Sunday, 1 November 2015

30 बाबा की क्लास (तर्क ऋषि )

30 बाबा की क्लास (तर्क ऋषि )
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रवि-  बाबा! आज राजू नहीं आयेगा, वह अपनी माॅं के साथ ‘‘ हरसिद्धि देवी‘‘ के मंदिर के पुजारी के कहने पर कुछ अनुष्ठान करने गया है। वह कह रहा था कि इससे,  उसके परिवार पर आई वाधायें दूर हो जायेंगी।

चंदू- बाबा! ये हरसिद्धि देवी कौन हैं? ये किससे संबंधित हैं? 

बाबा- तुम लोगों को मैं ने पिछली बार बताया था कि सभी देवी देवता पौराणिक काल में ही कल्पित किये गये हैं जिनका आधार तथाकथित पंडितों का स्वार्थ है। सभी काल्पनिक देवी देवताओं को महत्व और मान्यता मिलती रहे इसलिये सभी का किसी न किसी प्रकार शिव से संबंध जोड़ दिया गया है। तुम लोग जानते हो कि भगवान सदाशिव सात हजार वर्ष पहले धरती पर आये थे जबकि यह देवी देवता तेरह सौ वर्ष पहले ही कल्पित किये गये हैं अतः शिव से उनका संबंध किस प्रकार जोड़ा जा सकता है? पर तथाकथित पंडित लोग इस तर्क को सुनना ही नहीं चाहते।

नन्दू- बाबा! लेकिन पंडितों को यह कल्पनायें करने की क्या आवश्यकता हुई?

बाबा-अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये और समाज में वर्चस्व बनाये रखने के लिये। सभी मतों के तथाकथित विद्वान पंडितों ने संसार भर के विभिन्न समाजों को शोषण करने के लिये नये नये तरीके खोज रखे हैं और खोजते जा रहे हैं। कहीं कहीं उन्होंने लोगों को दिव्य स्वर्ग से ललचाया है तो उसी के साथ नर्क का भय दिखाकर उनको धमकाया भी है। किसी विशेष पंडित की विचारधारा को ‘भगवान के शब्द‘ कहकर जनसामान्य की स्वाभाविक अभिव्यक्तियों को सीमित कर दिया है और उन्हें बौद्धिक रूप से दिवालिया बना डाला है ।

रवि- कुछ मतों में तो पंडित नेताओं ने जनसामान्य की द्रष्टि में स्वयं को सदैव मन की उच्चतम दशा  में रहने का स्थायी प्रभाव जमा कर अपने को भगवान का अवतार या भगवान के द्वारा नियुक्त संदेशवाहक घोषित कर दिया है।

बाबा- इतना ही नहीं रवि! उन्होंने अपने तथाकथित धर्मशास्त्रों के द्वारा परोक्ष रूप में लोगों को यह समझा दिया कि उनके समान ईश्वर  के निकट और कोई नहीं है, जिससे सामान्य लोगों के मन में हीनता का वोध सदा ही बना रहे और  वे चाहे भय से हो या भक्ति से, उनकी शिक्षाओं को मानते रहें। यही कारण है कि बुद्धिमान लोग भी उनके इस फंदे में फंस गये और यह कहने को विवश  हो गये हैं कि ‘‘विश्वासे  मिले वस्तु तर्के बहुदूर...‘‘ ... अर्थात् वस्तु की प्राप्ति विश्वास  से होती है न कि तर्क से अथवा यह कि ‘‘मजहब में अकल का दखल नहीं है‘‘ ।

चंदू- अर्थात् विश्वास  करने से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती ? फिर यह क्यों कहा गया है कि ‘‘विश्वासम्  फलदायकम् ?

बाबा- तर्क और विवेकपूर्ण आधार पर प्राप्त किये गये निष्कर्ष ही  विश्वसनीय  होते हैं तर्कविहीन आधार पर किया गया विश्वास  तो अंधविश्वास  ही कहा जाता है परंतु अनेक मतों के धुरंधर अपनी बात के सामने अन्य किसी तर्क वितर्क को धर्म विरुद्ध कहकर भयभीत करते हैं और जनसामान्य को मनोवैज्ञानिक ढंग से शोषित करते हैं। निरुक्तकार (etymologists ) अर्थात् शाब्दिक व्युत्पत्ति के विद्वान इसे इस प्रकार समझाते हैं- ‘‘ जब धीरे धीरे ज्ञानवान ऋषियों की संख्या घटने लगी तो विद्वान जिज्ञासुओं ने परस्पर विवेचना की, कि जब सभी ऋषिगण उत्क्रमण कर जायेंगे तो हमारा मार्गदर्शन  कौन करेगा? इस पर यही निष्कर्ष निकला कि ‘तर्क ऋषि ‘ हमारा मार्गदर्शन  करेगा।
‘‘(मनुष्या वा ऋषिषूत्क्रामत्सु देवानुब्रवन् को न ऋषिर्भवतीति। .....  तेभ्यं एतं तर्कऋषिं प्रायच्छन् ... ...।)‘‘

रवि- ‘‘ विज्ञान‘‘ में तर्क और विवेक का सहारा लेकर ही नये नये अनुसंधान किये जाते हैं और उनमें सदैव नयेपन का स्वागत किया जाता है यही कारण है कि बहुत कम समय में विज्ञान ने विश्व  पर अपना प्रभुत्व जमा लिया है जबकि पूर्वोक्त अतार्किक शिक्षाओं के बढ़ते जाने के कारण आध्यात्म जैसा उत्कृष्ट क्षेत्र केवल आडम्बर ओढ़ कर रह गया है।

बाबा- रवि तुमने  विल्कुल सही कहा है। हमारे पूर्व मनीषियों ने यही निर्धारित किया है जैसा कि ऊपर श्लोक  में बताया गया है, परंतु स्वार्थ और लोभ के वशीभूत होकर तथाकथित पंडितगण यह हथकंडे अपनाते हैं और तर्क करने वालों को पास नहीं फटकने देते या स्वयं ही उनसे दूर रहते हैं। श्रुतियों का ही कथन है ‘‘यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्मं वेद नापरः‘‘ अर्थात् जो तर्क से वेदार्थ का अनुसन्धान करता है वही धर्म को जानता है दूसरा नहीं। स्पष्ट है कि  तर्क से विश्लेषण  करते हुए निश्चित  किया हुआ अर्थ ही ऋषियों के अनुकूल होगा। इसलिये विना सोचे विचारे, अतार्किक और अवैज्ञानिक तथ्यों को स्वीकार नहीं करना चाहिये , तुम लोग राजू को यह समझा देना।

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