्ताह बाद क्रमशः  एक एक बढ़ाते हुए अधिकतम सात की संख्या तक ही करना चाहिये। फिर भी कोई यदि किसी दिन निर्धारित संख्या में प्राणायाम नहीं कर पाया हो तो सप्ताह के अंत में उतनी संख्या बार प्राणायाम करके क्षतिपूर्ति कर लेना चाहिये। यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि धूल, धुएं और दुर्गंध से दूर रहें तथा अधिक शारीरिक श्रम न करें। इसका अभ्यास प्रारंभ करने के समय प्रथम दो माह तक पर्याप्त मात्रा में दूध और उससे बनी सामग्री का उपयोग भोजन में करना चाहिये।

नन्दू- लेकिन बाबा! आपने तो इसे बहुत ही कठिन कर दिया क्योंकि जब तक भूतशुद्धि, चित्तशुद्धि, इष्टमंत्र आदि का ज्ञान न हो तब तक कोई इसे विधि विधान से सही सही कैसे कर सकता है?

बाबा- तुम सही कहते हो, इसीलिये तो मैंने कहा था कि नन्दू के स्कूल में जो सिखाया गया है वह अपूर्ण है। भूतशुद्धि में मन को बाहरी संसार से कैसे हटाना, चित्तशुद्धि में बाहर से हटाये गये मन को कैसे  उचित शुद्ध आसन पर बिठाना आदि सिखाया जाता है , इष्ट मंत्र प्रत्येक व्यक्ति का अलग अलग होता है । यह सब योग विद्याताॅंत्रिक कौलगुरु ही सिखा सकते हैं। अन्य विशेष प्रकार के प्राणायाम,  विशेष प्रकार की बीमारियों को दूर करने के लिये प्रयुक्त किये जाते हैं। 



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